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१५, एक कहता है कि खिचडी बनानी है तो चावल और मूँग की दाल, चावल और अरहर की दाल या चावल और चने की दाल की बन सकती है तो बात समझ में आती है, परन्तु जो कहता है कि केवल चावल और मूँग की दाल की ही बन सकती है और किसी दाल की नहीं, तो उसका क्या करेंगे ? और जो कहता है कि चावल और कंकड की बनाओ तो उसका क्या करें ? यही न कि बनाकर देख लें । चावल और कंकड की खिचडी का क्या प्रभाव होता है वह भी देख लें ?
 
१५, एक कहता है कि खिचडी बनानी है तो चावल और मूँग की दाल, चावल और अरहर की दाल या चावल और चने की दाल की बन सकती है तो बात समझ में आती है, परन्तु जो कहता है कि केवल चावल और मूँग की दाल की ही बन सकती है और किसी दाल की नहीं, तो उसका क्या करेंगे ? और जो कहता है कि चावल और कंकड की बनाओ तो उसका क्या करें ? यही न कि बनाकर देख लें । चावल और कंकड की खिचडी का क्या प्रभाव होता है वह भी देख लें ?
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१६, एक कहता है कि तुम अहमदाबाद से बडौदा - कोटा - मथुरा मार्ग से दिल्ली जा सकते हो और आबूरोड- जयपुर-रेवाडी मार्ग से भी जा सकते हो तो बात समझ में आ सकती है, परन्तु जो कहे कि तुम जयपुर
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१६, एक कहता है कि तुम अहमदाबाद से बडौदा - कोटा - मथुरा मार्ग से दिल्ली जा सकते हो और आबूरोड- जयपुर-रेवाडी मार्ग से भी जा सकते हो तो बात समझ में आ सकती है, परन्तु जो कहे कि तुम जयपुर मार्ग से ही जा सकते हो, बडोदा-कोटा से नहीं, और तुम जाओगे तो पछताओगे, हम तुम्हें जाने ही नहीं देंगे, उसका क्या करें ? 
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१७. जिसे अहमादृबाद से दिल्ली जाना है, जिसे अहमदाबाद से नागपुर जाना है और जिसे अहमदाबाद से गोवा जाना है उन तीनों को अहमदाबाद से राजकोट जाने वाली गाडी में बिठा देने से क्या होगा ? एक का भी गन्तव्य तो आयेगा ही नहीं । परन्तु नियमों का प्रावधान इसी मार्ग से जाने को मान्यता देता है इसलिये इससे अलग कुछ हो ही नहीं सकता । 
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१८. ये सारे उदाहरण हास्यास्पद हैं, विचित्र हैं, सम्ध्रम पैदा करनेवाले हैं, मार्ग से भटकाने वाले हैं। जो उदाहरण दिये हैं उनमें से प्रथम तो रोज रोज होता है, शेष तीन लाक्षणिक है । रेल की यात्रा में या खिचडी बनाने में भले ही ऐसा न होता हो तो भी अनेक बातों में, अनेक प्रश्न सुलझाने में ऐसी ही पद्धति अपनाई जाती है । 
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१९. स्वतन्त्रता, समानता, सहिष्णुता, समन्वय आदि ऐसे ही अराजक स्थिति निर्माण करनेवाले शब्द बन गये हैं । मूल आशय, वास्तविक सन्दर्भ, क्रियान्वयन की प्रक्रिया, सम्भवित परिणाम आदि की कोई स्पष्टता न होने से कोलाहल तो होता है परन्तु आशय सिद्ध नहीं होता । 
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२०. स्वतन्त्रता का अर्थ स्पष्ट नहीं होने से सर्व प्रकार के स्वैराचार पनपते हैं । युवक युवतियों के सम्बन्धों से लेकर साम्यवादी - गांधीवादी - राष्ट्रवादी की बहस तक स्वतन्त्रता के नाम पर कुछ भी कह सकते हैं, कुछ भी कर सकते हैं, देश की व्यवस्था का चाहे कुछ भी हो । 
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२१. समन्वय के नाम पर कंकड - चावल की खिचडी बनाने का प्रयास होता है । सहिष्णुता के नाम पर पराकोटी की असहिष्णुता का व्यवहार होता है। समानता के नाम पर हास्यजनक स्थिति निर्माण होती है । उदाहरण के लिये पुरुष क्यों शिशुसंगोपन नहीं कर सकता ऐसा पूछा जाता है और महिला क्यों ट्रक नहीं चला सकती ऐसा पूछा जाता है । महिला ट्रक चलाकर और पुरुष शिशुसंगोपन कर सिद्ध कर देते है कि वे कर सकते हैं परन्तु परिवार टुट जाता है । 
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२२. जिसके पास ज्ञान है उसके पास प्रमाणपत्र नहीं और जिसके पास प्रमाणपत्र है उसके पास ज्ञान नहीं इसके हजारों उदाहरण सभी क्षेत्रों में मिल सकते हैं । मान्यता और प्रतिष्ठा प्रमाणपत्र को है । नौकरी प्रमाणपत्र वाले को मिलती है, ज्ञानवान को नहीं । बिना प्रमाणपत्र के ज्ञान का प्रयोग अपराध माना जायेगा । यह किस बात का उदाहरण है यह कहना भी कठिन है । 
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२३. सरकारी कानून वर्ण, जाति, सम्प्रदाय के भेद नहीं मानता है परन्तु चुनाव इसके आधार पर ही लडे जाते हैं। भारत को सार्वभौम प्रजासत्ताक देश कहा जाता है परन्तु सभी क्षेत्रों के विकास के मानक युरोप और अमेरिका के अपनाये जाते हैं । 
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२४. सरकार भारतीय भाषाओं की प्रतिष्ठा बढाना चाहती है परन्तु अंग्रेजी माध्यम के विद्यालयों को प्रतिष्टा देती है । सरकार के प्रशासनिक अधिकारी अंग्रेजी में ही बात करते हैं । सरकारी पत्रव्यवहार अंग्रेजी में चलता है । प्रशासनिक अधिकारी मानो अंग्रेजों के प्रतिनिधि हैं क्योंकि सत्तान््तरण के समय अंग्रेज सत्ता इनके हाथों में सौंप कर गये थे । सरकार प्रजा की प्रतिनिधि है जबकि अधिकारी अंग्रेजों के दोनों के बीच में किस प्रकार का समन्वय होता है यह तो भुक्तभोगी ही अच्छी तरह से बता सकते हैं । 
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२५. विचारधाराओं का, मतमतान्तरों का, अपेक्षाओं का, आकांक्षाओं का संघर्ष चलता ही रहता है और आशान्ति और असुरक्षा का वातावरण बनता है । निश्चयात्मिका बुद्धि का अभाव दिखाई देता है। सम्पूर्ण देश मानो प्रवाह पतित बनकर घसीटा जा रहा है। गन्तव्य क्या है इसका भी पता नहीं, मार्ग कौनसा है इसकी भी निश्चिति नहीं । बिना नियमन के देश चल रहा है । 
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२६. पश्चिमी शिक्षा के ऐसे भीषण परिणाम होंगे इसकी तो स्वयं ब्रिटीशों ने भी कल्पना नहीं की होगी । उन्होंने निश्चित की थी उसी दिशा में आगे चलकर हम यहाँ तक पहुँचे हैं । 
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२७. इसी दिशा में आगे नहीं बढा जा सकता, विनाश तो दीख ही रहा है । दिशा परिवर्तन करना ही होगा, चलने की गति बदलनी होगी, पद्धति भी बदलनी होगी । क्या यह सम्भव होगा ?
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