अमेरिका का एक्सरे

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पता ढूंढने जैसी कठीन बात कोई नहीं होगी। रास्ते से जाने वाले राहगीर कितने भले लगते है।।

एक हम ही हाथ में पते का कागज लेकर घुमते रहते हैं । वास्तव में तो न्यूयोर्क में एवन्यू, स्ट्रीट और घर का नंबर अगर ठीक से लिखा हुआ है और थोडा बहुत अंग्रेजी आप जानते हैं तो पता ढूंढना मुश्किल नहीं है। फिर भी मैं उस न्यूयोर्क शहर में रास्ता भूल गया था । ऐसे समय डाकघर में जाकर पता पूछना स्वाभाविक होता है ।परंतु मैं तो डाकघर का ही पता ढूंढ रहा था । न्यूयोर्क के मेनहटन टापु पर तो मार्गों की अत्यंत पद्धतिसर रचना है। हडसन नदी पर जानेवाली स्ट्रीट, और उन रास्तों को नब्बे अंश के कोन पर काटने वाले जो मार्ग है वह एवन्यू । मेरा भुलक्कड होने का गुणधर्म जाननेवाले मित्रों ने मुझे यह रचना याद करवा दी थी। फिर भी रास्ता भूलना मेरी विशेषता थी । मेरा स्वयं का पता मैं पूरे विस्तार से कहता हूँ । इसलिये कहीं भी रास्ता नहीं भटकुंगा ऐसा आश्वासन देकर मैं मेरे न्यूयोर्क स्थित दोस्त के घर से पोस्टओफिस खोजने निकल पडा ।

सुबह के दस बज रहे थे । प्रसन्न करनेवाली धुप होने पर भी हवा में ठंड थी। आनंदपूर्वक टहलने जैसा वातावरण था। पर पता खोज रहे मनुष्य की स्थिति वह आनन्द उठाने जैसी होती हैं की नहीं यह कहना मुश्किल है।

पराये प्रदेश में अनजान मनुष्य को पता पूछना यह कितनी मुश्किल बात है यह न्यूयोर्क जैसे नगर में जिसे पता ढूंढने के लिये भटकना पडा है वही समझ सकेगा। मेरे ‘एस्क्यु झ मी' की तरफ कोई नजर फेरनेवाला भी मिला हो तो उसे सद्भाग्य ही मानना होगा । इस ठंडे देश में लोग बहुत तेज गति से चलते हैं । उनको रोकना बहुत कठिन कार्य है । अगर रोक कर ‘एस्क्युझ मी' कह भी दिया तो उसे लगता है कि धक्का लगने से यह माफी माँग रहा है । इसलिये 'नेवर माइण्ड' कह कर वे आगे बढ जाते हैं। सीधे कोई दुकान में जाकर पूछने की सोचेंगे तो हो सकता है कि वह पता बताने का सर्विसचार्ज लगा दे। जहाँ सब्जी लेने गई माँ के पास से अगर उसकी बेटी अपने छोटे भाई को आधा घण्टा सम्हालने के 'बेबीसिटींग'सर्विस चार्ज के रूप में एकाध डोलर लेती हो वहाँ मेरे जैसे पराये आदमी की क्या औकात ? वैसे भी मैं परेशान हो चुका था । इतने में सामनेवाली फूटपाथ पर बाबागाडी लेकर आती एक वृद्धा दिखाई दी। गाडी में बच्चा नहीं था, खरीदा हुआ सामान था। मैंने बाबागाडी के पास खडे रहकर कहा,'एस्क्युझ मी मेडम'

पता नहीं वह किस धून में चल रही थी। मेरा 'एस्क्युझ मी' सुनते ही उसने भयभीत द्रष्टि से मेरे सामने देखा और डर के मारे काँपने लगी। उसका वह घबराया हुआ चहेरा और काँपती गर्दन देख कर मुझे लगा कि दादीमाँ को कोई झटका लगा है । मैं भी घबरा गया । क्या बोलना यह समझ में नहीं आता था । मैंने पूछा 'आरन्ट यु फिलिंग वेल, मेडम'? उसके मुँह से आवाझ भी नहीं निकलती थी। कुछ क्षण ऐसे ही बीते । बाद में उसने काँपती आवाझ में पूछा क्या चाहिये तुम्हे ?'

मुझे एक पता पूछना है । मैंने सबूत के नाते हाथ में पकडा कागज उसे दिखाया । यहाँ की पोस्ट ऑफिस कहाँ है ?'

'क्या?'

'पोस्ट ओफिस' मेरे मन में आया कि अगर यहाँ पोस्ट ऑफिस को और कुछ नाम से पहचानते होंगे तो और गडबड होगी। प्रवाही पेट्रोल को गेस कहने वाले लोग हो सकता है कि पोस्ट ऑफिस को 'लेटर थ्रोअर' कहते हो । जरुरतमंद लोगों ने अमेरिका जाने से पहले अमेरिकन अंग्रेजी सीख लेनी चाहिये । यहाँ होटेल का बील माँगते समय 'चेक'माँगना पडता है और हमने चुकाये पैसे को बील कहते हैं। तीसवे या चालीसवे तले पर ले जानेवाले उपकरण को सभी अंग्रेजीभाषी देशों में लिफ्ट कहते हैं पर यहाँ उसे एलीवेटर कहते हैं। और कार में लिफ्ट माँगते हैं तो शायद उनको आघात पहुँचाते हों क्यों कि अमेरिकन आदमी कार में राइड देता है । मैं यह सोच रहा था तब तक महिला थोडी स्वस्थ हो चुकी थी। उसने पूछा, 'डिड यु से पोस्टओफिस ?'

हाँ ! पोस्ट ऑफिस, मुझे कुछ स्टेम्प्स लेने हैं।

'ओह ! आयम सो सॉरी ।' याने इतना सबकुछ हो जाने के बाद यह महिला मुझे पोस्टऑफिस का पता भी नहीं देगी ? पर उसने कहा, 'कृपया मेरे बारे में कुछ गलतफहमी मत करना ।

मुझे कुछ पल्ले नहीं पड़ रहा था। अगर वह पोस्टऑफिस का पता नहीं जानती है तो उसमें इतना गिडगिडाने की क्या आवश्यकता थी ? मुझे कहने की इच्छा हुई कि दादीमाँ, इतने वर्षों से पुणे में रहने पर भी गंज पेठ की पोस्टओफ़िस का पता मैं नहीं जानता हूँ। पर उसका यह गिडगिडाना उस कारण से नहीं था, क्योंकि उसने तुरंत मुझे कहा, चलो मेरे साथ, मैं तुम्हें बताती हूँ।

क्यों? आप मुझे केवल पोस्ट ओफिस का पता बता दिजिये । मैं चला जाउंगा । 'नहीं नहीं। मैंने अकारण तुम्हारा अपमान किया।'

आपने मेरा क्या अपमान किया ?

'अरे भाई, क्या करूं ? इस शहर में मेरा पूरा जीवन बीता पर इतने बुरे दिन कभी आये नहीं थे। माय गॉड! कैसे दिन आ गये ? अच्छा बुरा समझने का कोई रास्ता ही नहीं है । तुमने ‘एस्क्युझ मी' कहा और मैं घबरा गई।'

याने? (और हमारा संवाद आगे बढा )

कब आया तु न्यूयोर्क में ? हो गये तीन -चार दिन ।

कहाँ से आया ?

भारत से ।

नेहरु? माँजी ने भारत के बारे में अपने ज्ञान का परिचय दिया ।

कैसे बुरे दिन आये हैं, रास्ते में अगर किसीने रोका तो लगता है की सामने शैतान आ गया ।

आज तक कई वृद्धाओं के सामने खडा हुआ हूँ पर किसीको मुझ में शैतान नजर नहीं आया ।

मेरी सगी दादीने भी कभी ऐसा नहीं कहा।

'समाल कर रहना बेटा इस शहर में ।'

और उसके बाद मुझे पूरी बात जानने का मौका मिला । उस विराट शहर में एक छोटे मकान में वह वृद्धा अकेली रहती है। वैसे तो वह कमाउ बेटों की माँ थी । दो बेटियाँ भी थी । बेटियाँ अपने अपने ससुराल चली गई होगी ऐसा मुझे लगा।

अरे ऐसा नहीं है ! दोनों अविवाहित हैं, एक ३२ साल की एक २७ साल की । दोनों अविवाहित हैं। पैसा कमाती हैं और स्वतंत्र हैं।

आप अकेली ही रहती हैं ?

इस देश में मेरे जैसी लाखौँ महिलाएँ अकेली रहती हैं। अमेरिका में वृद्धों को सिनियर सिटीझन कहते हैं। मैं प्रतिदिन ऐसे ही दस बजे शोपींग के लिये निकलती हूँ और ग्यारह बजे वापस घर चली जाती हूँ। उसके बाद दूसरे दिन दस बजे तक एकाकी । अब तो सेंट्रल पार्क भी जाने लायक नहीं रहा है। न्यूयोर्क जैसे भीडभाड वाले शहर में सेंट्रल पार्क एक रमणीय उद्यान है।

क्यों जाने लायक नहीं रहा ?

'मगींग'

'क्या?'

मगींग-माने आते जाते एकाकी आदमी को मार कर लूट लेना । किस पल अपनी मौत आएगी यह कह नहीं सकते।

यह वृद्धा मुझे गुंडा मान बैठी थी । मैं उसे मार कर लूट लुंगा ऐसा उसे लगता था। उसने मुझे पोस्ट ओफ़िस पहुँचने तक लगातार हत्या तथा पीटाई के भय से उसके जैसी वृद्धाओं को कैसा एकाकी जीवन जीना पडता है यह समझाया । एक सप्ताह पूर्व ही उसकी एक समवयस्क पडोसन की पिटाई कर कोई उसकी पर्स उठा ले गया था ।

'मैं भी हमेशा घण्टी बजने पर बड़ी सावधानी से दरवाजा खोलती हूँ।

मुझे याद आया की यहाँ तो पोस्टमेन भी नीचे सबके नाम लिखी पेटी में ही डाक डालता है। दूधवाला भी दरवाजे पर बॉटल रख कर चला जाता है। कभी कभी बॉटल दूसरे दिन भी वहाँ पड़ी मिली तो पुलिस को जानकारी देता है, दरवाजा तोड कर अंदर जाने पर पुलिस को सडी हुई लाश मिलती है। उस एकाकी जीवन के अंतिम क्षण भी ऐसे भयावह होते हैं।

दो दिन पहले ही हमने न्यूयोर्क को घेर कर बहती नदियों में नाव में बैठकर शहर की परिक्रमा की थी। कितना रमणीय दिखता था वह शहर ! किनारे पर स्थित वह रमणीय उद्यान, विश्वविद्यालय का रमणीय परिसर, खेल के विशाल मैदान, उसमे चल रहे युवक -युवतिओं के खेल,नदी पर बना वह प्रचंड सेतु । नदी में चल रहा युवाओं का स्वच्छंद नौकाविहार, हडसन नदी पर से न्यूजर्सी की ऑर जानेवाला वह प्रचण्ड पुल । तिमंजिले रास्ते,मोटरों की कतारें, उत्तुंग भवन, और फिर भी इतनी ही समृद्ध वनसंपदा । स्वातंत्र्यदेवी की प्रतिमा से मेनहटन की ओर बोट मुडते ही अपनी सौ सवासौ मंजिलों वाली इमारतों पर विद्युतदीपों को झगमगाती और सहस्र कुबेरों का ऐश्वर्य प्रकट करनेवाली वह न्यूयोर्क नगरी । मन ही मन कह रहा था, कितने सौभाग्यशाली हैं ये लोग ? परंतु यहां तो बात कुछ और ही सुनने को मिलि । तो फिर क्या यह अंदर से सडे गले सेवों का बगीचा था ?

शहर और अपराध एकदूसरे का हाथ पकडकर ही आते हैं। मैं दस वर्ष पूर्व इस शहर में आया था। सेंट्रल पार्क में बहुत घुमाफिरा था । परंतु हमें किसी ने आधी रात को न घुमने की हिदायत नहीं दी थी । और आज दस वर्ष बाद दिन में दस बजे यह वृद्धा केवल मेरे ‘एस्क्युझ मी' से कांप उठी थी । प्रत्येक व्यक्ति सूचना दे रहा था, शाम को इक्कादुक्का कहीं मत जाइएगा। हर १५ मिनिट पर पुलिस की गाडियाँ साइरन बजाती हुई अपराधियों को पकड़ने के लिये घूम रही थी। दूसरे ही दिन अखबार में खबर पढी की केवल आधे डोलर के लिये एक १६ वर्षीय बालकने एक विख्यात प्राध्यापक की दिनदहाडे हत्या कर दी। प्रोफेसर कार में बैठने जा रहे थे तब यह लडके ने आकर २५ सेंट मांगे । बखेडा टालने के लिये प्राध्यापक ने उसे पैसे दे दिये । इस दौरान लडके की द्रष्टि उन्होंने पहनी हुई मूल्यवान घडी पर पड़ी । लडके ने उसकी माँग की और प्रोफेसर के नानुकर करते ही गोली चला दी।

मैं रहता था वह उच्च मध्यमवर्गीय लोगों का महोल्ला था। एक बार घर से बाहर निकला तो वायुमण्डल गरम था। हम समझ कर लौट गये। बाद में हकीकत पता चली । वहाँ के विद्यालय को दो प्रवेशद्वार थे । एक रास्ते पर लडकों की एक टोली ने 'हमारे रास्ते से तुम्हारे विद्यालय के छात्रों को नहीं जाने देंगे' ऐसी धमकी दी। उसमें से बात बढी और दोनों टोलियों के बीच महायुद्ध हुआ ।पाँच-दस लोग घायल हुए। पुलिस को रिवोल्वर्स और अन्य शस्त्र मिले । यह कोई कालों और गोरों के बीच का संघर्ष नहीं था दोनों तरफ गोरे ही थे ।

कितना सम्पन्न देश । बडे बडे वस्तुभंडार । नजर न पहुंचे ऐसी विराट इमारतें, पर हर मंजिल पर सशस्त्र पुलिस का पहरा । कब चिनगारी भडकेगी, कहा नहीं जा सकता । सुन्न हो गए अमेरिकन विचारकों के दिमाग, किसी भी अमेरिकन से बात करने पर पहले तो वे अनेक तर्क देगा पर अंत में निस्सहाय होकर सर हिलाएंगे । कोई विएतनाम युद्ध की बात करेगा, कोई राजनीतिकों को दोष देगा । कोई इसे अनर्गल संपत्ति का राक्षसी संतान बताएगा । हम लोग आधे भूखे होने के कारण बदनसीब तो दूसरी ओर अमेरिका अत्याहार के कारण हुई बदहजमी से परेशान ।

न्यूयोर्क के रास्तों पर से जाते समय शब्दशः चीथडे जैसे पहन कर घुम रही सोलह सत्रह वर्ष की किशोरियों को देखकर मैं अत्यंत सुन्न हो जाता था। अपना घर परिवार छोडकर स्वातंत्र्य की खोज में भाग नीकली यह अभागी बालाओं के बारे में पुलिस द्वारा प्रस्तुत कार्यक्रम देखा । घोंसले से गिरे हुए बच्चों के समान यह लडकियाँ । कोई गाँजा-चरस जैसे मादक पदार्थों के सेवन में सुख और स्वातंत्र्य खोज रही थी तो कोई रास्ता भटक कर अपने जैसे ही नाबालिग लडकों के साथ सार्वजनिक उद्यानों में कुत्ते बिल्ली के समान शरीर सुख खोज रही थी । इन दुर्भागी बालाओं की कहानी अत्यंत करुण थी। आयु के दसवे - ग्यारहवे वर्ष में ही यहाँ कौमार्यभंग हो रहा था। वास्तव में अच्छे संपन्न परिवारों की लडकियाँ थी । पेट भरने के लिये यह सब करने की बाध्यता नहीं थी, परन्तु शालेय जीवन में ही किसी न किसी गुट से जुड़ गई । एक लडकी तो पुलिस चौकी पर अपने गुट के नाम पर स्वयं ने अपने देह की कैसी दुर्दशा कर दी इसका वर्णन कर रही थी। अंत में उस अधिकारी ने पूछा, तुम्हें माँ की याद आती है ? इस प्रश्न के साथ ही वह 'मोम' ऐसा चिल्ला कर दहाड मार कर रो पडी।

१३ से १९ वर्ष के बालक टीन एजर्स कहे जाते है। अमेरिकनों को ऐसे विचित्र शब्दप्रयोग कर किसी भी चीज पर अपना ठप्पा लगाने की बहुत बुरी आदत है। उसी में से यह 'मोडस', हिप्पी, 'टीनएजर्स' पैदा हुए हैं । उसमें भी थर्टीन-फोर्टीन या सेवंटीन - नाइंटीन जैसे अलग हिस्से हैं। इन बच्चों को उपद्रव करने की खुली छूट होती है। हर गुट के कपड़ों की भी अलग अलग विशेषताएँ हैं ।जैसे जनजातियों के लोग अपनी अपनी विशेषताएँ दिखाने के लिये विभिन्न वेश पहनते है ऐसा ही इन लोगों का होता है। वेशभूषा के समाजमान्य बंधन फेंक देने वाले हिप्पियों ने भी अंत में 'हिप्पी' वेशभूषा और केशभूषा का बन्धन अपना ही लिया है। अच्छे कपड़ों को चीथडा बनाकर पहनने की भी किसी गुट की फैशन बन गयी है। कारण अंत में तो अनुकरण करनेवालों की संख्या ही अधिक होती है। फिर चाहे वह एस्टाब्लिशमेंट वाला हो या एण्टी एस्टाब्लिशमेंट वाला।

न्यूयोर्क का ग्रिनिच विलेज यह गोरे वैरागी स्त्री-पुरुषों का आश्रयस्थान है । यहाँ मेरे लिये सब से अधिक आश्चर्य का विषय है इस पंथ के लिये आवश्यक सभी चीजों का व्यापार कर समृद्ध बननेवाले व्यापारियों का । उत्तम सूट और उत्तम गाउन यह प्रस्थापित समाज की विशेषता । प्रस्थापितों के सामने विद्रोह करनेवाले युवक-युवतियों ने अपना विरोध उस वेश को नकार कर प्रकट किया । अव्यवस्थित बाल और फटे कपडे उनकी पहचान बने । व्यापारियों ने इसीका व्यापार शुरू किया। व्यापारी को क्या ? वह तो जो भी खरीदा जाएगा वह बेचेगा। याने परंपरावादियों की चोटी और विद्रोही की दाढी दोनों अंततोगत्वा बनिये के हाथ मेंही है।

कभी कभी तो लगता है कि यह युवा पिढी अपने जीवन को जानबुझ कर बरबाद कर रही है या उसके पीछे कोई विचार भी है ? या फिर कोई रोग प्रसरने पर लोग जैसे मरते हैं, उसी प्रकार यह महाभयंकर प्रचार यंत्रणा ने उनकी सारी विचारशक्ति को नष्ट कर उन्हें हर बार किसी न किसी मानसिक रोग का शिकार बनाया है ? एक तो इन बच्चों के साथ संवाद असंभव है। वैसे तो अमेरिकन लोग बहुत अनौपचारिक हैं। 'हाय' कहकर अनजान व्यक्ति का भी स्वागत करेंगे, बतियाएंगे। परंतु जोगियों की यह नई जमात बिलकुल हाथ नहीं बढाती है । अपने गुट के बाहर के किसी भी व्यक्ति के साथ बात करने की उनकी सदंतर अनिच्छा रहती है। एक तो महाभयानक मादक द्रव्यों के सेवन के कारण वे सदैव भ्रमित रहते हैं, नहीं तो बिना दुनिया की परवा किये विजातीय मित्रों के साथ घुमते नजर आते हैं। अपने यहाँ के बैरागियों की तरह उनके भी कई पंथ हैं। अब तो प्रत्येक पंथ के अलग तिलक और मालाएँ भी हैं। उसमें भी 'हरे रामा हरे कृष्णा' वाले लोग तो दिनभर एक ही पंक्ति एक ही ताल में गाते हुए घुमने के कारण आत्मसंमोहन की अवस्था में ही रहते हैं। चमकते मुंड, लंबी चोटी, माथे पर छपी विविध मुद्राएँ, अर्धनग्न, पिली धोती और गले में माला, तंबूर,मृदंग, झांझ लेकर रास्ते पर घुम रहे हैं। कुछ लोग संपूर्ण नग्न, कुछ टोपलेस, याने शरीर पर चोली आदि कुछ नहीं। कमर से नीचे मिनी यानी चार इंच लंबा स्कर्ट । तो किसी गुट में लडकियाँ मेक्सी माने लंबा मारवाडी घाघरा पहनी हुई।

मुझे उनमें से एक ने पकडा और पंथ प्रचार शुरू किया।

मैंने पूछा 'यह क्या है ?'

'यह क्रिस्ना कोंश्यसनेस है।'

'क्रिस्ना कोश्यसनेस, ओह आयम सोरी' मैंने कहा ।

'व्हाय?'

'आई बिलीव इन रामा कोश्यसनेस ।'

'रामा कोश्यसनेस ?'

यस । रामा कोश्यसनेस ।'

'वोट इझ रामा कोश्यसनेस ?'

'ध ओपोझीट ओफ क्रिस्ना कोंश्यसनेस ।' कहते हुए राम:रामौ रामा: तक के सभी विभक्ती प्रत्यय सुना दिये । वह बेचारा स्तब्ध रह गया ।

इस भ्रमित लोगों के देश में भारतीय साधुओं ने बराबर अडिंगा जमाया है। मैं एक परिवार में भोजन करने गया था। उस गृहस्थ को मैंने 'हरे रामा हरे क्रिस्ना' के बारे में पूछा । मैं उन्हें समझाने का प्रयास कर रहा था कि इसमें बहुत धोखाधडी है। आपकी युवा पिढी जिस प्रकार कामधाम छोड कर रास्तों पर भटक रही है वैसे अगर हमारे बच्चे घुमना शुरू करेंगे तो हम उसे पसंद नहीं करेंगे । आप इन धूर्तों पर विश्वास मत किजिये । हिंद धर्म में इस प्रकार अपने कर्तव्य छोड कर घुमते रहने का उपदेश नहीं किया गया है। कभी गुरुवार, एकादशी को भजन वगैरा हो यह ठीक है पर यहाँ की बात उचित नहीं है । आप यह विचित्र आदत बच्चों को न पड़ने दें।'

'बुरा मत मानना मिस्टर देशपांडे, पर हमें लगता है कि हशीश या एल.एस.डी के व्यसन से यह व्यसन कम नुकसान देह है। गृहलक्ष्मीने अत्यंत वेदनापूर्ण हृदय से कहा।

विएतनाम युद्ध में बलपूर्वक जोत दिये गये यह तरुण वापस आते समय अनेक भयानक व्यसनों के शिकार बन कर आये हैं । उस महिला का एक पुत्र भी ऐसे ही वापस आया है। उन तरुणों को वेटरन्स कहते हैं । अमेरिकन लोगों ने अच्छे शब्दों की भी कैसी दुर्दशा कि है ? मुश्कील से २५ वर्ष की आयु के यह बच्चे वेटरन्स ! वास्तव में तो जिन्हें अपने अपने व्यवसाय का. कार्यक्षेत्र का चालीस पचास वर्ष का प्रदीर्घ अनुभव हो, फिर चाहे वह किसी भी क्षेत्र का हो, ऐसे गुणसंपन्न वीरको वेटरन्स कहते हैं।

परंतु अत्यंत छोटी आयु में बलात् युद्ध में भेज कर २५ वर्ष पूर्ण होने से भी पहले वापस लाये गये युवक वेटरन्स ? उन्हें आगे जो भी पढना है वह पढने की सुविधा होती है । परंतु यह लडके-लडकियाँ वापस आते समय ऐसे चेतनाशून्य होकर लौटते हैं कि जीवन की अच्छाइयों पर से उनकी श्रद्धा समाप्त हो गई होती है। जीवन एक सुंदर उद्यान है यह समझने की आयु में उन्होंने मनुष्य के मृतदेहों का कीचड देखा हुआ होता है ।

सैनिकों की छावनियों के इर्दगीर्द घुमती वारागंनाओं ने उनकी कोमल शृंगार कल्पनाओं के चीथडे उड़ा दिये हैं। वर्षों तक मौत से खेलते रहे यह तरुण किसी मादक द्रव्य का सहारा लेकर उस जिवंत मृत्यु जैसी स्थिति को ही मोक्ष मानने लगते हैं तो उसमें उनका क्या दोष ? यह अभागी माता का गुणवान बेटा भी हशीश जैसे व्यसन का शिकार होकर शहर के किसी कोने में पड़ा है। 'चाहे जो हो, मेरा बेटा है, मैंने ही उसे सम्हालना चाहिये ।' वाक्य का तो अमेरिकन अंग्रेजी में अनुवाद भी संभव नहीं है।

हम लोग इंग्लैंड को व्यापारियों का देश कहते हैं लेकिन वह बिलकुल गलत है। आज अमेरिकनों के सारे नमस्कार 'डोलरं प्रतिगच्छति' हैं। इसीलिये उनकी जीवन की व्याख्या 'डॉलर कमाने का अवसर' उतनी ही होगी ऐसा मुझे लगता है । जीवन में उसके लिये समय कितना मिलेगा यह अनिश्चित होने के कारण यहाँ हर बात की जल्दी है । 'सेल' मंत्र के साथ दूसरा मंत्र है, 'इंस्टंट' फटाफट ।

इंस्टंट कोफी, इंस्टंट चाय, इंस्टंट चावल -एक मिनट में भोजन तैयार ! कागज की पुड़ियों में भोजन तैयार मिलता है। डाल दो उसे उबलते पानी में, एक मिनिट में भोजन तैयार । फिर एक मिनिट में भोजन तैयार करनेवाली कंपनी का प्रतिस्पर्धी घोषणा करता है, अरे ! एक मिनिट? वोट अ वेस्ट ओफ टाइम । यह देखिये हमारी कंपनी की थैली, थर्टी सेकण्डस में सूप, स्टेक, पुडिंग,कॉफी', और फिर ऐसी थैली लाकर तीस सेकेंड बचाने वाले प्रेमी को उसकी प्रियतमा प्रगाढ चुंबन देती है। यह द्रश्य टीवी पर चोवीस घण्टे चमकता ही रहता है । बेचने की चीज चाहे कोई भी हो उसका परिणाम अंत में प्रगाढ चुंबनों में और आलिंगनों में ही होना चाहिये । ऐसे द्रश्य निरंतर देखते देखते उसका रोमांच भी खतम हो गया है। इसलिये अब रंगमंच पर नगनावस्था में दंगा।

'ओ कोलकता' उसका ‘फेंटास्टिक्क' पर्यवसान । मैं उसमें लगे कोलकता शब्द के कारण देखने गया । पर्दा उठा और दो-तीन स्त्री पुरुष शरीर पर कपडा ओढ कर गीत गाते आये और पहली सम पर आते आते तो अपने कपडे फेंक कर उन्होंने अपने संपूर्ण नग्न देह के दर्शन कराये । उसमें से कुछ तो अपने लिंग का इतना बिभत्स प्रदर्शन कर रहे थे कि उस निर्लज्जता में 'कला' कहाँ है यह समझना मेरे लिये मुश्किल हो गया था । पेरीस के ‘फोलीझ' में शिल्प समान सुंदरियों के अधिकांश अनावृत्त देह वाले नृत्य होते हैं । वह कला कोई बहुत उच्च स्तरीय नहीं है पर उसमें कम से कम लयबद्ध कवायत जितनी तो आकर्षकता होती है । पर यहाँ तो मात्र बिकाउ नग्नता । ऐसे तमाशे कर डॉलर इकट्ठे करनेवाले लोगों के प्रति मुझे बहुत घृणा हुई । इसी लिये अपने धनाधिष्ठित जीवन के सभी सूत्रों को तोडकर 'शय्या भूमितलं दिशोपि वसनं' का संकल्प लेकर निकले हिप्पियों की दुनिया का कबजा भी इन दुकानदारों ने लिया देखकर उन बनियों की अमानवीय धनतृष्णा का मुझे आश्चर्य ही हुआ । अमेरिका में प्रत्येक बात 'फटाफट' बनानेवाले इन दुकानदारों ने अपनी दुकानों में फटाफट हिप्पी बनाने की भी सुविधा खडी कर ली है । इंस्टंट कॉफी के समान ही इंस्टंट हिप्पी । आप जिस पंथ के हैं उसका यतिवेश गणवेश की तरह तैयार ही है। शायद यहाँ बाल और दाढियाँ भी बिकती होगी।

यह सब अमेरिकन जोगी पूर्णतः निवृत्त होने के कारण ऐसा व्यवहार करते हैं ऐसा नहीं है । क्यों कि अमेरिका को लगी सब से बड़ी बीमारी है, प्रतिदिन कुछ नया करना । इस बीमारी से भी कैसे पैसा कमाया जा सकता है उसका विचार यह व्यापारी निरंतर करते रहते हैं। फटी पेंट का फैशन चलते ही वे अच्छी पेंट्स फाड कर विक्री के लिये रखते हैं। आजकल खुले पैर चलने की फैशन होने से जूते बेचनेवाले चिंतातुर होंगे । उसमें से चालाक लोगों ने चमडे के मोटे बेल्ट की फैशन प्रचलित की। यह व्यापारी कुछ मोडेल वैतनिक हिप्पी रखकर उनके द्वारा इस फैशन को प्रचलित बनाते होंगे। इन व्यापारियों ने अपने राक्षसी प्रचारतंत्र द्वारा अमेरिकन जनता के मस्तिष्क को संवेदनाशून्य बना दिया है। रेडियो, टीवी, अखबार जैसे प्रभावी प्रचारमाध्यमों द्वारा यह लोग उन्हें जो बेचना है उसका ऐसा प्रचार करते हैं की ग्राहक पागल की तरह उन चीजों की मांग करता है। मनुष्य की नैसर्गिक निर्बलताओं का यहाँ पूरा लाभ उठाया जाता है।

मनुष्य को अनेक प्रकार की भूख़ होती है। उसमें सेक्स अथवा कामवासना सब से बड़ी भूख है। सभी आकर्षणों में कामाकर्षण अत्यंत प्रभावी है । मोटर से लेकर शौचालयों में प्रयुक्त होनेवाले कागज के बंडल तैयार करनेवाले सभी उत्पादकों ने अपने माल का संबंध काम वासना के साथ जोड दिया है। आपकी कार अत्याधुनिक क्यों चाहिये ?क्यों कि ऐसी कार रखनेवाले को कोई भी सुंदरी आलिंगन देगी। आपकी लिपस्टीक कोई निश्चित प्रकार की क्यों चाहिये । इसलिये की वह देखकर 'वो'आपको प्रगाढ चुंबन करेगा। ये बातें उस चरम पर पहुंची है कि एक विज्ञापन में एक युवक द्वारा युवती को दिये जा रहे आलिंगन का कारण वह हाजमा ठीक करने के लिये कोई निश्चित कंपनी की गोलियाँ ले रही है । अमेरिकन साहित्य में भी प्रथम दो तीन पृष्ठों पर बलात्कार या हत्या का उल्लेख हो ऐसे साहित्य के अनेक संस्करण निकलते हैं।

स्वयंचालित वाहनों ने उन्हे दिया हुआ गति का वरदान अब शाप बन गया है। उस गतिने मनुष्य के मन हावी हो जाने से अब मन का भटकना शुरु है। मेरे मित्रों के घर मैं बच्चों के खिलौने देखता था । 'हमारे बच्चे को हर दिन नया खिलौना चाहिये'ऐसा गर्व के साथ कहनेवाली माताएं मिलती थी। नौकरी करने अमेरिका गये पति के पीछे अमेरिका जाकर सवाई अमेरिकन बनी यह अर्धदग्ध महिलाओं को कहने कि इच्छा होती थी कि अगर ऐसा चला तो आपकी लडकी को कुछ साल बाद प्रतिदिन नये बोयफ्रेंड की भी आवश्यकता पडेगी। कुछ भारतीय अमेरिकन्स वहाँ के लाभ देखकर वहाँ गये पर अब उन्हें धीमे धीमे वहाँ के खतरे भी दिखने लगे हैं।

न्यूयोर्क के रास्तों पर वह महिला अकेली ही भयग्रस्त नहीं है। यह पूरा समाज भयग्रस्त और दिग्भ्रमित जैसा हो गया है। 'सेल' यहाँ का मूलमंत्र है। चीजें बेचो, बुद्धि बेचो,कला बेचो, कौमार्य बेचो,यौवन बेचो । बिकने लायक नहीं रहता केवल वार्धक्य । और इसी कारण से वह सदंतर निरुपयोगी रहता है। वह किसीको नहीं चाहिये । जिस संस्कृति में 'बेचना' युगधर्म बनता है वहाँ वृद्धावस्था शिवनिर्माल्य नहीं बनता, कुडा कचरा बनता है ।

इस बिक्री की पराकाष्ठा जैसी एक बात मेरे एक भारतीय मित्र की पत्नीने कही।

एक भारतीय सज्जन ने अमेरिका में एक बडा बंगला खरीदा । इंस्टंट चाय-कॉफी की तरह ही यहाँ नये मकान भी इंस्टंट देड -दो मास में तैयार हो जाते हैं । खिडकी दरवाजे ही नहीं तो पूरे फर्निचर सहित आपकी गृहस्थी सजा देनेवाले दुकानदार भी यहाँ हैं । अब तो कंप्युटर पर आपकी रुचि-अरुचि का गणित कर आपका मन बहलानेवाली शैयासंगिनी भी उपलब्ध रहती है। यह अतिशयोक्ति नहीं है। आपने मात्र आपकी पसंद का फोर्म भरकर भेजना है। आप जब और जहाँ कहोगे वहाँ जिसी भी प्रकार की आपकी आवश्यकता है उसे पूरी करने के लिये आप की इच्छानुसार कटि-नितंब, वक्ष के नाप वाली सुंदरी उपस्थित । मुझे लगता है कि दुकान में आपकी अर्जी पहुंचते ही दुकानवाला नौकर को कहता होगा, अरे ! इस पते पर अपना सोला नंबर का मोडेल भेज दो । घण्टे के एक सौ डॉलर वाला। शनिवार-रविवार दुगुना किराया लगेगा यह सूचित कर देना ।' हिंदी में पढते समय यह बहुत भयंकर लगेगा पर अंग्रेजी में अत्याधुनिक लगता है ।उस भारतीय सज्जनने अपने घर में वास्तुपूजन किया । मानसिक संतोष के लिये टेपरेकोर्डर पर कुछ मंत्र भी बजाये । बिस्मिल्लाखान की शहनाई का भी वादन हुआ ।इष्टमित्रों को जलेबी भी खिलाई । बेग में भरकर लाये भगवान की पूजा भी हुई होगी। वैसे तो अपने भारतीय लोग अपनी क्षमता के अनुसार अपनी संस्कृति सम्हालते ही हैं। एक घर में तो मैंने दीपप्राकट्य भी देखा था । अमेरिकन लोग मोमबत्ती के - प्रकाश में करते हैं ऐसा दीपक के प्रकाश में होनेवाला असली भारतीय भोजन भी मैंने देखा है । उसमें एक भारतीय भगिनी को दीप की लौ पर सीगरेट सुलगाते देख कर तो पूर्वपश्चिम का यह अपूर्व मिलन देख मेरी आंख से अश्रुधारा बहना ही शेष रहा था । तो इस प्रकार उस सज्जन के घर वास्तुपूजन का कार्यक्रम सम्पन्न हुआ । महेमान तृप्त हुए। नये घर की स्वामिनी सहज आनंद से नये कोच पर बैठी थी कि फोन की घण्टी बजी । महिला ने फोन उठाया ।

'अभिनंदन ! हार्दिक अभिनंदन !' उस तरफ से कोई अमेरिकन सजन बोल रहे थे । संभवतः शहर के मेयर का फोन होगा ऐसा सोच कर उनका चहेरा प्रसन्न हुआ। परिश्रमसाध्य अमेरिकी अंग्रेजी में वह बोली,'थेंक यु. आप कौन बोल रहे हैं ?'

'आपका एक हितचिंतक! स्वयं की मालिकी के मकान में रहना यह भी एक गौरवपूर्ण बात है । अपने स्वयं के शयनकक्ष में अपने पति के आलिंगन में सोना यह भी एक फेंटास्टिक एचिवमेंट है।'

महिला का चहेरा भी उस कल्पना से प्रफुल्ल हो गया ।

'ओह हाव नोटी आफ याव' महिला का अमेरिकन अंग्रेजी क्षतिहीन था । भारतीय अंग्रेजी बोलनेवाली महिला के उच्चारण उन्होंने कब के छोड दिये थे। यह

औपचारिकताएं पूर्ण होने के बाद महिला ने पूछा, 'आप कौन हैं?"उत्तर मिला, 'आपकी सेवा के लिये सदा तत्पर अंतिमविधि कार्यालय का संचालक।'

'कौन? महिला अपने स्थान से जैसे उछल पडी।'

'डायरेक्टर, फ्यूनरल कोर्पोरेशन ।'

महिला का गला सुख गया । पर सामनेवाले का खल गया था।

मेडम, नया मकान बनवा कर आप यहाँ बसनेवाली हैं यह जानकर बहुत खुशी हुई । हमारी कंपनी की ओर से हम दफन की पूरी व्यवस्था करते हैं । यहाँ की दफनभूमि में अब छः बाय चार के मात्र दो प्लोट बिकाउ हैं । जस्ट फोर यु। आप आराम से पैसे भेजिये । हम फोन पर भी ऑर्डर लेते हैं। आप चाहें तो कल प्रातः हम स्थान भी देख सकते हैं। पोप्लर वृक्ष के बिलकुल नीचे ही है। दिनभर छाया रहेगी। छाया के नीचे सोई कबरें यह भी एक फेंटास्टिक बात है । सो पीसफुल .......

महिला के हाथ में से रिसिवर कब से गिर गया था । इतने में अमेरिकन परंपरा के अनुसार साहब रसोईघर व्यवस्थित कर के आ गये । पत्नी का चहेरा देखकर सहम गये । उन्हें तो थोडा अलग ही डर था । 'इस गोरे लोगों के मुहल्ले में आप कैसे रहते हैं, देख लेंगे । चोवीस घण्टे में निकल जाइये नहीं तो जला देंगे' इत्यादि..... अमेरिका में बाहर से आये लोगों को भगा देनेवाली कोई क्लेन के गुंडों का फोन तो नही ?..

उन्हों ने पूछा वोट्स रांग ? (अमेरिका में राँग को राँग कहना रोंग है, रांग इस राइट)

आप ही सुनिये । कितना असभ्य ! अशुभ बोलता है। महिला की जिव्हा पर चढे सभी अमेरिकन आवरण उतर कर आलु की सब्जी और फलाहार के संस्कार में रहे जंतु उपर आ गये थे । साहब ने फोन लिया।

'हेलो'

'ऑह' मिस्टर साहस्राबुढिये (सहस्रबुद्धे) ?फिर एक बार सुपरसेल्समेनशीप शुरू हुई। दफनभूमि के सौदे पर सहमत करने के लिये फिर एक बार उसने अपनी सभी शक्तियाँ दांव पर लगाई। अगर साहब भारत में होते और अग्निसंस्कार वाले ने 'साहब बांस सीधे आये हैं, चार आपके लिये अलग रख दूं क्या ?' ऐसा पूछा होता तो साहब ने उसको जिंदा ही ननामी पर बांधा होता । पर यह अमेरिका था। साहब ने नम्रता से कहा,'थेक्यु, थेंक्यु सो मच । पर हमारे धर्म में बेरियल नहीं होता क्रिमेशन होता है। 'इझंट धेट बार्बर ? गुड नाइट ।' दूसरी ओर से उसने कहा, क्या यह जंगालियत नहीं है? शुभरात्री ।' यह कथा काल्पनिक नहीं है । मात्र पात्रों के नाम बदले हैं।

जहाँ जीवन माने कुछ बेच के धनवान होने का अवसर इतना ही होता है वहाँ मुर्दे गाडने की भूमि बेचीए या पिढियों को बरबाद करनेवाले हशीश,गांजे जैसे मादक द्रव्य, सबकुछ उस संस्कृति के अनुरूप ही है। शस्त्रों की बिक्री कम हो जाएगी इस भय के मारे जिसे कोई लेनादेना नहीं ऐसे देश में जाकर बोम्ब गिरा देना, हम क्या बेच रहे हैं और उसका क्या परिणाम होगा उसके बारे में बिना कुछ सोचे बेचते रहना, उसके नये नये बाझार खोजना, विज्ञापन के नये नये तरीके खोजना,और उपर से बिक्रेताओं की जानलेवा स्पर्धा । बाझार में आनेवाला प्रतिस्पर्धी का सामान नष्ट करते करते प्रतिस्पर्धी को ही कैसे नष्ट किया जाय उसकी योजनाएं बनाना । ग्राहक की विवेकबुद्धि ही नष्ट करना। यह सब करते समय कोई विधिनिषेध का पालन नहीं करना । १२-१३ साल के बच्चों को मादक द्रव्य बेचनेवाले व्यापारियों के समक्ष उन बच्चों का भविष्य आता ही नहीं है। टीवी पर 'हत्या कैसे करना' उसकी शास्त्रीयशिक्षा देनेवालों को हम बालमन पर कैसे संस्कार कर रहे हैं इसकी कोई चिन्ता नहीं है । पूरे दिन मारधाड की फिल्में आती रहती हो तब बीच में 'सीसमी स्ट्रीट' जैसे कितने भी शैक्षिक कार्यक्रम कर लें, पर उन बच्चों के सामने तो गोलियों की बौछार कर मुर्दो के ढेर लगाता हिरो और ऐसे हिरो को नग्न होकर आलिंगन देनेवाली हिरोइन्स ही रहते हैं। मात्र १५ साल की आयु में जीवन के सभी विलास बिना किसी जिम्मेवारी के भोग  लेने के बाद आगे की जिदगी में किसी न किसीप्रकार की कृत्रिम उत्तेजना के बिना जीना ही असंभव हो जाता है। इसीमें से फीर मोटरसाइकल्स लेकर बेफाम घूमना शुरू हो जाता है । अनजान युगलों का बेफाम सहशयन शुरू होता है और इन सब का अतिरेक होने के बाद उसका नशा भी बेअसर हो जाता है। फिर उत्तेजना बढाने के लिये सायकेडेलिक विद्युतदीपों और कान बेहरे कर देने वाले संगीत में बेहोश होने के प्रयास शुरू हो जाते हैं।

और अंत में दिमाग में इन सबका कीचड ही बच जाता है।

अपने साधुओं के जैसे अखाडे होते हैं उसी प्रकार हिप्पियों के 'पेडस' होते हैं। अपने साधुओं की तरह ये लोग भी गंजेरी होते हैं । मादक पदार्थों के कारण इंस्टंट' समाधि लगती है। फिर यह थोक में हशीश गाँजा बेचनेवाली टोलियाँ बनती है। उनका वह गैरकानुनी व्यापार, आपस का खूनखराबा, उसी में से बना माफिया जैसा भयानक संगठन तो आंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी गतिविधियाँ चलाता है। मानवहत्या तो वहाँ रोजाना की चीज है।

न्यूयोर्क, शिकागो, डिट्रोइट आदि शहर यमपुरी जैसी भयपुरियाँ बन चुके हैं। कहीं काले-गोरे का संघर्ष, कहीं अत्याधुनिक लूटखसोट और उनके संगठनों के बीच के संघर्ष और इस सब को मिलनेवाली बेशूमार प्रसिद्धि । सभी चीजों का अनापशनाप उत्पादन । डिट्रोइट का फॉर्ड मोटर का कारखाना देखने गया था वहाँ करीब करीब प्रतिमिनिट एक कार तैयार होती है। कारखाने के एक छोर पर लोहे का रस खौलता रहता है। सरकते पट्टे पर उसका प्रवास शुरू होता है। उसके पतरे बनते हैं, उनको आकार मिलता है, चारों तरफ से अलग अलग पुर्जे आते हैं, कंप्युटर की सहायता से जो भी रंग की मोटर चाहिये उस रंग के पार्टस योग्य स्थान पर आ जाते हैं,तीन चार फीट गहरी नालियों में उसे कसनेवाले कारीगर रहते हैं, आये हुए पुों को वे जोडते जाते हैं, दरवाजे, लाइट्स जुड़ते जाते हैं और देखते देखते मोटर तैयार हो जाती है । अंत में उसमें पेट्रोल डलता है और कार रास्ते पर आती है। प्रतिदिन आठ- नौ सौ कार्स बनती है । यह तो फॉर्ड के एक कारखाने की बात हुई । ऐसे असंख्य कारखाने प्रतिदिन हजारों कार्स तैयार करते हैं। फीर कुशल विज्ञापनकर्ता नये नये प्रकार से उसका गुणगान करते हैं और मोटर्स का स्तुतिपाठ निरंतर चलता रहता है । रेडियो -सिनेमा-टीवी सभी जगह निरंतर यही चलता रहता है। अमेरिका में अब करीब करीब सब के पास कार है । नया मोडेल आता है तो गत वर्ष वाली कार पुरानी हो जाती है । लोग हमें पिछडा कहेंगे ऐसा भय भी रहता है। पुरानी कार सस्ते में निकाल देना और नयी खरीदना चलता रहता है।

इतना ही नहीं तो ये सभी चीजें किश्तों में मिलती है। अमेरिका में हर घर में दिखनेवाला फ्रीझ, फर्निचर, अनेक प्रकार के विद्युत उपकरण,मकान आदि सब किश्तों में प्राप्य है । अर्थात चीजें खरीदते जाना और उसके पैसे भरने के लिये कमाते जाना, उसमें भी निरंतर बदलती रहनेवाली फैशंस । विंटर फैशन, समर फैशन, ख्रिसमस फैशन । गत जाडे में पहना हुआ कोट इस जाडे में निकम्मा हो जाता है। गत माह का गाउन आज नहीं चलेगा। सास ने पहनी हुई बनारसी साडी आज पुत्रवधू भी पहन रही है यह द्रश्य वहाँ संभव ही नहीं है। फेंक दो। गाउन तो लोगों को दिखता भी है पर अंतर्वस्त्रो   की फैशन भी हरमाह बदलती है। महिलाओं की केशभूषा करनेवालों का व्यवसाय जोर में चलता है। अब तो ९० प्रतिशत महिलाएं विविध फैशन की विग्स ही पहनती है। और हर महिला के पास असंख्य विग्झ । यह तो हुई तारुण्य खो रही महिलाओं की मशक्कत । छे दशक पूर्ण कर चूकी वृद्धाएं भी चेहरे की झुरींयाँ ढकने के लिये निरंतर प्रयासरत । नवयौवनाएं अब बाल खुला रख चीथडे पहन कर घुमने में जीवन की धन्यता मानती है । पर एक बार पचीसी पर पहुंचते ही वह पुरानी हो जाती है। फिर शुरू होती है स्थायी साथी की खोज । अगर सौभाग्य से वह मिल गया तो भाग्य, नहीं तो जीवन कटि पतंग की तरह दिशाहीन होकर एकाकी वार्धक्य की ओर बढता है।

इस दिग्भ्रमित समाज में सर चकरा देनेवाली अस्थिरता ही सत्य है । परिवारसंस्था तो इतनी चरमरा गई है कि यह जहाज कहाँ और कब डूबेगा यह समज में भी नहीं आता है। मोटर सुलभ और रास्ते चौडे और चमकते होने के कारण लोग सौ -डेढसौ मील से व्यवसाय करने आते हैं । धनिक लोग अपने निजी विमानों में आते हैं। इसलिये उपनगरों में पूरा पुरुषवर्ग दिनभर घर से बाहर रहता है। अधिकांश महिलाएं भी काम पर जाती है। उसमें से अनेक समस्याएँ और उन समस्याओं से भी अधिक भयानक नये नये अनाचार । उसमें से एक है 'स्वेपिंग वाइफ'। अनेक युगल शरीरसुख के लिये आपस में अदलबदल करते हैं । प्रतिदिन नावीन्य के पीछे भटकने के पागलपन में से यह एक नया पागलपन । इन भयंकर लीलाओं में भी और एक अगाध लीला माने समलैंगिक पुरुषों की शादियाँ । विवाह में वधु का अस्तित्व ही नहीं । दोनो वर ।

इस विकृति का भयंकर परिणाम यह हुआ है कि अगर कोई दो मित्र साथ साथ घुम रहे हैं तो वह अनैसर्गिक माना जाता है। समसंभोगी लोगों का भी एक संप्रदाय बना है। उनके अधिवेशन भी होते हैं। यह है 'गे' माने 'आनंदी' संप्रदाय । विचित्र आनंद । विवाह के कानूनों में परिवर्तन करने के लिये यह लोग आंदोलन कर रहे हैं। परिणाम स्वरूप माता पिता को एक नया डर, 'अपना बेटा घर में बहु लाएगा कि जमाई ?' यह हमारे बेटे का पति' ऐसा परिचय कराने के दिन आ रहे हैं क्या ऐसा डर ।

प्रतिदिन कुछ नया चाहिये । मन और शरीर को नया रोमांच चाहिये । आँखों को नया द्रश्य चाहिये । गरमी की छुट्टियाँ आते ही कार-स्कूटर तो क्या पर मोटर से जुडा पूरा मकान लेकर लोग सेंकडो मील घुमते रहते हैं । एक जमाने में कम से कम मकान तो स्थिर वस्तु थी। पर अब तो उसे भी पहिये लग गये हैं। एक्दम घर जैसे घर । दिवान खंड, रसोई, शयनखण्ड आदि सब तैयार । उसमें बैठ के लोग भटकते रहते हैं। ऐसे घरों के लिये स्थान स्थान पर बडे मैदान हैं। पैसा देकर उसे आरक्षित करा लेना रहता है।

कुछ सुंदर जंगलों में जाकर तंबुओं में रहना, खुले में रहना । पर उन जंगलों में भी छुट्टियों के दिनों में हजारों तंबु लगे रहते हैं । याने वहाँ पर भी वैसी ही भीडभाड । मात्र मन को समझाना कि हम शहर से दूर आये हैं। वहाँ भी पोर्टेबल टीवी हैं। रात रात भर उदंड नाचगान चलते हैं, पर शांति मिलने की एक आशा भी है।

ऐसी इस दिशाहीन घुमक्कड में से ही दुनियाभर मे घुमते अमेरिकन टुरिस्टों का उदय हुआ होगा। 'टुरीझम एक बडा व्यवसाय हो गया है इतना ही नहीं तो अमेरिकन टुरिस्टों को अपने देश में खिंचकर ले जाने की स्पर्धा भी शुरू हुई है। कोई भी प्राचीन इमारत या द्रश्यों को निरंतर अपने केमेरे में कैद करते फिरते ये टूरिस्टों को पागल ही कहा जा सकता है। भारत के स्मशान भी अब 'टुरिस्ट एटेक्शन सेंटर्स' बन चुके हैं । हिंदु अग्निसंस्कार का इन लोगों में अति विकृत आकर्षण है। जहाँ जीवन किट पतंग की तरह है ऐसी झोंपडपट्टियाँ देखने का इन्हें ताजमहाल से भी अधिक आकर्षण है। समृद्ध अमेरिका के लोगों को उसमें न्यू और एक्साइटिंग' कुछ मिल जाता है। उन्हें एक्साइटमेंट कहाँ से मिलेगा यह कहा ही नहीं जा सकता है। एक भारतीय नाटक में एक व्यक्ति शक्कर में से stबने हाथी और उंट बेचता है । यहाँ तो मिठाईवाले चोकलेट में से आदमकद मनुष्य बनाते हैं। द्रश्य होता है सोये हुए जीवित मनुष्य जैसा । उसके फटे पेट में आंतें भी रहती है । उसे चीर कर यह मनुष्यभोगी लोग उसका कलेजा, नाक, कान, आँखें खाते हैं।

'हाउ एक्साइटिंग !'

इस 'हाउ एक्साइटिंग' में से ही सारी समस्याएँ निर्माण होती हैं। कई हत्याएँ मात्र ‘एक्साइटमेंट' के लिये होती है। एक सौंदर्यप्रसाधन गृह में एक युवक गया और और वहाँ बाल बनवा रही आठ- दस महिलाओं को उसने अकारण ही पिस्तौल से मार दिया। उसमें उसे निर्हेतुक आनंद था । अपने देश में दारिद्रय के कारण मृत्यु सस्ती है पर अमेरिका में तो विपुल संपत्ति के कारण मृत्यु सस्ती है । पर वहाँ प्राकृतिक मौत बहुत महंगी है। 'दफन' की बात होते ही वहाँ जिंदा मौत आती है। अपने शुभकार्यों की तरह वहाँ अशुभ कार्य वाले भी प्रथम, द्वितीय, तृतीय स्तर का सुशोभन उपलब्ध कराते हैं । हमने तो केवल मुर्दा और चेक ही उनके हवाले करना है। शबपेटी, खड्डा, पुष्पहार, तस्वीरें,अखबारों में प्रसिद्धि आदि कोई चिंता करने की आवश्यकता नहीं है ।

मुझे लगता है कि अमेरिका में जिंदा रहने से मरना अधिक महंगा है । मृत्यु तो क्या,बीमार पड़ना भी उतना ही महंगा है। उसमें भी बाकी अन्य बीमारियों से भी दाढ का दर्द तो मनुष्य को दिवालिया ही बना देता है। डॉक्टर्स एक- एक दांत के लिये एक-एक हजार रूपिया ( तीस चालीस साल पहले ) लेते हैं । दांत की डॉक्टरी एक प्रतिष्ठित लूट ही है । मेरे एक मित्र की पत्नी का दांत सफाई का बील देखने के बाद तो मुझे लगा कि इतने पैसे में से अपने भारतीय दंतवैद्य ने प्राणी संग्रहालय के सभी मगरमच्छों के दांत भी साफ कर दिये होते । परंतु दंतवैद्य के यहाँ जाना और फिर पार्टीओँ में उसका उल्लेख करना भी बडी प्रतिष्ठा की बात रहती है । जैसे अपने यहाँ-कल ताज में गये थे - वहाँ क्या हुआ उसका कोई महत्त्व नहीं-ताज में लंच के लिये गये यह सुनाना महत्त्वपूर्ण होता है उस प्रकार 'सॉरी, कल तो मैं रमी खेलने नहीं आ सकती, मेरी डेंटीस्ट की एपोइंटमेंट है- यह वाक्य सब के सर पर ठोकना होता है। क्यों कि उस देश में आपका सभी बडप्पन आपकी पासबुक पर ही आधारित रहता है।

'सर्वे गुणा :कांचनमाश्रयते' यह ठीक है पर अमेरिका में डॉलर्स शब्द का जितनी अधिक बार उल्लेख होता है उतना कहीं नहीं होता । टीवी पर घण्टों तक हजारों डॉलर्स के इनामों की घोषणाएं चलती रहती है । साहित्य, संगीत, कला सबका मूल्यांकन मिले हुए डॉलर्स के आधार पर ही होता है। इसलिये जीवन की प्रत्येक कृति का पर्यवसान डॉलर्स में ही होता है। यह शिक्षा बचपन से ही मिलती है। पति की जेब से डॉलर्स खतम तो पत्नी भी गई । पिता की जेब से डॉलर्स समाप्त तो बच्चे घर से बाहर । बहुत मिन्नत करके आपको किश्तों पर फ्रिझ, फर्निचर,कार देनेवाले लोग अगर आपकी एक किश्त अनियमित हुई तो पूरे परिवार को घर से रास्ते पर ला देते

इन सब बातों से उब गई तरुण पिढीने भी डूबकी लगाई तो अफीम, गांजे जैसे भयंकर व्यसनों में । उपर से सब कितना सुंदर दिखता है, नजर लग जाय ऐसे मकान, सुंदर उद्यान, बाझार में दूध दही, फलफूल के ढेर देखकर आँखें चौंधिया जाती है। मैं वॉशिंग्टन में घुम रहा था। करोडो डॉलर्स खर्चा करके बनाया 'केनेडी नाट्यगृह'वहाँ की पोटोमेक नदी के किनारे खडा है। उस विशाल नाट्यगृह में एक साथ तीन कार्यक्रम हो सके ऐसे विशाल सभागार हैं। उसकी छत से वॉशिंग्टन का बडा सुंदर द्रश्य दिखता है। पोटोमेक का शांत प्रवाह बडा नयनरम्य है।

'कैसी सुंदर नदी है। ऐसी सालभर भर भर कर बहनेवाली नदियाँ हो तो और क्या चाहिये ?'

केवल दिखने में सुंदर है यह नदी ।'

'यानी?

'पूरा पानी पॉल्युटेड है। दुषित है, एक घूंट भी पीनेलायक नहीं है। 'मेरे अमेरिकन मित्र ने कहा।

यहाँ सब ऐसा ही है। मेरी ऑफिस में काम करनेवाले मित्र की माताजी का देहावसान हुआ। हमेशा की तरह ऑफिस में हम व्यावसायिक चर्चा कर रहे थे । मैं ने बडे संकोच से कहा, 'माताजी दिवंगत हो गई, बहुत बुरी खबर है, तुम फ्युनरल में कब जाओगे ?' उसकी माँ निकटस्थ उपनगर में रहती थी। 'मैं क्यों फ्युनरल में जाउंगा ? मैंने फ्यूनरल कंपनी को फोन कर दिया है। वे लोग सब संभाल लेंगे। 'यह उसका उत्तर था।

और इस देश में 'मधर्स डे' बहुत उत्साह से मनाया जाता है। मुझे अमेरिका की पोस्टऑफिस का पता तो मिल गया पर खुद अमेरिका का पता नहीं मिला । वास्तव में तो खुद अमेरिकन्स भी अपना पता खो बैठे हैं।

References

भारतीय शिक्षा : वैश्विक संकटों का निवारण भारतीय शिक्षा (भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला ५), प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे