Changes

Jump to navigation Jump to search
m
Text replacement - "[[Dharmik_Science_and_Technology_(धार्मिक_विज्ञान_एवं_तन्त्रज्ञान_दृष्टि)|विज्ञान]" to "[[Dharmik_Science_and_Technology_(धार्मिक_वि...
Line 10: Line 10:  
ज्ञानधारा को पुनः प्रवाहित करने हेतु अध्ययन करना एक मात्र उपाय है ।
 
ज्ञानधारा को पुनः प्रवाहित करने हेतु अध्ययन करना एक मात्र उपाय है ।
   −
३. धार्मिक ज्ञानधारा को पुनर्प्रवाहित करने हेतु हमें अपने शास्त्रग्रन्थो का अध्ययन करना पड़ेगा । हमारे शास्त्रग्रन्थ हैं वेद, उपनिषद, दर्शनों के सूत्रग्रन्थ, रामायण, महाभारत, पुराण आदि इनके साथ साथ भौतिक विज्ञान के भी अनेक ग्रन्थ उपलब्ध हैं जो भारत की भौतिक समृद्धि के लिये मार्गदर्शक रहे हैं ।
+
३. धार्मिक ज्ञानधारा को पुनर्प्रवाहित करने हेतु हमें अपने शास्त्रग्रन्थो का अध्ययन करना पड़ेगा । हमारे शास्त्रग्रन्थ हैं वेद, उपनिषद, दर्शनों के सूत्रग्रन्थ, रामायण, महाभारत, पुराण आदि इनके साथ साथ भौतिक [[Dharmik_Science_and_Technology_(धार्मिक_विज्ञान_एवं_तन्त्रज्ञान_दृष्टि)|विज्ञान]] के भी अनेक ग्रन्थ उपलब्ध हैं जो भारत की भौतिक समृद्धि के लिये मार्गदर्शक रहे हैं ।
    
४. अध्ययन करने की सही पद्धति को अपनाना आवश्यक होगा । सही आलम्बन भी हमें निश्चित करना होगा । इन दो बातों के परिणाम स्वरूप हमें राष्ट्र के जीवन के लिये सही अधिष्ठान और दिशा प्राप्त होगी ।
 
४. अध्ययन करने की सही पद्धति को अपनाना आवश्यक होगा । सही आलम्बन भी हमें निश्चित करना होगा । इन दो बातों के परिणाम स्वरूप हमें राष्ट्र के जीवन के लिये सही अधिष्ठान और दिशा प्राप्त होगी ।
Line 34: Line 34:  
............. page-293 .............
 
............. page-293 .............
   −
हुआ । प्रश्न यह है कि दर्शन का यह विषय भाषा और साहित्य विभाग में क्यों है ? केवल संस्कृत में लिखा गया है इसलिये । केवल पन्‍्द्रह सूत्र क्यों हैं ? एक वर्ष में इतने ही पढ़े जा सकते हैं इसलिये । इन्हें पढने से कया होगा ? इसका उचित उत्तर देश के हजारों छात्रों को नहीं मिलता है क्योंकि देश के सैकड़ो अध्यापकों और पाठ्यक्रम निर्धारित करनेवालों के पास भी नहीं है । इस प्रकार अनिश्चित उद्देश्य और आलम्बनरहित अध्ययन की पद्धति हमें बदलनी होगी ।
+
हुआ । प्रश्न यह है कि दर्शन का यह विषय भाषा और साहित्य विभाग में क्यों है ? केवल संस्कृत में लिखा गया है इसलिये । केवल पन्‍्द्रह सूत्र क्यों हैं ? एक वर्ष में इतने ही पढ़े जा सकते हैं इसलिये । इन्हें पढने से क्या होगा ? इसका उचित उत्तर देश के हजारों छात्रों को नहीं मिलता है क्योंकि देश के सैकड़ो अध्यापकों और पाठ्यक्रम निर्धारित करनेवालों के पास भी नहीं है । इस प्रकार अनिश्चित उद्देश्य और आलम्बनरहित अध्ययन की पद्धति हमें बदलनी होगी ।
    
१४. देश में अनेक संन्यासी सम्प्रदाय, मठ, आश्रम आदि चलते हैं । संन्यासियों के लिये, धर्माचार्यों के लिये उपनिषदों का, दर्शन ग्रन्थों का या वेदों का अध्ययन करना अनिवार्य होता है । वर्षों तक ऐसा अध्ययन यहाँ होता भी है । परन्तु यह या तो ज्ञान बढ़ाने के लिये अथवा मोक्ष प्राप्त करने के लिये होता है । समाज की जीवनशैली बदलना इनके लिये बहुत कठिन होता है । कदाचित यह उद्देश्य भी नहीं होता । हमें इस पद्धति में भी परिवर्तन करना होगा ।
 
१४. देश में अनेक संन्यासी सम्प्रदाय, मठ, आश्रम आदि चलते हैं । संन्यासियों के लिये, धर्माचार्यों के लिये उपनिषदों का, दर्शन ग्रन्थों का या वेदों का अध्ययन करना अनिवार्य होता है । वर्षों तक ऐसा अध्ययन यहाँ होता भी है । परन्तु यह या तो ज्ञान बढ़ाने के लिये अथवा मोक्ष प्राप्त करने के लिये होता है । समाज की जीवनशैली बदलना इनके लिये बहुत कठिन होता है । कदाचित यह उद्देश्य भी नहीं होता । हमें इस पद्धति में भी परिवर्तन करना होगा ।
Line 64: Line 64:  
२३. अध्ययन और अनुसन्धान के समस्त ज्ञानव्यापार के लिये हमें प्रमाणव्यवस्था की भी आवश्यकता होगी । हमारे लिये यह मानसिक साहस का प्रश्न है, बौद्धिक साहस का नहीं । हम वेद और उपनिषदों को प्रमाण मान सकते हैं कि नहीं इसका निश्चय पहले करना होगा । भगवदूगीता प्रमाण है कि नहीं इसका निश्चय प्रथम करना होगा । जीवन के किस क्षेत्र में कौन सा ग्रन्थ हमारे लिये प्रमाण है इसका भी निश्चय करना होगा । जीवनदृष्टि किस ग्रन्थ में किस रूप में निरूपित हुई है और भिन्न भिन्न रूपों और प्रक्रियाओं में किस प्रकार एक ही है इसका निश्चय करना होगा और उस तत्त्व को व्यवहार में रूपान्तरित करते समय प्रक्रिया शुद्ध रही है कि नहीं इसका भी विचार करते रहना होगा। यह निश्चिति नहीं होती तब तक हमारा अध्ययन दुलमुल ही चलता रहेगा । हम विश्वास के साथ कुछ बोल नहीं पायेंगे ।
 
२३. अध्ययन और अनुसन्धान के समस्त ज्ञानव्यापार के लिये हमें प्रमाणव्यवस्था की भी आवश्यकता होगी । हमारे लिये यह मानसिक साहस का प्रश्न है, बौद्धिक साहस का नहीं । हम वेद और उपनिषदों को प्रमाण मान सकते हैं कि नहीं इसका निश्चय पहले करना होगा । भगवदूगीता प्रमाण है कि नहीं इसका निश्चय प्रथम करना होगा । जीवन के किस क्षेत्र में कौन सा ग्रन्थ हमारे लिये प्रमाण है इसका भी निश्चय करना होगा । जीवनदृष्टि किस ग्रन्थ में किस रूप में निरूपित हुई है और भिन्न भिन्न रूपों और प्रक्रियाओं में किस प्रकार एक ही है इसका निश्चय करना होगा और उस तत्त्व को व्यवहार में रूपान्तरित करते समय प्रक्रिया शुद्ध रही है कि नहीं इसका भी विचार करते रहना होगा। यह निश्चिति नहीं होती तब तक हमारा अध्ययन दुलमुल ही चलता रहेगा । हम विश्वास के साथ कुछ बोल नहीं पायेंगे ।
   −
२४. यदि हम वेद, उपनिषद्‌ आदि को प्रमाण मानते हैं तो उसका कारण क्या है ? क्या वह हमारे पूर्वजों ने रचा है इसलिये ? क्या उसकी रचना भारत में हुई है इसलिये ? क्या वह प्राचीन है, प्राचीनतम है इसलिये ? क्‍या हम पश्चिम का कुछ भी नहीं चाहते हैं इसलिये ? कया हम दुराग्रही और स्वमत आग्रही हैं इसलिये ? क्‍या हम पुराणपंथी हैं इसलिये ? क्या उनकी भाषा संस्कृत है इसलिये ?
+
२४. यदि हम वेद, उपनिषद्‌ आदि को प्रमाण मानते हैं तो उसका कारण क्या है ? क्या वह हमारे पूर्वजों ने रचा है इसलिये ? क्या उसकी रचना भारत में हुई है इसलिये ? क्या वह प्राचीन है, प्राचीनतम है इसलिये ? क्‍या हम पश्चिम का कुछ भी नहीं चाहते हैं इसलिये ? क्या हम दुराग्रही और स्वमत आग्रही हैं इसलिये ? क्‍या हम पुराणपंथी हैं इसलिये ? क्या उनकी भाषा संस्कृत है इसलिये ?
    
२५. नहीं । ज्ञान वैश्विक होता है । ज्ञान के विश्व में कोई अपना पराया नहीं होता । स्वमत आग्रह तत्त्वचिन्तन में नहीं चलता । दुराग्रह तो बिल्कुल नहीं चलता । विवेक ही इसका अधिष्ठान है । निष्पक्षपाती होना ही अपेक्षित है । जहाँ भी जो कुछ भी सत्य है उसका स्वीकार करना ही ज्ञानविश्व का धर्म है । जो शाश्वत है उसमें प्राचीन और अर्वाचीन का भेद नहीं होता । वह चिरपुरातन और नित्यनूतन होता है । अतः जो सत्य है, शाश्वत है, वैश्विक है उसका ही प्रमाण के रूप में स्वीकार करना चाहिये । इस सिद्धान्त का स्वीकार तो सबको करना ही होगा । जो इसका स्वीकार नहीं करेगा वह ज्ञानविश्व से निष्कासित होगा ।
 
२५. नहीं । ज्ञान वैश्विक होता है । ज्ञान के विश्व में कोई अपना पराया नहीं होता । स्वमत आग्रह तत्त्वचिन्तन में नहीं चलता । दुराग्रह तो बिल्कुल नहीं चलता । विवेक ही इसका अधिष्ठान है । निष्पक्षपाती होना ही अपेक्षित है । जहाँ भी जो कुछ भी सत्य है उसका स्वीकार करना ही ज्ञानविश्व का धर्म है । जो शाश्वत है उसमें प्राचीन और अर्वाचीन का भेद नहीं होता । वह चिरपुरातन और नित्यनूतन होता है । अतः जो सत्य है, शाश्वत है, वैश्विक है उसका ही प्रमाण के रूप में स्वीकार करना चाहिये । इस सिद्धान्त का स्वीकार तो सबको करना ही होगा । जो इसका स्वीकार नहीं करेगा वह ज्ञानविश्व से निष्कासित होगा ।
Line 98: Line 98:  
४५. परन्तु अनुभूति को नकारना तो बुद्धिमानी नहीं है । एक अज्ञानी मनुष्य अपने पास के मूल्यवान रत्नों को जानता नहीं है इसलिये उन्हें काँच के क्षुछ्लक टुकडे मानकर फेंक देता है और उसे दुःख भी नहीं होता क्योंकि क्या फेंका यह उसे ज्ञात ही नहीं है वैसी ही स्थिति अनुभूति को नकारने वाले बुद्धिमानों की होगी । कुछ लोग स्वयं को जो ज्ञात नहीं है वह होता ही नहीं है ऐसा कहने वाले होते हैं। ये अहंकारी और क्षुद्र बुद्धिवाले होते हैं । भारत के बौद्धिक ऐसे नहीं हैं। यदि हैं तो उन्हें ऐसा रहना नहीं चाहिये । इसलिये अनुभूति को परम प्रमाण, स्वतः प्रमाण की प्रतिष्ठा मिलनी चाहिये । यह ज्ञानविश्व के हित में है । ज्ञानविश्व इससे परिष्कृत होगा, समृद्ध होगा, सिद्ध होगा ।
 
४५. परन्तु अनुभूति को नकारना तो बुद्धिमानी नहीं है । एक अज्ञानी मनुष्य अपने पास के मूल्यवान रत्नों को जानता नहीं है इसलिये उन्हें काँच के क्षुछ्लक टुकडे मानकर फेंक देता है और उसे दुःख भी नहीं होता क्योंकि क्या फेंका यह उसे ज्ञात ही नहीं है वैसी ही स्थिति अनुभूति को नकारने वाले बुद्धिमानों की होगी । कुछ लोग स्वयं को जो ज्ञात नहीं है वह होता ही नहीं है ऐसा कहने वाले होते हैं। ये अहंकारी और क्षुद्र बुद्धिवाले होते हैं । भारत के बौद्धिक ऐसे नहीं हैं। यदि हैं तो उन्हें ऐसा रहना नहीं चाहिये । इसलिये अनुभूति को परम प्रमाण, स्वतः प्रमाण की प्रतिष्ठा मिलनी चाहिये । यह ज्ञानविश्व के हित में है । ज्ञानविश्व इससे परिष्कृत होगा, समृद्ध होगा, सिद्ध होगा ।
   −
४६. इसके बाद भी अनुभूति की खोज तो शेष रह जाती है | विश्वविद्यालय के बाहर के क्षेत्र में अनुभूति प्राप्त व्यक्ति को सहज. पहचाना जा सकता है। सामान्यजन के पास भी पहचानने की सहज क्षमता होती है । परन्तु विश्वविद्यालय क्षेत्र श्रद्धावान नहीं होता है। पदवी, पद, प्रतिष्ठा और पैसा उसके अवरोध हैं । अतः विश्वविद्यालय के किसी शुद्ध अन्तःकरण युक्त अध्यापकों को अनुभूति प्राप्त करने की तपश्चर्या करनी चाहिये । अन्तःकरण को शुद्ध बनाकर ज्ञान की उपासना करने वाले विद्वान को जब मंत्रदर्शन होता है तभी उसे ऋषि कहा जाता था । ऐसे ऋषि ही भारत में ज्ञान और विज्ञान के ज्ञाता और प्रवर्तक थे । ऐसे द्रष्टा अध्यापकों को विश्वविद्यालय क्षेत्र के बाहर भी अनुभूति प्राप्त ऋषि को पहचानना सम्भव होगा |
+
४६. इसके बाद भी अनुभूति की खोज तो शेष रह जाती है | विश्वविद्यालय के बाहर के क्षेत्र में अनुभूति प्राप्त व्यक्ति को सहज. पहचाना जा सकता है। सामान्यजन के पास भी पहचानने की सहज क्षमता होती है । परन्तु विश्वविद्यालय क्षेत्र श्रद्धावान नहीं होता है। पदवी, पद, प्रतिष्ठा और पैसा उसके अवरोध हैं । अतः विश्वविद्यालय के किसी शुद्ध अन्तःकरण युक्त अध्यापकों को अनुभूति प्राप्त करने की तपश्चर्या करनी चाहिये । अन्तःकरण को शुद्ध बनाकर ज्ञान की उपासना करने वाले विद्वान को जब मंत्रदर्शन होता है तभी उसे ऋषि कहा जाता था । ऐसे ऋषि ही भारत में ज्ञान और [[Dharmik_Science_and_Technology_(धार्मिक_विज्ञान_एवं_तन्त्रज्ञान_दृष्टि)|विज्ञान]] के ज्ञाता और प्रवर्तक थे । ऐसे द्रष्टा अध्यापकों को विश्वविद्यालय क्षेत्र के बाहर भी अनुभूति प्राप्त ऋषि को पहचानना सम्भव होगा |
    
४७. अभी पढ़ते समय ये बातें कपोल कल्पित लग सकती हैं परन्तु इनका बार बार उच्चारण होगा तो सम्भवता के दायरे में आती जायेंगी । परन्तु तब तक विश्वासपूर्वक हमने वेद्प्रामाण्य को मानना लाभकारी रहेगा ऐसी प्रमाण निश्चिति नहीं होगी तब तक धार्मिक शिक्षा की पुनप्रतिष्ठा की कल्पना भी हम नहीं कर सकते । विश्वविद्यालय भारत के ज्ञानप्रवाह के मूल हैं । वहीं पर यदि अनवस्था है तो शेष विश्व की सुस्थिति कैसे हो सकती है ?
 
४७. अभी पढ़ते समय ये बातें कपोल कल्पित लग सकती हैं परन्तु इनका बार बार उच्चारण होगा तो सम्भवता के दायरे में आती जायेंगी । परन्तु तब तक विश्वासपूर्वक हमने वेद्प्रामाण्य को मानना लाभकारी रहेगा ऐसी प्रमाण निश्चिति नहीं होगी तब तक धार्मिक शिक्षा की पुनप्रतिष्ठा की कल्पना भी हम नहीं कर सकते । विश्वविद्यालय भारत के ज्ञानप्रवाह के मूल हैं । वहीं पर यदि अनवस्था है तो शेष विश्व की सुस्थिति कैसे हो सकती है ?
Line 122: Line 122:  
५४. इसी प्रकार से परिवार की जीवनशैली के सूत्र तैयार कर प्रबोधन, प्रशिक्षण और प्रचार की योजना बनानी चाहिये ।
 
५४. इसी प्रकार से परिवार की जीवनशैली के सूत्र तैयार कर प्रबोधन, प्रशिक्षण और प्रचार की योजना बनानी चाहिये ।
   −
५५. वर्तमान राष्ट्रजीवन की मूल समस्याओं को जीवनदृष्टि के प्रकाश में समझने हेतु चिन्तन सत्र चलाना चाहिये । इस दृष्टि से राष्ट्रजीवन के प्रवाहों से सम्यक्‌ रूप से अवगत होना आवश्यक है । विश्वविद्यालय का क्षेत्र समाजजीवन की गतीविधियों से विमुख नहीं हो सकता । आज तो स्थिति यह है कि वैश्विक प्रवाहों से भी अवगत होना पडेगा
+
५५. वर्तमान राष्ट्रजीवन की मूल समस्याओं को जीवनदृष्टि के प्रकाश में समझने हेतु चिन्तन सत्र चलाना चाहिये । इस दृष्टि से राष्ट्रजीवन के प्रवाहों से सम्यक्‌ रूप से अवगत होना आवश्यक है । विश्वविद्यालय का क्षेत्र समाजजीवन की गतीविधियों से विमुख नहीं हो सकता । आज तो स्थिति यह है कि वैश्विक प्रवाहों से भी अवगत होना पड़ेगा
    
५६. इन समस्याओं को समझकर, इनका विश्लेषण कर इनके उद्गम के स्रोत कौन से हैं, इनका परिणाम क्या हो रहा है और इन्हें दूर करने के उपाय क्या है इसके ज्ञानात्मक उत्तर खोजने होंगे । ज्ञानात्मक उत्तर ही सबसे प्रभावी होते हैं यह अनुभवजन्य सत्य है । इन उत्तरों के आधार पर मार्गदर्शक सूत्र बन सकते हैं ।
 
५६. इन समस्याओं को समझकर, इनका विश्लेषण कर इनके उद्गम के स्रोत कौन से हैं, इनका परिणाम क्या हो रहा है और इन्हें दूर करने के उपाय क्या है इसके ज्ञानात्मक उत्तर खोजने होंगे । ज्ञानात्मक उत्तर ही सबसे प्रभावी होते हैं यह अनुभवजन्य सत्य है । इन उत्तरों के आधार पर मार्गदर्शक सूत्र बन सकते हैं ।
Line 146: Line 146:  
=== अध्ययन अनुसन्धान की देशव्यापी योजना ===
 
=== अध्ययन अनुसन्धान की देशव्यापी योजना ===
   −
६४. अध्ययन और अनुसन्धान के अन्तर्गत और एक महत्त्वपूर्ण विषय है तुलनात्मक अध्ययन का । आज संचार माध्यमों के प्रभाव के परिणाम स्वरूप विश्व के सभी देश एकदूसरे को प्रभावित करते हैं । विगत दो सौ वर्षों में धार्मिक शिक्षा का पूर्ण रूप से पश्चिमीकरण हुआ है । अर्थजीवन के केन्द्र में आ जाने के कारण उपभोग प्रधान असंयमी जीवनशैली प्रचलित हो गई है । इस स्थिति में धार्मिक ज्ञानधारा का प्रवाह अवरुद्ध हो गया है और अधार्मिक ज्ञानधारा ने उसका स्थान ले लिया है । यह स्थिति अकेले भारत के लिये नहीं अपितु सम्पूर्ण विश्व के लिये और जहाँ से इसका प्रवाह शुरु हुआ है ऐसे स्वयं पश्चिम के लिये भी विनाशक ही सिद्ध हो रही है ।
+
६४. अध्ययन और अनुसन्धान के अन्तर्गत और एक महत्त्वपूर्ण विषय है तुलनात्मक अध्ययन का । आज संचार माध्यमों के प्रभाव के परिणाम स्वरूप विश्व के सभी देश एकदूसरे को प्रभावित करते हैं । विगत दो सौ वर्षों में धार्मिक शिक्षा का पूर्ण रूप से पश्चिमीकरण हुआ है । अर्थजीवन के केन्द्र में आ जाने के कारण उपभोग प्रधान असंयमी जीवनशैली प्रचलित हो गई है । इस स्थिति में धार्मिक ज्ञानधारा का प्रवाह अवरुद्ध हो गया है और अधार्मिक ज्ञानधारा ने उसका स्थान ले लिया है । यह स्थिति अकेले भारत के लिये नहीं अपितु सम्पूर्ण विश्व के लिये और जहाँ से इसका प्रवाह आरम्भ हुआ है ऐसे स्वयं पश्चिम के लिये भी विनाशक ही सिद्ध हो रही है ।
    
६५. इसको ध्यान में रखते हुए धार्मिक और ज्ञानधारा के विभिन्न विषयों को लेकर तुलनात्मक अध्ययन की एक योजना बनाने की आवश्यकता है । इस अध्ययन को भी अनुभूति प्रामाण्य और धर्मप्रामाण्य के आधार लेकर ही चलाना चाहिये । पश्चिमी ज्ञानधारा से प्रेरित होकर जीवन की जो व्यवस्थायें बनी हैं और बन रही हैं, जो व्यवहार विकसित हो रहा है, जो वृत्तियाँ पनप रही हैं वे कितनी अकल्याणकारी हैं यह तथ्यों के साथ बताना होगा । ऐसे तुलनात्मक अध्ययन से ही भारत और पश्चिम दोनों को पता चलेगा कि धार्मिक ज्ञानधारा विश्व के लिये वास्तव में कितनी कल्याणकारी है ।
 
६५. इसको ध्यान में रखते हुए धार्मिक और ज्ञानधारा के विभिन्न विषयों को लेकर तुलनात्मक अध्ययन की एक योजना बनाने की आवश्यकता है । इस अध्ययन को भी अनुभूति प्रामाण्य और धर्मप्रामाण्य के आधार लेकर ही चलाना चाहिये । पश्चिमी ज्ञानधारा से प्रेरित होकर जीवन की जो व्यवस्थायें बनी हैं और बन रही हैं, जो व्यवहार विकसित हो रहा है, जो वृत्तियाँ पनप रही हैं वे कितनी अकल्याणकारी हैं यह तथ्यों के साथ बताना होगा । ऐसे तुलनात्मक अध्ययन से ही भारत और पश्चिम दोनों को पता चलेगा कि धार्मिक ज्ञानधारा विश्व के लिये वास्तव में कितनी कल्याणकारी है ।
Line 158: Line 158:  
७४. इस व्यवस्था में इस प्रकार तो सरकार की सहभागिता सुनिश्चित नहीं हो सकती । इस पद्धति को बदलना सरकार और शिक्षा दोनों के पक्ष में है । इसलिये उसे बदलने का प्रयास प्रथम करना चाहिये । अध्ययन और अध्यापन की सुस्पष्ट योजना बनाकर प्रथम तो देश के विट्रदूवर्ग को इससे सुपरिचित बनाना चाहिये । उनका समर्थन जुटाना चाहिये । संख्याबल नहीं अपितु ज्ञान और निष्ठा का बल बढाना चाहिये । इसे देशव्यापी भी बनाना चाहिये ।
 
७४. इस व्यवस्था में इस प्रकार तो सरकार की सहभागिता सुनिश्चित नहीं हो सकती । इस पद्धति को बदलना सरकार और शिक्षा दोनों के पक्ष में है । इसलिये उसे बदलने का प्रयास प्रथम करना चाहिये । अध्ययन और अध्यापन की सुस्पष्ट योजना बनाकर प्रथम तो देश के विट्रदूवर्ग को इससे सुपरिचित बनाना चाहिये । उनका समर्थन जुटाना चाहिये । संख्याबल नहीं अपितु ज्ञान और निष्ठा का बल बढाना चाहिये । इसे देशव्यापी भी बनाना चाहिये ।
   −
७५. दूसरे चरण में सरकार के साथ संवाद आरम्भ करना चाहिये । यह धन, भूमि या मान्यता के लिये नहीं करना चाहिये अपितु उन्हें शिक्षा को धार्मिक बनाने का विषय समझाने के लिये करना चाहिये । सभी सांसदों, विधायकों, पार्षदों तक संचार माध्यमों तथा प्रत्यक्ष भेंट के माध्यम से पहुँचना चाहिये । साथ ही हम सरकार का सम्पर्क कर रहे हैं इस विषय से लोगों को भी अवगत करना चाहिये ।
+
७५. दूसरे चरण में सरकार के साथ संवाद आरम्भ करना चाहिये । यह धन, भूमि या मान्यता के लिये नहीं करना चाहिये अपितु उन्हें शिक्षा को धार्मिक बनाने का विषय समझाने के लिये करना चाहिये । सभी सांसदों, विधायकों, पार्षदों तक संचार माध्यमों तथा प्रत्यक्ष भेंट के माध्यम से पहुँचना चाहिये । साथ ही हम सरकार का सम्पर्क कर रहे हैं इस विषय से लोगोंं को भी अवगत करना चाहिये ।
    
७६. जनप्रतिनिधियों के बाद प्रशासनिक अधिकारियों से सम्पर्क करना चाहिये । उनसे भौतिक लाभ या कानूनी मान्यता आदि नहीं चाहिये यह स्पष्ट करना चाहिये परन्तु अपनी योजना में वैचारिक सहयोग और जहाँ सम्भव है सहभागिता माँगनी चाहिये ।
 
७६. जनप्रतिनिधियों के बाद प्रशासनिक अधिकारियों से सम्पर्क करना चाहिये । उनसे भौतिक लाभ या कानूनी मान्यता आदि नहीं चाहिये यह स्पष्ट करना चाहिये परन्तु अपनी योजना में वैचारिक सहयोग और जहाँ सम्भव है सहभागिता माँगनी चाहिये ।
Line 168: Line 168:  
७९. इस योजना में विद्यार्थियों को तो विशेष रूप से सम्मिलित करना चाहिये क्योंकि बीस वर्ष के बाद वे ही इसे आगे बढायेंगे । तेजस्वी और मेधावी विद्यार्थियों को विशेष रूप से जोड़ना चाहिये ।
 
७९. इस योजना में विद्यार्थियों को तो विशेष रूप से सम्मिलित करना चाहिये क्योंकि बीस वर्ष के बाद वे ही इसे आगे बढायेंगे । तेजस्वी और मेधावी विद्यार्थियों को विशेष रूप से जोड़ना चाहिये ।
   −
८०. इस योजना के लिये अर्थसहाय करने हेतु धनवान लोगों को भी साथ में जोडना चाहिये । परन्तु आज जो धन देता है वह रौब भी जमाता है, प्रतिष्ठा भी चाहता है इस स्थिति को बदलने का प्रयास भी करना चाहिये ।
+
८०. इस योजना के लिये अर्थसहाय करने हेतु धनवान लोगोंं को भी साथ में जोडना चाहिये । परन्तु आज जो धन देता है वह रौब भी जमाता है, प्रतिष्ठा भी चाहता है इस स्थिति को बदलने का प्रयास भी करना चाहिये ।
   −
८१. देश में अनेक शैक्षिक और सांस्कृतिक संगठन शिक्षा के क्षेत्र में कार्यरत हैं । कई संगठनों के तो अपने विश्वविद्यालय हैं । इन्हें इस योजना को अपनाना आसान है । इन संगठनों के प्रमुख लोगों के साथ संवाद स्थापित करना चाहिये । ये सारे संगठन अत्यन्त प्रभावी हैं । वे चाहें तो साथ मिलकर, चाहें तो अकेले भी अध्ययन-अनुसन्धान की योजना बना सकते हैं ।
+
८१. देश में अनेक शैक्षिक और सांस्कृतिक संगठन शिक्षा के क्षेत्र में कार्यरत हैं । कई संगठनों के तो अपने विश्वविद्यालय हैं । इन्हें इस योजना को अपनाना आसान है । इन संगठनों के प्रमुख लोगोंं के साथ संवाद स्थापित करना चाहिये । ये सारे संगठन अत्यन्त प्रभावी हैं । वे चाहें तो साथ मिलकर, चाहें तो अकेले भी अध्ययन-अनुसन्धान की योजना बना सकते हैं ।
    
८२. इस प्रकार अध्ययन अनुसन्धान की देशव्यापी योजना बनानी चाहिये । इसके बिना पश्चिमीकरण के प्रभाव से मुक्त होना सम्भव नहीं है ।
 
८२. इस प्रकार अध्ययन अनुसन्धान की देशव्यापी योजना बनानी चाहिये । इसके बिना पश्चिमीकरण के प्रभाव से मुक्त होना सम्भव नहीं है ।
   −
८३. अध्ययन अध्यापन की इस योजना के साथ दो काम उसके सहयोगी के रूप में और करने चाहिये । एक काम है संस्कृत भाषा को जनमानस में और व्यवहार में प्रतिष्ठित करना । देशभर के संस्कृत के क्षेत्र में कार्यरत लोगों को इस काम का सूत्रसंचालन देना चाहिये । साथ ही संस्कृत विश्वविद्यालयों, वेद पाठशालाओं को अध्ययन अनुसन्धान की योजना समझाकर अपने अपने कार्य को इसके अनुरूप ढालने का आग्रह करना चाहिये । दूसरा है बालअवस्था से आरम्भ होने वाली शिक्षा हेतु पाठ्यक्रम और सामग्री बनाकर ह्वउन्हें प्रत्यक्ष क्रियान्वयन हेतु प्रवृत्त करना । शिशु-अवस्था से भी पूर्व गर्भावस्‍था. और शिशुअवस्था में भी शिक्षा तो होती ही है। उस शिक्षा हेतु मातापिताओं को इस योजना के अन्तर्गत बने पाठ्यक्रमों के आधार पर शिक्षित करना चाहिये ।
+
८३. अध्ययन अध्यापन की इस योजना के साथ दो काम उसके सहयोगी के रूप में और करने चाहिये । एक काम है संस्कृत भाषा को जनमानस में और व्यवहार में प्रतिष्ठित करना । देशभर के संस्कृत के क्षेत्र में कार्यरत लोगोंं को इस काम का सूत्रसंचालन देना चाहिये । साथ ही संस्कृत विश्वविद्यालयों, वेद पाठशालाओं को अध्ययन अनुसन्धान की योजना समझाकर अपने अपने कार्य को इसके अनुरूप ढालने का आग्रह करना चाहिये । दूसरा है बालअवस्था से आरम्भ होने वाली शिक्षा हेतु पाठ्यक्रम और सामग्री बनाकर ह्वउन्हें प्रत्यक्ष क्रियान्वयन हेतु प्रवृत्त करना । शिशु-अवस्था से भी पूर्व गर्भावस्‍था. और शिशुअवस्था में भी शिक्षा तो होती ही है। उस शिक्षा हेतु मातापिताओं को इस योजना के अन्तर्गत बने पाठ्यक्रमों के आधार पर शिक्षित करना चाहिये ।
    
८४. धार्मिक विद्याओं, जैसे कि आयुर्वेद, ज्योतिष, वेद्विद्या, दर्शन, संगीत, नृत्य आदि की अनेक सरकारी और गैरसरकारी संस्थायें देशभर में चलती हैं। इन संस्थाओं में कमअधिक शुद्ध रूप में इन
 
८४. धार्मिक विद्याओं, जैसे कि आयुर्वेद, ज्योतिष, वेद्विद्या, दर्शन, संगीत, नृत्य आदि की अनेक सरकारी और गैरसरकारी संस्थायें देशभर में चलती हैं। इन संस्थाओं में कमअधिक शुद्ध रूप में इन
    
............. page-302 .............
 
............. page-302 .............

Navigation menu