आशा कहाँ है ?

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अध्याय ३९

भारत के विषय में भारतवासियों को ही अनेक प्रकार की शिकायते हैं। भारत की जनसंख्या इतनी अधिक है कि अनेक परस्पर विरोधी अभिप्राय सुनने को मिलते हैं। भारतीय शास्त्रों और परम्पराओं में विश्वास करनेवाला एक वर्ग ऐसा है जिसे शिकायत हैं कि देश अपने प्राचीन श्रेष्ठ ज्ञान को भूल गया है, अपनी परम्पराओं को छोड़ रहा है अथवा विकृत कर रहा है इसलिये उसकी अधोगति हो रही है। एक तबका पश्चिमवादी है जो अपने आपको आधुनिक और बुद्धिजीवी मानता है उसकी शिकायत है कि भारत इक्कीसवीं शताब्दी में भी अपनी पुरातन सोच छोडता नहीं है और पिछडा ही रह जाता है । बौद्धिकों को लगता है कि देश में अनुसन्धान के लिये कोई अवसर नहीं है, उनकी विद्वत्ता की कोई कदर नहीं है। किसी को लगता है कि भारत के लोग कानून, स्वच्छता, सार्वजनिक अनुशासन को मानते नहीं हैं, यातायात के नियम तोडते हैं, कहीं पर भी थूकते हैं और कचरा फेंकते हैं। किसी को राज्यव्यवस्था अच्छी नहीं लगती, राजनीति का क्षेत्र गन्दा लगता है। किसी को आर्थिक क्षेत्र में भ्रष्टाचार ही भ्रष्टाचार दिखाई देता है, किसीको शील और संस्कार का नाश हो गया है ऐसा लगता है तो किसी को अन्धश्रद्धा का वर्चस्व दिखाई देता है। अनेक लोग ऐसे हैं जो विदेश जाने का अवसर नहीं मिलता इसलिये भारत में रहते हैं, अंग्रेजी बोल सकते हैं तो गौरव का अनुभव करते हैं, नहीं बोल सकते तो तूटी फूटी बोलने का प्रयास करते हैं और उतनी भी नहीं बोल सकते तब अंग्रेजी बोलनेवाले से दब जाते हैं और हीनताबोध का अनुभव करते हैं । लगभग सार्वत्रिक रूप से शिक्षा के प्रति सबको शिकायत है, किसी को महँगी लगती है, किसी को संस्कारहीन लगती है, किसी को निकृष्ट गुणवत्ता की लगती है, किसी को निरर्थक लगती है।

इतने अधिक लोगों को इतनी अधिक शिकायतें हैं तब विचार यह आता है कि यह देश चलता कैसे है ? इसे कौन चलाता है ? दो सौ वर्षों के ब्रिटीश आधिपत्य से किस बल पर मुक्त हुआ । दुनिया के अनेक देश पूर्ण इसाई हो गये और पूर्ण यूरोपीय हो गये परन्तु भारत का पूर्ण इसाईकरण और यूरोपीकरण नहीं हुआ। ऐसी कौन सी शक्ति है जो भारत का अस्तित्व मिटने नहीं दे रही है ?

बात जरा सूक्ष्मतापूर्वक विचार करने लायक है। भारत निश्चित रूप से उसके विश्वविद्यालयों के प्रताप से तो नहीं चल रहा है। उल्टा हम कह सकते हैं कि विश्वविद्यालय सभी सांस्कृतिक संकटों का उद्गमस्थान है। हमारा शिक्षाक्षेत्र पश्चिमी प्रभाव से ग्रस्त होने के कारण से भारतीय जीवनदृष्टि से विपरीत बातें ही बढाता है।

जो राजकीय क्षेत्र भी भारत का उद्धार करनेवाला नहीं है वह चुनाव निभा लेता है, संसद चला लेता है, न्यायालय और सेना का संचालन कर लेता है, संविधान बना लेता है और उसमें सुधार भी कर लेता है परन्तु शिक्षा, संस्कृति, धर्म, समृद्धि, व्यवस्था आदि की रक्षा उससे नहीं हो रही

आर्थिक क्षेत्र समृद्धि बढाने के स्थान पर बेरोजगारी और दारिद्य को ही बढावा दे रहा है। धर्म सबकी रक्षा करने वाली व्यवस्था है परन्तु सबने मिलकर धर्म को ही विवाद का विषय बना दिया है और सरकार ने, विश्वविद्यालय ने और धर्माचार्यों ने धर्म का त्याग कर दिया है। राज्य, शिक्षा और धर्म के क्षेत्र में ही जब अराजक हो

References

भारतीय शिक्षा : वैश्विक संकटों का निवारण भारतीय शिक्षा (भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला ५), प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे