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=== अध्याय २७ ===
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== कामकेन्द्री जीवनव्यवस्था ==
 
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=== कामकेन्द्री जीवनव्यवस्था ===
   
मनुष्य को जीवन के लिये अनेक पदार्थों की आवश्यकता होती है। उसे अन्न चाहिये, वस्त्र चाहिये, मकान चाहिये, सुविधाओं के लिये भी अनेक प्रकार की वस्तुयें चाहिये । हवा, पानी, प्रकाश, वाहन आदि चाहिये । आवश्यकताओं के साथ साथ मनुष्य की इच्छायें भी होती हैं। आवश्यकतायें जीवित रहने के लिये होती हैं, सुरक्षा के लिये होती हैं, कुछ मात्रा में सुविधा के लिये होती हैं, परन्तु इच्छायें मन को खुश करने के लिये होती हैं। आवश्यकतायें सीमित होती हैं परन्तु इच्छायें अनन्त होती हैं । एक इच्छा पूर्ण करो तो और नई जगती हैं।
 
मनुष्य को जीवन के लिये अनेक पदार्थों की आवश्यकता होती है। उसे अन्न चाहिये, वस्त्र चाहिये, मकान चाहिये, सुविधाओं के लिये भी अनेक प्रकार की वस्तुयें चाहिये । हवा, पानी, प्रकाश, वाहन आदि चाहिये । आवश्यकताओं के साथ साथ मनुष्य की इच्छायें भी होती हैं। आवश्यकतायें जीवित रहने के लिये होती हैं, सुरक्षा के लिये होती हैं, कुछ मात्रा में सुविधा के लिये होती हैं, परन्तु इच्छायें मन को खुश करने के लिये होती हैं। आवश्यकतायें सीमित होती हैं परन्तु इच्छायें अनन्त होती हैं । एक इच्छा पूर्ण करो तो और नई जगती हैं।
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ऐसा कामजीवन पश्चिम को दुर्गति और विनाश की ओर ले जा रहा है और पश्चिम के पीछे जाने वाला विश्व भी उसी मार्ग पर जायेगा इसमें कोई आश्चर्य नहीं । विश्व को और पश्चिम को इस दुर्गति से बचाना भारत का दायित्व है।
 
ऐसा कामजीवन पश्चिम को दुर्गति और विनाश की ओर ले जा रहा है और पश्चिम के पीछे जाने वाला विश्व भी उसी मार्ग पर जायेगा इसमें कोई आश्चर्य नहीं । विश्व को और पश्चिम को इस दुर्गति से बचाना भारत का दायित्व है।
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=== अर्थपरायण जीवनरचना ===
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== अर्थपरायण जीवनरचना ==
अनगिनत कामनाओं की पूर्ति के लिये असंख्य पदार्थ चाहिये। उन्हें प्राप्त करने के लिये प्रयास भी करने होते हैं। कामनायें मनुष्य के अन्तःकरण में निहित होती हैं, उन्हें प्राप्त नहीं करना होता है। कामनाओं की पूर्ति हेतु आवश्यक पदार्थ बाहर होते हैं, उन्हें प्राप्त करने हेतु प्रयास करने होते
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अनगिनत कामनाओं की पूर्ति के लिये असंख्य पदार्थ चाहिये। उन्हें प्राप्त करने के लिये प्रयास भी करने होते हैं। कामनायें मनुष्य के अन्तःकरण में निहित होती हैं, उन्हें प्राप्त नहीं करना होता है। कामनाओं की पूर्ति हेतु आवश्यक पदार्थ बाहर होते हैं, उन्हें प्राप्त करने हेतु प्रयास करने होते हैं।
    
पश्चिम का सारा जीवन असंख्य संसाधन प्राप्त करने में बीतता है। कामनापूर्ति और अर्थप्राप्ति जीवन के केन्द्र में होते हैं।  
 
पश्चिम का सारा जीवन असंख्य संसाधन प्राप्त करने में बीतता है। कामनापूर्ति और अर्थप्राप्ति जीवन के केन्द्र में होते हैं।  
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व्यापार के दो आयाम हैं। एक है उत्पादन और दूसरा वितरण ।
 
व्यापार के दो आयाम हैं। एक है उत्पादन और दूसरा वितरण ।
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उत्पादन के क्षेत्र में पश्चिम ने दो कारकों को काम में लगाया । एक थे यन्त्र और दूसरे थे मजदूर । दोनों उनके लिये दास हैं । उन्होंने उत्पादन का स्वामित्व अपने पास रखा । जब तक इंधन की ऊर्जा से चलने वाले यन्त्र नहीं थे तब तक मनुष्यों से उत्पादन का काम करवाया जाता था। काम करने वाले लोग उनके लिये मजदर थे जिनके साथ गुलामों जैसा व्यवहार किया जाता था।
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उत्पादन के क्षेत्र में पश्चिम ने दो कारकों को काम में लगाया । एक थे यन्त्र और दूसरे थे मजदूर । दोनों उनके लिये दास हैं । उन्होंने उत्पादन का स्वामित्व अपने पास रखा । जब तक इंधन की ऊर्जा से चलने वाले यन्त्र नहीं थे तब तक मनुष्यों से उत्पादन का काम करवाया जाता था। काम करने वाले लोग उनके लिये मजदूर थे जिनके साथ गुलामों जैसा व्यवहार किया जाता था।
 
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जो केवल पैसा लगाता है और स्वयं काम नहीं करता अपितु पैसा देकर दूसरों से काम करवाता है वह मालिक है, स्वामी है, बडा है, श्रेष्ठ है, अधिकारी है और जो प्रत्यक्ष काम करके उत्पादन करता है परन्तु काम पर और उत्पादन पर जिसका कोई अधिकार नहीं है वह मजदूर है, नौकर है, गुलाम है। काम और काम के अधिकार का सम्बन्ध विच्छेद आज पश्चिम के माध्यम से विश्वभर में फैल गया है। अर्थव्यवस्था में नौकरी एक अनिवार्य और सबसे अधिक स्थान घेरने वाला घटक बन गया है। काम और श्रम की प्रतिष्ठा समाप्त हो गई है। सम्पूर्ण विश्व की मानसिकता पर इस का गहरा प्रभाव हुआ है। सर्वसामान्य मनुष्य अपने आपको नौकर की हैसियत ।
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से ही देखता है। उत्पादन की प्रक्रिया में उसे आनन्द नहीं मिलता, रस नहीं आता और उत्पादित वस्तु के प्रति उसे अपनत्व और प्रेम नहीं है। उसकी कल्पनाशीलता और सृजनशीलता नष्ट हो गई है क्योंकि वह काम उसका नहीं है। उत्पादन प्रक्रिया में आनन्द नहीं मिलने के कारण वह अन्य बातों में आनन्द ढूँढता है। नृत्य, गीत, नाटक, होटेल, प्रवास आदि सब आनन्द की खोज में से निकले हैं। उनका उपभोग कर सके इसलिये काम से मुक्ति चाहिये। सप्ताह में एक दिन या दो दिन की छुट्टी का प्रचलन इसी में से हुआ है। काम में आनन्द नहीं और आनन्द के लिये काम नहीं । सप्ताह के पाँच दिन मजदूर बनकर पैसा कमाना और दो दिन उन पैसों से उन्मुक्त होकर कामनापूर्ति करना, मौज मनाना, चैन करना ऐसे दो भागों में जीवन बँट गया है। विभाजन की यह प्रक्रिया सर्व क्षेत्रों में विशृंखलता को ही जन्म देती है। व्यक्तिगत और प्रजागत जीवन छितरा हुआ बन जाता है।
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जो केवल पैसा लगाता है और स्वयं काम नहीं करता अपितु पैसा देकर दूसरों से काम करवाता है वह मालिक है, स्वामी है, बडा है, श्रेष्ठ है, अधिकारी है और जो प्रत्यक्ष काम करके उत्पादन करता है परन्तु काम पर और उत्पादन पर जिसका कोई अधिकार नहीं है वह मजदूर है, नौकर है, गुलाम है। काम और काम के अधिकार का सम्बन्ध विच्छेद आज पश्चिम के माध्यम से विश्वभर में फैल गया है। अर्थव्यवस्था में नौकरी एक अनिवार्य और सबसे अधिक स्थान घेरने वाला घटक बन गया है। काम और श्रम की प्रतिष्ठा समाप्त हो गई है। सम्पूर्ण विश्व की मानसिकता पर इस का गहरा प्रभाव हुआ है। सर्वसामान्य मनुष्य अपने आपको नौकर की हैसियत से ही देखता है। उत्पादन की प्रक्रिया में उसे आनन्द नहीं मिलता, रस नहीं आता और उत्पादित वस्तु के प्रति उसे अपनत्व और प्रेम नहीं है। उसकी कल्पनाशीलता और सृजनशीलता नष्ट हो गई है क्योंकि वह काम उसका नहीं है। उत्पादन प्रक्रिया में आनन्द नहीं मिलने के कारण वह अन्य बातों में आनन्द ढूँढता है। नृत्य, गीत, नाटक, होटेल, प्रवास आदि सब आनन्द की खोज में से निकले हैं। उनका उपभोग कर सके इसलिये काम से मुक्ति चाहिये। सप्ताह में एक दिन या दो दिन की छुट्टी का प्रचलन इसी में से हुआ है। काम में आनन्द नहीं और आनन्द के लिये काम नहीं । सप्ताह के पाँच दिन मजदूर बनकर पैसा कमाना और दो दिन उन पैसों से उन्मुक्त होकर कामनापूर्ति करना, मौज मनाना, चैन करना ऐसे दो भागों में जीवन बँट गया है। विभाजन की यह प्रक्रिया सर्व क्षेत्रों में विशृंखलता को ही जन्म देती है। व्यक्तिगत और प्रजागत जीवन छितरा हुआ बन जाता है।
    
उत्पादनप्रक्रिया में जबसे इंधन की ऊर्जा से संचालित यन्त्रों का उपयोग होने लगा है तब से काम करने वाले मजदूर की कठिनाई और बढी है। अब वह केवल मालिक का ही नहीं तो यन्त्र का भी दास बन गया है। अब उत्पादन भी वह नहीं कर रहा है। नौकर के रूप में भी उसका काम यन्त्र को चलने में सहायक होना है। यन्त्र जैसी निर्जीव सत्ता के साथ उसे अनुकूलन करना पड़ता है। मनुष्य अपने आपको हीन अनुबव करने लगता है।
 
उत्पादनप्रक्रिया में जबसे इंधन की ऊर्जा से संचालित यन्त्रों का उपयोग होने लगा है तब से काम करने वाले मजदूर की कठिनाई और बढी है। अब वह केवल मालिक का ही नहीं तो यन्त्र का भी दास बन गया है। अब उत्पादन भी वह नहीं कर रहा है। नौकर के रूप में भी उसका काम यन्त्र को चलने में सहायक होना है। यन्त्र जैसी निर्जीव सत्ता के साथ उसे अनुकूलन करना पड़ता है। मनुष्य अपने आपको हीन अनुबव करने लगता है।
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भारत की दृष्टि से बैंक, बीमा और सेवाक्षेत्र अर्थव्यवस्था के अत्यन्त विनाशक आयाम है क्योंकि ये छलनापूर्ण तों से चलते हैं, मानवीय गुणों को नष्ट करते हैं और एक आभासी व्यवस्था पैदा करते हैं जिसका कोई वास्तविक मूल्य नहीं है । सांस्कृतिक दृष्टि से तो ये अनर्थक हैं ही।
 
भारत की दृष्टि से बैंक, बीमा और सेवाक्षेत्र अर्थव्यवस्था के अत्यन्त विनाशक आयाम है क्योंकि ये छलनापूर्ण तों से चलते हैं, मानवीय गुणों को नष्ट करते हैं और एक आभासी व्यवस्था पैदा करते हैं जिसका कोई वास्तविक मूल्य नहीं है । सांस्कृतिक दृष्टि से तो ये अनर्थक हैं ही।
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मनुष्य की श्रेष्ठता समाप्त कर उसे गुलाम बनाना, बुद्धि, कल्पना, सृजन की शक्तियों को निकृष्ट स्तर पर लाना, विश्व को आर्थिक, पर्यावरणीय और आरोग्यकीय संकट में डाल देना इतना ही नहीं तो विनाश के प्रति ले जाना ये पश्चिमी अर्थसंकल्पना के मानवता के प्रति अपराध है।
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मनुष्य की श्रेष्ठता समाप्त कर उसे गुलाम बनाना, बुद्धि, कल्पना, सृजन की शक्तियों को निकृष्ट स्तर पर लाना, विश्व को आर्थिक, पर्यावरणीय और आरोग्यकीय संकट में डाल देना इतना ही नहीं तो विनाश के प्रति ले जाना ये पश्चिमी अर्थसंकल्पना के मानवता के प्रति अपराध हैं ।
    
इस अर्थसंकल्पना के आधार पर पश्चिम ने अपनी विकास की संकल्पना को विश्व पर थोपा है। इसके आधार पर विश्व के देशों को विकसित और विकासशील ऐसी श्रेणियों में विभाजित किया है। इसी संकल्पना के आधार पर विश्व पर आधिपत्य जमाने का प्रयास किया है। शस्रों का, पेट्रोलियम का और मादक द्रव्यों का व्यापार उनके लिये समृद्धि की कुंजी है। युद्धों को प्रोत्साहन देना उन्हें लाभदायक लगता है। मादक द्रव्यों का सेवन उनके अपने लिये मजदूरी भी है और दूसरी ओर पैसा कमाने का सरल उपाय भी है।
 
इस अर्थसंकल्पना के आधार पर पश्चिम ने अपनी विकास की संकल्पना को विश्व पर थोपा है। इसके आधार पर विश्व के देशों को विकसित और विकासशील ऐसी श्रेणियों में विभाजित किया है। इसी संकल्पना के आधार पर विश्व पर आधिपत्य जमाने का प्रयास किया है। शस्रों का, पेट्रोलियम का और मादक द्रव्यों का व्यापार उनके लिये समृद्धि की कुंजी है। युद्धों को प्रोत्साहन देना उन्हें लाभदायक लगता है। मादक द्रव्यों का सेवन उनके अपने लिये मजदूरी भी है और दूसरी ओर पैसा कमाने का सरल उपाय भी है।
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भारत की सहज बुद्धि का कथन है, 'अर्थातुराणां न गुरुर्न बन्धुः' - जिनके ऊपर अर्थ सवार हो गया है उसके लिये कोई गुरु नहीं है, कोई स्वजन नहीं है। अर्थ से पीडित पश्चिम ने विश्व में अनात्मीयता का रोग फैला दिया है। इस रोग की चपेट में विश्व के सारे देश विभिन्न कारणों से आ गये हैं। कोई दुर्बल हैं इसलिये, कोई प्रभावित हो गये हैं इसलिये, भारत जैसे लोग हीनता बोध से ग्रस्त हो गये हैं इसलिये और कोई समर्थ बनने की स्पर्धा में हार गये हैं इसलिये पश्चिम की अर्थसंकल्पना का स्वीकार कर चुके हैं। यह एक महारोग है जिससे विश्व को मुक्त करना भारत जैसे समर्थ राष्ट्र के लिये ही सम्भव है, यदि वह अपने हीनताबोध से मुक्त होकर अपने आपको समर्थ माने तो।
 
भारत की सहज बुद्धि का कथन है, 'अर्थातुराणां न गुरुर्न बन्धुः' - जिनके ऊपर अर्थ सवार हो गया है उसके लिये कोई गुरु नहीं है, कोई स्वजन नहीं है। अर्थ से पीडित पश्चिम ने विश्व में अनात्मीयता का रोग फैला दिया है। इस रोग की चपेट में विश्व के सारे देश विभिन्न कारणों से आ गये हैं। कोई दुर्बल हैं इसलिये, कोई प्रभावित हो गये हैं इसलिये, भारत जैसे लोग हीनता बोध से ग्रस्त हो गये हैं इसलिये और कोई समर्थ बनने की स्पर्धा में हार गये हैं इसलिये पश्चिम की अर्थसंकल्पना का स्वीकार कर चुके हैं। यह एक महारोग है जिससे विश्व को मुक्त करना भारत जैसे समर्थ राष्ट्र के लिये ही सम्भव है, यदि वह अपने हीनताबोध से मुक्त होकर अपने आपको समर्थ माने तो।
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=== कार्य का आत्मघाती अर्थघटन ===
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== कार्य का आत्मघाती अर्थघटन ==
'''नंदिनी जोशी'''
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हमारे समाज में वेतन का ढाँचा कितना विचित्र है, तनिक इस ओर तो देखिए ।
 
हमारे समाज में वेतन का ढाँचा कितना विचित्र है, तनिक इस ओर तो देखिए ।
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आज वेतन का सम्बन्ध कार्य की उपयोगिता अथवा अन्य किसी आदर्श के साथ नहीं रहा । आज यह सम्बन्ध, व्यक्ति को काम कितने बड़े तंत्र में मिला है इसके साथ जुड़ गया है। किसी बहुराष्ट्रीय कम्पनी के कार ड्राइवर को तो अच्छा वेतन मिलता है, परन्तु उसी गाँव की प्राथमिक शाला के शिक्षक को इतना कम वेतन मिलता है कि उसे अपनी गृहस्थी चलाने में भी पापड़ बेलने पड़ते हैं । यह कारण ऐसा है जिसे हम दूर कर सकते हैं ।
 
आज वेतन का सम्बन्ध कार्य की उपयोगिता अथवा अन्य किसी आदर्श के साथ नहीं रहा । आज यह सम्बन्ध, व्यक्ति को काम कितने बड़े तंत्र में मिला है इसके साथ जुड़ गया है। किसी बहुराष्ट्रीय कम्पनी के कार ड्राइवर को तो अच्छा वेतन मिलता है, परन्तु उसी गाँव की प्राथमिक शाला के शिक्षक को इतना कम वेतन मिलता है कि उसे अपनी गृहस्थी चलाने में भी पापड़ बेलने पड़ते हैं । यह कारण ऐसा है जिसे हम दूर कर सकते हैं ।
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इनके कारण आज मनुष्य को 'अर्थभोगी जीव' की भाँति देखा जाता है। वैज्ञानकिों से लेकर कलाकारों तक सब को अपनी खोज और कला सेवा के लिए नहीं अपितु वे कितने _पैसे या सत्ता प्राप्त करने में काम आयेंगे इस आधार पर भुनाये जाने के काम आते हैं । ज्ञान और कला को समस्त मानवजाति की प्रगति की राह में प्रकाश फैलाने के लिए मुक्त रहने देने के स्थान पर वे उन्हें थोड़ी नफाखोरी की एषणाओं को पूर्ण करने की हद तक ले आये हैं।
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इनके कारण आज मनुष्य को 'अर्थभोगी जीव' की भाँति देखा जाता है। वैज्ञानकिों से लेकर कलाकारों तक सब को अपनी खोज और कला सेवा के लिए नहीं अपितु वे कितने पैसे या सत्ता प्राप्त करने में काम आयेंगे इस आधार पर भुनाये जाने के काम आते हैं । ज्ञान और कला को समस्त मानवजाति की प्रगति की राह में प्रकाश फैलाने के लिए मुक्त रहने देने के स्थान पर वे उन्हें थोड़ी नफाखोरी की एषणाओं को पूर्ण करने की हद तक ले आये हैं।
    
बड़े तंत्र में अधिक वेतन मिले इसके लिए दिये जाने वाले वेतनमान के कारण में आज का अर्थतंत्र, बिचौलिये व्यक्ति, प्रशासनिक तंत्र और क्षुद्र व्यापारियों द्वारा सेवाओं की मोटी जंजीरें खड़ी कर दी गई हैं । हम सब इस भार तले कुचले जा रहे हैं। क्यों कि इस पद्धति से लगाये हुए व्यक्ति मात्र तन्त्र को ही और अधिक मजबूत करते हैं । ये लोग कभी भी कोई सीधा उत्पादन नहीं करते, परन्तु ग्राहकों को तो उनका वेतन वस्तु के मूल के रूप में चुकाना ही पड़ता है।
 
बड़े तंत्र में अधिक वेतन मिले इसके लिए दिये जाने वाले वेतनमान के कारण में आज का अर्थतंत्र, बिचौलिये व्यक्ति, प्रशासनिक तंत्र और क्षुद्र व्यापारियों द्वारा सेवाओं की मोटी जंजीरें खड़ी कर दी गई हैं । हम सब इस भार तले कुचले जा रहे हैं। क्यों कि इस पद्धति से लगाये हुए व्यक्ति मात्र तन्त्र को ही और अधिक मजबूत करते हैं । ये लोग कभी भी कोई सीधा उत्पादन नहीं करते, परन्तु ग्राहकों को तो उनका वेतन वस्तु के मूल के रूप में चुकाना ही पड़ता है।
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लाभ की सतत गिनती वेतन के बदले... खर्च के अर्थात् मनुष्य के बदले मशीनें उपयोग में लेने के लिए गुणा-भाग करती ही रहती है । अर्थात् काम मिला है, उन व्यक्तियों के मस्तक पर भी सतत चिंता की तलवार लटकती रहती है । इस गलाकाट स्पर्धा में टिकने की माथाफोड़ी अनेक लोगों की स्वतन्त्र विचार करने की शक्ति को भी घटाती है, ऐसा नवीनतम शोधों का निष्कर्ष है।
 
लाभ की सतत गिनती वेतन के बदले... खर्च के अर्थात् मनुष्य के बदले मशीनें उपयोग में लेने के लिए गुणा-भाग करती ही रहती है । अर्थात् काम मिला है, उन व्यक्तियों के मस्तक पर भी सतत चिंता की तलवार लटकती रहती है । इस गलाकाट स्पर्धा में टिकने की माथाफोड़ी अनेक लोगों की स्वतन्त्र विचार करने की शक्ति को भी घटाती है, ऐसा नवीनतम शोधों का निष्कर्ष है।
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आज के इस तंत्र में काम और बुद्धि के मध्य का सम्बन्ध टूट गया है। इस कारण से तंत्र भी टूटने की कगार पर है। आज के उद्योग में काम करने वाले कारीगर को अपने काम की कोई जवाबदारी है, ऐसा लगता ही नहीं है । इसी प्रकार अपने काम का गौरव भी अनुभव में नहीं आता । इस कारण से वस्तुओं की कलात्मकता और कारीगिरी भी घटती जा रही है। कामदार के मनमें काम का हेतु मात्र पैसा कमाना है, जबकि मालिक के मनमें इसका एक मात्र हेतु लाभ कमाना
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आज के इस तंत्र में काम और बुद्धि के मध्य का सम्बन्ध टूट गया है। इस कारण से तंत्र भी टूटने की कगार पर है। आज के उद्योग में काम करने वाले कारीगर को अपने काम की कोई जवाबदारी है, ऐसा लगता ही नहीं है । इसी प्रकार अपने काम का गौरव भी अनुभव में नहीं आता । इस कारण से वस्तुओं की कलात्मकता और कारीगिरी भी घटती जा रही है। कामदार के मनमें काम का हेतु मात्र पैसा कमाना है, जबकि मालिक के मनमें इसका एक मात्र हेतु लाभ कमाना है।
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आज के समाज में कार्य का जिस प्रकार से विचार किया जाता है, वह अत्यधिक भयावह है। कार्य को पैसा कमाने के साधन के रूप में देखा जा रहा है। इसके द्वारा जो पैसे मिलते हैं, उनके अतिरिक्त यह भार स्वरूप है । व्यक्ति बिना पैसे मुफ्त में काम नहीं करता, जबकी अधिकाधिक छट्टी लेना तथा कम से कम काम करना यह उसका ध्येय बन गया है।
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आज के समाज में कार्य का जिस प्रकार से विचार किया जाता है, वह अत्यधिक भयावह है। कार्य को पैसा कमाने के साधन के रूप में देखा जा रहा है। इसके द्वारा जो पैसे मिलते हैं, उनके अतिरिक्त यह भार स्वरूप है । व्यक्ति बिना पैसे मुफ्त में काम नहीं करता, जबकी अधिकाधिक छुट्टी लेना तथा कम से कम काम करना यह उसका ध्येय बन गया है।
    
वास्तव में तो इसका बिल्कुल विपरीत होना चाहिए । कार्य तो व्यक्ति जीवन का मुख्य ध्येय और आत्मिक आनन्द होना चाहिए । व्यक्ति के व्यक्तित्व को, उसकी शक्तियों को कार्य के द्वारा बाहर आने का अवसर मिलना चाहिए । कार्य को तो जीवन अर्थपूर्ण, हेतुपूर्ण, आनन्दपूर्ण बनाने के साधन के रूप में देखना चाहिए । कार्य के द्वारा आजीविका चलाने का हेतु तो आनुवांशिक रूप में अनायास प्राप्त होना चाहिए।
 
वास्तव में तो इसका बिल्कुल विपरीत होना चाहिए । कार्य तो व्यक्ति जीवन का मुख्य ध्येय और आत्मिक आनन्द होना चाहिए । व्यक्ति के व्यक्तित्व को, उसकी शक्तियों को कार्य के द्वारा बाहर आने का अवसर मिलना चाहिए । कार्य को तो जीवन अर्थपूर्ण, हेतुपूर्ण, आनन्दपूर्ण बनाने के साधन के रूप में देखना चाहिए । कार्य के द्वारा आजीविका चलाने का हेतु तो आनुवांशिक रूप में अनायास प्राप्त होना चाहिए।
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इसका सबसे भयंकर परिणाम तो यह आया है कि जिन्दगी का मुख्य समय अथवा जो काम करने के लिए पीछे जाता है वह समय का एक प्रकार का बिगाड़ है। इसमें से जितने पैसे मिलते हैं, उतने खर्च करना ही उसका अर्थ है । जिन्दगी का हेतु शाम को, रविवार को या छुट्टी के दिन ही है। कार्य का इस प्रकार का अर्थघटन करने से अधिक आत्मघाती अन्य विचार और क्या हो सकता है ?
 
इसका सबसे भयंकर परिणाम तो यह आया है कि जिन्दगी का मुख्य समय अथवा जो काम करने के लिए पीछे जाता है वह समय का एक प्रकार का बिगाड़ है। इसमें से जितने पैसे मिलते हैं, उतने खर्च करना ही उसका अर्थ है । जिन्दगी का हेतु शाम को, रविवार को या छुट्टी के दिन ही है। कार्य का इस प्रकार का अर्थघटन करने से अधिक आत्मघाती अन्य विचार और क्या हो सकता है ?
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वास्तविकता में तो हमारे लिए हमारे कार्य का अर्थ नकारात्मक होना ही नहीं चाहिए कि उसकी भरपाई पैसों से की जा सके । गाँधीजीने अमूल्य सलाह दी थी, 'अपने कार्य का मूल्य पैसों में मत आँको । हमारा कार्य दूसरे लोगों की सेवा में काम आये, उसमें आँको । व्यक्ति को कार्य करने का आकर्षण यह होना चाहिए कि मेरा कार्य उसे पसन्द आया । दूसरों की सेवा करने के लिए स्वयं अपना तम मन लगा दे। और एक सच्चे सैनिक की भाँति समाज के लिए मरने को भी उद्यत हो जाय । क्योंकि अन्त में जो मरने के लिए तैयार नहीं, उसे क्या पता कि जीना क्या होता है ?
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वास्तविकता में तो हमारे लिए हमारे कार्य का अर्थ नकारात्मक होना ही नहीं चाहिए कि उसकी भरपाई पैसों से की जा सके । गाँधीजीने अमूल्य सलाह दी थी, 'अपने कार्य का मूल्य पैसों में मत आँको । हमारा कार्य दूसरे लोगों की सेवा में काम आये, उसमें आँको । व्यक्ति को कार्य करने का आकर्षण यह होना चाहिए कि मेरा कार्य उसे पसन्द आया । दूसरों की सेवा करने के लिए स्वयं अपना तम मन लगा दे। और एक सच्चे सैनिक की भाँति समाज के लिए मरने को भी उद्यत हो जाय । क्योंकि अन्त में जो मरने के लिए तैयार नहीं, उसे क्या पता कि जीना क्या होता है ? '
    
ऐसा कब होगा ? कैसे होगा ? ऐसी आदर्श व्यवस्था किस प्रकार स्थापित हो ? इसका उत्तर हमने पहले विचारा है । आजकल बड़ी भारी मशीने और बड़े वैश्विक बाजार के लिए थोक उत्पादन का जो तंत्र है, उनके स्थान पर स्थानीय उपभोग हेतु स्थानीय उत्पादन तंत्र शुरु करके हो सकती है। और इसका प्रारम्भ गाँव में कपड़े का उत्पादन सादे चरखे के द्वारा हो सकता है। इस तरह से कपड़ें का उत्पादन करने से गाँव के लोगों का भी बहुत फायदा है तथा पैसे, तकनीक, सरकार तथा यह सब व्यवस्था करने वालों की गरज भी नहीं रहती । गाँव वाले स्वतन्त्रता पूर्वक अपना काम स्वयं कर सकते हैं।
 
ऐसा कब होगा ? कैसे होगा ? ऐसी आदर्श व्यवस्था किस प्रकार स्थापित हो ? इसका उत्तर हमने पहले विचारा है । आजकल बड़ी भारी मशीने और बड़े वैश्विक बाजार के लिए थोक उत्पादन का जो तंत्र है, उनके स्थान पर स्थानीय उपभोग हेतु स्थानीय उत्पादन तंत्र शुरु करके हो सकती है। और इसका प्रारम्भ गाँव में कपड़े का उत्पादन सादे चरखे के द्वारा हो सकता है। इस तरह से कपड़ें का उत्पादन करने से गाँव के लोगों का भी बहुत फायदा है तथा पैसे, तकनीक, सरकार तथा यह सब व्यवस्था करने वालों की गरज भी नहीं रहती । गाँव वाले स्वतन्त्रता पूर्वक अपना काम स्वयं कर सकते हैं।
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कपड़े के कारण बाद में अन्य उद्योग भी शुरु होने से गाँव अति समृद्ध बन सकता है । प्रत्येक को उनमें कार्यकरने के अवसर मिल सकते हैं। मात्र कार्य मिलेगा इतना ही नहीं तो अर्थपूर्ण कार्य मिलेगा, कार्य करने का आनन्द मिलेगा। कार्य करके आजीविका मिलेगी इतना ही नहीं तो समाज को कुछ प्रदान करने का सन्तोष मिलेगा। गौरव मिलेगा। आजकल की गलाकाट स्पर्धा के वातावरण में प्रतिस्पर्धी को पछाड़ने का हेतु मुख्य होता है । उसके स्थान पर किसी का शोषण किये बिना और अपना भी शोषण हुए बिना सब कार्य कर सकें। जिससे कार्य का बोझ मिटकर प्रेमपूर्वक तथा आनन्दपूर्वक सबकी सेवा हो सके । ऐसा कार्य करने से जीवन की सार्थकता मिलती है।
 
कपड़े के कारण बाद में अन्य उद्योग भी शुरु होने से गाँव अति समृद्ध बन सकता है । प्रत्येक को उनमें कार्यकरने के अवसर मिल सकते हैं। मात्र कार्य मिलेगा इतना ही नहीं तो अर्थपूर्ण कार्य मिलेगा, कार्य करने का आनन्द मिलेगा। कार्य करके आजीविका मिलेगी इतना ही नहीं तो समाज को कुछ प्रदान करने का सन्तोष मिलेगा। गौरव मिलेगा। आजकल की गलाकाट स्पर्धा के वातावरण में प्रतिस्पर्धी को पछाड़ने का हेतु मुख्य होता है । उसके स्थान पर किसी का शोषण किये बिना और अपना भी शोषण हुए बिना सब कार्य कर सकें। जिससे कार्य का बोझ मिटकर प्रेमपूर्वक तथा आनन्दपूर्वक सबकी सेवा हो सके । ऐसा कार्य करने से जीवन की सार्थकता मिलती है।
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कविवर रवीन्द्रनाथ ठाकरने कहा है कि 'जिन दिनों संस्कृति विविध रूपा नहीं होती, उन दिनों में विद्वान और ऋषि, वीर और दानवीर धनवान की तुलना में अधिक पूजे जाते हैं। उन्हें सम्मान देकर मानवता स्वयं सम्मान पाती है। मात्र पैसा कमाने वाले को तो लोग शंका की नजरों से देखते...'
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कविवर रवीन्द्रनाथ ठाकुरने कहा है कि 'जिन दिनों संस्कृति विविध रूपा नहीं होती, उन दिनों में विद्वान और ऋषि, वीर और दानवीर धनवान की तुलना में अधिक पूजे जाते हैं। उन्हें सम्मान देकर मानवता स्वयं सम्मान पाती है। मात्र पैसा कमाने वाले को तो लोग शंका की नजरों से देखते...'
    
जिस प्रकार आज की राजनीति में राष्ट्रों के अनहद अहम का टकराव बन गया है, उसी प्रकार आजीविका प्राप्त करने का तरीका भी व्यक्ति की आत्यन्तिक स्पर्धा की खटपट बन गई है ....... और फिर व्यक्ति तो व्यक्ति है । इसलिए इसे अपने धन्धे में मात्र रोजरोज की रोटी ही नहीं अपितु सनातन सत्य भी कमाना है।  
 
जिस प्रकार आज की राजनीति में राष्ट्रों के अनहद अहम का टकराव बन गया है, उसी प्रकार आजीविका प्राप्त करने का तरीका भी व्यक्ति की आत्यन्तिक स्पर्धा की खटपट बन गई है ....... और फिर व्यक्ति तो व्यक्ति है । इसलिए इसे अपने धन्धे में मात्र रोजरोज की रोटी ही नहीं अपितु सनातन सत्य भी कमाना है।  
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२. टोवर्ड्स युनिवर्सिल मेन, नई दिल्ली : एशिया पब्लिसिंग हाउस, १९६१ पृष्ठ ३१-३२ और ४९ से व्यथा और विकल्प से साभार
 
२. टोवर्ड्स युनिवर्सिल मेन, नई दिल्ली : एशिया पब्लिसिंग हाउस, १९६१ पृष्ठ ३१-३२ और ४९ से व्यथा और विकल्प से साभार
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=== पश्चिम का विज्ञानं विषयक अवैज्ञानिक दृष्टिकोण ===
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== पश्चिम का विज्ञानं विषयक अवैज्ञानिक दृष्टिकोण ==
ज्ञानविश्व में 'विज्ञान' संज्ञा की बडी प्रतिष्ठा है। भारत के शास्त्रों में तो विज्ञान की बडी सरल व्याख्या की गई है है। ज्ञान तक पहुँचने की प्रक्रिया और पद्धति को विज्ञान कहते हैं। यह बुद्धिनिष्ठ है। जीवन के सर्वक्षेत्रों में इसकी व्याप्ति है। शरीरविज्ञान से लेकर अध्यात्मविज्ञान तक और पदार्थविज्ञान से लेकर सृष्टिविज्ञान तक इसकी व्याप्ति है। यह पृथ्वी, जल, ग्रह, नक्षत्र, मन, बुद्धि आत्मा आदि क्या हैं यह भी बताता है और भोजन कैसे बनाया जाता है यहां से लेकर आत्मरक्षात्कार कैसे होता है यह भी बताता है। भोजन के पदार्थ खाने के बाद क्या क्या होता है से लेकर समाधि अवस्था में पहँचने पर क्या होता है यह भी समझाना है। विश्व की सभी घटनाओं, व्यवहारों, स्थितियों, प्रक्रियाओं का ज्ञानात्मक विवरण देना विज्ञान का काम है।
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ज्ञानविश्व में 'विज्ञान' संज्ञा की बडी प्रतिष्ठा है। भारत के शास्त्रों में तो विज्ञान की बडी सरल व्याख्या की गई है है। ज्ञान तक पहुँचने की प्रक्रिया और पद्धति को विज्ञान कहते हैं। यह बुद्धिनिष्ठ है। जीवन के सर्वक्षेत्रों में इसकी व्याप्ति है। शरीरविज्ञान से लेकर अध्यात्मविज्ञान तक और पदार्थविज्ञान से लेकर सृष्टिविज्ञान तक इसकी व्याप्ति है। यह पृथ्वी, जल, ग्रह, नक्षत्र, मन, बुद्धि आत्मा आदि क्या हैं यह भी बताता है और भोजन कैसे बनाया जाता है यहां से लेकर आत्मरक्षात्कार कैसे होता है यह भी बताता है। भोजन के पदार्थ खाने के बाद क्या क्या होता है से लेकर समाधि अवस्था में पहुँचने पर क्या होता है यह भी समझाना है। विश्व की सभी घटनाओं, व्यवहारों, स्थितियों, प्रक्रियाओं का ज्ञानात्मक विवरण देना विज्ञान का काम है।
    
परन्तु पश्चिम ने विज्ञान को अत्यन्त सीमित क्षेत्र में बद्ध कर दिया है। शास्त्रीय दृष्टि से नहीं अपितु कामदृष्टि और अर्थदृष्टि से प्रेरित होकर पश्चिम ने विश्व में भौतिक विज्ञान को ही विज्ञान के रूप में प्रतिष्ठित कर दिया है। भारत की भाषा में कहें तो अन्नमय और प्राणमय कोश भौतिक विज्ञान के दायरे में आता है। भौतिक विज्ञान को पदार्थ विज्ञान भी कहा जाता है। इससे ब्रह्माण्ड में व्याप्त पंचमहाभूत और उन्हें संचालित करनेवाले और नियमन में रखने वाले तत्त्वों का बोध होता है। इस दृष्टि से गुरुत्वाकर्षण का नियम, सापेक्षता, पदार्थों के गुणधर्म, पदार्थों का व्यवहार, ग्रहों और नक्षत्रों की स्थिति, गति और प्रभाव मनुष्य के भी शरीर और प्राणों का स्वभाव आदि सब भौतिक विज्ञान के दायरे में आता है। पश्चिम इसे सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण मानता है, इतना महत्त्वपूर्ण कि शेष सारी बातों के लिये भौतिक विज्ञान के ही मानक लागू किये जाते हैं। एक दो उदाहरण देखना उपयोगी रहेगा।
 
परन्तु पश्चिम ने विज्ञान को अत्यन्त सीमित क्षेत्र में बद्ध कर दिया है। शास्त्रीय दृष्टि से नहीं अपितु कामदृष्टि और अर्थदृष्टि से प्रेरित होकर पश्चिम ने विश्व में भौतिक विज्ञान को ही विज्ञान के रूप में प्रतिष्ठित कर दिया है। भारत की भाषा में कहें तो अन्नमय और प्राणमय कोश भौतिक विज्ञान के दायरे में आता है। भौतिक विज्ञान को पदार्थ विज्ञान भी कहा जाता है। इससे ब्रह्माण्ड में व्याप्त पंचमहाभूत और उन्हें संचालित करनेवाले और नियमन में रखने वाले तत्त्वों का बोध होता है। इस दृष्टि से गुरुत्वाकर्षण का नियम, सापेक्षता, पदार्थों के गुणधर्म, पदार्थों का व्यवहार, ग्रहों और नक्षत्रों की स्थिति, गति और प्रभाव मनुष्य के भी शरीर और प्राणों का स्वभाव आदि सब भौतिक विज्ञान के दायरे में आता है। पश्चिम इसे सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण मानता है, इतना महत्त्वपूर्ण कि शेष सारी बातों के लिये भौतिक विज्ञान के ही मानक लागू किये जाते हैं। एक दो उदाहरण देखना उपयोगी रहेगा।
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पश्चिम ने विज्ञान को धर्म और अध्यात्म के विरोध में खडा कर दिया है इतना ही नहीं तो विज्ञान को अध्यात्म से श्रेष्ठ घोषित किया है। मूलतः यह कुतर्क का बहुत बडा उदाहरण है। अध्यात्म और विज्ञान एक समूह की संकल्पनायें हैं ही नहीं जिससे उनकी तुलना कर तरतम सम्बन्ध निश्चित किया जा सके। भारत में जिसे धर्म और अध्यात्म कहते हैं वे तो पश्चिम के लिये सर्वथा अपरिचित संकल्पना है। उनके ही ज्ञानविश्व का, अपरिपक्व संकल्पनाओं का अपरिपक्क परन्तु बलवान झगडा विश्व में छाया हुआ है। भारत भी उसमें उलझ गया है। विश्व के ज्ञानक्षेत्र के लिये यदि विपरीत बात है तो वह भारत का उलझना ही है क्योंकि भारत ही यदि उलझेगा तो उलझे हुए विश्व को सुलझने में कौन सहायता करेगा ? भारत को प्रथम तो पश्चिमी शिक्षा के प्रभाव से मुक्त होकर अपने आपमें सुलझ जाना है और उस दिन वह पश्चिम सहित विश्व को सही मार्ग दिखाने की भूमिका निभायेगा।
 
पश्चिम ने विज्ञान को धर्म और अध्यात्म के विरोध में खडा कर दिया है इतना ही नहीं तो विज्ञान को अध्यात्म से श्रेष्ठ घोषित किया है। मूलतः यह कुतर्क का बहुत बडा उदाहरण है। अध्यात्म और विज्ञान एक समूह की संकल्पनायें हैं ही नहीं जिससे उनकी तुलना कर तरतम सम्बन्ध निश्चित किया जा सके। भारत में जिसे धर्म और अध्यात्म कहते हैं वे तो पश्चिम के लिये सर्वथा अपरिचित संकल्पना है। उनके ही ज्ञानविश्व का, अपरिपक्व संकल्पनाओं का अपरिपक्क परन्तु बलवान झगडा विश्व में छाया हुआ है। भारत भी उसमें उलझ गया है। विश्व के ज्ञानक्षेत्र के लिये यदि विपरीत बात है तो वह भारत का उलझना ही है क्योंकि भारत ही यदि उलझेगा तो उलझे हुए विश्व को सुलझने में कौन सहायता करेगा ? भारत को प्रथम तो पश्चिमी शिक्षा के प्रभाव से मुक्त होकर अपने आपमें सुलझ जाना है और उस दिन वह पश्चिम सहित विश्व को सही मार्ग दिखाने की भूमिका निभायेगा।
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=== पश्चिम में तंत्रज्ञान का कहर ===
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== पश्चिम में तंत्रज्ञान का कहर ==
 
तन्त्रज्ञान का शाब्दिक अर्थ भले ही अलग हो तो भी वह टैकनोलोजी के लिये स्वीकृत शब्द है। पश्चिम की टैकनोलोजी से आज सारा विश्व अभिभूत है।
 
तन्त्रज्ञान का शाब्दिक अर्थ भले ही अलग हो तो भी वह टैकनोलोजी के लिये स्वीकृत शब्द है। पश्चिम की टैकनोलोजी से आज सारा विश्व अभिभूत है।
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शुद्ध भौतिक विज्ञान के क्षेत्र में जिज्ञासा से प्रेरित होकर जो आविष्कार हुए वे निश्चितरूप से प्रशंसनीय ही थे। परन्तु अल्पबुद्धि, स्वार्थबुद्धि और दुष्टबुद्धियुक्त मनुष्य के हाथ में जब प्रभावी साधन आता है तो उसका प्रयोग कैसा होगा यह सहज ही समझ में आनेवाली बात है। विज्ञान एक प्रभावी साधन है, वह न तो अच्छा होता है न बुरा, उसका प्रयोग करनेवाले पर निर्भर करता है कि उसके प्रयोग का परिणाम अच्छा होगा कि बुरा । विज्ञान के आविष्कार हुए तब पश्चिम की खुशी और गर्व की सीमा नहीं रही। दैवयोग से उस समय इंग्लैण्ड का आधिपत्य विश्व के बड़े हिस्से पर था । इसलिये विज्ञान के आविष्कारों से जन्मे उत्साह और आनन्द का प्रभाव अन्य देशों पर भी पडा।
 
शुद्ध भौतिक विज्ञान के क्षेत्र में जिज्ञासा से प्रेरित होकर जो आविष्कार हुए वे निश्चितरूप से प्रशंसनीय ही थे। परन्तु अल्पबुद्धि, स्वार्थबुद्धि और दुष्टबुद्धियुक्त मनुष्य के हाथ में जब प्रभावी साधन आता है तो उसका प्रयोग कैसा होगा यह सहज ही समझ में आनेवाली बात है। विज्ञान एक प्रभावी साधन है, वह न तो अच्छा होता है न बुरा, उसका प्रयोग करनेवाले पर निर्भर करता है कि उसके प्रयोग का परिणाम अच्छा होगा कि बुरा । विज्ञान के आविष्कार हुए तब पश्चिम की खुशी और गर्व की सीमा नहीं रही। दैवयोग से उस समय इंग्लैण्ड का आधिपत्य विश्व के बड़े हिस्से पर था । इसलिये विज्ञान के आविष्कारों से जन्मे उत्साह और आनन्द का प्रभाव अन्य देशों पर भी पडा।
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विज्ञान की सहायता से टैकनोलोजी का अद्भुत विकास हुआ। मनुष्य का जीवन असंख्य प्रकार की सुविधों से भर गया। एक भी काम ऐसा नहीं था जो यन्त्र की सहायता से न हो । यातायात के साधन बढ गये । यातायात की गति भी बढी । सडकें, पुल, पहाड़ों पर चढने हेतु रस्सी मार्ग, पहाडों के बीच में से जाने हेतु बोगदे, पानी पर चलने वाले जहाजों के साथ साथ पानी के अन्दर चलने वाले जहाज, आकाश मार्ग से जाने हेतु हवाई जहाज, अवकाशयान, बहुमंजिला मकान, उपर चढते हेतु उद्वाहक, फर्नीचर बनाने हेतु यन्त्र और उन यन्त्रों को बनाने हेतु यन्त्र... सर्वत्र यन्त्र ही यन्त्र दिखाई देने लगे । घरों के बैठक कक्षों, शयन कक्षों, भोजन कक्षों, रसोई, स्नानघर, बगीचा आदि सर्वत्र छोटे बड़े, सरल कठिन सारे काम यन्त्रों के सहारे होने लगे। आज भी नये नये यन्त्र बनाने का यह सिलसिला जारी ही है। आज की संगणक की क्रान्ति ने जादू कर दिया है।
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विज्ञान की सहायता से टैकनोलोजी का अद्भुत विकास हुआ। मनुष्य का जीवन असंख्य प्रकार की सुविधों से भर गया। एक भी काम ऐसा नहीं था जो यन्त्र की सहायता से न हो । यातायात के साधन बढ गये । यातायात की गति भी बढी । सडकें, पुल, पहाड़ों पर चढने हेतु रस्सी मार्ग, पहाडों के बीच में से जाने हेतु बोगदे, पानी पर चलने वाले जहाजों के साथ साथ पानी के अन्दर चलने वाले जहाज, आकाश मार्ग से जाने हेतु हवाई जहाज, अवकाशयान, बहुमंजिला मकान, उपर चढते हेतु उद्वाहक, फर्नीचर बनाने हेतु यन्त्र और उन यन्त्रों को बनाने हेतु यन्त्र... सर्वत्र यन्त्र ही यन्त्र दिखाई देने लगे । घरों के बैठक कक्षों, शयन कक्षों, भोजन कक्षों, रसोई, स्नानघर, बगीचा आदि सर्वत्र छोटे बड़े, सरल कठिन सारे काम यन्त्रों के सहारे होने लगे। आज भी नये नये यन्त्र बनाने का यह सिलसिला जारी ही है। आज की संगणक की क्रान्ति ने जादू कर दिया है।
    
भौतिक विज्ञान और उसकी सहायता से विकसित अद्भुत तन्त्रज्ञान का यदि एकांगी विचार ही करना है तो उसकी जितनी प्रशंसा की जाय उतनी कम है। परन्तु उसके विश्वव्यापी जीवनलक्षी परिणामों का विचार भी करना है तो मामला गम्भीर है। और ऐसा विचार करना ही होगा, क्योंकि जीवन के लिये विज्ञान और तन्त्रज्ञान होते हैं न कि विज्ञान और तन्त्रज्ञान के लिये जीवन ।
 
भौतिक विज्ञान और उसकी सहायता से विकसित अद्भुत तन्त्रज्ञान का यदि एकांगी विचार ही करना है तो उसकी जितनी प्रशंसा की जाय उतनी कम है। परन्तु उसके विश्वव्यापी जीवनलक्षी परिणामों का विचार भी करना है तो मामला गम्भीर है। और ऐसा विचार करना ही होगा, क्योंकि जीवन के लिये विज्ञान और तन्त्रज्ञान होते हैं न कि विज्ञान और तन्त्रज्ञान के लिये जीवन ।
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अनाज, सब्जी, फल, तैयार खाद्य पदार्थों के साथ साथ डेरी उद्योग ने स्वास्थ्य को बहुत हानि पहुँचाई है। दूध जैसे प्राकृतिक पदार्थ को अत्यन्त कृत्रिम बना दिया है।
 
अनाज, सब्जी, फल, तैयार खाद्य पदार्थों के साथ साथ डेरी उद्योग ने स्वास्थ्य को बहुत हानि पहुँचाई है। दूध जैसे प्राकृतिक पदार्थ को अत्यन्त कृत्रिम बना दिया है।
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यन्त्रों का एक साथी उत्पाद है पेट्रोलियम और दूसरा है प्लास्टिक । इन दोनों ने सुविधा तो बहुत निर्माण की है परन्तु पर्यावरण का महासंकट भी पैदा किया है। सारा विश्व आज ग्लोबल बोर्मिग - वैश्विक तापमान वृद्धि - से चिन्तित है। तापमान बढ़ने का कारण पेट्रोल, प्लास्टिक और वातानुकूलन ही तो है। विश्व के अनेक देशों को त्सुनामी, भूकम्प, अतिवृष्टि, अकाल, हिमवर्षा जैसे प्राकृतिक संकटों का सामना करना पड़ रहा है । ऋतुओं का सन्तुलन बिगड रहा है । एक और गर्मी बढ रही है तो दूसरी ओर ठण्ड भी बढ़ रही है । यह बदल भी नियमित नहीं है । इन संकटों का कारण भी पेट्रोल, प्लास्टिक और वातानुकूलन ही है।
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यन्त्रों का एक साथी उत्पाद है पेट्रोलियम और दूसरा है प्लास्टिक । इन दोनों ने सुविधा तो बहुत निर्माण की है परन्तु पर्यावरण का महासंकट भी पैदा किया है। सारा विश्व आज ग्लोबल वोर्मिग - वैश्विक तापमान वृद्धि - से चिन्तित है। तापमान बढ़ने का कारण पेट्रोल, प्लास्टिक और वातानुकूलन ही तो है। विश्व के अनेक देशों को त्सुनामी, भूकम्प, अतिवृष्टि, अकाल, हिमवर्षा जैसे प्राकृतिक संकटों का सामना करना पड़ रहा है । ऋतुओं का सन्तुलन बिगड रहा है । एक और गर्मी बढ रही है तो दूसरी ओर ठण्ड भी बढ़ रही है । यह बदल भी नियमित नहीं है । इन संकटों का कारण भी पेट्रोल, प्लास्टिक और वातानुकूलन ही है।
    
परन्तु अब मन की स्थिति ऐसी हो गई है कि संकट भी झेले नहीं जा सकते हैं और संकटों के कारणों को भी छोडा नहीं जा सकता है। विश्व सम्मेलनों में संकटों की चर्चा की जाती है परन्तु उपाय ऐसे होते हैं जो संकटों को और बढायें । यन्त्रों ने मनुष्य की शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक शक्तियों का ह्रास किया है। सुविधा और शक्ति दोनों परस्पर विरोधी बन गये हैं। वाहनों के कारण गति बढी तो साथ साथ पैरों की चलने की क्षमता कम हुई, कैलकुलेटर ने गिनती करना शुरू किया तो बुद्धि की गणनक्षमता कम हुई, संगणक ने जानकारी का संग्रह करना शुरू किया तो स्मरणशक्ति और खोजी वृत्ति कम हुई, टीवी ने नृत्यगीत के कार्यक्रम शुरू किये तो हृदय की रसानुभूति की शक्ति कम हुई, साथ ही साथ सृजनशीलता भी कम हुई, यन्त्रों ने वस्त्र बुनना, छपाई करना और रंगना शुरू किया तो वस्त्र से सम्बन्धित कारीगरी का ह्रास हुआ। यन्त्रों ने सर्व प्रकार की कारीगरी के साथ जुड़े सृजनशीलता, कल्पनाशीलता, कौशल, निपुणता, उत्कृष्टता, विविधता, मौलिकता और उसमें से मिलने वाले आनन्द को नष्ट कर दिया, एक सर्जक और निर्माता को मजदूर बना दिया । एक और सर्जक नहीं रहा तो दूसरी ओर भावक भी नहीं रहा । यह बहुत बड़ा सांस्कृतिक नुकसान है। स्थिति यहाँ तक पहुँची कि यह सब खोने का खेद भी नहीं रहा । श्रेष्ठ का कनिष्ठ बनाने का यह तरीका है।
 
परन्तु अब मन की स्थिति ऐसी हो गई है कि संकट भी झेले नहीं जा सकते हैं और संकटों के कारणों को भी छोडा नहीं जा सकता है। विश्व सम्मेलनों में संकटों की चर्चा की जाती है परन्तु उपाय ऐसे होते हैं जो संकटों को और बढायें । यन्त्रों ने मनुष्य की शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक शक्तियों का ह्रास किया है। सुविधा और शक्ति दोनों परस्पर विरोधी बन गये हैं। वाहनों के कारण गति बढी तो साथ साथ पैरों की चलने की क्षमता कम हुई, कैलकुलेटर ने गिनती करना शुरू किया तो बुद्धि की गणनक्षमता कम हुई, संगणक ने जानकारी का संग्रह करना शुरू किया तो स्मरणशक्ति और खोजी वृत्ति कम हुई, टीवी ने नृत्यगीत के कार्यक्रम शुरू किये तो हृदय की रसानुभूति की शक्ति कम हुई, साथ ही साथ सृजनशीलता भी कम हुई, यन्त्रों ने वस्त्र बुनना, छपाई करना और रंगना शुरू किया तो वस्त्र से सम्बन्धित कारीगरी का ह्रास हुआ। यन्त्रों ने सर्व प्रकार की कारीगरी के साथ जुड़े सृजनशीलता, कल्पनाशीलता, कौशल, निपुणता, उत्कृष्टता, विविधता, मौलिकता और उसमें से मिलने वाले आनन्द को नष्ट कर दिया, एक सर्जक और निर्माता को मजदूर बना दिया । एक और सर्जक नहीं रहा तो दूसरी ओर भावक भी नहीं रहा । यह बहुत बड़ा सांस्कृतिक नुकसान है। स्थिति यहाँ तक पहुँची कि यह सब खोने का खेद भी नहीं रहा । श्रेष्ठ का कनिष्ठ बनाने का यह तरीका है।
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भारत की दृष्टि से यह अत्यन्त आत्मघाती कृति है। भारत यन्त्रों का निर्माण और उपयोग करना नहीं जानता है ऐसा तो नहीं है । श्रेष्ठ प्रकार की सुविधायें, कारीगरी, कला, दैनन्दिन उपयोग की वस्तुयें, शिल्प, स्थापत्य आदि के क्षेत्र में उत्कृष्टता और श्रेष्ठता के शिखर भारत ने सर किये हैं। वैभव और उपभोग के मामले में भारत की बराबरी करने वाला अब तक कोई नहीं रहा है। भारत तो क्या इजिप्त के पिरामिड भी स्थापत्य के उत्तम नमूने रहे हैं । इनमें यन्त्रों का प्रयोग हुआ ही है। परन्तु वे व्यक्ति और समाज के लिये विघटनकारी सिद्ध नहीं हुए थे। पश्चिम जब यन्त्रों का आविष्कार और प्रयोग करता है तब उसका परिणाम घातक होता है।
 
भारत की दृष्टि से यह अत्यन्त आत्मघाती कृति है। भारत यन्त्रों का निर्माण और उपयोग करना नहीं जानता है ऐसा तो नहीं है । श्रेष्ठ प्रकार की सुविधायें, कारीगरी, कला, दैनन्दिन उपयोग की वस्तुयें, शिल्प, स्थापत्य आदि के क्षेत्र में उत्कृष्टता और श्रेष्ठता के शिखर भारत ने सर किये हैं। वैभव और उपभोग के मामले में भारत की बराबरी करने वाला अब तक कोई नहीं रहा है। भारत तो क्या इजिप्त के पिरामिड भी स्थापत्य के उत्तम नमूने रहे हैं । इनमें यन्त्रों का प्रयोग हुआ ही है। परन्तु वे व्यक्ति और समाज के लिये विघटनकारी सिद्ध नहीं हुए थे। पश्चिम जब यन्त्रों का आविष्कार और प्रयोग करता है तब उसका परिणाम घातक होता है।
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भारत यन्त्रों का मनुष्य के सहायक के रूप में प्रयोग
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भारत यन्त्रों का मनुष्य के सहायक के रूप में प्रयोग करने को अनुमति देता है, मनुष्य के स्थान पर यन्त्रों के प्रयोग को नहीं । मनुष्य यन्त्र का दास नहीं बनना चाहिये ।
 
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करने को अनुमति देता है, मनुष्य के स्थान पर यन्त्रों के प्रयोग को नहीं । मनुष्य यन्त्र का दास नहीं बनना चाहिये ।
      
मनुष्य की स्वतन्त्रता अबाधित रहनी चाहिये । मनुष्य का उत्पादन और उत्पादन प्रक्रिया पर स्वामित्व भी अबाधित रहना चाहिये । यन्त्र का किसी भी रूप में प्रयोग स्वतन्त्रता और स्वामित्व के अविरोधी होना चाहिये ।
 
मनुष्य की स्वतन्त्रता अबाधित रहनी चाहिये । मनुष्य का उत्पादन और उत्पादन प्रक्रिया पर स्वामित्व भी अबाधित रहना चाहिये । यन्त्र का किसी भी रूप में प्रयोग स्वतन्त्रता और स्वामित्व के अविरोधी होना चाहिये ।
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भारत की दृष्टि में भौतिक विज्ञान और तन्त्रज्ञान के उपयोग का निकष पर्यावरण, स्वास्थ्य, सामाजिकता और संस्कृति है। भौतिक विज्ञान और तन्त्रज्ञान केवल साधन है, साध्य नहीं। वे उपकरण हैं, करण नहीं । इतना विवेक नहीं है तो वे विनाशक बनेंगे।
 
भारत की दृष्टि में भौतिक विज्ञान और तन्त्रज्ञान के उपयोग का निकष पर्यावरण, स्वास्थ्य, सामाजिकता और संस्कृति है। भौतिक विज्ञान और तन्त्रज्ञान केवल साधन है, साध्य नहीं। वे उपकरण हैं, करण नहीं । इतना विवेक नहीं है तो वे विनाशक बनेंगे।
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जिसकी स्वतन्त्रता, सर्जकता और स्वामित्व की रक्षा और सम्मान होता है वह मनुष्य यन्त्रों से भी प्रेम करता है, उनका रक्षण और सम्मान करता है। ऐसा करके वह यन्त्रों के स्वभाव के रहस्यों का जान भी प्राप्त करता है। भारत ने ऐसी सिद्धि भी अतीत में प्राप्त की है। विश्व तो अभी इसकी कल्पना तक नहीं कर सकता । विश्व को अभी विज्ञान और तन्त्रज्ञान के विषय में बहुत कुछ सीखना है। भारत को सिखाने हेतु सिद्ध भी होना है।
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जिसकी स्वतन्त्रता, सर्जकता और स्वामित्व की रक्षा और सम्मान होता है वह मनुष्य यन्त्रों से भी प्रेम करता है, उनका रक्षण और सम्मान करता है। ऐसा करके वह यन्त्रों के स्वभाव के रहस्यों का ज्ञान भी प्राप्त करता है। भारत ने ऐसी सिद्धि भी अतीत में प्राप्त की है। विश्व तो अभी इसकी कल्पना तक नहीं कर सकता । विश्व को अभी विज्ञान और तन्त्रज्ञान के विषय में बहुत कुछ सीखना है। भारत को सिखाने हेतु सिद्ध भी होना है।
    
==References==
 
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