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#उदाहरण के लिये जब मसाले हाथ से कूटे जाते हैं या छाछ हाथ से बिलोई जाती है तब उसकी गति प्राकृतिक होती है परन्तु यन्त्र से काम होता है तब गति अत्यन्त तेज हो जाती है। केवल भौतिक दृष्टि से देखें तो भी बढी हुई गति से जो गरमी पैदा होती है उसमें मसालों का सत्त्व ही जल जाता है। निःसत्त्व मसाले शरीर को पोषण नहीं दे सकते। भोजन से शरीर और प्राण दोनों का पोषण होता है परन्तु सत्त्वहीन पदार्थों से शरीर और प्राण दोनों दुर्बल हो जाते हैं।
 
#उदाहरण के लिये जब मसाले हाथ से कूटे जाते हैं या छाछ हाथ से बिलोई जाती है तब उसकी गति प्राकृतिक होती है परन्तु यन्त्र से काम होता है तब गति अत्यन्त तेज हो जाती है। केवल भौतिक दृष्टि से देखें तो भी बढी हुई गति से जो गरमी पैदा होती है उसमें मसालों का सत्त्व ही जल जाता है। निःसत्त्व मसाले शरीर को पोषण नहीं दे सकते। भोजन से शरीर और प्राण दोनों का पोषण होता है परन्तु सत्त्वहीन पदार्थों से शरीर और प्राण दोनों दुर्बल हो जाते हैं।
 
#आज मनुष्य को गति और विपुलता का अदम्य आकर्षण हो गया है। दिन प्रतिदिन अधिकाधिक तेज गति से भागने वाले वाहन बनाने के प्रयास हो रहे हैं। कोई भी काम शीघ्रातिशीघ्र हो जाय इस की पैरवी हो रही है। परन्तु इससे उसकी स्थिरता और शान्ति का नाश हुआ है। विवेक, सृजनशीलता और बुद्धि की विशालता का नाश हुआ है। उत्तेजनायें बढ़ गई हैं जो उसके दैनन्दिन व्यवहार में प्रकट होती है। अब मनुष्य के पास इस प्रश्न। का भी उत्तर नहीं है कि वह कोई भी काम क्यों जल्दी करना चाहता है या क्यों कहीं भी जल्दी पहुँचना चाहता है।
 
#आज मनुष्य को गति और विपुलता का अदम्य आकर्षण हो गया है। दिन प्रतिदिन अधिकाधिक तेज गति से भागने वाले वाहन बनाने के प्रयास हो रहे हैं। कोई भी काम शीघ्रातिशीघ्र हो जाय इस की पैरवी हो रही है। परन्तु इससे उसकी स्थिरता और शान्ति का नाश हुआ है। विवेक, सृजनशीलता और बुद्धि की विशालता का नाश हुआ है। उत्तेजनायें बढ़ गई हैं जो उसके दैनन्दिन व्यवहार में प्रकट होती है। अब मनुष्य के पास इस प्रश्न। का भी उत्तर नहीं है कि वह कोई भी काम क्यों जल्दी करना चाहता है या क्यों कहीं भी जल्दी पहुँचना चाहता है।
#मनुष्य के समग्र व्यक्तित्व का और समस्त प्रकृति का सन्तुलन बिगाडनेवाले प्राण के अलावा अन्य ऊर्जा से चलने वाले यन्त्रों के आविष्कार और प्रयोग के पीछे मनुष्य की बुद्धि नहीं अपितु असन्तुष्ट और अशान्त मनोवृत्ति प्रेरक तत्त्व है। विज्ञान की शक्ति भी इस मनोवृत्ति की गुलाम बनी हुई है। आज जिन वैज्ञानिक उपलब्धियों के गुणगान किये जाते हैं वे सब मनुष्य की मनोवृत्ति के दास बने हुए हैं। दोष विज्ञान का नहीं, मनोवृत्ति का है।
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#मनुष्य के समग्र व्यक्तित्व का और समस्त प्रकृति का सन्तुलन बिगाड़नेवाले प्राण के अलावा अन्य ऊर्जा से चलने वाले यन्त्रों के आविष्कार और प्रयोग के पीछे मनुष्य की बुद्धि नहीं अपितु असन्तुष्ट और अशान्त मनोवृत्ति प्रेरक तत्त्व है। विज्ञान की शक्ति भी इस मनोवृत्ति की गुलाम बनी हुई है। आज जिन वैज्ञानिक उपलब्धियों के गुणगान किये जाते हैं वे सब मनुष्य की मनोवृत्ति के दास बने हुए हैं। दोष विज्ञान का नहीं, मनोवृत्ति का है।
 
#किसी भी यन्त्र का आविष्कार करने से पूर्व और यदि किसी ने आविष्कार कर ही दिया है तो करने के बाद मनुष्य पर, मनुष्य समाज पर और प्रकृति पर इसके क्या परिणाम होंगे इसका साधकबाधक विचार करने के बाद ही उसके प्रयोग की अनुमति देने का या नहीं देने का प्रचलन भारत में था। भारत यदि प्रभावी होता तो प्लास्टिक को अनुमति नहीं मिलती, पेट्रोल को तो कदापि नहीं मिलती। परन्तु पश्चिम प्रभावी था इसलिये मिली और जगत संकटों से घिर गया।
 
#किसी भी यन्त्र का आविष्कार करने से पूर्व और यदि किसी ने आविष्कार कर ही दिया है तो करने के बाद मनुष्य पर, मनुष्य समाज पर और प्रकृति पर इसके क्या परिणाम होंगे इसका साधकबाधक विचार करने के बाद ही उसके प्रयोग की अनुमति देने का या नहीं देने का प्रचलन भारत में था। भारत यदि प्रभावी होता तो प्लास्टिक को अनुमति नहीं मिलती, पेट्रोल को तो कदापि नहीं मिलती। परन्तु पश्चिम प्रभावी था इसलिये मिली और जगत संकटों से घिर गया।
 
#मनुष्य ने अब मनुष्य के ही विरुद्ध यन्त्रों का प्रयोग आरम्भ किया है। बडे-बडे यन्त्रों वाले, सर्व प्रकार का काम करने वाले यन्त्रों वाले बड़े-बड़े कारखाने स्थापित कर उत्पादन का केन्द्रीकरण कर मनुष्यों को बेरोजगार बना दिया है, मजदूरी करने हेतु विवश बनाकर मनुष्य के स्वमान और स्वतन्त्रता का नाश कर दिया है। असंख्य मनुष्य भुखमरी से मर रहे हैं जीवजन्तु और प्राणियों की प्रजातियाँ नष्ट हो रही हैं। इधर खरबोपतियों की सूचियाँ बन रही हैं, उनमें नाम दर्ज करवाने की लालसा बढ़ गई है।
 
#मनुष्य ने अब मनुष्य के ही विरुद्ध यन्त्रों का प्रयोग आरम्भ किया है। बडे-बडे यन्त्रों वाले, सर्व प्रकार का काम करने वाले यन्त्रों वाले बड़े-बड़े कारखाने स्थापित कर उत्पादन का केन्द्रीकरण कर मनुष्यों को बेरोजगार बना दिया है, मजदूरी करने हेतु विवश बनाकर मनुष्य के स्वमान और स्वतन्त्रता का नाश कर दिया है। असंख्य मनुष्य भुखमरी से मर रहे हैं जीवजन्तु और प्राणियों की प्रजातियाँ नष्ट हो रही हैं। इधर खरबोपतियों की सूचियाँ बन रही हैं, उनमें नाम दर्ज करवाने की लालसा बढ़ गई है।

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