'प्रशासक और शिक्षक का संवाद

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अध्याय ४३

प्रशासक : तुम इस प्रकार मेरे कक्ष में बिना अनुमति के कैसे घुस आये हो ? कोई मैनर्स है कि नहीं ? जाओ, चले जाओ, मेरा टाइम खराब मत करो।

शिक्षक : मैं अचानक नहीं आया। आपके साथ समय निश्चित किया था। आपने ही समय बताया था । मैं ठीक तीन बजे आया हूँ, न एक मिनट पहले, न एक मिनट विलम्ब से।

प्रशासक : तो अन्दर आने से पूर्व चिठ्ठी क्यों नहीं भेजी ? क्या मेरा प्यून बाहर नहीं बैठा है ? उसने आने कैसे दिया ?

शिक्षक : हाँ, बाहर आपका प्यून बैठा है। मैंने उसे बताया भी। परन्तु वह सुनने को तैयार नहीं था। वह कहता था कि आप काममें व्यस्त हैं, नहीं मिलेंगे। तुम कल आओ या फिर कभी आओ । वह तो आपको पूछने के लिये अन्दर भी आना नहीं चाहता था । फिर मैं उसकी उपेक्षा कर, वह चिल्लाता रहा और अन्दर चला आया । आपसे अनुमति माँगता तो आपभी उसके जैसा ही उत्तर देते इसलिये अनुमति नहीं माँगी। अब आप अपनी दैनन्दिनी में देखिये कि तीन बजे किसी रामनारायण से मिलने का निश्चित हुआ है कि नहीं।

प्रशासक : हाँ, हुआ है । परन्तु यह रामनारायण तो कोई शिक्षक संगठन का प्रमुख है और इस शिक्षक संगठन में ढाई लाख शिक्षक सदस्य हैं। तुम उसके प्रमुख कैसे हो सकते हो ? सादा धोती कुर्ता पहना है और पैरों में जूते तक नहीं हैं। क्या प्रमाण है कि तुम शिक्षक संगठन के प्रमुख हो ? मुझे क्या मूर्ख समझते हो ?

शिक्षक : आपको मैं क्या समझता हूँ वह गौण है। यह मेरा परिचय पत्र देखिये, इससे मेरे कथन की सत्यता आपके ध्यान में आयेगी। रही बात मेरे वेश की। धोती कुर्ता यह तो सभ्य वेश है। भारतीय वेश है। यहाँ की गर्मी में यह वेश पहनना अनुकूल है इसलिये पहना है। जूते बाहर उतारकर आया हूँ क्योंकि जूते पहनकर अन्दर आना हम अच्छा नहीं समझते। आप वेश और जूतों को लक्षण मानते हैं परन्तु हम उन्हें संस्कार नहीं मानते । मैं कहूँगा कि आपको ही अपने वेश और व्यवहार के बारे में कुछ विचार करना चाहिये । आपने पहना है वह भारतीय वेश नहीं है, ब्रिटीशों का है। आप तो शुद्ध भारतीय दिखाई देते हैं, उच्च शिक्षित भी हैं । क्या आप स्वाभिमानी नहीं हैं ? जिन ब्रिटीशों ने हमे दौ सौ वर्ष अपने आधिपत्य में रखा, हम पर अत्याचार किये, हमारी सम्पत्ति लूटी, हमारा अर्थतन्त्र छिन्न विच्छिन्न कर दिया उन पर आपको क्रोध नहीं आता ? आप उनका वेश अपनाये हुए हैं और मैंने भारतीय वेश पहना है इसलिये मेरे साथ शिष्टतापूर्वक बात भी नहीं कर रहे हैं। विचार तो आपको करना है।

प्रशासक : ठीक है, मैं मेरा विचार करूँगा । परन्तु मैंने क्या अशिष्ट व्यवहार किया ? आपको बिना अनुमति आने के लिये टोका यही न ? यह मेरा कार्यालय है, मैं यहाँ अधिकारी हूँ, किसी को भी टोकने का मुझे अधिकार है।

शिक्षक : आप मुझे बैठने के लिये भी नहीं कह रहे हैं इसे ही मैं आपका अधिकारी के पद का अहंकार मानूं क्या ? हाँ, अब आप कहते हैं, तो मैं बैठता हूँ। और अब हम काम की बात ही करें, अब तक जो बातें हुई इन्हें एक ओर रख दें। आप केन्द्र सरकार के शिक्षा विभाग के सचिव हैं अर्थात् इस देश में जो शिक्षा चल रही है उसके सर्वोच्च अधिकारी हैं। मैं इस देश के सबसे बडे शिक्षक संगठन का प्रमुख हुँ। हम दोनों शिक्षा के सेवक हैं। हम दोनों समान रूप से शिक्षा की चिन्ता करनेवाले हैं । अतः हमने एकदूसरे की बात को समझकर शिक्षा में कुछ सार्थक प्रयास करना चाहिये ऐसा निवेदन करने के लिये मैं आया हूँ। मैंने आपका एक घण्टे का समय मांगा था जो आपने दिया भी था। इसलिये हम निश्चिंत होकर बात करें ऐसा भी मेरा निवेदन है।

प्रशासक : मैं आपकी बात स्वीकार करता हूँ। अब देखिये, सरकार शिक्षा अच्छी हो इसलिये अनेक प्रयास कर रही है। हम क्रमशः बात करे तो सरकार ने छः से चौदह वर्ष के बच्चों के लिये निःशुल्क शिक्षा का प्रावधान किया है, इतना ही नहीं मध्याहन भोजन की योजना भी बनाई है जिसके कारण गरीबों के बच्चे भी पढ सकें। क्या आप इसकी सराहना नहीं करेंगे ? देश में साढे आठ लाख से भी अधिक प्राथमिक विद्यालय हैं। आप इसके लिये हमें कुछ तो शाबाशी दे सकते हैं।

शिक्षक : सरकार शिक्षा के लिये क्या क्या कर रही है इसके बारे में आप एक बार में सब बताइये । बाद में उस पर चर्चा करेंगे। हम यह सब संक्षेप में करेंगे क्योंकि इस चर्चा के बाद मैं एक महत्त्वपूर्ण विषय पर आपका परामर्श और सहयोग चाहता हूँ।

प्रशासक : हमने शिक्षकों के प्रशिक्षण की अच्छी व्यवस्था की है। शिक्षकों का वेतन भी अब सम्मानजनक है। सेवाकालीन प्रशिक्षण की भी अच्छी व्यवस्था है। हमने केन्द्र और राज्यों में प्रशिक्षण और अनुसन्धान की संस्थायें बनाई हैं। पाठ्यक्रम और पाठ्यपुस्तकें बनाई है। पाठ्यपुस्तकें निःशुल्क दी जाती हैं। लडकियाँ पढ़ें इस दृष्टि से उन्हें अनेक विशेष सुविधायें दी जाती हैं। शत प्रतिशत साक्षरता के लिये अभियान के तौर पर प्रयास किये जाते हैं। माध्यमिक और उच्चतर माध्यमिक स्तर की शिक्षा का भी विचार किया जाता है। विश्वविद्यालयों की संख्या क्रमशः प्रतिवर्ष बढ़ रही है। आईआईटी, आईआईएम जैसी विश्वस्तरीय संस्थायें है। आयुर्विज्ञान की संस्थायें भी लक्षणीय हैं। अनेक शोध संस्थान भी कार्यरत हैं। खैर, यह सब तो आप भी जानते ही होंगे। आपका कहना क्या है ?

शिक्षक : जी हाँ, यह सब तो मैं जानता हूँ। यह जानकारी इण्टरनेट पर उपलब्ध है। मेरी चिन्तायें कुछ और हैं जिनकी ओर हमें ध्यान देना है । मैं कुछ बातें आपके समक्ष बताता हूँ।

  1. सरकारी प्राथमिक विद्यालयों में कोई पढ़ना नहीं चाहता। आपके बच्चे भी सरकारी स्कूल में नहीं पढे होंगे।
  2. सरकारी विद्यालयों में जो भी पढता है उसे आठ वर्ष की पढाई के बाद भी लिखना पढ़ना नहीं आता।
  3. अन्य विद्यालयों में भी पन्द्रह वर्ष की पढाई के बाद ज्ञानात्मक दृष्टि से शिक्षित कहे जाने वाले विद्यार्थियों की संख्या कदाचित दो प्रतिशत होगी।
  4. शिक्षित लोगों में देशभक्ति, सामाजिक दायित्वबोध और व्यक्तिगत आचरण में संस्कार नहीं होते। हम सज्जन कह सकें ऐसे विद्यार्थियों का निर्माण नहीं करते।
  5. विश्व के प्रथम दोसौ विश्वविद्यालयों में भारत का एक भी विश्वविद्यालय नहीं है।

मैंने सारी चिन्ताओं का सार केवल पाँच बिन्दुओं में बताया है। मैं आपके तन्त्र पर या सरकार पर आरोप नहीं लगा रहा हूँ। आप और हम मिलकर स्थिति में कुछ परिवर्तन कर सकें इस दृष्टि से कह रहा हूँ।

प्रशासक : देखिये आपने जो बातें बताई हैं वे भी तो सब जानते हैं। परन्तु सरकार कर व्यवस्था बनाने के अलावा और क्या कर सकती है ? पढाना तो शिक्षकों को होता है। शिक्षक जैसा पढायेंगे वैसी ही तो शिक्षा होगी। सरकार वेतन अच्छा देती है, सुविधायें भी देती है तो भी वे अच्छा नहीं पढाते तो कोई क्या कर सकता है। अब आप ही देखिये, विश्वविद्यालयों के अध्यापकों का वेतन कितना अच्छा है। हमने उनके लिये शोधकार्य भी अनिवार्य बनाया है। तो भी वे अपने विश्वविद्यालयों की बराबर में अपनी संस्थाओं को खडा नहीं कर सकती। आखिर आपके पास भी कोई उपाय है ?

शिक्षक : पहली बात तो यह है कि व्यवस्थाओं, वेतन और सुविधाओं से शिक्षा नहीं होती। स्वेच्छा, स्वन्त्रता और प्रेरणा से होती है। हमारे वर्तमान तन्त्र में शिक्षक के पास इन तीन में से एक भी नहीं है। शिक्षक आपके तन्त्र में नौकरी करता है। चाहे प्राथमिक विद्यालय हो चाहे विश्वविद्यालय, शिक्षक नौकर है । क्या आप शिक्षा को सरकारी तन्त्र से मुक्त कर सकते

प्रशासक : अरे, यह कैसे हो सकता है ? नियन्त्रण के बाद भी कोई अपना काम ठीक से करता नहीं है, स्वतन्त्र हो जायेंगे तो तो फिर कौन करेगा ? नहीं यह तो सम्भव नहीं है, यह व्यावहारिक नहीं है। और प्राथमिक शिक्षा की व्यवस्था को तो हम छेड नहीं सकते। ऐसा किया तो यह संविधान के विरुद्ध होगा।

शिक्षक : कब तक आप व्यवस्था की और संविधान की दुहाई देते रहेंगे । कब तक आप शिक्षा का बोज ढोते रहेंगे जो निरर्थक और अनर्थक है ?

प्रशासक : लेकिन यह तो मन्त्रियों के अधिकार की बात है। हम तो केवल व्यवस्था देखते हैं। वे नीतियाँ बनाते हैं, हम उन नीतियों का क्रियान्वयन करते हैं। आप उनके पास जाइये, उन्हें समझाइये । यह हमारा काम नहीं

शिक्षक : अरे महाशय, आप उत्तेजित हो गये । कृपा करके शान्त हों । मैं दोष नहीं दे रहा हूँ। शिक्षा की मुक्ति की सम्भावनाओं की बात कर रहा हूँ।

देखिये, सरकार कितनी भी कार्यक्षम हो, अच्छी नीयत वाली हो या परिश्रमी भी हो परन्तु शिक्षा उसका विषय नहीं है इसलिये सरकार उसके प्रयासों में कभी भी यशस्वी होने वाली नहीं है। सरकार यदि इस स्थिति में परिवर्तन नहीं करेगी तो शिक्षा का और समाज का कोई भला होने वाला नहीं है। अब यह बडा साहसी विचार होगा क्योंकि सरकार ने पूर्ण रूप से शिक्षा को नियन्त्रण में रखा है। आप ही विचार करें कि इसमें क्या हो सकता है। आप किस प्रकार शिक्षा को अपने नियन्त्रण से मुक्त करेंगे और स्वयं भी इस व्यर्थ बोज से मुक्त होंगे ?

प्रशासक : परन्तु यह कैसे हो सकता है ? परापूर्व से ही ऐसी व्यवस्था चली आ रही है। सरकार का यह कर्तव्य है। वह अपने कर्तव्य से पीछे नहीं रह सकती। सरकार नहीं करेगी तो कौन करेगा ? यह तो प्रजा के कल्याण का विषय है। सरकार नहीं करेगी तो और कोई भला क्यों करेगा ? और फिर यह तो प्रस्थापित व्यवस्था है। इसमें बदल कैसे हो सकता है ? यह संविधान का विषय है। उसमें कोई भी परिवर्तन करने के लिये जिस पक्ष की सरकार है उस पक्ष का दो तिहई बहुमत चाहिये। और वह बहुमत हो तो भी ऐसी विचित्र बात कैसे हो सकती है ? आप वास्तविक धरातल पर विचार ही नहीं कर रहे हैं । मुझे बहुत परेशानी हो रही है।

शिक्षक : खेद की बात है। मैं वास्तविक धरातल की ही बात कर रहा हूँ । सुनिये, मैं एक एक कर आपके समक्ष स्थिति स्पष्ट करता हूँ।

एक, आप सच्चे भारतीय हैं । आप प्रशासकीय सेवा में हैं इसलिये भारत का इतिहास जानते हैं। इस देश की शिक्षाव्यवस्था विश्व में सबसे प्राचीन है यह तो आप जानते ही हैं। अत्यन्त प्राचीन काल से लेकर उन्नीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध तक भारत में शिक्षा सरकार के नियन्त्रण में नहीं थी। ब्रिटीशों ने भारत की प्रजा के मानस को अपने अधीन करने हेतु शिक्षा को अपने नियन्त्रण में ले लिया। उसके बाद भारत की शिक्षा और शिक्षा की व्यवस्था का सर्वनाश किया। यह कड़वा सच है कि आप स्वाधीन भारत में भी ब्रिटीशों की ही पद्धति चला रहे हैं। क्या आपका उद्देश्य भी प्रजा के मानस को अपने अधीन रखने का ही है ? क्या प्रजा को स्वतन्त्र नहीं होने देना चाहते हैं ?

प्रशासक : यह तो गम्भीर आरोप है। भारत में शिक्षा थी ही नहीं, ब्रिटीशों ने शुरू की और आज भी हमारे लिये वह व्यवस्था का उत्तम नमूना है। स्वतन्त्रता से पूर्व वह व्यवस्था शुरू हुई इसलिये उसका श्रेय तो उनका ही माना जाना चाहिये । हमें ब्रिटीशों के प्रति कृतज्ञ रहना चाहिये । आप उल्टी बात कर रहे हैं।

शिक्षक : यही तो बडे खेद की बात है कि वर्तमान भारत का उच्च शिक्षित, अधिकारी व्यक्ति सत्य इतिहास से परिचित भी नहीं है। मेरे कथन के प्रमाण मैं दे सकता हूँ। मुझे ज्ञात था कि इन की आवश्यकता पडेगी इसलिये मैं कुछ सामग्री साथ लेकर आया हूँ। यहाँ छोडकर जाऊँगा। आपको मेरे कथन के प्रमाण मिल जायेंगे। परन्तु इससे भी अधिक खेद की बात यह है कि हमारे प्राथमिक से लेकर विश्वविद्यालयों में हम वही पढ़ा रहे हैं जो ब्रिटीश हमें पढा रहे थे । हमारे विश्वविद्यालय ज्ञान की दृष्टि से भारतीय नहीं हैं। विगत दस पीढियों से यही पश्चिमी ज्ञान हम दे रहे हैं। प्रथम पाँच पीढियाँ तो स्वाधीनता पूर्व थीं, हम उसमें कुछ नहीं कर सकते थे, परन्तु स्वाधीनता के बाद भी तो हम वही पढा रहे हैं। यह परिवर्तन कौन करेगा ऐसा आपको लगता है ? शिक्षक या सरकार ?

प्रशासक : देखिये, ये सारी बातें मेरे लिये बहुत नई हैं। इन पर विश्वास करने से पूर्व मुझे ठीक से अध्ययन करना पड़ेगा और विचार भी करना पड़ेगा। परन्तु क्या पढाना क्या नहीं यह तो शिक्षकों को ही निश्चित करना होगा । हम क्या कर सकते हैं ?

शिक्षक : आपकी बात से मैं पूर्ण सहमत हूँ। यही नहीं, मैं आग्रहपूर्वक कहता हूँ कि यह कार्य शिक्षकों को करना है। परन्तु सरकार उन्हें करने नहीं देती। सरकार की सारी संस्थायें शिक्षण, प्रशिक्षण, अनुसन्धान, पाठ्यक्रम आदि बातों में नियन्त्रण करती हैं जिसमें अन्तिम निर्णय आपका होता है। में प्रशासन की सिस्टम और राजकीय पक्षों के निहित स्वार्थ दोनों को इसके लिये जिम्मेदार मानता हूँ। आप विद्वान देशभक्त शिक्षकों को आवाहन करने के स्थान पर, निवेदन करने के स्थान पर उन्हें आदेश देते हैं, उन्हें नियन्त्रित करते हैं और आप निर्णायक बनते हैं, उनका निर्णय नहीं चलता, आपका चलता है ।

प्रशासक : लेकिन उन्हें निर्णय करने की स्वतन्त्रता दी तो वे कुछ भी करेंगे । आखिर वे कर्मचारी हैं, वेतन मिलते ही उनका मतलब पूरा दो जाता है। वे स्वतन्त्र होने के लायक नहीं हैं। आपकी बात व्यावहारिक नहीं है।

शिक्षक : मुझे हँसी आती है। शिक्षक यदि वेतनभोगी, वेतन का मतलबी कर्मचारी है तो आप उनसे अलग हैं क्या ? उनका भरोसा नहीं किया जा सकता तो आप कैसे दावा कर सकते हैं कि आपका भरोसा किया जाय ? आपकी बात अन्यायपूर्ण है।

प्रशासक : लेकिन हम तो सिस्टम से बन्धे हुए हैं और उसकी मर्यादाओं के अन्दर ही काम करते हैं। उनकी क्या सिस्टम है ?

शिक्षक : अरे महाशय, उनके लिये भी तो आपने सिस्टम बनाई है और आप चाहे तो दण्ड भी दे सकते हैं तो भी वे सिस्टम से नहीं चलते, पढाई होती नहीं और आप कुछ नहीं कर सकते यह तो अभी आपने भी कहा । यदि वे सिस्टम में रहने के लिये बाध्य नहीं किये जा सकते तो आप तो अधिकारी हैं, आपको कौन बाध्य करेगा ?

रही बात सिस्टम की। शिक्षा इस निर्जीव सिस्टम में नहीं चलती। शिक्षा की अपनी सिस्टम होती है जिसे आप समझना चाहें तो समझ सकते हैं, परन्तु शिक्षा को उस जिन्दा सिस्टम में काम करने दिया जाय तो शिक्षक अभी भी स्वेच्छा, स्वयंप्रेरणा और ज्ञान से शिक्षा में परिवर्तन करेंगे। आप जरा सिस्टम के बन्धन शिथिल करके तो देखिये, शिक्षकों को आवाहन करके तो देखिये ।

प्रशासक : परन्तु सिस्टम में परिवर्तन करना हमारा काम नहीं है, हमारा अधिकार भी नहीं है। यह तो संसद का काम है, उनका अधिकार है। हम तो सिस्टम के सेवक हैं।

शिक्षक : आपके मुँह से 'सेवक' शब्द सुनकर बहुत अच्छा लगा, परन्तु इन सेवकों' का रॉब तो सम्राट जैसा, नहीं ब्रिटीशों जैसा है। आपके सामने खडा रहकर व्यक्ति पहले तो दब जाय ऐसी ही आपकी भावभंगिमा होती है। खैर, आपने अपने आपको सेवक कहा और

References

भारतीय शिक्षा : वैश्विक संकटों का निवारण भारतीय शिक्षा (भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला ५), प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे