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ज्ञानधारा को पुनः प्रवाहित करने हेतु अध्ययन करना एक मात्र उपाय है ।
 
ज्ञानधारा को पुनः प्रवाहित करने हेतु अध्ययन करना एक मात्र उपाय है ।
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३. धार्मिक ज्ञानधारा को पुनर्प्रवाहित करने हेतु हमें अपने शास्त्रग्रन्थो का अध्ययन करना पड़ेगा । हमारे शाख्रग्रन्थ हैं वेद, उपनिषद, दर्शनों के सूत्रग्रन्थ, रामायण, महाभारत, पुराण आदि इनके साथ साथ भौतिक विज्ञान के भी अनेक ग्रन्थ उपलब्ध हैं जो भारत की भौतिक समृद्धि के लिये मार्गदर्शक रहे हैं ।
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३. धार्मिक ज्ञानधारा को पुनर्प्रवाहित करने हेतु हमें अपने शास्त्रग्रन्थो का अध्ययन करना पड़ेगा । हमारे शास्त्रग्रन्थ हैं वेद, उपनिषद, दर्शनों के सूत्रग्रन्थ, रामायण, महाभारत, पुराण आदि इनके साथ साथ भौतिक [[Dharmik_Science_and_Technology_(धार्मिक_विज्ञान_एवं_तन्त्रज्ञान_दृष्टि)|विज्ञान]] के भी अनेक ग्रन्थ उपलब्ध हैं जो भारत की भौतिक समृद्धि के लिये मार्गदर्शक रहे हैं ।
    
४. अध्ययन करने की सही पद्धति को अपनाना आवश्यक होगा । सही आलम्बन भी हमें निश्चित करना होगा । इन दो बातों के परिणाम स्वरूप हमें राष्ट्र के जीवन के लिये सही अधिष्ठान और दिशा प्राप्त होगी ।
 
४. अध्ययन करने की सही पद्धति को अपनाना आवश्यक होगा । सही आलम्बन भी हमें निश्चित करना होगा । इन दो बातों के परिणाम स्वरूप हमें राष्ट्र के जीवन के लिये सही अधिष्ठान और दिशा प्राप्त होगी ।
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हुआ । प्रश्न यह है कि दर्शन का यह विषय भाषा और साहित्य विभाग में क्यों है ? केवल संस्कृत में लिखा गया है इसलिये । केवल पन्‍्द्रह सूत्र क्यों हैं ? एक वर्ष में इतने ही पढ़े जा सकते हैं इसलिये । इन्हें पढने से कया होगा ? इसका उचित उत्तर देश के हजारों छात्रों को नहीं मिलता है क्योंकि देश के सैकड़ो अध्यापकों और पाठ्यक्रम निर्धारित करनेवालों के पास भी नहीं है । इस प्रकार अनिश्चित उद्देश्य और आलम्बनरहित अध्ययन की पद्धति हमें बदलनी होगी ।
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हुआ । प्रश्न यह है कि दर्शन का यह विषय भाषा और साहित्य विभाग में क्यों है ? केवल संस्कृत में लिखा गया है इसलिये । केवल पन्‍्द्रह सूत्र क्यों हैं ? एक वर्ष में इतने ही पढ़े जा सकते हैं इसलिये । इन्हें पढने से क्या होगा ? इसका उचित उत्तर देश के हजारों छात्रों को नहीं मिलता है क्योंकि देश के सैकड़ो अध्यापकों और पाठ्यक्रम निर्धारित करनेवालों के पास भी नहीं है । इस प्रकार अनिश्चित उद्देश्य और आलम्बनरहित अध्ययन की पद्धति हमें बदलनी होगी ।
    
१४. देश में अनेक संन्यासी सम्प्रदाय, मठ, आश्रम आदि चलते हैं । संन्यासियों के लिये, धर्माचार्यों के लिये उपनिषदों का, दर्शन ग्रन्थों का या वेदों का अध्ययन करना अनिवार्य होता है । वर्षों तक ऐसा अध्ययन यहाँ होता भी है । परन्तु यह या तो ज्ञान बढ़ाने के लिये अथवा मोक्ष प्राप्त करने के लिये होता है । समाज की जीवनशैली बदलना इनके लिये बहुत कठिन होता है । कदाचित यह उद्देश्य भी नहीं होता । हमें इस पद्धति में भी परिवर्तन करना होगा ।
 
१४. देश में अनेक संन्यासी सम्प्रदाय, मठ, आश्रम आदि चलते हैं । संन्यासियों के लिये, धर्माचार्यों के लिये उपनिषदों का, दर्शन ग्रन्थों का या वेदों का अध्ययन करना अनिवार्य होता है । वर्षों तक ऐसा अध्ययन यहाँ होता भी है । परन्तु यह या तो ज्ञान बढ़ाने के लिये अथवा मोक्ष प्राप्त करने के लिये होता है । समाज की जीवनशैली बदलना इनके लिये बहुत कठिन होता है । कदाचित यह उद्देश्य भी नहीं होता । हमें इस पद्धति में भी परिवर्तन करना होगा ।
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१५. बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ से अध्ययन का एक नया तरीका भी शुरू हुआ है । संस्कृत में नहीं आपितु अधिकतर अंग्रेजी में धार्मिक शाख्रग्रन्थों का अध्ययन होता है । पाश्चात्य पद्धति से जो व्यवस्थायें बनी हुई हैं उनमें भी हमारे ग्रन्थ कितने उपयोगी हैं यह बताना इनका उद्देश्य होता है । उदाहरण के लिये भगवदूगीता में कितनी अध्यापन पद्धतियों का निरूपण मिलता है अथवा व्यवस्थापन के कितने सूत्र मिलते हैं यह बताकर व्यवहार में भी भगवदूगीता कितनी उपयोगी है यह सिद्ध करने का प्रयास होता है । शिक्षा की या व्यवस्थापन की प्रस्थापित पद्धति को बदलने का निर्देश नहीं होता मूल सूत्र वही रहते हैं, उनको समृद्ध कैसे किया जाय इसका विचार होता है । इसे भी बदलना होगा ।
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१५. बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ से अध्ययन का एक नया तरीका भी आरम्भ हुआ है । संस्कृत में नहीं आपितु अधिकतर अंग्रेजी में धार्मिक शास्त्रग्रन्थों का अध्ययन होता है । पाश्चात्य पद्धति से जो व्यवस्थायें बनी हुई हैं उनमें भी हमारे ग्रन्थ कितने उपयोगी हैं यह बताना इनका उद्देश्य होता है । उदाहरण के लिये भगवदूगीता में कितनी अध्यापन पद्धतियों का निरूपण मिलता है अथवा व्यवस्थापन के कितने सूत्र मिलते हैं यह बताकर व्यवहार में भी भगवदूगीता कितनी उपयोगी है यह सिद्ध करने का प्रयास होता है । शिक्षा की या व्यवस्थापन की प्रस्थापित पद्धति को बदलने का निर्देश नहीं होता मूल सूत्र वही रहते हैं, उनको समृद्ध कैसे किया जाय इसका विचार होता है । इसे भी बदलना होगा ।
    
१६. एक बहुत छोटा परन्तु सफल प्रयास दिखाई देता है जहाँ उपनिषदों की वास्तव में प्रतिष्ठा हुई है। उदाहरण के लिये. रवीन्द्रनाथ ठाकुर का शिक्षाचिन्तन औपनिषदिक चिन्तन के प्रकाश में ही विकसित हुआ है । श्री अरविन्द का समग्र जीवन चिन्तन-विचार और व्यवहार सहित-वेद और उपनिषदों के आधार पर ही प्रतिष्ठित हुआ है । विनोबा भावे उसी मालिका में जुडते हैं । महात्मा गांधी भी उसी विचार से अनुप्राणित होकर अपना व्यवहार चिन्तन प्रस्तुत करते हैं । अध्ययन का यह तरीका हमारे लिये उदाहरण स्वरूप हो सकता है ।
 
१६. एक बहुत छोटा परन्तु सफल प्रयास दिखाई देता है जहाँ उपनिषदों की वास्तव में प्रतिष्ठा हुई है। उदाहरण के लिये. रवीन्द्रनाथ ठाकुर का शिक्षाचिन्तन औपनिषदिक चिन्तन के प्रकाश में ही विकसित हुआ है । श्री अरविन्द का समग्र जीवन चिन्तन-विचार और व्यवहार सहित-वेद और उपनिषदों के आधार पर ही प्रतिष्ठित हुआ है । विनोबा भावे उसी मालिका में जुडते हैं । महात्मा गांधी भी उसी विचार से अनुप्राणित होकर अपना व्यवहार चिन्तन प्रस्तुत करते हैं । अध्ययन का यह तरीका हमारे लिये उदाहरण स्वरूप हो सकता है ।
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२३. अध्ययन और अनुसन्धान के समस्त ज्ञानव्यापार के लिये हमें प्रमाणव्यवस्था की भी आवश्यकता होगी । हमारे लिये यह मानसिक साहस का प्रश्न है, बौद्धिक साहस का नहीं । हम वेद और उपनिषदों को प्रमाण मान सकते हैं कि नहीं इसका निश्चय पहले करना होगा । भगवदूगीता प्रमाण है कि नहीं इसका निश्चय प्रथम करना होगा । जीवन के किस क्षेत्र में कौन सा ग्रन्थ हमारे लिये प्रमाण है इसका भी निश्चय करना होगा । जीवनदृष्टि किस ग्रन्थ में किस रूप में निरूपित हुई है और भिन्न भिन्न रूपों और प्रक्रियाओं में किस प्रकार एक ही है इसका निश्चय करना होगा और उस तत्त्व को व्यवहार में रूपान्तरित करते समय प्रक्रिया शुद्ध रही है कि नहीं इसका भी विचार करते रहना होगा। यह निश्चिति नहीं होती तब तक हमारा अध्ययन दुलमुल ही चलता रहेगा । हम विश्वास के साथ कुछ बोल नहीं पायेंगे ।
 
२३. अध्ययन और अनुसन्धान के समस्त ज्ञानव्यापार के लिये हमें प्रमाणव्यवस्था की भी आवश्यकता होगी । हमारे लिये यह मानसिक साहस का प्रश्न है, बौद्धिक साहस का नहीं । हम वेद और उपनिषदों को प्रमाण मान सकते हैं कि नहीं इसका निश्चय पहले करना होगा । भगवदूगीता प्रमाण है कि नहीं इसका निश्चय प्रथम करना होगा । जीवन के किस क्षेत्र में कौन सा ग्रन्थ हमारे लिये प्रमाण है इसका भी निश्चय करना होगा । जीवनदृष्टि किस ग्रन्थ में किस रूप में निरूपित हुई है और भिन्न भिन्न रूपों और प्रक्रियाओं में किस प्रकार एक ही है इसका निश्चय करना होगा और उस तत्त्व को व्यवहार में रूपान्तरित करते समय प्रक्रिया शुद्ध रही है कि नहीं इसका भी विचार करते रहना होगा। यह निश्चिति नहीं होती तब तक हमारा अध्ययन दुलमुल ही चलता रहेगा । हम विश्वास के साथ कुछ बोल नहीं पायेंगे ।
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२४. यदि हम वेद, उपनिषद्‌ आदि को प्रमाण मानते हैं तो उसका कारण क्या है ? क्या वह हमारे पूर्वजों ने रचा है इसलिये ? क्या उसकी रचना भारत में हुई है इसलिये ? क्या वह प्राचीन है, प्राचीनतम है इसलिये ? क्‍या हम पश्चिम का कुछ भी नहीं चाहते हैं इसलिये ? कया हम दुराग्रही और स्वमत आग्रही हैं इसलिये ? क्‍या हम पुराणपंथी हैं इसलिये ? क्या उनकी भाषा संस्कृत है इसलिये ?
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२४. यदि हम वेद, उपनिषद्‌ आदि को प्रमाण मानते हैं तो उसका कारण क्या है ? क्या वह हमारे पूर्वजों ने रचा है इसलिये ? क्या उसकी रचना भारत में हुई है इसलिये ? क्या वह प्राचीन है, प्राचीनतम है इसलिये ? क्‍या हम पश्चिम का कुछ भी नहीं चाहते हैं इसलिये ? क्या हम दुराग्रही और स्वमत आग्रही हैं इसलिये ? क्‍या हम पुराणपंथी हैं इसलिये ? क्या उनकी भाषा संस्कृत है इसलिये ?
    
२५. नहीं । ज्ञान वैश्विक होता है । ज्ञान के विश्व में कोई अपना पराया नहीं होता । स्वमत आग्रह तत्त्वचिन्तन में नहीं चलता । दुराग्रह तो बिल्कुल नहीं चलता । विवेक ही इसका अधिष्ठान है । निष्पक्षपाती होना ही अपेक्षित है । जहाँ भी जो कुछ भी सत्य है उसका स्वीकार करना ही ज्ञानविश्व का धर्म है । जो शाश्वत है उसमें प्राचीन और अर्वाचीन का भेद नहीं होता । वह चिरपुरातन और नित्यनूतन होता है । अतः जो सत्य है, शाश्वत है, वैश्विक है उसका ही प्रमाण के रूप में स्वीकार करना चाहिये । इस सिद्धान्त का स्वीकार तो सबको करना ही होगा । जो इसका स्वीकार नहीं करेगा वह ज्ञानविश्व से निष्कासित होगा ।
 
२५. नहीं । ज्ञान वैश्विक होता है । ज्ञान के विश्व में कोई अपना पराया नहीं होता । स्वमत आग्रह तत्त्वचिन्तन में नहीं चलता । दुराग्रह तो बिल्कुल नहीं चलता । विवेक ही इसका अधिष्ठान है । निष्पक्षपाती होना ही अपेक्षित है । जहाँ भी जो कुछ भी सत्य है उसका स्वीकार करना ही ज्ञानविश्व का धर्म है । जो शाश्वत है उसमें प्राचीन और अर्वाचीन का भेद नहीं होता । वह चिरपुरातन और नित्यनूतन होता है । अतः जो सत्य है, शाश्वत है, वैश्विक है उसका ही प्रमाण के रूप में स्वीकार करना चाहिये । इस सिद्धान्त का स्वीकार तो सबको करना ही होगा । जो इसका स्वीकार नहीं करेगा वह ज्ञानविश्व से निष्कासित होगा ।
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४५. परन्तु अनुभूति को नकारना तो बुद्धिमानी नहीं है । एक अज्ञानी मनुष्य अपने पास के मूल्यवान रत्नों को जानता नहीं है इसलिये उन्हें काँच के क्षुछ्लक टुकडे मानकर फेंक देता है और उसे दुःख भी नहीं होता क्योंकि क्या फेंका यह उसे ज्ञात ही नहीं है वैसी ही स्थिति अनुभूति को नकारने वाले बुद्धिमानों की होगी । कुछ लोग स्वयं को जो ज्ञात नहीं है वह होता ही नहीं है ऐसा कहने वाले होते हैं। ये अहंकारी और क्षुद्र बुद्धिवाले होते हैं । भारत के बौद्धिक ऐसे नहीं हैं। यदि हैं तो उन्हें ऐसा रहना नहीं चाहिये । इसलिये अनुभूति को परम प्रमाण, स्वतः प्रमाण की प्रतिष्ठा मिलनी चाहिये । यह ज्ञानविश्व के हित में है । ज्ञानविश्व इससे परिष्कृत होगा, समृद्ध होगा, सिद्ध होगा ।
 
४५. परन्तु अनुभूति को नकारना तो बुद्धिमानी नहीं है । एक अज्ञानी मनुष्य अपने पास के मूल्यवान रत्नों को जानता नहीं है इसलिये उन्हें काँच के क्षुछ्लक टुकडे मानकर फेंक देता है और उसे दुःख भी नहीं होता क्योंकि क्या फेंका यह उसे ज्ञात ही नहीं है वैसी ही स्थिति अनुभूति को नकारने वाले बुद्धिमानों की होगी । कुछ लोग स्वयं को जो ज्ञात नहीं है वह होता ही नहीं है ऐसा कहने वाले होते हैं। ये अहंकारी और क्षुद्र बुद्धिवाले होते हैं । भारत के बौद्धिक ऐसे नहीं हैं। यदि हैं तो उन्हें ऐसा रहना नहीं चाहिये । इसलिये अनुभूति को परम प्रमाण, स्वतः प्रमाण की प्रतिष्ठा मिलनी चाहिये । यह ज्ञानविश्व के हित में है । ज्ञानविश्व इससे परिष्कृत होगा, समृद्ध होगा, सिद्ध होगा ।
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४६. इसके बाद भी अनुभूति की खोज तो शेष रह जाती है | विश्वविद्यालय के बाहर के क्षेत्र में अनुभूति प्राप्त व्यक्ति को सहज. पहचाना जा सकता है। सामान्यजन के पास भी पहचानने की सहज क्षमता होती है । परन्तु विश्वविद्यालय क्षेत्र श्रद्धावान नहीं होता है। पदवी, पद, प्रतिष्ठा और पैसा उसके अवरोध हैं । अतः विश्वविद्यालय के किसी शुद्ध अन्तःकरण युक्त अध्यापकों को अनुभूति प्राप्त करने की तपश्चर्या करनी चाहिये । अन्तःकरण को शुद्ध बनाकर ज्ञान की उपासना करने वाले विद्वान को जब मंत्रदर्शन होता है तभी उसे ऋषि कहा जाता था । ऐसे ऋषि ही भारत में ज्ञान और विज्ञान के ज्ञाता और प्रवर्तक थे । ऐसे द्रष्टा अध्यापकों को विश्वविद्यालय क्षेत्र के बाहर भी अनुभूति प्राप्त ऋषि को पहचानना सम्भव होगा |
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४६. इसके बाद भी अनुभूति की खोज तो शेष रह जाती है | विश्वविद्यालय के बाहर के क्षेत्र में अनुभूति प्राप्त व्यक्ति को सहज. पहचाना जा सकता है। सामान्यजन के पास भी पहचानने की सहज क्षमता होती है । परन्तु विश्वविद्यालय क्षेत्र श्रद्धावान नहीं होता है। पदवी, पद, प्रतिष्ठा और पैसा उसके अवरोध हैं । अतः विश्वविद्यालय के किसी शुद्ध अन्तःकरण युक्त अध्यापकों को अनुभूति प्राप्त करने की तपश्चर्या करनी चाहिये । अन्तःकरण को शुद्ध बनाकर ज्ञान की उपासना करने वाले विद्वान को जब मंत्रदर्शन होता है तभी उसे ऋषि कहा जाता था । ऐसे ऋषि ही भारत में ज्ञान और [[Dharmik_Science_and_Technology_(धार्मिक_विज्ञान_एवं_तन्त्रज्ञान_दृष्टि)|विज्ञान]] के ज्ञाता और प्रवर्तक थे । ऐसे द्रष्टा अध्यापकों को विश्वविद्यालय क्षेत्र के बाहर भी अनुभूति प्राप्त ऋषि को पहचानना सम्भव होगा |
    
४७. अभी पढ़ते समय ये बातें कपोल कल्पित लग सकती हैं परन्तु इनका बार बार उच्चारण होगा तो सम्भवता के दायरे में आती जायेंगी । परन्तु तब तक विश्वासपूर्वक हमने वेद्प्रामाण्य को मानना लाभकारी रहेगा ऐसी प्रमाण निश्चिति नहीं होगी तब तक धार्मिक शिक्षा की पुनप्रतिष्ठा की कल्पना भी हम नहीं कर सकते । विश्वविद्यालय भारत के ज्ञानप्रवाह के मूल हैं । वहीं पर यदि अनवस्था है तो शेष विश्व की सुस्थिति कैसे हो सकती है ?
 
४७. अभी पढ़ते समय ये बातें कपोल कल्पित लग सकती हैं परन्तु इनका बार बार उच्चारण होगा तो सम्भवता के दायरे में आती जायेंगी । परन्तु तब तक विश्वासपूर्वक हमने वेद्प्रामाण्य को मानना लाभकारी रहेगा ऐसी प्रमाण निश्चिति नहीं होगी तब तक धार्मिक शिक्षा की पुनप्रतिष्ठा की कल्पना भी हम नहीं कर सकते । विश्वविद्यालय भारत के ज्ञानप्रवाह के मूल हैं । वहीं पर यदि अनवस्था है तो शेष विश्व की सुस्थिति कैसे हो सकती है ?
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४८. धार्मिक ज्ञानविश्व के अन्दर के इस वाद को ही निपटना पहली आवश्यकता है । उससे यदि निपट कर अनुभूति प्रामाण्य, धर्म प्रामाण्य, वेद प्रामाण्य पर सर्वसम्मति हो गई तो दूसरा प्रश्न भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है । वह है युगानुकूल निरूपण का ।
 
४८. धार्मिक ज्ञानविश्व के अन्दर के इस वाद को ही निपटना पहली आवश्यकता है । उससे यदि निपट कर अनुभूति प्रामाण्य, धर्म प्रामाण्य, वेद प्रामाण्य पर सर्वसम्मति हो गई तो दूसरा प्रश्न भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है । वह है युगानुकूल निरूपण का ।
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४९. वेद उपनिषद दर्शनादि के अनुसार हमारा व्यवहार जीवन चलना चाहिये तभी ये प्रमाण सार्थक हैं । यह केवल तात्तविक चर्चा तक सीमित नहीं है, दैनन्दिन जीवन को स्पर्श करने वाला है । उदाहरण के लिये संसद, बाजार, विद्यालय, घर आदि धार्मिक शाख्रग्रन्थों द्वारा दी गई दृष्टि के अनुसार चलने चाहिये । तभी धार्मिक शास्त्रीय ज्ञान की प्रासंगिकता और प्रतिष्ठा है । आज तो इन चार में से एक भी इन शास्त्रों के अनुसार नहीं चलता है ।
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४९. वेद उपनिषद दर्शनादि के अनुसार हमारा व्यवहार जीवन चलना चाहिये तभी ये प्रमाण सार्थक हैं । यह केवल तात्तविक चर्चा तक सीमित नहीं है, दैनन्दिन जीवन को स्पर्श करने वाला है । उदाहरण के लिये संसद, बाजार, विद्यालय, घर आदि धार्मिक शास्त्रग्रन्थों द्वारा दी गई दृष्टि के अनुसार चलने चाहिये । तभी धार्मिक शास्त्रीय ज्ञान की प्रासंगिकता और प्रतिष्ठा है । आज तो इन चार में से एक भी इन शास्त्रों के अनुसार नहीं चलता है ।
    
५०. तो उपाय क्या है ? वेदों को हम धार्मिक ज्ञानधारा
 
५०. तो उपाय क्या है ? वेदों को हम धार्मिक ज्ञानधारा
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का स्रोत कहते हैं, तो फिर इस ज्ञानधारा के अनुसार संसद की प्रणाली और सांसदों का व्यवहार, बाजार का उत्पादन और वितरण, विद्यालयों की शिक्षा योजना और परिवार की जीवनशैली बननी चाहिये । इसके लिये धार्मिक ज्ञानधारा के मूल सिद्धान्तों का अध्ययन कर, चिन्तन कर वर्तमान आवश्यकताओं, वर्तमान परिस्थिति, वर्तमान सम्भावनाओं को ध्यान में रखकर व्यवस्थाओं और व्यवहार की प्रणाली का निरूपण करना तात्विक अध्ययन से भी अधिक चुनौतीपूर्ण कार्य है । इसे ही व्यावहारिक अनुसन्धान कहते हैं । आज हमने अनुसन्धान को भी बहुत क्षुद्र और क्षुल्लक बना दिया है। उसका परिष्कार करना चाहिये ।
 
का स्रोत कहते हैं, तो फिर इस ज्ञानधारा के अनुसार संसद की प्रणाली और सांसदों का व्यवहार, बाजार का उत्पादन और वितरण, विद्यालयों की शिक्षा योजना और परिवार की जीवनशैली बननी चाहिये । इसके लिये धार्मिक ज्ञानधारा के मूल सिद्धान्तों का अध्ययन कर, चिन्तन कर वर्तमान आवश्यकताओं, वर्तमान परिस्थिति, वर्तमान सम्भावनाओं को ध्यान में रखकर व्यवस्थाओं और व्यवहार की प्रणाली का निरूपण करना तात्विक अध्ययन से भी अधिक चुनौतीपूर्ण कार्य है । इसे ही व्यावहारिक अनुसन्धान कहते हैं । आज हमने अनुसन्धान को भी बहुत क्षुद्र और क्षुल्लक बना दिया है। उसका परिष्कार करना चाहिये ।
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५१. यह कार्य श्रेष्ठ कक्षा के अध्ययन अनुसन्धान पीठ का काम है । वर्तमान में जो विश्वविद्यालयों की दुनिया है उससे भिन्न प्रकार की व्यवस्था करने की आवश्यकता रहेगी । इस कार्य के लिये श्रेष्ठ कोटि के संन्यासी, शाख्रवेत्ता, . अनुभूति wo विद्वान तथा विश्वविद्यालयों के जिज्ञासु_ और परिश्रमशील अध्यापकों को एकत्रित करना होगा ।
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५१. यह कार्य श्रेष्ठ कक्षा के अध्ययन अनुसन्धान पीठ का काम है । वर्तमान में जो विश्वविद्यालयों की दुनिया है उससे भिन्न प्रकार की व्यवस्था करने की आवश्यकता रहेगी । इस कार्य के लिये श्रेष्ठ कोटि के संन्यासी, शास्त्रवेत्ता, . अनुभूति wo विद्वान तथा विश्वविद्यालयों के जिज्ञासु_ और परिश्रमशील अध्यापकों को एकत्रित करना होगा ।
    
५२. जिस प्रकार अनेक महापुरुष नवीन सम्प्रदायों की स्थापना करते हैं उसी प्रकार किसी विद्वान ने ऐसी पीठ की स्थापना करनी चाहिये और धार्मिक ज्ञानधारा को पश्चिमी प्रभाव से मुक्त करने का स्पष्ट लक्ष्य और उसके लिये कार्ययोजना बनानी चाहिये । देशभर में जो भी धार्मिक ज्ञानधारा में अवगाहन करना चाहते हैं और समाज का हित चाहते हैं उन्हें इस पीठ की योजना में सम्मिलित करना चाहिये ।  
 
५२. जिस प्रकार अनेक महापुरुष नवीन सम्प्रदायों की स्थापना करते हैं उसी प्रकार किसी विद्वान ने ऐसी पीठ की स्थापना करनी चाहिये और धार्मिक ज्ञानधारा को पश्चिमी प्रभाव से मुक्त करने का स्पष्ट लक्ष्य और उसके लिये कार्ययोजना बनानी चाहिये । देशभर में जो भी धार्मिक ज्ञानधारा में अवगाहन करना चाहते हैं और समाज का हित चाहते हैं उन्हें इस पीठ की योजना में सम्मिलित करना चाहिये ।  
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५४. इसी प्रकार से परिवार की जीवनशैली के सूत्र तैयार कर प्रबोधन, प्रशिक्षण और प्रचार की योजना बनानी चाहिये ।
 
५४. इसी प्रकार से परिवार की जीवनशैली के सूत्र तैयार कर प्रबोधन, प्रशिक्षण और प्रचार की योजना बनानी चाहिये ।
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५५. वर्तमान राष्ट्रजीवन की मूल समस्याओं को जीवनदृष्टि के प्रकाश में समझने हेतु चिन्तन सत्र चलाना चाहिये । इस दृष्टि से राष्ट्रजीवन के प्रवाहों से सम्यक्‌ रूप से अवगत होना आवश्यक है । विश्वविद्यालय का क्षेत्र समाजजीवन की गतीविधियों से विमुख नहीं हो सकता । आज तो स्थिति यह है कि वैश्विक प्रवाहों से भी अवगत होना पडेगा
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५५. वर्तमान राष्ट्रजीवन की मूल समस्याओं को जीवनदृष्टि के प्रकाश में समझने हेतु चिन्तन सत्र चलाना चाहिये । इस दृष्टि से राष्ट्रजीवन के प्रवाहों से सम्यक्‌ रूप से अवगत होना आवश्यक है । विश्वविद्यालय का क्षेत्र समाजजीवन की गतीविधियों से विमुख नहीं हो सकता । आज तो स्थिति यह है कि वैश्विक प्रवाहों से भी अवगत होना पड़ेगा
    
५६. इन समस्याओं को समझकर, इनका विश्लेषण कर इनके उद्गम के स्रोत कौन से हैं, इनका परिणाम क्या हो रहा है और इन्हें दूर करने के उपाय क्या है इसके ज्ञानात्मक उत्तर खोजने होंगे । ज्ञानात्मक उत्तर ही सबसे प्रभावी होते हैं यह अनुभवजन्य सत्य है । इन उत्तरों के आधार पर मार्गदर्शक सूत्र बन सकते हैं ।
 
५६. इन समस्याओं को समझकर, इनका विश्लेषण कर इनके उद्गम के स्रोत कौन से हैं, इनका परिणाम क्या हो रहा है और इन्हें दूर करने के उपाय क्या है इसके ज्ञानात्मक उत्तर खोजने होंगे । ज्ञानात्मक उत्तर ही सबसे प्रभावी होते हैं यह अनुभवजन्य सत्य है । इन उत्तरों के आधार पर मार्गदर्शक सूत्र बन सकते हैं ।
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६१. बाजार कैसे चलेगा, उत्पादन और वितरण की क्या व्यवस्था होगी और व्यक्ति तथा समाज की समृद्धि परस्पर अविरोधी रहकर कैसे बढ़ेगी इसका निरूपण कर उसे सर्वजनसुलभ भाषा में प्रसारित करना चाहिये ।
 
६१. बाजार कैसे चलेगा, उत्पादन और वितरण की क्या व्यवस्था होगी और व्यक्ति तथा समाज की समृद्धि परस्पर अविरोधी रहकर कैसे बढ़ेगी इसका निरूपण कर उसे सर्वजनसुलभ भाषा में प्रसारित करना चाहिये ।
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६२. अर्थात्‌ इस अध्ययन अनुसन्धान के लिये जो पीठ अथवा संस्थान अथवा विश्वविद्यालय बनेगा उसका स्वरूप शाख्राभिमुख और लोकाभिमुख दोनों प्रकार का रहेगा ।
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६२. अर्थात्‌ इस अध्ययन अनुसन्धान के लिये जो पीठ अथवा संस्थान अथवा विश्वविद्यालय बनेगा उसका स्वरूप शास्त्राभिमुख और लोकाभिमुख दोनों प्रकार का रहेगा ।
    
६३. अर्थशास्त्र के समान ही दूसरा केन्द्रवर्ती विषय शिक्षा का होना आवश्यक है । धर्म को एक पीढ़ी से दूसरी पीढी को हस्तान्तरित कर ज्ञानपस्म्परा को बनाये रखना और प्रजा को धर्माचरण में प्रवृत्त करना अर्थात्‌ लोकव्यवहार को धर्माधिष्टित बनाना शिक्षा का ही काम है । इस दृष्टि से शिक्षा का शास्त्र, शिक्षा की व्यवस्था, शिक्षा को सुलभ बनाने के उपाय आदि का अर्थशास्त्र के समान ही तात्विक और व्यावहारिक धरातल पर पहुँच कर निरूपण करना होगा |
 
६३. अर्थशास्त्र के समान ही दूसरा केन्द्रवर्ती विषय शिक्षा का होना आवश्यक है । धर्म को एक पीढ़ी से दूसरी पीढी को हस्तान्तरित कर ज्ञानपस्म्परा को बनाये रखना और प्रजा को धर्माचरण में प्रवृत्त करना अर्थात्‌ लोकव्यवहार को धर्माधिष्टित बनाना शिक्षा का ही काम है । इस दृष्टि से शिक्षा का शास्त्र, शिक्षा की व्यवस्था, शिक्षा को सुलभ बनाने के उपाय आदि का अर्थशास्त्र के समान ही तात्विक और व्यावहारिक धरातल पर पहुँच कर निरूपण करना होगा |
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=== अध्ययन अनुसन्धान की देशव्यापी योजना ===
 
=== अध्ययन अनुसन्धान की देशव्यापी योजना ===
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६४. अध्ययन और अनुसन्धान के अन्तर्गत और एक महत्त्वपूर्ण विषय है तुलनात्मक अध्ययन का । आज संचार माध्यमों के प्रभाव के परिणाम स्वरूप विश्व के सभी देश एकदूसरे को प्रभावित करते हैं । विगत दो सौ वर्षों में धार्मिक शिक्षा का पूर्ण रूप से पश्चिमीकरण हुआ है । अर्थजीवन के केन्द्र में आ जाने के कारण उपभोग प्रधान असंयमी जीवनशैली प्रचलित हो गई है । इस स्थिति में धार्मिक ज्ञानधारा का प्रवाह अवरुद्ध हो गया है और अधार्मिक ज्ञानधारा ने उसका स्थान ले लिया है । यह स्थिति अकेले भारत के लिये नहीं अपितु सम्पूर्ण विश्व के लिये और जहाँ से इसका प्रवाह शुरु हुआ है ऐसे स्वयं पश्चिम के लिये भी विनाशक ही सिद्ध हो रही है ।
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६४. अध्ययन और अनुसन्धान के अन्तर्गत और एक महत्त्वपूर्ण विषय है तुलनात्मक अध्ययन का । आज संचार माध्यमों के प्रभाव के परिणाम स्वरूप विश्व के सभी देश एकदूसरे को प्रभावित करते हैं । विगत दो सौ वर्षों में धार्मिक शिक्षा का पूर्ण रूप से पश्चिमीकरण हुआ है । अर्थजीवन के केन्द्र में आ जाने के कारण उपभोग प्रधान असंयमी जीवनशैली प्रचलित हो गई है । इस स्थिति में धार्मिक ज्ञानधारा का प्रवाह अवरुद्ध हो गया है और अधार्मिक ज्ञानधारा ने उसका स्थान ले लिया है । यह स्थिति अकेले भारत के लिये नहीं अपितु सम्पूर्ण विश्व के लिये और जहाँ से इसका प्रवाह आरम्भ हुआ है ऐसे स्वयं पश्चिम के लिये भी विनाशक ही सिद्ध हो रही है ।
    
६५. इसको ध्यान में रखते हुए धार्मिक और ज्ञानधारा के विभिन्न विषयों को लेकर तुलनात्मक अध्ययन की एक योजना बनाने की आवश्यकता है । इस अध्ययन को भी अनुभूति प्रामाण्य और धर्मप्रामाण्य के आधार लेकर ही चलाना चाहिये । पश्चिमी ज्ञानधारा से प्रेरित होकर जीवन की जो व्यवस्थायें बनी हैं और बन रही हैं, जो व्यवहार विकसित हो रहा है, जो वृत्तियाँ पनप रही हैं वे कितनी अकल्याणकारी हैं यह तथ्यों के साथ बताना होगा । ऐसे तुलनात्मक अध्ययन से ही भारत और पश्चिम दोनों को पता चलेगा कि धार्मिक ज्ञानधारा विश्व के लिये वास्तव में कितनी कल्याणकारी है ।
 
६५. इसको ध्यान में रखते हुए धार्मिक और ज्ञानधारा के विभिन्न विषयों को लेकर तुलनात्मक अध्ययन की एक योजना बनाने की आवश्यकता है । इस अध्ययन को भी अनुभूति प्रामाण्य और धर्मप्रामाण्य के आधार लेकर ही चलाना चाहिये । पश्चिमी ज्ञानधारा से प्रेरित होकर जीवन की जो व्यवस्थायें बनी हैं और बन रही हैं, जो व्यवहार विकसित हो रहा है, जो वृत्तियाँ पनप रही हैं वे कितनी अकल्याणकारी हैं यह तथ्यों के साथ बताना होगा । ऐसे तुलनात्मक अध्ययन से ही भारत और पश्चिम दोनों को पता चलेगा कि धार्मिक ज्ञानधारा विश्व के लिये वास्तव में कितनी कल्याणकारी है ।
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७४. इस व्यवस्था में इस प्रकार तो सरकार की सहभागिता सुनिश्चित नहीं हो सकती । इस पद्धति को बदलना सरकार और शिक्षा दोनों के पक्ष में है । इसलिये उसे बदलने का प्रयास प्रथम करना चाहिये । अध्ययन और अध्यापन की सुस्पष्ट योजना बनाकर प्रथम तो देश के विट्रदूवर्ग को इससे सुपरिचित बनाना चाहिये । उनका समर्थन जुटाना चाहिये । संख्याबल नहीं अपितु ज्ञान और निष्ठा का बल बढाना चाहिये । इसे देशव्यापी भी बनाना चाहिये ।
 
७४. इस व्यवस्था में इस प्रकार तो सरकार की सहभागिता सुनिश्चित नहीं हो सकती । इस पद्धति को बदलना सरकार और शिक्षा दोनों के पक्ष में है । इसलिये उसे बदलने का प्रयास प्रथम करना चाहिये । अध्ययन और अध्यापन की सुस्पष्ट योजना बनाकर प्रथम तो देश के विट्रदूवर्ग को इससे सुपरिचित बनाना चाहिये । उनका समर्थन जुटाना चाहिये । संख्याबल नहीं अपितु ज्ञान और निष्ठा का बल बढाना चाहिये । इसे देशव्यापी भी बनाना चाहिये ।
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७५. दूसरे चरण में सरकार के साथ संवाद शुरू करना चाहिये । यह धन, भूमि या मान्यता के लिये नहीं करना चाहिये अपितु उन्हें शिक्षा को धार्मिक बनाने का विषय समझाने के लिये करना चाहिये । सभी सांसदों, विधायकों, पार्षदों तक संचार माध्यमों तथा प्रत्यक्ष भेंट के माध्यम से पहुँचना चाहिये । साथ ही हम सरकार का सम्पर्क कर रहे हैं इस विषय से लोगों को भी अवगत करना चाहिये ।
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७५. दूसरे चरण में सरकार के साथ संवाद आरम्भ करना चाहिये । यह धन, भूमि या मान्यता के लिये नहीं करना चाहिये अपितु उन्हें शिक्षा को धार्मिक बनाने का विषय समझाने के लिये करना चाहिये । सभी सांसदों, विधायकों, पार्षदों तक संचार माध्यमों तथा प्रत्यक्ष भेंट के माध्यम से पहुँचना चाहिये । साथ ही हम सरकार का सम्पर्क कर रहे हैं इस विषय से लोगोंं को भी अवगत करना चाहिये ।
    
७६. जनप्रतिनिधियों के बाद प्रशासनिक अधिकारियों से सम्पर्क करना चाहिये । उनसे भौतिक लाभ या कानूनी मान्यता आदि नहीं चाहिये यह स्पष्ट करना चाहिये परन्तु अपनी योजना में वैचारिक सहयोग और जहाँ सम्भव है सहभागिता माँगनी चाहिये ।
 
७६. जनप्रतिनिधियों के बाद प्रशासनिक अधिकारियों से सम्पर्क करना चाहिये । उनसे भौतिक लाभ या कानूनी मान्यता आदि नहीं चाहिये यह स्पष्ट करना चाहिये परन्तु अपनी योजना में वैचारिक सहयोग और जहाँ सम्भव है सहभागिता माँगनी चाहिये ।
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७९. इस योजना में विद्यार्थियों को तो विशेष रूप से सम्मिलित करना चाहिये क्योंकि बीस वर्ष के बाद वे ही इसे आगे बढायेंगे । तेजस्वी और मेधावी विद्यार्थियों को विशेष रूप से जोड़ना चाहिये ।
 
७९. इस योजना में विद्यार्थियों को तो विशेष रूप से सम्मिलित करना चाहिये क्योंकि बीस वर्ष के बाद वे ही इसे आगे बढायेंगे । तेजस्वी और मेधावी विद्यार्थियों को विशेष रूप से जोड़ना चाहिये ।
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८०. इस योजना के लिये अर्थसहाय करने हेतु धनवान लोगों को भी साथ में जोडना चाहिये । परन्तु आज जो धन देता है वह रौब भी जमाता है, प्रतिष्ठा भी चाहता है इस स्थिति को बदलने का प्रयास भी करना चाहिये ।
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८०. इस योजना के लिये अर्थसहाय करने हेतु धनवान लोगोंं को भी साथ में जोडना चाहिये । परन्तु आज जो धन देता है वह रौब भी जमाता है, प्रतिष्ठा भी चाहता है इस स्थिति को बदलने का प्रयास भी करना चाहिये ।
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८१. देश में अनेक शैक्षिक और सांस्कृतिक संगठन शिक्षा के क्षेत्र में कार्यरत हैं । कई संगठनों के तो अपने विश्वविद्यालय हैं । इन्हें इस योजना को अपनाना आसान है । इन संगठनों के प्रमुख लोगों के साथ संवाद स्थापित करना चाहिये । ये सारे संगठन अत्यन्त प्रभावी हैं । वे चाहें तो साथ मिलकर, चाहें तो अकेले भी अध्ययन-अनुसन्धान की योजना बना सकते हैं ।
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८१. देश में अनेक शैक्षिक और सांस्कृतिक संगठन शिक्षा के क्षेत्र में कार्यरत हैं । कई संगठनों के तो अपने विश्वविद्यालय हैं । इन्हें इस योजना को अपनाना आसान है । इन संगठनों के प्रमुख लोगोंं के साथ संवाद स्थापित करना चाहिये । ये सारे संगठन अत्यन्त प्रभावी हैं । वे चाहें तो साथ मिलकर, चाहें तो अकेले भी अध्ययन-अनुसन्धान की योजना बना सकते हैं ।
    
८२. इस प्रकार अध्ययन अनुसन्धान की देशव्यापी योजना बनानी चाहिये । इसके बिना पश्चिमीकरण के प्रभाव से मुक्त होना सम्भव नहीं है ।
 
८२. इस प्रकार अध्ययन अनुसन्धान की देशव्यापी योजना बनानी चाहिये । इसके बिना पश्चिमीकरण के प्रभाव से मुक्त होना सम्भव नहीं है ।
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८३. अध्ययन अध्यापन की इस योजना के साथ दो काम उसके सहयोगी के रूप में और करने चाहिये । एक काम है संस्कृत भाषा को जनमानस में और व्यवहार में प्रतिष्ठित करना । देशभर के संस्कृत के क्षेत्र में कार्यरत लोगों को इस काम का सूत्रसंचालन देना चाहिये । साथ ही संस्कृत विश्वविद्यालयों, वेद पाठशालाओं को अध्ययन अनुसन्धान की योजना समझाकर अपने अपने कार्य को इसके अनुरूप ढालने का आग्रह करना चाहिये । दूसरा है बालअवस्था से शुरू होने वाली शिक्षा हेतु पाठ्यक्रम और सामग्री बनाकर ह्वउन्हें प्रत्यक्ष क्रियान्वयन हेतु प्रवृत्त करना । शिशु-अवस्था से भी पूर्व गर्भावस्‍था. और शिशुअवस्था में भी शिक्षा तो होती ही है। उस शिक्षा हेतु मातापिताओं को इस योजना के अन्तर्गत बने पाठ्यक्रमों के आधार पर शिक्षित करना चाहिये ।
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८३. अध्ययन अध्यापन की इस योजना के साथ दो काम उसके सहयोगी के रूप में और करने चाहिये । एक काम है संस्कृत भाषा को जनमानस में और व्यवहार में प्रतिष्ठित करना । देशभर के संस्कृत के क्षेत्र में कार्यरत लोगोंं को इस काम का सूत्रसंचालन देना चाहिये । साथ ही संस्कृत विश्वविद्यालयों, वेद पाठशालाओं को अध्ययन अनुसन्धान की योजना समझाकर अपने अपने कार्य को इसके अनुरूप ढालने का आग्रह करना चाहिये । दूसरा है बालअवस्था से आरम्भ होने वाली शिक्षा हेतु पाठ्यक्रम और सामग्री बनाकर ह्वउन्हें प्रत्यक्ष क्रियान्वयन हेतु प्रवृत्त करना । शिशु-अवस्था से भी पूर्व गर्भावस्‍था. और शिशुअवस्था में भी शिक्षा तो होती ही है। उस शिक्षा हेतु मातापिताओं को इस योजना के अन्तर्गत बने पाठ्यक्रमों के आधार पर शिक्षित करना चाहिये ।
    
८४. धार्मिक विद्याओं, जैसे कि आयुर्वेद, ज्योतिष, वेद्विद्या, दर्शन, संगीत, नृत्य आदि की अनेक सरकारी और गैरसरकारी संस्थायें देशभर में चलती हैं। इन संस्थाओं में कमअधिक शुद्ध रूप में इन
 
८४. धार्मिक विद्याओं, जैसे कि आयुर्वेद, ज्योतिष, वेद्विद्या, दर्शन, संगीत, नृत्य आदि की अनेक सरकारी और गैरसरकारी संस्थायें देशभर में चलती हैं। इन संस्थाओं में कमअधिक शुद्ध रूप में इन
    
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