Adoption (दत्तक)

From Dharmawiki
Revision as of 00:31, 12 December 2025 by AnuragV (talk | contribs) (सुधार जारी)
(diff) ← Older revision | Latest revision (diff) | Newer revision → (diff)
Jump to navigation Jump to search
ToBeEdited.png
This article needs editing.

Add and improvise the content from reliable sources.

दत्तक (संस्कृत: दत्तकः) का शब्दार्थ है- किसी परकीय बालक को विधिवत् स्वीकार कर उसे अपना पुत्र बनाना, इसे पुत्रीकरण भी कहा जाता है। वैदिक तथा धर्मशास्त्रीय ग्रन्थों के अनुसार दत्तक-ग्रहण की प्रक्रिया के माध्यम से परिवार एवं वंशपरंपरा की निरंतरता, पितृ-ऋण की पूर्ति, श्राद्ध-कर्म की परंपरा तथा सामाजिक दायित्वों का सतत निर्वाह सुनिश्चित किया जाता है। दत्तक संबंध मात्र भावनात्मक नहीं माना गया, अपितु दत्तक-पुत्र को औरस पुत्र के तुल्य वैध अधिकार प्रदान किए जाते थे। मनु, याज्ञवल्क्य, वसिष्ठ, बौधायन, दत्तक-मीमांसा, दत्तक-चन्द्रिका आदि प्रमुख धर्मशास्त्रीय ग्रंथों में दत्तक-विधि से संबंधित विस्तृत वर्णन प्राप्त होता है।

परिचय॥ Introduction

दत्तक का सामान्य आशय है- किसी अन्य की संतान को विधिवत् स्वीकार कर अपना बनाना। यह एक ऐसी विधि है जिसके माध्यम से संतानहीन व्यक्ति के हितों की पूर्ति होती है। दत्तक-विधान सन्तानविहीन को सन्तान-संपन्न बनाने का साधन है। जब एक व्यक्ति किसी अन्य को अपना अपत्य प्रदान करता है, तब संतान के इस आदान-प्रदान के संस्कार को दत्तक कहा जाता है। भारतीय परंपरा में संतानहीनता की समस्या का समाधान अत्यन्त प्राचीन काल से ही दत्तक के रूप में विकसित हो चुका था और इसे सदैव एक धार्मिक कृत्य के रूप में ही देखा गया। शास्त्रीय वाङ्मय में यह उल्लेख प्राप्त होता है कि -

शुक्रशोणितसम्भवः पुत्त्रो मातापितृनिमित्तकः। तस्य प्रदानविक्रयत्यागेषु मातापितरौ प्रभवतः॥ नत्वेकं पुत्त्रं दद्यात् प्रतिगृह्णीयाद्वा स हि सन्तानाय पूर्ब्बेषाम्। स्त्री पुत्त्रं न दद्यात् प्रतिगृह्णीयाद्वा अन्यत्रानुज्ञानाद्भर्त्तुः॥ (शब्द कल्पद्रुम)

संतान उत्पन्न करने या दत्तक के रूप में संतान देने-लेने का अधिकार माता-पिता के समीचीन कर्तव्यों से संबद्ध है। शुक्र (बीज) एवं शोणित से उत्पन्न संतान अपने जन्म हेतु माता एवं पिता की ऋणी मानी गई है; अतः माता-पिता संतानहीन को स्व-संतान देने में समर्थ हैं। किन्तु जैसा कि -

ज्येष्ठेन जातमात्रेण पुत्री भवति मानवः। पितॄणामनृणश्चैव स तस्माल्लब्धमर्हति॥ (मनु स्मृति)[1]

कोई व्यक्ति अपने एकमात्र पुत्र को न तो किसी अन्य को प्रदान करे और न ही बिना उचित विचार के किसी अन्य का पुत्र स्वीकार करे, क्योंकि वंश-परंपरा को आगे बढ़ाना तथा पूर्वजों के कुल का संरक्षण करना प्रथम पुत्र का दायित्व है। शास्त्र यह भी निर्देश देते हैं कि पत्नी को पति की आज्ञा के बिना संतान को देना या स्वीकार करना उचित नहीं है। याज्ञवल्क्य स्मृति में -

दद्यान्माता पिता वा यं स पुत्रो दत्तको भवेत्॥(याज्ञवल्क्य स्मृति २.१३०)[2]

मनुस्मृति में दत्तक का उल्लेख प्राप्त होता है, कि -

माता पिता वा दद्यातां यमद्भिः पुत्रमापदि। सदृशं प्रीतिसंयुक्तं स ज्ञेयो दत्रिमः सुतः॥ (मनु स्मृति ९.१६८)[3]

भाषार्थ- आपातकाल में माता-पिता जब विधि-विधानपूर्वक तथा समान रूप से प्रसन्नचित्त होकर समान वर्ण के किसी व्यक्ति को अपना पुत्र दे दें, तो वह दत्तक (दत्रिम) पुत्र कहा जाता है।

दत्तक विधि की उपयोगिता॥ Usefulness of adopted method

दत्तक-विधान के अंतर्गत प्रमुख विषयों में सम्मिलित हैं-पुत्रीकरण का उद्देश्य, महर्षि अत्रि द्वारा स्पष्ट किया गया है, जिसके अनुसार केवल पुत्रहीन व्यक्ति को ही सभी विधियों से पुत्र-प्रतिनिधि स्वीकार करना चाहिए, जिससे पिण्ड और उदक रूप में तर्पण का प्राप्तिकार्य सम्भव हो सके -

अपुत्रेण सुतः कार्यो यादृक् तादृक् प्रयत्नतः। पिण्डोदकक्रियाहेतोर्नामसंकीर्तनाय च॥ (दत्तकचन्द्रिका पृ०२)[4]

दत्तकचन्द्रिका ने अत्रि-वचन तथा मनु के दृष्टिकोण के आधार पर पुत्रीकरण के दो उद्देश्य निर्धारित किए हैं -

  1. पिण्डोदक क्रिया की सिद्धि
  2. नाम-संकीर्तन की निरंतरता

इसका आशय यह है कि दत्तक का मूल लक्ष्य पिण्ड एवं उदक द्वारा धार्मिक कर्तव्य का निर्वहन और गोद लेने वाले के नाम तथा कुल की अविच्छिन्न परंपरा को बनाए रखना है। सामान्यतः पुत्रीकरण करने वाले का ध्येय धार्मिक माना जाता है।[5]

पितुर्गोत्रेण यः पुत्रः संस्कृतः पृथिवीपते। आचूडान्तं न पुत्रः न पुत्रतां याति चान्यतः॥

चूडोपनयसंस्कारा निजगोत्रेण वै कृताः। दत्ताद्यास्तनयास्ते स्युरन्यथा दास उच्यते॥

ऊर्ध्वं तु पञ्चमाद्वर्षान्न दत्ताद्याः सुताः नृप। गृहीत्वा पंचवर्षीयं पुत्रेष्टिं प्रथमं चरेत्॥ (दत्तक चन्द्रिका ३१-३३)

भाषार्थ - चूडाकरण संस्कार बहुधा तीसरे वर्ष में किया जाता है, बच्चे के सिरपर जो शिखा या केश-गुच्छ छोडे जाते हैं वे पिता के गोत्र के प्रवर ऋषियों की संख्या पर निर्भर रहते हैं। अतः यदि ऐसा पुत्र, जो असगोत्र है, चूडाकरण के उपरान्त गोद लिया जाता है, तो उसकी स्थिति यों होगी कि उसके कुछ संस्कार एक गोत्र के साथ हुये होंगे तथा अन्य संस्कार दूसरे गोत्र से, अर्थात वह इस प्रकार दो गोत्रों का कहा जायगा। इसे दूर करने तथा गोद वाले कुल से सम्बन्ध जोडने के लिए पुत्रेष्टि संस्कार परमावश्यक है।[5]

दत्तक के रूप में पुत्र प्रदान करने वाला व्यक्ति- पुत्रीकरण में अपना पुत्र देने का प्राथमिक अधिकार पिता को प्राप्त है, और वह माता की सहमति के बिना भी यह कृत्य कर सकता है। माता बिना पति की अनुमति के अपने पुत्र को दत्तक नहीं दे सकती। जब तक पिता जीवित है और निर्णय देने में सक्षम है, तब तक माता को पुत्र-दान का अधिकार प्राप्त नहीं होता। मनु तथा याज्ञवल्क्य के अनुसार, यदि पिता का निधन हो गया हो, वह संन्यास ग्रहण कर चुका हो, अथवा निर्णय देने में अयोग्य हो, तब माता अकेले भी पुत्र को दत्तक प्रदान कर सकती है; परन्तु यदि पिता ने प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से इस कृत्य से निषेध किया हो, तो माता भी दत्तक-दान के लिए अयोग्य मानी जाती है। माता और पिता दोनों के देहांत होने की अवस्था में न तो पितामह, न विमाता, और न ही भ्राता कोई भी दत्तक रूप में नहीं दे सकते हैं।

अयं च दत्तको द्विविधः केवलो द्व्यामुष्यायणश्च। सविदं विना दत्त आद्यः। आवयोरसाविति संविदा दत्तस्त्वन्त्यः॥ (व्यवहार मयूख पृ० ११४) केवलदत्तकः द्व्यामुष्यायणदत्तकश्च। केवलदत्तको जनकेन प्रतिग्रहीत्रर्थमेव दत्तः तस्यैव पुत्त्रः। द्व्यामुष्यायणस्तु जनकप्रति- ग्रहीतृभ्यामावयोरयमितिसंप्रतिपन्नः स उभयोरपि पुत्त्रः इति॥ (याज्ञवल्क्य स्मृति-मिताक्षरा टीका)

मिताक्षरा के अनुसार दत्तक का स्वरूप द्विविध माना गया है - केवल-दत्तक तथा द्व्यामुष्यायण-दत्तक।

  1. केवल-दत्तक - वह बालक है जिसे जनक (जन्मदाता) अकेले प्रतिग्रही (दत्तक ग्रहणकर्ता) के उद्देश्य से प्रदान करता है। इस प्रकार दिया गया पुत्र केवल उसी प्रतिग्रही का कानूनी एवं धार्मिक अर्थों में पुत्र माना जाता है।
  2. द्व्यामुष्यायण-दत्तक - वह है जिसके विषय में जनक और प्रतिग्रही - दोनों की यह संयुक्त स्वीकृति होती है कि यह पुत्र हम दोनों का है। परिणामस्वरूप, ऐसा दत्तक-पुत्र दोनों पक्षों का पुत्र माना जाता है और दोनों वंशों में उसका समन्वित उत्तराधिकार स्वीकार किया जाता है।

निष्कर्ष॥ Conclusion

गोत्र ऋक्थे जनयितुर्न हरेद्दत्त्रिमः सुतः। गोत्रऋक्थानुगः पिण्डो व्यपैति ददतः स्वधा॥

पितुर्गोत्रेण यः पुत्त्रः संस्कृतः पृथिवीपते। आचूडान्तं न पुत्त्रः स पुत्त्रतां याति चान्यतः॥

चूडाद्या यदि संस्कारा निजगोत्रेण वै कृताः। दत्ताद्यास्तनयास्ते स्युरन्यथा दास उच्यते॥

ऊर्द्ध्वन्तु पञ्चमाद्बर्षान्न दत्ताद्याः सुता नृप। गृहीत्वा पञ्चवर्षीयपुत्त्रेष्टिं प्रथमञ्चरेत्॥ (शब्द कल्पद्रुम)

भाषार्थ - दत्तक पुत्र जन्मदाता (जनक) के गोत्र और उत्तराधिकार को नहीं लेता। पिण्ड (श्राद्ध का अधिकार) दान करने वाले के गोत्र और ऋद्धि का ही अनुकरण करता है। हे पृथ्वीपति! जो पुत्र पिता के गोत्र से संस्कार ग्रहण करता है, वह चूड़ाकरण तक तो पुत्र कहलाता है, परन्तु उसके बाद यदि अन्य (गोत्र) से संस्कार हो जाए, तो वह वास्तविक पुत्रता को प्राप्त नहीं होता। यदि चूड़ाकरण आदि संस्कार स्वयं के जन्मगोत्र में सम्पन्न किए गए हों, तो दत्तक आदि पुत्र भी उसी के पुत्र माने जाते हैं; अन्यथा वे दास (सेवक) के रूप में कहे जाते हैं। हे नरेश्वर! पाँच वर्ष से अधिक आयु के बालक को दत्तक नहीं लिया जाना चाहिए। जो पाँच वर्ष का हो, उसे ग्रहण करके पहले ‘दत्तक-पुत्रेष्टि’ नामक अनुष्ठान सम्पन्न करना चाहिए।

उद्धरण॥ References

  1. मनु स्मृति, अध्याय ९, श्लोक १०६।
  2. याज्ञवल्क्य स्मृति, व्यवहाराध्याय २, दायविभाग प्रकरण, श्लोक १३०।
  3. मनु स्मृति, अध्याय ९, श्लोक १६८।
  4. श्री कुबेर भट्ट, दत्तकचन्द्रिका (१९४२), आनन्दाश्रमसंस्कृतग्रन्थावलि (पृ० २)।
  5. 5.0 5.1 डॉ० पाण्डुरंग वामन काणे, धर्मशास्त्र का इतिहास-द्वितीय भाग, उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ (पृ० ८९२)।