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तीसरा और सब से बड़ा अवरोध मन के स्तर का है। छात्रों का मन एकाग्र नहीं होना यह आम बात है । कक्षा में पढ़ने के लिये बैठें तो हैं, अध्यापक कुछ बोल रहा है अथवा छात्रों को पढ़ने के लिये दिया है, सामने पुस्तक भी खुली पड़ी है, चर्म चक्षु तो पुस्तक में लिखा हुआ देख रहे हैं, शारीरिक कान अध्यापक क्या कह रहे हैं वह सुन रहे हैं परन्तु मन के कान कहीं और हैं और कोई दूसरी बात न रहे हैं । दूसरी सुनी हुई बात का स्मरण हो रहा हैं । मन की आँखें और ही कुछ देख रही हैं और उस देखे हुए दृश्य का आनन्द ले रही हैं । इसका ध्यान ही कक्षा कक्ष में क्या हो रहा है इसकी ओर नहीं है । ऐसे छात्र अध्ययन का पहला चरण भी पार नहीं कर पाते हैं । वे ग्रहणशील नहीं होते हैं अर्थात्‌ जो भी अध्ययन हो रहा है वह उनके अन्दर जाता ही नहीं है । ज्ञानेन्द्रियाँ उन्हें ग्रहण ही नहीं करती है तो ज्ञान के स्तर तक पहुँचने की कोई सम्भावना ही नहीं है । इसलिये जो हो रहा है वहीं पर मन को एकाग्र करना आवश्यक होता है। छात्र कभी एकाध शब्द सुनते हैं और फिर शेष ध्यान उनका और कहीं चला जाता है। ऐसा बार बार एकाग्रता का भंग होना वर्तमान कक्षा कक्ष में बहुत ही प्रचलन में है, बहुत ही सामान्य बात है । दूसरा मन के स्तर का अवरोध है, समझ में नहीं आना । यह वैसे बुद्धि, तेजस्वी नहीं होने का लक्षण है परन्तु अवरोध तो मन के स्तर का है । क्योंकि मन कहीं और लगा हुआ है । मन की रूचि अध्ययन में नहीं बन रही है । मन तनाव ग्रस्त है । मन उत्तेजना ग्रस्त है, शान्त नहीं है इसलिये वह ग्रहण नहीं कर पाता है । और जो ग्रहण किया है उसकी धारणा नहीं कर पाता है । ग्रहण नहीं करने के कारण से जो कुछ भी अध्ययन करता है वह आधा अधूरा होता है । उत्तेजना के कारण से जो भी ग्रहण करता है वह खण्ड खण्ड में करता है और उसकी समझ आधी अधूरी और बहुत ही मिश्रित स्वरूप की बनती है । इसलिये मन का शान्त होना बहुत ही आवश्यक है । उदाहरण के लिये एक पात्र में यदि २०० ग्राम दूध समाता है तो फिर उसमें कितना भी अधिक दूध डालो, वह तो केवल २०० ग्राम ही ग्रहण करेगा बाकी सारा दूध बह जायेगा । कक्षा कक्षों की भी यही स्थिति होती है। अध्यापक पढ़ाते ही जाते हैं पढ़ाते ही जाते हैं परन्तु छात्रों की ग्रहणशीलता कम होने के कारण से वह सब निर्रर्थक हो जाता है । छात्रों का पात्र तो छोटा का छोटा ही रह जाता है । इसलिये इस अवरोध को पार करने के लिये मन को शान्त रखना बहुत आवश्यक है । मन को शान्त रखने के उपाय की ओर हम बाद में ध्यान देंगे परन्तु मन के स्तर के जो अवरोध हैं उनको पार किये बिना ज्ञान सम्पादन होना तो असम्भव है ।
 
तीसरा और सब से बड़ा अवरोध मन के स्तर का है। छात्रों का मन एकाग्र नहीं होना यह आम बात है । कक्षा में पढ़ने के लिये बैठें तो हैं, अध्यापक कुछ बोल रहा है अथवा छात्रों को पढ़ने के लिये दिया है, सामने पुस्तक भी खुली पड़ी है, चर्म चक्षु तो पुस्तक में लिखा हुआ देख रहे हैं, शारीरिक कान अध्यापक क्या कह रहे हैं वह सुन रहे हैं परन्तु मन के कान कहीं और हैं और कोई दूसरी बात न रहे हैं । दूसरी सुनी हुई बात का स्मरण हो रहा हैं । मन की आँखें और ही कुछ देख रही हैं और उस देखे हुए दृश्य का आनन्द ले रही हैं । इसका ध्यान ही कक्षा कक्ष में क्या हो रहा है इसकी ओर नहीं है । ऐसे छात्र अध्ययन का पहला चरण भी पार नहीं कर पाते हैं । वे ग्रहणशील नहीं होते हैं अर्थात्‌ जो भी अध्ययन हो रहा है वह उनके अन्दर जाता ही नहीं है । ज्ञानेन्द्रियाँ उन्हें ग्रहण ही नहीं करती है तो ज्ञान के स्तर तक पहुँचने की कोई सम्भावना ही नहीं है । इसलिये जो हो रहा है वहीं पर मन को एकाग्र करना आवश्यक होता है। छात्र कभी एकाध शब्द सुनते हैं और फिर शेष ध्यान उनका और कहीं चला जाता है। ऐसा बार बार एकाग्रता का भंग होना वर्तमान कक्षा कक्ष में बहुत ही प्रचलन में है, बहुत ही सामान्य बात है । दूसरा मन के स्तर का अवरोध है, समझ में नहीं आना । यह वैसे बुद्धि, तेजस्वी नहीं होने का लक्षण है परन्तु अवरोध तो मन के स्तर का है । क्योंकि मन कहीं और लगा हुआ है । मन की रूचि अध्ययन में नहीं बन रही है । मन तनाव ग्रस्त है । मन उत्तेजना ग्रस्त है, शान्त नहीं है इसलिये वह ग्रहण नहीं कर पाता है । और जो ग्रहण किया है उसकी धारणा नहीं कर पाता है । ग्रहण नहीं करने के कारण से जो कुछ भी अध्ययन करता है वह आधा अधूरा होता है । उत्तेजना के कारण से जो भी ग्रहण करता है वह खण्ड खण्ड में करता है और उसकी समझ आधी अधूरी और बहुत ही मिश्रित स्वरूप की बनती है । इसलिये मन का शान्त होना बहुत ही आवश्यक है । उदाहरण के लिये एक पात्र में यदि २०० ग्राम दूध समाता है तो फिर उसमें कितना भी अधिक दूध डालो, वह तो केवल २०० ग्राम ही ग्रहण करेगा बाकी सारा दूध बह जायेगा । कक्षा कक्षों की भी यही स्थिति होती है। अध्यापक पढ़ाते ही जाते हैं पढ़ाते ही जाते हैं परन्तु छात्रों की ग्रहणशीलता कम होने के कारण से वह सब निर्रर्थक हो जाता है । छात्रों का पात्र तो छोटा का छोटा ही रह जाता है । इसलिये इस अवरोध को पार करने के लिये मन को शान्त रखना बहुत आवश्यक है । मन को शान्त रखने के उपाय की ओर हम बाद में ध्यान देंगे परन्तु मन के स्तर के जो अवरोध हैं उनको पार किये बिना ज्ञान सम्पादन होना तो असम्भव है ।
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मन के साथ साथ ही बुद्धि भी जुड़ी हुई है । बुद्धि तेजस्वी नहीं होने का कारण भी मन की चंचलता ही है और मन के विकार ही हैं । बुद्धि को अभ्यास नहीं होने के कारण से वह ठीक से ग्रहण नहीं कर पाती, ठीक से समझ नहीं पाती । हम यह तो बहुत सुनते हैं कि अध्यापक तो बहुत अच्छा पढ़ाते हैं परन्तु छात्रों को समझ में ही नहीं आता । इसका बहुत बड़ा कारण कहीं अध्ययन और अध्यापन की अनुचित पद्धति भी है । उदाहरण के लिये भाषा तो सुन कर, बोलकर पढ़ कर, लिख कर, सीखा जाने वाला विषय है परन्तु ये चार तो भाषा के केवल कौशल हैं । आगे रस ग्रहण करना, मर्म समझना, सार ग्रहण करना आदि बुद्धि के स्तर की बातें हैं। अब हम यदि सुनना, बोलना, पढ़ना और लिखना इतने में ही भाषा को सीमित रखेंगे तो आगे व्याकरण, साहित्य, काव्य आदि बातें तो समझ में नहीं आयेंगी । तत्त्व चिन्तन भी समझ में नहीं आयेगा, इसलिये बुद्धि से सीखी जाने वाली बातें बुद्धि से ही सीखी जाती हैं। अभ्यास से सीखी जाने वाली बातें अभ्यास से सीखी जाती हैं । ऐसा एक सूत्र अध्ययन अध्यापन करते समय हमें ध्यान में रखने की बहुत आवश्यकता है । इसी प्रकार से बुद्धि के क्षेत्र के अवरोधों का एक कारण विभिन्न विषय सिखाने की एक समान पद्धति है । उदाहरण के लिये भूगोल कभी भी पुस्तकों से पढ़ाया नहीं जा सकता । विज्ञान कभी भी पुस्तकों से नहीं पढ़ाया जाता । गणित भाषा के कौशलों से सीखा नहीं जाता । इतिहास तत्त्व चिन्तन से सीखा नहीं जाता । विज्ञान प्रयोगशाला में सीखा जाता है । गणित कृति से ही सिखा जाता है । इतिहास कहानी सुनकर सीखा जाता है । भूगोल मैदान में जा कर सीखा जाता है । वाणिज्य बाजार में जाकर, दुकान में जाकर सीखा जाता है । इस प्रकार विभिन्न विषय सीखने की अलग अलग पद्धतियाँ होती हैं । यदि हम सभी विषयों को पुस्तकों के माध्यम से ही सीखने का आग्रह रखते हैं, अध्यापक के भाषण के माध्यम से ही सीखने का आग्रह रखते हैं, कक्षाकक्ष में बैठकर एक निश्चित समय की अवधि के दौरान ही सीखने का आग्रह रखते हैं तो ये कभी भी सीखे नहीं जाते । सीखने का केवल आभास ही निर्माण होता है। विभिन्न विषयों के लिये विभिन्न पद्धतियाँ अपनाने से ही अध्ययन अच्छा होता है। ऐसी पद्धतियाँ नहीं अपनाई जायेगी तो बुद्धि का विकास भी नहीं होता और बुद्धि के जितने भी साधन हैं उन साधनों का उपयोग भी करना नहीं आता । बुद्धि के साधन हैं तर्क और अनुमान । बुद्धि के साधन हैं निरिक्षण और परीक्षण । बुद्धि के साधन हैं संश्लेषण और विश्लेषण । बुद्धि के साधन हैं कार्यकारण भाव समझना । इन सारे साधनों का प्रयोग करके उनका ठीक से अभ्यास किया जाय तो बुद्धि का विकास होता है और बुद्धि के विकास से ही सारी बातें सीखी जाती हैं । अध्ययन अच्छा होता है। अध्ययन वैसे खास बुद्धि का ही क्षेत्र है परन्तु शरीर और मन उसमें या तो साधक या तो बाधक हो सकते हैं। शरीर और मन को ठीक किये बिना बुद्धि अध्ययन करने का काम कर ही नहीं सकती।
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मन के साथ साथ ही बुद्धि भी जुड़ी हुई है । बुद्धि तेजस्वी नहीं होने का कारण भी मन की चंचलता ही है और मन के विकार ही हैं । बुद्धि को अभ्यास नहीं होने के कारण से वह ठीक से ग्रहण नहीं कर पाती, ठीक से समझ नहीं पाती । हम यह तो बहुत सुनते हैं कि अध्यापक तो बहुत अच्छा पढ़ाते हैं परन्तु छात्रों को समझ में ही नहीं आता । इसका बहुत बड़ा कारण कहीं अध्ययन और अध्यापन की अनुचित पद्धति भी है । उदाहरण के लिये भाषा तो सुन कर, बोलकर पढ़ कर, लिख कर, सीखा जाने वाला विषय है परन्तु ये चार तो भाषा के केवल कौशल हैं । आगे रस ग्रहण करना, मर्म समझना, सार ग्रहण करना आदि बुद्धि के स्तर की बातें हैं। अब हम यदि सुनना, बोलना, पढ़ना और लिखना इतने में ही भाषा को सीमित रखेंगे तो आगे व्याकरण, साहित्य, काव्य आदि बातें तो समझ में नहीं आयेंगी । तत्त्व चिन्तन भी समझ में नहीं आयेगा, इसलिये बुद्धि से सीखी जाने वाली बातें बुद्धि से ही सीखी जाती हैं। अभ्यास से सीखी जाने वाली बातें अभ्यास से सीखी जाती हैं । ऐसा एक सूत्र अध्ययन अध्यापन करते समय हमें ध्यान में रखने की बहुत आवश्यकता है । इसी प्रकार से बुद्धि के क्षेत्र के अवरोधों का एक कारण विभिन्न विषय सिखाने की एक समान पद्धति है । उदाहरण के लिये भूगोल कभी भी पुस्तकों से पढ़ाया नहीं जा सकता । विज्ञान कभी भी पुस्तकों से नहीं पढ़ाया जाता । गणित भाषा के कौशलों से सीखा नहीं जाता । इतिहास तत्त्व चिन्तन से सीखा नहीं जाता । विज्ञान प्रयोगशाला में सीखा जाता है । गणित कृति से ही सिखा जाता है । इतिहास कहानी सुनकर सीखा जाता है । भूगोल मैदान में जा कर सीखा जाता है । वाणिज्य बाजार में जाकर, दुकान में जाकर सीखा जाता है । इस प्रकार विभिन्न विषय सीखने की अलग अलग पद्धतियाँ होती हैं । यदि हम सभी विषयों को पुस्तकों के माध्यम से ही सीखने का आग्रह रखते हैं, अध्यापक के भाषण के माध्यम से ही सीखने का आग्रह रखते हैं, कक्षाकक्ष में बैठकर एक निश्चित समय की अवधि के दौरान ही सीखने का आग्रह रखते हैं तो ये कभी भी सीखे नहीं जाते । सीखने का केवल आभास ही निर्माण होता है। विभिन्न विषयों के लिये विभिन्न पद्धतियाँ अपनाने से ही अध्ययन अच्छा होता है। ऐसी पद्धतियाँ नहीं अपनाई जायेगी तो बुद्धि का विकास भी नहीं होता और बुद्धि के जितने भी साधन हैं उन साधनों का उपयोग भी करना नहीं आता । बुद्धि के साधन हैं तर्क और अनुमान । बुद्धि के साधन हैं निरीक्षण और परीक्षण । बुद्धि के साधन हैं संश्लेषण और विश्लेषण । बुद्धि के साधन हैं कार्यकारण भाव समझना । इन सारे साधनों का प्रयोग करके उनका ठीक से अभ्यास किया जाय तो बुद्धि का विकास होता है और बुद्धि के विकास से ही सारी बातें सीखी जाती हैं । अध्ययन अच्छा होता है। अध्ययन वैसे खास बुद्धि का ही क्षेत्र है परन्तु शरीर और मन उसमें या तो साधक या तो बाधक हो सकते हैं। शरीर और मन को ठीक किये बिना बुद्धि अध्ययन करने का काम कर ही नहीं सकती।
    
== बुद्धि को साधना ==
 
== बुद्धि को साधना ==
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अब बुद्धि के क्षेत्र में अवरोध दूर करने के उपाय पर चर्चा करते हैं।  सब से पहले छोटी आयु में कण्ठस्थीकरण की ओर ध्यान देना चाहिये । छोटी आयु में स्मृति तेज होती है, सक्रीय होती है और कण्ठस्थीकरण सहज लगने वाला कार्य होता है इसलिये बहुत सारी बातों का कण्ठस्थीकरण हो जाये ऐसा ही शिक्षाक्रम बनाना चाहिये। पहाड़ो का कण्ठस्थीकरण, सूत्र, नियम आदि का कण्ठस्थीकरण, मन्त्रों का कण्ठस्थिकरण, भगवदू गीता के अध्यायों का, स्तोत्रों का कण्ठस्थिकरण आगे चल कर विषय समझने में और विषय का प्रतिपादन करने में बहुत ही सहायता करते हैं ।
 
अब बुद्धि के क्षेत्र में अवरोध दूर करने के उपाय पर चर्चा करते हैं।  सब से पहले छोटी आयु में कण्ठस्थीकरण की ओर ध्यान देना चाहिये । छोटी आयु में स्मृति तेज होती है, सक्रीय होती है और कण्ठस्थीकरण सहज लगने वाला कार्य होता है इसलिये बहुत सारी बातों का कण्ठस्थीकरण हो जाये ऐसा ही शिक्षाक्रम बनाना चाहिये। पहाड़ो का कण्ठस्थीकरण, सूत्र, नियम आदि का कण्ठस्थीकरण, मन्त्रों का कण्ठस्थिकरण, भगवदू गीता के अध्यायों का, स्तोत्रों का कण्ठस्थिकरण आगे चल कर विषय समझने में और विषय का प्रतिपादन करने में बहुत ही सहायता करते हैं ।
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पहाड़े केल्कुलेटर का काम करते हैं और स्तोत्र, मन्त्र, सूत्र आदि सब विज्ञान और गणित के क्षेत्र में तथा तत्त्वज्ञान के क्षेत्र में बुद्धि से प्रतिपादन करने के क्षेत्र में नित्य उपस्थित ऐसे सन्दर्भों का काम करते हैं । इसलिये कण्ठस्थीकरण बहुत कर चाहिये । साथ ही सभी बातों का निरिक्षण करने का अभ्यास करना चाहिये । निरिक्षण करने से ध्यान भी एकाग्र होता है, मन भी एकाग्र होता है, रुचि भी बढ़ती है और समझ भी बढ़ती है । अनेक बातें अपने आप ध्यान में आती हैं । इसलिये निरीक्षण करना और परीक्षण करना यह नित्य अभ्यास के विषय बनने चाहिये । किशोर आयु में किसी भी सिद्धान्त का साधक बाधक विचारप्रवृत्ति का विकास करना चाहिये । किसी भी कृति के, किसी भी घटना के दोनों पक्ष क्या हैं इसका कार्य कारण भाव समझना बहुत आवश्यक है । छात्रों की विचार प्रक्रिया को प्रेरणा देकर उनका विकास करना यह अध्ययन का तरीका होता है । यदि ऐसा नहीं किया तो छात्र रटने पर उतारु हो जाते हैं और रटी हुई बातें समझ में नहीं आती । वे परीक्षा का प्रयोजन समाप्त होते ही भूल जाते हैं। ये व्यक्तित्व का अंग नहीं बनती । इसलिये विचार की प्रक्रिया को चलने देना बहुत आवश्यक है । साधक बाधक चर्चा करना बहुत आवश्यक है । कार्य कारण भाव समझना बहुत आवश्यक है । चिंतन करना बहुत आवश्यक है । अपने अभिप्राय बनाना इसका भी बहुत अभ्यास होना चाहिये । इसी से बुद्धि की स्वतंत्रता का विकास होता है । साथ में दायित्व बोध भी निर्मित होता है।
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पहाड़े केल्कुलेटर का काम करते हैं और स्तोत्र, मन्त्र, सूत्र आदि सब विज्ञान और गणित के क्षेत्र में तथा तत्त्वज्ञान के क्षेत्र में बुद्धि से प्रतिपादन करने के क्षेत्र में नित्य उपस्थित ऐसे सन्दर्भों का काम करते हैं । इसलिये कण्ठस्थीकरण बहुत कर चाहिये । साथ ही सभी बातों का निरीक्षण करने का अभ्यास करना चाहिये । निरीक्षण करने से ध्यान भी एकाग्र होता है, मन भी एकाग्र होता है, रुचि भी बढ़ती है और समझ भी बढ़ती है । अनेक बातें अपने आप ध्यान में आती हैं । इसलिये निरीक्षण करना और परीक्षण करना यह नित्य अभ्यास के विषय बनने चाहिये । किशोर आयु में किसी भी सिद्धान्त का साधक बाधक विचारप्रवृत्ति का विकास करना चाहिये । किसी भी कृति के, किसी भी घटना के दोनों पक्ष क्या हैं इसका कार्य कारण भाव समझना बहुत आवश्यक है । छात्रों की विचार प्रक्रिया को प्रेरणा देकर उनका विकास करना यह अध्ययन का तरीका होता है । यदि ऐसा नहीं किया तो छात्र रटने पर उतारु हो जाते हैं और रटी हुई बातें समझ में नहीं आती । वे परीक्षा का प्रयोजन समाप्त होते ही भूल जाते हैं। ये व्यक्तित्व का अंग नहीं बनती । इसलिये विचार की प्रक्रिया को चलने देना बहुत आवश्यक है । साधक बाधक चर्चा करना बहुत आवश्यक है । कार्य कारण भाव समझना बहुत आवश्यक है । चिंतन करना बहुत आवश्यक है । अपने अभिप्राय बनाना इसका भी बहुत अभ्यास होना चाहिये । इसी से बुद्धि की स्वतंत्रता का विकास होता है । साथ में दायित्व बोध भी निर्मित होता है।
    
किशोर अवस्था में समाज सेवा में प्रवृत्ति होना बहुत आवश्यक है । इस प्रकार समाज सेवा में प्रवृत्ति होने से अध्ययन को एक प्रयोजन प्राप्त होता है, सन्दर्भ प्राप्त होता है। किशोर और तरूण अवस्था में प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा और ध्यान ये सीखने के महत्त्वपूर्ण विषय बनते हैं । ध्यान केवल एकाग्रता के लिये नहीं परन्तु ध्यान अन्तर्मुख होने में भी बहुत सहायक बनता है । एकाग्रता से भी अन्तर्मुख होना अधिक आवश्यक है । अन्तर्मुख होने से बाहर के अध्ययन के साथ साथ अन्दर का और स्वयं का अध्ययन करने की प्रवृत्ति का भी विकास होता है । बाहर और अन्दर दोनों की ओर अध्ययन की दिशा बननी चाहिये । अन्दर का अध्ययन करने से एक प्रकार का विकास होता है । बाहर का अध्ययन करने से दूसरे प्रकार का विकास होता है । दोनों और सम्यक विकास होते होते यह ध्यान में आता है कि बाहर और अन्दर अलग नहीं है दोनों एक ही है । यह अनुभूति की शिक्षा है । पग पग पर अनुभूति की शिक्षा का प्रवर्तन करना, उसकी योजना करना, यह भी अध्ययन का विकास करने के लिये, अध्ययन की क्षमता का विकास करने के लिये बहुत आवश्यक है । यदि ऐसा नहीं हुआ तो अध्ययन यान्त्रिक बन जाता है । इस प्रकार अध्ययन के लिये यान्त्रिकता भी बहुत बड़ी बाधा है । यह तो छात्र के स्वयं के आन्तरिक अवरोध हैं जो छात्र के लिये विभिन्न प्रकार के उपायों की योजना करने से दूर होते हैं परन्तु अध्ययन के अवरोध बाहर भी होते हैं। कक्षा कक्ष का वातावरण, अध्ययन का समय, अध्ययन के विषय, अध्ययन के पाठ्यक्रम, अध्ययन की पद्धतियाँ, उपकरणों का उपयोग, परीक्षा की पद्धति, ये सारे के सारे अध्ययन के अवरोध ही हैं।
 
किशोर अवस्था में समाज सेवा में प्रवृत्ति होना बहुत आवश्यक है । इस प्रकार समाज सेवा में प्रवृत्ति होने से अध्ययन को एक प्रयोजन प्राप्त होता है, सन्दर्भ प्राप्त होता है। किशोर और तरूण अवस्था में प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा और ध्यान ये सीखने के महत्त्वपूर्ण विषय बनते हैं । ध्यान केवल एकाग्रता के लिये नहीं परन्तु ध्यान अन्तर्मुख होने में भी बहुत सहायक बनता है । एकाग्रता से भी अन्तर्मुख होना अधिक आवश्यक है । अन्तर्मुख होने से बाहर के अध्ययन के साथ साथ अन्दर का और स्वयं का अध्ययन करने की प्रवृत्ति का भी विकास होता है । बाहर और अन्दर दोनों की ओर अध्ययन की दिशा बननी चाहिये । अन्दर का अध्ययन करने से एक प्रकार का विकास होता है । बाहर का अध्ययन करने से दूसरे प्रकार का विकास होता है । दोनों और सम्यक विकास होते होते यह ध्यान में आता है कि बाहर और अन्दर अलग नहीं है दोनों एक ही है । यह अनुभूति की शिक्षा है । पग पग पर अनुभूति की शिक्षा का प्रवर्तन करना, उसकी योजना करना, यह भी अध्ययन का विकास करने के लिये, अध्ययन की क्षमता का विकास करने के लिये बहुत आवश्यक है । यदि ऐसा नहीं हुआ तो अध्ययन यान्त्रिक बन जाता है । इस प्रकार अध्ययन के लिये यान्त्रिकता भी बहुत बड़ी बाधा है । यह तो छात्र के स्वयं के आन्तरिक अवरोध हैं जो छात्र के लिये विभिन्न प्रकार के उपायों की योजना करने से दूर होते हैं परन्तु अध्ययन के अवरोध बाहर भी होते हैं। कक्षा कक्ष का वातावरण, अध्ययन का समय, अध्ययन के विषय, अध्ययन के पाठ्यक्रम, अध्ययन की पद्धतियाँ, उपकरणों का उपयोग, परीक्षा की पद्धति, ये सारे के सारे अध्ययन के अवरोध ही हैं।

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