Jyotisha in Vedas (वेदों में ज्योतिष)

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ऋग्वेद पृथ्वी की प्रथम पुस्तक है और वेद सम्पूर्ण ज्ञान के स्रोत हैं। वेदों में गणितीय, खगोलीय, ब्रह्माण्ड संबंधी, सृष्टि की रचना, स्थिरता और विनाश, समय चक्र की गति, राशि चक्र प्रणाली और अन्य चीजें दी गई हैं। ये सबसे महत्वपूर्ण वैज्ञानिक विषय है, विभिन्न वैदिक सूक्त और मंत्र भी महत्वपूर्ण बातों और अवलोकन निष्कर्ष के संकेतक हैं। इनका संबंध ब्रह्मांड की उत्पत्ति, विस्तारित ब्रह्मांड की संरचना और मानव जीवन से संबंधित अन्य बातों का भी संकेत मिलता है।

वेद 'विद् ज्ञाने' अर्थ की सार्थकता को सम्पुष्ट करने वाला एक प्रकाशोत्पादक शास्त्र है, जिसे प्रत्यक्षतः जाना जा सकता है, उनके अंगों के द्वारा। वेद के मुख्यतः छः अंग माने जाते हैं- षडङ्गों वेदोऽध्येयो ज्ञेयश्च। उनमें भी ज्योतिष को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया है। ज्योतिष यह ज्योतिका शास्त्र है। ज्योति आकाशीय पिण्डों-नक्षत्र, ग्रह आदि से आती है, परन्तु ज्योतिषमें हम सब पिण्डोंका अध्ययन नहीं करते। यह अध्ययन केवल सौर मण्डलतक ही सीमित रखते हैं। ज्योतिष का मूलभूत सिद्धान्त है कि आकाशीय पिण्डों का प्रभाव सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड पर पडता है।

प्रस्तावना

वैदिक सनातन परम्परा में विदित है कि यज्ञ, तप, दान आदि के द्वारा ईश्वर की उपासना वेद का परम लक्ष्य है। उपर्युक्त यज्ञादि कर्म काल पर आश्रित हैं और इस परम पवित्र कार्य के लिये काल का विधायक शास्त्र ज्योतिषशास्त्र है। वेद किसी एक विषय पर केन्द्रित रचना नहीं हैं। विविध विषय और अनेक अर्थ को द्योतित करने वाली मन्त्र राशि वेदों में समाहित है। अतः वेद चतुष्टय सर्वविद्या का मूल है। भारतीय ज्ञान परम्परा की पुष्टि वेद में निहित है। कोई भी विषय मान्य और भारतीय दृष्टि से संवलित तभी माना जायेगा जब उसका सम्बन्ध वेद चतुष्टय में कहीं न कहीं समाहित हो। वेद चतुष्टय में ज्योतिष के अनेक अंश अन्यान्य संहिताओं में दृष्टिगोचर होते हैं। वर्तमान ज्योतिषशास्त्र का जो स्वरूप हमें देखने को मिलता है, उसका श्रेय महात्मा लगध को जाता है। उन्होंने ही वेदांग ज्योतिष की रचना करके ज्योतिष को स्वतन्त्र रूप से प्रतिपादित किया। यद्यपि ज्योतिष आज भी वहीं है, जो पूर्व में था, केवल काल भेद के कारण इसके स्वरूपों में भिन्नता दृष्टिगोचर होती है। सूर्यसिद्धान्त में भी यही कहा गया है-

शास्त्रमाद्यं तदेवेदं यत्पूर्वं प्राह भास्करः। युगानां परिवर्तेन कालभेदोऽत्र केवलः॥[1]

वेदाङ्गों का विवरण विष्णुधर्मोत्तरपुराण में भी उपलब्ध होता है, जिससे स्पष्ट है कि वेद का पुराणों से अभिन्न सम्बन्ध होगा। इसी कारण पुराणों में ज्योतिष विषय की अनेकशः चर्चायें प्राप्त होती हैं। चूँकि ज्योतिष एक प्रकाशोत्पादकशास्त्र है और जो नक्षत्रों के आधार पर व्याख्यायित होता है। जैसे- ग्रहनक्षत्राण्यधिकृत्य कृतो ग्रन्थः शास्त्रो वा ज्योतिषशब्देनाभिधीयते।[2]

वैदिक संहिताओं में ज्योतिषांश

वैदिक काल में ज्योतिष संबंधित अनेक विषयों का स्पष्ट रूप से प्रणयन हो चुका था। वैदिक संहिताओं में विविध विषयों से संबंधित मन्त्र प्रमाण रूप में मिलते हैं, जैसे- विश्वोत्पत्ति, विश्वसंस्था, पृथ्वी का स्वरूप, पृथ्वी, अन्तरिक्ष और द्यौ, ऋतुओं का कारण सूर्य, कल्प, युग, पञ्च संवत्सरात्मक युग, वर्ष, सावन, चान्द्र, सौर मान, अयन, ऋतु, मास, द्वादश मासों के मध्वादि, चैत्रादि नाम, सौर मास, पूर्णिमान्त और अमान्त मास, दिवस, तिथि, चन्द्र-कला, चन्द्र प्रकाश, चन्द्र-सूर्य-गति, वार, दिनमान, विषुव, पन्द्रह मुहूर्त, नक्षत्र, ग्रह, मास, उल्का, धूमकेतु, शुभ काल, वर्ष का आरम्भ इत्यादि।

पञ्चसंवत्सरात्मक युग

वेदांगज्योतिष में पाँच वर्ष का युग माना गया है। उसके नाम है संवत्सर, परिवत्सर, इडावत्सर, अनुवत्सर और इद्वत्सर। ये नाम यद्यपि वेदांग ज्योतिष में नहीं हैं पर वेदों से ज्ञात होता है कि उन पाँचों के नाम ये ही हैं। गर्गादिकों ने भी इस युग संवत्सरों के ये ही नाम लिखे हैं। वेदों में संवत्सरों के नाम इस प्रकार प्राप्त होते हैं-

संवत्सरस्य तदहः परिषष्ठयन्मण्डकाः प्रावषीणं बभव। ब्राह्मणासः सोमिनो वाचमक्रत ब्रह्मकृण्वन्तः परिवत्सरीणम् ॥(ऋ०सं० ७, १०३, ७)

संवत्सरोसि परिवत्सरोसीदावत्सरोसीद्वत्सरोसि वत्सरोसि।(वा०सं० २६। ४५)

संवत्सराय पर्यायिणीं परिवत्सरायाविजातामिदावत्सरायातीत्वरीमिद्वत्सरायातीत्वरीमि द्वत्सरायातिष्कद्दरीं वत्सराय विजर्जरा संवत्सराय पलिक्नीम् ।(वा०सं० ३०।१६)

यह मन्त्र पुरुषमेध का है। इसमें संवत्सर, परिवत्सर, इदावत्सर, इद्वत्सर और वत्सर को पर्यायिणी प्रभृति स्त्रियां देने के लिये कहा है। तैत्तिरीय ब्राह्मण में लिखा है कि-

अग्निर्वा संवत्सरः। आदित्यः परिवत्सरः। चन्द्रमा इदावत्सरः। वापरनवत्सरः।(तै० ब्रा० १। ४। १०)

अग्नि ही संवत्सर है, आदित्य परिवत्सर है, चन्द्रमा इदावत्सर और वायु अनुवत्सर है। तैत्तिरीय और वाजसनेयि संहिताओं में संवत्सर, परिवत्सर इत्यादि नाम अन्य भी बहुत से स्थानों में आये हैं। इस प्रकार कहीं पांच, कहीं छः और कहीं चार नाम आये हैं और वे भी भिन्न-भिन्न प्रकार से दिये गये हैं।[3]

वर्ष

ऋग्वेद में शरद के प्रति ऋतुवाचक शब्द वर्ष अर्थ में अनेक बार आये हैं। कुछ स्थलों में संवत्सर और परिवत्सर शब्द भी है। दोनों यजुर्वेदों में वर्ष के अर्थ में शरद् और हेमन्त इत्यादि शब्द तो अनेकों बार आये ही हैं परन्तु संवत्सर शब्द उनकी अपेक्षा अनेक बार आया है।

ऋतुएं

तैत्तिरीय संहिता में ऋतुओं एवं मासों के नाम बताये गये हैं, जैसे- मधुश्च माधवश्च वासन्तिकावृत् शुक्रश्च शुचिश्च ग्रेष्मावृत् नभश्च नभस्यश्च वार्षिकावृत् इषश्चोर्जश्च शरदावृतूसहश्च सहस्यश्च हैमन्तिकावृतू तपश्च तपस्यश्च शशिरावृतू।(तै०सं० ४।४।११)

वसंत ऋतु के दो मास- मधु माधव, ग्रीष्म ऋतु के शुक्र-शुचि, वर्षा के नभ और नभस्य, शरद के इष ऊर्ज, हेमन्त के सह सहस्य और शिशिर ऋतु के दो माह तपस और तपस्य बताये गये हैं। ६ ऋतुओं और उनके नामों का उल्लेख अनेकों स्थानों में मिलता है।(तै०सं० ४।३।२, ५।६।२३, ७।५।१४)

अयन

सूर्य ६ मास दक्षिण और ६ मास उत्तर चलते हैं। ज्योतिष में वर्ष को उत्तरायण एवं दक्षिणायन दो विभागों में विभाजित किया गया है, उत्तरायण का अर्थ है बिन्दु से सूर्य का उत्तर दिशा की ओर जाना तथा दक्षिणायन से तात्पर्य है सूर्य का सूर्योदय बिन्दु से दक्षिण की ओर चलना। शतपथ ब्राह्मण के अनुसार-

वसंतो ग्रीष्मो वर्षाः। ते देवा ऋतवः शरद्धेमतं शिशिरस्ते पितरौस (सूर्यः) यत्रोदगावर्तते देवेषु तर्हि भवतियत्र दक्षिणावर्तते पितृषु तर्हि भवति॥

उक्त मंत्र के अनुसार वसंत ग्रीष्म वर्षा ये देव ऋतुयें हैं, शरद हेमन्त और शिशिर यह पितृ ऋतुयें हैं। जब सूर्य उत्तरायण में रहता है तो ऋतुयें देवों में गिनी जाती हैं। तैत्तिरीय उपनिषद् में वर्णन है कि सूर्य ६ माह उत्तरायण और ६ माह दक्षिणायन में रहता है-

तस्मादादित्यः षण्मासो दक्षिणेनैति षडुत्तरेण।(तै०सं० ६,५,३)

दिवस व तिथि

सावन दिन, सौर दिन और चान्द्र दिन अर्थात् तिथि का विवेचन करेंगे। वेदों में सौर मास का स्पष्ट उल्लेख नहीं है, अतः सौर दिन का न होना भी स्पष्ट ही है। सावन दिन बहुत व्यवहारोपयोगी है। यज्ञ उसी के अनुसार किये जाते थे। तैत्तिरीय ब्राह्मण के निम्नलिखित वाक्यों में शुक्ल और कृष्णपक्षों के दिन और रातों के भिन्न-भिन्न नाम पठित हैं।

संज्ञानं विज्ञानं दर्शा दृष्टेति। एतावनुवाकौ पूर्वपक्षस्याहोरात्राणां नामधेयानि। प्रस्तुतं विष्टुत सुता सुन्वतीति। एतावनुवाकावपरपक्षस्याहोरात्राणां नामधेयानि॥(तै०ब्रा० ३।१०।१०।२)

संज्ञानं विज्ञानं प्रज्ञानं जानभिजानत् । संकल्पमानं प्रकल्पमानमुपकल्पमानमपक्लप्तं क्लप्तं। श्रेयोवसीय आयत् सम्भूतं भूतम् ॥(तै०ब्रा० ३।१०।१।१)

ये पूर्व पक्ष के अहो (दिवसों) के प्रत्येक वाक्य में पाँच-पाँच और सब मिलकर १५ नाम है। दर्शा दृष्टा दर्शता विश्वरूपा सुदर्शना। अप्यायमाना प्यायमाना श्याया सुनेतरा। आपूर्यमाणा पूर्यमाणा पूरन्ति पूर्णा पौर्णमासी॥(तै०ब्रा०३।१०।१।१)

ये पूर्वपक्ष की १५ रात्रियों के १५ नाम हैं। पौर्णमासी इत्यादि शब्दों से स्पष्ट हो जाता है कि यहाँ पूर्वपक्ष का अर्थ शुक्लपक्ष है।

प्रस्तुतं विष्टुतं सस्तुतं कल्याणं विश्वरूपं। शुक्रममृतं तेजस्वि तेजः समृद्धं। अरुणं भानुमन् मरीचिमभितपतं तपस्वत् । (तै० ब्रा० ३।१०।११२)

शुभकाल

वेदों में ज्योतिष का उल्लेख वेदांग के रूप में किया गया है, और यह वेदों के छह अंगों में से एक है जो वेदों के अध्ययन और उनके सही अर्थ को समझने के लिए महत्वपूर्ण हैं। यहाँ कुछ उद्धरण दिए जा रहे हैं जो ज्योतिष के महत्व को दर्शाते हैं -

द्वादशारं नहि तज्जराय। (ऋग्वेद 1.164.48)

इसका अर्थ है: "बारह आरे वाला यह चक्र (सूर्य का वर्षचक्र) कभी भी बूढ़ा नहीं होता।" यह सूर्य के वर्षचक्र का प्रतीक है, जो ज्योतिष के समय मापन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

सप्त शतमरात्रीणामिक्षुमंतः सप्त तिश्याणाम्। सप्त नक्षत्राणामाहुस्त्रिकद्रुकं सप्त ह गोपाः। (अथर्ववेद 19.7.1)

इसका अर्थ है: "सप्त नक्षत्रों के अंदर सप्तारात्र और सप्त तिश्य (पुष्य) नक्षत्र है। यह ज्योतिष के संदर्भ में नक्षत्रों की गणना को दर्शाता है।

चन्द्रमा मनसो जातश्चक्षोः सूर्यः। (यजुर्वेद 3.5)

इसका अर्थ है: "चन्द्रमा मन से उत्पन्न हुआ और सूर्य आँखों से।" यह आकाशीय पिंडों के मानसिक और दृष्टिगत प्रभाव को दर्शाता है, जो ज्योतिष के अध्ययन में महत्वपूर्ण हैं।

यज्ञेषु कर्माणि समये संपद्यन्ते तद्विदः। वेदांग ज्योतिष (लघु ज्योतिष-36)

इसका अर्थ है: "जो ज्ञानी हैं, वे समय के अनुसार यज्ञ और कर्म संपन्न करते हैं।" यह उद्धरण दर्शाता है कि कैसे ज्योतिषीय ज्ञान का उपयोग धार्मिक अनुष्ठानों के लिए समय निर्धारण में किया जाता था।

ग्रह

ग्रहण

अवयव

खगोल ज्योतिष का आरंभ सूर्य, पृथिवी, चन्द्र, नक्षत्र, ग्रह और उपग्रहों की गति-परिज्ञान से होता है। गति परिज्ञान के लिये देश और काल दोनों की मापों का प्रयोग आवश्यक है। ज्योतिष ज्ञान की ओर संकेत निम्नलिखित मन्त्र से स्पष्ट है-

कोऽअस्य वेद भुवनस्य नाभिं को द्यावापृथिवीऽअन्तरिक्षम्। कः सूर्य्यस्य वेद बृहतो जनित्रं को वेद चन्द्रमसं यतोजाः॥(यजु०23.59)[4]

कौन इस विश्वमण्डल की नाभि को जानता है? कौन द्यौ, पृथिवी और अन्तरिक्ष को जानता है? इस बृहद् सूर्य के जन्म-स्थान को कौन जानता है? कौन यह जानता है कि यह चन्द्रमा कहाँ से उत्पन्न हुआ? ये प्रश्न हैं जो कौतूहल के समान हमारे सम्मुख उत्पन्न हुए और इन प्रश्नों के समाधान ले प्रयास ने आज के विश्वज्योतिष का विकास किया। इस संबन्ध में यजुर्वेद में इस प्रकार कहा गया है-

संवत्सरो ऽसि परिवत्सरोऽसीदावत्सरो ऽसीद्वत्सरो ऽसि वत्सरो ऽसि। उषसस् ते कल्पन्ताम् अहोरात्रास् ते कल्पन्ताम् अर्धमासास् ते कल्पन्तां मासास् ते कल्पन्ताम् ऋतवस् ते कल्पन्ताꣳ संवत्सरस् ते कल्पताम्।(यजु० 27.45)[5]

इस मन्त्र में काल मान सूचक शब्द हैं- संवत्सर, परिवत्सर, इदावत्सर, इद्वत्सर, वत्सर, उषा, अहोरात्र, अर्धमास, मास और ऋतु। चान्द्र और सौर वर्षों का समन्वय पाँच वर्षों के एक चक्र में होता है। इन पाँच वर्षों के नाम सम्वत्सर, परिवत्सर, इदावत्सर, इद्वत्सर और वत्सर हैं। भारतीय ज्योतिष की एकमात्र यह विशेषता रही है कि चान्द्र और सौर- दोनों गतियों का जहाँ तक संभव हो, समन्वय किया जाता रहे। इस समन्वय को यजुर्वेद के इस मन्त्र से प्रेरणा मिलती है। चन्द्रगति ने अहोरात्र, अर्धमास (पक्ष) और मास को जन्म दिया तथा सौर-गति ने ऋतु वत्सरों को। दिनों का सप्ताहों में विभाजन करना इस देश की पुरानी परम्परा रही है।[6]

निश्कर्ष

वेदों में ज्योतिष विज्ञान का गहरा महत्व है और इसे खगोलीय घटनाओं, समय मापन, और धार्मिक अनुष्ठानों के संदर्भ में समझा और प्रयोग किया गया है।

उद्धरण

  1. उदय नारायण सिंह, सूर्य सिद्धान्त, हिन्दी भाषा टीका सहित, अध्याय-१, श्लोक- ९, (पृ० १)।
  2. प्रो०भारतभूषण मिश्र, वेदाङ्ग ज्योतिष-एक अध्ययन, वेदविद्या-मासिक पत्रिका-२४, सन् २०१४, राष्ट्रिय संस्कृत संस्थान, भोपाल परिसर(म०प्र०), (पृ०१०५)।
  3. प्रवेश व्यास, ज्योतिष शास्त्र की वेदाङ्गता, सन् २०२१, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय, नई दिल्ली (पृ० ७९)।
  4. शुक्ल यजुर्वेद, अध्याय-२३, मन्त्र स० ५९।
  5. शुक्ल यजुर्वेद, अध्याय-२७, मन्त्र सं० ४५।
  6. डॉ० सत्यप्रकाश, वैज्ञानिक विकास की भारतीय परम्परा, सन् १९५४, बिहार-राष्ट्रभाषा-परिषद् सम्मेलन भवन, पटना (पृ०२७)।