Changes

Jump to navigation Jump to search
Line 145: Line 145:  
# यन्त्रों और तन्त्रज्ञान का विवेकपूर्वक उपयोग बहत महत्त्वपूर्ण मुद्दा है। यन्त्रों का निषेध नहीं करना चाहिये, उन्हें मनुष्य का सहायक बनाना चाहिये, मनुष्य का पर्याय नहीं।  
 
# यन्त्रों और तन्त्रज्ञान का विवेकपूर्वक उपयोग बहत महत्त्वपूर्ण मुद्दा है। यन्त्रों का निषेध नहीं करना चाहिये, उन्हें मनुष्य का सहायक बनाना चाहिये, मनुष्य का पर्याय नहीं।  
 
# श्रम करने पर जो शरीरस्वास्थ्य, मनोस्वास्थ्य, निर्माणक्षम बुद्धि, कारीगरी की कुशलता, सृजनशीलता आदि प्राप्त होते हैं वे और किसी भी उपाय से नहीं होते। इसका जो अनुभव करता है वही समझ सकता है। इतने मूल्यवान तत्त्व को हमने कचरे के भाव में फेंक दिया है । ऐसी बुद्धि पर तरस खाकर हमें इसे ठीक करने की आवश्यकता है।
 
# श्रम करने पर जो शरीरस्वास्थ्य, मनोस्वास्थ्य, निर्माणक्षम बुद्धि, कारीगरी की कुशलता, सृजनशीलता आदि प्राप्त होते हैं वे और किसी भी उपाय से नहीं होते। इसका जो अनुभव करता है वही समझ सकता है। इतने मूल्यवान तत्त्व को हमने कचरे के भाव में फेंक दिया है । ऐसी बुद्धि पर तरस खाकर हमें इसे ठीक करने की आवश्यकता है।
 +
 +
==== ५. ग्रामीणीकरण ====
 +
१. भारतमाता ग्रामवासिनी है। भारत की लक्ष्मी ग्रामलक्ष्मी है। अर्थात् भारत की समृद्धि गाँव पर आधारित है। गाँवों का जितना विकास होगा और उनकी जितनी अधिक प्रतिष्ठा होगी उतना ही भारत का वैभव बढेगा । इसलिये भारत को भारत होना है तो गाँवों को विकास करना चाहिये ।
 +
 +
इसके विपरीत आज ग्रामों का नगरीकरण करने का अभियान चला है। नगरों को विकास, सुविधा, अवसर, शिक्षा, आधुनिकता आदि का प्रतीक मानकर यह सब ग्रामों को भी उपलब्ध करवाने की 'उदारता' दिखाई देती है। यह भारत का ही नगरीकरण करना है।
 +
 +
भारत के नगरीकरण के लिये पश्चिम जितना जिम्मेदार है उतना ही जिम्मेदार भारत का शासन भी है। स्वतन्त्रता प्राप्ति से पूर्व भारत की स्वातन्त्र्योत्तर रचना कैसी होगी इसका चिन्तन और प्रयोग हुए थे । स्वयं महात्मा गाँधी भारत की ग्रामकेन्द्री व्यवस्था के पक्षधर थे । वे ग्रामकेन्द्री प्रतिमान विकसित करने में सक्रिय भी थे परन्तु जवाहरलाल नहेरू भारत के पश्चिमीकरण के पक्षधर थे । स्वाधीनता प्राप्ति के बाद महात्मा गाँधी नहीं रहे और उनका प्रतिमान भी ध्वस्त हो गया। नहेरू का पश्चिमी प्रतिमान ही कार्यान्वित हुआ।
 +
 +
आज पश्चिमीकरण के दुष्परिणाम पश्चिम स्वयं भूगत रहा है । भारत तो विशेष रूप से भुगत रहा है क्योंकि यह प्रतिमान भारत के स्वभाव, भारत की व्यवस्थाओं और परम्परा के विरुद्ध है। भारत में नगरीकरण के प्रयासों ने अन्य अनेक संकटों के साथ साथ अन्तर्विरोध को भी जन्म दिया है ।
 +
 +
इतना अस्वाभाविक होने के कारण नगरीकरण के स्थान पर अब ग्रामीणीकरण की ओर जाने की आवश्यकता है। ग्रामविकास यह महत्त्वपूर्ण उपक्रम बनने की आवश्यकता है।
 +
 +
६. गाँव के साथ पिछडापन, गन्दगी, सुविधाओं का अभाव, उच्च शिक्षा के अवसरों का अभाव, विकास का अभाव आदि बातें जुड़ गई हैं । इन बातों में कोई वास्तविक तथ्य नहीं है। यह एक मनोवैज्ञानिक समस्या है जिसे सुलझाने के उपाय भी मनोवैज्ञानिक होने चाहिये।
 +
 +
गाँव क्या है ? गाँव के सामाजिक, आर्थिक, प्रशासनिक, धार्मिक पक्ष होते हैं। परन्तु गाँव की परिभाषा अर्थव्यवस्था के सन्दर्भ में दी जा सकती है। जिस प्रकार ईश्वरप्रदत्त अनेक क्षमताओं के सन्दर्भ में व्यक्ति इकाई है, समाजव्यवस्था के सन्दर्भ में परिवार इकाई है, राजनीति, भूगोल, कानून आदि के सन्दर्भ में राज्य इकाई है, राष्ट्र सांस्कृतिक इकाई है उस प्रकार गाँव आर्थिक इकाई है।
 +
 +
८. आर्थिक इकाई से तात्पर्य यह है कि गाँव आर्थिक दृष्टि से स्वावलम्बी और स्वयंपूर्ण है। अत्यन्त अल्पमात्रा में कोई भी वस्तु दूसरे गाँव से आती है। आवश्यक हैं ऐसी सभी बातों को सुलभ बनाना, प्राप्त कर लेने की व्यवस्था करना गाँव का प्रमुख लक्ष्य है।
 +
 +
उद्योगकेन्द्री होना, उत्पादक होना, उत्पादन की विपुलता सम्भव बनाना गाँव के लिये स्वाभाविक है। इस दृष्टि से अर्थार्जन केन्द्रवर्ती विषय बनता है।
 +
 +
१०. जीवन की धारणा के लिये आवश्यक वस्तुओं का पर्याप्त मात्रा में उत्पादन हो यह प्रथम आवश्यकता है। इस उत्पादन से सम्बन्धित उद्योगों को करने वाले परिवार गाँव में हो यह दूसरी आवश्यकता है। यदि ऐसा कोई परिवार गाँव में नहीं है तो उसे प्रयत्नपूर्वक बाहर से बुलाकर बसाना चाहिये । अच्छी तरह से आवश्यकताओं की पूर्ति हो इस प्रकार से उद्योगों की रचना करना तीसरी आवश्यकता है।
 +
 +
११. भारत की परम्परा में कृषि केन्द्रवर्ती उद्योग माना गया है क्योंकि अन्न के साथ साथ अन्य अनेक प्रकार की आवश्यकताओं की पूर्ति खेती से होती है। खेती के लिये आवश्यक साधनों और व्यवस्थाओं की पूर्ति हेतु अन्य उद्योग चलाये जाते हैं । ये उद्योग ग्रामजनों की अन्य आवश्यकताओं की भी पूर्ति करते हैं।
 +
 +
१२. अर्थोत्पादन प्रमुख विषय होने के कारण ग्रामदेवता भी उद्योग के साथ जुडी रहती है और उसकी पूजा विभिन्न उत्पादों से होती है । इस ग्रामदेवता की कृपा से भौतिक समृद्धि के जनक गाँव कभी दरिद्र नहीं होते । गाँव को दरिद्र और पिछडा कहनेवाला व्यक्ति वास्तव में अज्ञानी और समझदारी के अभाववाला होना चाहिये।
 +
 +
बिजली, पेट्रोल या अन्य ऊर्जा से चलने वाले यन्त्र गाँव के शत्र है। इन शत्रुओं के आक्रमण के कारण ही आज गाँव छिन्न विच्छिन्न हो गये हैं और भारत दरिद्र और बेरोजगार । काम करने की वृत्ति के नहीं परन्तु काम करने के अवसर और शिक्षा के अभाव ने भारतीयों को बेरोजगार और निठल्ला बना दिया है। शारीरिक और मानसिक अस्वास्थ्य भी इसका आनुषंगिक परिणाम है।
 +
 +
१४. गाँव में अर्थोत्पादन से जुड़े किसी भी परिवार को बिना काम के रहने का अधिकार नहीं है । हरेक को अपना नियत काम करना ही है। साथ ही किसी को भी काम के अवसर से वंचित भी नहीं किया जाता । हरेक को काम मिलता ही है। किसी को किसी का काम छीन लेने का भी अधिकार नहीं है।
 +
 +
१५. अर्थोत्पादक नहीं हैं ऐसे भी बहुत काम गाँव में होते हैं। उदाहरण के लिये पुरोहित, । शिक्षक, वैद्य, न्यायाधीश आदि का काम अर्थोत्पादक नहीं होता परन्तु आवश्यक होता है। इन कामों को करने वालों का पोषण तो गाँव करता है परन्तु इनकी संख्या बहुत कम होती है। हर किसी को यह काम करने नहीं दिया जाता है। सबकुछ नियोजित रहता है।
 +
 +
१६. गाँव में पशु, पक्षी, प्राणी, पंचमहाभूतों आदि की चिन्ता की जाती है। गाँव परिवार भावना से रहता है। गाँव का सांस्कृतिक पक्ष बहुत सुदृढ होता है।
 +
 +
१७. गाँव की व्यवस्था आज तो सर्वथा छिन्नभिन्न हो गई है। गाँवों को नगरों के जैसा बनाने के आग्रह में वे न तो गाँव रह पाते हैं न नगर बन पाते हैं। अर्थोत्पादन का काम नगरों में हो रहा है, नगरों में भी वह केन्द्रीकृत हो गया है, यन्त्रों के आधार पर हो रहा है। गाँवों से लोग अर्थार्जन हेतु नगरों में जा रहे हैं इसलिये विस्थापित हो रहे हैं। नगरों की व्यवस्था में अर्थार्जन हेतु जो शिक्षा चाहिये वह भी नगरों में ही मिलती हैं । अतः गाँवों का तो अस्तित्व ही संकट में पड गया है।
 +
 +
१८. गाँवों की स्थिति ठीक करने हेतु भारत की अर्थोत्पादन की व्यवस्था ही मूल से बदलनी होगी। पश्चिम का अनाडीपन अब तो हमारी समझ में आना चाहिये । भारत की अर्थव्यवस्था का सम्यक् अध्ययन कर, आज की विश्वस्थिति का सन्दर्भ समझकर भारत के लोगों की मानसिकता और क्षमताओं को पहचानकर नये से अर्थतन्त्र को बिठाना चाहिये।
 +
 +
१९. वर्तमान में तो गाँवों को लेकर कोई व्यवस्था ही नहीं है । व्यवस्था तो नगरों को लेकर भी नहीं है। इसी प्रकार से विचार करें तो शिक्षा, समाज जीवन, न्याय, कानून आदि किसी की भी व्यवस्था नहीं है। सारी अनवस्था ही है । इसका कारण यह है कि हमने एक सर्वथा पराये तन्त्र को अपने आप पर थोप लिया है। अपना भी ठीक नहीं हो रहा है और पराया ठीक बैठ नहीं रहा है।
    
==References==
 
==References==
1,815

edits

Navigation menu