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इसी प्रकार इंग्लैंड एवं पश्चिम यूरोप में जब वपित्र एवं कृषि के अन्य उपकरण आए, धातुविद्या की नई प्रक्रियाएँ आई, नई वनस्पतियाँ आईं, नई एवं अपूर्वज्ञात खगोलशास्त्रीय जानकारियाँ आईं तब भी उतनी ही हलचल हुई होगी।
 
इसी प्रकार इंग्लैंड एवं पश्चिम यूरोप में जब वपित्र एवं कृषि के अन्य उपकरण आए, धातुविद्या की नई प्रक्रियाएँ आई, नई वनस्पतियाँ आईं, नई एवं अपूर्वज्ञात खगोलशास्त्रीय जानकारियाँ आईं तब भी उतनी ही हलचल हुई होगी।
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फिर भी ब्रिटिशरोंने जब पूना में सन् १७९० के दशक में प्लास्टिक सर्जरी देखी एवं उसी कालखंड में ब्रह्मदेश में तेल के कुएँ देखे एवं उसकी जानकारी इंग्लैंड में पहुंची तब सामाजिक जीवन में इतनी खलबली नहीं मची थी। उसके महत्त्व एवं प्रभाव के विषय में अब चर्चा करने की आवश्यकता नहीं रह गई है। इतनी वह सर्वज्ञात हो गई है।
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तथापि ब्रिटिशरोंने जब पूना में सन् १७९० के दशक में प्लास्टिक सर्जरी देखी एवं उसी कालखंड में ब्रह्मदेश में तेल के कुएँ देखे एवं उसकी जानकारी इंग्लैंड में पहुंची तब सामाजिक जीवन में इतनी खलबली नहीं मची थी। उसके महत्त्व एवं प्रभाव के विषय में अब चर्चा करने की आवश्यकता नहीं रह गई है। इतनी वह सर्वज्ञात हो गई है।
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तेरहवीं शताब्दी से उन्नीसवीं शताब्दी के मध्यभाग तक पश्चिम यूरोप को पूर्व से, विशेषकर एशिया के देशों से अनगिनत विचार एवं कारीगरी प्राप्त हुई है। संभव है कि इनमें से कुछ विचारों का जन्म यूरोप में ही हुआ हो एवं ईसा मसीह के बाद के प्रारम्भ के शतकों में वे लुप्त हो गये हों। अतः उनका मूल चाहे जो हो परन्तु जब इन विचारों एवं कारीगरी का आगमन पहली बार यूरोप में हुआ तब उनका प्रबल विरोध हुआ। इतना ही नहीं तो उससे सामाजिक जीवन में भी अस्वस्थता की स्थिति का निर्माण हुआ। फिर भी इन सभी विचारों एवं कारीगरी के कारण यूरोप के सामर्थ्य में वृद्धि ही हुई।  
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तेरहवीं शताब्दी से उन्नीसवीं शताब्दी के मध्यभाग तक पश्चिम यूरोप को पूर्व से, विशेषकर एशिया के देशों से अनगिनत विचार एवं कारीगरी प्राप्त हुई है। संभव है कि इनमें से कुछ विचारों का जन्म यूरोप में ही हुआ हो एवं ईसा मसीह के बाद के प्रारम्भ के शतकों में वे लुप्त हो गये हों। अतः उनका मूल चाहे जो हो परन्तु जब इन विचारों एवं कारीगरी का आगमन पहली बार यूरोप में हुआ तब उनका प्रबल विरोध हुआ। इतना ही नहीं तो उससे सामाजिक जीवन में भी अस्वस्थता की स्थिति का निर्माण हुआ। तथापि इन सभी विचारों एवं कारीगरी के कारण यूरोप के सामर्थ्य में वृद्धि ही हुई।  
    
गत कुछ शतकों में यूरोप की सभ्यता ने बहुत सी समस्याओं का निर्माण किया है। उनमें से कुछ तो कभी हल न होने वाली हैं। वे समस्याएँ यूरोप ने स्वयं के लिए तो निर्मित की ही हैं परन्तु इससे भी अधिक गैरयूरोपीय देशों के लिए पैदा की हैं। यूरोप चाहे जितनी चिंता करता हो, चिल्लाता हो, वह चिंता प्रमाणिक भी हो तो भी उसने पर्यावरण के आत्यंतिक प्रदूषण की समस्या तो निर्मित की ही है, परन्तु उसके अतिरिक्त समस्याएँ भी यूरोप के लिए कोई नई नहीं हैं। नया तो यह है कि एक के बाद एक साहस करने में यूरोप गैरयूरोपीय देशों के लिए एक के बाद एक समस्या का निर्माण करता ही रहा है।  
 
गत कुछ शतकों में यूरोप की सभ्यता ने बहुत सी समस्याओं का निर्माण किया है। उनमें से कुछ तो कभी हल न होने वाली हैं। वे समस्याएँ यूरोप ने स्वयं के लिए तो निर्मित की ही हैं परन्तु इससे भी अधिक गैरयूरोपीय देशों के लिए पैदा की हैं। यूरोप चाहे जितनी चिंता करता हो, चिल्लाता हो, वह चिंता प्रमाणिक भी हो तो भी उसने पर्यावरण के आत्यंतिक प्रदूषण की समस्या तो निर्मित की ही है, परन्तु उसके अतिरिक्त समस्याएँ भी यूरोप के लिए कोई नई नहीं हैं। नया तो यह है कि एक के बाद एक साहस करने में यूरोप गैरयूरोपीय देशों के लिए एक के बाद एक समस्या का निर्माण करता ही रहा है।  
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बहुत बड़े पैमाने पर मनुष्य को गुलाम बनाने की प्रवृत्ति यूरोपीय सभ्यता का प्रमुख लक्षण है। बहुत ही विशाल पैमाने पर लोगोंं को गुलाम बनाया जाता था। सोलहवीं, सत्रहवीं, एवं अठाहरवीं शताब्दी में गुलामों का व्यापार होता था, केवल उसी को याद करना पर्याप्त है। इससे भी पूर्व ग्रीक एवं रोमन साम्राज्य के काल में भी इसी प्रकार होता था यह बात समझने की आवश्यकता है। आफ्रिका से गुलाम के रूप में लाखों लोगोंं को पकड़कर लाया जाता था। उसे 'शाही व्यापार' की संज्ञा फर्नाड ब्रोडेल ने दी है। प्लेटो ने गुलामों के साथ किए जानेवाले कठोर व्यवहार की निंदा की है, परन्तु एक वर्ग के रूप में गुलामों का तिरस्कार भी किया है, एवं गुलामी की व्यवस्था का उसने स्वीकार भी किया है। एथेन्स सहित समग्र ग्रीस में, लोकतांत्रिक ग्रीस में गुलाम ही शारीरिक या कारीगरी की मजदूरी करते थे।
 
बहुत बड़े पैमाने पर मनुष्य को गुलाम बनाने की प्रवृत्ति यूरोपीय सभ्यता का प्रमुख लक्षण है। बहुत ही विशाल पैमाने पर लोगोंं को गुलाम बनाया जाता था। सोलहवीं, सत्रहवीं, एवं अठाहरवीं शताब्दी में गुलामों का व्यापार होता था, केवल उसी को याद करना पर्याप्त है। इससे भी पूर्व ग्रीक एवं रोमन साम्राज्य के काल में भी इसी प्रकार होता था यह बात समझने की आवश्यकता है। आफ्रिका से गुलाम के रूप में लाखों लोगोंं को पकड़कर लाया जाता था। उसे 'शाही व्यापार' की संज्ञा फर्नाड ब्रोडेल ने दी है। प्लेटो ने गुलामों के साथ किए जानेवाले कठोर व्यवहार की निंदा की है, परन्तु एक वर्ग के रूप में गुलामों का तिरस्कार भी किया है, एवं गुलामी की व्यवस्था का उसने स्वीकार भी किया है। एथेन्स सहित समग्र ग्रीस में, लोकतांत्रिक ग्रीस में गुलाम ही शारीरिक या कारीगरी की मजदूरी करते थे।
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समय बीतने पर गुलामी निरस्त हुई एवं उमरावशाही ने उसका स्थान लिया। उमरावशाही की जड़ें अनेक हैं, वे सभी विवाद का विषय भी हैं। इंग्लैंड में तो ग्यारहवीं शताब्दी के मध्य में नोर्मन विजय के बाद उमरावशाही प्रस्थापित हुई। अन्य देशों में उसके प्रस्थापित होने के अनेक कारण हैं। कार्ल मार्क्स, फ्रेडरिक एन्जल्स, एवं अन्यों के मतानुसार टेक्नोलोजी में होनेवाला बड़ा परिवर्तन भी एक कारण है। अब तक गुलामों की जो स्थिति थी वही अब सर्फ एवं विलियन्स के रूप में पहचाने जानेवाले विशाल संख्या के लोगोंं की थी। जिनकी संपत्ति में वृद्धि हुई उनकी सत्ता में भी वृद्धि हुई। सत्ता एवं संपत्ति ने मिलकर यूरोप में विशाल भवन एवं जहाजों का निर्माण करके और अधिक संपत्ति प्राप्त करने का जतन किया।
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समय बीतने पर गुलामी निरस्त हुई एवं उमरावशाही ने उसका स्थान लिया। उमरावशाही की जड़़ें अनेक हैं, वे सभी विवाद का विषय भी हैं। इंग्लैंड में तो ग्यारहवीं शताब्दी के मध्य में नोर्मन विजय के बाद उमरावशाही प्रस्थापित हुई। अन्य देशों में उसके प्रस्थापित होने के अनेक कारण हैं। कार्ल मार्क्स, फ्रेडरिक एन्जल्स, एवं अन्यों के मतानुसार टेक्नोलोजी में होनेवाला बड़ा परिवर्तन भी एक कारण है। अब तक गुलामों की जो स्थिति थी वही अब सर्फ एवं विलियन्स के रूप में पहचाने जानेवाले विशाल संख्या के लोगोंं की थी। जिनकी संपत्ति में वृद्धि हुई उनकी सत्ता में भी वृद्धि हुई। सत्ता एवं संपत्ति ने मिलकर यूरोप में विशाल भवन एवं जहाजों का निर्माण करके और अधिक संपत्ति प्राप्त करने का जतन किया।
    
यूरोप ने विश्वविजय के परिणाम स्वरूप औद्योगिकरण किया। अठारहवीं शताब्दी के अंत में आरम्भ हुआ औद्योगिकरण ऐसे विजय के बिना संभव ही नहीं था। यह तो निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि विजय के फलस्वरूप नई खोजें, नई टेक्नोलोजी की आवश्यकता का निर्माण हुआ। जो सदा कहा जाता है कि युद्धों के कारण विज्ञान एवं तन्त्रज्ञान को गति प्राप्त होती है वह यूरोप के अंतिम कुछ शताब्दियों के अनुभवों का ही परिणाम है।
 
यूरोप ने विश्वविजय के परिणाम स्वरूप औद्योगिकरण किया। अठारहवीं शताब्दी के अंत में आरम्भ हुआ औद्योगिकरण ऐसे विजय के बिना संभव ही नहीं था। यह तो निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि विजय के फलस्वरूप नई खोजें, नई टेक्नोलोजी की आवश्यकता का निर्माण हुआ। जो सदा कहा जाता है कि युद्धों के कारण विज्ञान एवं तन्त्रज्ञान को गति प्राप्त होती है वह यूरोप के अंतिम कुछ शताब्दियों के अनुभवों का ही परिणाम है।
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उससे भी दस वर्ष पूर्व नेहरू अधिक मुखर थे। अपनी आत्मकथा में उन्होंने लिखा, 'मुझे व्यक्तिगत रूप से कोई सन्देह नहीं है कि आधुनिक औद्योगिक संस्कृति का विरोध करने के हिन्दू या मुस्लिम किसी भी प्रकार के प्रयास असफल ही रहेंगे। मैं इस असफलता को खेद के किसी भी प्रकार के भाव के बिना ही देखूँगा।'
 
उससे भी दस वर्ष पूर्व नेहरू अधिक मुखर थे। अपनी आत्मकथा में उन्होंने लिखा, 'मुझे व्यक्तिगत रूप से कोई सन्देह नहीं है कि आधुनिक औद्योगिक संस्कृति का विरोध करने के हिन्दू या मुस्लिम किसी भी प्रकार के प्रयास असफल ही रहेंगे। मैं इस असफलता को खेद के किसी भी प्रकार के भाव के बिना ही देखूँगा।'
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पंडित नेहरू समझदार व्यक्ति थे। उनकी देशभक्ति के विषय में सन्देह नहीं किया जा सकता। उन्हें अपने एशियन होने पर गर्व था। उन्हें तीसरे विश्व का नागरिक होने पर भी गर्व था। वे पश्चिम को जानते थे। पाश्चात्य सभ्यता के भयंकर प्रभाव को भी वे जानते थे। फिर भी आधुनिक विज्ञान एवं टेक्नोलोजी की उपजों के प्रति उनका आकर्षण एवं उसकी क्षमता में उनका विश्वास भी अमर्याद थे एवं हम जानते हैं कि इतने मतभेदों के बावजूद भी पंडित नेहरू २४ वर्ष तक महात्मा गाँधी के निकटतम अनुयायी भी थे।
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पंडित नेहरू समझदार व्यक्ति थे। उनकी देशभक्ति के विषय में सन्देह नहीं किया जा सकता। उन्हें अपने एशियन होने पर गर्व था। उन्हें तीसरे विश्व का नागरिक होने पर भी गर्व था। वे पश्चिम को जानते थे। पाश्चात्य सभ्यता के भयंकर प्रभाव को भी वे जानते थे। तथापि आधुनिक विज्ञान एवं टेक्नोलोजी की उपजों के प्रति उनका आकर्षण एवं उसकी क्षमता में उनका विश्वास भी अमर्याद थे एवं हम जानते हैं कि इतने मतभेदों के बावजूद भी पंडित नेहरू २४ वर्ष तक महात्मा गाँधी के निकटतम अनुयायी भी थे।
    
इस बात से तो सभी सम्मत हैं कि आधुनिक पश्चिमी सभ्यता, उसका राज्यतन्त्र एवं उसके विज्ञान एवं टेक्नोलोजी का गाँधीजी से अधिक कठोर आलोचक और कोई नहीं था। महात्मा गांधी को उनके यूरोप के प्रारम्भिक सम्पर्क के दौरान बेचैन करनेवाला कोई तत्त्व था तो वह था यूरोप, एवं खास कर इंग्लैंड का अपने ही लोगोंं के साथ किया जानेवाला व्यवहार। इंग्लैंड के शासक जिस तरह से नागरिकों के आत्मगौरव एवं मर्यादा पर आघात करते थे, जिस तरह मनुष्यों को एक व्यवस्था के ढांचे में जकड़ लिया जाता था, उसे देखकर गाँधीजी को अधिक दुःख होता था। अंग्रेज भारत को नुकसान पहुंचा रहे थे इसके दुःख से भी यह दु:ख महत्तर था। देश को होनेवाले नुकसान का तो वे अपनी देशभक्ति से मुकाबला कर सकते थे परन्तु इंग्लैंड के ही लोगोंं का अपमान तो उनका मानवता के प्रति अपराध था। उसे देखकर ही उन्होंने निश्चय किया कि उनका देश एवं अन्य जो भी कोई उनकी इस भावना से सहमत होगा उनका ऐसी सभ्यता के साथ किसी प्रकार का कोई संबंध नहीं होगा। परन्तु अपनी यह भावना वे पंडित नेहरू जैसे लोगोंं में नहीं जगा पाए।
 
इस बात से तो सभी सम्मत हैं कि आधुनिक पश्चिमी सभ्यता, उसका राज्यतन्त्र एवं उसके विज्ञान एवं टेक्नोलोजी का गाँधीजी से अधिक कठोर आलोचक और कोई नहीं था। महात्मा गांधी को उनके यूरोप के प्रारम्भिक सम्पर्क के दौरान बेचैन करनेवाला कोई तत्त्व था तो वह था यूरोप, एवं खास कर इंग्लैंड का अपने ही लोगोंं के साथ किया जानेवाला व्यवहार। इंग्लैंड के शासक जिस तरह से नागरिकों के आत्मगौरव एवं मर्यादा पर आघात करते थे, जिस तरह मनुष्यों को एक व्यवस्था के ढांचे में जकड़ लिया जाता था, उसे देखकर गाँधीजी को अधिक दुःख होता था। अंग्रेज भारत को नुकसान पहुंचा रहे थे इसके दुःख से भी यह दु:ख महत्तर था। देश को होनेवाले नुकसान का तो वे अपनी देशभक्ति से मुकाबला कर सकते थे परन्तु इंग्लैंड के ही लोगोंं का अपमान तो उनका मानवता के प्रति अपराध था। उसे देखकर ही उन्होंने निश्चय किया कि उनका देश एवं अन्य जो भी कोई उनकी इस भावना से सहमत होगा उनका ऐसी सभ्यता के साथ किसी प्रकार का कोई संबंध नहीं होगा। परन्तु अपनी यह भावना वे पंडित नेहरू जैसे लोगोंं में नहीं जगा पाए।
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यूरोपीय आधिपत्य में आने से पूर्व भारत में बहुत ही समृद्ध कृषि एवं विभिन्न प्रकार के अत्यंत विकसित उद्योगक्षेत्र थे। सन् १८०० तक तो भारत की कृषि उपज उस समय के इंग्लैंड की कृषि उपज से तीन गुना थी। औद्योगिक सामर्थ्य का पता इस बात से चलता है कि उस काल में भारत लगभग १,००,००० टन उत्तम प्रकार के इस्पात का निर्माण करता था।  
 
यूरोपीय आधिपत्य में आने से पूर्व भारत में बहुत ही समृद्ध कृषि एवं विभिन्न प्रकार के अत्यंत विकसित उद्योगक्षेत्र थे। सन् १८०० तक तो भारत की कृषि उपज उस समय के इंग्लैंड की कृषि उपज से तीन गुना थी। औद्योगिक सामर्थ्य का पता इस बात से चलता है कि उस काल में भारत लगभग १,००,००० टन उत्तम प्रकार के इस्पात का निर्माण करता था।  
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उससे पूर्व छहसौ सातसौ वर्ष अर्थात् ग्यारहवीं से सत्रहवीं शताब्दी तक पश्चिम भारत एवं उत्तर भारत अनेक प्रकार के आक्रमणों का शिकार बनते  रहे हैं। इन आक्रमणों एवं उसके बाद के आक्रमकों का शासन ग्रामीण एवं नगरीय क्षेत्रों में असंतोष एवं परेशानी का कारण बना। साथ ही ये क्षेत्र धार्मिक असहिष्णुता का भी शिकार बने। ऐसे शासन का एक परिणाम यह हुआ कि शासन एवं समाज के आपसी संबंध टूटने लगे, क्यों कि शासन एक संकल्पना के अनुसार चलता था, समाज की जीवनशैली दूसरी संकल्पना के अनुसार चलती थी। फलस्वरूप समाज व्यवस्था कमजोर पड़ गई। फिर भी समाज की जीवनशैली एक सीमा तक बनी रही। आक्रमणों के आघात का लगभग समग्र देश में अनुभव हो रहा था। फिर भी लगभग अठारहवीं शताब्दी तक समाज प्राचीनकाल से प्रस्थापित मूल्यों एवं परंपराओं के आधार पर ही चलता था। व्यक्तिगत एवं सामाजिक जीवन, एवं राजनैतिक व्यवस्थाएँ लगभग वही थीं। अतः १७५० से १८५० के सौ वर्षों में यूरोपीय विस्तारवाद का सबसे अधिक एवं सबसे सशक्त प्रतिरोध भी उत्तर एवं पश्चिम भारत ने ही किया था।
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उससे पूर्व छहसौ सातसौ वर्ष अर्थात् ग्यारहवीं से सत्रहवीं शताब्दी तक पश्चिम भारत एवं उत्तर भारत अनेक प्रकार के आक्रमणों का शिकार बनते  रहे हैं। इन आक्रमणों एवं उसके बाद के आक्रमकों का शासन ग्रामीण एवं नगरीय क्षेत्रों में असंतोष एवं परेशानी का कारण बना। साथ ही ये क्षेत्र धार्मिक असहिष्णुता का भी शिकार बने। ऐसे शासन का एक परिणाम यह हुआ कि शासन एवं समाज के आपसी संबंध टूटने लगे, क्यों कि शासन एक संकल्पना के अनुसार चलता था, समाज की जीवनशैली दूसरी संकल्पना के अनुसार चलती थी। फलस्वरूप समाज व्यवस्था कमजोर पड़ गई। तथापि समाज की जीवनशैली एक सीमा तक बनी रही। आक्रमणों के आघात का लगभग समग्र देश में अनुभव हो रहा था। तथापि लगभग अठारहवीं शताब्दी तक समाज प्राचीनकाल से प्रस्थापित मूल्यों एवं परंपराओं के आधार पर ही चलता था। व्यक्तिगत एवं सामाजिक जीवन, एवं राजनैतिक व्यवस्थाएँ लगभग वही थीं। अतः १७५० से १८५० के सौ वर्षों में यूरोपीय विस्तारवाद का सबसे अधिक एवं सबसे सशक्त प्रतिरोध भी उत्तर एवं पश्चिम भारत ने ही किया था।
    
सन् १७५० से १८०० तक दक्षिण एवं मध्यभारत लगभग स्वतन्त्र था। हमलों का प्रभाव कुछ कम था। अतः वहां की मौलिकता एवं सत्त्व आज भी पर्याप्त मात्रा में सुस्थिति में लगता है। ये क्षेत्र यूरोपीय शैली एवं रीतिरिवाजों से कम प्रभावित हुए लगते हैं। साथ ही स्वत्व बनाए रखकर यूरोपीय ज्ञान एवं विज्ञान का अपने उद्देश्य के अनुरूप उपयोग भी वे कर सकते हैं।
 
सन् १७५० से १८०० तक दक्षिण एवं मध्यभारत लगभग स्वतन्त्र था। हमलों का प्रभाव कुछ कम था। अतः वहां की मौलिकता एवं सत्त्व आज भी पर्याप्त मात्रा में सुस्थिति में लगता है। ये क्षेत्र यूरोपीय शैली एवं रीतिरिवाजों से कम प्रभावित हुए लगते हैं। साथ ही स्वत्व बनाए रखकर यूरोपीय ज्ञान एवं विज्ञान का अपने उद्देश्य के अनुरूप उपयोग भी वे कर सकते हैं।
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समृद्ध कृषि एवं विशाल औद्योगिक परंपरा के कारण भारत आज भी अपनी अर्थ व्यवस्था अपनी ही पद्धति से समर्थ रूप में कर सकता है। अपनी उत्पादन क्षमता पुनः बढ़ा सकता है। भले ही दो सौ वर्ष अवनति के, विनाश के एवं निराशा के बीते हैं तो भी भारत में पुनः उत्थान की क्षमता है ही। कम से कम दैनन्दिन उपयोग की वस्तुएँ तो विपुल मात्रा में बनाई ही जा सकती हैं। सबसे पहले सामाजिक, पर्यावरणीय एवं तकनीक की दृष्टि से अत्यंत हानिकारक पद्धतियाँ एवं उस से होनेवाला वस्तुओं का उत्पादन सर्वथा बंद कर देना चाहिए। उसी प्रकार बीज, पौधे, एवं अन्य वस्तुएँ, जो भारत पर जबरदस्ती लादी जा रही हैं, उनका भी त्याग करना चाहिए। यह भी पिछले कई दशकों से हो रहा एक प्रकार का आक्रमण ही है। गाँवों एवं शहरों के कस्बों जैसे क्षेत्रों में रहनेवाले लोगोंं की आवश्यकता के अनुसार वस्तुओं का उत्पादन होना चाहिए, न कि बाजार एवं आन्तरराष्ट्रीय व्यापार की आवश्यकता के अनुसार। इसका अर्थ यह नहीं है कि नगरों एवं महानगरों में रहनेवाले लोगोंं की आवश्यकताओं की उपेक्षा की जाए, अथवा आंतरराष्ट्रीय व्यापार बंद कर दिया जाए। इसका अर्थ यह है कि हमारी प्राथमिकताओं की पुनर्रचना की जाए। उत्पादन की पद्धति में परिवर्तन के साथ वितरण व्यवस्था में भी परिवर्तन अपेक्षित है। वस्तु का उत्पादन जहाँ होता है उस क्षेत्र का उस वस्तु पर प्रथम अधिकार होना चाहिए। यदि केवल बाजार को ही ध्यान में रखा जाएगा तो वस्तु की हेराफेरी की समस्या निर्माण होगी; दूर तक ले जाना है तो उसका वस्तु की उत्पादन प्रक्रिया पर प्रभाव पड़कर उसका स्वरूप भी बदल जाता है। वस्तु मँहगी होती है एवं जहां उसका उत्पादन होता है वहाँ, एवं जो लोग उसका उत्पादन करते हैं उनके लिए वह वस्तु दुर्लभ बन जाती है। बेची जा सकती हैं ऐसी ही वस्तुओं का उत्पादन होता है, आवश्यक वस्तुओं का नहीं। जहाँ वस्तुओं का उत्पादन नहीं होता है वहाँ या तो उत्पादन होने लगे या उसका कोई बड़ा संग्रह हो जहाँ से उन्हें वे वस्तुएँ मिल सकें। सिद्धांत यह है कि अधिकांश वस्तुओं का उत्पादन एवं उपयोग स्थानीय हो। भारत जैसा घनी आबादीवाला देश अन्न एवं अन्य प्राथमिक आवश्यकता की वस्तुएँ अन्य देशों को मुहैया कराने में असमर्थ है ऐसी कल्पना करना भी हास्यास्पद है। चाय, कपास, कच्चा लोहा, कोयला इत्यादि का निर्यात करना है तो तब विचार करना पडेगा जब वे आवश्यकता से सचमुच अधिक हैं, या इतनी विपुल मात्रा में मिलती हैं कि वे कभी समाप्त नहीं होंगी। उदाहरण के तौर पर पश्चिम यूरोप में वर्तमान समय में डेरी उत्पादनों का निकास हो सकता है क्योंकि यहाँ वे वस्तुएँ वास्तव में आवश्यकता से ज्यादा बनती हैं।
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समृद्ध कृषि एवं विशाल औद्योगिक परंपरा के कारण भारत आज भी अपनी अर्थ व्यवस्था अपनी ही पद्धति से समर्थ रूप में कर सकता है। अपनी उत्पादन क्षमता पुनः बढ़ा सकता है। भले ही दो सौ वर्ष अवनति के, विनाश के एवं निराशा के बीते हैं तो भी भारत में पुनः उत्थान की क्षमता है ही। कम से कम दैनन्दिन उपयोग की वस्तुएँ तो विपुल मात्रा में बनाई ही जा सकती हैं। सबसे पहले सामाजिक, पर्यावरणीय एवं तकनीक की दृष्टि से अत्यंत हानिकारक पद्धतियाँ एवं उस से होनेवाला वस्तुओं का उत्पादन सर्वथा बंद कर देना चाहिए। उसी प्रकार बीज, पौधे, एवं अन्य वस्तुएँ, जो भारत पर जबरदस्ती लादी जा रही हैं, उनका भी त्याग करना चाहिए। यह भी पिछले कई दशकों से हो रहा एक प्रकार का आक्रमण ही है। गाँवों एवं शहरों के कस्बों जैसे क्षेत्रों में रहनेवाले लोगोंं की आवश्यकता के अनुसार वस्तुओं का उत्पादन होना चाहिए, न कि बाजार एवं आन्तरराष्ट्रीय व्यापार की आवश्यकता के अनुसार। इसका अर्थ यह नहीं है कि नगरों एवं महानगरों में रहनेवाले लोगोंं की आवश्यकताओं की उपेक्षा की जाए, अथवा आंतरराष्ट्रीय व्यापार बंद कर दिया जाए। इसका अर्थ यह है कि हमारी प्राथमिकताओं की पुनर्रचना की जाए। उत्पादन की पद्धति में परिवर्तन के साथ वितरण व्यवस्था में भी परिवर्तन अपेक्षित है। वस्तु का उत्पादन जहाँ होता है उस क्षेत्र का उस वस्तु पर प्रथम अधिकार होना चाहिए। यदि केवल बाजार को ही ध्यान में रखा जाएगा तो वस्तु की हेराफेरी की समस्या निर्माण होगी; दूर तक ले जाना है तो उसका वस्तु की उत्पादन प्रक्रिया पर प्रभाव पड़कर उसका स्वरूप भी बदल जाता है। वस्तु मँहगी होती है एवं जहां उसका उत्पादन होता है वहाँ, एवं जो लोग उसका उत्पादन करते हैं उनके लिए वह वस्तु दुर्लभ बन जाती है। बेची जा सकती हैं ऐसी ही वस्तुओं का उत्पादन होता है, आवश्यक वस्तुओं का नहीं। जहाँ वस्तुओं का उत्पादन नहीं होता है वहाँ या तो उत्पादन होने लगे या उसका कोई बड़ा संग्रह हो जहाँ से उन्हें वे वस्तुएँ मिल सकें। सिद्धांत यह है कि अधिकांश वस्तुओं का उत्पादन एवं उपयोग स्थानीय हो। भारत जैसा घनी आबादीवाला देश अन्न एवं अन्य प्राथमिक आवश्यकता की वस्तुएँ अन्य देशों को मुहैया कराने में असमर्थ है ऐसी कल्पना करना भी हास्यास्पद है। चाय, कपास, कच्चा लोहा, कोयला इत्यादि का निर्यात करना है तो तब विचार करना पड़ेगा जब वे आवश्यकता से सचमुच अधिक हैं, या इतनी विपुल मात्रा में मिलती हैं कि वे कभी समाप्त नहीं होंगी। उदाहरण के तौर पर पश्चिम यूरोप में वर्तमान समय में डेरी उत्पादनों का निकास हो सकता है क्योंकि यहाँ वे वस्तुएँ वास्तव में आवश्यकता से ज्यादा बनती हैं।
    
खाद्य पदार्थ, कपड़ा, आवास एवं सार्वजनिक उपयोग के मकान बनाने के लिए उपयोगी सामग्री, जंगल उत्पादन एवं वनस्पति तथा इसी प्रकार की अन्य वस्तुएँ, जो कि भारत की संस्कृति एवं सभ्यता से स्वाभाविक एवं अटूट संबंध रखती हैं उन का अर्थव्यवहार स्थानीय ही हो यह अत्यंत आवश्यक है। उस कारण से कहीं कहीं यदि उत्पादन की मात्रा कम हो तो भी ऐसा ही करना चाहिए; क्योंकि उससे उत्पादन की गुणवत्ता में वृद्धि होगी, भारत के सदियों से संचित सौंदर्यबोध को नवजीवन मिलेगा और मात्रा कम होने पर भी उसका बहुत बड़ा एवं अच्छा मुआवजा मिलेगा।
 
खाद्य पदार्थ, कपड़ा, आवास एवं सार्वजनिक उपयोग के मकान बनाने के लिए उपयोगी सामग्री, जंगल उत्पादन एवं वनस्पति तथा इसी प्रकार की अन्य वस्तुएँ, जो कि भारत की संस्कृति एवं सभ्यता से स्वाभाविक एवं अटूट संबंध रखती हैं उन का अर्थव्यवहार स्थानीय ही हो यह अत्यंत आवश्यक है। उस कारण से कहीं कहीं यदि उत्पादन की मात्रा कम हो तो भी ऐसा ही करना चाहिए; क्योंकि उससे उत्पादन की गुणवत्ता में वृद्धि होगी, भारत के सदियों से संचित सौंदर्यबोध को नवजीवन मिलेगा और मात्रा कम होने पर भी उसका बहुत बड़ा एवं अच्छा मुआवजा मिलेगा।

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