अमेरिका का एक्सरे

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अध्याय २२

पु. ल. देशपाण्डे

पता ढूंढने जैसी कठीन बात कोई नहीं होगी। रास्ते से जाने वाले राहगीर कितने भले लगते है।।

एक हम ही हाथ में पते का कागज लेकर घुमते रहते हैं । वास्तव में तो न्यूयोर्क में एवन्यू, स्ट्रीट और घर का नंबर अगर ठीक से लिखा हुआ है और थोडा बहुत अंग्रेजी आप जानते हैं तो पता ढूंढना मुश्किल नहीं है। फिर भी मैं उस न्यूयोर्क शहर में रास्ता भूल गया था । ऐसे समय डाकघर में जाकर पता पूछना स्वाभाविक होता है ।परंतु मैं तो डाकघर का ही पता ढूंढ रहा था । न्यूयोर्क के मेनहटन टापु पर तो मार्गों की अत्यंत पद्धतिसर रचना है। हडसन नदी पर जानेवाली स्ट्रीट, और उन रास्तों को नब्बे अंश के कोन पर काटने वाले जो मार्ग है वह एवन्यू । मेरा भुलक्कड होने का गुणधर्म जाननेवाले मित्रों ने मुझे यह रचना याद करवा दी थी। फिर भी रास्ता भूलना मेरी विशेषता थी । मेरा स्वयं का पता मैं पूरे विस्तार से कहता हूँ । इसलिये कहीं भी रास्ता नहीं भटकुंगा ऐसा आश्वासन देकर मैं मेरे न्यूयोर्क स्थित दोस्त के घर से पोस्टओफिस खोजने निकल पडा ।

सुबह के दस बज रहे थे । प्रसन्न करनेवाली धुप होने पर भी हवा में ठंड थी। आनंदपूर्वक टहलने जैसा वातावरण था। पर पता खोज रहे मनुष्य की स्थिति वह आनन्द उठाने जैसी होती हैं की नहीं यह कहना मुश्किल है।

पराये प्रदेश में अनजान मनुष्य को पता पूछना यह कितनी मुश्किल बात है यह न्यूयोर्क जैसे नगर में जिसे पता ढूंढने के लिये भटकना पडा है वही समझ सकेगा। मेरे ‘एस्क्यु झ मी' की तरफ कोई नजर फेरनेवाला भी मिला हो तो उसे सद्भाग्य ही मानना होगा । इस ठंडे देश में लोग बहुत तेज गति से चलते हैं । उनको रोकना बहुत कठिन कार्य है । अगर रोक कर ‘एस्क्युझ मी' कह भी दिया तो उसे लगता है कि धक्का लगने से यह माफी माँग रहा है । इसलिये 'नेवर माइण्ड' कह कर वे आगे बढ जाते हैं। सीधे कोई दुकान में जाकर पूछने की सोचेंगे तो हो सकता है कि वह पता बताने का सर्विसचार्ज लगा दे। जहाँ सब्जी लेने गई माँ के पास से अगर उसकी बेटी अपने छोटे भाई को आधा घण्टा सम्हालने के 'बेबीसिटींग'सर्विस चार्ज के रूप में एकाध डोलर लेती हो वहाँ मेरे जैसे पराये आदमी की क्या औकात ? वैसे भी मैं परेशान हो चुका था । इतने में सामनेवाली फूटपाथ पर बाबागाडी लेकर आती एक वृद्धा दिखाई दी। गाडी में बच्चा नहीं था, खरीदा हुआ सामान था। मैंने बाबागाडी के पास खडे रहकर कहा, एस्क्युझ मी मेडम'

पता नहीं वह किस धून में चल रही थी। मेरा 'एस्क्युझ मी' सुनते ही उसने भयभीत द्रष्टि से मेरे सामने देखा और डर के मारे काँपने लगी। उसका वह घबराया हुआ चहेरा और काँपती गर्दन देख कर मुझे लगा कि दादीमाँ को कोई झटका लगा है । मैं भी घबरा गया । क्या बोलना यह समझ में नहीं आता था । मैंने पूछा 'आरन्ट यु फिलिंग वेल, मेडम'? उसके मुँह से आवाझ भी नहीं निकलती थी। कुछ क्षण ऐसे ही बीते । बाद में उसने काँपती आवाझ में पूछा क्या चाहिये तुम्हे ?'

मुझे एक पता पूछना है । मैंने सबूत के नाते हाथ में पकडा कागज उसे दिखाया । यहाँ की पोस्ट ऑफिस कहाँ है ?'

'क्या?'

'पोस्ट ओफिस' मेरे मन में आया कि अगर यहाँ पोस्ट ऑफिस को और कुछ नाम से पहचानते होंगे तो और गडबड होगी। प्रवाही पेट्रोल को गेस कहने वाले लोग हो सकता है कि पोस्ट ऑफिस को 'लेटर थ्रोअर' कहते हो । जरुरतमंद लोगों ने अमेरिका जाने से पहले अमेरिकन अंग्रेजी सीख लेनी चाहिये । यहाँ होटेल का बील माँगते समय 'चेक'माँगना पडता है और हमने चुकाये पैसे को बील कहते हैं। तीसवे या चालीसवे तले पर ले जानेवाले उपकरण को सभी अंग्रेजीभाषी देशों में लिफ्ट कहते हैं पर यहाँ उसे एलीवेटर कहते हैं। और कार में लिफ्ट माँगते हैं तो शायद उनको आघात पहुँचाते हों क्यों कि अमेरिकन आदमी कार में राइड देता है । मैं यह सोच रहा था तब तक महिला थोडी स्वस्थ हो चुकी थी। उसने पूछा, 'डिड यु से पोस्टओफिस ?'

हाँ ! पोस्ट ऑफिस, मुझे कुछ स्टेम्प्स लेने हैं।

'ओह ! आयम सो सॉरी ।' याने इतना सबकुछ हो जाने के बाद यह महिला मुझे पोस्टऑफिस का पता भी नहीं देगी ? पर उसने कहा, 'कृपया मेरे बारे में कुछ गलतफहमी मत करना ।

मुझे कुछ पल्ले नहीं पड़ रहा था। अगर वह पोस्टऑफिस का पता नहीं जानती है तो उसमें इतना गिडगिडाने की क्या आवश्यकता थी ? मुझे कहने की इच्छा हुई कि दादीमाँ, इतने वर्षों से पुणे में रहने पर भी गंज पेठ की पोस्टओफ़िस का पता मैं नहीं जानता हूँ। पर उसका यह गिडगिडाना उस कारण से नहीं था, क्योंकि उसने तुरंत मुझे कहा, चलो मेरे साथ, मैं तुम्हें बताती हूँ।

क्यों? आप मुझे केवल पोस्ट ओफिस का पता बता दिजिये । मैं चला जाउंगा । 'नहीं नहीं। मैंने अकारण तुम्हारा अपमान किया।

आपने मेरा क्या अपमान किया ?

'अरे भाई, क्या करूं ? इस शहर में मेरा पूरा जीवन बीता पर इतने बुरे दिन कभी आये नहीं थे। माय गॉड कैसे दिन आ गये ? अच्छा बुरा समझने का कोई रास्ता ही नहीं है । तुमने ‘एस्क्युझ मी' कहा और मैं घबरा गई।'

याने? (और हमारा संवाद आगे बढा ) कब आया तु न्यूयोर्क में ? हो गये तीन -चार दिन ।

कहाँ से आया ?

भारत से ।

नेहरु? माँजी ने भारत के बारे में अपने ज्ञान का परिचय दिया ।

कैसे बुरे दिन आये हैं, रास्ते में अगर किसीने रोका तो लगता है की सामने शैतान आ गया ।

आज तक कई वृद्धाओं के सामने खडा हुआ हूँ पर किसीको मुझ में शैतान नजर नहीं आया ।

मेरी सगी दादीने भी कभी ऐसा नहीं कहा।

'समाल कर रहना बेटा इस शहर में ।'

और उसके बाद मुझे पूरी बात जानने का मौका मिला । उस विराट शहर में एक छोटे मकान में वह वृद्धा अकेली रहती है। वैसे तो वह कमाउ बेटों की माँ थी । दो बेटियाँ भी थी । बेटियाँ अपने अपने ससुराल चली गई होगी ऐसा मुझे लगा।

अरे ऐसा नहीं है ! दोनों अविवाहित हैं, एक ३२ साल की एक २७ साल की । दोनों अविवाहित हैं। पैसा कमाती हैं और स्वतंत्र हैं।

आप अकेली ही रहती हैं ?

इस देश में मेरे जैसी लाखौँ महिलाएँ अकेली रहती हैं। अमेरिका में वृद्धों को सिनियर सिटीझन कहते हैं। मैं प्रतिदिन ऐसे ही दस बजे शोपींग के लिये निकलती हूँ और ग्यारह बजे वापस घर चली जाती हूँ। उसके बाद दूसरे दिन दस बजे तक एकाकी । अब तो सेंट्रल पार्क भी जाने लायक नहीं रहा है। न्यूयोर्क जैसे भीडभाड वाले शहर में सेंट्रल पार्क एक रमणीय उद्यान है।

क्यों जाने लायक नहीं रहा ?

'मगींग'

'क्या?'

मगींग-माने आते जाते एकाकी आदमी को मार कर लूट लेना । किस पल अपनी मौत आएगी यह कह नहीं सकते।

यह वृद्धा मुझे गुंडा मान बैठी थी । मैं उसे मार कर लूट लुंगा ऐसा उसे लगता था। उसने मुझे पोस्ट ओफ़िस पहुँचने तक लगातार हत्या तथा पीटाई के भय से उसके जैसी वृद्धाओं को कैसा एकाकी जीवन जीना पडता है यह समझाया । एक सप्ताह पूर्व ही उसकी एक समवयस्क पडोसन की पिटाई कर कोई उसकी पर्स उठा ले गया था ।

'मैं भी हमेशा घण्टी बजने पर बड़ी सावधानी से दरवाजा खोलती हूँ।

मुझे याद आया की यहाँ तो पोस्टमेन भी नीचे सबके नाम लिखी पेटी में ही डाक डालता है। दूधवाला भी दरवाजे पर बॉटल रख कर चला जाता है। कभी कभी बॉटल दूसरे दिन भी वहाँ पड़ी मिली तो पुलिस को जानकारी देता है, दरवाजा तोड कर अंदर जाने पर पुलिस को सडी हुई लाश मिलती है। उस एकाकी जीवन के अंतिम क्षण भी ऐसे भयावह होते हैं।

दो दिन पहले ही हमने न्यूयोर्क को घेर कर बहती नदियों में नाव में बैठकर शहर की परिक्रमा की थी। कितना रमणीय दिखता था वह शहर ! किनारे पर स्थित वह रमणीय उद्यान, विश्वविद्यालय का रमणीय परिसर, खेल के विशाल मैदान, उसमे चल रहे युवक -युवतिओं के खेल,नदी पर बना वह प्रचंड सेतु । नदी में चल रहा युवाओं का स्वच्छंद नौकाविहार, हडसन नदी पर से न्यूजर्सी की ऑर जानेवाला वह प्रचण्ड पुल । तिमंजिले रास्ते,मोटरों की कतारें, उत्तुंग भवन, और फिर भी इतनी ही समृद्ध वनसंपदा । स्वातंत्र्यदेवी की प्रतिमा से मेनहटन की ओर बोट मुडते ही अपनी सौ सवासौ मंजिलों वाली इमारतों पर विद्युतदीपों को झगमगाती और सहस्र कुबेरों का ऐश्वर्य प्रकट करनेवाली वह न्यूयोर्क नगरी । मन ही मन कह रहा था, कितने सौभाग्यशाली हैं ये लोग ? परंतु यहां तो बात कुछ और ही सुनने को मिलि । तो फिर क्या यह अंदर से सडे गले सेवों का बगीचा था ?

शहर और अपराध एकदूसरे का हाथ पकडकर ही आते हैं। मैं दस वर्ष पूर्व इस शहर में आया था। सेंट्रल पार्क में बहुत घुमाफिरा था । परंतु हमें किसी ने आधी रात को न घुमने की हिदायत नहीं दी थी । और आज दस वर्ष बाद दिन में दस बजे यह वृद्धा केवल मेरे ‘एस्क्युझ मी' से कांप उठी थी । प्रत्येक व्यक्ति सूचना दे रहा था, शाम को इक्कादुक्का कहीं मत जाइएगा। हर १५ मिनिट पर पुलिस की गाडियाँ साइरन बजाती हुई अपराधियों को पकड़ने के लिये घूम रही थी। दूसरे ही दिन अखबार में खबर पढी की केवल आधे डोलर के लिये एक १६ वर्षीय बालकने एक विख्यात प्राध्यापक की दिनदहाडे हत्या कर दी। प्रोफेसर कार में बैठने जा रहे थे तब यह लडके ने आकर २५ सेंट मांगे । बखेडा टालने के लिये प्राध्यापक ने उसे पैसे दे दिये । इस दौरान लडके की द्रष्टि उन्होंने पहनी हुई मूल्यवान घडी पर पड़ी । लडके ने उसकी माँग की और प्रोफेसर के नानुकर करते ही गोली चला दी।

मैं रहता था वह उच्च मध्यमवर्गीय लोगों का महोल्ला था। एक बार घर से बाहर निकला तो वायुमण्डल गरम था। हम समझ कर लौट गये। बाद में हकीकत पता चली । वहाँ के विद्यालय को दो प्रवेशद्वार थे । एक रास्ते पर लडकों की एक टोली ने हमारे रास्ते से तुम्हारे विद्यालय के छात्रों को नहीं जाने देंगे' ऐसी धमकी दी। उसमें से बात बढी और दोनों टोलियों के बीच महायुद्ध हुआ ।पाँच-दस लोग घायल हुए। पुलिस को रिवोल्वर्स और अन्य शस्त्र मिले । यह कोई कालों और गोरों के बीच का संघर्ष नहीं था दोनों तरफ गोरे ही थे ।

कितना सम्पन्न देश । बडे बडे वस्तुभंडार । नजर न पहुंचे ऐसी विराट इमारतें, पर हर मंजिल पर सशस्त्र पुलिस का पहरा । कब चिनगारी भडकेगी, कहा नहीं जा सकता । सुन्न हो गए अमेरिकन विचारकों के दिमाग, किसी भी अमेरिकन से बात करने पर पहले तो वे अनेक तर्क देगा पर अंत में निस्सहाय होकर सर हिलाएंगे । कोई विएतनाम युद्ध की बात करेगा, कोई राजनीतिकों को दोष देगा । कोई इसे अनर्गल संपत्ति का राक्षसी संतान बताएगा । हम लोग आधे भूखे होने के कारण बदनसीब तो दूसरी ओर अमेरिका अत्याहार के कारण हुई बदहजमी से परेशान ।

न्यूयोर्क के रास्तों पर से जाते समय शब्दशः चीथडे जैसे पहन कर घुम रही सोलह सत्रह वर्ष की किशोरियों को देखकर मैं अत्यंत सुन्न हो जाता था। अपना घर परिवार छोडकर स्वातंत्र्य की खोज में भाग नीकली यह अभागी बालाओं के बारे में पुलिस द्वारा प्रस्तुत कार्यक्रम देखा । घोंसले से गिरे हुए बच्चों के समान यह लडकियाँ । कोई गाँजा-चरस जैसे मादक पदार्थों के सेवन में सुख और स्वातंत्र्य खोज रही थी तो कोई रास्ता भटक कर अपने जैसे ही नाबालिग लडकों के साथ सार्वजनिक उद्यानों में कुत्ते बिल्ली के समान शरीर सुख खोज रही थी । इन दुर्भागी बालाओं की कहानी अत्यंत करुण थी। आयु के दसवे - ग्यारहवे वर्ष में ही यहाँ कौमार्यभंग हो रहा था। वास्तव में अच्छे संपन्न परिवारों की लडकियाँ थी । पेट भरने के लिये यह सब करने की बाध्यता नहीं थी, परन्तु शालेय जीवन में ही किसी न किसी गुट से जुड़ गई । एक लडकी तो पुलिस चौकी पर अपने गुट के नाम पर स्वयं ने अपने देह की कैसी दुर्दशा कर दी इसका वर्णन कर रही थी। अंत में उस अधिकारी ने पूछा, तुम्हें माँ की याद आती है ? इस प्रश्न के साथ ही वह 'मोम' ऐसा चिल्ला कर दहाड मार कर रो पडी।

१३ से १९ वर्ष के बालक टीन एजर्स कहे जाते है। अमेरिकनों को ऐसे विचित्र शब्दप्रयोग कर किसी भी चीज पर अपना ठप्पा लगाने की बहुत बुरी आदत है। उसी में से यह 'मोडस', हिप्पी, टीनएजर्स' पैदा हुए हैं । उसमें भी थर्टीन-फोर्टीन या सेवंटीन - नाइंटीन जैसे अलग हिस्से हैं। इन बच्चों को उपद्रव करने की खुली छूट होती है। हर गुट के कपड़ों की भी अलग अलग विशेषताएँ हैं ।जैसे जनजातियों के लोग अपनी अपनी विशेषताएँ दिखाने के लिये विभिन्न वेश पहनते है ऐसा ही इन लोगों का होता है। वेशभूषा के समाजमान्य बंधन फेंक देने वाले हिप्पियों ने भी अंत में 'हिप्पी' वेशभूषा और केशभूषा का बन्धन अपना ही लिया है। अच्छे कपड़ों को चीथडा बनाकर पहनने की भी किसी गुट की फैशन बन गयी है। कारण अंत में तो अनुकरण करनेवालों की संख्या ही अधिक होती है। फिर चाहे वह एस्टाब्लिशमेंट वाला हो या एण्टी एस्टाब्लिशमेंट वाला।

References

भारतीय शिक्षा : वैश्विक संकटों का निवारण भारतीय शिक्षा (भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला ५), प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे