Difference between revisions of "अध्ययन अध्यापन प्रक्रिया और शिक्षक विद्यार्थी सम्बन्ध"

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== विद्यार्थी शिक्षक का मानस पुत्र ==
 
== विद्यार्थी शिक्षक का मानस पुत्र ==
शिक्षक और विद्यार्थी को आचार्य और अंतेवासी
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* शिक्षक और विद्यार्थी को आचार्य और अंतेवासी कहा गया है । उपनिषद्‌ कहता है कि आचार्य पूर्वरूप है, अंतेवासी उत्तररूप है, प्रवचन अर्थात्‌ अध्यापन और अध्ययन की क्रिया संधान है और विद्या सन्धि है। तैत्तिरीय उपनिषद्‌ में बताया है<ref>तैत्तिरीय उपनिषद्, शिक्षावल्ली, अनुवाक :3  श्लोक संख्या :4</ref>
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<blockquote>आचार्यः पूर्वरूपम्। अन्तेवास्युत्तररूपम्।</blockquote><blockquote>विद्या सन्धिः। प्रवचन्ँसन्धानम्। इत्यधिविद्यम्।।1.3.4।।</blockquote>
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* दो शब्दों की सन्धि होने पर जिस प्रकार एक ही शब्द बन जाता है ( उदाहरण के लिए गण - ईश - गणेश ) उसी प्रकार अध्ययन और अध्यापन करते हुए शिक्षक और विद्यार्थों दो नहीं रहते, एक ही व्यक्तित्व बन जाते हैं । इतना घनिष्ठ सम्बन्ध शिक्षक और विद्यार्थी का होना अपेक्षित है । शिक्षक का विद्यार्थी के लिए वात्सल्यभाव और विद्यार्थी का शिक्षक के लिए आदर तथा दोनों की विद्याप्रीति के कारण से ऐसा सम्बन्ध बनता है । ऐसा सम्बन्ध बनता है तभी विद्या निष्पन्न होती है अर्थात्‌ ज्ञान का उदय होता है अर्थात्‌ विद्यार्थी ज्ञानार्जन करता है । विद्यार्थी को शिक्षक का मानसपुत्र कहा गया है जो देहज पुत्र से भी अधिक प्रिय होता है ।
  
कहा गया है । उपनिषद्‌ कहता है कि आचार्य पूर्वरूप
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* शिक्षक को विद्यार्थी इसलिए प्रिय नहीं होता क्योंकि वह उसकी सेवा करता है, विनय दर्शाता है या अच्छी दक्षिणा देने वाला है । विद्यार्थी शिक्षक को इसलिए प्रिय होता है क्योंकि विद्यार्थी को विद्या प्रिय है । विद्यार्थी के लिए शिक्षक इसलिए आदरणीय नहीं है क्योंकि वह उसका पालनपोषण और रक्षण करता है और प्रेमपूर्ण व्यवहार करता है । शिक्षक इसलिए आदरणीय है क्योंकि वह विद्या के प्रति प्रेम रखता है । दोनों एकदूसरे को विद्याप्रीति के कारण ही प्रिय हैं । उनका सम्बन्ध जोड़ने वाली विद्या ही है । दोनों मिलकर ज्ञानसाधना करते हैं ।
  
है, अंतेवासी उत्तररूप है, प्रवचन अर्थात्‌ अध्यापन
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* शिक्षक और विद्यार्थी में अध्ययन होता कैसे है ? दोनों साथ रहते हैं । साथ रहना अध्ययन का उत्तम प्रकार है। साथ रहते रहते विद्यार्थी शिक्षक का व्यवहार देखता है। साथ रहते रहते ही शिक्षक के व्यवहार के स्थूल और सूक्ष्म स्वरूप को समझता है। शिक्षक के विचार और भावनाओं को ग्रहण करता है और उसके रहस्यों को समझता है। शिक्षक की सेवा करते करते, उसका व्यवहार देखते देखते, उससे जानकारी प्राप्त करते करते वह शिक्षक की दृष्टि और दृष्टिकोण भी ग्रहण करता है । उसके हृदय को ग्रहण करता है । अध्ययन केवल शब्द सुनकर नहीं होता, शब्द तो केवल जानकारी है। अध्ययन जानकारी नहीं है। अध्ययन समझ है, अध्ययन अनुभव है, अध्ययन दृष्टि है जो शिक्षक के साथ रहकर, उससे संबन्धित होकर ही प्राप्त होने वाले तत्त्व हैं ।
 
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* शिक्षक और विद्यार्थी को आचार्य और छात्र भी कहा जाता है। आचार्य संज्ञा बहुत अर्थपूर्ण है। जो शास्त्रार्थों को चुनता है, उन्हें आचार में स्थापित करता है, स्वयं भी आचरण में लाता है वह आचार्य है। शास्त्रार्थ को चुनता है का अर्थ है शास्त्र को व्यवहारक्षम बनाता है । अर्थात शिक्षक का व्यवहार शास्त्र के अनुसार होता है । शास्त्रीयता ही वैज्ञानिकता है। वर्तमान की बौद्धिकों में प्रिय संज्ञा वैज्ञानिकता है । उसके अनुसार शिक्षक का व्यवहार विज्ञाननिष्ठ होना चाहिए । जिसका व्यवहार विज्ञाननिष्ठ अर्थात शास्त्रनिष्ठ है वही शिक्षक बन सकता है। ऐसे आचरण को वह विद्यार्थी के आचरण में स्थापित करता है । अपने स्वयं के उदाहरण से विद्यार्थी को शास्त्रनिष्ठ आचरण सिखाना शिक्षक का काम है । आचार्य और सन्त में यही अन्तर है । सन्त अच्छे आचरण का उपदेश देता है परन्तु उपदेश के अनुसार आचरण करना कि नहीं यह नहीं देखता । उपदेश सुनने वाले की मति के ऊपर उसका आचरण निर्भर करता है । परन्तु आचार्य केवल उपदेश नहीं करता । वह विद्यार्थी से उसका आचरण भी करवाता है । अपने आचरण से जो छात्र का जीवन गढ़ता है वही आचार्य है । विद्यार्थी को छात्र कहा गया है । इसका अर्थ यह है कि उसके ऊपर आचार्य का छत्र है । अर्थात्‌ आचार्य पूर्ण रूप से विद्यार्थी का रक्षण करता है। ऐसा आत्मीय सम्बन्ध होने से ही अध्ययन हो सकता है ।
और अध्ययन की क्रिया संधान है और विद्या सन्धि
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* इसका अर्थ यह है कि शिक्षक को केवल विषय नहीं पढ़ाना चाहिये । उसे जीवन की शिक्षा देनी चाहिये । विषय को व्यवहार के साथ जोड़कर तथा विद्यार्थी के व्यवहार की चिंता कर, उसे व्यवहार सिखाकर ही अध्ययन सार्थक होता है । इस सन्दर्भ में आज की स्थिति इतनी भयानक है कि अच्छे विद्यार्थी दुर्लभ हो गये हैं और अच्छे शिक्षक दुःखी हैं । आज विद्यार्थी को आचरण सीखाना या उससे अच्छे आचरण की अपेक्षा करना असम्भव हो गया है । शिक्षक को विद्यार्थियों से डरना पड़ता है । आजकल जिनकी नवाचार के नाम पर बोलबाला है और उपकरणों के उपयोग का आग्रह है उन पाठन पद्धतियों का और उपकरणों का सार्थक और समग्र अध्ययन में बहुत ही कम महत्त्व है। जो शिक्षक अपने विद्यार्थी को जानता है, उसकी वृत्ति प्रवृत्ति और क्षमता को पहचानता है वह विषय के अनुरूप, विद्यार्थी के अनुकूल पाठन पद्धति स्वयं ही निर्माण कर लेता है । तैयार उपकरण और किसी और के द्वारा बताई हुई या जिसका सामान्यीकरण किया गया है ऐसी पाठन पद्धति काम में नहीं आती । वह यान्त्रिक होती है और जीवमान शिक्षक, जीवमान विद्यार्थी और जीवमान अध्ययन के लिए सर्वथा निरर्थक होती है ।
 
 
है। ... आचार्य: पूर्वरूपमू । अंतेवासी उत्तररूपम ।
 
 
 
विद्या सन्धि: । प्रवचनम संधानाम । ( तैत्तिरीय
 
 
 
उपनिषद्‌ .... ) दो शब्दों की सन्धि होने पर जिस
 
 
 
प्रकार एक ही शब्द बन जाता है ( उदाहरण के लिए
 
 
 
गण - ईश - गणेश ) उसी प्रकार अध्ययन और
 
 
 
अध्यापन करते हुए शिक्षक और विद्यार्थों दो नहीं
 
 
 
रहते, एक ही व्यक्तित्व बन जाते हैं । इतना घनिष्ठ
 
 
 
सम्बन्ध शिक्षक और विद्यार्थी का होना अपेक्षित है ।
 
 
 
शिक्षक का विद्यार्थी के लिए वात्सल्यभाव और
 
 
 
विद्यार्थी का शिक्षक के लिए आदर तथा दोनों की
 
 
 
विद्याप्रीति के कारण से ऐसा सम्बन्ध बनता है । ऐसा
 
 
 
सम्बन्ध बनता है तभी विद्या निष्पन्न होती है अर्थात्‌
 
 
 
ज्ञान का उदय होता है अर्थात्‌ विद्यार्थी ज्ञानार्जन
 
 
 
करता है । विद्यार्थी को शिक्षक का मानसपुत्र कहा
 
 
 
गया है जो देहज पुत्र से भी अधिक प्रिय होता है ।
 
 
 
शिक्षक को विद्यार्थी इसलिए प्रिय नहीं होता क्योंकि
 
 
 
वह उसकी सेवा करता है, विनय दर्शाता है या
 
 
 
अच्छी दक्षिणा देने वाला है । विद्यार्थी शिक्षक को
 
 
 
इसलिए प्रिय होता है क्योंकि विद्यार्थी को विद्या प्रिय
 
 
 
है । विद्यार्थी के लिए शिक्षक इसलिए आदरणीय नहीं
 
 
 
है क्योंकि वह उसका पालनपोषण और रक्षण करता
 
 
 
है और प्रेमपूर्ण व्यवहार करता है । शिक्षक इसलिए
 
 
 
आदरणीय है क्योंकि वह विद्या के प्रति प्रेम रखता
 
 
 
है । दोनों एकदूसरे को विद्याप्रीति के कारण ही प्रिय
 
 
 
हैं । उनका सम्बन्ध जोड़ने वाली विद्या ही है । दोनों
 
 
 
मिलकर ज्ञानसाधना करते हैं ।
 
 
 
BGR
 
 
 
भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप
 
 
 
शिक्षक और विद्यार्थी में अध्ययन होता कैसे है ?
 
 
 
दोनों साथ रहते हैं । साथ रहना अध्ययन का उत्तम
 
 
 
प्रकार है। साथ रहते रहते विद्यार्थी शिक्षक का
 
 
 
व्यवहार देखता है । साथ रहते रहते ही शिक्षक के
 
 
 
व्यवहार के स्थूल और सूक्ष्म स्वरूप को समझता
 
 
 
है। शिक्षक के विचार और भावनाओं को ग्रहण
 
 
 
करता है और उसके रहस्यों को समझता है । शिक्षक
 
 
 
की सेवा करते करते, उसका व्यवहार देखते देखते,
 
 
 
उससे जानकारी प्राप्त करते करते वह शिक्षक की दृष्टि
 
 
 
और दृष्टिकोण भी ग्रहण करता है । उसके हृदय को
 
 
 
ग्रहण करता है । अध्ययन केवल शब्द सुनकर नहीं
 
 
 
होता, शब्द तो केवल जानकारी है। अध्ययन
 
 
 
जानकारी नहीं है। अध्ययन समझ है, अध्ययन
 
 
 
अनुभव है, अध्ययन दृष्टि है जो शिक्षक के साथ
 
 
 
रहकर, उससे संबन्धित होकर ही प्राप्त होने वाले
 
 
 
तत्त्व हैं ।
 
 
 
शिक्षक और विद्यार्थी को आचार्य और छात्र भी कहा
 
 
 
जाता है। आचार्य संज्ञा बहुत अर्थपूर्ण है। जो
 
 
 
शाख््रार्थों को चुनता है, उन्हें आचार में स्थापित
 
 
 
करता है, स्वयं भी आचरण में लाता है वह आचार्य
 
 
 
है। शास्त्रार्थ को चुनता है का अर्थ है शाख्र को
 
 
 
व्यवहारक्षम बनाता है । अर्थात शिक्षक का व्यवहार
 
 
 
शाख्त्र के अनुसार होता है । शास्त्रीयता ही वैज्ञानिकता
 
 
 
है। वर्तमान की बौद्धिकों में प्रिय संज्ञा वैज्ञानिकता
 
 
 
है । उसके अनुसार शिक्षक का व्यवहार विज्ञाननिष्ठ
 
 
 
होना चाहिए । जिसका व्यवहार विज्ञाननिष्ठ अर्थात
 
 
 
शाख्रनिष्ठ है वही शिक्षक बन सकता है। ऐसे
 
 
 
आचरण को वह विद्यार्थी के आचरण में स्थापित
 
 
 
करता है । अपने स्वयं के उदाहरण से विद्यार्थी को
 
 
 
शाख्रनिष्ठ आचरण सिखाना शिक्षक का काम है ।
 
 
 
आचार्य और सन्त में यही अन्तर है । सन्त अच्छे
 
 
 
आचरण का उपदेश देता है परन्तु उपदेश के अनुसार
 
 
 
आचरण करना कि नहीं यह नहीं देखता । उपदेश
 
 
 
सुनने वाले की मति के ऊपर उसका आचरण निर्भर
 
 
 
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पर्व ४ : शिक्षक, विद्यार्थी एवं अध्ययन
 
 
 
करता है । परन्तु आचार्य केवल उपदेश नहीं करता ।
 
 
 
वह विद्यार्थी से उसका आचरण भी करवाता है ।
 
 
 
अपने आचरण से जो छात्र का जीवन गढ़ता है वही
 
 
 
आचार्य है । विद्यार्थी को छात्र कहा गया है । इसका
 
 
 
अर्थ यह है कि उसके ऊपर आचार्य का छत्र है ।
 
 
 
अर्थात्‌ आचार्य पूर्ण रूप से विद्यार्थी का रक्षण करता
 
 
 
है। ऐसा आत्मीय सम्बन्ध होने से ही अध्ययन हो
 
 
 
सकता है ।
 
 
 
इसका अर्थ यह है कि शिक्षक को केवल विषय नहीं
 
 
 
पढ़ाना चाहिये । उसे जीवन की शिक्षा देनी चाहिये ।
 
 
 
विषय को व्यवहार के साथ जोड़कर तथा विद्यार्थी के
 
 
 
व्यवहार की चिंता कर, उसे व्यवहार सीखाकर ही
 
 
 
अध्ययन सार्थक होता है । इस सन्दर्भ में आज की
 
 
 
स्थिति इतनी भयानक है कि अच्छे विद्यार्थी दुर्लभ हो
 
 
 
गये हैं और अच्छे शिक्षक दुःखी हैं । आज विद्यार्थी
 
 
 
को आचरण सीखाना या उससे अच्छे आचरण की
 
 
 
अपेक्षा करना असम्भव हो गया है । शिक्षक को
 
 
 
विद्यार्थियों से डरना पड़ता है ।
 
 
 
आजकल जिनकी नवाचार के नाम पर बोलबाला है
 
 
 
और उपकरणों के उपयोग का आग्रह है उन पाठन
 
 
 
पद्धतियों का और उपकरणों का सार्थक और समग्र
 
 
 
अध्ययन में बहुत ही कम महत्त्व है। जो शिक्षक
 
 
 
अपने विद्यार्थी को जानता है, उसकी वृत्ति प्रवृत्ति
 
 
 
और क्षमता को पहचानता है वह विषय के अनुरूप,
 
 
 
विद्यार्थी के अनुकूल पाठन पद्धति स्वयं ही निर्माण
 
 
 
कर लेता है । तैयार उपकरण और किसी और के
 
 
 
द्वारा बताई हुई या जिसका सामान्यीकरण किया गया
 
 
 
है ऐसी पाठन पद्धति काम में नहीं आती । वह
 
 
 
यान्त्रिक होती है और जीवमान शिक्षक, जीवमान
 
 
 
विद्यार्थी और जीवमान अध्ययन के लिए सर्वथा
 
 
 
निर्स्थक होती है ।
 
  
 
== समग्रता में सिखाना ==
 
== समग्रता में सिखाना ==

Revision as of 05:59, 16 July 2020

अध्ययन अध्यापन एक क्रिया है

  • जैसा पूर्व में कहा है कक्षाकक्ष समस्त शिक्षाव्यवहार का केन्द्र है[1]। कक्षाकक्ष का अर्थ भवन का कोई कमरा ही नहीं है । जहां शिक्षक और विद्यार्थी बैठकर अध्ययन और अध्यापन करते हैं वह स्थान ही कक्षाकक्ष है, भले ही वह शिक्षक का घर हो या मन्दिर हो या वृक्ष की छाया हो । शिक्षक और विद्यार्थी बैठे ही हों यह भी आवश्यक नहीं। वे एकदूसरे से शारीरिक रूप से दूर हों परंतु मानसिक व्यापार से जुड़े हों तब भी वह कक्षाकक्ष ही है। उनका एक दूसरे के साथ ज्ञानव्यवहार ही किसी भी स्थान को कक्षाकक्ष बनाता है ।
  • शिक्षक देता है, विद्यार्थी लेता है। यह आदानप्रदान ही अध्ययन अध्यापन है । इस क्रिया और प्रक्रिया में अध्ययन मूल घटना है, अध्यापन उसके अनुकूल होता है। इस तथ्य को जरा ठीक से समझना चाहिए। आचार्य विनोबा भावे कहते हैं कि अँग्रेजी भाषा में अध्ययन और अध्यापन के लिये दो स्वतंत्र क्रियापद हैं। वे हैं - टू टीच और टू लर्न। ये दोनों क्रियापद के मूल रूप हैं। इसका अर्थ यह है कि अध्ययन और अध्यापन दो स्वतंत्र क्रियाएँ हैं । परंतु एक भी भारतीय भाषा में दोनों कामों के लिये दो स्वतंत्र क्रियापद नहीं हैं। टू टीच के लिये है पढ़ाना और टू लर्न के लिये है पढ़ना। ये दो क्रियापद नहीं हैं, एक ही क्रियापद्‌ के दो रूप हैं । अध्ययन और अध्यापन भी एक ही क्रियापद के दो रूप हैं। सीखना और सिखाना भी वैसा ही है। हिन्दी ही नहीं तो सभी भारतीय भाषाओं में ऐसा ही है । इसका अर्थ यह है कि भारतीय विचार अध्ययन और अध्यापन को दो स्वतंत्र क्रियाएँ नहीं मानता है। ये दोनों मिलकर एक ही क्रिया होती है । दोनों एक ही क्रिया के दो रूप हैं । ये दोनों एक ही सिक्के के दो पक्ष की तरह एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। उपनिषद में भी अध्ययन और अध्यापन दोनों के लिये एक ही शब्द का प्रयोग हुआ है और वह शब्द है 'प्रवचन'। जब दोनों मिलकर एक ही क्रिया है तब उसके करने वाले दो व्यक्ति भी अध्ययन और अध्यापन के समय दो नहीं रहते, एक ही हो जाते हैं । तात्पर्य यह है कि शिक्षक और विद्यार्थी का सम्बन्ध एकात्म है। वे अन्दर से एकदूसरे के साथ जुड़े हैं । ऐसा एकात्म सम्बन्ध बनता है तभी ज्ञान प्रकट होता है । जब यह सम्बन्ध किसी भी अर्थ में एकात्म नहीं होता है तब ज्ञान भी अधूरा ही रह जाता है ।
  • अध्ययन और अध्यापन में मूल संज्ञा है अध्ययन। अध्यापन उसका प्रेरक रूप है। इसका अर्थ यह है कि अध्ययन करने वाला ही केन्द्र में है । अध्यापन करने वाला अध्ययन करने वाले के अनुकूल होता है। दूसरे प्रकार से भी समझा जा सकता है। अध्यापन करने वाला यदि नहीं है तो अध्ययन तो कदाचित हो सकता है परन्तु अध्ययन करने वाला नहीं है तो अध्यापन हो ही नहीं सकता। और भी एक तरीके से समझें तो अध्यापन स्वयं अध्ययन का प्रगत स्वरूप है । अर्थात अध्यापन भी मूल में तो अध्ययन ही है। इस सन्दर्भ में देखें तो आज जिसे बालकेन्द्रित शिक्षा कहते हैं उसका अर्थ भी यही है । परन्तु आज उसका अर्थ बदल गया है । बालकों के लिए शिक्षा ऐसा उसका अर्थ हो गया है अर्थात शिक्षा केवल पढ़ने वाले का विचार करेगी, अन्य किसीका नहीं ऐसा हो गया है। बिना चर्चा या खुलासा किये ही बालकेन्द्रित शिक्षा की संकल्पना को यह अर्थ चिपक गया है।

विद्यार्थी शिक्षक का मानस पुत्र

  • शिक्षक और विद्यार्थी को आचार्य और अंतेवासी कहा गया है । उपनिषद्‌ कहता है कि आचार्य पूर्वरूप है, अंतेवासी उत्तररूप है, प्रवचन अर्थात्‌ अध्यापन और अध्ययन की क्रिया संधान है और विद्या सन्धि है। तैत्तिरीय उपनिषद्‌ में बताया है[2]

आचार्यः पूर्वरूपम्। अन्तेवास्युत्तररूपम्।

विद्या सन्धिः। प्रवचन्ँसन्धानम्। इत्यधिविद्यम्।।1.3.4।।

  • दो शब्दों की सन्धि होने पर जिस प्रकार एक ही शब्द बन जाता है ( उदाहरण के लिए गण - ईश - गणेश ) उसी प्रकार अध्ययन और अध्यापन करते हुए शिक्षक और विद्यार्थों दो नहीं रहते, एक ही व्यक्तित्व बन जाते हैं । इतना घनिष्ठ सम्बन्ध शिक्षक और विद्यार्थी का होना अपेक्षित है । शिक्षक का विद्यार्थी के लिए वात्सल्यभाव और विद्यार्थी का शिक्षक के लिए आदर तथा दोनों की विद्याप्रीति के कारण से ऐसा सम्बन्ध बनता है । ऐसा सम्बन्ध बनता है तभी विद्या निष्पन्न होती है अर्थात्‌ ज्ञान का उदय होता है अर्थात्‌ विद्यार्थी ज्ञानार्जन करता है । विद्यार्थी को शिक्षक का मानसपुत्र कहा गया है जो देहज पुत्र से भी अधिक प्रिय होता है ।
  • शिक्षक को विद्यार्थी इसलिए प्रिय नहीं होता क्योंकि वह उसकी सेवा करता है, विनय दर्शाता है या अच्छी दक्षिणा देने वाला है । विद्यार्थी शिक्षक को इसलिए प्रिय होता है क्योंकि विद्यार्थी को विद्या प्रिय है । विद्यार्थी के लिए शिक्षक इसलिए आदरणीय नहीं है क्योंकि वह उसका पालनपोषण और रक्षण करता है और प्रेमपूर्ण व्यवहार करता है । शिक्षक इसलिए आदरणीय है क्योंकि वह विद्या के प्रति प्रेम रखता है । दोनों एकदूसरे को विद्याप्रीति के कारण ही प्रिय हैं । उनका सम्बन्ध जोड़ने वाली विद्या ही है । दोनों मिलकर ज्ञानसाधना करते हैं ।
  • शिक्षक और विद्यार्थी में अध्ययन होता कैसे है ? दोनों साथ रहते हैं । साथ रहना अध्ययन का उत्तम प्रकार है। साथ रहते रहते विद्यार्थी शिक्षक का व्यवहार देखता है। साथ रहते रहते ही शिक्षक के व्यवहार के स्थूल और सूक्ष्म स्वरूप को समझता है। शिक्षक के विचार और भावनाओं को ग्रहण करता है और उसके रहस्यों को समझता है। शिक्षक की सेवा करते करते, उसका व्यवहार देखते देखते, उससे जानकारी प्राप्त करते करते वह शिक्षक की दृष्टि और दृष्टिकोण भी ग्रहण करता है । उसके हृदय को ग्रहण करता है । अध्ययन केवल शब्द सुनकर नहीं होता, शब्द तो केवल जानकारी है। अध्ययन जानकारी नहीं है। अध्ययन समझ है, अध्ययन अनुभव है, अध्ययन दृष्टि है जो शिक्षक के साथ रहकर, उससे संबन्धित होकर ही प्राप्त होने वाले तत्त्व हैं ।
  • शिक्षक और विद्यार्थी को आचार्य और छात्र भी कहा जाता है। आचार्य संज्ञा बहुत अर्थपूर्ण है। जो शास्त्रार्थों को चुनता है, उन्हें आचार में स्थापित करता है, स्वयं भी आचरण में लाता है वह आचार्य है। शास्त्रार्थ को चुनता है का अर्थ है शास्त्र को व्यवहारक्षम बनाता है । अर्थात शिक्षक का व्यवहार शास्त्र के अनुसार होता है । शास्त्रीयता ही वैज्ञानिकता है। वर्तमान की बौद्धिकों में प्रिय संज्ञा वैज्ञानिकता है । उसके अनुसार शिक्षक का व्यवहार विज्ञाननिष्ठ होना चाहिए । जिसका व्यवहार विज्ञाननिष्ठ अर्थात शास्त्रनिष्ठ है वही शिक्षक बन सकता है। ऐसे आचरण को वह विद्यार्थी के आचरण में स्थापित करता है । अपने स्वयं के उदाहरण से विद्यार्थी को शास्त्रनिष्ठ आचरण सिखाना शिक्षक का काम है । आचार्य और सन्त में यही अन्तर है । सन्त अच्छे आचरण का उपदेश देता है परन्तु उपदेश के अनुसार आचरण करना कि नहीं यह नहीं देखता । उपदेश सुनने वाले की मति के ऊपर उसका आचरण निर्भर करता है । परन्तु आचार्य केवल उपदेश नहीं करता । वह विद्यार्थी से उसका आचरण भी करवाता है । अपने आचरण से जो छात्र का जीवन गढ़ता है वही आचार्य है । विद्यार्थी को छात्र कहा गया है । इसका अर्थ यह है कि उसके ऊपर आचार्य का छत्र है । अर्थात्‌ आचार्य पूर्ण रूप से विद्यार्थी का रक्षण करता है। ऐसा आत्मीय सम्बन्ध होने से ही अध्ययन हो सकता है ।
  • इसका अर्थ यह है कि शिक्षक को केवल विषय नहीं पढ़ाना चाहिये । उसे जीवन की शिक्षा देनी चाहिये । विषय को व्यवहार के साथ जोड़कर तथा विद्यार्थी के व्यवहार की चिंता कर, उसे व्यवहार सिखाकर ही अध्ययन सार्थक होता है । इस सन्दर्भ में आज की स्थिति इतनी भयानक है कि अच्छे विद्यार्थी दुर्लभ हो गये हैं और अच्छे शिक्षक दुःखी हैं । आज विद्यार्थी को आचरण सीखाना या उससे अच्छे आचरण की अपेक्षा करना असम्भव हो गया है । शिक्षक को विद्यार्थियों से डरना पड़ता है । आजकल जिनकी नवाचार के नाम पर बोलबाला है और उपकरणों के उपयोग का आग्रह है उन पाठन पद्धतियों का और उपकरणों का सार्थक और समग्र अध्ययन में बहुत ही कम महत्त्व है। जो शिक्षक अपने विद्यार्थी को जानता है, उसकी वृत्ति प्रवृत्ति और क्षमता को पहचानता है वह विषय के अनुरूप, विद्यार्थी के अनुकूल पाठन पद्धति स्वयं ही निर्माण कर लेता है । तैयार उपकरण और किसी और के द्वारा बताई हुई या जिसका सामान्यीकरण किया गया है ऐसी पाठन पद्धति काम में नहीं आती । वह यान्त्रिक होती है और जीवमान शिक्षक, जीवमान विद्यार्थी और जीवमान अध्ययन के लिए सर्वथा निरर्थक होती है ।

समग्रता में सिखाना

अध्ययन हमेशा समग्रता में होता है । आज अध्ययन

श्घ्डे

खण्ड खण्ड में करने का प्रचलन

इतना बढ़ गया है कि इस बात को बार बार समझना

आवश्यक हो गया है । उदाहरण के लिये शिक्षक

रोटी के बारे में बता रहा है Wt serene,

कृषिशास्त्र, वनस्पतिशास्त्र, अर्थशास्त्र और पाकशास्त्

को साथ जोड़कर ही पढ़ाता है । केवल अर्थशास्त्र

केवल आहारशास््र आदि टुकड़ोमें नहीं पढ़ाता ।

आहार की बात करता है तो सात्विकता, पौष्टिकता,

स्वादिष्टता, उपलब्धता, सुलभता आदि सभी आयामों

की एकसाथ बात करता है और भोजन बनाने की

कुशलता भी सिखाता है । समग्रता में सिखाना इतना

स्वाभाविक है कि इसे विशेष रूप से बताने की

आवश्यकता ही नहीं होती है । परन्तु आज इसका

इतना विपर्यास हुआ है कि इसे समझाना पड़ता है ।

इस विपर्यास के कारण शिक्षा, शिक्षा ही नहीं रह गई

है।

शिक्षक विद्यार्थी को ज्ञान नहीं देता, ज्ञान प्राप्त करने

की युक्ति देता है । जिस प्रकार मातापिता बालक को

हमेशा गोद में उठाकर ही एक स्थान से दूसरे स्थान

पर नहीं ले जाते या हमेशा खाना नहीं खिलाते अपितु

उसे अपने पैरों से चलना सिखाते हैं और अपने हाथों

से खाना सिखाते हैं उसी प्रकार शिक्षक विद्यार्थी को

ज्ञान प्राप्त करना सिखाता है । जिस प्रकार माता

हमेशा पुत्री को खाना बनाकर खिलाती ही नहीं है या

पिता हमेशा पुत्रों के लिये अथार्जिन करके नहीं देता है

अपितु पुत्री को खाना बनाना सिखाती है और पुत्रों

को अधथर्जिन करना सिखाता है । ( यहाँ कहने का

तात्पर्य यह नहीं है कि पुत्री को खाना ही बनाना है

और पुत्रों को अथर्जिन ही करना है। पुत्रों को भी

खाना बनाना सिखाया जा सकता है और पुत्रियों को

भी अथर्जिन सिखाया जा सकता है। ) अर्थात

जीवन व्यवहार में भावी पीढ़ी को स्वतन्त्र बनाया

जाता है । स्वतन्त्र बनाना ही अच्छी शिक्षा है । उसी

प्रकार ज्ञान के क्षेत्र में शिक्षक विद्यार्थी को स्वतन्त्रता

............. page-180 .............

भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप

सिखाता है । जिस प्रकार मातापिता...

अध्ययन अध्यापन की कुशलता

अपनी संतानों के लिये आवश्यक है तब तक काम गत अध्याय में हमने शिक्षक और विद्यार्थी के

करके देते हैं और धीरे धीरे साथ काम करते करते. सम्बन्ध के विषय में विचार किया । सम्बन्ध और

काम करना सिखाते हैं उसी प्रकार शिक्षक भी... विद्याप्रीति आधारूप है । उसके अभाव में अध्ययन हो ही

आवश्यक है तब तक तैयार सामाग्री देकर धीरे धीरे. नहीं सकता । परन्तु उसके साथ कुशलता भी चाहिये ।

पढ़ने की कला भी सिखाता है । जीवन के और ज्ञान. कुशलता दोनों में चाहिये ।

के क्षेत्र में विद्यार्थी को स्वतन्त्र बनाना ही उत्तम

शिक्षा है।

शिक्षक की कुशलता किसमें है ?

०. शिक्षक से उत्तम शिक्षा प्राप्त हो सके इसलिये... ०... हर विषय को सिखाने के भिन्न भिन्न तरीके होते हैं ।

विद्यार्थी के लिये कुछ निर्देश भगवद्टीता में बताये गए सुनकर, बोलकर, पढ़कर और लिखकर भाषा के

हैं । श्री भगवान कहते हैं कौशल सीखे जाते हैं । गिनती करने से गणित सीखी

तद्िद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया । जाती है । कहानी सुनकर इतिहास सीखा जाता है ।

अर्थात प्रयोग करके भौतिक विज्ञान सीखा जाता है । हाथ से

ज्ञान प्राप्त करना है तो ज्ञान देने वाले को प्रश्न पूछना काम कर कारीगरी सीखी जाती है । गाकर संगीत

चाहिये, उसे प्रणिपात करना चाहिये और उसकी सेवा करनी सीखा जाता है विषय और विषयवस्तु के अनुसार

चाहिये । प्रश्न पूछने से तात्पर्य है सीखने वाले में जिज्ञासा क्रियाओं को जानने की कुशलता । अर्थात कुछ

होनी चाहिये । प्रणिपात का अर्थ है विद्यार्थी में नप्रता होनी विषयों में कर्मन्द्रियाँ, कुछ में ज्ञानेन्द्रियाँ, कुछ में

चाहिये । सेवा का अर्थ केवल परिचर्या नहीं है । अर्थात बुद्धि आदि की प्रमुख भूमिका होती है । कुछ में

शिक्षक का आसन बिछाना, शिक्षक के पैर दबाना या कण्ठस्थीकरण का तो कुछ में अभ्यास का, कुछ में

उसके कपड़े धोना या उसके लिये भोजन बनाना नहीं है । मनन का तो कुछ में परीक्षण का महत्त्व होता है ।

सेवा का अर्थ है शिक्षक के अनुकूल होना, उसे ईच्छित है विषय और विषयवस्तु के अनुरूप क्रियाओं और

ऐसा व्यवहार करना, उसका आशय समझना । जो शिक्षक प्रक्रियाओं को चुनने का कौशल शिक्षक में होना

के बताने के बाद भी नहीं करता वह विद्यार्थी निकृष्ट है, जो चाहिये ।

बताने के बाद करता है वह मध्यम है और जो बिना बताए... ०... एक ही विषय को आयु की अवस्था के अनुसार

केवल आशय समझकर करता है वह उत्तम विद्यार्थी है । भिन्न भिन्न प्रकार से प्रस्तुत करने की कुशलता

उत्तम विद्यार्थी को ज्ञान सुलभ होता है । विद्यार्थी निकृष्ट है शिक्षक में होनी चाहिये । उदाहरण के लिए शिवाजी

तो शिक्षक के चाहने पर और प्रयास करने पर भी विद्यार्थी महाराज आएग्रा के कैदखाने से मिठाई की टोकरियों में

ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता । इसीको कहते हैं कि शिक्षक छीपकर भाग निकले और अपनी राजधानी रायगढ़

विद्यार्थीपरायण और विद्यार्थी शिक्षकपरायण होना चाहिये । पहुँच गये । इस घटना को शिशु कक्षाओं में चित्र

*... जब शिक्षक और विद्यार्थी का सम्बन्ध आत्मीय नहीं और कहानी बताकर, बाल अवस्था के छात्रों को

होता तभी सामग्री, पद्धति, सुविधा आदि के प्रश्र अद्भुत रस और शौर्य भावना से युक्त वर्णन सुनाकर,

निर्माण होते हैं। दोनों में यदि विद्याप्रीति है और किशोर अवस्था के छात्रों को शिवाजी महाराज का

परस्पर विश्वास है तो प्रश्न बहुत कम निर्माण होते हैं । आत्मविश्वास और साहस का निरूपण कर और तरुण

अध्ययन बहुत सहजता से चलता है | अवस्था के छात्रों को शिवाजी महाराज चारों ओर

श्घ्ढ

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पर्व ४ : शिक्षक, विद्यार्थी एवं अध्ययन

शत्रुओं का राज्य था तब भी हजार मील की यात्रा

कर कैसे अपने गढ़ पर पहुंचे होंगे और यात्रा में

उनकी सहायता करने वाले कौन लोग होंगे इसकी

जानकारी प्राप्त करने का प्रकल्प देकर बताया जा

सकता है । अधिकांश शिक्षक अत्यन्त कर्तव्यनिष्ठ

और भावनाशील होने के बाद भी पढ़ाने की कला में

अकुशल सिद्ध होते हैं। कई बार अत्यन्त विद्वान

व्यक्ति भी पढ़ाने की कला से अवगत नहीं होते । वे

विषय को कठिन तरीके से तो प्रस्तुत कर सकते हैं

परन्तु सरल और सरस बनाकर प्रस्तुत करना उनके

लिए बहुत कठिन होता है। कभी कभी तो

विषयवस्तु बहुत अच्छा होता है परन्तु प्रस्तुति बहुत

ही जटिल होती है ।

कठिन विषय को सरल बनाने के कुछ उदाहरण देखें

श्,

भगवान WAP परमहंस आत्मसाक्षात्कार का

अनुभव समझाने के लिए कहते हैं कि नमक की

पुतली खारे पानी के समुद्र में उतर गई । अब उसे

क्या अनुभव हुआ वह कैसे बतायेगी ? वे कहना

चाहते हैं कि नमक की पुतली तो समुद्र के पानी में

एकरूप हो गई है, अब बताने के लिए कौन बचा

है ? नमक की पुतली जैसा ही आत्मसाक्षात्कार का

अनुभव होता है ।

मुनि उद्दालक अपने पुत्र को ब्रह्म से ही जगत सृजित

हुआ है इसे समझाने के लिए उसे वटवृक्ष का एक

फल लाने को कहते हैं । श्वेतकेतु फल लाता है ।

पिता उसे फल को तोड़कर अन्दर क्या है यह देखने

को कहते हैं । श्वेतकेतु फल तोड़कर देखता है तो

उसमें असंख्य छोटे छोटे काले बीज हैं । पिता एक

बीज को लेकर उसे तोड़ने के लिए कहते हैं ।

श्रेतकेतु वैसा ही करता है और कहता है कि उस

बीज के अन्दर कुछ नहीं है । पिता कहते हैं कि उस

बीज के अन्दर जो “कुछ नहीं' है उसमें से ही यह

विशालकाय वटवृक्ष बना है । उसी प्रकार अव्यक्त

श्द५्‌

ब्रह्म से ही यह विराट विश्व बना

है।

ब्रह्मा और सृष्टि की एकरूपता समझाने के लिए

स्वामी विवेकानन्द कहते हैं कि माया के बिलोरी

काँच की एक ओर ब्रह्म है और दूसरी ओर से उसे

देखने से सृष्टि दिखाई देती है, जिस प्रकार सूर्य की

सफ़ेद किरण त्रिपार्थ काँच से गुजरने पर सात रंगों में

दिखाई देती है । जिस प्रकार सफ़ेद और सात रंग

अलग नहीं हैं उसी प्रकार ब्रह्म और सृष्टि भी अलग

नहीं हैं ।

लगता है कि हमारे द्रष्टा ऋषि अध्यात्म को बड़े

सरल तरीके से समझाने में माहिर थे ।

महाकवि कालीदास वाकू और अर्थ का तथा शिव

और पार्वती का सम्बन्ध एक जैसा है ऐसा बताते हैं ।

जो शिव और पार्वती के सम्बन्ध को जानता है वह

are और अर्थ की एकात्मता को समझ सकता है

और जो वाक्‌ और अर्थ के सम्बन्ध को जानता है

वह शिव और पार्वती के सम्बन्ध को समझ सकता

है।

ज्ञान और विज्ञान का अन्तर और सम्बन्ध समझाने

के लिए एक शिक्षक ने छात्रों को पानी में नमक

डालकर चम्मच से पानी को हिलाने के लिए Ha |

छात्रों ने वैसा ही किया । फिर शिक्षक ने पूछा कि

नमक कहाँ है । छात्रों ने कहा कि नमक पानी के

अन्दर है । शिक्षक ने पूछा कि कैसे पता चला ।

छात्रों ने चखने से पता चला ऐसा कहा । तब शिक्षक

ने कहा कि अब नमक पानी में सर्वत्र है । वह पानी

से अलग दिखाई नहीं देता परन्तु स्वार्देट्रिय॒ के

अनुभव से उसके अस्तित्व का पता चलता है।

शिक्षक ने कहा कि इसे घुलना कहते हैं । प्रयोग कर

के स्वारदेट्रिय से चखकर घुलने की प्रक्रिया तो समझ

में आती है परन्तु घुलना क्या होता है इसका पता

कैसे चलेगा ? घुलने का अनुभव तो नमक को हुआ

है और अब वह बताने के लिए नमक तो है नहीं ।

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घुलने की प्रक्रिया जानना विज्ञान है

परन्तु घुलने का अनुभव करना ज्ञान है । विज्ञान ज्ञान

तक पहुँचने में सहायता करता है परन्तु विज्ञान स्वयं

ज्ञान नहीं है ।

गणित की एक कक्षा में क्षेत्रफल के सवाल चल रहे

थे । शिक्षक क्षेत्रफल का नियम बता रहे थे ।

आगंतुक व्यक्ति ने एक छात्र से पूछा कि चार फीट

लम्बे और तीन फिट चौड़े टेबल का क्षेत्रफल कितना

होगा । छात्रों ने नियम लागू कर के कहा कि बारह

वर्ग फीट । आगंतुक ने पूछ कि चार गुणा तीन

कितना होता है । छात्रों ने कहा बारह । आगंतुक ने

पूछा चार फीट गुणा तीनफिट बारह फीट होगा कि

नहीं । छात्रों ने हाँ कहा । आगंतुक ने पूछा कि फिर

उसमें वर्ग फीट कहाँ से आ गया | छात्रों को उत्तर

नहीं आता था । वे नियम जानते थे और गुणाकार भी

जानते थे परन्तु एक परिमाण और दट्रिपरिमाण का

अन्तर नहीं जानते थे । आगंतुक उन्हें बाहर मैदान में

ले गया । वहाँ छात्रों को चार फीट लंबा और तीन

फीट चौड़ा आयत बनाने के लिए कहा । छात्रों ने

बनाया । अब आगंतुक ने कहा कि यह रेखा नहीं

है । चार फिट की दो और तीन फीट की दो रेखायें

जुड़ी हुई हैं जो जगह घेरती हैं । इस जगह को क्षेत्र

कहते हैं । अब चार और तीन फीट में एक एक फुट

Ro,

भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप

वाला शिक्षक रोटी का समग्रता में परिचय देता है ।

वह रोटी को केवल विज्ञान या पाकशास्त्र का विषय

नहीं बनाता |

न्यूटन ने गुरुत्वाकर्षण का नियम खोजा, आइन्स्टाइन

ने सापेक्षता का सिद्धान्त सवा, जगदीशचन्द्र बसु ने

वनस्पति में भी जीव है यह सिद्ध किया परन्तु

गुरुत्वाकर्षण का सृजन किसने किया, सापेक्षता की

रचना किसने की, वनस्पति में जीव कैसे आया आदि

प्रश्न जगाकर इस विश्व की रचना की ओर ले जाने

का अर्थात “विज्ञान' से “अध्यात्म' की ओर ले जाने

का काम कुशल शिक्षक करता है ।

नारियल के वृक्ष को समुद्र का खारा पानी चाहिये ।

वह खारा पानी जड़ से अन्दर जाकर फल तक

पहुँचते पहुँचते मीठा हो जाता है । बिना स्वाद का

पानी विभिन्न पदार्थों में विभिन्न स्वाद वाला हो जाता

है । यह केवल रासायनिक प्रक्रिया नहीं है अपितु

रसायनों को बनाने वाले की कमाल है । यदि केवल

रासायनिक प्रक्रिया मानें तो रसायनशास्त्र ही अध्यात्म

है ऐसा ही कहना होगा ।

अध्यापन की आदर्श स्थिति

तात्पर्य यह है कि निष्ठावान और विद्वान शिक्षक को

भी छात्र को सिखाने के लिए कुशलता की आवश्यकता

रहती है । यह कुशलता साधनसामग्री ढूँढने में, उसका

प्रयोग करने में और छात्र समझा है कि नहीं यह जानने की

है । एक विद्वान और एक शिक्षक में यही अन्तर है । विद्वान

विषय को जानता है । शिक्षक विषय और छात्र दोनों को

जानता है । तभी शिक्षक का ज्ञान छात्र तक पहुंचता है ।

शिक्षक और और विद्यार्थी के सम्बन्ध का तथा

अध्ययन प्रक्रिया का परम अद्भुत उदाहरण दक्षिणामूर्ति स्तोत्र

में बताया है ...

चित्रं बटतरोमूंले वृद्धा शिष्या: गुरू्युवा ।

गुरोस्तु मौनम्‌ व्याख्यानम्‌ शिष्यास्तु छिन्न संशया: ॥।

के अन्तर पर रेखायें बनाएँगे तो एक एक फीट के

वर्ग बनेंगे । इनकी संख्या गिनो तो बारह होगी । चार

फीट लंबी और तीन फीट चौड़ी आयताकार जगह

बारह वर्ग फीट की बनती है इसलिए केवल बारह

नहीं अपितु बारह वर्ग फीट बनाता है । रेखा और

क्षेत्र में परिमाणों का अन्तर है। यह अन्तर नहीं

समझा तो भूमिति की समझ ही विकसित नहीं होती ।

यह कुशलता है ।

é. रोटी में किसान की मेहनत है, माँ का प्रेम है, मिट्टी

की महक है, बैल की मजदूरी है, गेहूं का स्वाद है,

चूल्हे की आग है, कुएं का पानी है ऐसा बताने

श्द्द

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पर्व ४ : शिक्षक, विद्यार्थी एवं अध्ययन

अर्थात्‌ अरे ! आश्चर्य है ! वटवृक्ष के नीचे वृद्ध संक्षेप में कुशल शिक्षक और

शिष्य और युवा गुरु बैठे हैं । गुरु का मौन व्याख्यान है... समझदार विद्यार्थी अध्ययन अध्यापन को तांत्रिकता से मुक्त

और शिष्यों के सारे संशय दूर हो गये हैं । कर उसे मौलिक और जीवमान बनाते हैं । तभी ज्ञानार्जन

सभी शिक्षकों और विद्यार्थियों की परम गति तो यही... संभव है । ऐसा ज्ञानार्जन शिक्षा को आनंदमय बनाता है ।

है । जो कोई चाहता है इसे प्राप्त कर सकता है ।

References

  1. धार्मिक शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप (धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला १): पर्व ४, प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे
  2. तैत्तिरीय उपनिषद्, शिक्षावल्ली, अनुवाक :3  श्लोक संख्या :4