अनर्थक अर्थ

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अध्याय २७

कामकेन्द्री जीवनव्यवस्था

मनुष्य को जीवन के लिये अनेक पदार्थों की आवश्यकता होती है। उसे अन्न चाहिये, वस्त्र चाहिये, मकान चाहिये, सुविधाओं के लिये भी अनेक प्रकार की वस्तुयें चाहिये । हवा, पानी, प्रकाश, वाहन आदि चाहिये । आवश्यकताओं के साथ साथ मनुष्य की इच्छायें भी होती हैं। आवश्यकतायें जीवित रहने के लिये होती हैं, सुरक्षा के लिये होती हैं, कुछ मात्रा में सुविधा के लिये होती हैं, परन्तु इच्छायें मन को खुश करने के लिये होती हैं। आवश्यकतायें सीमित होती हैं परन्तु इच्छायें अनन्त होती हैं । एक इच्छा पूर्ण करो तो और नई जगती हैं।

पश्चिम इच्छाओं के इस स्वभाव से अवगत नहीं है। अथवा अवगत है भी तो उसे इसमें कुछ गलत नहीं लगता । मन है इसलिये इच्छा है, और इच्छा है तो उसे पूर्ण करना है यह जीवन का स्वाभाविक क्रम है । इच्छाओं की पूर्ति के लिये ही तो सृष्टि के सारे संसाधन बने हुए हैं। अपनी इच्छाओं की पूर्ति करने के लिये स्पर्धा और संघर्ष करना पडता है वह भी स्वाभाविक है क्योंकि इस विश्व में हरेक को अपनी योग्यता सिद्ध करनी ही होती है। अस्तित्व बनाये रखने के लिये संघर्ष यह प्रकृति का ही नियम है । सृष्टि में वह सर्वत्र दिखाई देता है। इसलिये संघर्ष का स्वीकार करना ही चाहिये । संघर्ष में जीतने में ही आनन्द है। दूसरों को पराजित करने में ही आनन्द है। मनुष्य जीवन की सार्थकता ही इसमें है। कामनाओं की पूर्ति के बिना जीवन में रस ही नहीं है । रस का अनुभव करना ही मनुष्य का परम पुरुषार्थ है।

पश्चिम का जीवनविषयक तर्क इस प्रकार का है इसलिये कामनापूर्ति के लिये आपाधापी करना उसके जीवनयापन का पर्याय बन गया है।

कामनाओं का स्वभाव ऐसा है कि एक कामना पूर्ण करो तो दस जगती है। अतः कामनापूर्ति के प्रयासों का कभी अन्त नहीं होता । इसलिये संसाधन हमेशा कम ही पडते हैं। 'और चाहिये', 'और चाहिये' के मन्त्र का ही रटण निरन्तर चलता है। कामना का दूसरा स्वभाव यह होता है कि एक पदार्थ से मिलनेवाला सुख क्रमशः कम होता जाता है। प्रथम अनुभव में जो पदार्थ अत्यन्त प्रिय और सुखकारक लगता है वही पुराना होते होते कम प्रिय और फिर अप्रिय होने लगता है। इसलिये मन को निरन्तर नये की चाह रहती है। इसमें से पदार्थ के बनावट के, पैकिंग के, प्रस्तुतिकरण के नये नये तरीके निर्माण होते हैं, नये नये फैशन, खाद्य पदार्थों के नये नये स्वाद निर्माण किये जाते हैं। फिर भी अतृप्ति बनी रहती है। इसमें से उन्माद पैदा होता है। उन्माद से गति का जन्म होता है। मन स्वभाव से चंचल भी होता है । चंचलता भी गति को जन्म देती है। इसमें से तेज गति की ललक पैदा होती है। इसलिये तेजगति के वाहन बनाये जाते हैं । गति बढाने के निरन्तर प्रयास चलते हैं। मोटरसाइकिल, कार, ट्रेन, वायुयान आदि की गति बढाना मनुष्य के लिये चुनौती बन जाता है। गति बढाने में सफलता का और तेज गति के वाहन से यात्रा करने में साहस का अनुभव होता है। इसका भी कहीं अन्त नहीं है।

इस उन्माद का दूसरा स्वरूप है ऊँचे स्वर वाला संगीत और उतेजना पूर्ण नृत्य । इसे भी पराकाष्ठा तक पहुँचाने के प्रयास निरन्तर होते रहते हैं । येन केन प्रकारेण कामनाओं की पूर्ति करने की चाह, अधिक से अधिक कामनाओं की पूर्ति के प्रयास उन्हें शान्ति से, स्थिरतापूर्वक बैठने नहीं देते । गति उनके जीवन का मुख्य लक्षण बन गया है।

गति, नित्य नये पदार्थों की खोज, उत्तेजना, ललक आदि के कारण एक और शान्ति नहीं है, दूसरी ओर किसी की चिन्ता या परवाह नहीं है। कानून की बाध्यता के अलावा और कोई शिष्टाचार नहीं होता।

मन की उत्तेजना, आसक्ति, मोह आदि का प्रभाव शरीर पर पड़ता ही है। शरीर असहनशील और अस्वस्थ ही रहता है । ज्ञानेन्द्रिय उपभोग के अतिरेक के कारण शिथिल हो जाती हैं। हृदय दुर्बल होता है। इसलिये मनोकायिक बिमारियाँ पश्चिम में अधिक हैं। एक ओर शरीर और मन की बिमारियों के लिये अस्पतालों और मानसिक अस्वास्थ्य के परिणामस्वरूप बढती हुई गुण्डागर्दी के लिये कैदखानों की संख्या बढ़ती ही रहती है।

जीवन का स्तर अत्यन्त ऊपरी रहता है। किसी के साथ गाढ सम्बन्ध, किसी व्यक्ति या तत्त्व के प्रति समर्पण, किसी तत्त्व के प्रति निष्ठा, आत्मत्याग जैसी भावनायें लगभग अपरिचित ही रहती हैं। ये भावनायें हो सकती है ऐसी उन्हें कल्पना भी नहीं होती। किसी में देखीं तो उन्हें समझ में नहीं आती। ऐसी भावनाओं को या तो वे असम्भव मानते हैं या मूर्खता ।

कामनाओं की पूर्ति के लिये विज्ञान इनका दास बनकर सेवा में खडा रहता है। विज्ञान का उपयोग वे विभिन्न प्रकार के यन्त्र और उपकरण बनाने के लिये करते हैं । गति के लिये वाहन, वाहनों के लिये सड़कें, सड़कों के लिये कारखाने आदि की दुनिया का विस्तार होता है।

इस आसक्तिपूर्ण, उत्तेजना पूर्ण, गतियुक्त छीछली, ऊपर से आकर्षक व्यवस्था को विकास कहा जाता है। विकास की यह संकल्पना आज विश्व के सभी देशों को लागू है। विश्व के सभी देशों ने इस समझ को विवशता से या नासमझी से स्वीकार किया है।

भारत की दृष्टि से यह असंस्कृत अवस्था का लक्षण है। भारत मन के दोष और सामर्थ्य दोनों को जानता है । इसलिये मन को वश में करने की आवश्यकता समझता है । मन को वश में करने की कला भी जानता है ।

भारत जीवन में काम और कामना के महत्त्व और प्रभाव को जानता है इसलिये कामनाओं और कामनापूर्ति के प्रायसों का तिरस्कार नहीं करता अपितु उन्हें धर्म के नियमन में रखता है। इसलिये संयम, साधना, स्वनियन्त्रण की एक विशाल दुनिया भारत में खडी हुई है।

भारत की संगीत, कला और साहित्य की साधना, ज्ञानेन्द्रियों के उपभोग की रसिकता, विविधता में व्यक्त हो रही सृजनशीलता मन के स्तर की नहीं अपितु हृदय के स्तर की होती है जिसे आत्मा का निवासस्थान कहा जाता है ।

भारत की दृष्टि में पश्चिम का यह कामजीवन पशुतुल्य ही लगता है। इसे विकास कहना बुद्धिहीनता का लक्षण है। यह कामजीवन सौन्दर्य, प्रेम, आनन्द आदि को प्राप्त नहीं करवाता । यह जीवन को उन्नत बनाने के स्थान पर दुर्गति की ओर ले जाता है।

ऐसा नहीं है कि पश्चिम में कला, साहित्य आदि की उपासना नहीं होती। अच्छा साहित्य वहाँ भी होता है परन्तु वह पश्चिम के स्वभाव से विपरीत है । मुख्य धारा का जीवन तो कामजीवन ही है।

ऐसा कामजीवन पश्चिम को दुर्गति और विनाश की ओर ले जा रहा है और पश्चिम के पीछे जाने वाला विश्व भी उसी मार्ग पर जायेगा इसमें कोई आश्चर्य नहीं । विश्व को और पश्चिम को इस दुर्गति से बचाना भारत का दायित्व है।

अर्थपरायण जीवनरचना

अनगिनत कामनाओं की पूर्ति के लिये असंख्य पदार्थ चाहिये। उन्हें प्राप्त करने के लिये प्रयास भी करने होते हैं। कामनायें मनुष्य के अन्तःकरण में निहित होती हैं, उन्हें प्राप्त नहीं करना होता है। कामनाओं की पूर्ति हेतु आवश्यक पदार्थ बाहर होते हैं, उन्हें प्राप्त करने हेतु प्रयास करने होते

पश्चिम का सारा जीवन असंख्य संसाधन प्राप्त करने में बीतता है। कामनापूर्ति और अर्थप्राप्ति जीवन के केन्द्र में होते हैं।

अर्थ की प्राप्ति की यह दुनिया बडी विशाल और अटपटी है।

मनुष्य प्रथम तो अर्थ के स्रोतों पर अपना स्वामित्व चाहता है। स्वामित्व के लिये वह संघर्ष करने के लिये भी तैयार रहता है।

बिना परिश्रम के या कम से कम परिश्रम करके अधिक से अधिक वस्तु प्राप्त हो इसलिये उसने उधार लेने की एक व्यवस्था बनाई है। उस व्यवस्था का नाम बैंक है। लगता ऐसा है कि बैंक की व्यवस्था जिनके पास पर्याप्त अर्थ नहीं है उसे अपने अभाव की पूति के लिये अर्थ की सहायता करता है परन्तु वास्तव में बैंक भी पैसा कमाने का व्यवसाय करता है। बैंक से उधार लिया हुआ पैसा वापस नहीं देने का प्रचलन इतना अधिक होता है कि बैंकों का दिवाला निकल जाता है।

येन केन प्रकारेण कामनापूर्ति करना ही लक्ष्य है उसी प्रकार से कैसे भी हो, अर्थप्राप्ति करना ही धर्म है । इस दृष्टि से हर किसी बात की कीमत होती है। किसी को सहायता की तो पैसा चाहिये । मार्गदर्शन, सेवा, प्रेम, परामर्श, ज्ञान, अन्न, देह, तीर्थयात्रा, दर्शन, प्रसाद, पुण्य आदि सब कुछ पैसे से मिलता है। किसी का धर्मविषयक भाषण, कथा, सत्संग आदि पैसे से ही सुना जा सकता है। ज्ञानप्राप्त करना है तो पैसे से और पैसा कमाने के लिये। किसी के प्रति अपराध किया तो पैसे से नुकसान भरपाई होती है।

पश्चिम का एक एक व्यक्ति तो अर्थप्राप्ति कि लिये सब कुछ करता ही है परन्तु यह देशों का भी यह लक्षण है। पश्चिम के देश व्यापार को ही राष्ट्रजीवन का केन्द्रवर्ती पुरुषार्थ मानते हैं । व्यापार ही उनके लिये धर्म है।

विगत पाँचसौ वर्षों का यूरोप का इतिहास दर्शाता है कि वे सम्पूर्ण विश्व को पादाक्रान्त करने के लिये निकले हैं। अन्य देशों में जाने का मुख्य उद्देश्य वहाँ की समृद्धि का आकर्षण रहा है। उस समृद्धि को हस्तगत करने की उनकी चाह रही है। समृद्धि को हस्तगत करने का सबसे सरल उपाय है लूट करना परन्तु लूट बहुत अधिक काल तक निरन्तर रूप से करना सम्भव नहीं होता इसलिये उसे व्यापार का जामा पहनाया गया है। व्यापार को भी सुगमता से चलाने के लिये जहाँ गये वहाँ राज्य स्थापित करने की भी उनकी प्रवृत्ति रही है।

व्यापार के दो आयाम हैं। एक है उत्पादन और दूसरा वितरण ।

उत्पादन के क्षेत्र में पश्चिम ने दो कारकों को काम में लगाया । एक थे यन्त्र और दूसरे थे मजदूर । दोनों उनके लिये दास हैं । उन्होंने उत्पादन का स्वामित्व अपने पास रखा । जब तक इंधन की ऊर्जा से चलने वाले यन्त्र नहीं थे तब तक मनुष्यों से उत्पादन का काम करवाया जाता था। काम करने वाले लोग उनके लिये मजदर थे जिनके साथ गुलामों जैसा व्यवहार किया जाता था।

जो केवल पैसा लगाता है और स्वयं काम नहीं करता अपितु पैसा देकर दूसरों से काम करवाता है वह मालिक है, स्वामी है, बडा है, श्रेष्ठ है, अधिकारी है और जो प्रत्यक्ष काम करके उत्पादन करता है परन्तु काम पर और उत्पादन पर जिसका कोई अधिकार नहीं है वह मजदूर है, नौकर है, गुलाम है। काम और काम के अधिकार का सम्बन्ध विच्छेद आज पश्चिम के माध्यम से विश्वभर में फैल गया है। अर्थव्यवस्था में नौकरी एक अनिवार्य और सबसे अधिक स्थान घेरने वाला घटक बन गया है। काम और श्रम की प्रतिष्ठा समाप्त हो गई है। सम्पूर्ण विश्व की मानसिकता पर इस का गहरा प्रभाव हुआ है। सर्वसामान्य मनुष्य अपने आपको नौकर की हैसियत ।

से ही देखता है। उत्पादन की प्रक्रिया में उसे आनन्द नहीं मिलता, रस नहीं आता और उत्पादित वस्तु के प्रति उसे अपनत्व और प्रेम नहीं है। उसकी कल्पनाशीलता और सृजनशीलता नष्ट हो गई है क्योंकि वह काम उसका नहीं है। उत्पादन प्रक्रिया में आनन्द नहीं मिलने के कारण वह अन्य बातों में आनन्द ढूँढता है। नृत्य, गीत, नाटक, होटेल, प्रवास आदि सब आनन्द की खोज में से निकले हैं। उनका उपभोग कर सके इसलिये काम से मुक्ति चाहिये। सप्ताह में एक दिन या दो दिन की छुट्टी का प्रचलन इसी में से हुआ है। काम में आनन्द नहीं और आनन्द के लिये काम नहीं । सप्ताह के पाँच दिन मजदूर बनकर पैसा कमाना और दो दिन उन पैसों से उन्मुक्त होकर कामनापूर्ति करना, मौज मनाना, चैन करना ऐसे दो भागों में जीवन बँट गया है। विभाजन की यह प्रक्रिया सर्व क्षेत्रों में विशृंखलता को ही जन्म देती है। व्यक्तिगत और प्रजागत जीवन छितरा हुआ बन जाता है।

उत्पादनप्रक्रिया में जबसे इंधन की ऊर्जा से संचालित यन्त्रों का उपयोग होने लगा है तब से काम करने वाले मजदूर की कठिनाई और बढी है। अब वह केवल मालिक का ही नहीं तो यन्त्र का भी दास बन गया है। अब उत्पादन भी वह नहीं कर रहा है। नौकर के रूप में भी उसका काम यन्त्र को चलने में सहायक होना है। यन्त्र जैसी निर्जीव सत्ता के साथ उसे अनुकूलन करना पड़ता है। मनुष्य अपने आपको हीन अनुबव करने लगता है।

उत्पादन के क्षेत्र में यन्त्र ने केन्द्रीकरण कर दिया है। यन्त्र एक साथ अधिक उत्पादन करता है, तेज गति से उत्पादन करता है इसलिये उत्पादन का केन्द्रीकरण होना अपरिहार्य है। उत्पादन के साथ साथ मालिकी का भी केन्द्रीकरण होता है । मालिकों की संख्या कम और मालिकी का क्षेत्र बढता जाता है । साथ ही काम करनेवाले लोग भी अनावश्यक बन जाते हैं। बेरोजगारी का जनक भी यही है। इस व्यवस्था में अरबोंपति और खरबोंपति तो बनते हैं परन्तु वे गिनेचुने ही होते हैं, अरबों और खरबों बेरोजगार, बिना कामकाज के लोग भी साथ साथ पैदा होते हैं।

कामनापूर्ति के लिये ठोस भौतिक पदार्थों की आवश्यकता होती है। उनका उत्पादन केन्द्रीकृत हो जाने के कारण बेरोजगार लोगों की संख्या बढती है। उन्हें जीवित रहने के लिये और कामनाओं की पूर्ति के लिये पदार्थों की तो आवश्यकता रहती ही है। इसकी पूर्ति के लिये अनेक अनुत्पादक गतिविधियाँ शुरू होती हैं। इसमें से ही आज के अनेक महान शब्दों अथवा महान संकल्पनाओं का जन्म हुआ है। इनमें एक है मैनेजमेण्ट, दसरा है मनोरंजन उद्योग, शिक्षाउद्योग, स्वास्थ्यउद्योग आदि । घटनाओं और पदार्थों को ही नहीं तो मनुष्यों को मैनेज किया जाता है। लोग दो भागों में बँटे हैं, एक हैं मैनेज करने वाले और दूसरे हैं मैनेज होने वाले । मैनेज करनेवालों की भी एक श्रेणीबद्ध शृंखला बनती है - बडा मैनेजर और छोटा मैनेजर । मैनेजमेन्ट वर्तमान विश्वविद्यालयों का एक प्रतिष्ठित विषय है। संगीत, नृत्य, नाटक, काव्य आदि मनोरंजन उद्योग के पदार्थ बन गये हैं। उनका सारा मूल्य पैसे में रूपान्तरित हो गया है। सारी सृजनशीलता और कल्पनाशीलता पैसे के अधीन बन गई है । उसकी सार्थकता ही पैसे से है। शिक्षा ज्ञान की व्यवस्था नहीं रह गई है अपितु ज्ञान को अर्थ के अधीन बनाने की व्यवस्था है। विश्वविद्यालयों का दर्जा तय करने वालों में एक प्रमुख आयाम उसकी अर्थोत्पादकता भी है । सेवा भी अर्थ के अधीन एक पदार्थ है। अर्थव्यवस्था का एक बड़ा हिस्सा 'सर्विस सैक्टर - सेवा क्षेत्र' है जिसमें भौतिक पदार्थों को छोडकर अन्य सभी मार्गों से दूसरों का काम कर पैसा कमाया जाता है।

भारत की दृष्टि से यह अर्थव्यवस्था नहीं है, अनर्थ व्यवस्था है। यह अल्पबुद्धि, स्वार्थबुद्धि और दुष्टबुद्धि का लक्षण है। यह विनाशक है इसमें तो कोई सन्देह नहीं।

सबसे पहला तो अर्थ को राष्ट्रीय जीवन में सबसे प्रमुख स्थान देना और कामनाओं की सेवा में प्रस्तुत करना भारत की दृष्टि में घोर सांस्कृतिक अपराध है। अल्पबुद्धि इसलिये क्योंकि वह क्षणिक सुख देकर राष्ट्र के आयुष्य को रोगग्रस्त बनाकर जल्दी नष्ट कर देने वाला है । स्वार्थबुद्धि इसलिये कि वह केवल अपना ही विचार करता है और दूसरों का शोषण करने में उसे संकोच नहीं होता है। दुष्टबुद्धि इसलिये क्योंकि उसमें दया नहीं है और दूसरों को कष्ट पहुँचाना उसे अनुचित नहीं लगता । इससे तो संस्कृति पनप ही नहीं पाती और पनपी हुई संस्कृति नष्ट हो जाती हैं।

भारत की दृष्टि से बैंक, बीमा और सेवाक्षेत्र अर्थव्यवस्था के अत्यन्त विनाशक आयाम है क्योंकि ये छलनापूर्ण तों से चलते हैं, मानवीय गुणों को नष्ट करते हैं और एक आभासी व्यवस्था पैदा करते हैं जिसका कोई वास्तविक मूल्य नहीं है । सांस्कृतिक दृष्टि से तो ये अनर्थक हैं ही।

मनुष्य की श्रेष्ठता समाप्त कर उसे गुलाम बनाना, बुद्धि, कल्पना, सृजन की शक्तियों को निकृष्ट स्तर पर लाना, विश्व को आर्थिक, पर्यावरणीय और आरोग्यकीय संकट में डाल देना इतना ही नहीं तो विनाश के प्रति ले जाना ये पश्चिमी अर्थसंकल्पना के मानवता के प्रति अपराध है।

इस अर्थसंकल्पना के आधार पर पश्चिम ने अपनी विकास की संकल्पना को विश्व पर थोपा है। इसके आधार पर विश्व के देशों को विकसित और विकासशील ऐसी श्रेणियों में विभाजित किया है। इसी संकल्पना के आधार पर विश्व पर आधिपत्य जमाने का प्रयास किया है। शस्रों का, पेट्रोलियम का और मादक द्रव्यों का व्यापार उनके लिये समृद्धि की कुंजी है। युद्धों को प्रोत्साहन देना उन्हें लाभदायक लगता है। मादक द्रव्यों का सेवन उनके अपने लिये मजदूरी भी है और दूसरी ओर पैसा कमाने का सरल उपाय भी है।

भारत की सहज बुद्धि का कथन है, 'अर्थातुराणां न गुरुर्न बन्धुः' - जिनके ऊपर अर्थ सवार हो गया है उसके लिये कोई गुरु नहीं है, कोई स्वजन नहीं है। अर्थ से पीडित पश्चिम ने विश्व में अनात्मीयता का रोग फैला दिया है। इस रोग की चपेट में विश्व के सारे देश विभिन्न कारणों से आ गये हैं। कोई दुर्बल हैं इसलिये, कोई प्रभावित हो गये हैं इसलिये, भारत जैसे लोग हीनता बोध से ग्रस्त हो गये हैं इसलिये और कोई समर्थ बनने की स्पर्धा में हार गये हैं इसलिये पश्चिम की अर्थसंकल्पना का स्वीकार कर चुके हैं। यह एक महारोग है जिससे विश्व को मुक्त करना भारत जैसे समर्थ राष्ट्र के लिये ही सम्भव है, यदि वह अपने हीनताबोध से मुक्त होकर अपने आपको समर्थ माने तो।

कार्य का आत्मघाती अर्थघटन

नंदिनी जोशी

हमारे समाज में वेतन का ढाँचा कितना विचित्र है, तनिक इस ओर तो देखिए ।

किसी सरकारी अधिकारी को या बैंक के ऑफिसर को या किसी बड़ी कम्पनी के सेल्स मेनेजर को बहुत ऊँचा वेतन मिलता है। और जासूसों को तो इनसे भी अधिक । जबकि गली में झाडू लगाने वालों को या खेत मजदूर को इतना कम वेतन मिलता है कि उन पर दया आती है। वास्तविकता तो यह है कि मनुष्य की सबसे पहली आवश्यकताएँ साफ रस्ते और अनाज है।

आज वेतन का सम्बन्ध कार्य की उपयोगिता अथवा अन्य किसी आदर्श के साथ नहीं रहा । आज यह सम्बन्ध, व्यक्ति को काम कितने बड़े तंत्र में मिला है इसके साथ जुड़ गया है। किसी बहुराष्ट्रीय कम्पनी के कार ड्राइवर को तो अच्छा वेतन मिलता है, परन्तु उसी गाँव की प्राथमिक शाला के शिक्षक को इतना कम वेतन मिलता है कि उसे अपनी गृहस्थी चलाने में भी पापड़ बेलने पड़ते हैं । यह कारण ऐसा है जिसे हम दूर कर सकते हैं ।

इनके कारण आज मनुष्य को 'अर्थभोगी जीव' की भाँति देखा जाता है। वैज्ञानकिों से लेकर कलाकारों तक सब को अपनी खोज और कला सेवा के लिए नहीं अपितु वे कितने _पैसे या सत्ता प्राप्त करने में काम आयेंगे इस आधार पर भुनाये जाने के काम आते हैं । ज्ञान और कला को समस्त मानवजाति की प्रगति की राह में प्रकाश फैलाने के लिए मुक्त रहने देने के स्थान पर वे उन्हें थोड़ी नफाखोरी की एषणाओं को पूर्ण करने की हद तक ले आये हैं।

बड़े तंत्र में अधिक वेतन मिले इसके लिए दिये जाने वाले वेतनमान के कारण में आज का अर्थतंत्र, बिचौलिये व्यक्ति, प्रशासनिक तंत्र और क्षुद्र व्यापारियों द्वारा सेवाओं की मोटी जंजीरें खड़ी कर दी गई हैं । हम सब इस भार तले कुचले जा रहे हैं। क्यों कि इस पद्धति से लगाये हुए व्यक्ति मात्र तन्त्र को ही और अधिक मजबूत करते हैं । ये लोग कभी भी कोई सीधा उत्पादन नहीं करते, परन्तु ग्राहकों को तो उनका वेतन वस्तु के मूल के रूप में चुकाना ही पड़ता है।

लाभ की सतत गिनती वेतन के बदले... खर्च के अर्थात् मनुष्य के बदले मशीनें उपयोग में लेने के लिए गुणा-भाग करती ही रहती है । अर्थात् काम मिला है, उन व्यक्तियों के मस्तक पर भी सतत चिंता की तलवार लटकती रहती है । इस गलाकाट स्पर्धा में टिकने की माथाफोड़ी अनेक लोगों की स्वतन्त्र विचार करने की शक्ति को भी घटाती है, ऐसा नवीनतम शोधों का निष्कर्ष है।

आज के इस तंत्र में काम और बुद्धि के मध्य का सम्बन्ध टूट गया है। इस कारण से तंत्र भी टूटने की कगार पर है। आज के उद्योग में काम करने वाले कारीगर को अपने काम की कोई जवाबदारी है, ऐसा लगता ही नहीं है । इसी प्रकार अपने काम का गौरव भी अनुभव में नहीं आता । इस कारण से वस्तुओं की कलात्मकता और कारीगिरी भी घटती जा रही है। कामदार के मनमें काम का हेतु मात्र पैसा कमाना है, जबकि मालिक के मनमें इसका एक मात्र हेतु लाभ कमाना

आज के समाज में कार्य का जिस प्रकार से विचार किया जाता है, वह अत्यधिक भयावह है। कार्य को पैसा कमाने के साधन के रूप में देखा जा रहा है। इसके द्वारा जो पैसे मिलते हैं, उनके अतिरिक्त यह भार स्वरूप है । व्यक्ति बिना पैसे मुफ्त में काम नहीं करता, जबकी अधिकाधिक छट्टी लेना तथा कम से कम काम करना यह उसका ध्येय बन गया है।

वास्तव में तो इसका बिल्कुल विपरीत होना चाहिए । कार्य तो व्यक्ति जीवन का मुख्य ध्येय और आत्मिक आनन्द होना चाहिए । व्यक्ति के व्यक्तित्व को, उसकी शक्तियों को कार्य के द्वारा बाहर आने का अवसर मिलना चाहिए । कार्य को तो जीवन अर्थपूर्ण, हेतुपूर्ण, आनन्दपूर्ण बनाने के साधन के रूप में देखना चाहिए । कार्य के द्वारा आजीविका चलाने का हेतु तो आनुवांशिक रूप में अनायास प्राप्त होना चाहिए।

परन्तु आज के तंत्र में तो व्यक्ति केवल पैसे कमाने के लिए ही कार्य करता है। और इस प्रकार से कमाये हुए पैसे का उपयोग शेष समय में जीवन का आनन्द लेने के लिए करता है।

इसका सबसे भयंकर परिणाम तो यह आया है कि जिन्दगी का मुख्य समय अथवा जो काम करने के लिए पीछे जाता है वह समय का एक प्रकार का बिगाड़ है। इसमें से जितने पैसे मिलते हैं, उतने खर्च करना ही उसका अर्थ है । जिन्दगी का हेतु शाम को, रविवार को या छुट्टी के दिन ही है। कार्य का इस प्रकार का अर्थघटन करने से अधिक आत्मघाती अन्य विचार और क्या हो सकता है ?

वास्तविकता में तो हमारे लिए हमारे कार्य का अर्थ नकारात्मक होना ही नहीं चाहिए कि उसकी भरपाई पैसों से की जा सके । गाँधीजीने अमूल्य सलाह दी थी, 'अपने कार्य का मूल्य पैसों में मत आँको । हमारा कार्य दूसरे लोगों की सेवा में काम आये, उसमें आँको । व्यक्ति को कार्य करने का आकर्षण यह होना चाहिए कि मेरा कार्य उसे पसन्द आया । दूसरों की सेवा करने के लिए स्वयं अपना तम मन लगा दे। और एक सच्चे सैनिक की भाँति समाज के लिए मरने को भी उद्यत हो जाय । क्योंकि अन्त में जो मरने के लिए तैयार नहीं, उसे क्या पता कि जीना क्या होता है ?

ऐसा कब होगा ? कैसे होगा ? ऐसी आदर्श व्यवस्था किस प्रकार स्थापित हो ? इसका उत्तर हमने पहले विचारा है । आजकल बड़ी भारी मशीने और बड़े वैश्विक बाजार के लिए थोक उत्पादन का जो तंत्र है, उनके स्थान पर स्थानीय उपभोग हेतु स्थानीय उत्पादन तंत्र शुरु करके हो सकती है। और इसका प्रारम्भ गाँव में कपड़े का उत्पादन सादे चरखे के द्वारा हो सकता है। इस तरह से कपड़ें का उत्पादन करने से गाँव के लोगों का भी बहुत फायदा है तथा पैसे, तकनीक, सरकार तथा यह सब व्यवस्था करने वालों की गरज भी नहीं रहती । गाँव वाले स्वतन्त्रता पूर्वक अपना काम स्वयं कर सकते हैं।

कपड़े के कारण बाद में अन्य उद्योग भी शुरु होने से गाँव अति समृद्ध बन सकता है । प्रत्येक को उनमें कार्यकरने के अवसर मिल सकते हैं। मात्र कार्य मिलेगा इतना ही नहीं तो अर्थपूर्ण कार्य मिलेगा, कार्य करने का आनन्द मिलेगा। कार्य करके आजीविका मिलेगी इतना ही नहीं तो समाज को कुछ प्रदान करने का सन्तोष मिलेगा। गौरव मिलेगा। आजकल की गलाकाट स्पर्धा के वातावरण में प्रतिस्पर्धी को पछाड़ने का हेतु मुख्य होता है । उसके स्थान पर किसी का शोषण किये बिना और अपना भी शोषण हुए बिना सब कार्य कर सकें। जिससे कार्य का बोझ मिटकर प्रेमपूर्वक तथा आनन्दपूर्वक सबकी सेवा हो सके । ऐसा कार्य करने से जीवन की सार्थकता मिलती है।

कविवर रवीन्द्रनाथ ठाकरने कहा है कि 'जिन दिनों संस्कृति विविध रूपा नहीं होती, उन दिनों में विद्वान और ऋषि, वीर और दानवीर धनवान की तुलना में अधिक पूजे जाते हैं। उन्हें सम्मान देकर मानवता स्वयं सम्मान पाती है। मात्र पैसा कमाने वाले को तो लोग शंका की नजरों से देखते...'

जिस प्रकार आज की राजनीति में राष्ट्रों के अनहद अहम का टकराव बन गया है, उसी प्रकार आजीविका प्राप्त करने का तरीका भी व्यक्ति की आत्यन्तिक स्पर्धा की खटपट बन गई है ....... और फिर व्यक्ति तो व्यक्ति है । इसलिए इसे अपने धन्धे में मात्र रोजरोज की रोटी ही नहीं अपितु सनातन सत्य भी कमाना है।

१. गाँधी, मोहनदास करमचन्द, सर्वोदय (रस्किन का अन टु दि लास्ट से साभार) अहमदाबाद, नवजीवन प्रकाशन मंदिर, १९२२, पृ. १७, १९५७ की आवृत्ति में ।

२. टोवर्ड्स युनिवर्सिल मेन, नई दिल्ली : एशिया पब्लिसिंग हाउस, १९६१ पृष्ठ ३१-३२ और ४९ से व्यथा और विकल्प से साभार

पश्चिम का विज्ञानं विषयक अवैज्ञानिक दृष्टिकोण

ज्ञानविश्व में 'विज्ञान' संज्ञा की बडी प्रतिष्ठा है। भारत के शास्त्रों में तो विज्ञान की बडी सरल व्याख्या की गई है है। ज्ञान तक पहुँचने की प्रक्रिया और पद्धति को विज्ञान कहते हैं। यह बुद्धिनिष्ठ है। जीवन के सर्वक्षेत्रों में इसकी व्याप्ति है। शरीरविज्ञान से लेकर अध्यात्मविज्ञान तक और पदार्थविज्ञान से लेकर सृष्टिविज्ञान तक इसकी व्याप्ति है। यह पृथ्वी, जल, ग्रह, नक्षत्र, मन, बुद्धि आत्मा आदि क्या हैं यह भी बताता है और भोजन कैसे बनाया जाता है यहां से लेकर आत्मरक्षात्कार कैसे होता है यह भी बताता है। भोजन के पदार्थ खाने के बाद क्या क्या होता है से लेकर समाधि अवस्था में पहँचने पर क्या होता है यह भी समझाना है। विश्व की सभी घटनाओं, व्यवहारों, स्थितियों, प्रक्रियाओं का ज्ञानात्मक विवरण देना विज्ञान का काम है।

परन्तु पश्चिम ने विज्ञान को अत्यन्त सीमित क्षेत्र में बद्ध कर दिया है। शास्त्रीय दृष्टि से नहीं अपितु कामदृष्टि और अर्थदृष्टि से प्रेरित होकर पश्चिम ने विश्व में भौतिक विज्ञान को ही विज्ञान के रूप में प्रतिष्ठित कर दिया है। भारत की भाषा में कहें तो अन्नमय और प्राणमय कोश भौतिक विज्ञान के दायरे में आता है। भौतिक विज्ञान को पदार्थ विज्ञान भी कहा जाता है। इससे ब्रह्माण्ड में व्याप्त पंचमहाभूत और उन्हें संचालित करनेवाले और नियमन में रखने वाले तत्त्वों का बोध होता है। इस दृष्टि से गुरुत्वाकर्षण का नियम, सापेक्षता, पदार्थों के गुणधर्म, पदार्थों का व्यवहार, ग्रहों और नक्षत्रों की स्थिति, गति और प्रभाव मनुष्य के भी शरीर और प्राणों का स्वभाव आदि सब भौतिक विज्ञान के दायरे में आता है। पश्चिम इसे सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण मानता है, इतना महत्त्वपूर्ण कि शेष सारी बातों के लिये भौतिक विज्ञान के ही मानक लागू किये जाते हैं। एक दो उदाहरण देखना उपयोगी रहेगा।

वर्तमान में योगविद्या को विश्वव्यापी प्रतिष्ठा प्राप्त हुई है। योग आत्मसाक्षात्कार तक पहुँचने की प्रक्रिया दर्शानेवाला विज्ञान है । इसका सम्बन्ध अन्तःकरण के साथ है अर्थात् यह अन्तःकरण की प्रक्रियाओं को निरूपित करनेवाला विज्ञान है। परन्तु पश्चिम ने इसे अन्नमय और प्राणमय कोश के साथ जोडकर सीमित कर दिया है । योग को एक और व्यायाम के साथ और दूसरी ओर चिकित्सा के साथ जोड दिया है। दोनों आयामों में उसका सम्बन्ध शरीर के साथ ही स्थापित होता है । अन्नमय और प्राणमय कोशों के साथ योग के तीसरे और चौथे अंगों अर्थात् आसन और प्राणायाम का सम्बन्ध अवश्य है परन्तु ये सम्पूर्ण योगविज्ञान के अंग हैं, वे भी सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण नहीं । सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण अंग तो समाधि है जिसके लिये शेष सात अंग हैं । समाधि भौतिक विज्ञान से नहीं अपितु आत्मविज्ञान से सम्बन्धित है । परन्तु पश्चिमने आसन और प्राणायाम को ही योग का केन्द्रवर्ती विषय बनाकर उसका स्वीकार किया। ध्यान के लिये संज्ञा अवश्य है, आत्मसाक्षात्कार जैसी संकल्पना भी है परन्तु उनके मापन की पद्धति भौतिक विज्ञान पर आधारित है। इस अर्थ में योग की उनकी समझ भारतीय समझ से सर्वथा भिन्न है।

जैसा योग का है वैसा ही मनोविज्ञान का है। मन शरीर और प्राण से परे हैं, अधिक व्यापक और अधिक प्रभावी है। परन्तु पश्चिम मन को भी भौतिक जगत के मापदण्डों से ही समझता है। मन और बुद्धि को एक ही अन्तःकरण के दो आयामों के रूप में नहीं अपितु एकदूसरे से पृथक् मान्यता है। वास्तव में इस ब्रह्माण्ड में भौतिक विश्व के साथ साथ मन, बुद्धि, अहंकार और चित्त हैं यह उसके दायरे से बाहर है। केवल मनुष्य में ही मन, बुद्धि आदि होता है, सृष्टि में नहीं ऐसी उसकी समझ है इसलिये उसका विश्व का आकलन भी अधूरा ही रह जाता है। अर्थात् विज्ञान और उसकी प्रक्रियाओं को भौतिक विज्ञान के साथ जोडकर उसने अपने ज्ञान और विज्ञान के विश्व को जडवादी बना दिया है। यह विश्व का एकांगी बोध है। सृष्टि जड और चेतन दोनों तत्त्वों से बनी है, पश्चिम इसे केवल जड के अंग से ही देखता है। पश्चिम के लिये दो अंग हैं पदार्थ और ऊर्जा । वह इन दोनों के लिये मेटर एण्ड लाइफ कहता है। परन्तु लाइफ और ऊर्जा में अन्तर है। लाइफ के लिये भारत में जीवन शब्द का प्रयोग होता है। अंग्रेजी में भी ऊर्जा के लिये एनर्जी शब्द का प्रयोग होता है परन्तु प्राणमय कोश को वे ऊर्जा के रूप में ही जानते हैं। भारत की संकल्पनात्मक शब्दावली में ये दोनों, अर्थात् पदार्थ और ऊर्जा, जड हैं। पश्चिम इस विश्व को जड का ही विस्तार मानता है उनके विज्ञान को उसके साथ जोडकर ही समझता है।

भारत की दृष्टि से यह संकल्पनात्मक संज्ञाओं का घालमेल है। अकेले जड के बोध से ब्रह्माण्ड तो क्या, किसी भी छोटे या क्षुद्र पदार्थ का भी बोध नहीं हो सकता। प्राण को ही चेतन मानना सही नहीं है । तात्पर्य यह है कि सृष्टि के और जीवन के आकलन में ही अन्तर पड जाता है। जिस प्रकार किसी भी बिन्दु पर खडे रहकर देखने पर पूर्व और पश्चिम एकदूसरे से विपरीत दिशा में होते हैं वैसा ही सृष्टि के आकलन के बारे में भारत और पश्चिमी जगत का है।

पश्चिम की यह विज्ञान और वैज्ञानिकता की संकल्पना सृष्टि के और जीवन के, पदार्थों के और मनुष्यों के स्वभाव और व्यवहारों के रहस्यों का आकलन सही प्रकार से, पूर्ण रूप से नहीं कर सकती । भारत का दर्शन पश्चिम से अत्यन्त व्यापक है। केवल व्यापक ही नहीं तो अलग है और अधिक गहरा है।

पश्चिम की विज्ञान की समझ और उसकी जीवनदृष्टि का एकदूसरे के साथ सीधा सम्बन्ध है। जो दृष्टि जन्मजन्मान्तर को मानती नहीं है, जो पूर्वजन्म के संस्कार, कर्म ओर कर्मफल के सिद्धान्त को समझती नहीं है, जो दृष्टि सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के आन्तरिक एकत्व के सम्बन्ध को देख नहीं सकती है उसकी विज्ञान दृष्टि भी जडवादी हो इसमें कोई आश्चर्य नहीं । ऐसे विज्ञान को प्रतिष्ठा देना स्वयं जीवन के लिये हानिकारक है। वास्तव में पश्चिम की जीवनदृष्टि ने विश्व में जो आतंक मचाया है उसमें विज्ञान उसका बहुत बडा सहयोगी रहा है । इस विज्ञान के मापदण्ड से किसी भी बात का मूल्यांकन करने पर विपरीत परिणाम होते हैं।

पश्चिम ने विज्ञान को धर्म और अध्यात्म के विरोध में खडा कर दिया है इतना ही नहीं तो विज्ञान को अध्यात्म से श्रेष्ठ घोषित किया है। मूलतः यह कुतर्क का बहुत बडा उदाहरण है। अध्यात्म और विज्ञान एक समूह की संकल्पनायें हैं ही नहीं जिससे उनकी तुलना कर तरतम सम्बन्ध निश्चित किया जा सके। भारत में जिसे धर्म और अध्यात्म कहते हैं वे तो पश्चिम के लिये सर्वथा अपरिचित संकल्पना है। उनके ही ज्ञानविश्व का, अपरिपक्व संकल्पनाओं का अपरिपक्क परन्तु बलवान झगडा विश्व में छाया हुआ है। भारत भी उसमें उलझ गया है। विश्व के ज्ञानक्षेत्र के लिये यदि विपरीत बात है तो वह भारत का उलझना ही है क्योंकि भारत ही यदि उलझेगा तो उलझे हुए विश्व को सुलझने में कौन सहायता करेगा ? भारत को प्रथम तो पश्चिमी शिक्षा के प्रभाव से मुक्त होकर अपने आपमें सुलझ जाना है और उस दिन वह पश्चिम सहित विश्व को सही मार्ग दिखाने की भूमिका निभायेगा।

पश्चिम में तंत्रज्ञान का कहर

References

भारतीय शिक्षा : वैश्विक संकटों का निवारण भारतीय शिक्षा (भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला ५), प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे