Difference between revisions of "आर्थिक स्वातंत्रयनी रक्षा करें"

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पहली बात यह है कि विकसित और विकासशील देश होना आर्थिक मापदण्ड के आधार पर नहीं होता। विकास का सम्बन्ध आर्थिक स्थिति के साथ नहीं अपितु सांस्कृतिक स्थिति के साथ है । जो अधिक संस्कारवान है वह अधिक विकसित है, अधिक धनवान है वह नहीं। हमारा सामान्य अनुभव भी है कि निर्धन और गरीब परिवारों में भी गुणवान और ज्ञानवान लोग होते ही हैं। इसलिये आर्थिक स्थिति के साथ विकास को जोडना ही बेमानी है। भारत ने इस मुद्दे पर पार्यप्त चिन्तन करना चाहिये, लिखना चाहिये और विश्वमंच पर बहस छेडनी चाहिये । अर्थात् वह सब दूसरे चरण में होगा। प्रारम्भ तो अपने आपको केवल आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है इसलिये विकासशील देश मानना बन्द कर देना चाहिये । अपने आपको विकसित मानना कि नहीं यह एक सर्वथा अलग मुद्दा है । यहाँ मुद्दा यह है कि आर्थिक आधार पर विकास के मापदण्ड को नकारना भारत ने निश्चित कर लो चाहिये ।
 
पहली बात यह है कि विकसित और विकासशील देश होना आर्थिक मापदण्ड के आधार पर नहीं होता। विकास का सम्बन्ध आर्थिक स्थिति के साथ नहीं अपितु सांस्कृतिक स्थिति के साथ है । जो अधिक संस्कारवान है वह अधिक विकसित है, अधिक धनवान है वह नहीं। हमारा सामान्य अनुभव भी है कि निर्धन और गरीब परिवारों में भी गुणवान और ज्ञानवान लोग होते ही हैं। इसलिये आर्थिक स्थिति के साथ विकास को जोडना ही बेमानी है। भारत ने इस मुद्दे पर पार्यप्त चिन्तन करना चाहिये, लिखना चाहिये और विश्वमंच पर बहस छेडनी चाहिये । अर्थात् वह सब दूसरे चरण में होगा। प्रारम्भ तो अपने आपको केवल आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है इसलिये विकासशील देश मानना बन्द कर देना चाहिये । अपने आपको विकसित मानना कि नहीं यह एक सर्वथा अलग मुद्दा है । यहाँ मुद्दा यह है कि आर्थिक आधार पर विकास के मापदण्ड को नकारना भारत ने निश्चित कर लो चाहिये ।
  
जो अमेरिका विश्व के देशों को विकासशील और विकसित देशों में विभाजित करता है उसका आधार क्या है ? उसका आधार मुख्य रूप से जीडीपी - ग्रोस डोमेस्टिक प्रोडक्ट - सकल घरेलू उत्पाद है। सामान्य समझदारी को आकलन होना कठिन ऐसा यह एक उलझनभरा मामला है। (कुशाग्र बुद्धि तो इसे सर्वथा नकारेगी ऐसा भी मामला है।) देश की समस्त सेवाओं और भौतिक उत्पादों का पैसे
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जो अमेरिका विश्व के देशों को विकासशील और विकसित देशों में विभाजित करता है उसका आधार क्या है ? उसका आधार मुख्य रूप से जीडीपी - ग्रोस डोमेस्टिक प्रोडक्ट - सकल घरेलू उत्पाद है। सामान्य समझदारी को आकलन होना कठिन ऐसा यह एक उलझनभरा मामला है। (कुशाग्र बुद्धि तो इसे सर्वथा नकारेगी ऐसा भी मामला है।) देश की समस्त सेवाओं और भौतिक उत्पादों का पैसे में रूपान्तरण कर देने से यह प्राप्त होता है। इसे देश की जनसंख्या से भाग करने पर प्रतिव्यक्ति आय का अंक मिलता है । यह अंक जितना अधिक उतना देश अधिक विकसित और जितना कम उतना विकासशील ऐसी सामान्य परिभाषा है।
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यह उत्पादों और सेवाओं को पैसे में रूपान्तरित करने की पद्धति यान्त्रिक तो है ही, साथ में असांस्कृतिक भी है।
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एक दो उदाहरणों से यह बात स्पष्ट होगी।
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भारत में अनेक काम ऐसे हैं जो बिना पैसे के होते हैं। शिशुसंगोपन, भोजन बनाना और खिलाना, अन्न और अन्य वस्तुओं का दान करना आदि अनेक बातों में पैसे का व्यवहार नहीं होता है । अतः होटेल, बेबी सिटींग, मोटेल, होस्पिटल, लॉण्ड्री आदि अनेक व्यवसाय कम चलते हैं। अनेक प्रकार की सेवायें ऐसी हैं जिन्हें पैसे के लेनदेन से परे रखा जाता है। भारत में अन्नदान, विद्यादान, शिशुसंगोपन, ऋग्णसेवा आदि संस्कारों का विषय है, आर्थिक क्षेत्र का नहीं । अनेक लोग ऐसे हैं जो बीमा नहीं खरीदते । अनेक ऐसे हैं जिनका बैंक खाता नहीं होता । इसका सीधा प्रभाव जीडीपी पर होता है। परन्तु जीडीपी कम होने का अर्थ गरीबी नहीं होता, संस्कार होता है। अब यदि सेवा और दान का त्याग कर संस्कारिता कम कर जीडीपी बढा कर विकसित देशों के श्रेणी में आना है तो भारत को अपना भारतपना ही छोडना होगा । भारत को यह मान्य नहीं होना चाहिये । अतः जीडीपी जैसे मापदण्डों को नकारना ही उत्तम विकल्प है।
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यन्त्र आधारित केन्द्रीकृत उत्पादन की व्यवस्था कर कुल उत्पादन बढाना, उपभोक्ता की आवश्यकता की ओर ध्यान दिये बिना उत्पादन बढाना और बढे हुए उत्पादन को बेचने हेतु विज्ञापन के माध्यम से कृत्रिम माँग पैदा करना उल्टी गंगा है। आवश्यकता के अनुसार उत्पादन करना सही दिशा है। उत्पादन केन्द्रित हो जाने से परिवहन, संरक्षण, संग्रह और विज्ञापन का खर्च बढता है। यह भले ही जीडीपी में वृद्धि करने वाला हो तो भी अनुत्पादक खर्च है। ऐसा अनुत्पादक खर्च स्वार्थ और बुद्धिहीनता का लक्षण है।
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केन्द्रीकृत उत्पादन के कारण से असंख्य लोग बेरोजगार होते हैं और असंख्य लोग को नौकर बनते है। मनुष्य की स्वतन्त्रता का नाश करने वाला और दुनियाभर में कृत्रिम माँग पैदा करनेवाला उत्पादन तन्त्र भारत को मान्य नहीं होना चाहिये। यह धर्मविरोधी अर्थतन्त्र है। इसे नकारने की आवश्यकता है।
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येनकेन प्रकारेण पैसा कमाना यह सुसंस्कृत मनुष्यजीवन का ध्येय नहीं हो सकता । भूमि का शोषण करने वाला पेट्रोलियम उद्योग और रासायणिक खाद का उद्योग, मादक द्रव्य और शस्त्रास्त्रों का उत्पादन सर्व प्रकार की संस्कारिता का नाश करने वाला है। इसे भी नकारना ही होगा।
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संक्षेप में वर्तमान यूरोअमेरिकी अर्थतन्त्र की एक भी बात ऐसी नहीं है जो भारत की दृष्टि से स्वीकार्य हो सके । इसे सीधा सीधा नकारने की आवश्यकता है।
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परन्तु यह बात सरल नहीं है। अनेक बातों में हम विश्व के अन्यान्य देशों के साथ सम्बन्धित है । अनेक देशों से भारत ने कर्जा लिया है, अनेक देशों को कर्जा दिया है। अनेक देशों के साथ व्यापारी करार किये हैं । भारत राष्ट्रसंघ का भी सदस्य है । अनेक बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ भारत में भी व्यापार कर रही हैं । तात्पर्य यह है कि वैश्विक संरचना जो एक बार स्थापित हो गई है, उसे एकाएक नकारना तो सम्भव नहीं होता । इसलिये अर्थव्यवस्था के परिवर्तन का प्रारम्भ सरकारी स्तर से शुरू नहीं हो सकता । जनसमाज में प्रारम्भ हो सकता है। इसे लेकर दीर्घकालीन और तत्कालीन योजना बनाने की आवश्यकता है।
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अर्थ को लेकर अमेरिका की जो वृत्ति है वह पराकोटि की अमानवीय है । भारत के मनीषियों ने तो कहा ही है कि जिनके ऊपर अर्थ का लोभ सवार हो गया है वे स्वजनों और आदरणीय लोगों की भी परवाह नहीं करते, उन्हें धोखा देने में और उनका शोषण करने में भी संकोच नहीं करते । अर्थ का लोभ दया, मैत्री, नीति आदि सबका नाश करता है। हमने 'द प्रिझन' और 'आर्थिक हत्यारे का कबूलातनामा' में देखा ही है कि किस प्रकार सम्पूर्ण प्रकृति और सम्पूर्ण विश्वसमाज को निर्ममता से लूटने का कैसा
  
 
==References==
 
==References==

Revision as of 13:03, 13 January 2020

अध्याय ३७

१. यूरो अमेरिकी अर्थतंत्र को नकारना

भारत को भारत बनना है तो प्रथम तो जिस तन्त्र का वह शिकार बना है उस तन्त्र को नकारना होगा। विभिन्न प्रकार के तन्त्रों में एक है अर्थतन्त्र । वर्तमान अर्थतन्त्र को सीधा सीधा नकारने से भारत की भारत बनने की प्रक्रिया शुरू होगी।

तुरन्त प्रश्न उठेगा कि अर्थतन्त्र का काम ही सबसे पहले क्यों होना चाहिये । भारत तो धर्मप्रधान देश है, परम्पराओं का देश है, जीवनमूल्यों में आस्था रखने वाला देश है । इन सब की बात करने के स्थान पर अर्थ की ही बात क्यों करनी चाहिये ? इसलिये कि वर्तमान समय में अर्थ जीवनरचना के केन्द्र में आ गया है। यूरोप की जीवनरचना अर्थकेन्द्री है, जीवन की शेषसारी बातें अर्थ के आगे गौण हैं। वे सब अर्थ से नापी जाती हैं। इस अर्थकेन्द्री व्यवस्था ने भयानक अनर्थ निर्माण किया है। ब्रिटीश भारत में आये ही थे व्यापार करने के लिये इतिहास और राजनीति के जानकारों ने उनकी राज्यव्यवस्था को ही व्यापारशाही कहा है। भारत से जाते समय वे अपना अर्थतन्त्र और अर्थदृष्टि यहाँ छोडकर गये हैं । स्वाधीन भारत की सरकारने भी उसे उसी रूप में स्वीकार कर लिया है।

इस तन्त्र को नकारने का पहला मुद्दा होगा अर्थ को केन्द्र स्थान में नहीं रखना । भारतीय जीवनरचना में धर्म केन्द्रस्थान पर रहता है और शेष सारी व्यवस्थायें धर्म के अविरोधी अथवा धर्मानुकूल हों यह एक व्यापक परिणामकारी सूत्र है । अर्थतन्त्र को धर्म के अनुकूल बनाने हेतु विश्वविद्यालयों के शोध एवं अध्ययन केन्द्रों में प्रभावी कार्य करने की आवश्यकता रहेगी। चिन्तन से लेकर छोटे से छोटे व्यवहार तक की एक विस्तृत रूपरेखा तैयार करनी होगी।

वर्तमान अर्थतन्त्र में वैश्विक सन्दर्भ में भारत विकासशील देश माना जाता है। इसे सीधा सीधा अमान्य कर देना चाहिये।

किस आधार पर ?

पहली बात यह है कि विकसित और विकासशील देश होना आर्थिक मापदण्ड के आधार पर नहीं होता। विकास का सम्बन्ध आर्थिक स्थिति के साथ नहीं अपितु सांस्कृतिक स्थिति के साथ है । जो अधिक संस्कारवान है वह अधिक विकसित है, अधिक धनवान है वह नहीं। हमारा सामान्य अनुभव भी है कि निर्धन और गरीब परिवारों में भी गुणवान और ज्ञानवान लोग होते ही हैं। इसलिये आर्थिक स्थिति के साथ विकास को जोडना ही बेमानी है। भारत ने इस मुद्दे पर पार्यप्त चिन्तन करना चाहिये, लिखना चाहिये और विश्वमंच पर बहस छेडनी चाहिये । अर्थात् वह सब दूसरे चरण में होगा। प्रारम्भ तो अपने आपको केवल आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है इसलिये विकासशील देश मानना बन्द कर देना चाहिये । अपने आपको विकसित मानना कि नहीं यह एक सर्वथा अलग मुद्दा है । यहाँ मुद्दा यह है कि आर्थिक आधार पर विकास के मापदण्ड को नकारना भारत ने निश्चित कर लो चाहिये ।

जो अमेरिका विश्व के देशों को विकासशील और विकसित देशों में विभाजित करता है उसका आधार क्या है ? उसका आधार मुख्य रूप से जीडीपी - ग्रोस डोमेस्टिक प्रोडक्ट - सकल घरेलू उत्पाद है। सामान्य समझदारी को आकलन होना कठिन ऐसा यह एक उलझनभरा मामला है। (कुशाग्र बुद्धि तो इसे सर्वथा नकारेगी ऐसा भी मामला है।) देश की समस्त सेवाओं और भौतिक उत्पादों का पैसे में रूपान्तरण कर देने से यह प्राप्त होता है। इसे देश की जनसंख्या से भाग करने पर प्रतिव्यक्ति आय का अंक मिलता है । यह अंक जितना अधिक उतना देश अधिक विकसित और जितना कम उतना विकासशील ऐसी सामान्य परिभाषा है।

यह उत्पादों और सेवाओं को पैसे में रूपान्तरित करने की पद्धति यान्त्रिक तो है ही, साथ में असांस्कृतिक भी है।

एक दो उदाहरणों से यह बात स्पष्ट होगी।

भारत में अनेक काम ऐसे हैं जो बिना पैसे के होते हैं। शिशुसंगोपन, भोजन बनाना और खिलाना, अन्न और अन्य वस्तुओं का दान करना आदि अनेक बातों में पैसे का व्यवहार नहीं होता है । अतः होटेल, बेबी सिटींग, मोटेल, होस्पिटल, लॉण्ड्री आदि अनेक व्यवसाय कम चलते हैं। अनेक प्रकार की सेवायें ऐसी हैं जिन्हें पैसे के लेनदेन से परे रखा जाता है। भारत में अन्नदान, विद्यादान, शिशुसंगोपन, ऋग्णसेवा आदि संस्कारों का विषय है, आर्थिक क्षेत्र का नहीं । अनेक लोग ऐसे हैं जो बीमा नहीं खरीदते । अनेक ऐसे हैं जिनका बैंक खाता नहीं होता । इसका सीधा प्रभाव जीडीपी पर होता है। परन्तु जीडीपी कम होने का अर्थ गरीबी नहीं होता, संस्कार होता है। अब यदि सेवा और दान का त्याग कर संस्कारिता कम कर जीडीपी बढा कर विकसित देशों के श्रेणी में आना है तो भारत को अपना भारतपना ही छोडना होगा । भारत को यह मान्य नहीं होना चाहिये । अतः जीडीपी जैसे मापदण्डों को नकारना ही उत्तम विकल्प है।

यन्त्र आधारित केन्द्रीकृत उत्पादन की व्यवस्था कर कुल उत्पादन बढाना, उपभोक्ता की आवश्यकता की ओर ध्यान दिये बिना उत्पादन बढाना और बढे हुए उत्पादन को बेचने हेतु विज्ञापन के माध्यम से कृत्रिम माँग पैदा करना उल्टी गंगा है। आवश्यकता के अनुसार उत्पादन करना सही दिशा है। उत्पादन केन्द्रित हो जाने से परिवहन, संरक्षण, संग्रह और विज्ञापन का खर्च बढता है। यह भले ही जीडीपी में वृद्धि करने वाला हो तो भी अनुत्पादक खर्च है। ऐसा अनुत्पादक खर्च स्वार्थ और बुद्धिहीनता का लक्षण है।

केन्द्रीकृत उत्पादन के कारण से असंख्य लोग बेरोजगार होते हैं और असंख्य लोग को नौकर बनते है। मनुष्य की स्वतन्त्रता का नाश करने वाला और दुनियाभर में कृत्रिम माँग पैदा करनेवाला उत्पादन तन्त्र भारत को मान्य नहीं होना चाहिये। यह धर्मविरोधी अर्थतन्त्र है। इसे नकारने की आवश्यकता है।

येनकेन प्रकारेण पैसा कमाना यह सुसंस्कृत मनुष्यजीवन का ध्येय नहीं हो सकता । भूमि का शोषण करने वाला पेट्रोलियम उद्योग और रासायणिक खाद का उद्योग, मादक द्रव्य और शस्त्रास्त्रों का उत्पादन सर्व प्रकार की संस्कारिता का नाश करने वाला है। इसे भी नकारना ही होगा।

संक्षेप में वर्तमान यूरोअमेरिकी अर्थतन्त्र की एक भी बात ऐसी नहीं है जो भारत की दृष्टि से स्वीकार्य हो सके । इसे सीधा सीधा नकारने की आवश्यकता है।

परन्तु यह बात सरल नहीं है। अनेक बातों में हम विश्व के अन्यान्य देशों के साथ सम्बन्धित है । अनेक देशों से भारत ने कर्जा लिया है, अनेक देशों को कर्जा दिया है। अनेक देशों के साथ व्यापारी करार किये हैं । भारत राष्ट्रसंघ का भी सदस्य है । अनेक बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ भारत में भी व्यापार कर रही हैं । तात्पर्य यह है कि वैश्विक संरचना जो एक बार स्थापित हो गई है, उसे एकाएक नकारना तो सम्भव नहीं होता । इसलिये अर्थव्यवस्था के परिवर्तन का प्रारम्भ सरकारी स्तर से शुरू नहीं हो सकता । जनसमाज में प्रारम्भ हो सकता है। इसे लेकर दीर्घकालीन और तत्कालीन योजना बनाने की आवश्यकता है।

अर्थ को लेकर अमेरिका की जो वृत्ति है वह पराकोटि की अमानवीय है । भारत के मनीषियों ने तो कहा ही है कि जिनके ऊपर अर्थ का लोभ सवार हो गया है वे स्वजनों और आदरणीय लोगों की भी परवाह नहीं करते, उन्हें धोखा देने में और उनका शोषण करने में भी संकोच नहीं करते । अर्थ का लोभ दया, मैत्री, नीति आदि सबका नाश करता है। हमने 'द प्रिझन' और 'आर्थिक हत्यारे का कबूलातनामा' में देखा ही है कि किस प्रकार सम्पूर्ण प्रकृति और सम्पूर्ण विश्वसमाज को निर्ममता से लूटने का कैसा

References

भारतीय शिक्षा : वैश्विक संकटों का निवारण भारतीय शिक्षा (भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला ५), प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे