पंचपदी अध्ययन पद्धति एवं विषयानुसार कक्षरचना

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अध्ययन करते समय छात्र ज्ञान ग्रहण कैसे करता है यह जानना और समझना अत्यंत रोचक है[1]। यह सर्वविदित सिद्धांत है कि अध्यापन अध्ययन प्रक्रिया के अनुकूल होकर ही संभव हो सकता है । यह सिद्धांत भी सहज ही समझा जा सकता है कि छात्र ज्ञान अर्जन अपने करणों की सिद्धता के अनुसार ही करता है। अध्यापक अपनी इच्छा या अपनी क्षमता उसके ऊपर लाद नहीं सकता । उदाहरण के लिए दान देने वाला दान लेने वाले की सिद्धता के अनुसार ही दान दे सकता है । खाना खिलाने वाला खाने वाले की भूख के अनुसार ही खिला सकता है, खाने वाला यदि खाना नहीं चाहता या खाने वाले की भूख या इच्छा नहीं है तो खिलाने के सारे प्रयास व्यर्थ होते हैं । उसी प्रकार अध्ययन करने वाले की सिद्धता, क्षमता और इच्छा के अनुसार ही अध्यापन भी चलता है । हम अध्ययन की प्रक्रिया को जाने ।

पंचपदी शिक्षण पद्धति

छात्र जिस प्रक्रिया से ज्ञानार्जन करता है उसे हम पंचपदी कह सकते हैं । पंचपटदी का अर्थ है पाँच पद वाली प्रक्रिया । पाँच पद इस प्रकार हैं । अधीति, बोध, अभ्यास, प्रयोग और प्रसार । अधीति पहला पद है । अध्येता किसी भी विषय को सुनता है, देखता है या पढ़ता है । यह कार्य ज्ञानेंद्रियों से होता है । उदाहरण के लिए वह गीत या कहानी या भाषण सुनता है । वह नाटक देखता है । वह किसी वस्तु को छूकर परखने का प्रयास करता है । वह किसी घटना को देखता और सुनता है । वह और लोगोंं की बातचीत सुनता है । वह किसी वार्तालाप या घटना का साक्षी बनता है । वह हाथ से परखता भी है । किसी चित्र के रंग और आकृति का निरीक्षण करता है। अपनी कर्मेन्द्रियों और ज्ञानेन्द्रियों से वह विषय को ग्रहण करता है । यह श्रवण, दर्शन, निरीक्षण । परीक्षण अधीति है । परंतु अधीति मात्र से वह विषय को जानता नहीं है । जानने का यह केवल प्रारंभ है । दूसरा पद है बोध । बोध का अर्थ है समझना । जो देखा है, सुना है या परखा है उसके ऊपर मनन करके वह विषय को आत्मसात करने का प्रयास करता है। ज्ञानेंद्रियों से ग्रहण किए हुए विषय को वह विचारों में रूपांतरित करता है और जानने के लिए विचारों को बुद्धि के आगे प्रस्तुत करता है । बुद्धि निरीक्षण और परीक्षण के साथ साथ विश्लेषण, संश्लेषण, कार्यकारण भाव आदि की सहायता से अपनी चिंतन प्रक्रिया चलाती है ।

इस मनन और चिंतन के आधार पर सुने हुए या देखे हुए विषय का बोध होता है अर्थात छात्र विषय को समझता है । यह अध्ययन का दूसरा पद है । अभी भी अध्ययन पूर्ण नहीं हुआ । सुने हुए और समझे हुए विषय की धारणा भी होनी चाहिए अर्थात वह दीर्घकाल तक अध्येता की बुद्धि का अविभाज्य अंग बनकर रहना चाहिए । हम कई बार अनुभव करते हैं की हमारे द्वारा पढ़ाए हुए विषय को छात्र ने समझ तो लिया है परंतु दूसरे दिन अथवा १ सप्ताह के बाद यदि उससे उस विषय के संबंध में पूछा जाए तो वह ठीक से बता नहीं पाता । इसका कारण यह है कि पढ़ा हुआ विषय उसने धारण नहीं किया है । धारणा के लिए समझे हुए विषय का अभ्यास आवश्यक है । अभ्यास अध्ययन का तीसरा पद है । अभ्यास का अर्थ है किसी भी क्रिया को पुनः पुनः करना । इसे ही पुनरावर्तन कहते हैं । पुनरावर्तन करने से विषय का बोध पक्का हो जाता है और वह अध्येता की बुद्धि का अंग बन जाता है । अभ्यास से पूर्व यह सावधानी रखनी चाहिए कि विषय का बोध ठीक से हुआ हो । यदि ठीक से नहीं हुआ और अभ्यास पक्का हुआ तो गलत बात पक्की हो जाती है । उसे ठीक करना बहुत कठिन या लगभग असंभव हो जाता है । उदाहरण के लिए उसने गीत सुना, उसे समझने का प्रयास भी किया, कहीं पर गलती हुई है तो उसे भी ठीक कर लिया, परंतु वह ठीक नहीं हुआ है । वह कच्चा रह गया है । इस कच्चे स्वर के साथ ही यदि अभ्यास किया तो गीत का स्वर गलत ही पक्का हो जाएगा । बाद में उसे ठीक करना अत्यंत कठिन हो जाएगा । छात्रों के संबंध में यह दोष तो हम अनेक बार देखते ही हैं। अतः अभ्यास से पूर्व बोध ठीक होना चाहिए। बोध ठीक हो गया परंतु अभ्यास नहीं हुआ तो विषय जल्दी भूल जाता है । अतः अभ्यास अत्यंत आवश्यक है । किसी भी बात का अभ्यास ज्ञान को सहज बनाता है । ज्ञान व्यक्तित्व के साथ समरस हो जाता है । उदाहरण के लिए बचपन में पहाड़ों का रोज रोज अभ्यास किया है तो वह बड़ी आयु में भी भूला नहीं जाता । नींद से उठाकर भी कोई कहे तो हम पहाड़े बोल सकते हैं । और कोई काम करते हुए पहाड़े बोलना हमारे लिए सहज होता है । पहाड़े बोलने के लिए कोई विशेष प्रयास नहीं करना पड़ता । यही बात बचपन में रटे हुए श्लोकों, मंत्रों, गीतों के लिए लागू है । संगीत का, योग का, धनुर्विद्या का, साइकिल चलाने का अभ्यास भी बहुत मायने रखता है । अभ्यास से ही परिपक्कता आती है । अभ्यास के बाद अध्ययन चौथे पद की ओर बढ़ता है । चौथा पद है प्रयोग। ज्ञान यदि व्यवहार में व्यक्त नहीं होता तो वह निरुपयोगी है अथवा निरर्थक है । उदाहरण के लिए नाड़ी शुद्धि प्राणायाम का अच्छा अभ्यास हुआ है तो व्यक्ति को देखते ही उसका पता चल जाता है । शरीर कृश और हल्का हो जाता है, वाणी मधुर हो जाती है, नेत्र निर्मल हो जाते हैं और चित्त की प्रसन्नता मुख पर झलकती है । उसे कहना नहीं पड़ता कि उसने नाडीशुद्धि प्राणायाम का अभ्यास किया है । जिस कक्षा में पचास छात्र एक साथ प्रतिदिन ओमकार का उच्चारण करते हैं उस कक्षा का वातावरण ही ओमकार की तरंगों से भर जाता है । किसी को कहना नहीं पड़ता कि वहाँ ओमकार का उच्चारण होता है ।

धार्मिक शास्त्रीय संगीत का अच्छा अभ्यास करने वाले का व्यक्तित्व अत्यंत संतुलित और मधुर बन जाता है । भौतिक विज्ञान का अच्छा अभ्यास करने वाले का व्यवहार भौतिक विज्ञान के सिद्धांतों को ध्यान में रखकर ही होता है। शरीरविज्ञान का अध्ययन करने वाला और जिसका अभ्यास पक्का हुआ है वह अपने शरीर की सफाई ठीक से रखता है। आहारशास्त्र का ज्ञान जब प्रयोग के स्तर पर पहुंचता है तब वह व्यक्ति कभी विरुद्ध आहार नहीं करता । आहार के सभी नियमों का सहज ही पालन करता है। प्रयोग के बाद पाँचवा पद है प्रसार । प्राप्त किए हुए ज्ञान को अन्य लोगोंं तक पहुँचाना ही प्रसार है । प्रसार के दो आयाम हैं । एक है स्वाध्याय और दूसरा है प्रवचन। स्वाध्याय का अर्थ है स्वयं ही अध्ययन करना अथवा स्वयं का अध्ययन करना । स्वयं ही अध्ययन करने का अर्थ है प्राप्त किए हुए ज्ञान को मनन, चिंतन, अभ्यास और प्रयोग के आधार पर निरंतर परिष्कृत करते रहना । ऐसा करने से ज्ञान अधिकाधिक आत्मसात होता जाता है । चिंतन के नए नए आविष्कार होते जाते हैं । अध्येता को अपने आप समझने लगता है कि संदर्भ के अनुसार ज्ञान को प्रयुक्त करने के लिए किस प्रकार उसका स्वरूप परिवर्तन करना । यही अनुसंधान है । इसमें सारी मौलिकता और सृजनशीलता प्रयुक्त होती है । व्यक्ति के अंतःकरण से ज्ञान प्रस्फुटित होता है । सीखा हुआ पूर्ण रूप से व्यक्ति का अपना हो जाता है और वह प्रकट होता है। स्व के अध्ययन का अर्थ है अपने व्यवहार को, अपने विचारों को अपने चिंतन को नित्य परखते रहना और उत्तरोत्तर निर्दोष बनाते जाना । यह प्रगत अध्ययन का क्षेत्र है। अपने सीखे हुए विषय पर और लोग क्या कहते हैं इसको भी जानते जाना । अपने विषय की अपने ही जैसे अध्ययन करने वालों के साथ चर्चा करना, विमर्श करना और ज्ञान को समृद्ध बनाना । प्रसार का दूसरा आयाम है प्रवचन । प्रवचन का अर्थ है अध्यापन । सीखे हुए ज्ञान को अध्येता को देना अध्यापन है । यह प्रक्रिया कैसे होती है ?

गाय घास चरती है । उसकी जुगाली करती है । अपने शरीर में पचाती है । अपने अंतःकरण की सारी भावनाएँ उसमें उडेलती है । बछड़े के लिए जो वात्सल्यभाव है वह भी उसमें डालती है । खाया हुआ घास दूध में परिवर्तित होता है और बछड़े को वह दूध पिलाती है । घास से दूध बनने की प्रक्रिया अधीति से प्रसार की प्रक्रिया है । यही अध्ययन के अध्यापन तक पहुंचने की प्रक्रिया है । यही वास्तव में शिक्षा है । अध्यापक का प्रवचन अध्येता के लिए अधीति है । एक ओर प्रवचन और दूसरी ओर अधीति के रूप में अध्यापक और अध्येता तथा अध्यापन और अध्ययन जुड़ते हैं। एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को ज्ञान का हस्तांतरण होता है। ज्ञानप्रवाह की शुंखला बनती है। इस शृंखला की एक कड़ी अध्यापक है और दूसरी कड़ी अध्येता । पीढ़ी दर पीढ़ी यह देना और लेना चलता रहता है और ज्ञानधारा अविरल बहती रहती है ।

हमारा अनुभव है कि ज्ञान प्राप्त करने वाले सबके सब अध्यापन नहीं करते । सबके सब पढ़ाते नहीं हैं । वे अन्यान्य कार्यों में जुड़ते हैं । तब प्रवचन का स्वरूप कैसा होगा? अपने प्राप्त किए हुए ज्ञान को दूसरों के भले के लिए प्रयुक्त करना भी प्रवचन है । ज्ञान का केवल अपने लिए उपयोग करना किसी भी प्रकार से समर्थनीय नहीं है। अपने ज्ञान का यदि किसी के लिए उपयोग नहीं हुआ तो एक प्रकार का सांस्कृतिक अपराध होगा । प्रवचन के माध्यम से व्यक्ति अपने ऋषिक्ण से मुक्त होता है । जब उसने अधीति से प्रारंभ किया था तब वह पूर्वजों के ऋण को स्वीकार कर चुका था । अब उसने जब दूसरे को ज्ञान दिया या दूसरों के लिए ज्ञान का उपयोग किया तब वह प्रवचन के माध्यम से उस ऋण से मुक्त हुआ । साथ ही उसने अध्येता को अपना ऋणी बनाया । इस प्रकार अध्यापक और अध्येता के मध्य अधीती, बोध, अभ्यास, प्रयोग और प्रसार, और प्रसार से फिर अधीती के रूप में ज्ञानधारा निरंतर प्रवाहित होती रहती है और आवश्यकता के अनुसार समय समय पर परिष्कृत भी होती रहती है । इसे ही चिरपुरातन नित्यनूतन कहते हैं । यही सनातनता का भी अर्थ है । पंचपदी की यह प्रक्रिया अत्यंत सहज होनी चाहिए । परंतु आज उसका जरा भी आकलन नहीं हो रहा है । आज कक्षाकक्षा में अधिकांश देखा जाता है कि अधीति से सीधे प्रवचन के पद पर अध्यापक पहुँच जाता है। मध्य के बोध, अभ्यास और प्रयोग की कोई चिंता ही नहीं करता ।

अध्यापक स्वयं जब अपने लिए चिंता नहीं करता तो छात्र से भी अपेक्षा नहीं करता । इसी कारण से ज्ञान निर्र्थक और निष्प्रयोज्य बन जाता है । हम देखते हैं कि कौशल हो, विवेक हो या चित्र हो, शिक्षित और अशिक्षित व्यक्ति में लगभग कोई अंतर दिखाई नहीं देता । आज आवश्यकता इस बात की है कि हम समस्त शिक्षाप्रक्रिया में और विशेष रूप से आचार्यों की शिक्षा में पंचपदी को आपग्रहपूर्वक अपनाएँ । विद्यालयों के कक्षाकक्षों में होने वाला अध्ययन अध्यापन पंचपदी के रुप में चले इस प्रकार से वर्तमान व्यवस्था में परिवर्तन करने की अति आवश्यकता है ।

यहाँ बहुत संक्षेप में पंचपदी के पाँच पदों का विवरण किया गया है । पढ़ने में तो वह बहुत ही सरल लगता है परंतु समझने में अनेक प्रकार से कठिनाई हो सकती है क्योंकि इस प्रकार के अध्ययन और अध्यापन की कल्पना भी आज लगभग कहीं नहीं की जाती है । ऐसा कहीं देखा भी नहीं जाता है ।

साइकिल चलाने का उदाहरण

हम साइकिल चलाने का उदाहरण ले सकते हैं। जब कोई बाल आयु का लड़का साइकिल चलाना चाहता है तब उसे पिता अथवा बड़ा भाई सिखाने का प्रारंभ करता है। वह साइकिल के विभिन्न अंग उपांग उसे दिखाता है, उनके बारे में जानकारी देता है । चालक चक्र कैसे पकड़ना और पैडल पर कैसे पैर जमाना यह दिखाता है । वह स्वयं चलाकर भी दिखाता है। प्रत्यक्ष सीखना आरम्भ करने से पहले भी उस बालक ने पिता को या बड़े भाई को साइकिल पर आते जाते देखा है, साइकिल की सफाई भी की है, साइकिल को इधर से उधर उठाकर रखा भी है। अब वह पिता की उपस्थिति में चक्र को पकड़कर देखता है, पैडल पर पैर जमाकर देखता है और पिता के मार्गदर्शन में साइकिल चलाता है । पिता उसे सहायता करते हैं । उसे गिरने नहीं देते । बालक को पहले पहले कुछ डर भी लगता है परंतु पिता के होने से वह स्वस्थ रहता है और साइकिल चलाने के प्रति उत्साहित भी रहता है। दो चार दिन इस प्रकार पिता साथ में रहकर उसे साइकिल के विषय में और साइकिल चलाने के विषय में ज्ञान देते हैं। यह उस बालक के लिए अधीति का पद है और पिता के लिए प्रवचन का। इसके बाद बालक स्वयं अकेले साइकिल चलाता है। वह गलतियां करता है, गिरता भी है। उसे चोट भी आती है। तथापि वह साइकिल चलाना छोड़ता नहीं है। कभी कभी पिता उसे कहां गलती हो रही है वह दिखाते हैं। बालक सुधार करता है। अब उसे साइकिल पकड़ना, चक्र चलाना, घुमाना, पैडल मारना और संतुलन रखना ठीक से आ गया। निरीक्षण करके सबकुछ ठीक है यह देख भी लिया । यह उस बालक का बोध का पद है। परंतु इतने मात्र से बालक साइकिल लेकर भीड़ भरे रास्ते पर जाता नहीं है क्योंकि उसने अभी नया नया सीखा है। अभ्यास नहीं हुआ। वह रोज रोज अपने घर के परिसर में अथवा पास वाली निर्जन सड़क पर साइकिल चलाने का अभ्यास करता है। यह उसके लिए अत्यंत आनंददायक है । वह साइकिल चलाता ही रहता है। पैरों की तरह ही साइकिल उसके शरीर का अंग हो गई है। उसे साइकिल चलाने की क्रिया पर प्रभुत्व प्राप्त हुआ है । साइकिल चलाने के विषय में आत्मविश्वास से परिपूर्ण है। परंतु साइकिल चलाना केवल इस प्रकार के अभ्यास के लिए तो नहीं होता। वह विद्यालय जाता है, खरीदी करने के लिए बाजार जाता है, मित्रों के साथ सैर करने के लिए जाता है। इसके साइकिल सीखने का उपयोग स्वयं के लिए और औरों के लिए भी होता है । ऐसे ही कुछ दिन चले जाते हैं और एक दिन वह अपने छोटे भाई को या पड़ोस के किसी छोटे बालक को उसी प्रकार साइकिल चलाना सिखाना प्रारंभ करता है जैसे उसके पिता ने उसके साथ किया था । वह एक अच्छा शिक्षक हैं। एक अच्छा साइकिल चालक है जो दूसरों के भी काम आता है । सीखने सिखाने की यह प्रक्रिया पाँच पदों में होती है ।

गीत सिखाने का उदाहरण

दूसरा उदाहरण देखें । संगीत की कक्षा में शिक्षक अपने छात्रों को एक गीत सिखा रहा है । वह गीत के शब्दों को सुनाता है । गीत गाकर सुनाता है । एक बार दो बार गाता है और छात्र सुनते हैं । उसके बाद छात्र भी सुना हुआ गाते हैं । यह क्रिया एक से अधिक बार होती है । इस समय शिक्षक छात्र के उच्चार सही है कि नहीं, स्वर ठीक है कि नहीं यह देखता है । यदि ठीक नहीं है तो उसमें सुधार करता है । छात्र को सही सही आने तक वह यह क्रिया बार बार करता है । शिक्षक के लिए यह प्रवचन है और छात्र के लिए अधीति । इसके बाद छात्र स्वयं गाता है, गाने का प्रयास करता है । आचार्य ने क्या सिखाया था इसका स्मरण करता है । गाते समय उसका स्वर ठीक नहीं होता तो उसे स्वयं को समझ में आता है । वह ठीक करने का प्रयास करता है । शिक्षक भी गाता है, परखता है । ऐसा करते करते कुछ समय के बाद छात्र का स्वर ठीक हो जाता है । उसे गीत आ गया ऐसा शिक्षक को भी लगता है और छात्र को भी प्रतीति होती है । यह उसका बोध का पद है । इसके बाद उसका अभ्यास आरम्भ होता है । वह उसी गीत को बार बार गाता है । गाते गाते वह गीत उसके गले में बैठता है । अब वह गलती नहीं करता, न उसे भूलता है ।

अभ्यास के साथ साथ वह गीत उसके गले में और मस्तिष्क में भी बैठता है । अब वह उसका आनंद ले रहा है । उसकी खूबियां समझ रहा है । अब वह इस गीत के जैसे अन्य गीतों के साथ इसकी तुलना कर रहा है । अब वह उस के रहस्य को भी जानने लगा है, समझ रहा है। अभ्यास करते करते वह इस गीत को अपने अस्तित्व का अंग बना रहा है । वह गीत सुनता है तब के और गीत का अभ्यास होने के बाद में जो आनंद आता है उसमें बहुत अंतर है। अंतर उसे स्वयं समझ में आता है। यह अंतर उसके साथ रहने वालों के भी समझ में आता है । अभ्यास के बाद प्रयोग का पद है । उस गीत को वह अपने आनंद के लिए गाता है और दूसरों को आनंद देने के लिए भी गाता है। गीतका अभ्यास जैसे जैसे बढ़ता जाता है वैसे वैसे उसके स्वर, ताल और लय परिपक्व होते जाते हैं । इस ज्ञान का उपयोग वह अन्य गीत सीखने में करता है। शास्त्रीय संगीत में वह प्रगति करता है। आगे के अभ्यास के लिए इस गीत का अभ्यास उसे उपयोगी होता है । यह उसके लिए प्रयोग का पद है । जब वह गाता है तब और लोग सुनते हैं । कोई एक व्यक्ति उससे यह गीत सीखना भी चाहता है । छात्र उसे सिखाता है । यह उसके लिए प्रवचन का पद है। सुनने वाले के और सीखने वाले के लिए यह अधीति का पद है। और किसीको न भी सिखाएं तब भी छात्र अपनी ही प्रस्तुति में विविधता लाता है, नवीनता लाता है । यह उसके लिए स्वाध्याय है। दूसरे किसी गीत की स्वर रचना बनाता है। यह भी उसके लिए स्वाध्याय का ही पद है। इस प्रकार उसका अध्ययन पाँच पदों में चलता है । ये पांच पद नहीं है तो उसका अध्ययन पूरा नहीं होता, परिपक्व नहीं होता, उसके व्यक्तित्व का वह अंग नहीं बनता।

लेख का उदाहरण

इस लेख का ही उदाहरण लें। जो भी पाठक इसे पढ़ते हैं उनके लिए यह अधीति है । पढ़ने के बाद पाठक जब उस पर मनन, चिंतन, चर्चा करेंगे तब वह बोध के पद से गुजर रहा है । ध्यान देने योग्य बात यह है कि कर्मेंद्रिय से होने वाली क्रियाओं के संबंध में पांच पद किस प्रकार व्यवहार में आते हैं यह सरलता से समझ में आता है परंतु अध्ययन केवल कर्मेन्द्रियों से ही नहीं होता है। वह सदा क्रिया ही नहीं होता है। उदाहरण के लिए इतिहास, मनोविज्ञान या तत्त्वज्ञान का अध्ययन कर्मेन्द्रियों का विषय नहीं है। विज्ञान और तंत्रज्ञान के सिद्धांत समझना केवल कर्मेन्द्रियों का विषय नहीं है। इनके बारे में पंचपदी का सिद्धांत किस प्रकार लागू होता है?

इन विषयों में अधीति और बोध तो समझ में आता है परंतु अभ्यास और प्रयोग का पद कैसा होगा ? उत्तर यह है कि बुद्धि से और मन से ग्रहण किए जाने वाले विषयों में पंचपदी का सिद्धांत किस प्रकार काम करता है यह जानना भी महत्त्वपूर्ण है । अभी हमने देखा कि अधीति और बोध के पद को समझना कठिन नहीं है। अब हम देखें कि एक सिद्धांत हमारे सामने रखा जा रहा है। प्रथम तो हमने पूरा विवेचन आँखों से, मन से, बुद्धि से ग्रहण किया । हमारा ग्रहण करना निर्दोष है, प्रामाणिक है । हमें स्वयं को ही यह बात समझ में आती है। पढ़ लेने के बाद भी वह हमारे मन में रहता है और धीरे धीरे बोध परिपक्व होता है । हमने ठीक समझा कि नहीं उसे परखने के लिए हम अन्य किसीसे प्रश्न भी पूछेगे। हमारा विचार प्रस्तुत भी करेंगे। इस प्रकार अपने अंतःकरण की सहायता से और अन्य लोगोंं की सहायता से या अन्य ग्रंथों की सहायता से हम सुने हुए सिद्धांतों को ठीक से समझेंगे । इसके बाद अभ्यास का पद आरम्भ होगा। कर्मेन्द्रियों से होने वाली क्रिया का अभ्यास और अंतःकरण से होने वाले अभ्यास में अंतर है। कर्मेन्द्रियों की क्रियाएं देखी जाती हैं, उनका पुनरावर्तन प्रत्यक्ष होता है। अंतःकरण से होने वाला अभ्यास सूक्ष्म होता है। पंचपदी की प्रक्रिया को हम अनेक विषयों को लागू करने का अभ्यास करते हैं ।

हम अनेक उदाहरण ढूंढते हैं । केवल सिद्धांत समझने का ही नहीं तो प्रक्रियाओं को समझने का कार्य भी हमारी बुद्धि कर रही है। इसके अभ्यास के द्वारा हमारा मन एकाग्र होता है और बुद्धि परिष्कृत होती रहती है। यह भी अभ्यास का ही परिणाम है। एक विषय को या मुद्दे को समझते समझते हमारी बुद्धि सक्षम, निर्दोष और परिपक्व बनती जाती है। यह हमारी उपलब्धि है। अन्यत्र कहीं हमने सुना है कि विषयों की जानकारी का उपयोग ज्ञानार्जन के करणों के विकास में होता है। इन सिद्धांतों को लागू करने का अभ्यास स्वयं इस सिद्धांत को ठीक से समझने में तो होता ही है परंतु अन्य सिद्धांत समझने के लिए भी उपयोगी होता है । विषय और करण दोनों एक दूसरे के लिए सहयोगी बनते हैं । यह भी ज्ञानार्जन की प्रक्रिया का एक महत्त्वपूर्ण अंग है । अभ्यास से विषय तो पक्का होता ही है, साथ ही विवेक भी बढ़ता है और ज्ञान प्राप्त करने से जो प्रसन्नता होती है उसका भी अनुभव होता है। यह कदाचित अंतःकरण के स्तर पर होने वाली ज्ञानार्जन की प्रक्रिया है । यह हमारे लिए अभ्यास का पद है । इसके बाद हम प्रयोग के पद पर पहुंचते हैं । हमारे अध्यापन कार्य में पंचपदी के सिद्धांत का ज्ञान व्यक्त होता है । हमारा अध्यापन अध्ययन का कार्य अधिक समर्थ और अधिक प्रभावी बनता है । हम भी अध्यापन का कार्य इस सिद्धांत के प्रकाश में करते हैं । छात्र अध्ययन के किस पद से गुजर रहा है इसका भी पता हमें चलता है । छात्र का बोध का पद ठीक हुआ कि नहीं इसकी और हमारा विशेष ध्यान रहता है । हमारा अध्यापन छात्रों को भी ठीक लगता है । सामान्य भाषा में इसे ही अनुभवी अध्यापक कहते हैं । यह हमारे लिए प्रयोग का पद है । हम देख रहे हैं कि पंचपदी के सिद्धांत को लेकर लेखक के लिए प्रसार का पद है । लेखक प्रवचन कर रहा है। अर्थात उसने जो समझा है वह पाठकों तक पहुंचाने का प्रयास वह कर रहा है । हम जब वैसा करेंगे तब वह हमारे लिए प्रसार का पद होगा । परंतु केवल पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करना ही प्रसार नहीं है । वह उसका एक आयाम है । यह प्रवचन है । पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करते समय लेखक स्वयं का परीक्षण करता है । वह देखता है कि उसे ठीक से प्रस्तुत करना आया कि नहीं । लेखक ज्ञानार्जन की प्रक्रिया के अन्य सिद्धांतों के साथ पंचपदी के सिद्धांत की तुलना करता है । वह यह प्रक्रिया किस प्रकार होती है इसका भी चिंतन करता है । पाठक भी यह करेंगे । तब लेखक और पाठक सबके लिए यह स्वाध्याय का पद होगा । इसी प्रकार से अन्य विषयों को भी समझा जाता है । दोनों पद्धतियों की तुलना शिक्षक प्रशिक्षण के कई पाठ्यक्रमों में हमने हर्बर्ट की पंचपदी के विषय में सुना है और पढ़ा भी है । यहाँ जो पंचपदी प्रस्तुत हुई है उसमें और हर्बर्ट की पंचपदी में क्या अंतर है ? क्या दोनों का समन्वय किया जा सकता है ?

हर्बर्ट की पंचपदी मूल रूप से अध्यापन की पंचपदी है । अध्यापक को कक्षाकक्ष में विषय किस प्रकार प्रस्तुत करना है उसका मार्गदर्शन यह पंचपदी करती है । व्यापक संदर्भ में कहे तो पाश्चात्य जगत की सारी अध्ययन अध्यापन प्रक्रिया यांत्रिकता से ग्रस्त हो गई है। अध्यापन को कालांश नामक समयसीमा में बद्ध करती है । अध्यापन कौशल को छोटे छोटे हिस्सों में बांटती है । जिस प्रकार एक यंत्र के छोटो छोटे हिस्से बनते हैं उसी प्रकार एक विषय को उपपविषयों में विभाजित किया जाता है उस के मुद्दे बनाए जाते हैं और एक ३५ या ४५ मिनट की समय सीमा में क्या पढ़ाना है यह तय किया जाता है । उस समय सीमा के भी हिस्से किए जाते हैं और उन हिस्सों में क्या क्या करना है किस प्रकार करना है यह निश्चित किया जाता है । मोटे मोटे यह पांचपद से होते हैं और वे क्रमशः भी होते हैं अतः उसे पंचपदी कहा जाता है । हर्बर्ट नामक शिक्षाशास्त्री उस का आविष्कार किया था अतः उसे हर्बर्ट की पंचपदी कहते हैं । हमारे पंचपदी के सिद्धांत और हर्बर्ट की पंचपदी में जो मौलिक अंतर है वह है हर्बर्ट की पंचपदी, अध्यापक की पंचपदी है जबकि हमारी पंचपदी अध्ययन की पंचपदी है । हर्बर्ट की पंचपदी क्रिया है और हमारी पंचपदी प्रक्रिया है । क्रिया कौशल के साथ जुड़ी हुई है और प्रक्रिया अर्जन के साथ । हर्बर्ट की पंचपदी अध्यापन कौशल को विकसित करती है जबकि हमारी पंचपदी अध्ययन के मनोविज्ञान को दर्शाती है । मुझे लगता है कि इस मूल अंतर को समझने से सारी बातें स्पष्ट हो जाती हैं ।

कवि श्रीहर्ष के नैषधिचरित नामक महाकाव्य में एक प्रकार से इसका उल्लेख आता है । नल राजा गुरुकुल में पढ़ते हैं तब उनका अध्ययन जिस पद्धति से चलता है उसे ४ पदों में बताया गया है | ये चार पद है अधीति, बोध, आचरण और प्रचार । हमारे देश में शिक्षा क्षेत्र में अभी विद्याभारती नामक एक अखिल धार्मिक संगठन कार्यरत हैं। इस संगठन के प्रथम संगठन मंत्री थे श्री लज्जाराम जी तोमर ।

उन्होंने नैषधिचरित नामक महाकाव्य में उल्लेखित चार पदों में अपनी ओर से एक पद और जोड़ दिया । वह पद था अभ्यास का । उसके साथ यह पांच पद हुए । इस पद्धति का उन्होंने विस्तार भी किया । हम अपनी पंचपदी को उनका नाम जोड़ सकते हैं । अतः एक पद्धति है हर्बर्ट की पंचपदी और दूसरी है तोमर की पंचपदी । एक पाश्चात्य है एक धार्मिक । एक अध्यापक की पंचपदी है दूसरी अध्येता की । एक क्रिया है दूसरी प्रक्रिया है । एक कौशल है दूसरी अर्जन । एक का संबंध कक्षा कक्ष की गतिविधि के साथ है दूसरे का संबंध छात्र के स्वयं के प्रयास के साथ है । यह प्रयास कक्षाकक्ष तक सीमित नहीं है। यह एक निरंतर चलनेवाली प्रक्रिया है । पूर्व का अभ्यास नए विषय के अध्ययन के लिए अधिती कार्य भी कर सकता है । पूर्व प्रयोग से नए विषय का बोध अधिक सुगमता से होता है । ज्ञानार्जन निरंतर चलनेवाली प्रक्रिया है इसी बात को पंचपदी दर्शाती है ।

विषय अनुसार कक्ष रचना

हमने पूर्व में पंचपदी अध्ययन पद्धति की चर्चा की । बालक तो क्या सभी के लिए किसी भी विषय को आत्मसात करने की प्रक्रिया वही होती है । घर और विद्यालय दोनों में वैसी ही होती है । इस प्रक्रिया को ध्यान में लेकर व्यवस्थायें बनाना आचार्य का काम है ।

व्यवस्था के मुख्य अंग इस प्रकार हैं:

  1. वर्तमान व्यवस्था में परिवर्तन : वर्तमान में विद्यालयों और महाविद्यालयों में कालांश पद्धति चलती है । शिशुवाटिका में बीस मिनट से लेकर क्रमश: तीस, पैंतीस, चालीस, पैंतालीस और साठ मिनट के कालांशों का प्रचलन होता है । इस निश्चित अवधि के साथ विषय बदलता है, शिक्षक बदलता है और कभी कभी स्थान भी बदलता है । स्थान बदलने के अवसर तुलना में कम होते हैं । कभी खेल के मैदान में या विज्ञान की प्रयोगशाला में जाना होता है। परन्तु यह सभी विषयों को लागू नहीं है । अधिकांश विषय एक ही स्थान पर बैठकर पढे जाते हैं । इस व्यवस्था में परिवर्तन आवश्यक है।
  2. कालांश के ही समान आज की व्यवस्था स्थान से बद्ध हो गई है । विभिन्न कक्षाओं को विभिन्न कक्षों के साथ जोड़ दिया गया है । यह आठवीं का, यह पाँचवीं का, यह प्रथमा का कक्ष है ऐसा निश्चित किया जाता है और उस कक्षा के छात्र सारे विषय उसी कक्ष में बैठकर पढ़ते हैं । स्वाभाविक बात तो यह है कि सारे विषय केवल कक्षाकक्ष में पढे जाते हैं ऐसा भी नहीं है । वे कक्षाकक्ष के बाहर, विद्यालय परिसर में, घर में, समाज में पढे जाते हैं । विभिन्न क्रियाकलापों के माध्यम से पढ़े जाते हैं। उन्हें निश्चित कालावधि में बांधना, निश्चित स्थान और व्यवस्था में बांधना सर्वथा अनुचित है । ऐसा करना अध्ययन प्रक्रिया में ही अवरोध निर्माण करता है । इसमें परिवर्तन की अत्यधिक आवश्यकता है ।
  3. किसी भी विषय का अध्ययन केवल निश्चित समय पर, निश्चित समयावधि में, निश्चित पद्धति और प्रक्रिया से, निश्चित एक ही स्थान पर नहीं हो सकता है। यह बहुत कृत्रिम पद्धति है। शिक्षा जैसी आध्यात्मिक प्रक्रिया, जो सम्पूर्ण व्यक्तित्व के साथ जुड़ी हुई है, यांत्रिक पद्धति से नहीं हो सकती है । जीवन जिस प्रकार चलता है उसी प्रकार से शिक्षा भी चलती है ।
  4. अतः कक्षों का विभाजन कक्षाओं के अनुसार करने के स्थान पर विषयों के अनुसार करना उचित है। यह शिक्षा के जीवमान स्वभाव को ध्यान में रखकर की गई व्यवस्था है ।
  5. इस प्रकार विभाजन करने से विभिन्न विषयों के स्वरूप के अनुसार व्यवस्था करने की सुविधा निर्माण होती है। हर विषय का कक्ष उस विषय की प्रयोगशाला हो सकता है । विषय के साथ संबन्धित सम्पूर्ण साहित्य और सामाग्री उस कक्ष में हो सकती है ।
  6. बैठक व्यवस्था से लेकर वातावरण उसी विषय के अनुरूप बनाया जा सकता है । विज्ञान की प्रयोगशाला, उद्योग की कार्यशाला, संगीत की संगीतशाला, चित्र तथा अन्य कलाओं की कलाशाला, भाषा और साहित्य का साहित्यमंदिर, इतिहास और भूगोल की पुरातत्त्वशाला आदि की रचना की जा सकती है।
  7. ऐसा करने से विषयों की साधनसामग्री एक ही स्थान पर उपलब्ध हो जाती है। विषय का आकलन सरलता से होता है।
  8. विषय के अनुसार कक्षरचना करने के लिए कालांश पद्धति बदलनी होती है। समयसारिणी में परिवर्तन करना होता है । अब सारे विषय एक ही अवधि के नहीं रखे जा सकते । विषय की प्रकृति के अनुरूप समय का विभाजन करना होता है।
  9. साथ ही एक ही कक्षा के छात्र एक साथ बैठेंगे ऐसा भी आवश्यक नहीं है । एक कक्ष में बैठ सकें उतनी संख्या में दो तीन कक्षाओं के छात्र एकसाथ बैठेंगे । अर्थात कोई छात्र चौदह वर्ष आयु के हैं तो कोई बारह और कोई ग्यारह वर्ष आयु के भी हो सकते हैं ।
  10. किंबहुना अब कक्षाओं के अनुसार छात्रों का विभाजन नहीं हो सकता, विषयों के अनुसार छात्रों का विभाजन होगा । यह नौवीं का, यह सातवीं का, यह पाँचवीं का इस प्रकार कक्षों का विभाजन करने के स्थान पर विज्ञान, भाषा, इतिहास आदि के अनुसार कक्षों का विभाजन होगा।
  11. विषय के अनुसार कक्ष रचना करने के लिए एक एक वर्ष की एक एक कक्षा की अवधि भी नहीं रहेगी। कुल बारह वर्ष पढ़ना है तो छात्र अपनी अपनी क्षमता के अनुसार विभिन्न विषयों के कक्षों में बैठकर अध्ययन करेंगे। विषयों का पाठ्यक्रम एक एक वर्ष में विभाजित होने के स्थान पर निरन्तर बारह वर्षों का होगा और छात्र अपनी अपनी क्षमता के अनुसार किसी विषय का पाठ्यक्रम बारह, ग्यारह या हो सकता है कि पंद्रह वर्षों में पूर्ण करेंगे । अर्थात बारह वर्षों कि अवधि में कोई छात्र बारह वर्ष सामाजिक शास्त्रों का अध्ययन पूर्ण करता है तो उसके तीन बचे हुए वर्ष कठिन लगने वाले विषय का अधिक अध्ययन करने के लिए दे सकता है।
  12. इस व्यवस्था में अध्ययन स्वाभाविक हो सकता है, आवश्यक और सहज गति से हो सकता है, पर्याप्त समय देकर हो सकता है । छोटे और बड़े छात्र एक साथ अध्ययन करते हैं अतः बड़े छात्र छोटे छात्रों को सहायता कर सकते हैं । एक ही कक्षा में किसी छात्र का अधिति का, किसीका बोध का । किसीका अभ्यास का, किसीका प्रसार का पद सम्भव होता है। पंचपदी अध्ययन पद्धति के लिए इस प्रकार की रचना अनिवार्य है।
  13. आचार्य और छात्रों का समरस सम्बन्ध बनने में यह रचना बहुत सहायक होती है। यह एक एक विषय का छोटा गुरुकुल अथवा छोटा विद्यालय बन जाता
  14. सभी कक्षाओं का नियोजन भी विषयों के अनुसार ही होता है, न कि कक्षाओं के अनुसार ।
  15. आज की व्यवस्था के हम इतने अभ्यस्त हो गए हैं कि इस प्रकार की रचना हमें जल्दी समझ में नहीं आती। परन्तु ठीक से विचार करने पर इसकी उपयोगिता ध्यान में आती है। इस प्रकार की रचना करने के लिए विद्यालय के भवन की रचना का भी विशेष विचार करना होगा। सभी कक्ष एक ही नाप के, एक ही आकारप्रकार के नहीं हो सकते । विषय के स्वरूप के अनुसार ही कक्षों का निर्माण भी करना होगा ।
  16. संक्षेप में पंचपदी अध्ययन पद्धति के लिए विषयानुसार कक्षरचना अनिवार्य है ।

References

  1. धार्मिक शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप (धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला १)-अध्याय १८, प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे