अमेरिका

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अध्याय १९

तुलसी टावरी व दु. बालसुब्रमण्यम

विकास की अवधारणा

विश्व के विभिन्न राष्ट्र अपने अपने तरीके से अपने समाज के विकास की प्रक्रिया में संलग्न हैं। हर राष्ट्र का अपना इतिहास है, जो कि कुछ सदियों से लेकर हज़ारों वर्षों से भी ज्यादा तक का है। उदाहरण के लिए आज जिसे हम युनायटेड इस्टेट्स ऑफ अमेरिका (USA) के रूप में जानते है, उसका प्रारंभ मात्र ४००-५०० वर्ष ही पुराना है। यूरोप से कोलम्बस के जाने के पहले से भी वहां जो सभ्यता विकसित हुई थी वह भी अधिक पुरानी नहीं रही। दूसरी तरफ देखें तो भारत व चीन हैं, जिनका अस्तित्व सर्वाधिक पुराना है । ये देश तबसे हैं जब न तो यूरोप था और न ही अमेरिका।

इन सबको देखने व समझने हेतु हमारे इस प्रयास के केंद्र में जो विचार लेकर हम चल रहे हैं, वह है भारतीयता, यानी एक ऐसा विचार - जहाँ अर्थ, काम, धर्म और मोक्ष को एक सूत्र में गूंथ कर समस्त समाज की सर्वांगीण उन्नति करने का मार्ग निहित है, जिसकी जड़ें भारत के प्राचीन मनीषियों द्वारा प्रतिपादित इतिहास में आज भी सुरक्षित हैं। आज जब विश्व के कुछ देश, आर्थिक समृद्धि की पराकाष्ठा पर पहुंचकर भी अपने आप को कई दृष्टियों में विफल पा रहे हैं; और भारत के राज नेता व चिन्तक भी बिना समझे ही उसी मार्ग की नकल कर चलना चाह रहे हैं, तो हमारा प्रयास है कि हम वैश्विक परिप्रेक्ष्य में सब कुछ परखें, व जो कुछ भी विश्व में अच्छा या सही हुआ है, उसे भी समझकर भारतीयता के अनमोल तत्व को आधुनिक परिवेश में उतारें ताकि भारतीय चिंतन से ही उपजा यह मंत्र - वसुधैव कुटुम्बकम् - विश्व को नयी दिशा व आने वाली पीढ़ियों को एक सार्थक भविष्य दे सके।

हम यदि आज की वैश्विक समस्याओं पर नज़र डालें, तो पायेंगे कि इन समस्याओं को हम दो स्वरूपों में बाँट कर देख सकते हैं:

क) राष्ट्रीय व सामाजिक रचना के मूलभूत आधार से सम्बंधित समस्याएँ

ख) ऐसी तात्कालिक समस्याएं, जिन के परिणाम दूरगामी हैं

क) राष्ट्रीय व सामाजिक रचना के मूलभूत आधार से सम्बंधित समस्याएँ

क-१) बाजार में सामर्थ्यवान ही टिक पायेगा

विश्व के राष्ट्रों को दो स्वरूपों में बाँट कर देखा जाता रहा है- एक, आधुनिक या यूँ कहें कि मूलतः आर्थिक रूप से उन्नत राष्ट्रों का समूह जैसे कि यू.एस.ए., ब्रिटेन, जर्मनी, फ्रांस, जापान, आस्ट्रेलिया, इत्यादि। जिन्हें हम लगभग दो सदियों से वैज्ञानिक व आर्थिक उन्नति में अगुआ मानते आ रहे हैं। इनमें ज्यादातर पश्चिम के राष्ट्र होने से, हम आधुनिकता को पश्चिम कह कर ही देखते हैं । और दूसरी ओर बाकी के सब कम उन्नत कहलाये जाने वाले राष्ट्र जो इन उन्नत राष्ट्रों के मार्गदर्शन में चलने का प्रयास कर रहे हैं, और उन्नत होने का अर्थ पश्चिम की हर बात का अन्धानुकरण करने में ही मान रहे हैं।

चिंता का विषय यह है कि अति उन्नत समझे जाने वाले इन राष्ट्रों का एक बड़ा तबका आज आर्थिक रूप से अनिश्चितता में जी रहा है।

कुछ राष्ट्र तो दिवालियेपन के कगार पर खड़े दिखाई दे रहे हैं, जिन्हें संभालने में इनकी सामूहिक ताकत लगी हुई है व विचलित नज़र आ रही है। जिनके पास समृद्धि है बह भी भविष्य के प्रति अनिश्चित हैं, ऐसा स्पष्ट दिखाई दे रहा है। बेरोजगारी व गरीबी की ऐसी मार पड़ रही है कि इन राष्ट्रों की आम जनता बुरी तरह से आतंकित है और यह कह रही है कि मात्र एक प्रतिशत लोगों के हाथों में ही इन राष्ट्रों के धन व सत्ता दोनों की पकड़ सीमित होती जा रही है। बहुमत का विश्वास सरकारी व्यवस्थाओं व राज नेताओं पर से उठता जा रहा है। राज नेता भी ज्यादातर पुराने प्रयासों में गलतियाँ बता कर स्वयं को नए मसीहा के रूप में प्रस्तुत करने में ही व्यस्त हैं। अति उन्नत राष्ट्र से ये राष्ट्र मात्र ३०-४० वर्षों में ऐसी नाजुक स्थिति में कैसे पहुंचे हैं तथा इन समस्याओं की जड़ कहां है, इस पर चर्चा करने वाले कम ही दिखाई पड़ते हैं। आर्थिक सोच में कोई मूलभूत दिशा-भूल हो रही है, ऐसा कहने के बजाय, बाजार में सामर्थ्यवान ही टिक पायेगा, यह एक कुमंत्र ही समस्या पर टिप्पणी के रूप में हर कोई व्यक्त करता नज़र आता है, और सामर्थ्यवान याने क्या, इस बात का पूरा चिंतन किये बिना ही, ये सब विकसित कहलाने वाले राष्ट्र ज्यादा से ज्यादा सामर्थ्यवान बनने के नए नए रास्ते पाने के विभिन्न प्रयोगों में पिछले कुछ दशकों से लगे हुए हैं । यूरोप के देशों को लगता है कि वे अमेरिका से जनसंख्या में बहुत छोटे हैं, इसलिए यदि एकजुट हो जायें तो उनका सामर्थ्य बढ़ जायेगा। मगर फिर यूरोप के जो राष्ट्र आर्थिक व अन्य दृष्टियों में ज्यादा शक्तिशाली रहे हैं उनमें आपस में होड़ ख़तम ही नहीं हो पाती कि बड़ा कौन है । उन्हें चिन्ता लगी रहती है कि कमजोर राष्ट्र कहीं उनका फायदा तो नहीं उठा रहे, साथ जुड़ने में उनके अपने राष्ट्र का कितना लाभ या स्वार्थ-सिद्धि होगी, इसका विचार किये बिना ये राष्ट्र एक दूसरे को आगे बढ़ाने के लिए नहीं, बल्कि स्वयं की ही चिंता तथा उन्नति की लालसा में, मात्र आर्थिक दृष्टि से एक होने का प्रयास करते हुए दिखाई दे रहे हैं । यूरोप के इस एक होने के प्रयास के बीच अचानक ही, ब्रिटेन ने हाँथ खींच लिए (जो ब्रेक्सिट के नाम से मशहूर है) । ब्रिटेन के नागरिक और नेता दोनों पूरी तरह भ्रम में हैं कि यूरोप के साथ रहना है कि नहीं । मामला लगभग ५०/ ५० का है। बहुत थोड़े मतों से आज उन्हों ने तय किया हैं कि साथ रहना उनके हित में नहीं है । थोड़े समय बाद बात पलट भी सकती है, फिर नए खेल शुरू होंगे कि साथ ही रहते तो अच्छा होता । यह गंभीर स्थिति है उन देशों की जो विश्व को आर्थिक दिशा देने का दावा करते हैं। बेरोजगारी से पीड़ित जनता आन्दोलन करने के अलावा कुछ नहीं कर सकती। नेता भी सार्थक चिंतन करने के बजाय सिर्फ लुभावने वायदे के जरिये सत्ता पाने पर सोचेंगे, ऐसी ही स्थिति अभी दिखाई देती है। ये लोग मूल में जाकर विचार कर रहे होंगे ऐसा प्रत्यक्ष व प्रभावी रूप से दिखाई नहीं देता।

क-२) आर्थिक विषमता में लगातार वृद्धि टेक्नोलोजी का दुरुपयोग

स्वयं को विकसित कहने वाले राष्ट्र तथा अन्य राष्ट्र भी, जो इस दौड़ में शामिल हैं, उन सबकी एक और भी विकराल समस्या है वह है आर्थिक विषमता अर्थात् राष्ट्रीय धन का अधिकतम प्रतिशत धीरे धीरे मुट्ठी भर लोगों के हाथों में सीमित होना । यदि विश्व के आर्थिक इतिहास पर दृष्टि डालें तो बढ़ती हुई आर्थिक विषमता ही एक ऐसा आर्थिक बिन्दु है जो लगातार बढ़ता ही जा रहा है ।

राष्ट्र में आर्थिक तेजी हो या मंदी, आर्थिक-विषमता का शिकंजा दोनों ही हालत में बिना लगाम के बढ़ ही रहा है अर्थात् कम से कम लोगों की मुट्ठी में ज्यादा से ज्यादा धन का सिमटता जाना । और इस कारण से कहने को तो ये सारे राष्ट्र प्रजातान्त्रिक हैं, मगर हकीकत में तो पैसे की ताकत ही तय कर रही हैं कि क्या खाना, क्या पहनना, कैसे रहना, कैसे चलना, क्या जरूरी है, क्या बेकार है, और यह भी कि किसे वोट देना या क्यों देना । जब बाजार ही सब तय करेगा तो आर्थिक ताकत ही एकमात्र ताकत बनेगी यह स्वाभाविक ही है। निरंतर बढती हुई विषमता के कारण कितने ही प्रकार कि सामाजिक असंतुलन व समस्याओं का प्रभाव दिन ब दिन बढ़ता जा रहा है। यह प्रश्न अत्यंत गंभीर है। उदहारण के रूप में, आज टेक्नोलोजी की ताकत का दुरुपयोग इस हद तक संभव है कि शिक्षा की प्रक्रिया से चिन्तन करने की प्रक्रिया को समूल नष्ट करने का दुष्प्रयास भी दिखाई देने लगा है।

आज जानकारी की सहज उपलब्धता साफ्टवेयर के विभिन्न कम्पनियों द्वारा इस तरह प्रदान होने लगी है कि विद्यार्थी बिना चिन्तन किये ही जो बातें उसे आसानी से उपलब्ध है उन्हें ही सही मान कर सिखने में लगा हुआ है। ऐसे में, शिक्षा का अर्थ मानसिक विकास व अनुसन्धान न होकर आने वाली पीढ़ियों को मात्र नकल करने वाले बन्दर बनाना रह जाये तो सम्पूर्ण विश्व की कैसी भारी दुर्गती हो सकती है?

कुछ चुनिन्दा लोग, जो धन की ताकत से समाज को अपने वश में रखना चाहें, उनका काम आज से पहले कभी भी इतना आसान नहीं रहा होगा। क्योंकि वे मन-गढ़त बातों को ही सत्य बनाकर विद्यार्थियों को मानसिक रूप से अपनी इच्छा अनुसार नियंत्रित कर सकेंगे । अर्थात् हम कह सकते हैं कि नए प्रकार की गुलामी का शिकंजा विश्व भर की आने वाली पीढ़ी को कब निगल ले, इसका पता भी नहीं चलेगा। आर्थिक नियंत्रण के जरिये विश्व की सम्पूर्ण शिक्षा-व्यवस्था पर भयावह दुरुपयोग का मंडराता खतरा एक ऐसा धीमा जहर है, जिसकी मार विश्व के भविष्य के लिए अत्यंत ही दुखदायी हो सकती है।

References

भारतीय शिक्षा : वैश्विक संकटों का निवारण भारतीय शिक्षा (भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला ५), प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे