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वर्तमान विश्व की स्थिति का आकलन करने के लिये हमें बहुत प्राचीन सन्दर्भो तक जाने की आवश्यकता नहीं है। विगत पाँच सौ वर्षों की विश्व की विशेष रूप से यूरोप की गतिविधियों पर दृष्टिपात करने से वर्तमान स्थिति तक पहुँचने के कारणों का पता चल जायेगा।
 
वर्तमान विश्व की स्थिति का आकलन करने के लिये हमें बहुत प्राचीन सन्दर्भो तक जाने की आवश्यकता नहीं है। विगत पाँच सौ वर्षों की विश्व की विशेष रूप से यूरोप की गतिविधियों पर दृष्टिपात करने से वर्तमान स्थिति तक पहुँचने के कारणों का पता चल जायेगा।
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पाँच सौ वर्ष पूर्व यूरोप के देशों ने विश्वप्रवास करना शुरू किया। नये नये भूभागों को खोजने और देखने की जिज्ञासा, समुद्र में सफर करने का साहस, नये अनुभवों की चाह आदि अच्छी बातों की प्रेरणा उसमें होगी यह मान्य करने के बाद भी समृद्धि प्राप्त करने की और साम्राज्य स्थापित करने की ललक मुख्य प्रेरक तत्त्व था यह भी मानना ही पडेगा।
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पाँच सौ वर्ष पूर्व यूरोप के देशों ने विश्वप्रवास करना आरम्भ किया। नये नये भूभागों को खोजने और देखने की जिज्ञासा, समुद्र में सफर करने का साहस, नये अनुभवों की चाह आदि अच्छी बातों की प्रेरणा उसमें होगी यह मान्य करने के बाद भी समृद्धि प्राप्त करने की और साम्राज्य स्थापित करने की ललक मुख्य प्रेरक तत्त्व था यह भी मानना ही पड़ेगा।
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पन्द्रहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में यूरोप के विभिन्न देशों के यात्रियों ने अमेरिका, आफ्रिका और एशिया के देशों में जाना शुरू किया। अब तो यह प्रसिद्ध घटना है कि भारत आने के लिये निकला हुआ कोलम्बस भारत पहुँचा ही नहीं । भारत के स्थान पर वर्तमान अमेरिका पहुँचा । अपनी मृत्यु तक कोलम्बस उसे भारत और वहां के मूल निवासियों को धार्मिक ही मानता रहा। आल्झाडोर एमेरिगो नामक व्यक्ति ने जाना कि जिसे सब भारत मानते हैं वह भारत नहीं है। उसके नाम से उस भूखण्ड का नाम अमेरिका हुआ । उसी अवधि में वाक्सो-डी-गामा भारत भी पहुँचा ।
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पन्द्रहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में यूरोप के विभिन्न देशों के यात्रियों ने अमेरिका, आफ्रिका और एशिया के देशों में जाना आरम्भ किया। अब तो यह प्रसिद्ध घटना है कि भारत आने के लिये निकला हुआ कोलम्बस भारत पहुँचा ही नहीं । भारत के स्थान पर वर्तमान अमेरिका पहुँचा । अपनी मृत्यु तक कोलम्बस उसे भारत और वहां के मूल निवासियों को धार्मिक ही मानता रहा। आल्झाडोर एमेरिगो नामक व्यक्ति ने जाना कि जिसे सब भारत मानते हैं वह भारत नहीं है। उसके नाम से उस भूखण्ड का नाम अमेरिका हुआ । उसी अवधि में वाक्सो-डी-गामा भारत भी पहुँचा ।
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यूरोप के विभिन्न देशों ने अमेरिका में अपने उपनिवेश स्थापित किये। आफ्रिका के लोगों को गुलाम बनाकर अमेरिका ले आये। अमेरिका के वर्तमान नीग्रो मूल आफ्रिका के हैं।
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यूरोप के विभिन्न देशों ने अमेरिका में अपने उपनिवेश स्थापित किये। आफ्रिका के लोगोंं को गुलाम बनाकर अमेरिका ले आये। अमेरिका के वर्तमान नीग्रो मूल आफ्रिका के हैं।
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यूरोप के लोगों ने अमेरिका के मूल निवासियों को भी गुलाम बनाया और धीरे धीरे उनका नाश होने लगा। वर्तमान ऑस्ट्रेलिया भी यूरोप के ही लोगों द्वारा आक्रान्त है। वहाँ के मूल निवासी भी अत्यन्त अल्पसंख्या में हैं।
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यूरोप के लोगोंं ने अमेरिका के मूल निवासियों को भी गुलाम बनाया और धीरे धीरे उनका नाश होने लगा। वर्तमान ऑस्ट्रेलिया भी यूरोप के ही लोगोंं द्वारा आक्रान्त है। वहाँ के मूल निवासी भी अत्यन्त अल्पसंख्या में हैं।
    
वे भारत में भी आये । भारत में अंग्रेजों के कारनामे अब प्रसिद्ध हैं । लूट, लूट के लिये व्यापार और व्यापार के लिये राज्य ऐसा उनका कम रहा।
 
वे भारत में भी आये । भारत में अंग्रेजों के कारनामे अब प्रसिद्ध हैं । लूट, लूट के लिये व्यापार और व्यापार के लिये राज्य ऐसा उनका कम रहा।
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यूरोप विश्व के अनेक देशों पर आधिपत्य जमाने में यशस्वी हुआ। उसने अन्य देशों पर आधिपत्य जमाया परन्तु उन देशों की प्रजा को अपना नहीं माना । इसलिये यूरोप का आधिपत्य गुलामी, अत्याचार और इसाई मतमें मतान्तरण का पर्याय बना । जहाँ इतने से भी काम नहीं चला वहाँ शिक्षा के माध्यम से यूरोपीकरण का प्रयास हुआ । भारत जैसे देश के लिये यह विशेष रूप से अपनाया गया मार्ग था । आफ्रिका और ऑस्ट्रेलिया जैसे महाद्वीपों में इसाईकरण से ही उनका काम चल गया ।  
 
यूरोप विश्व के अनेक देशों पर आधिपत्य जमाने में यशस्वी हुआ। उसने अन्य देशों पर आधिपत्य जमाया परन्तु उन देशों की प्रजा को अपना नहीं माना । इसलिये यूरोप का आधिपत्य गुलामी, अत्याचार और इसाई मतमें मतान्तरण का पर्याय बना । जहाँ इतने से भी काम नहीं चला वहाँ शिक्षा के माध्यम से यूरोपीकरण का प्रयास हुआ । भारत जैसे देश के लिये यह विशेष रूप से अपनाया गया मार्ग था । आफ्रिका और ऑस्ट्रेलिया जैसे महाद्वीपों में इसाईकरण से ही उनका काम चल गया ।  
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यूरोपीय जीवनदृष्टि मुख्य रूप से कामनापूर्ति के लक्ष्य को लेकर व्यवहार में अर्थकेन्द्री रही है । अतः जहाँ जहाँ भी वे गये वहाँ की समृद्धि को हस्तगत करना उनका प्रथम उद्देश्य रहा । इस दृष्टि से व्यापार करना उनका मुख्य काम था। व्यापार में मुनाफा कमाना ही उनकी नीति रही। इसलिये अधिक से अधिक कर वसूलना, अधिक से अधिक मजदूरी करवाकर कम से कम वेतन देना, सारे आर्थिक सूत्र अपने हाथ में रखना उनकी मुख्य प्रवृत्ति रही । अपने यूरोयीप होने का घमण्ड, जिन प्रजाओं पर राज्य करते थे उनकी संस्कृति के विषय में अज्ञान और उपेक्षा तथा उन प्रजाओं को अपने से कम दर्जे की मानने की वृत्ति-प्रवृत्ति उनके आधिपत्य का प्रमुख लक्षण रहा । विश्व के अनेक देशों को इस प्रकार के आधिपत्य की कल्पना भी नहीं थी। भारत को तो नहीं ही थी । भारत में राजा और प्रजा के सम्बन्ध की जो कल्पना रही इससे तो यह सर्वथा विपरीत था। इसलिये इन लोगों के तरीके भारत के लोग समझ नहीं सके । संक्षेप में लूट, शोषण, अत्याचार और अन्यायपूर्वक उन्होंने विश्व के अनेक देशों पर राज्य किया।
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यूरोपीय जीवनदृष्टि मुख्य रूप से कामनापूर्ति के लक्ष्य को लेकर व्यवहार में अर्थकेन्द्री रही है । अतः जहाँ जहाँ भी वे गये वहाँ की समृद्धि को हस्तगत करना उनका प्रथम उद्देश्य रहा । इस दृष्टि से व्यापार करना उनका मुख्य काम था। व्यापार में मुनाफा कमाना ही उनकी नीति रही। इसलिये अधिक से अधिक कर वसूलना, अधिक से अधिक मजदूरी करवाकर कम से कम वेतन देना, सारे आर्थिक सूत्र अपने हाथ में रखना उनकी मुख्य प्रवृत्ति रही । अपने यूरोयीप होने का घमण्ड, जिन प्रजाओं पर राज्य करते थे उनकी संस्कृति के विषय में अज्ञान और उपेक्षा तथा उन प्रजाओं को अपने से कम दर्जे की मानने की वृत्ति-प्रवृत्ति उनके आधिपत्य का प्रमुख लक्षण रहा । विश्व के अनेक देशों को इस प्रकार के आधिपत्य की कल्पना भी नहीं थी। भारत को तो नहीं ही थी । भारत में राजा और प्रजा के सम्बन्ध की जो कल्पना रही इससे तो यह सर्वथा विपरीत था। इसलिये इन लोगोंं के तरीके भारत के लोग समझ नहीं सके । संक्षेप में लूट, शोषण, अत्याचार और अन्यायपूर्वक उन्होंने विश्व के अनेक देशों पर राज्य किया।
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जिन आधारों पर राज्य चल रहा था वह लम्बा चलना सम्भव नहीं होता। दो ढाई सौ वर्षों के अन्दर अन्दर यूरोप के देशों का आधिपत्य सिमट गया। बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध तक सारे देश स्वाधीन हो गये। अमेरिका तो अठारहवीं शताब्दी में ही स्वाधीन हो गया था । परन्तु विश्व का यूरोपीकरण करने में उन्हें यश मिला। वर्तमान अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया तो यूरोप वासियों का ही बना है। एशिया और आफ्रीका तान्त्रिक दृष्टि से तो अब आफ्रीकी और एशियाई लोगों का हैं परन्तु राष्ट्रजीवन को संचालित करनेवाली सारी व्यवस्थायें यूरोपीय हैं। इस दृष्टि से विगत पाँच सौ वर्ष सम्पूर्ण विश्व के लिये बहुत महँगे सिद्ध हुए है।  
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जिन आधारों पर राज्य चल रहा था वह लम्बा चलना सम्भव नहीं होता। दो ढाई सौ वर्षों के अन्दर अन्दर यूरोप के देशों का आधिपत्य सिमट गया। बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध तक सारे देश स्वाधीन हो गये। अमेरिका तो अठारहवीं शताब्दी में ही स्वाधीन हो गया था । परन्तु विश्व का यूरोपीकरण करने में उन्हें यश मिला। वर्तमान अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया तो यूरोप वासियों का ही बना है। एशिया और आफ्रीका तान्त्रिक दृष्टि से तो अब आफ्रीकी और एशियाई लोगोंं का हैं परन्तु राष्ट्रजीवन को संचालित करनेवाली सारी व्यवस्थायें यूरोपीय हैं। इस दृष्टि से विगत पाँच सौ वर्ष सम्पूर्ण विश्व के लिये बहुत महँगे सिद्ध हुए है।  
    
इन पाँचसौ वर्षों के इतिहास के विषय में अनेक विद्वानों ने लिखा है । उसे पढने पर ध्यान में आता है कि सांस्कृतिक दृष्टि से यह काल विनाशकारी हलचल मचाने वाला रहा है। विश्व आज भी इससे उबरने का प्रयास कर रहा है। विश्व के इन प्रयासों में भारत को नेतृत्व लेना है। इस दृष्टि से अध्ययन और चिंतन की आवश्यकता है।
 
इन पाँचसौ वर्षों के इतिहास के विषय में अनेक विद्वानों ने लिखा है । उसे पढने पर ध्यान में आता है कि सांस्कृतिक दृष्टि से यह काल विनाशकारी हलचल मचाने वाला रहा है। विश्व आज भी इससे उबरने का प्रयास कर रहा है। विश्व के इन प्रयासों में भारत को नेतृत्व लेना है। इस दृष्टि से अध्ययन और चिंतन की आवश्यकता है।
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सम्प्रदायों के इस वर्ग का मुख्य लक्षण यह है कि वे सहअस्तित्व में नहीं मानते । जो हमारे जैसा नहीं है उसे या तो हमारे जैसा होना चाहिये, नहीं तो हमारा दास बनना चाहिये, नहीं तो मर जाना चाहिये। तीनों बातों में हम उसकी सहायता करेंगे।
 
सम्प्रदायों के इस वर्ग का मुख्य लक्षण यह है कि वे सहअस्तित्व में नहीं मानते । जो हमारे जैसा नहीं है उसे या तो हमारे जैसा होना चाहिये, नहीं तो हमारा दास बनना चाहिये, नहीं तो मर जाना चाहिये। तीनों बातों में हम उसकी सहायता करेंगे।
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इन परमतअसहिष्णु और सहअस्तित्व में नहीं माननेवाले सम्प्रदायों में इस्लाम और इसाइयत सबसे प्रबल हैं । विश्वभर में अपने मत का प्रचार और प्रसार करने का सिलसिला उनके जन्मकाल से ही शुरू हुआ है।
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इन परमतअसहिष्णु और सहअस्तित्व में नहीं माननेवाले सम्प्रदायों में इस्लाम और इसाइयत सबसे प्रबल हैं । विश्वभर में अपने मत का प्रचार और प्रसार करने का सिलसिला उनके जन्मकाल से ही आरम्भ हुआ है।
    
सम्प्रदाय का सम्बन्ध भावनाओं के साथ होता है। पवित्रता, सजनता, भक्ति, पूजा, उपासना, साधना, तपश्चर्या आदि बातें इसके साथ जुडी होती हैं। परन्तु ये दोनों अपने सम्प्रदाय का प्रचार करने के लिये अत्याचार की किसी भी सीमा तक जा सकते हैं। लालच, भय, छल, शोषण, अत्याचार, मारपीट, गुलामी और मृत्युदण्ड - कुछ भी करने में उन्हें संकोच नहीं है । विगत एक हजार वर्षों में देश के देश या तो इस्लाम अथवा इसाइ मतावलम्बी बन चुके हैं । भारत में इन दोनों ने कितना उधम मचा रखा है इसका अनुभव हम कर ही रहे हैं।
 
सम्प्रदाय का सम्बन्ध भावनाओं के साथ होता है। पवित्रता, सजनता, भक्ति, पूजा, उपासना, साधना, तपश्चर्या आदि बातें इसके साथ जुडी होती हैं। परन्तु ये दोनों अपने सम्प्रदाय का प्रचार करने के लिये अत्याचार की किसी भी सीमा तक जा सकते हैं। लालच, भय, छल, शोषण, अत्याचार, मारपीट, गुलामी और मृत्युदण्ड - कुछ भी करने में उन्हें संकोच नहीं है । विगत एक हजार वर्षों में देश के देश या तो इस्लाम अथवा इसाइ मतावलम्बी बन चुके हैं । भारत में इन दोनों ने कितना उधम मचा रखा है इसका अनुभव हम कर ही रहे हैं।
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साम्प्रदायिक असहिष्णुता का यह सिलसिला विश्व के लिये बहुत घातक सिद्ध हो रहा है। भारत को इसका इलाज ढूँढना होगा, केवल अपने लिये नहीं, समस्त विश्व के लिये क्योंकि यह जरा भी न्याय्य नहीं है।
 
साम्प्रदायिक असहिष्णुता का यह सिलसिला विश्व के लिये बहुत घातक सिद्ध हो रहा है। भारत को इसका इलाज ढूँढना होगा, केवल अपने लिये नहीं, समस्त विश्व के लिये क्योंकि यह जरा भी न्याय्य नहीं है।
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विशेष बात यह है कि इन दोनों के लिये भारत में धर्मान्तरण बहुत कठिन सिद्ध हो रहा है। दोनों के तरीके उनके स्वभाव के अनुरूप अलग अलग हैं, परन्तु प्रयास आज भी हो रहे हैं । इस्लाम प्रकट हिंसा, जोरतलबी और आतंकवाद का सहारा लेता है जबकि इसाइयत लोभ, लालच, चिकित्सा, छल आदि का । भारत में वनवासी, दलित, पिछडे कहे जाने वाले लोगों में 'सेवा' के माध्यम से तो अमीर, नगरवासी, शिक्षित लोगों में 'शिक्षा' के माध्यम से निधार्मिकता फैलाने के प्रायस होते हैं । एक का स्वरूप भौतिक है, दूसरे का मानसिक । परन्तु इतने शतकों से प्रयास चलते रहने के बाद भी अभी भारत पूर्ण रूप से धर्मान्तरित नहीं हुआ है । यही भारत की शक्ति है और विश्व की आशा।
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विशेष बात यह है कि इन दोनों के लिये भारत में धर्मान्तरण बहुत कठिन सिद्ध हो रहा है। दोनों के तरीके उनके स्वभाव के अनुरूप अलग अलग हैं, परन्तु प्रयास आज भी हो रहे हैं । इस्लाम प्रकट हिंसा, जोरतलबी और आतंकवाद का सहारा लेता है जबकि इसाइयत लोभ, लालच, चिकित्सा, छल आदि का । भारत में वनवासी, दलित, पिछडे कहे जाने वाले लोगोंं में 'सेवा' के माध्यम से तो अमीर, नगरवासी, शिक्षित लोगोंं में 'शिक्षा' के माध्यम से निधार्मिकता फैलाने के प्रायस होते हैं । एक का स्वरूप भौतिक है, दूसरे का मानसिक । परन्तु इतने शतकों से प्रयास चलते रहने के बाद भी अभी भारत पूर्ण रूप से धर्मान्तरित नहीं हुआ है । यही भारत की शक्ति है और विश्व की आशा।
    
क्या अपने सम्प्रदाय का प्रचार गलत है ? नहीं, गलत नहीं है। यदि कोई श्रद्दा और विश्वासपूर्वक, विवेकपूर्वक, आस्थापूर्वक, किसी भी सम्प्रदाय का स्वीकार करना चाहता है, या कोई किसी को किसी भी सम्प्रदाय का स्वीकार करने के लिये प्रेरित करता है तो उसमें कोई बुराई नहीं है। इन तत्त्वों के आधार पर अपने सम्प्रदाय को फैलाने की स्वतन्त्रता भी सबको है। परन्तु अन्य सम्प्रदायों की निन्दा करना, उन सम्प्रदाय का पालन करने वालों को परेशन करना, उनके साथ छल करना बुरा है । उसे अपराध ही मानना चाहिये । उसी प्रकार बिना इस प्रकार के ठोस कारणों के अपना सम्प्रदाय छोडना भी नहीं चाहिये । विश्व में अशान्ति और अस्थिरता के लिये जबरदस्ती या टेढे मार्गों से होने वाला धर्मान्तरण भी बडी मात्रा में कारणरूप है।
 
क्या अपने सम्प्रदाय का प्रचार गलत है ? नहीं, गलत नहीं है। यदि कोई श्रद्दा और विश्वासपूर्वक, विवेकपूर्वक, आस्थापूर्वक, किसी भी सम्प्रदाय का स्वीकार करना चाहता है, या कोई किसी को किसी भी सम्प्रदाय का स्वीकार करने के लिये प्रेरित करता है तो उसमें कोई बुराई नहीं है। इन तत्त्वों के आधार पर अपने सम्प्रदाय को फैलाने की स्वतन्त्रता भी सबको है। परन्तु अन्य सम्प्रदायों की निन्दा करना, उन सम्प्रदाय का पालन करने वालों को परेशन करना, उनके साथ छल करना बुरा है । उसे अपराध ही मानना चाहिये । उसी प्रकार बिना इस प्रकार के ठोस कारणों के अपना सम्प्रदाय छोडना भी नहीं चाहिये । विश्व में अशान्ति और अस्थिरता के लिये जबरदस्ती या टेढे मार्गों से होने वाला धर्मान्तरण भी बडी मात्रा में कारणरूप है।

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