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यह तो शारीरिक मानसिक दृष्टि से जो बाधायें होती हैं, अवरोध निर्माण होते हैं उनके उपाय हैं । साथ ही छोटे छोटे और उपाय भले ही छोटे हों परन्तु महत्त्वपूर्ण उपाय हैं। ये उपाय हैं मन के क्षेत्र के । मन को एकाग्र बनाने के लिये पहले उसे शान्त बनाने की आवश्यकता होती है । मन को शान्त बनाने के लिये जिस प्रकार शरीर के लिये आहार विहार का ध्यान रखना चाहिये उसी प्रकार से मन के लिये भी आहार विहार का ध्यान रखना आवश्यक है । सात्विक आहार और प्रेम से बनाया हुआ आहार मन को शान्त बनाता है, प्रेमपूर्ण भी बनाता है । इसलिये अन्न की शुद्धि, अन्न की पवित्रता मन के लिये अत्यन्त आवश्यक है। छात्रों के लिये इसी कारण से बाहर का खाना वर्जित हो जाना चाहिये, वर्जित कर देना चाहिये, क्योंकि सारी समस्याओं की जड़ तो वहीं पर है । घर का बनाया हुआ भोजन करना यह छात्रों के लिये नियम बन जाना चाहिये और इस नियम का कड़ाई से पालन भी होना चाहिये ।
 
यह तो शारीरिक मानसिक दृष्टि से जो बाधायें होती हैं, अवरोध निर्माण होते हैं उनके उपाय हैं । साथ ही छोटे छोटे और उपाय भले ही छोटे हों परन्तु महत्त्वपूर्ण उपाय हैं। ये उपाय हैं मन के क्षेत्र के । मन को एकाग्र बनाने के लिये पहले उसे शान्त बनाने की आवश्यकता होती है । मन को शान्त बनाने के लिये जिस प्रकार शरीर के लिये आहार विहार का ध्यान रखना चाहिये उसी प्रकार से मन के लिये भी आहार विहार का ध्यान रखना आवश्यक है । सात्विक आहार और प्रेम से बनाया हुआ आहार मन को शान्त बनाता है, प्रेमपूर्ण भी बनाता है । इसलिये अन्न की शुद्धि, अन्न की पवित्रता मन के लिये अत्यन्त आवश्यक है। छात्रों के लिये इसी कारण से बाहर का खाना वर्जित हो जाना चाहिये, वर्जित कर देना चाहिये, क्योंकि सारी समस्याओं की जड़ तो वहीं पर है । घर का बनाया हुआ भोजन करना यह छात्रों के लिये नियम बन जाना चाहिये और इस नियम का कड़ाई से पालन भी होना चाहिये ।
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छात्र सूती वस्त्र पहने यह भी स्वास्थ की दृष्टि से अत्यन्त आवश्यक है । छात्रों को श्रम करना चाहिये । श्रम करने में लज्जा का नहीं परन्तु गौरव का भाव होना चाहिये । यह श्रम मन को साफ करता है, मन को अच्छा बनाता है । साथ में उसके व्यावहारिक लाभ तो हैं ही, समय बचता है, पैसा बचता है, किसी को नौकर नहीं बनाना होता और काम के प्रति, श्रम के प्रति हेय भाव निर्माण नहीं होने से, अन्ततोगत्वा व्यक्तिगत जीवन में और सामाजिक जीवन में समृद्धि भी पनपती है, इसलिये श्रम की प्रतिष्ठा करना यह विद्यालय का, घर का, समाज का बहुत बड़ा दायित्व है । जब तक काम नहीं करते तब तक अध्ययन ठीक से नहीं होता । यह बात बार बार अनेक प्रकार से समझाने की आवश्यकता है । इसलिये छात्रों को श्रम करना चाहिये यह नियम बनता है । श्रम घर के, विद्यालय के कामों के माध्यम से होता है । इसलिये विद्यालय के और घर के सारे काम करने में कुशलता प्राप्त करना यह तो शिक्षा का भी प्रमुख और शाख्रीय अध्ययन करने के लिये बुद्धि ग्रहणशील और तेजस्वी बनाने के लिये एक पात्रता निर्माण करने का भी माध्यम है । मन शान्त करने के लिये और मन स्वच्छ बनाने के लिये सत्संग और सेवा बहुत आवश्यक है । सेवा छात्र की आयु के अनुसार अनेक प्रकार की होती है। आजकल हमने सर्विस सेक्टर या नौकरी का क्षेत्र उसको सेवा कहना शुरू किया है । यह सेवा शब्द का अत्यन्त ही गलत प्रयोग है । किसी दूसरे का काम, किसी दूसरे के लिये कष्ट सहन करना और अपने लिये कुछ भी अपेक्षा नहीं करना और ऐसा करने में आनन्द का अनुभव करना सेवा है । और किसी भी प्रकार के बदले की अपेक्षा रखना यह सेवा नहीं है । इसलिये सेवा भाव है और सेवा भाव से किया हुआ काम सेवाकार्य है । ऐसा सेवाकार्य करना छात्रों के लिये अनिवार्य बनाना चाहिये । सेवा की वृत्ति है, सेवा की भावना है और सेवा की कृति है । इन तीनों का समावेश छात्रों को अध्ययनहेतु पात्रता निर्माण करने में सहायक बनता है । इसलिये छात्रों को सेवा तो करनी ही चाहिये।  
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छात्र सूती वस्त्र पहने यह भी स्वास्थ की दृष्टि से अत्यन्त आवश्यक है । छात्रों को श्रम करना चाहिये । श्रम करने में लज्जा का नहीं परन्तु गौरव का भाव होना चाहिये । यह श्रम मन को साफ करता है, मन को अच्छा बनाता है । साथ में उसके व्यावहारिक लाभ तो हैं ही, समय बचता है, पैसा बचता है, किसी को नौकर नहीं बनाना होता और काम के प्रति, श्रम के प्रति हेय भाव निर्माण नहीं होने से, अन्ततोगत्वा व्यक्तिगत जीवन में और सामाजिक जीवन में समृद्धि भी पनपती है, इसलिये श्रम की प्रतिष्ठा करना यह विद्यालय का, घर का, समाज का बहुत बड़ा दायित्व है । जब तक काम नहीं करते तब तक अध्ययन ठीक से नहीं होता । यह बात बार बार अनेक प्रकार से समझाने की आवश्यकता है । इसलिये छात्रों को श्रम करना चाहिये यह नियम बनता है । श्रम घर के, विद्यालय के कामों के माध्यम से होता है । इसलिये विद्यालय के और घर के सारे काम करने में कुशलता प्राप्त करना यह तो शिक्षा का भी प्रमुख और शास्त्रीय अध्ययन करने के लिये बुद्धि ग्रहणशील और तेजस्वी बनाने के लिये एक पात्रता निर्माण करने का भी माध्यम है । मन शान्त करने के लिये और मन स्वच्छ बनाने के लिये सत्संग और सेवा बहुत आवश्यक है । सेवा छात्र की आयु के अनुसार अनेक प्रकार की होती है। आजकल हमने सर्विस सेक्टर या नौकरी का क्षेत्र उसको सेवा कहना शुरू किया है । यह सेवा शब्द का अत्यन्त ही गलत प्रयोग है । किसी दूसरे का काम, किसी दूसरे के लिये कष्ट सहन करना और अपने लिये कुछ भी अपेक्षा नहीं करना और ऐसा करने में आनन्द का अनुभव करना सेवा है । और किसी भी प्रकार के बदले की अपेक्षा रखना यह सेवा नहीं है । इसलिये सेवा भाव है और सेवा भाव से किया हुआ काम सेवाकार्य है । ऐसा सेवाकार्य करना छात्रों के लिये अनिवार्य बनाना चाहिये । सेवा की वृत्ति है, सेवा की भावना है और सेवा की कृति है । इन तीनों का समावेश छात्रों को अध्ययनहेतु पात्रता निर्माण करने में सहायक बनता है । इसलिये छात्रों को सेवा तो करनी ही चाहिये।  
    
फिर वह विद्यालय की सेवा हो, गुरु की सेवा हो, वृक्ष वनस्पति की सेवा हो, प्राणी की सेवा हो, देव सेवा हो, किसी भी रूप में सेवा हो लेकिन सेवा, दिनचर्या का अभिन्न अंग बनना आवश्यक है । इसके बाद ऊँकार का उच्चारण, जप करना, स्तोत्र पाठ करना, मन्त्रों का उच्चारण करना यह सब मन को एकाग्र बनाने के लिये आवश्यक है । मन की शुद्धि के लिये भी आवश्यक है । इसी से मन अध्ययन के लिये अनुकूल बनता है । तनाव दूर करने के लिये भी जप आवश्यक है। साथ ही अध्यापकों के या माता पिता के व्यवहार में ऐसा कुछ भी न हो जिस से छात्रों के मन में भय निर्माण हो, या तनाव निर्माण हो । भय और तनाव यह दोनों अध्ययन की शान्ति का नाश करते हैं । इसलिये भय और तनाव नहीं उत्पन्न करना यह दोनों का दायित्व बनता है । उत्तेजना पैदा करने वाले दृश्यों को देखने से या ऐसी बातें करने से भी मन अशान्त हो जाता है । इसलिये विद्यालय का वातावरण पवित्र रखना चाहिये ।
 
फिर वह विद्यालय की सेवा हो, गुरु की सेवा हो, वृक्ष वनस्पति की सेवा हो, प्राणी की सेवा हो, देव सेवा हो, किसी भी रूप में सेवा हो लेकिन सेवा, दिनचर्या का अभिन्न अंग बनना आवश्यक है । इसके बाद ऊँकार का उच्चारण, जप करना, स्तोत्र पाठ करना, मन्त्रों का उच्चारण करना यह सब मन को एकाग्र बनाने के लिये आवश्यक है । मन की शुद्धि के लिये भी आवश्यक है । इसी से मन अध्ययन के लिये अनुकूल बनता है । तनाव दूर करने के लिये भी जप आवश्यक है। साथ ही अध्यापकों के या माता पिता के व्यवहार में ऐसा कुछ भी न हो जिस से छात्रों के मन में भय निर्माण हो, या तनाव निर्माण हो । भय और तनाव यह दोनों अध्ययन की शान्ति का नाश करते हैं । इसलिये भय और तनाव नहीं उत्पन्न करना यह दोनों का दायित्व बनता है । उत्तेजना पैदा करने वाले दृश्यों को देखने से या ऐसी बातें करने से भी मन अशान्त हो जाता है । इसलिये विद्यालय का वातावरण पवित्र रखना चाहिये ।

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