Difference between revisions of "एक सर्वमान्य प्रश्नोत्तरी"

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इन अभिप्रायों का स्वर भी नकारात्मक ही है। परन्तु शत प्रतिशत साक्षरता जैसी सभी योजनाओं का विचार मनोवैज्ञानिक ढंग से करना चाहिये, केवल नकारात्मक बातें करने से कोई उपलब्धि नहीं होगी।
 
इन अभिप्रायों का स्वर भी नकारात्मक ही है। परन्तु शत प्रतिशत साक्षरता जैसी सभी योजनाओं का विचार मनोवैज्ञानिक ढंग से करना चाहिये, केवल नकारात्मक बातें करने से कोई उपलब्धि नहीं होगी।
  
पहली बात तो यह है कि ये सारे अभियान भारतीय मानस के अनुकूल नहीं है । भारत में युगों से लिखने और पढने की प्रतिष्ठा कम ही रही है। भारत में ऐसे अनेक तत्त्वज्ञसन्त, कलाकार, कारीगर, व्यापारी, गृहिणियाँ हुई है जो अपने अपने क्षेत्र में श्रेष्ठतम लोगों की श्रेणी के हैं परन्तु निरक्षर थे, कभी विद्यालय गये ही नहीं थे । आज भी ऐसे व्यापारी हैं जो अरबो रूपयों का व्यापार करते हैं, कम्प्यूटर चलाते हैं परन्तु अपने हस्ताक्षर के अलावा कुछ भी लिख नहीं सकते । उन्हें जीवन का ज्ञान
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पहली बात तो यह है कि ये सारे अभियान भारतीय मानस के अनुकूल नहीं है । भारत में युगों से लिखने और पढने की प्रतिष्ठा कम ही रही है। भारत में ऐसे अनेक तत्त्वज्ञसन्त, कलाकार, कारीगर, व्यापारी, गृहिणियाँ हुई है जो अपने अपने क्षेत्र में श्रेष्ठतम लोगों की श्रेणी के हैं परन्तु निरक्षर थे, कभी विद्यालय गये ही नहीं थे । आज भी ऐसे व्यापारी हैं जो अरबो रूपयों का व्यापार करते हैं, कम्प्यूटर चलाते हैं परन्तु अपने हस्ताक्षर के अलावा कुछ भी लिख नहीं सकते । उन्हें जीवन का ज्ञान है, केवल अक्षर का नहीं है, भारत का मानस चरित्र और व्यवहार ज्ञान को शिक्षित व्यक्ति का लक्षण मानता है, अक्षर ज्ञान को नहीं। यह बात इतनी गहरी बैठी है कि लिखना पढ़ना नहीं आने पर खास अपराधबोध नहीं होता।
  
है, केवल अक्षर का नहीं है, भारत का मानस चरित्र और व्यवहार ज्ञान को शिक्षित व्यक्ति का लक्षण मानता है, अक्षर ज्ञान ___को नहीं। यह बात इतनी गहरी बैठी है कि लिखना पढ़ना नहीं आने पर खास अपराधबोध नहीं होता।
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एक उत्तरदाता की बात सही है कि लिखने पढने हेतु विद्यालय जाने से असंख्य परम्परागत व्यवसाय नष्ट हो गये हैं। यह तो बडा आपराधिक कृत्य है। विद्यालय जाने पर केवल अक्षरज्ञान नहीं मिलता, विद्यार्थी का मानस बदलता है। वह काम और काम करने वाले को हेय मानने लगता है और स्वयं काम नहीं करता । काम करना सीखता भी नहीं है। लिखना और पढना आना तो अच्छा है परन्तु काम करना छोडकर लिखना और पढना सीखना घाटे का सौदा है। अतः कुछ ऐसे उपाय करने चाहिये कि विद्यार्थी काम पहले सीखे और लिखना पढना काम करने के साथ साथ सीखे । उसके हाथों को काम करने के साधनों का स्पर्श पहले हो बाद में पुस्तक और लेखनी का । इससे लिखना और पढना काम करने से अधिक अच्छा है ऐसी ग्रन्थि नहीं बनेगी। इससे और एक समस्या भी नहीं पैदा होगी । करने के लिये काम है इसलिये हर पढा लिखा व्यक्ति नौकरी की खोज में नहीं दौडेगा । इससे शिक्षितों की बेरोजगारी कम होगी।
  
एक उत्तरदाता की बात सही है कि लिखने पढने हेतु विद्यालय जाने से असंख्य परम्परागत व्यवसाय नष्ट हो गये हैं। यह तो बडा आपराधिक कृत्य है। विद्यालय जाने पर केवल अक्षरज्ञान नहीं मिलता, विद्यार्थी का मानस बदलता है। वह ___ काम और काम करने वाले को हेय मानने लगता है और स्वयं काम नहीं करता काम करना सीखता भी नहीं है। लिखना
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शत प्रतिशत साक्षरता एक तान्त्रिक मुद्दा है । नहीं भी है तो उसे बनाया गया है। केवल हस्ताक्षर करना भी आ गया तो व्यक्ति साक्षर हो गया ऐसा माना जाने लगा है। परन्तु साक्षरता की ऐसी व्याख्या नहीं है । साक्षर तो पण्डित को कहते हैं । शास्त्रों के जानकार को कहते हैं । हमने हमारी भाषा के श्रेष्ठ शब्द का अर्थ ही निम्न कोटि का बना दिया है । परन्तु अब वह भी एक पारिभाषिक शब्द बन गया है ।
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इसलिये हमें अपना और लोगों का मानस यह बनाना चाहिये कि केवल अक्षरज्ञान से नहीं अपितु जीवन के ज्ञान से साक्षर बनना चाहिये । ऐसा साक्षर हर कोई बन सकता है । इस अर्थ में तो भारत अन्य कई देशों से अधिक मात्रा में साक्षर
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एक उत्तरदाता ने सही कहा है कि सरकार इस अभियान में लगेगी तो कभी भी यश प्राप्त नहीं होगा । जड तन्त्र का शिक्षा से कोई लेनादेना होता भी नहीं है । जड तत्त्व ढाँचा बना सकता है उसमें जीवन नहीं होता है। अतः बिना सरकारी योजना के भी भारत को शत प्रतिशत साक्षरता के लक्ष्य को प्राप्त करने वाला तो बनाना ही चाहिये । भारत हमेशा शिक्षितों का देश रहा है, पराये नहीं अपितु अपने ही मापदण्डों और प्रयासों से ।।
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==== प्रश्न ४ भारत का जीडीपी क्यों नहीं बढता है ? उसे बढाने के लिये क्या करना चाहिये ? ====
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उत्तर
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# भारत के लोग व्यापारी बुद्धि के नहीं हैं । इसलिये जो सेवायें और पदार्थ अत्यन्त मूल्यवान होते हैं उनकी कीमत वसूल करना उन्हें आता नहीं है । इसलिये बाजार में नकद का लेनदेन बहुत कम होता है, और अपेक्षाकृत स्थिर भी रहता है । इसलिये विकसित देशों की तुलना में वह सदैव कम ही रहता है । कम जीडीपी के चलते भारत कभी विकसित देश नहीं हो सकता।
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# लगभग हर उत्पाद या सेवा का भारत जैसे बड़े देश का व्यापार अन्य कई देशों की तुलना में कम ही है। उदाहरण के लिये होटेल उद्योग, मनोरंजन उद्योग, शस्त्र उद्योग, शिक्षाउद्योग, हॉस्पिटल उद्योग आदि । ये सारे उत्पादन और सेवायें भारत में सस्ते भी है इसका विपरीत प्रभाव जीडीपी पर होता है।
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# भारत में जो विदेशी कम्पनियाँ हैं उनकी कमाई का लाभ भारत को नहीं होता । यह भी जीडीपी नहीं बढने का एक कारण है।
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# भारत में धर्मादाय संस्थाओं का, निःशुल्क सेवा करनेवालों का, बिना पैसे लेन देन करने वालों का अनुपात अधिक है । इसलिये काम होता है, खर्च या कमाई नहीं । इससे जीडीपी नहीं बढता है ।
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यह एक अच्छा प्रश्न है जो जीडीपी की संकल्पना कितनी हास्यास्पद है यह सिद्ध करने का अवसर देता है। भारत का जीडीपी नहीं बढता यह स्वाभाविक भी है और अच्छा भी है। एक उदाहरण से समझने का प्रयास करेंगे।
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भारत में हजारों लोगों को सदाव्रतों में भोजन मिलता है, यात्रियों को पीने का पानी जलसेवा से निःशुल्क मिलता है। अनेक भिक्षकों और संन्यासियों को निःशुल्क भोजन मिलता है। अतिथि निःशुल्क भोजन प्राप्त करते हैं। इसका परिणाम यह होता है कि होटेल उद्योग बढता नहीं है
  
और पढना आना तो अच्छा है परन्तु काम करना छोडकर लिखना और पढना सीखना घाटे का सौदा है। अतः कुछ ऐसे उपाय करने चाहिये कि विद्यार्थी काम पहले सीखे और लिखना पढना काम करने के साथ साथ सीखे उसके हाथों को काम करने के साधनों का स्पर्श पहले हो बाद में पुस्तक और लेखनी का । इससे लिखना और पढना काम करने से अधिक अच्छा है ऐसी ग्रन्थि नहीं बनेगी। इससे और एक समस्या भी नहीं पैदा होगी । करने के लिये काम है इसलिये हर पढा लिखा व्यक्ति नौकरी की खोज में नहीं दौडेगा । इससे शिक्षितों की बेरोजगारी कम होगी।
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भारत में शिशुसंगोपन और बिमारों की परिचर्या घर में होती है जो निःशुल्क होती है। भारत में लोग कम बीमार होते हैं और बीमारी में भी कम दवाई लेते हैं। अनेक धर्मादाय ऋग्णसेवा संस्थायें होती हैं। परिणाम स्वरूप हॉस्पिटल उद्योग कम पनपता है और देश का जीडपी कम रह जाता है। संक्षेप में भारत में अनेक बातें ऐसी हैं जिनका व्यापार नहीं होता, जो बाजार का हिस्सा नहीं होती । इस प्रकार पैसे के लेनदेन का व्यवहार नहीं होना अच्छा माना जाता है वह संस्कृति का अंग है। घर में गृहिणियाँ भोजन बनाती हैं। बच्चों का संगोपन करती हैं, वृद्धों की सेवा करती हैं वे यदि उसका पैसों में हिसाब करने लगें तो देश का जीडीपी तो बढ जायेगा परन्तु संस्कारिता समाप्त हो जायेगी। जीडीपी बढाने के और विकसित कहे जाने के मोह में संस्कारिता को छोड देना तो बड़े घाटे का सौदा है इसलिये भारतीय मानस कहता है कि जीडीपी नहीं बढता है तो न सही, संस्कारिता का त्याग करना सम्भव नहीं।
  
शत प्रतिशत साक्षरता एक तान्त्रिक मुद्दा है । नहीं भी है तो उसे बनाया गया है। केवल हस्ताक्षर करना भी आ गया तो व्यक्ति साक्षर हो गया ऐसा माना जाने लगा है। परन्तु साक्षरता की ऐसी व्याख्या नहीं है । साक्षर तो पण्डित को कहते हैं । शास्त्रों के जानकार को कहते हैं । हमने हमारी भाषा के श्रेष्ठ शब्द का अर्थ ही निम्न कोटि का बना दिया है । परन्तु अब वह भी एक पारिभाषिक शब्द बन गया है ।
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इससे आगे बढकर भारत ने प्रश्न उठाना चाहिये कि संस्कृति और विकास एकदूसरे के विरोधी कैसे हो सकते हैं ? जिसमें संस्कारिता कम हो वह विकास का लक्षण कैसे हो सकता है ? इसका अर्थ है कि विकास की परिभाषा और आर्थिक मापदण्ड ये दोनों बातें अनुचित हैं वास्तव में विकास संस्कार और संस्कृति के समसम्बन्ध में होना चाहिये, विपरीत सम्बन्ध में नहीं । आर्थिक स्थिति समग्र जीवन का एक अंग है और वह भी सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण नहीं । पश्चिमने कम महत्त्वपूर्ण अर्थ को केन्द्रस्थान में रखकर अपने और विश्व के सही विकास के मार्ग को ही अवरुद्ध कर दिया है।
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जीडीपी यदि इतना अवांछनीय मापदण्ड है तो उसे बढाने के उपाय करने का तो प्रश्न ही नहीं उठता । भारत का जन सामान्य इसे समझे और विद्वान इस पर शास्त्रार्थ कर उसके अस्वीकार की भूमिका बनाये, साथ ही उसका पर्याय प्रस्तुत करे यही उपाय है ।
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==== प्रश्न ५ आन्तर्राष्ट्रीय मानक कौन निर्धारित करता है ? भारत तथा विश्व के अन्यान्य देश उन्हें क्यों मानते हैं ? ====
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उत्तर
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# आन्तर्राष्ट्रीय मापदण्ड अमेरिका बनाता है क्योंकि वह विश्व का नम्बर वन देश है।
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# आन्तर्राष्ट्रीय मापदण्ड संयुक्त राष्ट्रसंघ बनाता है । जो देश संयुक्त राष्ट्रसंघ के सदस्य होते हैं उन्हें यह लागू होता है इसलिये वे इसे मानते हैं।
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# आन्तर्राष्ट्रीय मापदण्ड वैश्विक हैं। आज वैश्विकता का जमाना है इसलिये जिस किसी देश को विकसित और वैश्विक होना है उसे इन मापदण्डों को मानना चाहिये । आन्तर्राष्ट्रीय मापदण्ड पर कसे जाने से मूल्य बढ़ जाता है। इसलिये तो कई बार विज्ञापनों में ‘आन्तर्राष्ट्रीय मापदण्ड के अनुसारन निर्मित ऐसा लिखा हुआ होता है।' आन्तर्राष्ट्रीय शिक्षा बोर्ड को प्रतिष्ठा होती है इसलिये लोग उनमें अपनी सन्तानों को भेजते हैं।
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वास्तव में आन्तर्राष्ट्रीय मापदण्ड संयुक्त राष्ट्रसंघ अथवा उसके द्वारा मान्य संस्थायें बनाती हैं। कई बार संयुक्त राष्ट्रसंघ के दायरे से बाहर की संस्थायें भी ऐसा मापदण्ड तैयार करती हैं।
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इन्हें मानना कब अनिवार्य है ? जब अन्य देशों के साथ व्यवहार करना है अथवा आन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर व्यवहार करना है तब इन्हें मानना अनिवार्य है। उदाहरण के लिये आन्तर्राष्ट्रीय मानक नहीं अपनाये हैं तो कोई शोधपत्रिका आन्तर्राष्ट्रीय नहीं बन सकती और उन्हीं मानकों के बिना ऐसी पत्रिका में किसी अध्येता का शोध प्रबन्ध प्रकाशित नहीं हो सकता। आन्तर्राष्ट्रीय मानकों को नहीं अपनाया है तो विश्वविद्यालय को आन्तर्राष्ट्रीय का दर्जा प्राप्त नहीं हो सकता, कभी कभी तो इन मानकों को नहीं मानना आपराधिक भी बन जाता है। उदाहरण के लिये चिकित्साशास्त्र में एलोपथी द्वारा मान्य नहीं है ऐसा उपचार करना अपराध माना जाता है ।
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परन्तु मुख्य रूप से सन्दर्भ आर्थिक होता है। उदाहरण के लिये आप किसी बिमारी का उपचार जानते हैं और करते हैं परन्तु वह प्रमाणित नहीं है । तब आप उपचार तो कर सकते हैं परन्तु उसका पैसा नहीं ले सकते यदि कोई उसके विरुद्ध शिकायत करता है, नुकसान होने का दावा करता है तब भी वह अपराध बनता है । यदि वह आन्तर्राष्ट्रीय मानकों द्वारा मान्य है और फिर भी उससे नुकसान होता है तो वह उपचार को दोष नहीं माना जाता, दवाई का भी नहीं माना जाता, व्यक्ति का हो सकता है अथवा वह संयोग हो सकता है।
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आज के सारे आन्तर्राष्ट्रीय मापदण्ड पश्चिमी जीवनदृष्टि के अनुसार बने हैं । इसलिये अनेक बातों में भारत उसे मान्य नहीं कर सकता । उदाहरण शिक्षा के क्षेत्र का ही लें। पश्चिम की अनुसन्धान पद्धित को भारत मान्य नहीं कर सकता । परन्तु विडम्बना है कि उसे मान्य करना पडता है क्योंकि भारत ने अपनी प्राचीन अनुसन्धान पद्धति को युगानुकूल स्वरूप देकर पुनर्जीवित नहीं किया इसलिये भारत को पुनः भारतीय ज्ञान की साधना कर, उसे पुनर्जीवित कर अपने लिये और विश्व के लिये मापदण्ड बनाने चाहिये।
  
इसलिये हमें अपना और लोगों का मानस यह बनाना चाहिये कि केवल अक्षरज्ञान से नहीं अपितु जीवन के ज्ञान से साक्षर बनना चाहिये । ऐसा साक्षर हर कोई बन सकता है । इस अर्थ में तो भारत अन्य कई देशों से अधिक मात्रा में साक्षर
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==== प्रश्न ६ भारत में लोकतन्त्र १९४७ में प्रारम्भ हुआ इसके कारण क्या हैं ? इसके परिणाम क्या हैं ? ====
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उत्तर
  
एक उत्तरदाता ने सही कहा है कि सरकार इस अभियान में लगेगी तो कभी भी यश प्राप्त नहीं होगा जड तन्त्र का शिक्षा से कोई लेनादेना होता भी नहीं है जड तत्त्व ढाँचा बना सकता है उसमें जीवन नहीं होता है। अतः बिना सरकारी
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(१) लोकतन्त्र ब्रिटीशों की देन है। भारत तो असंख्य छोटे छोटे राज्यों में विभाजित था। सबके राजा थे। मुसलमानों के राजग्रहण करने के बाद उनके भी राज्य होने लगे और वे नवाब कहलाने लगे राजा और नवाब विलासी होते थे और परस्पर लडते झघडते रहते थे । ब्रिटीशों ने इनको नियन्त्रित किया, अपने अधीन बनाया, भारत को एक राष्ट्र बनाया और सर्वजन समाज की देश को चलाने में समान रूप से सहभागिता हो ऐसी लोकतन्त्रात्मक राज्यव्यवस्था दी अनेक प्रकार
  
 
==References==
 
==References==

Revision as of 08:44, 15 January 2020

अध्याय ४७

बौद्धिकों में और सामान्य जनों में भारत को लेकर, भारत की शिक्षा को लेकर तरह तरह के प्रश्न उठते हैं । आये दिन अखबारों में कोई न कोई समाचार छपते रहते हैं । विभिन्न समझवाले लोग विभिन्न प्रकार से आलोचना करते रहते हैं । सारे अभिप्राय उलटसुलट होते हैं । परिणामस्वरूप किसी की भी समझ स्पष्ट नहीं होती । अतः यहाँ भिन्न भिन्न प्रकार के लोगों के अभिप्राय जानने हेतु कुछ लोगों को एक प्रश्नावलि भेजी गई और उनसे उत्तर मँगवाये गये । कुछ लोगों के साथ मौखिक चर्चा भी हुई । प्रश्नों के लिखित और मौखिक उत्तर देनेवालों में प्राध्यापक, महाविद्यालयीन छात्रा, एक मार्केटिंग कम्पनी का मुख्य कार्यवाहक अधिकारी, एक प्रथितयश डॉक्टर, एक शिक्षित गृहिणी, एक व्यापारी, एक सामाजिक कार्यकर्ता आदि विभिन्न प्रकार के लोग थे । ऐसा लगा कि अनेक लोग ऐसे थे जिन्होंने प्रश्न सामने आने तक इस मामले में कुछ विचार ही नहीं किया था । कुछ ऐसे थे कि जैसे ही प्रश्न पूछा तुरन्त जो सूझा वह बोल दिया । परन्तु उनसे निवेदन करने के बाद उन्होंने कुछ विचार किया और अपना प्रामाणिक अभिप्राय बताया । यह प्रश्नोत्तरी यहाँ प्रस्तुत है।

प्रश्न १ विश्व के श्रेष्ठ दो सौ विश्व विद्यालयों में भारत का एक भी विश्वविद्यालय क्यों नहीं है ?

उत्तर :

  1. हमारे देश में किसी को पढने या पढाने की नीयत ही नहीं है, फिर कैसे विश्वविद्यालय श्रेष्ठ बन सकते हैं।
  2. हमारे यहाँ न अच्छा ग्रन्थालय है न मार्गदर्शन करने वाले प्राध्यापक । न सुविधा है न धन । फिर अनुसन्धान के लिये कोई अवसर ही नहीं है। इसलिये विदेशों से तो यहाँ कोई पढने के लिये आता नही । हमारे विद्यार्थियों को विदेशी विश्वविद्यालयों में प्रवेश तक नहीं मिलता । आन्तर्राष्ट्रीय मापदण्डों पर खरा उतरने की महत्त्वाकांक्षा भी नहीं है।
  3. भारत में अंग्रेजी का अच्छा अध्ययन नहीं होता और अधिकांश सन्दर्भ ग्रन्थ अंग्रेजी में ही होते हैं । इस कारण से बहुत कम विद्यार्थी और अध्यापक अनुसन्धान में प्रवृत्त होते हैं।
  4. भारत में अपने अनुसन्धानों पर पेटण्ट करवाने की चिन्ता हम नहीं करते । यदि कोई पेटण्ट करवाता भी है तो उसका श्रेय विश्वविद्यालय को नहीं मिलता। इसलिये विश्वविद्यालयों की आय कम होती है। इस कारण से हमारे विश्वविद्यालय पीछे रह जाते हैं।
  5. हमारे यहाँ राजनीति इतनी अधिक मात्रा में चलती है कि विश्वविद्यालय उससे बच नहीं सकते । वे राजनीतिक विचारधाराओं से घिरे रहते हैं । इस कारण से शुद्ध ज्ञान की साधना नहीं होती । अतः हमारे विश्वविद्यालय पीछे रह जाते हैं।

इस प्रकार भिन्न भिन्न मत व्यक्त किये जाते हैं । परन्तु तथ्य का सही विश्लेषण करने की प्रवृत्ति बहुत कम रहती है। विश्लेषण की पद्धति कुछ इस प्रकार होनी चाहिये।

  1. पश्चिम और भारत एक दूसरे से इतने भिन्न हैं कि एक के मानक दूसरे को नहीं चलेंगे । यदि भारत अपनी दृष्टि से मानक बनाता है तो पश्चिम का एक भी विश्वविद्यालय उसमें कहीं बैठेगा नहीं । इसलिये पश्चिम ने बनाये हुए मानकों में हमारे विश्वविद्यालय नहीं बैठते हैं तो बहुत चिन्ता की बात नहीं बननी चाहिये ।
  2. विश्वविद्यालय के मानकों में एक मानक पेटण्ट और उनसे होने वाली आय भी है। भारत में ज्ञान पर एकाधिकार स्थापित करने की कल्पना भी जल्दी नहीं आती । भारत आर्थिक पक्ष को मानक मानता भी नहीं है इसलिये वह पीछे रहेगा इसमें कोई आश्चर्य नहीं है।
  3. शिक्षितों को रोजगार नहीं मिलने की समस्याकी जनक राजनीति और गलत अर्थव्यवस्था है। इसमें विश्वविद्यालयों का कार्य बाधित होता है, वह अच्छे परिणाम नहीं दे सकता।
  4. विश्वविद्यालयों को स्वायत्तता न के बराबर है, भारतीय ज्ञान को और जीवनदृष्टि को शत प्रतिशत अपनाना सम्भव नहीं है। इस स्थिति में शिक्षाक्षेत्र की स्थिति न घर का न घाट का' जैसी हो उसमें आश्चर्य नहीं है।
  5. इस स्थिति में हमें चाहिये कि हम स्पर्धा में रहे ही नहीं । पराये मापदण्डों से अपना मूल्यांकन करने की बात ही विचित्र है । हम पहले तो अपने मानक बनायें, उनकी सहायता से अपना मूल्यांकन करें, फिर हमारे मानकों की उनके मानकों के साथ तुलना भी करें, हमारे मानकों से उन के श्रेष्ठ विश्वविद्यालयों का मूल्यांकन करें तब जाकर मामला कुछ समझ में आयेगा।

परन्तु यह बात भी सही है कि हमारे अपने मानकों पर खरा उतरने वाले हमारे विश्वविद्यालयों की संख्या भी कम ही होगी । इस बात की चिन्ता अवश्य करनी चाहिये ।

प्रश्न २ आजकल आन्तर्राष्ट्रीय बोर्ड का महत्त्व बढने लगा है। सारे आन्तर्राष्ट्रीय बोर्ड पश्चिम के देशों के हैं। भारत ही आन्तर्राष्ट्रीय बोर्ड क्यों नहीं बनाता ? देश की प्रतिष्टा बढेगी और आन्तर्राष्ट्रीय स्तर की शिक्षा चाहने वाले लोग उसमें प्रवेश ले पायेंगे ।

उत्तर

  1. आप कैसी बात कर रहे हैं ? आन्तर्राष्ट्रीय बोर्ड विकसित देशों में होते हैं, भारत जैसा विकासशील देश आन्तर्राष्ट्रीय बोर्ड कैसे बना सकता है ? हम आन्तर्राष्ट्रीय मानकों को पूरा नहीं कर सकते।
  2. नहीं, ऐसी बात नहीं है। हम उन मानकों को तो पूरा कर भी लेंगे परन्तु हमारे लोगों को भारत का नाम लेते ही कुछ नीचा सा लगता है। भले ही आन्तर्राष्ट्रीय हो तो भी इसकी तुलना में अमेरिका का या इंग्लैण्ड का बोर्ड ही उन्हें ऊँचा लगेगा । हम कितना भी अच्छा बनायेंगे तो भी वे भारत के बोर्ड में प्रवेश नहीं लेंगे।
  3. भारत में यदि आन्तर्राष्ट्रीय बोर्ड बनेगा तो भी वह नाम मात्र का होगा । आन्तर्राष्ट्रीय बनने के लिये उसकी विदेशों में शाखा होनी चाहिये । वे यदि अरब देशों या आफ्रिका के देशों में रहीं तो प्रतिष्ठा नहीं मिलेगी। वे शाखायें यूरोप और अमेरिका के देशों में होनी चाहिये । भारत के आन्तर्राष्ट्रीय बोर्ड की यदि अमेरिका या यूरोप के देशों में शाखायें रहीं तो भी वहाँ कोई प्रवेश नहीं लेगा । उनके बोर्डों में ही अच्छी शिक्षा मिलती है फिर भारत के बोर्ड में कोई क्यों पढेगा ? इसलिये भारत में आन्तर्राष्ट्रीय बोर्ड बनाने की बात व्यावहारिक नहीं लगती।
  4. मेरे मतानुसार हमें भारतीय स्वरूप का आन्तर्राष्ट्रीय बोर्ड अवश्य बनाना चाहिये । और उसकी विदेशों में भी शाखायें होनी चाहिये ताकि वहाँ जो भारतीय रहते हैं वे अपने बच्चों को भारतीय शिक्षा दे सकें । यह कार्य कठिन होने पर भी सरकार ने विशेष योजना बनाकर करना चाहिये । आज पश्चिम के लोगों को भी भारतीय ज्ञान प्राप्त करने की जिज्ञासा हो रही है । वे भी भारत आने के स्थान पर अपने ही देश में रहकर पढ सकते हैं।
  5. भारत पहले अपनी शिक्षाव्यवस्था ठीक कर ले यह आवश्यक है। भारत में शिक्षकों की नीयत और क्षमता, शिक्षा का दर्जा और परीक्षाओं की पद्धति जिस प्रकार के हैं वे आन्तर्राष्ट्रीय बोर्ड में नहीं चल सकते । इन बातों में पर्याप्त सुधार किये बिना हम आन्तर्राष्ट्रीय शिक्षा बोर्ड की कल्पना भी नहीं कर सकते ।
  6. यह तो एक बात है । दूसरी बात यह है कि सरकार को इसमें नहीं पडना चाहिये । जिस प्रकल्प में सरकार होती है वह परिणामकारी नहीं होता । किसी निजी संस्था को ऐसा बोर्ड बनाना चाहिये । ऐसा साहस ताता, अम्बानी, निरमा जैसे उद्योगगृह ही कर सकते हैं। सरकार ने उन्हें बताना चाहिये।
  7. आर्थिक दृष्टि से आपकी बात सही है परन्तु उद्योगगृहों द्वारा चलाये जानेवाला शिक्षा का प्रकल्प भी उद्योग ही होगा । शिक्षा वैसे भी आज बाजारीकरण का शिकार बन रही है। उद्योगगृह उसका पूर्ण बाजारीकरण कर देंगे।

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इन अभिप्रायों को पढकर लगता है कि लोगों का भारत की शिक्षा व्यवस्था के बारे में कोई खास अच्छा मत नहीं है । उनके मानस में पश्चिम की श्रेष्ठता स्थापित हुई है । एक दो लोग भारतीय शिक्षा की चाह तो रखते हैं परन्तु सरकार पर उनका विश्वास नहीं है । । उद्योगगृह यह कर सकते हैं परन्तु बाजारीकरण भी लोगों को मान्य नहीं है।

लोगों के उलझे हुए मानस की यह झलक है । वास्तव में आज की शिक्षा को और लोगों के मानस को ही पश्चिमी प्रभाव से मुक्त करने की आवश्यकता है क्योंकि उलझा हुआ मानस किसी भी समस्या का समाधान नहीं कर सकता है, वह स्वयं समस्या है।

इस उलझन में जो लोग मुक्त हैं उन्हें भारतीय शिक्षा देने वाला आन्तर्राष्ट्रीय शिक्षा बोर्ड अवश्य बनाना चाहिये । जैसा कि एक प्राध्यापक ने पूर्व में कहा था अपने ही मानकों से इसे चलाना चाहिये ताकि विश्व के लिये वह भी एक अध्ययन का प्रतिमान बने । उसके माध्यम से भारत अपने आपको भी पहचान सकेगा और विश्व के समक्ष भी अपनी पहचान प्रस्तुत कर सकेगा।

प्रश्न ३ भारत शत प्रतिशत साक्षरता का लक्ष्य क्यों प्राप्त नहीं कर सकता है ? अवरोध कौन से हैं ?

उत्तर

  1. भारत सरकार जब कुछ भी करती है तो वह सरकारी है इसीलिये पूरा नहीं हो सकता । सरकारी तन्त्र तो शिथिल है ही परन्तु इतने बड़े देश में वह तन्त्र के नियन्त्रण में रहना सम्भव नहीं है । इसलिये अपेक्षा करना व्यर्थ है।
  2. वास्तव में इस प्रकार के अभियान युनेस्को के दबाव में लिये जाते हैं, भारत सरकार की अपनी पहल नहीं है । जब छः से चौदह वर्ष की आयु की शिक्षा को संविधान में ही निःशुल्क और अनिवार्य बनाया है तब इस अभियान की अलग से क्या आवश्यकता है ? एक यदि पूर्ण नहीं हो सकता तो दूसरा कैसे होगा?
  3. वास्तव में हमारे देश के लोगों को ही शिक्षा की कोई चाह नहीं है । जिसे चाह होती है वह तो बिना अभियान के भी शिक्षा प्राप्त करने का प्रयास करता है । जिन्हें चाह ही नहीं है उनके लिये कितना भी प्रयास करो तो भी वह फलदायी नहीं हो सकता । सरकार का केवल पैसा ही खर्च होता है।
  4. जो लोग घूमन्तु जाति के हैं, दिनभर मजदूरी करते हैं, बच्चों को भी काम में लगाते हैं वे उन्हें पढने के लिये कैसे भेज सकते हैं। साथ ही उन्हें लिखने पढने की बहुत चाह भी नहीं होती इसलिये वे सरकार के आव्हान को प्रतिसाद नहीं देते ।
  5. उनकी दृष्टि से भी जरा देखें । किसान का बेटा पढता है और किसानी नहीं करता, उसी प्रकार सभी कारीगरी के व्यवसायों पर साक्षरता का विपरीत प्रभाव होता है। उस व्यक्ति को तो ठीक ही है परन्तु देश को भी सारे व्यवसायों का छिन्नविच्छिन्न हो जाना कैसे मान्य हो सकता है ? परन्तु सरकारी तन्त्र भी एक ही बात देखता है उससे सम्बन्धित अन्य बातों का विचार नहीं करता । आर्थिक क्षेत्र की कठिनाई तो कोई मोल नहीं ले सकता । इसलिये वे पढना लिखना न चाहे यही अच्छा है।
  6. यदि शतप्रतिशत साक्षरता का लक्ष्य प्राप्त करना है तो सरकार को यह कार्य निजी संस्थाओं को देना चाहिये। उसके लिये जो बजट है वह इन समाजसेवी संगठनों को देना चाहिये । तब यह कार्य निश्चित रूप से सम्भव हो सकता है। इसमें कार्य के विकेन्द्रीकरण का भी मुद्दा है। विकेन्द्रीकरण से कार्य की व्याप्ति कम हो जाती है इसलिये वह अपने नियन्त्रण में रहता है। भारत में ऐसी असंख्य संस्थायें हैं जो बिना सरकारी सहायता के भी शिक्षा के क्षेत्र में काम करती हैं।
  7. बात यह है कि आप घोडे को पानी तक तो ले जा सकते हैं परन्तु पानी पीने के लिये बाध्य नहीं कर सकते । शिक्षा की व्यवस्था तो राज्य और समाज कर सकता है परन्तु लोगों की इच्छा नहीं है तो उन्हें जबरन पढाया नहीं जा सकता । इसलिये उनमें लिखने पढने की चाह निर्माण करना ही अत्यन्त आवश्यक है। सरकार साधनसामग्री और व्यवस्था के लिये जितना खर्च करती है उतना यदि शिक्षा की इच्छा जगाने के लिये करे तो साधन सामग्री और व्यवस्था के अभाव में भी लोग शिक्षा प्राप्त कर लेंगे । परन्तु सरकारी तन्त्र मानवीय नहीं होता, जड होता है। उसमें लोगों को प्रेरित करने की शक्ति नहीं होती । इसलिये शत प्रतिशत साक्षरता के लक्ष्य को प्राप्त करना सरकार के लिये कठिन हो जाता है।

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इन अभिप्रायों का स्वर भी नकारात्मक ही है। परन्तु शत प्रतिशत साक्षरता जैसी सभी योजनाओं का विचार मनोवैज्ञानिक ढंग से करना चाहिये, केवल नकारात्मक बातें करने से कोई उपलब्धि नहीं होगी।

पहली बात तो यह है कि ये सारे अभियान भारतीय मानस के अनुकूल नहीं है । भारत में युगों से लिखने और पढने की प्रतिष्ठा कम ही रही है। भारत में ऐसे अनेक तत्त्वज्ञसन्त, कलाकार, कारीगर, व्यापारी, गृहिणियाँ हुई है जो अपने अपने क्षेत्र में श्रेष्ठतम लोगों की श्रेणी के हैं परन्तु निरक्षर थे, कभी विद्यालय गये ही नहीं थे । आज भी ऐसे व्यापारी हैं जो अरबो रूपयों का व्यापार करते हैं, कम्प्यूटर चलाते हैं परन्तु अपने हस्ताक्षर के अलावा कुछ भी लिख नहीं सकते । उन्हें जीवन का ज्ञान है, केवल अक्षर का नहीं है, भारत का मानस चरित्र और व्यवहार ज्ञान को शिक्षित व्यक्ति का लक्षण मानता है, अक्षर ज्ञान को नहीं। यह बात इतनी गहरी बैठी है कि लिखना पढ़ना नहीं आने पर खास अपराधबोध नहीं होता।

एक उत्तरदाता की बात सही है कि लिखने पढने हेतु विद्यालय जाने से असंख्य परम्परागत व्यवसाय नष्ट हो गये हैं। यह तो बडा आपराधिक कृत्य है। विद्यालय जाने पर केवल अक्षरज्ञान नहीं मिलता, विद्यार्थी का मानस बदलता है। वह काम और काम करने वाले को हेय मानने लगता है और स्वयं काम नहीं करता । काम करना सीखता भी नहीं है। लिखना और पढना आना तो अच्छा है परन्तु काम करना छोडकर लिखना और पढना सीखना घाटे का सौदा है। अतः कुछ ऐसे उपाय करने चाहिये कि विद्यार्थी काम पहले सीखे और लिखना पढना काम करने के साथ साथ सीखे । उसके हाथों को काम करने के साधनों का स्पर्श पहले हो बाद में पुस्तक और लेखनी का । इससे लिखना और पढना काम करने से अधिक अच्छा है ऐसी ग्रन्थि नहीं बनेगी। इससे और एक समस्या भी नहीं पैदा होगी । करने के लिये काम है इसलिये हर पढा लिखा व्यक्ति नौकरी की खोज में नहीं दौडेगा । इससे शिक्षितों की बेरोजगारी कम होगी।

शत प्रतिशत साक्षरता एक तान्त्रिक मुद्दा है । नहीं भी है तो उसे बनाया गया है। केवल हस्ताक्षर करना भी आ गया तो व्यक्ति साक्षर हो गया ऐसा माना जाने लगा है। परन्तु साक्षरता की ऐसी व्याख्या नहीं है । साक्षर तो पण्डित को कहते हैं । शास्त्रों के जानकार को कहते हैं । हमने हमारी भाषा के श्रेष्ठ शब्द का अर्थ ही निम्न कोटि का बना दिया है । परन्तु अब वह भी एक पारिभाषिक शब्द बन गया है ।

इसलिये हमें अपना और लोगों का मानस यह बनाना चाहिये कि केवल अक्षरज्ञान से नहीं अपितु जीवन के ज्ञान से साक्षर बनना चाहिये । ऐसा साक्षर हर कोई बन सकता है । इस अर्थ में तो भारत अन्य कई देशों से अधिक मात्रा में साक्षर

एक उत्तरदाता ने सही कहा है कि सरकार इस अभियान में लगेगी तो कभी भी यश प्राप्त नहीं होगा । जड तन्त्र का शिक्षा से कोई लेनादेना होता भी नहीं है । जड तत्त्व ढाँचा बना सकता है उसमें जीवन नहीं होता है। अतः बिना सरकारी योजना के भी भारत को शत प्रतिशत साक्षरता के लक्ष्य को प्राप्त करने वाला तो बनाना ही चाहिये । भारत हमेशा शिक्षितों का देश रहा है, पराये नहीं अपितु अपने ही मापदण्डों और प्रयासों से ।।

प्रश्न ४ भारत का जीडीपी क्यों नहीं बढता है ? उसे बढाने के लिये क्या करना चाहिये ?

उत्तर

  1. भारत के लोग व्यापारी बुद्धि के नहीं हैं । इसलिये जो सेवायें और पदार्थ अत्यन्त मूल्यवान होते हैं उनकी कीमत वसूल करना उन्हें आता नहीं है । इसलिये बाजार में नकद का लेनदेन बहुत कम होता है, और अपेक्षाकृत स्थिर भी रहता है । इसलिये विकसित देशों की तुलना में वह सदैव कम ही रहता है । कम जीडीपी के चलते भारत कभी विकसित देश नहीं हो सकता।
  2. लगभग हर उत्पाद या सेवा का भारत जैसे बड़े देश का व्यापार अन्य कई देशों की तुलना में कम ही है। उदाहरण के लिये होटेल उद्योग, मनोरंजन उद्योग, शस्त्र उद्योग, शिक्षाउद्योग, हॉस्पिटल उद्योग आदि । ये सारे उत्पादन और सेवायें भारत में सस्ते भी है इसका विपरीत प्रभाव जीडीपी पर होता है।
  3. भारत में जो विदेशी कम्पनियाँ हैं उनकी कमाई का लाभ भारत को नहीं होता । यह भी जीडीपी नहीं बढने का एक कारण है।
  4. भारत में धर्मादाय संस्थाओं का, निःशुल्क सेवा करनेवालों का, बिना पैसे लेन देन करने वालों का अनुपात अधिक है । इसलिये काम होता है, खर्च या कमाई नहीं । इससे जीडीपी नहीं बढता है ।

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यह एक अच्छा प्रश्न है जो जीडीपी की संकल्पना कितनी हास्यास्पद है यह सिद्ध करने का अवसर देता है। भारत का जीडीपी नहीं बढता यह स्वाभाविक भी है और अच्छा भी है। एक उदाहरण से समझने का प्रयास करेंगे।

भारत में हजारों लोगों को सदाव्रतों में भोजन मिलता है, यात्रियों को पीने का पानी जलसेवा से निःशुल्क मिलता है। अनेक भिक्षकों और संन्यासियों को निःशुल्क भोजन मिलता है। अतिथि निःशुल्क भोजन प्राप्त करते हैं। इसका परिणाम यह होता है कि होटेल उद्योग बढता नहीं है ।

भारत में शिशुसंगोपन और बिमारों की परिचर्या घर में होती है जो निःशुल्क होती है। भारत में लोग कम बीमार होते हैं और बीमारी में भी कम दवाई लेते हैं। अनेक धर्मादाय ऋग्णसेवा संस्थायें होती हैं। परिणाम स्वरूप हॉस्पिटल उद्योग कम पनपता है और देश का जीडपी कम रह जाता है। संक्षेप में भारत में अनेक बातें ऐसी हैं जिनका व्यापार नहीं होता, जो बाजार का हिस्सा नहीं होती । इस प्रकार पैसे के लेनदेन का व्यवहार नहीं होना अच्छा माना जाता है । वह संस्कृति का अंग है। घर में गृहिणियाँ भोजन बनाती हैं। बच्चों का संगोपन करती हैं, वृद्धों की सेवा करती हैं वे यदि उसका पैसों में हिसाब करने लगें तो देश का जीडीपी तो बढ जायेगा परन्तु संस्कारिता समाप्त हो जायेगी। जीडीपी बढाने के और विकसित कहे जाने के मोह में संस्कारिता को छोड देना तो बड़े घाटे का सौदा है । इसलिये भारतीय मानस कहता है कि जीडीपी नहीं बढता है तो न सही, संस्कारिता का त्याग करना सम्भव नहीं।

इससे आगे बढकर भारत ने प्रश्न उठाना चाहिये कि संस्कृति और विकास एकदूसरे के विरोधी कैसे हो सकते हैं ? जिसमें संस्कारिता कम हो वह विकास का लक्षण कैसे हो सकता है ? इसका अर्थ है कि विकास की परिभाषा और आर्थिक मापदण्ड ये दोनों बातें अनुचित हैं । वास्तव में विकास संस्कार और संस्कृति के समसम्बन्ध में होना चाहिये, विपरीत सम्बन्ध में नहीं । आर्थिक स्थिति समग्र जीवन का एक अंग है और वह भी सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण नहीं । पश्चिमने कम महत्त्वपूर्ण अर्थ को केन्द्रस्थान में रखकर अपने और विश्व के सही विकास के मार्ग को ही अवरुद्ध कर दिया है।

जीडीपी यदि इतना अवांछनीय मापदण्ड है तो उसे बढाने के उपाय करने का तो प्रश्न ही नहीं उठता । भारत का जन सामान्य इसे समझे और विद्वान इस पर शास्त्रार्थ कर उसके अस्वीकार की भूमिका बनाये, साथ ही उसका पर्याय प्रस्तुत करे यही उपाय है ।

प्रश्न ५ आन्तर्राष्ट्रीय मानक कौन निर्धारित करता है ? भारत तथा विश्व के अन्यान्य देश उन्हें क्यों मानते हैं ?

उत्तर

  1. आन्तर्राष्ट्रीय मापदण्ड अमेरिका बनाता है क्योंकि वह विश्व का नम्बर वन देश है।
  2. आन्तर्राष्ट्रीय मापदण्ड संयुक्त राष्ट्रसंघ बनाता है । जो देश संयुक्त राष्ट्रसंघ के सदस्य होते हैं उन्हें यह लागू होता है इसलिये वे इसे मानते हैं।
  3. आन्तर्राष्ट्रीय मापदण्ड वैश्विक हैं। आज वैश्विकता का जमाना है इसलिये जिस किसी देश को विकसित और वैश्विक होना है उसे इन मापदण्डों को मानना चाहिये । आन्तर्राष्ट्रीय मापदण्ड पर कसे जाने से मूल्य बढ़ जाता है। इसलिये तो कई बार विज्ञापनों में ‘आन्तर्राष्ट्रीय मापदण्ड के अनुसारन निर्मित ऐसा लिखा हुआ होता है।' आन्तर्राष्ट्रीय शिक्षा बोर्ड को प्रतिष्ठा होती है इसलिये लोग उनमें अपनी सन्तानों को भेजते हैं।

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वास्तव में आन्तर्राष्ट्रीय मापदण्ड संयुक्त राष्ट्रसंघ अथवा उसके द्वारा मान्य संस्थायें बनाती हैं। कई बार संयुक्त राष्ट्रसंघ के दायरे से बाहर की संस्थायें भी ऐसा मापदण्ड तैयार करती हैं।

इन्हें मानना कब अनिवार्य है ? जब अन्य देशों के साथ व्यवहार करना है अथवा आन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर व्यवहार करना है तब इन्हें मानना अनिवार्य है। उदाहरण के लिये आन्तर्राष्ट्रीय मानक नहीं अपनाये हैं तो कोई शोधपत्रिका आन्तर्राष्ट्रीय नहीं बन सकती और उन्हीं मानकों के बिना ऐसी पत्रिका में किसी अध्येता का शोध प्रबन्ध प्रकाशित नहीं हो सकता। आन्तर्राष्ट्रीय मानकों को नहीं अपनाया है तो विश्वविद्यालय को आन्तर्राष्ट्रीय का दर्जा प्राप्त नहीं हो सकता, कभी कभी तो इन मानकों को नहीं मानना आपराधिक भी बन जाता है। उदाहरण के लिये चिकित्साशास्त्र में एलोपथी द्वारा मान्य नहीं है ऐसा उपचार करना अपराध माना जाता है ।

परन्तु मुख्य रूप से सन्दर्भ आर्थिक होता है। उदाहरण के लिये आप किसी बिमारी का उपचार जानते हैं और करते हैं परन्तु वह प्रमाणित नहीं है । तब आप उपचार तो कर सकते हैं परन्तु उसका पैसा नहीं ले सकते । यदि कोई उसके विरुद्ध शिकायत करता है, नुकसान होने का दावा करता है तब भी वह अपराध बनता है । यदि वह आन्तर्राष्ट्रीय मानकों द्वारा मान्य है और फिर भी उससे नुकसान होता है तो वह उपचार को दोष नहीं माना जाता, दवाई का भी नहीं माना जाता, व्यक्ति का हो सकता है अथवा वह संयोग हो सकता है।

आज के सारे आन्तर्राष्ट्रीय मापदण्ड पश्चिमी जीवनदृष्टि के अनुसार बने हैं । इसलिये अनेक बातों में भारत उसे मान्य नहीं कर सकता । उदाहरण शिक्षा के क्षेत्र का ही लें। पश्चिम की अनुसन्धान पद्धित को भारत मान्य नहीं कर सकता । परन्तु विडम्बना है कि उसे मान्य करना पडता है क्योंकि भारत ने अपनी प्राचीन अनुसन्धान पद्धति को युगानुकूल स्वरूप देकर पुनर्जीवित नहीं किया । इसलिये भारत को पुनः भारतीय ज्ञान की साधना कर, उसे पुनर्जीवित कर अपने लिये और विश्व के लिये मापदण्ड बनाने चाहिये।

प्रश्न ६ भारत में लोकतन्त्र १९४७ में प्रारम्भ हुआ इसके कारण क्या हैं ? इसके परिणाम क्या हैं ?

उत्तर

(१) लोकतन्त्र ब्रिटीशों की देन है। भारत तो असंख्य छोटे छोटे राज्यों में विभाजित था। सबके राजा थे। मुसलमानों के राजग्रहण करने के बाद उनके भी राज्य होने लगे और वे नवाब कहलाने लगे । राजा और नवाब विलासी होते थे और परस्पर लडते झघडते रहते थे । ब्रिटीशों ने इनको नियन्त्रित किया, अपने अधीन बनाया, भारत को एक राष्ट्र बनाया और सर्वजन समाज की देश को चलाने में समान रूप से सहभागिता हो ऐसी लोकतन्त्रात्मक राज्यव्यवस्था दी । अनेक प्रकार

References

भारतीय शिक्षा : वैश्विक संकटों का निवारण भारतीय शिक्षा (भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला ५), प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे