आर्थिक हत्यारे की स्वीकारोक्ति

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अमेरिका को आज नम्बर वन कहा जाता है। परन्तु इसे नम्बर वन कौन कहते हैं ? यह स्वयं ही और अपने जसे हीनता बोध से पीड़ित भोले व अज्ञानी लोग। वास्तव में अमेरिका जैसा निर्दयी, लोभी और हिंसक देश दुनियाँ में दूसरा नहीं है। शोषण, लूट, हिंसा, भ्रष्टाचार, अनीति, कामुकता, पशुता, असुरता - ऐसी एक भी बात नहीं है जिसमें अमेरिका का व्यवहार देखकर हमें कँपकँपी न छूट आये, और हम भयभीत न हो जाये। दुनियाँ को लूटने का अमेरिका ने एक ऐसा जाल बुना है जिसमें पढ़े लिखे और विद्वान लोग, धनवान लोग, आतंकवादी और सत्ताधीश भी शामिल हैं। यह सारी हिंसक और घातक गतिविधियों को उसने सुनहरा रूप और सुनहरे नाम दिये हैं जिनसे वह दुनियाँ को ठगता है। इस घातक गतिविधि में शामिल एक आर्थिक हत्यारे जोन परकीन्स की लिखी हुई पुस्तक के कुछ अंश यहाँ प्रस्तुत हैं, जिसका भावानुवाद राजकोट के उद्योगपति श्री वेलजीभाई देसाई ने किया है।

आर्थिक हत्यारे उच्च वेतन पाने वाले लोग होते हैं । वे सारी दुनियाँ का शोषण कर हजारों अरब डॉलर की लूट करते हैं । विश्व बैंक, अन्तरराष्ट्रीय विकास के लिए बनी यु.एस. एजेन्सी और विदेशी ‘मदद' के लिए स्थापित संस्थाओं में से सम्पूर्ण धन वे आर्थिक हत्यारे पृथ्वी की प्राकृतिक सम्पत्ति का अंकुश जिनके हाथों में है ऐसे विशाल कोर्पोरेशनों की तिजोरियों में और कुछ अरबपति कुटुम्बों की जेबों में ले जाते हैं । ये आर्थिक हत्यारे पैसे के हिसाब की रिपोर्ट तैयार करके चुनावों में प्रपंच रच कर हारजीत करवाते हैं, बहुत बड़ी रकम रिश्वत में देकर, जोर-जबरदस्ती करके, सेक्स के लिए स्त्रियों का उपयोग करके तथा आवश्यकता पड़ने पर हत्या करवाकर भी अपनी गतिविधियाँ करते रहते हैं । पुराने समय में साम्रज्य जो जो गन्दी चालें चला करते थे, उनसे भी अधिक आज के वैश्विकरण के युग में ये गन्दी चालें, जिनकी हम तो कल्पना भी नहीं कर सकते, भयानक मात्रा में बढ़ गई हैं।

"मैं ऐसा ही एक आर्थिक हत्यारा था ।" - जोन परकीन्स

ईक्वाडॉर देश के प्रमुख जेइम रोल्दोस और पनामा के प्रमुख जोमार टोरीजोस ये दोनों विमान में आग लगने से मरे । उनकी मृत्यु अकस्मात नहीं हुई थी। उन्हें मरवाया गया था । क्यों कि वैश्विक साम्राज्य स्थापित करना चाहने वाले कोर्पोरेशन, अमेरिकन सरकार और बैंकों के उच्च अधिकारियों को साथ देने का इन्होंने विरोध किया था । रोल्दोस और टोरीजोस को सीधा करने के प्रयास जो आर्थिक हत्यारों ने किये थे, वे विफल हुए। इसलिए अमेरिकन जासूसी संस्था (CIA) के अधिकृत गुण्डों ने यह काम हाथ में लिया था।

मुझे यह पुस्तक न लिखने के लिए समझाया गया । गत २० वर्षों में मैंने यह पुस्तक चार बार लिखने का प्रयत्न किया, परन्तु धमकियों अथवा रिश्वत की बहुत बड़ी रकम के कारण पुस्तक लिखना बन्द करने की बात मैं मान गया था। जब मैंने यह पुस्तक लिख दी तो एक भी प्रकाशक ने इसे छापने की हिम्मत नहीं दिखाई। उन्होंने मुझे सुझाया कि इसे मैं उपन्यास के रूप में लिख दूँ तो वे छाप देंगे । किन्तु मैंने उन्हें कहा कि ये कोई उपन्यास नहीं हैं, मेरे जीवन की यह सत्य घटना है । मैं आज जिस स्थिति में हूँ, वहाँ आर्थिक हत्यारे की भाँति काम करके किस प्रकार पहुँचा, इसकी सत्य घटना है, जिसका कोई हल न निकाल सके, ऐसी आपात स्थिति में यह दुनिया कैसे आ गई, उसकी सत्य घटनाएं हैं। इस दुनिया में प्रतिदिन भूख से २४,००० लोग मर जाते हैं। ऐसा क्यों होता है इसकी वास्तविकताएँ इसमें हैं । दुनियाँ के इतिहास में पहली बार ही ऐसा हुआ है कि एक ही देश के पास में दुनिया को जैसे नचाना हो वैसे नचा सके ऐसी शक्ति, सत्ता और धन आ गया है । यह देश है युनाइटेड स्टेट्स ऑफ अमेरिका, जहाँ मैं जन्मा हूँ और जहाँ आर्थिक हत्यारे के पद पर मैंने काम किया है।

इस पुस्तक के प्रकाशक ने मुझे पूछा कि तुम वास्तव में 'आर्थिक हत्यारा' कहलाते हो ? मैंने उसे पक्का विश्वास दिलाया कि 'हाँ' हम आर्थिक हत्यारे के रुप में ही पहचाने जाते हैं। परन्तु Economic Hit Man यह पूरा नाम बोलने के स्थान पर EHM संक्षेप में ही बोलते हैं । मेरे कार्य की जानकारी मेरी पत्नी को भी नहीं हो सकती। एकबार हमने 'आर्थिक हत्यारा' के रुप में प्रवेश ले लिया, तो पूरी जिन्दगी के लिए अन्दर ही रहना अनिवार्य बन जाता है।

मेरा काम दुनिया के नेताओं को यह समझाना था कि अमेरिका ने दुनिया को लूटकर विश्व साम्राज्य खड़ा करने का जो जाल बिछाया है, उस लूट के खेल में वे नेता भी शामिल हो जायें । आखिर ये सभी नेता कर्ज के जाल में फँस जाते हैं। यह उनकी वफादारी की निश्चितता मानी जाती है। बाद में तो चाहे तब हम हमारी राजकीय, आर्थिक या सेना की जरुरतों के लिए उनके पास निश्चित किया हुआ काम करवा सकते हैं, बदले में वे औद्योगिक क्षेत्र, पॉवर प्लान्ट, एयरपोर्ट आदि अपने देश में स्थापित कर विकास का भ्रम खड़ा करके अपनी राजकीय स्थिति मजबूत करते हैं, परन्तु अमेरिका की इन्जीनीयरिंग और निर्माण कार्य की कम्पनियों के मालिक हमारी कल्पना से भी अधिक धनवान बन जाते हैं।

आज हम जूनून से चल रही इस हिंसक पद्धति के परिणाम देख सकते हैं। अत्यधिक सम्मान पाने वाले हमारी कम्पनियों के अधिकारी एशिया में गुलाम जितने मामूली वेतन पर अमानवीय स्थिति में लोगों से काम करवाते हैं । तेल कम्पनियाँ जानबूझ कर स्वच्छ नदियों में टोक्सिन डालती है और प्रजाको, प्राणियों को और वनस्पतियों को जानबूझकर मार कर प्राचीन संस्कृति का वंश समाप्त करने का काम करते हैं। दवा कम्पनियाँ एड्स से पीड़ित लाखों अफ्रिकन लोगों को जीवन रक्षक दवायें देने से मना करते हैं। हमारे अपने देश अमेरिका में भी १२० लाख लोग शाम को क्या खाउँगा इस चिन्ता में जीते हैं । उर्जा क्षेत्र में एनरोन और हिसाब के क्षेत्र में एण्डरसन जैसी अप्रामाणिक और लुटेरु कम्पनियाँ पैदा होती हैं । सन १९६० में दुनिया की बस्ती में सबसे अधिक धनवान २०% लोगों की आय सबसे गरीब २०% लोगों की आय की तुलना में ३० गुणा अधिक थी, वह १९९५ में ७८ गुणा अधिक हो गई। अमेरिका ईराक के युद्ध में ८७ अरब डोलर खर्च करता है। इससे आधी रकम में सारी दुनिया की सम्पूर्ण प्रजा को स्वच्छ जल, पर्याप्त भोजन, चिकित्सा सेवायें और आधारभूत शिक्षा दे सकते हैं ऐसा युनाइटेड नेशन्स का मानना है।

हमें आश्चर्य होता है कि आतंकवादी हम पर हमला क्यों करते हैं ? हम जो व्यवस्थित षडयंत्र चलाते हैं, उसके कारण आतंकवाद जन्म लेता है ऐसा कुछ लोग दोष देंगे। इतनी सीधी सादी बात हो तो अच्छा ही है। षडयंत्रकारी लोगों को ढूँढकर उनका न्याय तौल सकते हैं। परन्तु यह पद्धति षडयंत्र की तुलना में बहुत अधिक भयंकर ऐसी कोई वस्तु से विकसित हो रही है। यह कुछ लोगों की टोली से नहीं चलता, अपितु यह एक विचार या सिद्धान्त से चलता है, जो सनातन सत्य वेदवाक्य की भाँति सर्वत्र स्वीकृत होता है। वह सिद्धान्त यह है।

“कोई भी आर्थिक विकास मानव जाति के लिए लाभदायी है। जैसे आर्थिक विकास अधिक, उतना ही अधिक लाभ ।" इस सिद्धान्त में से एक दूसरा फलित सिद्धान्त खड़ा हुआ है । “जो लोग इस आर्थिक विकास की अग्नि को प्रज्वलित रखने में अगुवा हैं, उन्हें गौरव और सम्पत्ति मिलनी चाहिए। जबकि जो लोग सामान्य मनुष्य के रुप में जन्मे हैं, वे सभी शोषण के योग्य हैं।"

यह सिद्धान्त अत्यन्त भयानक है। हम जानते हैं कि अनेक देशों में आर्थिक विकास उस देश के मुठ्ठी भर धनवानों का लाभ करता हैं। जबकि अधिकांश प्रजा के लिए वे अत्यन्त खराब स्थिति पैदा करते हैं। पूर्व वर्णित सिद्धान्त की मान्यता ऐसी है कि इस पद्धति से चलने वाले उद्योगों के प्रमुखों को विशेष दर्जा मिलना चाहिए। इस प्रावधान के कारण इसका असर अधिक मजबूत बनता जाता है। इस मान्यता में ही हमारी वर्तमान की अनेक समस्याओं की जड़ विद्यमान है। दुनिया को लूटने के भाँति-भाँति के षडयंत्र पैदा होने का कारण भी यह मान्यता ही है। जब धन के लोभ को बडा पुरस्कार मिलता है तब लोभ स्वयं समाज को बिगाड़ने वाला कारक बन जाता है। जब हम पृथ्वी के संसाधनों के बेतहाशा उपभोग का सन्त के जैसा गुणगान करेंगे, जब हम अपने बालकों को असाधरण सुखी जीवन जीने की स्पर्धा करना सिखायेंगे और जब हम अधिकांश लोगों को एक धनवान छोटे समूह के गुलाम के रुप में तुच्छ मानेंगे हैं तब हम स्वयं मुश्किलों को निमन्त्रण ही देंगे।

वैश्विक साम्राज्य खड़ा करने के पागलपन में कोर्पोरेशन, बैंक और सरकार (ये सब मिल कर कोर्पोरेटोक्रेसी) स्वयं आर्थिक और राजकीय प्रभाव और दबाव को उपयोग में लेकर जैसा ऊपर बताया है, वह गलत सिद्धान्त और उसमें से फलित होने वाले उपसिद्धान्त को ही अपने स्कूलों में पढ़ाया जाये, व्यापार में यही प्रचलित रहे और मीडिया में भी इसी के गुणगान गाये जायें, इसका विशेष ध्यान रखा जाता है। यह कोर्पोरेटोक्रेसी अर्थात् कम्पनीशाही को हम खींच कर इस स्तर पर ले आये हैं कि हमारी वैश्विक संस्कृति एक राक्षसी मशीन बन गई है, जो हमेशा अधिक से अधिक ईंधन माँगती है, यहाँ तक कि वह सारी वस्तुएँ खा जायें और हमारा ही नाश करे । यह कोर्पोरेटोक्रेसी का सबसे महत्त्वपूर्ण काम इस पद्धति को लगातार मजबूत करते रहना और उसको फैलाना है। इस काम के लिए मेरे जैसे आर्थिक हत्यारों को कल्पना से भी परे भारी वेतन दिया जाता है । यह सब होते हुए भी हम जहाँ कमजोर पड़ते हैं, वहाँ सच में खूनी गुण्डों को काम सौंप देते हैं और वे भी अगर काम न कर पायें तो सेना द्वारा आक्रमण करवा दिया जाता है।

मैं जब आर्थिक हत्यारे के रूप में काम करता था, तब मेरे जैसे लोग संख्या में बहुत कम थे। अब तो आर्थिक हत्यारे बहुत बड़ी संख्या में रखे जाते हैं । बड़े बड़े छलना भरे पदों के नाम बहुत सुन्दर सुन्दर रखे जाते हैं। और वे मोनसेन्टो, जनरल इलेक्ट्रीक, नाइके, जनरल मोटर्स, वोलमार्ट जैसी लगभग दुनियाँ की सभी विशाल कम्पनियों में काम करते हैं । “आर्थिक हत्यारे की स्वीकारोक्ति" की यह पुस्तक मुझ पर जितनी लागू होती है, उतनी ही उन सभी कम्पनियों में काम करने वाले आर्थिक हत्यारों को भी लागू होती है। यह सच्ची वास्तविकता है। यह सब तुम्हें भी लागू होता है । क्यों कि तुम्हारा शोषण करके ही अमेरिका का वैश्विक साम्राज्य बना है। इतिहास हमें कहता है कि अगर इसे हम बदलेंगे नहीं तो इतना पक्का मानना कि बहुत ही खतरनाक परिणाम आने वाले हैं। ऐसे साम्राज्य स्थायी रुप से कभी नहीं रहते । प्रत्येक ऐसे साम्राज्य को बहुत बुरी तरह से बर्बाद किया गया है । हर ऐसा साम्राज्य बहुत बुरे ढंग से नष्ट हुआ है। अपने साम्राज्यवाद का विस्तार करने के प्रायसों में वे अनेक संस्कृतियों का नाश करते हैं और अन्त में उनका स्वयं का भी पतन होता है। दूसरे सभी देशों का शोषण करके मात्र एक ही देश आबाद नहीं रह सकता। मुझे तो यह लगता है कि हम सब निश्चित ही इतना तो समझते ही होंगे कि यह आर्थिक तंत्र हमें किस तरह लूट रहे हैं और प्राकृतिक सम्पत्तियों को लूटने का कभी सन्तोष न हो, ऐसी बड़ी भूख उत्पन्न करते हैं। और अन्त में उसमें से गुलामी को मजबूत करते हैं, इसलिए हमें इसे नहीं चलाना चाहिए। जिस व्यवस्था में थोड़े लोग ही समृद्धि मे लोटते हों और अरबों मनुष्य गरीबी, प्रदूषण और हिंसा में डूब कर मर रहे हों, उस व्यवस्था में हमें क्या करना चाहिए इसकी समीक्षा हम अवश्य करें ।

हम 'आर्थिक हत्यारे' वैश्विक साम्राज्य खड़ा करते हैं। हम सब बहुत सज्जन स्त्री-पुरुष हैं, जो सब अन्तरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं का उपयोग करके दूसरे देशों के लिए ऐसी कठिन स्थिति पैदा करते हैं कि उसमें दूसरे देश हमारी कोर्पोरेटोक्रेसी अर्थात् विशाल कम्पनियों, बैंको और हमारी सरकार के गुलाम बन जाय । हमारे माफिया सहभागीदारों की तरह हमें आर्थिक हत्यारे लालच देते हैं । देश में विकास के नाम पर बिजली के केन्द्र, हाइवे, मार्ग, बन्दरगाह, एयरपोर्ट और औद्योगिक क्षेत्रों को विकसित करने के लिए ऋण देते हैं । इन सभी ऋणों के साथ शर्त होती है कि केवल हमारे देश की इंजिनीयरिंग और निर्माण कार्य करने वाली कम्पनियों को ही वह ठेका देना होगा, अर्थात् जो ऋण देंगे उसके अधिकांश भाग की राशि अमेरिका से बाहर कभी नहीं जाती। लोगों के ये पैसे वाशिंग्टन की बैंकों में से न्यूयार्क, हस्टन और सान्फ्रान्सीस्को की इंजिनीयरिंग ऑफिसों में मात्र ट्रान्सफर होते है । परन्तु ऋण लेने वाले देश तो ऋण की सारी रकम तथा उस पर लगने वाला व्याज भी चुकाने को बाध्य हो जाते हैं, और इस प्रकार कर्ज में डूब जाते हैं। अगर आर्थिक हत्यारा पूर्ण रूप से सफल होता है तो उस देश को इतना बड़ा ऋण दे दिया जाता है कि लेने वाला देश इतनी बड़ी राशि कभी भी चुका न सके और कुछ वर्षों के बाद ही ऋण और ब्याज की किश्त अदा न कर पाये इस स्थिति में आ जाता है। ऐसी लाचार स्थिति में माफियों की तरह हम पूरा लाभ उठाते हैं। बाद में हम उस देश में पुलिस थाना स्थापित करने की माँग करते हैं जिससे तुम्हारी प्राकृतिक सम्पदा-पेट्रोलियम, खनिज आदि ले सकें। और वह कर्ज तो वैसा का वैसा खड़ा ही रहता है। इस तरह देश को गुलाम बनाते हैं और हमारा वैश्विक साम्राज्य बढ़ता हैं।

मैं और मेरे जैसे आर्थिक हत्यारों ने ईक्वाडोर (दक्षिण अमेरिका का देश) में गत ३५ वर्षों में आधुनिक अर्थशास्त्र, बैंक और इंजिनीयरिंग के विकास के नाम पर जो काम किया उससे गरीबी जो ५०% थी, वह ७०% हुई, कुल कर्ज २८ करोड़ डालर था वह १६०० करोड़ डॉलर हुआ, बेकारी १५% थी वह बढ़कर ७०% हुई, राष्ट्रीय सम्पत्ति का २०% गरीबों पर खर्च होता था, वह घटकर ६% रह गया ! ३५ वर्ष पहले शुद्ध नदी, शुद्ध पानी आदि था वह गन्दे गटर में बदल गया, क्योंकि ऑयल कम्पनियाँ प्रतिदिन ४० लाख गेलन गन्दा, तेल वाला और केन्सरयुक्त पानी इन स्वच्छ नदियों में डालती थीं। इन कम्पनियों ने ३५० खदानें खोदकर खुली छोड़ दीं, जिनमें मनुष्य और पशु गिरकर मरते रहते हैं।

अकेले ईक्वाडोर की यह दशा नहीं है। हम आर्थिक हत्यारों ने जिन जिन देशों को अमेरिकन वैश्विक साम्राज्य का गुलाम बना दिया है उन सभी देशों का यही हाल है। तीसरे विश्व का कर्ज बढ़कर २५०० अरब डॉलर पहुँच गया है। और कर्ज का ब्याज प्रति वर्ष ३७५ अरब डॉलर होता है उसमें से यह ब्याज की रकम २० गुणा है ! अभी (२००४) दुनिया की आधी बस्ती दैनिक दो डॉलर से भी कम ही कमाती है। इतनी कमाई तो १९७० में भी थी। परन्तु अभी तीसरे विश्व के केवल एक प्रतिशत लोग अपने देश की कुल वित्तीय समृद्धि तथा सम्पत्तियों का ७० से ९०% हिस्सा रखते हैं।

हम (२००४ में) सुन्दर नदी के किनारे प्रवास कर रहे थे, वहाँ नदी के मध्य में राक्षसी दिवार के रूप में खड़ा हुआ बाँध आया । इस बाँध के पानी से १५६ मेगावट का हाइड्रोलेक्ट्रिक पॉवर प्रोजेक्ट चलता था। इस की बिजली बड़े उद्योगों में उपयोग ली जाती थी। जिनसे ईक्वाडोर के मुठ्ठी भर मनुष्य समृद्ध होते थे और नदी के किनारे बसे हुए किसान और स्थानीय लोगों के अकथ्य दुःखों का कारण यह बाँध था । यह हाइड्रोलेक्ट्रिक प्लान्ट और ऐसे दूसरे अनेक प्रोजेक्ट मेरे और मेरे जैसे आर्थिक हत्यारों के प्रयत्नों से विकसित हुए थे। ऐसे प्रोजेक्टों के कारण ही अमेरिकी वैश्विक साम्राज्य में ईक्वाडोर हस्तक बना है। इसके कारण ही स्थानीय प्रजाएँ हमारी तेल कम्पनियों के सामने युद्ध छेड़ने की धमकियाँ देती हैं ।

आर्थिक हत्यारों के द्वारा स्थापित प्रोजेक्टों के कारण आज ईक्वाडोर विदेशी कर्ज में नष्ट हो गया है। परिणाम स्वरूप उसके राष्ट्रीय बजट का अधिकांश भाग कर्ज चुकता करने में ही चला जाता है। और अपने देश में भयानक गरीबी में लिपटे हुए करोड़ों लोगों के लिए उपयोग करने के स्थान पर कर्ज की भरपाई करने में ही सारा राष्ट्रीय बजट चला जाता है । ईक्वाडोर के लिए अब एक मात्र मार्ग यह है कि कर्ज के बदले में तेल कम्पनियों को प्राकृतिक जंगल ही बेच दिये जाये, वास्तव में आर्थिक हत्यारों की ईक्वाडोर पर सबसे पहली नजर पड़ी उसका मुख्य कारण यही था कि एमेजोन प्रदेश के नीचे तेल का समृद्ध भंडार पड़ा हुआ है, वह अरब राष्ट्रों के तेल भंडारों जितना ही है, उसे हड़प लेना ही मुख्य उद्देश्य था । दुनिया भर में ईक्वाडोर में से प्रति १०० डॉलर के तेल में से ७५ डॉलर तो तेल कम्पनियाँ ही ले जाती हैं। शेष बचे २५ डॉलर में से विदेशी कर्ज की भरपाई करने में १९ डॉलर चले जाते हैं । बाकी बचे ६ डॉलर में से फौज और सरकारी खर्च निकालने के बाद बेचारे गरीब मनुष्य की प्रगति, स्वास्थ्य एवं शिक्षा के लिए केवल ढाई डॉलर मुश्किल से बचता है । इस तरह प्रति १०० डॉलर का तेल ईक्वाडोर में से निकाल लेने में जिसे पैसों की सख्त जरुरत है, जिसकी जिन्दगी बाँध के कारण, तेल के लिये खुदाई के कारण तथा पाइपलाइन के कारण बर्बाद हुई है और जो पर्याप्त भोजन और स्वच्छ पानी के बिना मर रहे हैं, उनके लिए मुश्किल से ढाई डॉलर रकम बचती है।

ये सभी लोग - ईक्वाडोर में लाखों और पूरी दुनियाँ में करोड़ों लोग - संभावित आतंकवादी हैं। ये कोई साम्यवादी नहीं हैं या अराजकवादी नहीं हैं और मूल रुपसे अनिष्ट लोग नहीं है, परन्तु वे अन्याय से पूर्णतया हताश हो चुके हैं।

हम आर्थिक हत्यारे षडयंत्र करने वाले शठ मनुष्य होते हैं । हम इतिहास से सीखे हुए हैं । इसलिए हम तलवार नहीं रखते, हम कवच भी नहीं पहनते, जिससे हम अलग रूप में दिखें । ईक्वेडोर, इण्डोनेशिया और नाइजिरीया जैसे देशों में हम दुकानदार या शिक्षक के जैसा पहनावा पहनते हैं। वॉशिंगटन और पेरिस में हम सरकारी अधिकारियों और बैंक अधिकारियों जैसे दिखाई देते हैं । हम प्रोजेक्ट साइट की जानकारी लेते हैं और गरीबी में डूबे गाँव में भी चक्कर लगा लेते हैं। हम परोपकार और परमार्थ की वकालत करते हैं । और स्थानीय अखबारों के साथ हम आश्चर्यजनक रूप से मानवतावादी कामकाज करते रहने का वचन देते हैं। सरकारी समितियों की कॉन्फरन्स टेबल पर बड़े बड़े कागजों पर बनाये हुए धन्धों के चमत्कारिक परिणाम के बारे में हार्वर्ड बिजनस स्कूल में भाषण देते हैं । दस्तावेजों पर खुल्लम खुल्ला हमारा नाम होता है। हम इस तरह अपने आपको आर्थिक विकास के निष्णात के रुप में प्रस्तुत करते हैं और बड़े निष्णात के रूप में लोक हमारा स्वीकार करते हैं। इस प्रकार सम्पूर्ण पद्धति काम करती है। हम लगभग कभी गैरकानूनी काम नहीं करते हैं । क्यों कि सम्पूर्ण पद्धति ही कानून सम्मत है और समस्त पद्धतियाँ शोषण के लिए ही बनाई हुई हैं । ऐसा होते हुए भी अगर हम आर्थिक हत्यारे के रूप में विफल होते हैं तो अधिक पापी, गुंडे लोग काम को अपने हाथ में लेते हैं, जिन्हें हम आर्थिक हत्यारे 'जेकल' (अर्थात् खूनी) कहते हैं । ये लोग पुराने साम्राज्य के काले कारनामे करने वालों के वारिस ही माने जाते हैं । ये सभी जेकल, हमारे पीछे हमारी छाया की तरह सदैव खड़े मिलते हैं। जब ये चित्र में आते हैं, तब देश के जो प्रमुख होते हैं उन्हें भी सत्ता से उखाड़ फेंक दिया जाता हैं । अथवा वे हिंसक दुर्घटना में मारे जाते हैं। और कदाचित जेकल भी विफल हो जाय तो पुराने तरीके आजमाने पड़ते हैं । अर्थात् युद्ध किया जाता है, जिसमें युवा अमेरिकनों को मारने या मरने के लिए भेजा जाता है।

मैं जिस कम्पनी में आर्थिक हत्यारे के रूप में नौकरी करता था, उसमें अधिकांश लोग तो इंजिनयीर थे। परन्तु हमारे पास निर्माण कार्य के लिए कुछ भी साधन नहीं थे । हमने कभी भी कोई छत भी बाँधी नहीं थी। मैंने जब नौकरी में प्रवेश लिया तब कुछ महिनों तक तो समझ ही नहीं सका कि मेरी कम्पनी काम क्या करती है। हमें सभी बातें अत्यन्त गुप्त रखनी होती थीं। एक दिन मुझे मेरी अधिकारी महिला ने समझाया कि उसका काम मुझे आर्थिक हत्यारा बनाने का है। उसने मुझे समझाया कि हम कहीं ढूँढने से भी न मिले, ऐसे वंश के लोग हैं । हमें बहुत सारे खराब काम करने हैं और उसकी जानकारी कभी भी किसी को नहीं होनी चाहिए। तुम्हारी पत्नी को भी नहीं । तुम इस काम में आये हो वह अब पूरी जिंदगी के लिए है।

मेरा काम विशाल अन्तरराष्ट्रीय ऋणों को उचित ठहराना था । उस ऋण की रकम बेथेल, हलीबर्टन, स्टोन एण्ड वेबस्टर, ब्राउन एण्ड रुट, प्रोजेक्ट के द्वारा मिलने वाली थी। साथ ही यह भी देखना था कि जो देश ये ऋण लेंगे वे हमारा ऋण तो उतार दें परन्तु उसके बाद दिवालिया हो जाने चाहिए। जिससे वे हमेशा के लिए हमसे दबकर रहें। और हम इनका मनमाना उपयोग अपना हित साधने के लिए कर सकें । ऋणों को उचित ठहराने के लिए मुझे आँकड़ों की गणना के द्वारा यह समझाना होता था कि इससे कितना विकास होगा। इसमें सबसे मुख्य आँकड़ा अर्थात् ग्रोस नेशनल प्रोडक्ट की गणना कर बताना होता था। जिस प्रोजेक्ट में जीएनपी सबसे अधिक बढ़ती है, वह प्रोजेक्ट जीत जाता है। मेरा रेल्वे लाइन डालने का प्रोजेक्ट, दूर संचार (टेली कोम्युनिकेशन) का जाल बिछाने का प्रोजेक्ट, हाइवे, बन्दरगाह, एयरपोर्ट के निर्माण कार्य के प्रोजेक्ट आदि के लिए ऋण लें, यह समझाने का काम था। जिस किसी प्रोजेक्ट को उचित ठहराना हो, तो उससे जीएनपी बहुत बढ़ेगी यह समझाना ताकि वह प्रोजेक्ट स्वीकृत हो जाय । ऐसे प्रत्येक प्रोजेक्ट के विषय में अन्दर की बिल्कुल छिपी बात यह थी कि हमारे देश की ठेका लेने वाली (कोन्ट्राक्टर) कम्पनियों को जंगी नफा जमा कर देने का उद्देश्य था, और ऋण लेने वाले देश के मुट्ठी भर धनवान लोग और प्रभावी परिवार ही अति सुखी होंगे, यह भी हम छिपाकर रखते थे। साथ ही हम यह निश्चितता भी करते रहते थे कि लम्बी अवधि में वित्तीय मजबूरियों में देश अवश्य फँस जायेगा । जिससे हम उस देश को अपना राजकीय मोहरा बना सकें । इसलिए ऋण जितने जंगी होते थे, उतना ही अच्छा रहता था। जिस किसी देश पर लादे गये कर्ज के पहाड़ से उस देश के गरीब से गरीब मनुष्यों को मिलने वाली आरोग्य, शिक्षा और अन्य सामाजिक सेवायें दशकों तक बन्द हो जायेगी, इस ओर कभी ध्यान नहीं दिया जाता था । क्यों कि हम तो उसे गुप्त रखते थे।

मेरी उच्च महिला अधिकारी “क्लाउडीन" और मैं खुली चर्चा करते कि यह जीएनपी (ग्रोस नेशनल प्रोजेक्ट) का आँकड़ा कितना छलावा करने वाला है। उदाहरण के लिए एक भी व्यक्ति अरबपति बनता है तो भी जीएनपी तो बढ़ती ही है। कोई अरबपति व्यक्ति बिजली की कम्पनी का मालिक हो और वह ढ़ेरों धन कमावे और सारा देश कर्ज में डूब जाय तब भी जीएनपी का आँकड़ा तो बढ़ता ही है और वह विकास माना जाता है। गरीब अधिक गरीब होता है और धनवान अधिक धनी होता जाता है तब भी जीएनपी बढ़ता है और आर्थिक विकास हुआ, यह माना जाता है।

हम पूरी दुनियाँ में हमारी प्रतिनिधिक कचहरियाँ स्थापित करते हैं, उसका मुख्य कारण हमारे अपने ही हित साधना होता हैं । और उसका सही अर्थ ५० वर्षों में अमेरिकन लोकतंत्र को वैश्विक साम्राज्य में बदल डालना है।

हम इण्डोनेशिया में काम करते थे, तब हमें इण्डोनेशिया की प्रजा का भला करने के लिए नहीं अपितु उनका धन लूट लेने के लोभ में भेजा जाता था । मेरे साथी प्रोफेसर आदि को मेक्रो इकोनोमिक्स (जंगी प्रोजेक्ट आदि) का वास्तविक परिणाम क्या आता है, इसका विशेष ज्ञान नहीं था। अनेक किस्सों में जंगी प्रोजेक्टों के अमल के कारण समाज में आर्थिक पिरामिड में जो उसकी नोंक पर बैठा है वह सबसे अधिक धनवान बनता है। और जो नीचे तल में बैठा है, उसे और अधिक दबाने का काम ही वह करता है। इस वास्तविकता का ख्याल मेरे साथियों को नहीं था । मैं विचार करता रहता था कि किसी दिन तो मैं यह सारा षड़यन्त्र खोल कर रख दूँगा।

दुनियाँ का चित्र बदल डालने का निर्णय जो लोग लेते थे ऐसे बड़े बड़े लोगों के सम्पर्क में, मैं जैसे जैसे आया वैसे वैसे उनकी शक्ति और उनके ध्येय के विषय में मैं नास्तिक और निराशा वादी बनता गया ।

युद्धों के लिए शस्त्रों के थोक उत्पादन से किसे लाभ होता है। नदियों के ऊपर बाँध बनाने से या देश का पर्यावरण और संस्कृति का नाश करने से किसे लाभ होता है इस विषय में मुझे आश्चर्य होने लगा । आधा-अधूरा खाने के लिए, प्रदूषित पानी और समाप्त न होने वाले रोगों से लाखों - लाखों लोगों की मृत्यु होती है। इससे किसको लाभ होता है, इसका भी मुझे आश्चर्य लगने लगा । धीरे धीरे मुझे समझ में आने लगा कि लम्बी अवधि में तो किसी को लाभ नहीं, परन्तु अल्प अवधि में पिरामिड़ के शिखर पर बैठे मेरे जैसे अथवा मेरे बोस को लाभ जरुर होता है।

जहाँ जहाँ पूँजीवादी पद्धतियाँ सफल होती हैं, वहाँ एक प्रकार की नौकरशाही काम करती है, जिनमें सबसे ऊपर बैठे हुए मुठ्ठीभर लोग अपने नीचे काम करने वाले लोगों से सख्त आदेशों के द्वारा निश्चित काम करवाते हैं, और वे, उनके नीचे काम करने वालों से, ऐसा करते करते बिल्कुल नीचे तल में बैठे लाखों, जिन्हें आर्थिक गुलाम कह सकें ऐसे काम करने वालों की जंगी फौज को नियन्त्रण में रखते हैं । आखिर मुझे पक्का विश्वास हो गया कि हम इस पद्धति को ही प्रोत्साहन देते हैं। और पूँजीवादी पिरामिड़ के शिखर पर अपने लोगों को बिठाकर यह सम्पूर्ण पद्धति इस पूरी दुनिया में लागू करते हैं । यह साम्राज्यवादी अभियान ही अधिकांश युद्ध, भूखमरी, प्रदूषण और प्रजा का निकन्दन आदि का मुख्य कारण है।

सन् १९३० में राष्ट्रपति रूजवेल्ट ने युद्ध जहाज भेज कर पनामा के ऊपर चढ़ाई की, अपनी फौज उतारी । पनामा के लोकप्रिय कमाण्डर को पकड़ा और मार डाला और पनामा को स्वतन्त्र देश घोषित किया। फिर वहाँ पर एक कठपूतली सरकार बिठा दी और उसके साथ पनामा नहर का करार किया । उसके अनुसार नहर के दोनों और का प्रदेश अमेरिकन प्रदेश घोषित करवाया गया। अमेरिकन सेना की उपस्थिति वैध मानी गई । और इस प्रकार स्वतन्त्र करवाये गये पनामा देश के ऊपर वाशिंग्टन का सम्पूर्ण अंकुश स्थापित हो गया । विशेष बात यह है कि इस करार के ऊपर अमेरिका के सेक्रेटरी के हस्ताक्षर किये गये और दूसरे पक्ष में एक फ्रेंच इंजिनीयर के हस्ताक्षर करवाये गये । पनामा के किसी भी नागरिक के हस्ताक्षर इस करार पर नहीं थे । संक्षेप में, अमेरिका का हित साधने के लिए पनामा को कोलम्बिया से बिल्कुल अलग थलग कर दिया गया । पचास वर्ष से भी अधिक समय तक वोशिंग्टन के साथ प्रगाढ़ सम्बन्ध रखने वाले धनवान परिवारों ने पनामा पर राज्य चलाया । अमेरिका के हितों को ही प्रोत्साहन मिलता रहे, इसके लिए जो कुछ भी करना पड़े, वह करने वाले स्वयं सत्ताधीशों ने पनामा पर राज्य किया।

मैं विचार करता हूँ कि मेरे देश का व्यवहार दुनिया के प्रति कैसा है ? प्रेसिडेन्ट जेम्स मनरो ने १८२३ में मनरो सिद्धान्त लागू किया । उसमें कहा गया कि अमेरिका की नीति को जो लागू करने से मना करे उस देश पर चढ़ाई करने का अमेरिका को विशेष अधिकार है । मनरो के बाद के प्रमुखों ने जब दूसरे देशों पर चढ़ाई की तब उसे उचित ठहराने के लिए इस मनरो सिद्धान्त को वह बहाने के रुप में आगे किया गया था।

विदेशी सहायता का जो खेल है, वह बनावटी है। उससे राजनेता अति धनवान होते हैं और देश कर्ज में डूब जाता है । यह पद्धति ऐसी धारणा पर रची हुई है कि सत्ता पर बैठे सभी राजनेता भ्रष्टाचारी होते हैं। और कोई सत्ताधीश अगर स्वयं के हित के लिए उसका उपयोग न करना चाहे अर्थात् ऐसा प्रामाणिक निकले तो उसे अमेरिका को धमकी देने के रूप में देखा जाता है, क्यों कि उसके एक के बाद एक ऐसे प्रत्याघात आते हैं कि इन देशों को चूसने की यह पद्धति ही टूट जाती है।

रोबर्ट मेकनमारा (फोर्ड कम्पनी का मेनेजर, जिसे अमेरिकन प्रमुख केनेडी ने सरकार में गृह मंत्री बनाया था) आक्रमक नेतागीरी की वकालत करता था, और वियतनाम युद्ध जीतने के लिए गणितीय गणना करके आँकड़े निकाल कर उसके अनुसार वित्तीय आवंटन करता था । यह पद्धति सरकार और बड़े बड़े कोर्पोरेशन चलाने का आधार बन गई। और उसके अनुसार देश की उच्चतम मेनेजमेंट की स्कूलों में भी पढ़ाना प्रारम्भ हुआ। उसमें से चीफ एक्जीक्यूटिव ऑफिसरों की एक नई जाति ही पैदा हो गई। जिन्हों ने अमेरिका को विश्व साम्राज्य बनाने के लिए सर्वत्र पैठ बनाई थी। मैं अब देखता हूँ कि रॉबर्ट मेक्नामारा का इतिहास में सबसे बड़ा पापी निर्णय यही था। दुनिया ने कभी देखा न हो इतनी हद तक विश्व बैंक को वैश्विक साम्राज्य का एजेन्ट बना दिया गया है। उसके बाद तो अनेक कोर्पोरेशनों के मेनेजर सरकार में बड़े पदों पर चुने जाने लगे, जो हमारे जैसे आर्थिक हत्यारों की मदद से अमेरिका को विश्व साम्राज्य में बदलने लगे।

सन १९७८ में कुछ समय के लिए पेट्रोलियम का संकट निर्माण हुआ था। परन्तु उसका प्रभाव बहुत अधिक हुआ। उससे कोर्पोरेटोक्रेसी - कम्पनीशाही बहुत मजबूत हुई । उसके तीन आधार स्तम्भों - बड़े कोर्पोरेशन, अन्तरराष्ट्रीय बैंक और सरकार - का गठबन्धन इससे पहले कभी न था, ऐसा मजबूत हुआ।

साउदी अरब के नबीरा परिवार पूरी दुनिया में घूमते थे युरोप अमेरिका के स्कूल, युनिवर्सिटियों में पढ़ते थे, फेन्सी कार खरीदते थे और अपने घरों को पश्चिमी पद्धति से सजाते थे । पुरानी धार्मिक मान्यताओं के स्थान पर भौतिक वाद फैल गया। इस भौतिकवाद के कारण से हमें यह पक्का विश्वास हो गया कि भविष्य में अब कभी तेल की कमी नहीं आयेगी।

मैं यही कहना चाहता हूँ कि करोड़ों - अरबों डॉलर साउदी अरब के अर्थतंत्र में डाल देने के लिए उचित ठहराने का तर्क ढूँढ़ निकालना, जिसमें विशेष शर्ते ये होती थीं कि हमारे देश की इन्जिनीयरिंग और निर्माण कार्य की कम्पनियों को ही ओर्डर मिले, जिससे सारा धन हमारे देश में आ जाये और उनका अर्थतंत्र हम पर निर्भर हो जाय और साथ साथ वे लोग पश्चिम की पद्धति के गुलाम बन जाय, जिससे भविष्य में वे हमारा विरोध न करे ।

हमने यह निश्चित किया कि साउदी अरब में राक्षसी कद के विशाल उद्योग विकसित किया जाय और उसके रण में पेट्रोलियम रिफाइनरियाँ स्थापित करके पेट्रोलियम का एक्सपोर्ट किया जाय । उसके लिए जंगी औद्योगिक क्षेत्रों को बसाना, उनके लिए हजारों मेगावाट के विद्युत केन्द्र खड़े करना, उनकी ट्रान्समिशन लाइनें डालना, हाइवे, पाइपलाइन, दूरसंचार के नेटवर्क, ट्रान्सपोर्ट, नये एयरपोर्ट स्थापित करना, बन्दरगाह विकसित करना, अनेक प्रकार की सेवा उद्योग श्रेणी और यह सब चालू रखने के लिए जरुरी आधारभूत ढाँचा खड़ा किया जाय । हमें बहुत ऊँची आशा थी कि ऐसा एक मॉडल खड़ा हो तो शेष दुनिया को दिखाकर साउदी हमारा गुणगान करेंगे । अनेक देश के नेताओं को आमंत्रण देकर हमारा किया हुआ जादुई विकास बतायेंगे और दूसरे देश के नेता अपने देश में ऐसा ही करने के लिए हमें विनती करेंगे । और जहाँ पेट्रोलियम नहीं निकलता ऐसे देश विश्व बैंक से लोन लेकर ऐसा करने के लिए ललचायेंगे । इतने लोन देकर उन्हें कर्ज में डूबो देने की हमारी नीति जीतेगी और अमेरिका वैश्विक साम्राज्य स्थापित करने में सफल होगा ।

इस विकास में से फिर और अधिक विकास के अवसर मिले। मजदूरों के लिए घर चाहिए, उनके लिए मकान निर्माण कार्य के संकुल चाहिए, उनके लिए बाजारों के शोपिंग सेन्टर या मॉल, अस्पताल, फायर स्टेशन से लेकर पुलिस चौकियाँ तक के भवन, पानी के स्रोत तथा गन्दा पानी निकास के प्लान्ट, बिजली, सन्देश-व्यवहार, ट्रान्सपोर्टेशन का मायाजाल, ऐसे पूरे के पूरे आधुनिक शहर ही खड़े करने होंगे । फिर यह सब पूरे रण में खड़ा करना होगा। समुद्र के खारे पानी को मीठा पानी बनाने के प्लान्ट, स्वास्थ्य सेवाओं के संकुल, कम्प्यूटर टेक्नोलॉजी आदि जेसे जंगी अवसर मिलेंगे । इतिहास में कभी न हुआ हो ऐसे जंगी अवसर । फिर इनके पास पेट्रोलियम का अनाप-शनाप पैसा है ही। हमारा मुख्य हेतु उनका धन अमेरिका में आ जाय और साउदी अरब हम पर निर्भर बन जाय, यह था । हम मात्र निर्माण काम ही खड़ा करके दे देंगे, इतना ही नहीं अपितु सभी तंत्र चलाते रहने का रखरखाव का ठेका भी ले लिया । अर्थात् ऐसा आयोजन किया कि मेइन, बेचेल, ब्राउन और रुट, हली बर्टन, स्टोन एण्ड वेबस्टर जैसी अनेक कम्पनियों की आने वाले दशकों तक कमाई के ठाटबाट हो जाय । फिर इस में से एक नई बात निकली कि सउदी अरब का विकास हो यह रुढ़िवादी मुस्लिमों को पसन्द नहीं आयेगा । इजराइल और पड़ौसी देशों को धमकी के रूप में लगेगा । इसमें से युद्ध के भय के कारण मिलिट्री के बड़े बड़े ठेके मिलेंगे और इन कामों के रख रखाव के ठेके भी मिलेंगे। इसमें से पुलिसथाना, मिसाइल की जगह एयरपोर्ट और सेना के साथ जुड़े हुए ढाँचागत व्यवस्थाओं के ठेके आदि । साउदी अरब को विकास के नाम पर लूट लेने की इस सम्पूर्ण योजना को हमने SAMA नाम दिया । SAMA अर्थात् “साउदी अरब मनी लोण्डरिंग अफेर” । यह हमारा गुप्त नाम था । परन्तु “साउदी अरब मोनेटरी एजेन्सी” | अर्थात SAMA नाम वहाँ पर था ही। संक्षेप में हमें लगता था कि हम सभी निवृत्त हो जायेंगे, तबतक इस गाय को दुहते ही रहना है। इसलिए १९७३ में जो तेल का संकट पैदा हुआ, वह हमारे लिए अकल्पनीय आशीर्वाद बन गया जो अन्त में हमें वैश्विक साम्राज्य की ओर ले गया ।

राष्ट्रपति बुश, साउदी अरब का मुख्य घर और ओसामा बिन लादेन के व्यापारिक सम्बन्धों के बारे में जो बात प्रकट हुई, उससे मुझे तनिक भी आश्चर्य नहीं लगा। मुझे तो उनके सम्बन्ध ठेठ १९७८ से हैं अर्थात् पुराने हैं. इसकी जानकारी थी।

अमेरिका में ११ सितम्बर को दो टॉवर गिरा दिये गये उसके बाद धनवान साउदी अरब जिसमें ओसामा बिन लादेन के परिवार के लोग भी थे, उन्हें प्राइवेट जेट विमानों के द्वारा फुर्ती के साथ अमेरिका से बाहर भगा दिया गया । इन उड़ानों का क्लीयरन्स भी नहीं हुआ। किसी भी पेसेन्जर को कुछ भी पूछा नहीं गया । राष्ट्रपति बुश के दीर्घकालीन पारिवारिक सम्बन्धों ने ही इसमें मदद की है ना ?

एक दिन पौला (कोलम्बिया की एक स्त्री का नाम) ने मुझे कहा कि आपने अच्छा किया कि जो बाँध बना रहे हो नदी के किनारे पर, वहाँ के स्थानीय लोग और सभी किसान तुम्हें धिक्कार रहे हैं । अरे ! शहर के लोग जिनका इस बाँध के साथ कोई सम्बन्ध नहीं वे सब भी तुम्हारे निर्माण करने वाले केम्प के ऊपर जो गेरिला लोग हमला करते हैं, उनके प्रति सहानुभूति रखते हैं । तुम्हारी सरकार भले ही उन्हें साम्यवादियों, आतंकवादियों और नार्कोटिक जैसे ड्रग बैचने वालों के रूप में बताये सत्य हकीकत यही है कि तुम्हारी कम्पनी जिन जमीनों का नाश कर रही है, उन जमीनों पर जीने वाले कुटुम्ब - कबीले वाले लोग बिल्कुल सीधे सादे हैं । ऐसी नीतियों के कारण मुझे मेरे साथ ही जीने में बहुत अधिक कठिनाई निर्माण होने लगीं । पौला ने मेरे सामने ही एक समाचारपत्र खोला, और उसमें छपा हआ पत्र मुझे पढ़ कर सुनाया । वह पत्र यह था। "हम सब अपने पूर्वजों के रक्त की सौगन्ध खाकर प्रतिज्ञा करते हैं कि इस नदी के ऊपर कभी भी बाँध बनने नहीं देंगे । हमारी जमीन पर पानी भर जाय उससे तो अच्छा है कि हम मर जायें । हमें हमारे कोलम्बियन भाइयों को चेतावनी देनी चाहिए कि बाँध बनाने वाली कम्पनी में काम या नौकरी करना बन्द कर दें।"

मुझे ऐसा लगा कि मैं गेरिला के आक्रमण का भोग बन गया होता तो अच्छा होता अथवा मैं स्वयं ही गेरिला बन जाऊँ तो अच्छा है, जिससे प्रतिदिन मैं मेरी नौकरी को अधिक से अधिक धिक्कारने लगूं। पौला ने मुझे कहा कि तुम्हारा यह लडाकू ध्येय बहुत सही है । तुम बाँध बना कर बिजली पैदा करोगे, वह तो कुछ धनवान कोलम्बियनों की मदद होगी। परन्तु हजारों कोलम्बियन तो मर ही जायेंगे, क्योंकि पानी ही प्रदूषित होगा, जिससे मछलियाँ भी मर जायेंगी।

पौला ने आगे कहा, 'विदेशी ऑयल कम्पनी के ऑफिस के बाहर प्रदर्शन किया, क्यों कि उनकी जमीनों के ऊपर तुमने तेल के कुँओं के लिए खुदाई की, उसका विरोध किया। पुलिस ने उनको पकड़कर मारा और जेल में डाल दिया । उन्होंने कुछ भी गलत नहीं किया था । केवल ऑफिस के बाहर खड़े होकर प्लेकार्ड हाथमें लेकर गाते गाते खड़े रहते थे। केवल इतने से विरोध के कारण ६ महीने तक जेल में रखा । जेल से बाहर आने के बाद वहाँ क्या हुआ कि उन्होंने उनसे बिल्कुल बात ही नहीं की । परन्तु वे जब जेल से बाहर आये तब अलग ही जाति के मनुष्य थे (आतंकवादी बनकर बाहर आये थे) |

उपर्युक्त बात सुनकर मेरी आत्मा छलनी हो जाती थी। फिर भी मेरा पैसों का लोभ जाता न था। (नौकरी छोड़ने की हिम्मत नहीं होती थी)

वैश्विक साम्राज्य आत्मकेन्द्री है, स्वार्थी है, लोभी है और अति भौतिकवादी, सारा ही खा जाना चाहता है, जो कुछ भी देखा वह ले लेना चाहता है, सत्ता और धन लेने के लिए तो वह चाहे जो साधन उपयोग में लेने के लिये तैयार रहता है।

मैंने देख लिया कि जो लोग अमेरिकन कोर्पोरेशन में काम करते हैं, वे भले ही आर्थिक हत्यारों के मायाजाल में शामिल न हों, फिर भी कोई व्यवस्थित रूप से रचे हुए षडयंत्र से भी अधिक विघातक कार्य में भाग ले रहे हैं ।

References

धार्मिक शिक्षा : वैश्विक संकटों का निवारण धार्मिक शिक्षा (धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला ५): पर्व २: अध्याय २१, प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे