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(६) यदि जिहादी आतंकवादी इस्लाम से पृथक हैं, तो किसी भी आतंकवादी के विरुद्ध आज तक किसी इस्लामी संस्थान ने फतवा क्यों नहीं दिया, भारत में भी सिमी, लश्करे-तोयबा, इंडियन मुजाहिदीन, आदि के विरुद्ध? उलटे हर प्रकार के जिहादी के पकड़े जाने या मारे जाने पर उस के प्रति सहानुभूति, उसे निर्दोष बताने या उसे खुलेआम हीरो मानने - जैसा भारतीय संसद पर आतंकरी हमले के दोषी मुहम्मद अफजल के मामले में यहाँ देखा गया - का चलन दुनिया भर के आम मुस्लिम नेताओं के बीच देखा गया है। अतः कथित उदारवादी इस्लाम और उग्रवादी इस्लाम के बीच वास्तव में कोई सैद्धांतिक या सांस्कृतिक विभाजन नहीं किया जा सकता। इस्लामी किताबों या निर्देशों में कहीं ऐसा विभेद नहीं है। यही कारण है कि जो मुसलमान सच्चे उदारवादी हैं, वे भी इस्लामी उग्रवाद की अभिव्यक्तियों पर कुछ नहीं कहते । कह नहीं पाते । वे जानते हैं कि वह हृदय से जो कहना चाहेंगे उस के लिए इस्लामी सिद्धांत, व्यवहार और इतिहास में कोई ठोस, सर्वस्वीकृत समर्थन नहीं है।
 
(६) यदि जिहादी आतंकवादी इस्लाम से पृथक हैं, तो किसी भी आतंकवादी के विरुद्ध आज तक किसी इस्लामी संस्थान ने फतवा क्यों नहीं दिया, भारत में भी सिमी, लश्करे-तोयबा, इंडियन मुजाहिदीन, आदि के विरुद्ध? उलटे हर प्रकार के जिहादी के पकड़े जाने या मारे जाने पर उस के प्रति सहानुभूति, उसे निर्दोष बताने या उसे खुलेआम हीरो मानने - जैसा भारतीय संसद पर आतंकरी हमले के दोषी मुहम्मद अफजल के मामले में यहाँ देखा गया - का चलन दुनिया भर के आम मुस्लिम नेताओं के बीच देखा गया है। अतः कथित उदारवादी इस्लाम और उग्रवादी इस्लाम के बीच वास्तव में कोई सैद्धांतिक या सांस्कृतिक विभाजन नहीं किया जा सकता। इस्लामी किताबों या निर्देशों में कहीं ऐसा विभेद नहीं है। यही कारण है कि जो मुसलमान सच्चे उदारवादी हैं, वे भी इस्लामी उग्रवाद की अभिव्यक्तियों पर कुछ नहीं कहते । कह नहीं पाते । वे जानते हैं कि वह हृदय से जो कहना चाहेंगे उस के लिए इस्लामी सिद्धांत, व्यवहार और इतिहास में कोई ठोस, सर्वस्वीकृत समर्थन नहीं है।
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(७) दरअसल, जिहादी आतंकवादियों द्वारा बम और छुरे से हमला करना, आत्मघाती हमले या सामूहिक हत्याएं करना मूल समस्या नहीं है । वह तो समस्या का एक लक्षण भर है। आतंकवाद एक कार्यनीति है, मूल समस्या नहीं। यह एक साधन मात्र है। जैसे दो देशों के बीच युद्ध में मिसाइलें, बमवर्षक जहाज या पनडुब्बी किसी पक्ष के साधन होते हैं। उसी तरह इस्लामवाद नामक समस्या या पक्ष की ओर से आंतकवाद एक साधन मात्र है। यह गैर-मुस्लिम विश्व और मुस्लिमों में भी उदारवादियों को अपनी इच्छा के प्रति झुकाने का एक हथियार है । उस के दूसरे हथियार भी हैं जो इसी उद्देश्य से प्रयोग किए जा रहे हैं। अतः जिहादी आतंकवाद के विरुद्ध संघर्ष को शेष मामलों - जैसे रोजमर्रे के चित्र-विचित्र फतवे, खुमैनी, तसलीमा, मदरसों की दुनिया, यहूदी विरोध, 'शार्ली अब्दो' पत्रकारों की हत्या, कार्टून विवाद, जनसांख्यिकी दबाव, आप्रवासन नीति, इस्लामी
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(७) दरअसल, जिहादी आतंकवादियों द्वारा बम और छुरे से हमला करना, आत्मघाती हमले या सामूहिक हत्याएं करना मूल समस्या नहीं है । वह तो समस्या का एक लक्षण भर है। आतंकवाद एक कार्यनीति है, मूल समस्या नहीं। यह एक साधन मात्र है। जैसे दो देशों के बीच युद्ध में मिसाइलें, बमवर्षक जहाज या पनडुब्बी किसी पक्ष के साधन होते हैं। उसी तरह इस्लामवाद नामक समस्या या पक्ष की ओर से आंतकवाद एक साधन मात्र है। यह गैर-मुस्लिम विश्व और मुस्लिमों में भी उदारवादियों को अपनी इच्छा के प्रति झुकाने का एक हथियार है । उस के दूसरे हथियार भी हैं जो इसी उद्देश्य से प्रयोग किए जा रहे हैं। अतः जिहादी आतंकवाद के विरुद्ध संघर्ष को शेष मामलों - जैसे रोजमर्रे के चित्र-विचित्र फतवे, खुमैनी, तसलीमा, मदरसों की दुनिया, यहूदी विरोध, 'शार्ली अब्दो' पत्रकारों की हत्या, कार्टून विवाद, जनसांख्यिकी दबाव, आप्रवासन नीति, इस्लामी बैंकिंग, कश्मीरी अलगाववाद, तीन तलाक, आदि - से अलग-थलग करके सफल बनाया नहीं जा सकता। इस्लामी एकाधिकार या विशेषाधिकार का अंधविश्वास, जिद या चाह मूल समस्या है । यह किसी एक देश या क्षेत्र की नहीं, वरन पूरी दुनिया की समस्या है।
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(८) इस अर्थ में भी आज इस्लामवादी विचारधारा की स्थिति १९७० के दशक वाली कम्युनिस्ट विचारधारा के समान है। तब सारी दुनिया के कम्युनिस्ट मार्क्सवाद को स्वयंसिद्ध विज्ञान मानते थे । तदनुरूप अमेरिका, यूरोप के पूँजीवाद के नष्ट होने तथा कम्युनिस्ट विश्व-विजय का अंधविश्वास पालते थे। किंतु दिनो-दिन वास्तविकता उन्हें मुश्किल में डाल रही थी, क्योंकि मार्क्सवाद-लेनिनवाद का प्रत्येक मूलभूत सूत्र निरर्थक होता दिख रहा था । छल-बल और सेंसरशिप से ही कम्युनिस्ट प्रगति के झूठे विवरण दुनिया भर में फैलाए जाते थे। उसी प्रकार, आज इस्लामवाद भी अपने अंधविश्वासों का बचाव करने में दिनों-दिन निर्बल दिख रहा है। सदैव हिंसा की भाषा इसी का प्रमाण है। तर्क और विवेक से सिनेमा, फोटोग्राफी, हजामत या कार्टून बनाने का विरोध और तीन तलाक या हलाल जैसी गंदी प्रथा का समर्थन कैसे किया जा सकता है? जैसे-तैसे कुछ कहा भी जाए तो उसे कौन मानेगा? निश्चय ही कोई मुसलमान भी स्वयं ऐसे तर्क नहीं देगा। इसीलिए एक ओर आज अनेक इस्लामी निर्देशों, आदेशों को दरकिनार कर लाखों मुस्लिम न केवल सिनेमा देखते हैं, संगीत सुनते हैं, चित्र बनाते हैं, दर्शन और साहित्य पढ़ते हैं, क्लीन शेव करते और पश्चिमी पोशाकें पहनते हैं, लोकतांत्रिक कानून मानते हैं और इस प्रकार व्यवहार में शरीयत की उपेक्षा करते हैं। तो दूसरी ओर, इस्लामी कट्टरपंथी अपने मध्ययुगीन ‘एक मात्र सत्य' को पूरी दुनिया पर बलपूर्वक लागू करने के लिए जिहादी दस्ते बनाते हैं । दोनों ही प्रक्रियाएं चल रही हैं, बल्कि अपने-अपने तरीके से तीव्र हो रही हैं। इन का समाधान इस्लामी विश्व में (१९८० के दशक वाले सोवियत रूस जैसे) किसी ग्लासनोस्त और पेरेखोइका का इंतजार कर रहा है। स्वयं अरब देशों में इस्लामी कट्टरता के कम आंदोलन इसी का संकेत है।
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(९) मोरक्को, सऊदी अरब, मलेशिया जैसे कुछ मुस्लिम देशों में और दुनिया भर के मुस्लिम लेखकों, पत्रकारों में इस पर विचार और संघर्ष हो रहा है कि इस्लामी किताबों के हिंसा के आवाहन वाले और अशोभनीय अंशों को किसी न किसी रूप में त्याग दिया जाए।
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एक महत्वपूर्ण इस्लामी देश मोरक्को के युवा शासक किंग मुहम्मद छठवें ने भी इस्लामी विधानों में स्पष्ट सुधार का प्रयत्न आरंभ किया है। उन्होंने २००४ में अपने देश में परिवार संबंधी 'मुदवाना' नामक एक नई कानून संहिता लागू की । इस में स्त्रियों को अधिक अधिकार दिए गए हैं । इस के अनुसार बहु-पत्नी प्रथा पर व्यवहार में कड़े प्रतिबंध लगा दिए गए हैं। यह सब स्पष्टतः पारंपरिक इस्लामी शरीयत नियमों से भिन्न हैं। उन्होंने राज्यनीति में लोकतंत्र को भी बढ़ावा देने का कार्य आरंभ किया है। कट्टरपंथियों ने इन प्रयासों का विरोध भी किया है।
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इसी तरह सऊदी अरब के एक सुधारवादी मौलाना मंसूर अल-नोगीदान ने आवाहन किया है कि इस्लामी मूल विश्वासों में सुधार अपेक्षित है। उन के अपने शब्दों में, 'इस्लाम में सुधार की जरूरत है । इस के लिए ऐसे व्यक्ति की जरूरत है जिस में मार्टिन लूथर जैसा साहस हो । ... यह इस्लाम के भविष्य के लिए अत्यंत आवश्यक है।' उन के विचार में कुरान की पुनर्व्याख्या करके यह घोषित करना जरूरी है कि अल्लाह सभी धर्मों के श्रद्धालुओं को प्यार करता है, केवल इस्लाम को मानने वालों को ही नहीं । मंसूर इस विचार का विरोध करने वाले प्रभावी उलेमा को चुनौती देना भी आवश्यक समझते हैं।
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सीरिया के विद्वान मुहम्मद शाहरूर ने भी इस्लाम में सुधार के प्रश्न को मजबूती से उठाया है। इस्लाम के संस्थापक और इतिहास के अध्ययन से उन का मानना है कि प्रोफेट मुहम्मद ने जो राज्य स्थापित करने की कोशिश की,
    
==References==
 
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