'प्रशासक और शिक्षक का संवाद

From Dharmawiki
Revision as of 18:43, 14 January 2020 by Tsvora (talk | contribs) (→‎References)
Jump to navigation Jump to search

अध्याय ४३

प्रशासक : तुम इस प्रकार मेरे कक्ष में बिना अनुमति के कैसे घुस आये हो ? कोई मैनर्स है कि नहीं ? जाओ, चले जाओ, मेरा टाइम खराब मत करो।

शिक्षक : मैं अचानक नहीं आया। आपके साथ समय निश्चित किया था। आपने ही समय बताया था । मैं ठीक तीन बजे आया हूँ, न एक मिनट पहले, न एक मिनट विलम्ब से।

प्रशासक : तो अन्दर आने से पूर्व चिठ्ठी क्यों नहीं भेजी ? क्या मेरा प्यून बाहर नहीं बैठा है ? उसने आने कैसे दिया ?

शिक्षक : हाँ, बाहर आपका प्यून बैठा है। मैंने उसे बताया भी। परन्तु वह सुनने को तैयार नहीं था। वह कहता था कि आप काममें व्यस्त हैं, नहीं मिलेंगे। तुम कल आओ या फिर कभी आओ । वह तो आपको पूछने के लिये अन्दर भी आना नहीं चाहता था । फिर मैं उसकी उपेक्षा कर, वह चिल्लाता रहा और अन्दर चला आया । आपसे अनुमति माँगता तो आपभी उसके जैसा ही उत्तर देते इसलिये अनुमति नहीं माँगी। अब आप अपनी दैनन्दिनी में देखिये कि तीन बजे किसी रामनारायण से मिलने का निश्चित हुआ है कि नहीं।

प्रशासक : हाँ, हुआ है । परन्तु यह रामनारायण तो कोई शिक्षक संगठन का प्रमुख है और इस शिक्षक संगठन में ढाई लाख शिक्षक सदस्य हैं। तुम उसके प्रमुख कैसे हो सकते हो ? सादा धोती कुर्ता पहना है और पैरों में जूते तक नहीं हैं। क्या प्रमाण है कि तुम शिक्षक संगठन के प्रमुख हो ? मुझे क्या मूर्ख समझते हो ?

शिक्षक : आपको मैं क्या समझता हूँ वह गौण है। यह मेरा परिचय पत्र देखिये, इससे मेरे कथन की सत्यता आपके ध्यान में आयेगी। रही बात मेरे वेश की। धोती कुर्ता यह तो सभ्य वेश है। भारतीय वेश है। यहाँ की गर्मी में यह वेश पहनना अनुकूल है इसलिये पहना है। जूते बाहर उतारकर आया हूँ क्योंकि जूते पहनकर अन्दर आना हम अच्छा नहीं समझते। आप वेश और जूतों को लक्षण मानते हैं परन्तु हम उन्हें संस्कार नहीं मानते । मैं कहूँगा कि आपको ही अपने वेश और व्यवहार के बारे में कुछ विचार करना चाहिये । आपने पहना है वह भारतीय वेश नहीं है, ब्रिटीशों का है। आप तो शुद्ध भारतीय दिखाई देते हैं, उच्च शिक्षित भी हैं । क्या आप स्वाभिमानी नहीं हैं ? जिन ब्रिटीशों ने हमे दौ सौ वर्ष अपने आधिपत्य में रखा, हम पर अत्याचार किये, हमारी सम्पत्ति लूटी, हमारा अर्थतन्त्र छिन्न विच्छिन्न कर दिया उन पर आपको क्रोध नहीं आता ? आप उनका वेश अपनाये हुए हैं और मैंने भारतीय वेश पहना है इसलिये मेरे साथ शिष्टतापूर्वक बात भी नहीं कर रहे हैं। विचार तो आपको करना है।

प्रशासक : ठीक है, मैं मेरा विचार करूँगा । परन्तु मैंने क्या अशिष्ट व्यवहार किया ? आपको बिना अनुमति आने के लिये टोका यही न ? यह मेरा कार्यालय है, मैं यहाँ अधिकारी हूँ, किसी को भी टोकने का मुझे अधिकार है।

शिक्षक : आप मुझे बैठने के लिये भी नहीं कह रहे हैं इसे ही मैं आपका अधिकारी के पद का अहंकार मानूं क्या ? हाँ, अब आप कहते हैं, तो मैं बैठता हूँ। और अब हम काम की बात ही करें, अब तक जो बातें हुई इन्हें एक ओर रख दें। आप केन्द्र सरकार के शिक्षा विभाग के सचिव हैं अर्थात् इस देश में जो शिक्षा चल रही है उसके सर्वोच्च अधिकारी हैं। मैं इस देश के सबसे बडे शिक्षक संगठन का प्रमुख हुँ। हम दोनों शिक्षा के सेवक हैं। हम दोनों समान रूप से शिक्षा की चिन्ता करनेवाले हैं । अतः हमने एकदूसरे की बात को समझकर शिक्षा में कुछ सार्थक प्रयास करना चाहिये ऐसा निवेदन करने के लिये मैं आया हूँ। मैंने आपका एक घण्टे का समय मांगा था जो आपने दिया भी था। इसलिये हम निश्चिंत होकर बात करें ऐसा भी मेरा निवेदन है।

प्रशासक : मैं आपकी बात स्वीकार करता हूँ। अब देखिये, सरकार शिक्षा अच्छी हो इसलिये अनेक प्रयास कर रही है। हम क्रमशः बात करे तो सरकार ने छः से चौदह वर्ष के बच्चों के लिये निःशुल्क शिक्षा का प्रावधान किया है, इतना ही नहीं मध्याहन भोजन की योजना भी बनाई है जिसके कारण गरीबों के बच्चे भी पढ सकें। क्या आप इसकी सराहना नहीं करेंगे ? देश में साढे आठ लाख से भी अधिक प्राथमिक विद्यालय हैं। आप इसके लिये हमें कुछ तो शाबाशी दे सकते हैं।

शिक्षक : सरकार शिक्षा के लिये क्या क्या कर रही है इसके बारे में आप एक बार में सब बताइये । बाद में उस पर चर्चा करेंगे। हम यह सब संक्षेप में करेंगे क्योंकि इस चर्चा के बाद मैं एक महत्त्वपूर्ण विषय पर आपका परामर्श और सहयोग चाहता हूँ।

प्रशासक : हमने शिक्षकों के प्रशिक्षण की अच्छी व्यवस्था की है। शिक्षकों का वेतन भी अब सम्मानजनक है। सेवाकालीन प्रशिक्षण की भी अच्छी व्यवस्था है। हमने केन्द्र और राज्यों में प्रशिक्षण और अनुसन्धान की संस्थायें बनाई हैं। पाठ्यक्रम और पाठ्यपुस्तकें बनाई है। पाठ्यपुस्तकें निःशुल्क दी जाती हैं। लडकियाँ पढ़ें इस दृष्टि से उन्हें अनेक विशेष सुविधायें दी जाती हैं। शत प्रतिशत साक्षरता के लिये अभियान के तौर पर प्रयास किये जाते हैं। माध्यमिक और उच्चतर माध्यमिक स्तर की शिक्षा का भी विचार किया जाता है। विश्वविद्यालयों की संख्या क्रमशः प्रतिवर्ष बढ़ रही है। आईआईटी, आईआईएम जैसी विश्वस्तरीय संस्थायें है। आयुर्विज्ञान की संस्थायें भी लक्षणीय हैं। अनेक शोध संस्थान भी कार्यरत हैं। खैर, यह सब तो आप भी जानते ही होंगे। आपका कहना क्या है ?

शिक्षक : जी हाँ, यह सब तो मैं जानता हूँ। यह जानकारी इण्टरनेट पर उपलब्ध है। मेरी चिन्तायें कुछ और हैं जिनकी ओर हमें ध्यान देना है । मैं कुछ बातें आपके समक्ष बताता हूँ।

  1. सरकारी प्राथमिक विद्यालयों में कोई पढ़ना नहीं चाहता। आपके बच्चे भी सरकारी स्कूल में नहीं पढे होंगे।
  2. सरकारी विद्यालयों में जो भी पढता है उसे आठ वर्ष की पढाई के बाद भी लिखना पढ़ना नहीं आता।
  3. अन्य विद्यालयों में भी पन्द्रह वर्ष की पढाई के बाद ज्ञानात्मक दृष्टि से शिक्षित कहे जाने वाले विद्यार्थियों की संख्या कदाचित दो प्रतिशत होगी।
  4. शिक्षित लोगों में देशभक्ति, सामाजिक दायित्वबोध और व्यक्तिगत आचरण में संस्कार नहीं होते। हम सज्जन कह सकें ऐसे विद्यार्थियों का निर्माण नहीं करते।
  5. विश्व के प्रथम दोसौ विश्वविद्यालयों में भारत का एक भी विश्वविद्यालय नहीं है।

मैंने सारी चिन्ताओं का सार केवल पाँच बिन्दुओं में बताया है। मैं आपके तन्त्र पर या सरकार पर आरोप नहीं लगा रहा हूँ। आप और हम मिलकर स्थिति में कुछ परिवर्तन कर सकें इस दृष्टि से कह रहा हूँ।

प्रशासक : देखिये आपने जो बातें बताई हैं वे भी तो सब जानते हैं। परन्तु सरकार कर व्यवस्था बनाने के अलावा और क्या कर सकती है ? पढाना तो शिक्षकों को होता है। शिक्षक जैसा पढायेंगे वैसी ही तो शिक्षा होगी। सरकार वेतन अच्छा देती है, सुविधायें भी देती है तो भी वे अच्छा नहीं पढाते तो कोई क्या कर सकता है। अब आप ही देखिये, विश्वविद्यालयों के अध्यापकों का वेतन कितना अच्छा है। हमने उनके लिये शोधकार्य भी अनिवार्य बनाया है। तो भी वे अपने विश्वविद्यालयों की बराबर में अपनी संस्थाओं को खडा नहीं कर सकती। आखिर आपके पास भी कोई उपाय है ?

References

भारतीय शिक्षा : वैश्विक संकटों का निवारण भारतीय शिक्षा (भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला ५), प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे