Difference between revisions of "Ashwini month festival (आश्विन मास के अंतर्गत व्रत व त्यौहार)"

From Dharmawiki
Jump to navigation Jump to search
(नया लेख बनाया)
 
(लेख सम्पादित किया)
Line 1: Line 1:
आश्विन मास में हमारी पृथ्वी और लोक या ज्योतिषचक्र के अनुसार अन्तर बहुत थोड़ा रह जाता है। अतः श्राद्ध के पुण्य का फल इस लोक से पितृ लोक में बहुत सरलता से पहुंच जाता है। एक समय महाकाल का चरित्र सुनने के लिए राजा करन्घम श्री महाकाल (जिनके दर्शन मात्र से पापी लोग पाप मुक्त होकर पवित्र हो जाते हैं, के आश्रम पर गये।) उनकी पूजादि करके उन्हें प्रणाम किया और उनकी स्तुति करने लगे और उनके पास बैठ गये। तब मुस्कराते हुए महाकालजी ने उनकी अगवानी की और संस्कारपूर्वक उनको अर्ध्य प्रदान किया, फिर कुशल मंगल के पश्चात् जब राजा सुखपूर्वक बैठे तो उन्होंने महाकालजी से पूछा कि-"भगवान मेरे मन में सदैव संशय बना रहता है कि मनुष्यों द्वारा जो पितरों को अर्पण किया जाता है, उसमें जल तो जल ही में चला जाता है फिर हमारे पूर्वज किस तरह से तृप्त होते हैं और इसी
+
आश्विन मास में हमारी पृथ्वी और लोक या ज्योतिषचक्र के अनुसार अन्तर बहुत थोड़ा रह जाता है। अतः श्राद्ध के पुण्य का फल इस लोक से पितृ लोक में बहुत सरलता से पहुंच जाता है। एक समय महाकाल का चरित्र सुनने के लिए राजा करन्घम श्री महाकाल (जिनके दर्शन मात्र से पापी लोग पाप मुक्त होकर पवित्र हो जाते हैं, के आश्रम पर गये।) उनकी पूजादि करके उन्हें प्रणाम किया और उनकी स्तुति करने लगे और उनके पास बैठ गये। तब मुस्कराते हुए महाकालजी ने उनकी अगवानी की और संस्कारपूर्वक उनको अर्ध्य प्रदान किया, फिर कुशल मंगल के पश्चात् जब राजा सुखपूर्वक बैठे तो उन्होंने महाकालजी से पूछा कि-"भगवान मेरे मन में सदैव संशय बना रहता है कि मनुष्यों द्वारा जो पितरों को अर्पण किया जाता है, उसमें जल तो जल ही में चला जाता है फिर हमारे पूर्वज किस तरह से तृप्त होते हैं और इसी तरह विद आदि सब दान भी अतः हम यह बात किस प्रकार से मान लें कि यह हमारे पितर आदि के उपभोग में आता है?" महाकाल ने कहा कि-“हे राजन! पितरों और देवताओं की योनि ही ऐसी है कि दूर कहीं बातें भी सुन लेते हैं। दूर की पूजा भी ग्रहण कर लेते हैं। दूर की स्तुति से भी सन्तुष्ट हो जाते हैं। इसके सिवाय यह भूत, भविष्य और वर्तमान की सभी बातों को जानते हैं। पांचों तन्त्राज्ञायें, मन-वृद्धि और अहंकार तथा प्रकृति-इन तत्वों का बना हुआ शरीरं होता है, इसके अन्दर दसवें तत्व के रूप में साक्षात भगवान विष्णु निवास करते हैं, अत: देवता और पितर गन्ध तत्व से तृप्त हो जाते हैं। शब्द तत्व से रहते हैं तथा तत्व को ही ग्रहण करते हैं और किसी को पवित्र देखकर उनके मन को बड़ा संतोष होता है। जैसे पशु का भोजन तृण है और मनुष्यों का भोजन अन्न कहा जाता है। वैसे ही देव-योनियों का भोजन अन्न का सार तत्व है। सम्पूर्णदेवताओं की शक्ति, अचित्य एवं ज्ञान गम्भ है।" अत: वह अन्न-जल का सार तत्व ही ग्रहण करते हैं। शेष तो स्थूल वस्तु है वह यहीं स्थित देखी जाती है।
 +
 
 +
=== कृष्ण अष्टमी ===
 +
आश्विन कृष्ण अष्टमी को अपने पुत्र की आयु बढ़ाने के लिए या जिसके पुत्र होकर मर जाते हैं, इस व्रत के करने से पुत्र जीवित और चिरायु होते हैं। अष्टमी को नित्यकार्य करने के पश्चात् सोने की प्रतिमा बनाकर सूर्य नारायण का पूर्वोक्त षोडशोपचार विधि से पूजन करें। एक समय बाजरा तथा चने के अन्न का भोजन करें, ब्रह्मचर्य से रहें, सारी रात जागरण करें, दूसरे दिन प्रात: समय उठकर, स्नानादि करके व्रत का आरम्भ करने के निमित्त ब्राह्मणों को भोजन कराकर दक्षिणा दें। फिर स्वयं भी भोजन करें। इस प्रकार पांच तथा सात वर्ष तक करने के पश्चात्  ईसका उद्यापन करें। इस प्रकार जो मनुष्य इस व्रत को करते हैं उनके पुत्र चिरायु होते हैं।

Revision as of 10:12, 1 October 2021

आश्विन मास में हमारी पृथ्वी और लोक या ज्योतिषचक्र के अनुसार अन्तर बहुत थोड़ा रह जाता है। अतः श्राद्ध के पुण्य का फल इस लोक से पितृ लोक में बहुत सरलता से पहुंच जाता है। एक समय महाकाल का चरित्र सुनने के लिए राजा करन्घम श्री महाकाल (जिनके दर्शन मात्र से पापी लोग पाप मुक्त होकर पवित्र हो जाते हैं, के आश्रम पर गये।) उनकी पूजादि करके उन्हें प्रणाम किया और उनकी स्तुति करने लगे और उनके पास बैठ गये। तब मुस्कराते हुए महाकालजी ने उनकी अगवानी की और संस्कारपूर्वक उनको अर्ध्य प्रदान किया, फिर कुशल मंगल के पश्चात् जब राजा सुखपूर्वक बैठे तो उन्होंने महाकालजी से पूछा कि-"भगवान मेरे मन में सदैव संशय बना रहता है कि मनुष्यों द्वारा जो पितरों को अर्पण किया जाता है, उसमें जल तो जल ही में चला जाता है फिर हमारे पूर्वज किस तरह से तृप्त होते हैं और इसी तरह विद आदि सब दान भी अतः हम यह बात किस प्रकार से मान लें कि यह हमारे पितर आदि के उपभोग में आता है?" महाकाल ने कहा कि-“हे राजन! पितरों और देवताओं की योनि ही ऐसी है कि दूर कहीं बातें भी सुन लेते हैं। दूर की पूजा भी ग्रहण कर लेते हैं। दूर की स्तुति से भी सन्तुष्ट हो जाते हैं। इसके सिवाय यह भूत, भविष्य और वर्तमान की सभी बातों को जानते हैं। पांचों तन्त्राज्ञायें, मन-वृद्धि और अहंकार तथा प्रकृति-इन तत्वों का बना हुआ शरीरं होता है, इसके अन्दर दसवें तत्व के रूप में साक्षात भगवान विष्णु निवास करते हैं, अत: देवता और पितर गन्ध तत्व से तृप्त हो जाते हैं। शब्द तत्व से रहते हैं तथा तत्व को ही ग्रहण करते हैं और किसी को पवित्र देखकर उनके मन को बड़ा संतोष होता है। जैसे पशु का भोजन तृण है और मनुष्यों का भोजन अन्न कहा जाता है। वैसे ही देव-योनियों का भोजन अन्न का सार तत्व है। सम्पूर्णदेवताओं की शक्ति, अचित्य एवं ज्ञान गम्भ है।" अत: वह अन्न-जल का सार तत्व ही ग्रहण करते हैं। शेष तो स्थूल वस्तु है वह यहीं स्थित देखी जाती है।

कृष्ण अष्टमी

आश्विन कृष्ण अष्टमी को अपने पुत्र की आयु बढ़ाने के लिए या जिसके पुत्र होकर मर जाते हैं, इस व्रत के करने से पुत्र जीवित और चिरायु होते हैं। अष्टमी को नित्यकार्य करने के पश्चात् सोने की प्रतिमा बनाकर सूर्य नारायण का पूर्वोक्त षोडशोपचार विधि से पूजन करें। एक समय बाजरा तथा चने के अन्न का भोजन करें, ब्रह्मचर्य से रहें, सारी रात जागरण करें, दूसरे दिन प्रात: समय उठकर, स्नानादि करके व्रत का आरम्भ करने के निमित्त ब्राह्मणों को भोजन कराकर दक्षिणा दें। फिर स्वयं भी भोजन करें। इस प्रकार पांच तथा सात वर्ष तक करने के पश्चात् ईसका उद्यापन करें। इस प्रकार जो मनुष्य इस व्रत को करते हैं उनके पुत्र चिरायु होते हैं।