Dreams (स्वप्न)

From Dharmawiki
Revision as of 11:19, 14 October 2024 by AnuragV (talk | contribs) (सुधार जारी)
Jump to navigation Jump to search
ToBeEdited.png
This article needs editing.

Add and improvise the content from reliable sources.

भारतीय ज्ञान परंपरा के अन्तर्गत चौंसठ कलाओं में से एक कला को स्वप्न के रूप में भी जाना जाता है। भारतीय विद्याओं में वेद, पुराण, दर्शन, ज्योतिष, एवं आयुर्वेद शास्त्र में स्वप्नों के संबंध में वर्णन प्राप्त होता है। स्वप्न एक रहस्यमयी कला है, जो व्यक्ति के मानसिक, भावनात्मक और आध्यात्मिक जीवन को समृद्ध बनाती है।

परिचय

स्वप्नों का अध्ययन और उनका ज्योतिष तथा अन्य प्राचीन विद्याओं से गहरा संबंध है। भारतीय परंपरा में स्वप्नों को मात्र एक मानसिक प्रक्रिया नहीं माना गया, बल्कि उन्हें जीवन, भविष्य, और आध्यात्मिक संकेतों का महत्वपूर्ण स्रोत माना गया है। यह विश्वास किया जाता है कि स्वप्नों के माध्यम से व्यक्ति को भविष्य की घटनाओं, शुभ-अशुभ संकेतों, या किसी विशेष चेतावनी की जानकारी मिल सकती है। स्वप्न ज्योतिष, तंत्र, और आयुर्वेद जैसी प्राचीन भारतीय विद्याओं से जुड़ा हुआ है, जो यह समझने का प्रयास करता है कि स्वप्नों के माध्यम से व्यक्ति के जीवन पर क्या प्रभाव पड़ सकता है।

स्वप्न क्या है?

निद्रावस्था में हमारी मानसिक वृत्तियाँ सर्वथा निस्तेज नहीं हो जातीं। हाँ, जागृत अवस्था में जो शृंघला मानसिक वृत्तियों में देखी जाती है, वह अवश्य नष्ट हो जाती है। नाना प्रकार की अद्भुत चिन्ताएँ और दृश्य मन में उत्पन्न होते हैं, यही स्वप्न है। शास्त्रकार जिसे सुषुप्ति कहते हैं, निद्रा की उस प्रगाढ अवस्था में स्वप्न दिखलाई नहीं देते।[1] मुख्यतः स्वप्न सात प्रकार के होते हैं -

  • दृष्ट - जो जागृत अवस्था में देखा हो उसी को स्वप्नावस्था में देखा जाए।
  • श्रुत - सोने से पहले कभी किसी से सुना हो उसी को स्वप्ना में देखें।
  • अनुभूत - जो जागृत अवस्था में किसी भाँति अनुभव किया हो उसी को स्वप्न में देखना।
  • प्रार्थित - जिसकी जागृत अवस्था में प्रार्थना इच्छा की हो उसी को स्वप्न में देखना।
  • कल्पित - जागृत अवस्था में जिसकी कभी भी कल्पना न की गई हो उसी को स्वप्न में देखना।
  • भाविक - जो कभी न तो देखा गया हो और न सुना गया हो, पर जो भविष्य में घटित होने वाला हो उसे स्वप्न में देखा जाना भाविक स्वप्न कहलाते हैं।
  • दोषज - वात, पित्त और कफ के विकृत हो जाने पर देखे जाने वाले दोषज स्वप्न कहलाते हैं।

इन सात प्रकार के स्वप्नों में से पहले पाँच प्रकार के स्वप्न प्रायः निष्फल होते हैं, वस्तुतः भाविक स्वप्न का फल ही सत्य होता है।

स्वप्न की अवधारणा[2]

  • स्वप्न की कार्य प्रणाली
  • स्वप्न और प्रतीक
  • स्वप्नके शारीरिक तथा मानसिक निमित्त
  • अतीन्द्रिय स्वप्न - रचनात्मक स्वप्न, सामान्य स्वप्न, रोगभावि स्वप्न

स्वप्नावस्था

माण्डूक्य उपनिषद में आत्मा की चार अवस्थाओं की बात की गई है - जागृत, स्वप्न, सुषुप्ति और तुरीय अवस्था। मांडूक, कठ, ब्रह्म, तैत्तिरीयोपनिषद, योगसार, केनोपनिषद, पैंगल आदि अन्य उपनिषदों में भी आत्मा के महत्व पर जोर देने और उसके कर्म को बेहतर ढंग से समझने के लिए इन चार अवस्थाओं का वर्णन प्राप्त होता है।

बृहदारण्यक स्वप्न में देखी गई आत्मा और वस्तुओं के बीच कोई अंतर नहीं देखता है और कहता है कि आत्मा स्वयं के लिए एक प्रकाश का काम करती है।[3] यह बताता है कि आत्मा स्वयं स्वप्न में वस्तुओं का रूप ले लेती है। इस प्रक्रिया में जब बुद्धि स्वप्न देखने की ओर प्रेरित होती है, तो बुद्धि द्वारा लिया गया रूप आत्मा द्वारा भी ग्रहण कर लिया जाता है, क्योंकि यह बुद्धि के साथ स्वप्न की ओर प्रेरित होती है।[4]

प्रश्नोपनिषद में महर्षि पिप्पलाद कहते हैं कि स्वप्नावस्था में जीवात्मा मनस और सूक्ष्म इन्द्रियों के साथ अपनी महिमा का अनुभव करता है। पिछले जन्मों में जो कुछ भी उसने देखा, सुना और अनुभव किया था, वही सब स्वप्नावस्था में उसे फिर से दिखाई, सुना और अनुभव होता है।

पुराणों और महाकाव्यों में भी अपने आख्यानों में कई पारंपरिक सपनों को शामिल किया है जिनका विश्लेषण अन्य दार्शनिक और चिकित्सा ग्रंथों में किया गया है। वाल्मीकि की रामायण में , जब सीताजी को रावण ने चुरा लिया था और उसे लंका के द्वीप पर बंदी बनाकर रखा गया था, राक्षसी त्रिजटा को ऐसा सपना आता है जो राम के हाथों रावण की हार का प्रतीक है।[7] इसी तरह भरत के सपने जो उनके पिता की मृत्यु का प्रतीक हैं और भगवान हनुमान द्वारा देखे गए सपनों का भी विस्तार से वर्णन किया गया है।

महाभारत में कौरवों के स्वप्न का वर्णन किया गया है जो पांडवों के हाथों उनकी हार का संकेत है।[८]

कणाद स्वप्न-ज्ञान को मन के साथ स्वयं के एक विशेष संयोजन द्वारा उत्पन्न चेतना के रूप में परिभाषित करते हैं, जो अतीत के अनुभव के अवचेतन छापों, जैसे स्मरण के सहयोग से होता है।[९]

प्रशस्तपाद स्वप्न का वर्णन इस प्रकार करते हैं, स्वप्न ऐसी संवेदनाएं हैं जो केवल मनस से अनुभव की जाती हैं, जो कि बाह्य इंद्रियों द्वारा सुप्त अवस्था में अनुभव की जाने वाली संवेदनाओं के समान होती हैं, जब बाह्य इंद्रियां निष्क्रिय होती हैं और मनस के कार्य भी क्षीण हो जाते हैं, अर्थात वह प्रलीनावस्था में होती है। उन्होंने स्वप्न के तीन कारण बताए हैं -

  1. पहला संस्कारपात- जिसमें पर्यावरण में वे वस्तुएं या लोग शामिल हैं, जिन्हें दिन के दौरान अनुभव किया जाता है।
  2. धातुदोष - इसके कारण देखे जाने वाले स्वप्न, यानी वे स्वप्न जो व्यक्ति की प्रकृति में दोषिका प्रभुत्व के कारण देखे जाते हैं। उन्हें फिर से वात , पित्त और कफ प्रकृति के अनुसार तीन भागों में विभाजित किया गया है।
  3. अदृष्ट स्वप्न - जो धर्माधर्म के कारण अर्थात किसी अदृश्य से उत्पन्न होते हैं। स्वप्नंतिका ज्ञान स्वप्न-अंत अनुभूति, या सपनों के भीतर सपनों की घटना का भी यहाँ वर्णन किया गया है।

महाभारत में धृतराष्ट्र के कई स्वप्न आते हैं, जिनमें से एक बहुत महत्वपूर्ण है। जब युद्ध की घोषणा होती है, तो धृतराष्ट्र एक भयानक स्वप्न देखता है जिसमें उसने अपने सौ पुत्रों के विनाश का संकेत पाया। उसका स्वप्न रक्त, हड्डियों और युद्ध के विनाशकारी परिणामों का चित्रण करता था। महाभारत, उद्योग पर्व में यह स्वप्न वर्णित है -

दिष्ट्या पापमकुर्वन्त मन्दाः पापानुबन्धिनः। पश्यामि तु विनाशं मे स्वप्नेषु विकृतं बहु॥ (महाभारत, उद्योग पर्व 32.77)

भाषार्थ - मेरे दुर्बुद्धि पुत्रों ने पाप किया और अब मैं अपने विनाश के विकृत रूप को स्वप्नों में देख रहा हूं। यह स्वप्न स्पष्ट रूप से महाभारत के विनाशकारी युद्ध की ओर संकेत करता है, जहां धृतराष्ट्र ने अपने पुत्रों के अंत को देखा।

उपनिषदों में स्वप्नावस्था

उपनिषदों में स्वप्नावस्था का गहरा दार्शनिक और आध्यात्मिक महत्व है। इसे मानव चेतना के चार प्रमुख स्तरों में से एक के रूप में देखा गया है। उपनिषदों में स्वप्नावस्था का अध्ययन आत्मा, वास्तविकता और ब्रह्म की समझ के संदर्भ में किया गया है। इसे सामान्य रूप से जाग्रत (जागने की अवस्था) और सुषुप्ति (गहरी नींद) के बीच की स्थिति माना जाता है।

मांडूक्य उपनिषद

मांडूक्य उपनिषद में स्वप्नावस्था (तैजस) का विशेष रूप से वर्णन है। इसमें आत्मा की तीन अवस्थाओं - जाग्रत, स्वप्न, और सुषुप्ति - को समझाया गया है। स्वप्नावस्था को तैजस कहा गया है, क्योंकि इस अवस्था में मन विभिन्न रूपों को ग्रहण करता है और अनुभव करता है -

स्वप्नस्थानो अन्तःप्रज्ञः सप्ताङ्ग एकोनविंशतिमुखः तैजसो द्वितीयः पादः। (मांडूक्य उपनिषद, श्लोक 3)

स्वप्नावस्था में आत्मा आंतरिक चेतना के साथ क्रियाशील रहती है। इसमें वह सूक्ष्म रूप से अनुभव करती है। यह अवस्था सात अंगों और उन्नीस मुखों (इंद्रियों) वाली होती है, और इसे तैजस कहा जाता है।

स्वप्न के भेद

दृष्टः श्रुतोऽनुभूतश्च प्रार्थितः कल्पितस्तथा। भाविकोदोषजश्चेति स्वप्नः सप्तविधो मतः॥

तेष्वाद्या निष्फलाः पञ्च यथास्वप्रकृतिर्दिवा। निद्रया चानुहतः प्रतीपैर्वचनैस्तथा॥(अष्टांग हृदय)[3]

सुप्तानां तु मनश्चेष्टा स्वप्न इत्यभिधीयते। अनागतमतिक्रान्तं पश्यते सञ्चरन्मनः।। (महाभारत)

स्वप्न विद्या के भारतीय सिद्धांत

संस्कृत वांग्मय में स्वप्न विद्या को परा विद्या का अंग माना गया है। अतः स्वप्न के माध्यम से सृष्टि के रहस्यों को जानने का प्रयास भारतीय ऋषि, मुनि और आचार्यों ने किया है। [4]

स्वप्न के सिद्धांत

बीसवीं सदी की शुरूवात में, फ्रायड ने अपने ऐतिहासिक कार्य द इंटरप्रिटेशन ऑफ ड्रीम्स में सपनों के अपने सिद्दांत को प्रस्तुत किया। फ्रायड के अनुसार सपना एक मतिभ्रमित इच्छा पूर्ति है।

निष्कर्ष

स्वप्न की अवधारणा को भारतीय शास्त्रीय ग्रंथों में विस्तार से समझाया गया है। स्वप्न का वर्णन वैदिक, औपनिषदिक और दार्शनिक साहित्य के साथ-साथ संहिता काल के आयुर्वेदिक साहित्य में भी अधिक मिलता है। बाद में आयुर्वेदिक और उससे संबंधित ग्रंथों में स्वप्न का वर्णन कम हो गया और बृहत्रयी और लघुत्रयी के अलावा अन्य ग्रंथों में बहुत कम वर्णन मिलता है। यद्यपि प्राचीन शास्त्रीय साहित्य हजारों वर्ष पूर्व लिखा गया था, लेकिन यदि इसका गहराई से विश्लेषण और व्याख्या की जाए तो आधुनिक विज्ञान की तुलना में भी इसकी व्याख्या वैज्ञानिक ही प्रतीत होती है।

उद्धरण

  1. डॉ० गिरीन्द्र शेखर, स्वप्न विज्ञान, सन 1942, किताब-महल, प्रयागराज (पृ० 14)।
  2. राजाराम शास्त्री, स्वप्न-दर्शन, सन 2004, काशी विद्यापीठ, बनारस (पृ० 15)।
  3. शोधगंगा-राचोटि देव, वैदिकवांग्मये स्वप्नशास्त्रस्य समीक्षात्मकमध्ययनम्, सन 2017, शोधकेंद्र-मैसूरु विश्वविद्यालय, मैसूरु (पृ० 127)।
  4. डॉ० कामेश्वर उपाध्याय, स्वप्न-विद्या, सन १९९४, त्रिस्कन्धज्योतिषम् प्रकाशन वाराणसी (पृ० 12)।