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तुरन्त प्रश्न उठेगा कि अर्थतन्त्र का काम ही सबसे पहले क्यों होना चाहिये । भारत तो धर्मप्रधान देश है, परम्पराओं का देश है, जीवनमूल्यों में आस्था रखने वाला देश है । इन सब की बात करने के स्थान पर अर्थ की ही बात क्यों करनी चाहिये ? इसलिये कि वर्तमान समय में अर्थ जीवनरचना के केन्द्र में आ गया है। यूरोप की जीवनरचना अर्थकेन्द्री है, जीवन की शेषसारी बातें अर्थ के आगे गौण हैं। वे सब अर्थ से नापी जाती हैं। इस अर्थकेन्द्री व्यवस्था ने भयानक अनर्थ निर्माण किया है। ब्रिटीश भारत में आये ही थे व्यापार करने के लिये इतिहास और राजनीति के जानकारों ने उनकी राज्यव्यवस्था को ही व्यापारशाही कहा है। भारत से जाते समय वे अपना अर्थतन्त्र और अर्थदृष्टि यहाँ छोडकर गये हैं । स्वाधीन भारत की सरकारने भी उसे उसी रूप में स्वीकार कर लिया है।
 
तुरन्त प्रश्न उठेगा कि अर्थतन्त्र का काम ही सबसे पहले क्यों होना चाहिये । भारत तो धर्मप्रधान देश है, परम्पराओं का देश है, जीवनमूल्यों में आस्था रखने वाला देश है । इन सब की बात करने के स्थान पर अर्थ की ही बात क्यों करनी चाहिये ? इसलिये कि वर्तमान समय में अर्थ जीवनरचना के केन्द्र में आ गया है। यूरोप की जीवनरचना अर्थकेन्द्री है, जीवन की शेषसारी बातें अर्थ के आगे गौण हैं। वे सब अर्थ से नापी जाती हैं। इस अर्थकेन्द्री व्यवस्था ने भयानक अनर्थ निर्माण किया है। ब्रिटीश भारत में आये ही थे व्यापार करने के लिये इतिहास और राजनीति के जानकारों ने उनकी राज्यव्यवस्था को ही व्यापारशाही कहा है। भारत से जाते समय वे अपना अर्थतन्त्र और अर्थदृष्टि यहाँ छोडकर गये हैं । स्वाधीन भारत की सरकारने भी उसे उसी रूप में स्वीकार कर लिया है।
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इस तन्त्र को नकारने का पहला मुद्दा होगा अर्थ को केन्द्र स्थान में नहीं रखना । भारतीय जीवनरचना में धर्म केन्द्रस्थान पर रहता है और शेष सारी व्यवस्थायें धर्म के अविरोधी अथवा धर्मानुकूल हों यह एक व्यापक परिणामकारी सूत्र है । अर्थतन्त्र को धर्म के अनुकूल बनाने हेतु विश्वविद्यालयों के शोध एवं अध्ययन केन्द्रों में प्रभावी कार्य करने की आवश्यकता रहेगी। चिन्तन से लेकर छोटे से छोटे व्यवहार तक की एक विस्तृत रूपरेखा तैयार करनी होगी।
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इस तन्त्र को नकारने का पहला मुद्दा होगा अर्थ को केन्द्र स्थान में नहीं रखना । धार्मिक जीवनरचना में धर्म केन्द्रस्थान पर रहता है और शेष सारी व्यवस्थायें धर्म के अविरोधी अथवा धर्मानुकूल हों यह एक व्यापक परिणामकारी सूत्र है । अर्थतन्त्र को धर्म के अनुकूल बनाने हेतु विश्वविद्यालयों के शोध एवं अध्ययन केन्द्रों में प्रभावी कार्य करने की आवश्यकता रहेगी। चिन्तन से लेकर छोटे से छोटे व्यवहार तक की एक विस्तृत रूपरेखा तैयार करनी होगी।
    
वर्तमान अर्थतन्त्र में वैश्विक सन्दर्भ में भारत विकासशील देश माना जाता है। इसे सीधा सीधा अमान्य कर देना चाहिये।
 
वर्तमान अर्थतन्त्र में वैश्विक सन्दर्भ में भारत विकासशील देश माना जाता है। इसे सीधा सीधा अमान्य कर देना चाहिये।
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# परिणामस्वरूप आज भी काम करनेवाला और काम करवाने वाला ऐसे दो भागों में अर्थार्जन का क्षेत्र बँट गया है। काम के साथ आनन्द, कल्पनाशीलता, सृजनशीलता, मौलिकता, उत्कृष्टता, उत्पादन का गौरव, कुछ करने की सन्तुष्टि, दूसरों के लिये उपयोगी होने का आत्मसन्तोष आदि जो श्रेष्ठ गुण जुड़े थे उनका लोप होकर उनका स्थान अनिच्छा, यान्त्रिकता, विवशता, गौरवहीनता के भाव ने ले लिया है। इस स्थिति को बदलकर भारत को भारत होना है।  
 
# परिणामस्वरूप आज भी काम करनेवाला और काम करवाने वाला ऐसे दो भागों में अर्थार्जन का क्षेत्र बँट गया है। काम के साथ आनन्द, कल्पनाशीलता, सृजनशीलता, मौलिकता, उत्कृष्टता, उत्पादन का गौरव, कुछ करने की सन्तुष्टि, दूसरों के लिये उपयोगी होने का आत्मसन्तोष आदि जो श्रेष्ठ गुण जुड़े थे उनका लोप होकर उनका स्थान अनिच्छा, यान्त्रिकता, विवशता, गौरवहीनता के भाव ने ले लिया है। इस स्थिति को बदलकर भारत को भारत होना है।  
 
# हमें स्मरण में लाना चाहिये कि अनाज के, वस्त्र के, लोहे के उत्पादन में, कागज, सिमेण्ट, बर्फ आदि बनाने में, खेती के, सुथारी काम के, लोहा पिघलाने के औजार बनाने में, भौतिक विज्ञान के सिद्धातों की खोज करने में भारत ने जो उत्कृष्टता प्राप्त की थी वह विक्रमी थी। आज भी उस विश्वविक्रम तक कोई पहुँच नहीं पाया है। यह सब श्रमयुक्त काम करने के परिणाम स्वरूप ही था।  
 
# हमें स्मरण में लाना चाहिये कि अनाज के, वस्त्र के, लोहे के उत्पादन में, कागज, सिमेण्ट, बर्फ आदि बनाने में, खेती के, सुथारी काम के, लोहा पिघलाने के औजार बनाने में, भौतिक विज्ञान के सिद्धातों की खोज करने में भारत ने जो उत्कृष्टता प्राप्त की थी वह विक्रमी थी। आज भी उस विश्वविक्रम तक कोई पहुँच नहीं पाया है। यह सब श्रमयुक्त काम करने के परिणाम स्वरूप ही था।  
# इस लिये आज भी भारतीयों को शरीरश्रमयुक्त काम करने की शुरुआत करनी चाहिये । काम करने की शिक्षा घर और विद्यालय दोनों स्थान पर मिलनी चाहिये । मनुष्य के दैनन्दिन जीवन में श्रम के पर्याय रूप यन्त्रों ने जो स्थान प्राप्त किया है उसे विस्थापित कर देना चाहिये । उत्पादक श्रम को गौरव प्रदान करना चाहिये।  
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# इस लिये आज भी धार्मिकों को शरीरश्रमयुक्त काम करने की शुरुआत करनी चाहिये । काम करने की शिक्षा घर और विद्यालय दोनों स्थान पर मिलनी चाहिये । मनुष्य के दैनन्दिन जीवन में श्रम के पर्याय रूप यन्त्रों ने जो स्थान प्राप्त किया है उसे विस्थापित कर देना चाहिये । उत्पादक श्रम को गौरव प्रदान करना चाहिये।  
 
# घर में बर्तन साफ करना, कपडे धोना, झाडू पोंछा करना, अन्य साफ सफाई करना, अनाज पीसना, चटनी पीसना, छाछ बनाना, कूटना, छानना, भोजन बनाना आदि असंख्य काम होते हैं । बिस्तर लगाना और समेटना, छोटी मोटी दुरुस्ती करना, बिजली, पानी आदि की व्यवस्थाओं को ठीक करना, कपडे सीना आदि काम होते हैं।  
 
# घर में बर्तन साफ करना, कपडे धोना, झाडू पोंछा करना, अन्य साफ सफाई करना, अनाज पीसना, चटनी पीसना, छाछ बनाना, कूटना, छानना, भोजन बनाना आदि असंख्य काम होते हैं । बिस्तर लगाना और समेटना, छोटी मोटी दुरुस्ती करना, बिजली, पानी आदि की व्यवस्थाओं को ठीक करना, कपडे सीना आदि काम होते हैं।  
 
# पैदल चलना अथवा साइकिल सवारी करना, बगीचे में काम करना, रास्तों की सफाई करना, विद्यालय में भी साफ सफाई करना, शैक्षिक साधनसामग्री का निर्माण करना, ईंटे बनाना, मैदान की सफाई करना, बगीचे में काम करना आदि अनेक काम हैं।  
 
# पैदल चलना अथवा साइकिल सवारी करना, बगीचे में काम करना, रास्तों की सफाई करना, विद्यालय में भी साफ सफाई करना, शैक्षिक साधनसामग्री का निर्माण करना, ईंटे बनाना, मैदान की सफाई करना, बगीचे में काम करना आदि अनेक काम हैं।  
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# भारत की परम्परा में कृषि केन्द्रवर्ती उद्योग माना गया है क्योंकि अन्न के साथ साथ अन्य अनेक प्रकार की आवश्यकताओं की पूर्ति खेती से होती है। खेती के लिये आवश्यक साधनों और व्यवस्थाओं की पूर्ति हेतु अन्य उद्योग चलाये जाते हैं । ये उद्योग ग्रामजनों की अन्य आवश्यकताओं की भी पूर्ति करते हैं।  
 
# भारत की परम्परा में कृषि केन्द्रवर्ती उद्योग माना गया है क्योंकि अन्न के साथ साथ अन्य अनेक प्रकार की आवश्यकताओं की पूर्ति खेती से होती है। खेती के लिये आवश्यक साधनों और व्यवस्थाओं की पूर्ति हेतु अन्य उद्योग चलाये जाते हैं । ये उद्योग ग्रामजनों की अन्य आवश्यकताओं की भी पूर्ति करते हैं।  
 
# अर्थोत्पादन प्रमुख विषय होने के कारण ग्रामदेवता भी उद्योग के साथ जुडी रहती है और उसकी पूजा विभिन्न उत्पादों से होती है । इस ग्रामदेवता की कृपा से भौतिक समृद्धि के जनक गाँव कभी दरिद्र नहीं होते । गाँव को दरिद्र और पिछडा कहनेवाला व्यक्ति वास्तव में अज्ञानी और समझदारी के अभाववाला होना चाहिये।  
 
# अर्थोत्पादन प्रमुख विषय होने के कारण ग्रामदेवता भी उद्योग के साथ जुडी रहती है और उसकी पूजा विभिन्न उत्पादों से होती है । इस ग्रामदेवता की कृपा से भौतिक समृद्धि के जनक गाँव कभी दरिद्र नहीं होते । गाँव को दरिद्र और पिछडा कहनेवाला व्यक्ति वास्तव में अज्ञानी और समझदारी के अभाववाला होना चाहिये।  
# बिजली, पेट्रोल या अन्य ऊर्जा से चलने वाले यन्त्र गाँव के शत्र है। इन शत्रुओं के आक्रमण के कारण ही आज गाँव छिन्न विच्छिन्न हो गये हैं और भारत दरिद्र और बेरोजगार । काम करने की वृत्ति के नहीं परन्तु काम करने के अवसर और शिक्षा के अभाव ने भारतीयों को बेरोजगार और निठल्ला बना दिया है। शारीरिक और मानसिक अस्वास्थ्य भी इसका आनुषंगिक परिणाम है।  
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# बिजली, पेट्रोल या अन्य ऊर्जा से चलने वाले यन्त्र गाँव के शत्र है। इन शत्रुओं के आक्रमण के कारण ही आज गाँव छिन्न विच्छिन्न हो गये हैं और भारत दरिद्र और बेरोजगार । काम करने की वृत्ति के नहीं परन्तु काम करने के अवसर और शिक्षा के अभाव ने धार्मिकों को बेरोजगार और निठल्ला बना दिया है। शारीरिक और मानसिक अस्वास्थ्य भी इसका आनुषंगिक परिणाम है।  
 
# गाँव में अर्थोत्पादन से जुड़े किसी भी परिवार को बिना काम के रहने का अधिकार नहीं है । हरेक को अपना नियत काम करना ही है। साथ ही किसी को भी काम के अवसर से वंचित भी नहीं किया जाता । हरेक को काम मिलता ही है। किसी को किसी का काम छीन लेने का भी अधिकार नहीं है।  
 
# गाँव में अर्थोत्पादन से जुड़े किसी भी परिवार को बिना काम के रहने का अधिकार नहीं है । हरेक को अपना नियत काम करना ही है। साथ ही किसी को भी काम के अवसर से वंचित भी नहीं किया जाता । हरेक को काम मिलता ही है। किसी को किसी का काम छीन लेने का भी अधिकार नहीं है।  
 
# अर्थोत्पादक नहीं हैं ऐसे भी बहुत काम गाँव में होते हैं। उदाहरण के लिये पुरोहित, । शिक्षक, वैद्य, न्यायाधीश आदि का काम अर्थोत्पादक नहीं होता परन्तु आवश्यक होता है। इन कामों को करने वालों का पोषण तो गाँव करता है परन्तु इनकी संख्या बहुत कम होती है। हर किसी को यह काम करने नहीं दिया जाता है। सबकुछ नियोजित रहता है।  
 
# अर्थोत्पादक नहीं हैं ऐसे भी बहुत काम गाँव में होते हैं। उदाहरण के लिये पुरोहित, । शिक्षक, वैद्य, न्यायाधीश आदि का काम अर्थोत्पादक नहीं होता परन्तु आवश्यक होता है। इन कामों को करने वालों का पोषण तो गाँव करता है परन्तु इनकी संख्या बहुत कम होती है। हर किसी को यह काम करने नहीं दिया जाता है। सबकुछ नियोजित रहता है।  
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# ऐसे यन्त्र को प्रतिष्ठा देना यन्त्रवाद है, इसी तर्ज पर मनुष्य समाज की रचनायें बनाना यन्त्रवाद है । केवल शुष्क तर्कों के आधार पर स्थितियों को समझना या बनाना यन्त्रवाद है। मनुष्य की वृत्तियाँ तर्क से ही नहीं चलतीं । मनुष्य की प्रवृत्तियाँ केवल शरीर से ही नहीं चलतीं। उन्हें यन्त्र के नियम लागू करना यन्त्रवाद है।  
 
# ऐसे यन्त्र को प्रतिष्ठा देना यन्त्रवाद है, इसी तर्ज पर मनुष्य समाज की रचनायें बनाना यन्त्रवाद है । केवल शुष्क तर्कों के आधार पर स्थितियों को समझना या बनाना यन्त्रवाद है। मनुष्य की वृत्तियाँ तर्क से ही नहीं चलतीं । मनुष्य की प्रवृत्तियाँ केवल शरीर से ही नहीं चलतीं। उन्हें यन्त्र के नियम लागू करना यन्त्रवाद है।  
 
# यन्त्र साधन है, मनुष्य को भी साधन मानना यन्त्रवाद है। मनुष्य को व्यवस्था का साधन बनाना यन्त्रवाद है। रचनाओं और व्यवस्थाओं को मनुष्य निरपेक्ष बनाना यन्त्रवाद है।  
 
# यन्त्र साधन है, मनुष्य को भी साधन मानना यन्त्रवाद है। मनुष्य को व्यवस्था का साधन बनाना यन्त्रवाद है। रचनाओं और व्यवस्थाओं को मनुष्य निरपेक्ष बनाना यन्त्रवाद है।  
# दो पीढियों पूर्व भारतीय मानस पर पश्चिम का, पश्चिम की यन्त्रसंस्कृति का प्रभाव कम था तब यन्त्र से मनुष्य का महत्त्व अधिक था । यन्त्र से बनी रोटी के स्थान पर हाथ से बनी रोटी अधिक अच्छी लगती थी। हाथ से बुने स्वेटर, हाथ से कढाई की हुई चादर, हाथ से बनाया हुआ चित्र, हाथ से बनी हुई कारीगरी की वस्तु अधिक मूल्यवान मानी जाती थी। इस का कारण यह था कि इनकी बनने की प्रक्रिया में मनोभाव भी समाये हुए थे । बनने की प्रक्रिया जिन्दा थीं, यन्त्र के समान मृत नहीं । यह जीवित व्यक्ति का काम होता था।  
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# दो पीढियों पूर्व धार्मिक मानस पर पश्चिम का, पश्चिम की यन्त्रसंस्कृति का प्रभाव कम था तब यन्त्र से मनुष्य का महत्त्व अधिक था । यन्त्र से बनी रोटी के स्थान पर हाथ से बनी रोटी अधिक अच्छी लगती थी। हाथ से बुने स्वेटर, हाथ से कढाई की हुई चादर, हाथ से बनाया हुआ चित्र, हाथ से बनी हुई कारीगरी की वस्तु अधिक मूल्यवान मानी जाती थी। इस का कारण यह था कि इनकी बनने की प्रक्रिया में मनोभाव भी समाये हुए थे । बनने की प्रक्रिया जिन्दा थीं, यन्त्र के समान मृत नहीं । यह जीवित व्यक्ति का काम होता था।  
 
# मनुष्य जब निर्मिती करता है तब निर्मित वस्तुओं में एकरूपता नहीं होती। हर वस्तु दूसरी वस्तु से भिन्न होती थी। यह बनानेवाले की कुशलता के साथ साथ मौलिकता और कल्पनाशीलता का परिणाम था। यन्त्र से वस्तु जल्दी बनती है, विपुल मात्रा में उत्पादन होता है, परन्तु उसमें सृजनशीलता, मौलिकता, कल्पनाशीलता, संवेदना, मनोभाव जैसे मानवीय गुणों का अभाव रहता है। भारत का मानस इसे पसन्द नहीं करता, निर्जीवता सुख नहीं देती, सजीवता चाहिये।  
 
# मनुष्य जब निर्मिती करता है तब निर्मित वस्तुओं में एकरूपता नहीं होती। हर वस्तु दूसरी वस्तु से भिन्न होती थी। यह बनानेवाले की कुशलता के साथ साथ मौलिकता और कल्पनाशीलता का परिणाम था। यन्त्र से वस्तु जल्दी बनती है, विपुल मात्रा में उत्पादन होता है, परन्तु उसमें सृजनशीलता, मौलिकता, कल्पनाशीलता, संवेदना, मनोभाव जैसे मानवीय गुणों का अभाव रहता है। भारत का मानस इसे पसन्द नहीं करता, निर्जीवता सुख नहीं देती, सजीवता चाहिये।  
 
# रोटी में गेहूँ का स्वाद होता है, जिसमें गेहूँ ऊगा उस मिट्टी का स्वाद होता है, उसे ऊगाने में किसान ने जो मेहनत की उसका भी स्वाद होता है और रोटी बनानेवाले हाथ का भी स्वाद होता है । गेहूँ के बीज से रोटी बनने तक की प्रक्रिया में जब मनुष्य मुख्य होता है तब खाने वाले को बनानेवाले हाथ के किसान के और मिट्टी के स्वाद का पता चलता है। यन्त्र में यह सब नदारद है, मनुष्य ही नदारद है। मनुष्य यन्त्रवत् बन जाय इसमें क्या आश्चर्य है ।  
 
# रोटी में गेहूँ का स्वाद होता है, जिसमें गेहूँ ऊगा उस मिट्टी का स्वाद होता है, उसे ऊगाने में किसान ने जो मेहनत की उसका भी स्वाद होता है और रोटी बनानेवाले हाथ का भी स्वाद होता है । गेहूँ के बीज से रोटी बनने तक की प्रक्रिया में जब मनुष्य मुख्य होता है तब खाने वाले को बनानेवाले हाथ के किसान के और मिट्टी के स्वाद का पता चलता है। यन्त्र में यह सब नदारद है, मनुष्य ही नदारद है। मनुष्य यन्त्रवत् बन जाय इसमें क्या आश्चर्य है ।  
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==References==
 
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<references />भारतीय शिक्षा : वैश्विक संकटों का निवारण भारतीय शिक्षा (भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला ५), प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे
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<references />धार्मिक शिक्षा : वैश्विक संकटों का निवारण धार्मिक शिक्षा (धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला ५), प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे
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[[Category:Education Series]]
 
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