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विकास की अवधारणा

विश्व के विभिन्न राष्ट्र अपने अपने तरीके से अपने समाज के विकास की प्रक्रिया में संलग्न हैं। हर राष्ट्र का अपना इतिहास है, जो कि कुछ सदियों से लेकर हज़ारों वर्षों से भी ज्यादा तक का है। उदाहरण के लिए आज जिसे हम युनायटेड इस्टेट्स ऑफ अमेरिका (USA) के रूप में जानते है, उसका प्रारंभ मात्र ४००-५०० वर्ष ही पुराना है। यूरोप से कोलम्बस के जाने के पहले से भी वहां जो सभ्यता विकसित हुई थी वह भी अधिक पुरानी नहीं रही। दूसरी तरफ देखें तो भारत व चीन हैं, जिनका अस्तित्व सर्वाधिक पुराना है । ये देश तबसे हैं जब न तो यूरोप था और न ही अमेरिका।

इन सबको देखने व समझने हेतु हमारे इस प्रयास के केंद्र में जो विचार लेकर हम चल रहे हैं, वह है धार्मिकता, यानी एक ऐसा विचार - जहाँ अर्थ, काम, धर्म और मोक्ष को एक सूत्र में गूंथ कर समस्त समाज की सर्वांगीण उन्नति करने का मार्ग निहित है, जिसकी जड़ें भारत के प्राचीन मनीषियों द्वारा प्रतिपादित इतिहास में आज भी सुरक्षित हैं। आज जब विश्व के कुछ देश, आर्थिक समृद्धि की पराकाष्ठा पर पहुंचकर भी अपने आप को कई दृष्टियों में विफल पा रहे हैं; और भारत के राज नेता व चिन्तक भी बिना समझे ही उसी मार्ग की नकल कर चलना चाह रहे हैं, तो हमारा प्रयास है कि हम वैश्विक परिप्रेक्ष्य में सब कुछ परखें, व जो कुछ भी विश्व में अच्छा या सही हुआ है, उसे भी समझकर धार्मिकता के अनमोल तत्व को आधुनिक परिवेश में उतारें ताकि धार्मिक चिंतन से ही उपजा यह मंत्र - वसुधैव कुटुम्बकम् - विश्व को नयी दिशा व आने वाली पीढ़ियों को एक सार्थक भविष्य दे सके।

हम यदि आज की वैश्विक समस्याओं पर नज़र डालें, तो पायेंगे कि इन समस्याओं को हम दो स्वरूपों में बाँट कर देख सकते हैं:

  1. राष्ट्रीय व सामाजिक रचना के मूलभूत आधार से सम्बंधित समस्याएँ
  2. ऐसी तात्कालिक समस्याएं, जिन के परिणाम दूरगामी हैं

राष्ट्रीय व सामाजिक रचना के मूलभूत आधार से सम्बंधित समस्याएँ

बाजार में सामर्थ्यवान ही टिक पायेगा

विश्व के राष्ट्रों को दो स्वरूपों में बाँट कर देखा जाता रहा है- एक, आधुनिक या यूँ कहें कि मूलतः आर्थिक रूप से उन्नत राष्ट्रों का समूह जैसे कि यू.एस.ए., ब्रिटेन, जर्मनी, फ्रांस, जापान, आस्ट्रेलिया, इत्यादि; जिन्हें हम लगभग दो सदियों से वैज्ञानिक व आर्थिक उन्नति में अगुआ मानते आ रहे हैं। इनमें ज्यादातर पश्चिम के राष्ट्र होने से, हम आधुनिकता को पश्चिम कह कर ही देखते हैं । और दूसरी ओर बाकी के सब कम उन्नत कहलाये जाने वाले राष्ट्र जो इन उन्नत राष्ट्रों के मार्गदर्शन में चलने का प्रयास कर रहे हैं, और उन्नत होने का अर्थ पश्चिम की हर बात का अन्धानुकरण करने में ही मान रहे हैं।

चिंता का विषय यह है कि अति उन्नत समझे जाने वाले इन राष्ट्रों का एक बड़ा तबका आज आर्थिक रूप से अनिश्चितता में जी रहा है।

कुछ राष्ट्र तो दिवालियेपन के कगार पर खड़े दिखाई दे रहे हैं, जिन्हें संभालने में इनकी सामूहिक ताकत लगी हुई है व विचलित नज़र आ रही है। जिनके पास समृद्धि है वह भी भविष्य के प्रति अनिश्चित हैं, ऐसा स्पष्ट दिखाई दे रहा है। बेरोजगारी व गरीबी की ऐसी मार पड़ रही है कि इन राष्ट्रों की आम जनता बुरी तरह से आतंकित है और यह कह रही है कि मात्र एक प्रतिशत लोगों के हाथों में ही इन राष्ट्रों के धन व सत्ता दोनों की पकड़ सीमित होती जा रही है। बहुमत का विश्वास सरकारी व्यवस्थाओं व राज नेताओं पर से उठता जा रहा है। राज नेता भी ज्यादातर पुराने प्रयासों में गलतियाँ बता कर स्वयं को नए मसीहा के रूप में प्रस्तुत करने में ही व्यस्त हैं। अति उन्नत राष्ट्र से ये राष्ट्र मात्र ३०-४० वर्षों में ऐसी नाजुक स्थिति में कैसे पहुंचे हैं तथा इन समस्याओं की जड़ कहां है, इस पर चर्चा करने वाले कम ही दिखाई पड़ते हैं। आर्थिक सोच में कोई मूलभूत दिशा-भूल हो रही है, ऐसा कहने के बजाय, बाजार में सामर्थ्यवान ही टिक पायेगा, यह एक कुमंत्र ही समस्या पर टिप्पणी के रूप में हर कोई व्यक्त करता नज़र आता है, और सामर्थ्यवान याने क्या, इस बात का पूरा चिंतन किये बिना ही, ये सब विकसित कहलाने वाले राष्ट्र ज्यादा से ज्यादा सामर्थ्यवान बनने के नए नए रास्ते पाने के विभिन्न प्रयोगों में पिछले कुछ दशकों से लगे हुए हैं । यूरोप के देशों को लगता है कि वे अमेरिका से जनसंख्या में बहुत छोटे हैं, इसलिए यदि एकजुट हो जायें तो उनका सामर्थ्य बढ़ जायेगा। मगर फिर यूरोप के जो राष्ट्र आर्थिक व अन्य दृष्टियों में ज्यादा शक्तिशाली रहे हैं उनमें आपस में होड़ ख़तम ही नहीं हो पाती कि बड़ा कौन है । उन्हें चिन्ता लगी रहती है कि कमजोर राष्ट्र कहीं उनका फायदा तो नहीं उठा रहे, साथ जुड़ने में उनके अपने राष्ट्र का कितना लाभ या स्वार्थ-सिद्धि होगी, इसका विचार किये बिना ये राष्ट्र एक दूसरे को आगे बढ़ाने के लिए नहीं, बल्कि स्वयं की ही चिंता तथा उन्नति की लालसा में, मात्र आर्थिक दृष्टि से एक होने का प्रयास करते हुए दिखाई दे रहे हैं । यूरोप के इस एक होने के प्रयास के बीच अचानक ही, ब्रिटेन ने हाँथ खींच लिए (जो ब्रेक्सिट के नाम से मशहूर है) । ब्रिटेन के नागरिक और नेता दोनों पूरी तरह भ्रम में हैं कि यूरोप के साथ रहना है कि नहीं । मामला लगभग ५०/ ५० का है। बहुत थोड़े मतों से आज उन्हों ने तय किया हैं कि साथ रहना उनके हित में नहीं है । थोड़े समय बाद बात पलट भी सकती है, फिर नए खेल शुरू होंगे कि साथ ही रहते तो अच्छा होता । यह गंभीर स्थिति है उन देशों की जो विश्व को आर्थिक दिशा देने का दावा करते हैं। बेरोजगारी से पीड़ित जनता आन्दोलन करने के अलावा कुछ नहीं कर सकती। नेता भी सार्थक चिंतन करने के बजाय सिर्फ लुभावने वायदे के जरिये सत्ता पाने पर सोचेंगे, ऐसी ही स्थिति अभी दिखाई देती है। ये लोग मूल में जाकर विचार कर रहे होंगे ऐसा प्रत्यक्ष व प्रभावी रूप से दिखाई नहीं देता।

आर्थिक विषमता में लगातार वृद्धि टेक्नोलोजी का दुरुपयोग

स्वयं को विकसित कहने वाले राष्ट्र तथा अन्य राष्ट्र भी, जो इस दौड़ में शामिल हैं, उन सबकी एक और भी विकराल समस्या है वह है आर्थिक विषमता अर्थात् राष्ट्रीय धन का अधिकतम प्रतिशत धीरे धीरे मुट्ठी भर लोगों के हाथों में सीमित होना । यदि विश्व के आर्थिक इतिहास पर दृष्टि डालें तो बढ़ती हुई आर्थिक विषमता ही एक ऐसा आर्थिक बिन्दु है जो लगातार बढ़ता ही जा रहा है ।

राष्ट्र में आर्थिक तेजी हो या मंदी, आर्थिक-विषमता का शिकंजा दोनों ही हालत में बिना लगाम के बढ़ ही रहा है अर्थात् कम से कम लोगों की मुट्ठी में ज्यादा से ज्यादा धन का सिमटता जाना । और इस कारण से कहने को तो ये सारे राष्ट्र प्रजातान्त्रिक हैं, मगर हकीकत में तो पैसे की ताकत ही तय कर रही हैं कि क्या खाना, क्या पहनना, कैसे रहना, कैसे चलना, क्या जरूरी है, क्या बेकार है, और यह भी कि किसे वोट देना या क्यों देना । जब बाजार ही सब तय करेगा तो आर्थिक ताकत ही एकमात्र ताकत बनेगी यह स्वाभाविक ही है। निरंतर बढती हुई विषमता के कारण कितने ही प्रकार कि सामाजिक असंतुलन व समस्याओं का प्रभाव दिन ब दिन बढ़ता जा रहा है। यह प्रश्न अत्यंत गंभीर है। उदहारण के रूप में, आज टेक्नोलोजी की ताकत का दुरुपयोग इस हद तक संभव है कि शिक्षा की प्रक्रिया से चिन्तन करने की प्रक्रिया को समूल नष्ट करने का दुष्प्रयास भी दिखाई देने लगा है।

आज जानकारी की सहज उपलब्धता साफ्टवेयर के विभिन्न कम्पनियों द्वारा इस तरह प्रदान होने लगी है कि विद्यार्थी बिना चिन्तन किये ही जो बातें उसे आसानी से उपलब्ध है उन्हें ही सही मान कर सिखने में लगा हुआ है। ऐसे में, शिक्षा का अर्थ मानसिक विकास व अनुसन्धान न होकर आने वाली पीढ़ियों को मात्र नकल करने वाले बन्दर बनाना रह जाये तो सम्पूर्ण विश्व की कैसी भारी दुर्गती हो सकती है?

कुछ चुनिन्दा लोग, जो धन की ताकत से समाज को अपने वश में रखना चाहें, उनका काम आज से पहले कभी भी इतना आसान नहीं रहा होगा। क्योंकि वे मन-गढ़त बातों को ही सत्य बनाकर विद्यार्थियों को मानसिक रूप से अपनी इच्छा अनुसार नियंत्रित कर सकेंगे । अर्थात् हम कह सकते हैं कि नए प्रकार की गुलामी का शिकंजा विश्व भर की आने वाली पीढ़ी को कब निगल ले, इसका पता भी नहीं चलेगा। आर्थिक नियंत्रण के जरिये विश्व की सम्पूर्ण शिक्षा-व्यवस्था पर भयावह दुरुपयोग का मंडराता खतरा एक ऐसा धीमा जहर है, जिसकी मार विश्व के भविष्य के लिए अत्यंत ही दुखदायी हों सकती है।

पारिवारिक अस्थिरता व व्यक्ति का अकेलापन

विश्व में ऐसा कोई भी राष्ट्र अथवा सभ्यता नहीं दिखाई देंगी, जहाँ माँ-बाप के लिए बच्चों के प्रति निस्वार्थ समर्पण या बच्चों के मन में माँ-बाप का महत्व बिलकुल ही न हो। चाहे पुरातन सभ्यता के प्रतिनिधि ट्राईब्स हों, अथवा आधुनिकता में ढली आज की पीढ़ी, परिवार के बिना किसी भी समाज की कल्पना हो ही नहीं सकती, भले ही कोई इस बात को कितना भी नकारे । जब हम राष्ट्र के रूप में समाज के स्थाई स्वरूप को खड़ा करने की बात कहते हैं, तो परिवार की धुरी को बिना स्थापित किये, ऐसा कभी भी संभव नहीं है। ऐसे में, समाज की आर्थिक व्यवस्था का विचार करते समय, क्या परिवार को बाजार से कम आंक कर सोचा जा सकता है ? कहीं न कहीं, वैश्विक समस्याओं के जड़ में यह एक बिन्दु है जो पश्चिम के विचारकों द्वारा उपेक्षित हो गया ऐसा लगता है। परिवार तो निस्वार्थ प्यार का दूसरा नाम है, इसका बाजार की लेन-देन प्रक्रिया से कोई संबंध नहीं है । ऐसे में सामर्थ्यवान होने के लिए सिर्फ 'आर्थिक' शब्द का उपयोग बहुत भ्रामक प्रतीत होता है। ऐसे में मात्र अर्थ को ही सफलता की परिभाषा देने की जो चूक पश्चिम के चिंतकों या राष्ट्र को चलाने वाले नेताओं ने की है, उसका ही नतीजा है कि आज सारा विश्व 'परिवार के बिखराव' की समस्या से बुरी तरह पीड़ित है । ऐसे समाज का निर्माण कैसे हो जहाँ धन, समाज व परिवार में आत्मीयता के तत्व को सर्वोपरि रखते हुए मनुष्य की उन्नति का साधन बन कर बढ़ता रहे । तभी ऐसे बाजार की व्यवस्था संभव होगी जहाँ आर्थिक बढ़ोतरी एक दूसरे को लूट कर नहीं, प्रकृति को नुकसान पहुंचा कर नहीं, बल्कि मानवीय सभ्यता के जो मापदंड हों उनकी बढ़ोतरी से जुडी हो।

प्रश्न यह है, जैसे कि यदि यू.एस.ए. को आर्थिक व वैज्ञानिक उन्नति का बड़ा श्रेय प्राप्त हुआ है, तो उसकी स्थिति महत्वपूर्ण गैर-आर्थिक विषयों में क्या है? और यदि इनमें से कुछ विषयों में, जैसे कि पारिवारिक-स्थिरता, या कि सामाजिक-समरसता इत्यादि में वह पिछड़ा हुआ दिखे तो क्या आप यू.एस.ए. को सच में उन्नत कह सकेंगे ?

जहाँ एक ओर कुछ बातों में पश्चिमी राष्ट्रों के गुण अनुकरणीय हैं, वहीं, दूसरी ओर उन्होंने न केवल स्वयं के लिए बल्कि विश्व के लिये समस्याएं खड़ी कर दी हैं। काल के प्रवाह में इन गुणों व अवगुणों के सम्मिश्रण के अनुपातों में होने वाले परिवर्तनों के बीच भ्रामक स्थिति बनी हुई है।

पश्चिम के अनुकरणीय गुण

व्यक्तिगत स्वतंत्रता व व्यक्तिगत उन्नति के अवसर (सम्मानपूर्वक जीवन-यापन, योग्यता के अनुरूप शिक्षा, समुचित रोजगार, उद्यमिता के समुचित अवसर) ।

कमजोर व्यक्ति के लिए भी न्याय की पूर्ण व त्वरित सम्भावना । रचनात्मक उद्यमिता का सम्मान व बढ़ावा ।

विज्ञान व टेक्नोलोजी पर गहरा अनुसन्धान व उसके जरिये मनुष्य के जीवन को सुविधा पूर्ण बनाना ।

पशिम द्वारा निर्मित पारिवारिक-सामाजिक-प्राकृतिक समस्याएँ

पारिवारिक समस्याएँ

पारिवारिक स्थिरता अर्थात् बच्चों के जीवन में माँबाप व अन्य सदस्यों की भावनात्मक भूमिका, तलाक़ का प्रतिशत, समाज में भावनात्मक मित्रता का स्तर, संकट काल में परिवार व मित्रों का आपस में आर्थिक अवलंबन, किसी भी राष्ट्र की मूल धुरी होती है। यदि पारिवारिक स्थिरता चरमराने लगे तो राष्ट्र अन्दर से खोखला होता जाता है। पश्चिमी राष्ट्र पारिवारिक टूटन को अनदेखा कर उनसे उपजी समस्याओं से छुटकारा नहीं पा सकते हैं। अस्थिर परिवार न केवल बच्चों के समुचित विकास में ही बाधक है, बल्कि समाज में विभिन्न प्रकार की समस्याओं, चाहे वे बेरोजगारी की हो, सामाजिक असुरक्षा की हो, या मानसिक रोगों की, को जन्म देने का मूल कारण है ।

सामाजिक समरसता

अर्थात् आंतरिक सुरक्षा व शांति, विभिन्न समुदायों के आपसी सम्बन्धों की प्रगाढ़ता। आर्थिक उन्नति को ही सर्वोपरी समझने के कारण व्यक्ति की पहचान मूल रूप से आर्थिक ही हो जाए तो सामाजिक समरसता का निर्माण असंभव सा होने लगता है। फिर पारिवारिक पृष्ठभूमि ही जब डांवाडोल होने लगे तो कैसे हो सकता है एक ऐसे समाज का निर्माण जहाँ हर व्यक्ति हर स्थान पर स्वयं को सुरक्षित महसूस कर सके । फिर आर्थिक विषमता इस समाज में आपसी घृणा को बढ़ाये तो इसमें क्या आश्चर्य।

प्राकृतिक संपदा का संरक्षण व सदुपयोग

आर्थिक उन्नति की चाहत में प्रकृति का अंधाधुंध दोहन जहाँ आने वाली पीढ़ियों के लिए घातक परिणाम का कारण बन गया है, वहीं पश्चिम के विचारों में जो मूल आधारभूत गलतियाँ हैं उन्हें भी स्पष्ट दर्शाता है।

उन्नति का अर्थ सिर्फ क्षणिक समय में पैसे को बढ़ाना, जैसे कि पूंजीवादी व्यवस्था में कहते हैं, न केवल स्वार्थ की पराकाष्ठा है, बल्कि दीर्घ-कालीन दृष्टि के अभाव को भी व्यक्त करता है। पूंजी की ताकत को सर्वोपरि समझने से विश्व के सभी राष्ट्रों की जो दुर्गती हो रही है और जिस तरह आर्थिक-शक्ति विश्व के मुठ्ठी भर लोगों के हाथों में सीमित हो रही है, यह पश्चिम की आर्थिक सोच के दिवालियेपन को स्पष्ट करता है। आर्थिक विकास को माध्यम के रूप में न देखने की भूल व जीवन का लक्ष्य विकास की पराकाष्ठा को न समझने के कारण ही पश्चिम आज अपने ही बुने हुए पहले मार्क्सवाद के और अब पूंजीवाद के पतन के कगार पर आकर खड़ा हो गया है। मनुष्य द्वारा निर्मित प्राकृतिक विपदाएँ ही इन विचारधाराओं के अधूरे या गलत होने का प्रमाण है।

अन्य राष्ट्रों के प्रति बड़प्पन : सोच व जिम्मेदारी

जैसे परिवार में बड़ों की भूमिका होती है कि वे छोटों के लिए अवसर उपलब्ध कराने में गर्वित महसूस करे, वैसे ही समाज में जो उन्नति के शीर्ष पर होते हैं उनकी स्वाभाविक जिम्मेदारी बनती है कि नयी पीढ़ी और अन्य कमजोर वर्ग के लिए मार्ग प्रशस्त करने में योगदान करें। ठीक इसी तरह जो राष्ट्र उन्नति के शिखर की ओर आगे बढ़ते हों वे अपने साथ छोटे व कमजोर राष्ट्रों को बल प्रदान करें तभी मानवता का विकास सम्भव है। कोई अकेला नहीं है हम सब जुड़े हुए हैं। एक की पीड़ा कहीं न कहीं सबकी पीड़ा बन कर कब खड़ी हो जाये कोई नहीं बता सकता । ऐसे में यदि ताकतवर राष्ट्र दूसरों का शोषण करना चाहें अथवा उन्हें अपना पिठ्ठू बनाना चाहें तो विश्व में कभी शांति नहीं हो सकती। हर समय स्वार्थ, अविश्वास व अस्थिरता का वातावरण बना ही रहता है। बड़प्पन त्याग और देने से ही होता है, ताकत के इस्तेमाल से नहीं।

नई पीढ़ी में सामाजिक व राष्ट्रीय सोच, जिम्मेदारी उठाने की क्षमता, व्यक्ति में मानवीय गुणों व क्षमताओं का विकास, मीडिया का सामाजिकता व व्यक्ति के विकास में योगदान, असामाजिक तत्वों व विषयों की स्थिति, बच्चों व नयी पीढ़ी में व्यसन व अराजकता; जेल, कैदियों, व सुरक्षाकर्मी की आवश्यकता; सट्टे द्वारा प्राप्त धन व उसके प्रति समाज की सोच, आदि चिन्ता के विषय हैं।

बौद्धिक-भ्रष्टाचार

बौद्धिक-भ्रष्टाचार के जाल में हर राष्ट्र ऐसा जकड़ा हुआ है, जिसके कारण समाज, राष्ट्र, मानवीयता यह सारे शब्द बेमानी है । इन शक्तियों का एकमात्र उद्देश्य यह है कि कैसे धन की ताकत को नए नए प्रकार की चालाकियों के जरिये वश में रखा जाए। वैश्विक स्तर पर खेली जाने वाली ये चालाकियों का पता आम आदमी को तो दशकों तक ही नहीं चल पाता हैं। चाहे ये चालाकियाँ दवाइयों के बढ़ते दामों की हो, प्राकृतिक संसाधनों के लूट की हो, युद्धजैसी-स्थिति बनाये रखने की हो, टीवी पर झूठे लुभावने प्रचार के जरिये फिजूल की चीज़ों की बिक्री में हो, विश्वविद्यालयों के जरिये झूठे अनुसन्धान की हो, स्टॉकमार्केट जैसी व्यवस्थाओं का कानूनी दुरुपयोग सट्टा जैसी प्रवृत्ति को बढ़ाने में हो, प्रजातंत्र को पैसे की ताकत से खरीदने की हो, पढ़े-लिखे समुदाय द्वारा अनपढ़ गरीबों को मूर्ख बनाने की हो, बैंकों द्वारा राष्ट्रीय मुद्राओं के सट्टे की हो । और इन सब समस्याओं के जड़ में सिर्फ एक कारण है बिना किसी प्रकार के पुरुषार्थ व नव-निर्माण के कम से कम समय में अधिक से अधिक धन हथियाने का लालच । मजे की बात यह है कि इस कार्य में हर राष्ट्र की बुद्धिमान व शक्तिशाली स्वार्थी ताकतें आपस में मिलजुल कर, अपने-अपने राष्ट्र के हितों को ताक पर रख कर, अपने ही राष्ट्र की सामान्य जनता को भ्रम में फंसा कर गुमराह कर रही हैं। पूरे संसार में ऐसी विकट स्थिति आज बनी हुई है।

ऐसी तात्कालिक समस्याएं, जिन के परिणाम दूरगामी है

स्वत्व की पहचान (Identity) का भ्रम

एक लम्बे समय से कई विभिन्न कारणों से विश्व के लगभग सभी देशों में विभिन्न प्रकार की पहचानों (Identities) का तालमेल सही सही स्थापित नहीं हुआ है। इस कारण से अनेक आपसी रिश्ते इस कदर बिगड़े हुए हैं कि उनकी आपसी स्थिति हमेशा एक ज्वालामुखी के समान लगती है। इन देशों में जब तक ऐसे नेतृत्व बल नहीं पकड़ते जो विविधता में एकता के सूत्र को न केवल समझते है बल्कि उसे स्थापित करने की क्षमता रखते हैं, सर्वमंगल व सबका विकास चाहते हैं, तब तक इस स्थिति का हल नहीं हो सकता। अहंकार से प्रेरित युद्ध जैसी स्थितियों में समूर्ण विश्व एक अत्यंत कष्टदायी वातावरण में जीने के लिए बाध्य हो रहा हैं। हर राष्ट्र अपनी सुरक्षा के प्रति सजग रहना चाहता है व विश्व की बहुत बड़ी शक्ति सिर्फ फौजें और युद्ध-सामग्रियां जुटाने में ही व्यस्त है । इस विषय की गंभीरता तब और भी भीषण लगने लगती है, जब हम ऐसे अणु-बमों के बारे में सुनते हैं जिनसे पूरा विश्व ही नष्ट किया जा सकता है। कई तरह की मानसिक रूप से विक्षिप्त अव्यवहारिक ताकतें उभरने लगी हैं। जेहाद के नाम पर तो सब कुछ विस्फोटक ही प्रतीत होता है। इस परिस्थिति को बनाये रखने में जिन शक्तियों का संकुचित स्वार्थ छुपा है, वे इस समस्या को निरंतर जिन्दा ही रखना चाहती हैं। जब तक शक्तिशाली नयी पीढ़ी खड़ी नहीं होती, जिसे शांति के मार्ग से ही आगे बढ़ने में रुची हैं। बौद्धिक-भ्रष्टाचार के विभिन्न प्रकारों में यह भी एक प्रकार है जिसकी जड़ें राजनैतिक गलियारों में भी गहरे तक घुसी हुई प्रतीत होती है।

वैश्विक समस्याओं का भारत पर प्रभाव

कुछ ही सदियों पूर्व भारत एक समृद्ध राष्ट्र के रूप में विद्यमान था । विश्व के व्यापार में उसकी अहम् भूमिका रही परन्तु विदेशी आक्रान्ताओं द्वारा सदियों के लगातार आघात से पीड़ित भारत असहाय सा प्रतीत होने लगा है।

विश्व की अर्थ व्यवस्थाएँ सन १००० से २००३

Ref : अठारवीं सदी के पहले भारत और चीन दुनिया के सबसे बड़ी अर्थ व्यवस्था थी। वरिष्ठ अर्थ-शास्त्री अंगस मैडिसन के अनुसंधान के अनुसार ब्रिटिश राज से स्वतंत्र होने के सत्तर वर्ष बाद भी भारत पश्चिमी देशों के प्रभाव से मुक्त नहीं हुआ हैं । जहाँ एक ओर सदियों की गुलामी ने भारत के आत्म-विश्वास को पूरी तरह क्षत-विक्षत कर रखा है, वहाँ दूसरी ओर पश्चिमी राष्ट्रों के आधुनिक आविष्कारों से जनित समृद्धि भारत के शिक्षित समुदाय के लिए स्वाभाविक रूप से आदर्श व कौतुहल का कारण बनी है । इन कारणों के रहते भारत अब तक अपनी स्वतंत्र पहचान प्रभावी ढंग से स्थापित करने में सफल नहीं हुआ है । भारत की उन्नति व अवनति के जो बिन्दु हैं, उन्हें १९४७ के बाद से ४ काल-खण्डों में बाँट कर देखा जा सकता है। इसी प्रक्रिया में हम आगे देखेंगे कि किस तरह भारत पर वैश्विक समस्याओं का क्या परिणाम हुआ है।

भारत के सात दशकः एक केस-स्टडी

भारत में बहुत से लोग गरीब हैं, मगर भारत राष्ट्र कभी भी गरीब नहीं रहा है। भारत की ५०% भूमि कृषियोग्य है (जबकि जापान में मात्र १०.७% व यू.एस.ए. में मात्र १८.९%) । यह एक कटु सत्य है कि १९४७ में ब्रिटिशराज से स्वतन्त्रता के पश्चात का इतिहास देखें तो धार्मिक अर्थ-व्यवस्था रोजी-रोटी की जद्दोजहद से बहुत आगे नहीं बढ़ पाई है। भारत एक अच्छा उदाहरण है इस बात का कि कैसे प्राकृतिक संपदा भरपूर होने पर भी एक राष्ट्र केअधिकतम लोगों को गरीब बनाए रखा जा सकता है। हम भारत के इन सात दशकों को निम्न काल-खण्डों में बाँट कर देखें:

काल-खंड १ :- १९४७-६७ (लगभग २० वर्ष) : मेहनतकश ईमानदार नागरिक, मगर रोजी-रोटी की जद्दोजहद

सदियों की गुलामी से मुक्त, स्वतंत्रता प्राप्ति की खुशी से प्रफुल्लित भारत के नागरिक, स्वाभाविक ही राष्ट्र-निर्माण की प्रबल चेतना से ओत-प्रोत थे। उत्साह व राष्ट्रीय गर्व से भरे हुए इन लगभग २०+ वर्षों में, सब अपनी-अपनी क्षमता के हिसाब से पूरी ईमानदारी से अपनी-अपनी भूमिका निभाने का प्रयास करने लगे। चाहे वे खेत में जुटे किसान हों, या सीमा पर तैनात सैनिक; चाहे वे बौद्धिक रूप से संपन्न वैज्ञानिक हों या राष्ट्र को विभिन्न प्रकार के संगठनों में पिरोने वाले ऋषि-तुल्य महानायक; या जंगलों में अपनी साइकलों से रोज़ ५०-१०० कि. मी. तक यात्रा कर पीने व सिंचाई के पानी के लिए बांध बनाने वाले इंजीनियरों की टोली। राष्ट्र के प्रति इतना अद्भुत समर्पण होते हुए भी, यह भारत के लिए आर्थिक दृष्टि से सबसे कमजोर समय रहा। इसका मुख्य कारण यह था कि आर्थिक विषय को समझने वाले महारथियों व उनके विचारों की घोर उपेक्षा।

जहाँ एक ओर नए स्वतंत्र राष्ट्र के नए नेतृत्व ने कई सही निर्णय लिए होंगे; समुचित आर्थिक-विकास की दृष्टि से, उनसे भारी चुकें भी हुई। इन चूकों को समझना आवश्यक है, ताकि हम उनसे मिली सीखों के परिप्रेक्ष्य में आज को समझकर, आने वाले कल की सही योजना भी कर सके।

  1. किसी भी राष्ट्र की आर्थिक व्यवस्था उसी तरह महत्वपूर्ण है, जिस प्रकार हर परिवार के लिए जरुरी है स्वयं के पुरुषार्थ से कमाया हुआ धन, जो इतना तो हो कि परिवार सम्मान पूर्वक अपना जीवनयापन कर सके व अतिथि का ध्यान भी रख सके । राष्ट्रीय आर्थिक-नीतियां कुछ ऐसी बन सके कि जहाँ हर हाथ को रोजगार मिल सके व समाज व देश की विपदाओं से सुरक्षा हो सके। मगर ७० वर्षों की यात्रा के बाद भी यदि आज हम रोजी-रोटी के जद्दो-जहद से बड़ी जनसंख्या को नहीं उबार सके हैं, तो इसके पीछे प्रारंभिक वर्षों में की गयी कुछ मूलभूत गलतियाँ ही है, जो कि आज तक चली आ रही हैं । उन अनेकानेक आर्थिक गलतियों के केंद्र में जो बिन्दू है वह यह है- जिस तरह एक रेलगाड़ी के चलने के लिए एक सशक्त इंजिन आवश्यक है वैसे ही हर हाथ को काम मिले, यह तभी संभव होता है जब समाज में इंजिन के समान ताकतवर उद्यमियों का सतत निर्माण होता रहे । हमारे नीति निर्धारकों ने नव जवानों को इंजिन जैसे स्वयं की ताकत से आर्थिक रूप से सक्षम साहसी व आत्म-विश्वासी (जो कि रोजगार पैदा करने में अपनी शान समझें) बनाने के बजाय जीवन भर की गारंटी देने वाली नौकरी खोजने वाली फौज खड़ी कर दी। और तो और, नया उद्यम व व्यापार प्रारंभ करने वाले उद्यमियों को पैसे के लालची व स्वार्थी ठहरा कर बहुत ही नकारात्मक वातावरण तैयार कर दिया। इसके चलते जहाँ एक ओर भारत के होनहार बच्चे उद्यमी बनने का साहस जुटाने के बजाय हर सूरत में नौकरी पाने वालों (वह भी सरकारी क्योंकि उसमे जीवन भर की गारंटी है) की दौड़ में शामिल हो गए, और यह सिलसिला आज भी जारी है। दूसरी ओर जिन इक्के-दुक्के लोगों ने उद्यमी बनने की हिम्मत की, उन्हें नियम-कानून के जाल में इस तरह जकड़ा कि वे अधिक टिक नहीं पाये।
  2. नए उद्यमियों के निर्माण में भारी कमी होने से, आर्थिक विकास की रफ़्तार बस इतनी ही रही जिससे जैसे तैसे गुजारा चलता रहे । सरकार का काम धन उत्पत्ति बढाने की नीतियाँ बनाने के बजाय, जो भी धन पैदा हुआ उसे बाँटने का होकर रह गया । आज भी सरकार में जो भी लोग आते हैं (चाहे चुने हुए प्रतिनिधि हो या व्यवस्था चलाने वाली ब्यूरोक्रेसी), आर्थिक-विकास में वेल्थ-क्रियेशन की समझ न होने के कारण धन को बढाने में उद्यमिता की भूमिका को नहीं समझ पाने के कारण, धन को बाँट कर ही गरीबी दूर होगी ऐसे प्रयास में लगे दिखते हैं । और जब धन कमाने के अवसर कम होते हैं, तो ताकतवर भ्रष्टता का मार्ग अपनाकर येनकेन प्रकारेण धन को लुटने लगते हैं, यही मनुष्य का स्वभाव हो गया है।

कालखण्ड -२ (१९६७ से लगभग १९८० तक)

भ्रष्ट अर्थ व्यवस्था का आरम्भ व् जड़ में पकड़ : कालखंड १ में भारत के लोग आर्थिक रूप से भले ही कमजोर रहे, मगर अत्यंत ईमानदारी से अपने कार्य को पूरा करते थे। इस दूसरे कालखंड में भारत के लोगों ने अपनी ईमानदारी के मूल्यों को तिलांजलि देना शुरु कर दिया । जब कोई राष्ट्र आर्थिक रूप से कमजोर बना रहता है, भ्रष्ट लोगों द्वारा राजनैतिक, व्यापारिक, व ब्यूरोक्रेटिक गठबंधन बनाना आसान व स्वाभाविक हो जाता है। ऐसे में यदि राष्ट्र का नेतृत्व छोटे भ्रष्ट आचरणों को नजरअंदाज करने लगे या खुद ही ऐसा करने लगे, तो भ्रष्टता समाज-व्यवस्था के जड़ में ही घर करने लगती है। भारत जैसे विशाल राष्ट्र, जहाँ बड़ी जनसँख्या, लम्बी दूरियां, सड़कों व कम्युनिकेशन का भारी अभाव रहा, भ्रष्टता ने धीरे-धीरे इस कदर घर कर लिया, कि ईमानदारी से काम करने वाले उपहास के पात्र बनते चले गए और इस कालखंड में भ्रष्टता ने पूरी सामाजिकआर्थिक-राजनैतिक-व्यापारिक व्यवस्था में गहरी जड़ पकड़ ली। यद्यपि अब तक भारत, विश्व से अलग थलग ही रहा, मगर भ्रष्ट लोगों ने अवश्य वैश्विक सम्बन्ध स्थापित किये, ताकि भ्रष्टता से पाए धन को राष्ट्र से बाहर ले जाया जा सके।

कालखण्ड - ३ (१९८० से लगभग १९९० तक):

भ्रष्ट नेतृत्व का बढ़ता उबाल : किसी भी समाज की व्यवस्था तीन प्रकार की शक्तियों में बांटी जा सकती है। एक, ईमानदार व सृजनात्मक शक्ति जो पूरे देश का नेतृत्व करती है; दूसरी, भ्रष्ट व ताकतवर शक्ति जो स्वयं के स्वार्थ हेतु पूरे देश को लूटने का कार्य करती है; और तीसरी सीधी-सादी सामान्य जनता जो निरपेक्ष भाव से जीवन की जद्दोजहद में व्यस्त रहती है तथा रेलगाड़ी के डिब्बे के समान, ताकतवर नेतृत्व की दिशा में चलने को बाध्य रहती है।

भारत के लिए यह तीसरा कालखंड दूसरे भ्रष्ट कालखंड का अगला पड़ाव बन गया । जब बेईमानी के जरिये आगे बढ़ना आसान हो गया और समाज के हर क्षेत्र में ईमानदारी पर चलने वाले अपने आत्म -सम्मान की रक्षा करते मूक-दर्शक बनते गए व ज्यादा से ज्यादा नेतृत्व के अवसर चालबाजी व चाटुकारिता करने वालों के हाथों में चला गया ।

कालखण्ड - ४ (१९९० से लगभग २०१० तक) अर्थ व्यवस्था में सम्पन्नता व भ्रष्टता का दोहरा विकास :

ब्यूरोक्रेटिक लाइसेंस-राज से मुक्ति का यह कालखंड आर्थिक-विकास में प्रगति का कारण तो बना, मगर व्यवस्था के जड़ में विद्यमान भ्रष्टता के कारण इस कालखंड का नेतृत्व भी ज्यादातर क्षेत्रों में ऐसे व्यक्तियों के ही हाथों में बना रहा जिनके मूल में लोक-मंगल की कामना न होकर लूट से संपन्न होने की चाहत प्रबल रही । ऐसे में, वैश्विक रूप से अधिक से अधिक जुड़ने के कारण, भारत पर वैश्विक घटनाओं का सर्वाधिक प्रभाव हुआ जो बढ़ता ही गया।

इसी कालखंड में इंटरनेट के आविष्कार ने, भारत की ईमानदार शक्तियों के भी बल में वृद्धि के अवसरों को बढ़ाया । और भारत की बौद्धिक व मेहनती शक्तियों का पूरे विश्व में परचम लहराया । इस तरह, भारत में जहाँ एक और आर्थिक सम्पन्नता बढ़ी, वहीं दूसरी ओर भ्रष्टता भी अपनी पराकाष्ठा पर पहुँच गयी।

एक तरह से देखें तो भारत का प्रथम कालखंड (१९४७ से १९६७ तक) भारत के इस चौथे कालखंड (१९९० से २०१० तक) का ठीक उल्टे-स्वरुप का परिचायक रहा है। जहाँ प्रथम काल-खंड ईमानदारी की मूर्ती तो रही, मगर आर्थिक रूप से कमजोर भी थी; वहीं यह चौथा कालखंड सम्पन्नता से तो बढ़ा है, पर ईमानदारी का सर्वथा अभाव साफ़-साफ दिखाई देता है। और इसी कारण से, एक बहुत बड़ी ईमानदार ग्रामीण जनसँख्या गरीबी से झूझ रही है।

भारत की सत्तर वर्षों की यात्रा में भ्रष्टता उसकी स्वयं की कमजोरी का मापदंड है। वैश्विक शक्तियों व समस्याओं का असर तो अब आया है।

ऐसे में, भारत की आवश्यकता एक और ऐसे नेतृत्व की है, जो भारत को भ्रष्टता के चंगुल से मुक्त करा पाए, साथ ही ऐसी आर्थिक-व्यवस्था का निर्माण कर सके जहाँ ईमानदारी पूर्वक पुरुषार्थ के द्वारा ही विकास व सम्पन्नता में वृद्धि संभव हो सके।

आर्थिक-सम्पन्नता से भी बड़ी चुनौती भारत के नेतृत्व के लिए इस बात में है कि, भारत अपनी विकास यात्रा कैसे बनाये जो पश्चिम की अर्थ-व्यवस्था की उपरोक्त अनेकों कमजोरियों से मुक्त हो । भारत की प्राचीन ग्रामव्यवस्था के सूत्रों को कैसे आज के परिप्रेक्ष्य में शामिल कर सकें, जहाँ एक और आर्थिक समृद्धि भी संभव हो, तो दूसरी ओर प्रतियोगिता के नाम पर रिश्ते, बाजार की बलि न चढ़ने पाएं । स्वार्थ की आंधी ऐसी न उमड़ पड़े कि दूरगामी परिणामों को अनदेखा कर प्रकृति, वायुमंडल, स्वास्थ्य, मानवीय-गुणों को ही तिलांजलि देने लगे, जैसा कि आज पूरे विश्व में चारों ओर दिखाई दे रहा है, और भारत भी इसी दौड़ में आज शामिल है। इतना ही नहीं, नए युग में भारत के पास वह अनमोल विरासत है, जो सदियों से चली आ रही है, और आज भी जिन्दा है, जहाँ विकास की परिभाषा आर्थिक आंकड़ों में सीमित नहीं है।

विश्व के ज्ञान और शिक्षा के विभिन्न प्रतिमान

आज की भाषा में आर्थिक-विकास का सूचक रोजगार है इसी एक बात को ध्यान में रख कर ही दुनिया के तकरीबन हर राष्ट्र की शिक्षा-व्यवस्था का निर्माण किया गया है। रोजगार के अवसर सीमित होते हैं, इसलिए ऐसी व्यवस्था का निर्माण किया गया है जिससे कि शिक्षा के नाम पर मिलने वाली डिग्री के जरिये ही व्यक्ति की छंटनी की जा सके; बजाय इसके कि उसके अन्तःनिहित गुणों के आधार पर उसका चयन हो सके।

यही नहीं, शिक्षा को रोजगार से सीधा जोड़ देने के कारण ही यह अपने आप में समाज में व्यवस्था निर्माण करने का एक राजनैतिक औजार बन गया है ।

References

धार्मिक शिक्षा : वैश्विक संकटों का निवारण धार्मिक शिक्षा (धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला ५): पर्व २: अध्याय १९, प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे