सनातनधर्म के आचार विचार एवं वैज्ञानिक तर्क

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सनातन अर्थात् अनादि,शाश्वत, सत्य,नित्य,भ्रम संशय रहित धर्म का वह स्वरूप जो परंपरा से चला आता हुआ है ।धर्म शब्द का अर्थ ही है कि जो धारण करे अथवा जिसके द्वारा यह विश्व धारण किया जा सके, क्योंकि धर्म "धृञ धारणे" धातु से बना है जिसका अर्थ है -

धारयतीति धर्मः अथवा येनैतद्धार्यते स धर्मः ।[1]

धर्म वास्तव में संसार की स्थिति का मूल है, धर्म मूल पर ही सकल संसार वृक्ष स्थित है। धर्म से पाप नष्ट होते है तथा अन्य लोग धर्मात्मा पुरुष का अनुसरण करके कल्याण को प्राप्त होते हैं ।

न जातु कामान्न भयान्न लोभाद्धर्मं त्यजेज्जीवितस्यापि हेतोः। नित्यो धर्मः सुख दुःखे त्वनित्ये, जीवो नित्यो हेतुरस्य त्वनित्यः॥[2](महा०स्वर्गा० ५/76)

अर्थात् कामना से, भय से. लोभ से अथवा जीवन के लिये भी धर्म का त्याग न करे । धर्म ही नित्य है, सुख दु:ख तो अनित्य हैं। इसी प्रकार जीवात्मा नित्य हैं और उसके बन्धन का हेतु अनित्य है । अतः अनित्य के लिये नित्य का परित्याग कदापि न करे । इसके अतिरिक्त जो व्यक्ति धर्म का पालन करता है तो धर्म ही उसकी रक्षा करता है तथा नष्ट हुआ धर्म ही उसे मारता है अतः धर्म का पालन करना चाहिये । नारायणोपनिषद् में कहा है-

धर्मो विश्वस्य जगतः प्रतिष्ठा, लोके धर्मिष्ठं प्रजा उपसर्पन्ति, धर्मेण पापमपनुदति,धर्मे सर्वं प्रतिष्ठितं,तस्माद्धर्म परमं वदन्ति।[3]

आचार को प्रथम धर्म कहा है-

आचारः प्रथमो धर्मः श्रुत्युक्तः स्मार्त एव च। तस्मादस्मिन्समायुक्तो नित्यं स्यादात्मनो द्विजः ॥ आचाराल्लभते चायुराचाराल्लभते प्रजाः। आचारादन्नमक्षय्यमाचारो हन्ति पातकम् ॥[4]

अनु- आचार ही प्रथम (मुख्य) धर्म है-ऐसा श्रुतियों तथा स्मृतियोंमें कहा गया है, अतएव द्विजको चाहिये कि वह अपने कल्याणके लिये इस सदाचारके पालनमें नित्य संलग्न रहे।मनुष्य आचारसे आयु प्राप्त करता है, आचारसे सत्सन्तानें प्राप्त करता है ,आचारसे अक्षय अन्न प्राप्त करता है तथा यह आचार पापको नष्ट कर देता है॥

(शाप एवं वरदान)

शास्त्रों में अपराध निवारण हेतु अथवा अधर्म उन्मूलन के लिये तथा धर्म की स्थापना के लिये जो उपाय उन्हैं कहीं दण्ड तथा कहीं शाप शब्द के द्वारा सम्बोधित किया जाता है। प्राचीन भारतवर्ष में दण्डव्यवस्था के प्रमुखतया दो रूप दृष्टिगोचर होते हैं-

प्रथम राजा के द्वारा दिया जाने वाला राजदण्ड तथा दूसरा ऋषि-महर्षियों, तपस्वियों द्वारा दिया जाने वाला शापदण्ड।

परिचय

परिभाषा

शपनम् इति शापः।

आचार की परिभाषा

आचार की परिभाषा करते हुये ऋषि कहते हैं कि-धर्मानुकूल शारीरिक व्यापार ही सदाचार है। केवल शारीरिक व्यापार या शारीरिक चेष्टा सदाचार नहीं, वह तो अंग संचालन मात्र की क्रिया है। उससे स्थूल शारीरिक लाभ के अतिरिक्त आत्मोन्नति का सम्बन्ध नहीं। इस कारण कोरी शारीरिक क्रिया को आचार नहीं कहते । शारीरिक व्यापार या शारीरिक चेष्टा जब धर्मानुकूल अथवा किसी प्रकार धर्म को लक्ष्य करते हुये होती है तब वह सदाचार होता है और तब उससे स्थूल, सूक्ष्म और कारण तीनों शरीर की उन्नति और साथ ही साथ आत्मा का भी अभ्युदय साधन होता है। यह धर्मानुकूल आचरण ही सदाचार है।

महर्षि वशिष्ठ लिखते हैं कि-

आचारः परमोधर्मः सर्वेषामिति निश्चयः । हीनाचार परीतात्मा प्रेत्य चेह च नश्यति ॥ [5]

अर्थात् यह निश्चय है कि आचार ही सबका परम धर्म है आचार भ्रष्ट मनुष्य इस लोक और परलोक दोनों में नष्ट होता है।

आचार हीनं न पुनन्ति वेदाः यद्यप्यधीता सहषड्भिरंगैः। छन्दास्येनं मृत्युकाले त्यजन्ति नीडं शकुन्ता इव ताप तप्ताः।[6]

आचार हीन व्यक्ति यदि सांगोपांग वेदों का विद्वान् भी है तो वेद उसको पवित्र नहीं कर सकते और वैदिक ऋचायें भी उसे अन्तकाल में इसी प्रकार त्याग देती हैं जैसे अग्नि के ताप से तप्त घोंसले को पक्षी त्याग देते हैं।

आचारात् फलते धर्ममाचारात् फलते धनम् । आचाराच्छ्रियमाप्नोति आचारो हन्त्यलक्षणम्।।[7]

इसके अतिरिक्त दुराचारी मनुष्य लोक में निन्दित, दु:ख का भागी, रोग ग्रस्त और अल्पायु होता है। सदाचार का फल धर्म है, सदाचार का फल धन है, सदाचार से श्री की प्राप्ति होती है तथा सदाचार कुलक्षणों को नाश करता है।

आचारः परमो धर्मः आचारः परमं तपः।आचारः परमं ज्ञानं आचारात् कि न साध्यते ॥

आचाराद् विच्युतो विप्रो न वेदफलमश्नुते।आचारेण समायुक्तः सम्पूर्णफलभाग् भवेत् ॥

यः स्वाचारपरिभ्रष्टः साङ्गवेदान्तगोऽपि चेत् ।स एव पतितो ज्ञेयो सर्वकर्मबहिष्कृतः॥

आचार ही सर्वोत्तम धर्म है, आचार ही सर्वोत्तम तप है, आचार ही सर्वोत्तम ज्ञान है, यदि आचारका पालन हो तो असाध्य क्या है! अर्थात कुछ भी नहीं। शास्त्रोमें आचारका ही सर्वप्रथम उपदेश ( निर्देशन ) हुआ है । धर्म भी आचारसे ही उत्पन्न है ( अर्थात् ) आचार ही धर्मका माता-पिता है और एकमात्र ईश्वर ही धर्मका स्वामी है । इस प्रकार आचार स्वयं ही परमेश्वर सिद्ध होता है। एक ब्राह्मण जो आचारसे च्युत हो गया है,वह वेदोंके फलकी प्राप्तिसे वञ्चित हो जाता है चाहे वेद-वेदाङ्गोंका पारंगत विद्वान् ही क्यो न हो किंतु जो आचारका पालन करता है वह सबका फल प्राप्त कर लेता है ।

परिचय

मानवके विधिबोधित क्रिया-कलापोंको आचारके नामसे सम्बोधित किया जाता है।आचार-पद्धति ही सदाचार या शिष्टाचार कहलाती है। मनीषियोंने पवित्र और सात्त्विक आचारको ही धर्मका मूल बताया है-

धर्ममूलमिदं स्मृतम्।

धर्मका मूल श्रुति- स्मृतिमूलक आचार ही है इतना ही नहीं, षडङ्ग-वेद ज्ञानी भी यदि आचार से हीन हो तो वेद भी उसे पवित्र नहीं बनाते-

आचारहीनं न पुनन्ति वेदा यद्यप्यधीताः सह षड्भिरङ्गैः । आचारहीनेन तु धर्मकार्यं कृतं हि सर्वं भवतीह मिथ्या ।।(वि०धर्मोत्तरपुराण)[8]

आचारः प्रथमो धर्मः श्रुत्युक्तः स्मार्त एव च । तस्मादेतत्समायुक्तं गृह्णीयादात्मनो द्विजः ॥।

आचारालभ्यते पूजा आचारालभ्यते प्रजा । आचारादनमक्षय्यं तदाचारस्य लक्षणम् ।।

आचारात्प्राप्यते स्वर्ग आचारात्प्राप्यते सुखम् । आचारात्माप्यते मोक्ष भाचाराकिं न लभ्यते ॥

तस्मात्चतुर्णामपि वर्णानामाचारो धर्मपालनम् । आचारस्रष्टदेहानां भवेद्धर्मः परामुखः ।।

दुराचारो हि पुरुषो लोके भवति निन्दितः । दुःखभोगी च सततं रोगी चाल्पायुषी भवेत् ।।दक्षः

आचार आयुकी वृद्धि करता है, आचारसे इच्छित संतानकी प्राप्ति होती है, वह शाश्वत एवं असीम धन देता है और दोष-दुर्लक्षणोंको भी दूर कर देता है । जो आचारसे भ्रष्ट हो गया है, वह चाहे सभी अङ्गों- सहित वेद-वेदान्तका पारगामी क्यो न हो, उसे पतित तथा सभी कर्मोंसे बहिष्कृत समझना चाहिये ।

वर्तमान के समय में आचरण के पालन में बाधा करने वाले निम्नकारण हैं-

  • विधि को न जानना
  • विधि पर अश्रद्धा
  • विजातीय अनुकरण की अत्यन्त अधिकता
  • स्वेछाचारी होने की प्रबलता
  • स्वाभाविक आलस्य आदि की अधिकता ही समाज में आचार को न्यूनता की ओर प्रेरित करने में अग्रसर है।

शास्त्रोक्त विधि का प्रतिपालन ही सदाचार कहा जाता था-

संक्षेपमें हमारे श्रुति-स्मृतिमूलक संस्कार देह, इन्द्रिय, मन, बुद्धि और आत्माका मलापनयन(परिशुद्धि) कर उनमें अतिशयाधान करते हुए किञ्चित् हीन अङ्ग की पूर्ति कर उन्हें विमल कर देते हैं। संस्कारोंकी उपेक्षा करनेसे समाजमें उच्छृङ्खलता(अराजकता)की वृद्धि हो जाती है जिसका दुष्परिणाम सर्वगोचर एवं सर्वविदित है।

वर्तमानमें मनुष्यकी बढ़ती हुई भोगवादी कुप्रवृत्तिके कारण आचार-विचार का उत्तरोत्तर ह्रास हो रहा है एवं स्वेच्छाचारकी कुत्सित मनोवृत्ति भी उत्तरोत्तर बढ़ती जा रही है, जिसका दुष्परिणाम संसार के समस्त प्राणियों को भोगना पड़ रहा है। ऐसी भयावह परिस्थितिमें मानव के लिये स्वस्थ दिशा बोध प्रदान करनेके लिये आचार-विचार का ज्ञान और उसके अनुसार आचरण करना यह पथ-प्रदर्शक होगा।

ज्योतिषशास्त्र में दिग् देश काल की अवधारणा

ज्योतिषशास्त्रमें देश की अवधारणा और उसके भेदों का वर्णन है। इसमें देश और भूमि का विश्लेषण। ग्रामवास में नराकृति, नाम राशि के अनुसार ग्रामवास का शुभ विचार, विधि तथा निषेध, अक्षांश, देशान्तर आदि का परिचय प्राप्त होगा। एवं दिक् परिचय, दिक् साधन की प्राचीन विधियाँ, दिक् साधन की आधुनिक विधियाँ और इन दोनों विधियों के अन्तर का ज्ञान यहाँ प्राप्त करेंगे।

ज्योतिष शास्त्रमें काल की अवधारणा और इसके भेदों का वर्णन भी किया गया है।

दिक् परिचय

वस्तुतः प्राचीन ज्योतिषशास्त्र के ज्ञान के आधार पर आज हर कोई समझदार व्यक्ति दिग् ज्ञान से परिचित हैं। लगभग हर व्यक्ति पूर्व-पश्चिम-उत्तर-दक्षिण दिशा का ज्ञान रखता है परन्तु फिर भी हमारे शास्त्रों में इन चार दिशाओं के अतिरिक्त भी अन्य चार दिशाओं का भी वर्णन विद्यमान है, जिनका नाम क्रमशः ईशान, आग्नेय, नैरृत्य व पश्चिम उत्तर के मध्य वायव्य तथा उत्तर पूर्व के मध्य ईशान दिशा है। इन चारों को विदिशा अथवा कोणीय दिशा के नाम से भी जाना जाता है। इस प्रकार से क्रमशः प्रदक्षिण क्रम अर्थात् सृष्टिक्रम या दक्षिणावर्त क्रमशः पूर्व-आग्नेय-दक्षिण-नैरृत्य-पश्चिम-वायव्य-उत्तर ईशान आदि दिशाओं का उल्लेख हमें शास्त्रों में मिलता है।

दिक् साधन का महत्व

विभिन्न शास्त्रकार दिशाओं के महत्व को समझाते हुये कहते हैं कि कोई भी निर्माण जो मानवों द्वारा किया जाता है जैसे भवन, राजाप्रसाद, द्वार, बरामदा, यज्ञमण्डप आदि में दिक्शोधन करना प्रथम व अपरिहार्य है क्योंकि दिक्भ्रम होने पर यदि निर्माण हो तो कुल का नाश होता है।

देश का विचार

देश-स्थान-क्षेत्र ये सब समानार्थक शब्द हैं। वस्तुतः देश अथवा स्थान के निर्धारण हेतु अक्षांश एवं देशान्तर का साधन किया जाता है। अब अक्षांश और देशान्तर क्या हैं ये समझने के लिए पृथ्वी के गोलत्व को समझना पडेगा।

जैसा कि सभी जानते हैं कि हमारी पृथ्वी गोल है। इस प्रकार गोल पृथ्वी को दो आधे-आधे भागों में बांटा जा सकता है। यहाँ हम पहले प्रकार से गोल को पृथ्वी के दोनों उपरीभाग अर्थात् पृष्ठीय ध्रुवों से ९० अंश की दूरी पर स्थित भूमध्य रेखा से दो भागों में विभाजन किया जाता है। इन दोनों गोलार्द्धों को बीच से विभाजित वाली रेखा को ही भू मध्य रेखा अथवा विषुवत रेखा अथवा निरक्षवृत्त अर्थात् शून्य अक्षांश रेखा भी कहा जाता है।

इसको अगर हम दूसरे शब्दों में समझे तो इसी भूमध्य से उत्तरी ध्रुव तक के नब्बे अंश के क्षेत्र को उत्तरी गोलार्द्ध तथा इसी प्रकार दक्षिणी ध्रुव तक के ९० अंशों तक के विस्तार को दक्षिणी गोलार्द्ध के नाम से जाना जाता है। हम अपने स्थान का निर्धारण भी इसी विषुवद्वृत्त के आधार पर अक्षांशों द्वारा करते हैं।

द्वितीय प्रकार से हम अपने देश का निर्धारण देशान्तरों के माध्यम से करते हैं कि कल्पना की है। इसके अन्तर्गत इनमें से एक वृत्त को मानक भूमध्य देशान्तर मानकर उससे पूर्व या पश्चिम कितने अंशादि पर अपना स्थान अथवा देश है इसका ज्ञान किया जाता है। किसी स्थान की सटीक स्थिति को उस स्थान के अक्षांश व देशान्तर की मदद से जान सकते हैं। किसी स्थान को अक्षांशधरातल पर उस स्थान की उत्तर-दक्षिण स्थिति को बताता है। यहाँ हम अक्षांश व देशान्तर को विस्तार से समझने का प्रयास करते हैं।

अक्षांश विचार

देशान्तर विचार

दिक् की अवधारणा

ज्योतिषशास्त्र के किसी भी स्कन्ध के मुख्य रूप से तीन आधार स्तम्भ हैं - दिक् , देश एवं काल। इन्हीं तीनों के आधार पर ज्योतिषीय गणित, फलित एवं संहिता आदि स्कन्ध अपना-अपना कार्य करती है।अतः उनमें यहाँ दिक् साधन से सम्बन्धित विषयों को प्रस्तुत किया जा रहा है। यहाँ हम दिक् साधन के गणितीय एवं उसका सैद्धान्तिक पक्ष के स्वरूप को समझते हैं।

दिक् परिचय

दिक् साधन ज्योतिषशास्त्र के मूलाधार पक्षों में से एक है। ऋषियों ने किसी भी वस्तु के परिज्ञान के लिये दिक् साधन की व्यवस्था प्रतिपादित किया है। ज्योतिष में प्रयोग के तीन पक्ष हैं- दिक् , देश एवं काल। इनके ज्ञानाभाव में ज्योतिषशास्त्र द्वारा सम्यक् रूप से किसी भी तथ्य को जानपाना सर्वथा दुष्कर है।

ज्योतिष के त्रिप्रश्नों (दिक् देश एवं काल) में से एक है- दिक् । सामान्यतया दिक् शब्द का अर्थ होता है- दिशा। दिग् व्यवस्था द्वारा ब्रह्माण्ड के अन्तर्गत एवं इस पृथ्वी पर किसी की स्थिति का निर्धारण किया जा सकता है। सामान्यतया दिक् या दिशा के बारे में आम लोग केवल इतना जानते हैं कि दिशायें केवल चार होती हैं- पूर्व, पश्चिम, उत्तर एवं दक्षिण, परन्तु ऐसा नहीं है।

ज्योतिष शास्त्र में दिशाओं की संख्या १० कही गयी है। पूर्व, अग्नि कोण, दक्षिण, नैरृत्य कोण, पश्चिम, वायव्य कोण, उत्तर, ऐशान्य कोण, ऊर्ध्व एवं अधः दिशा। इनमें प्रधान पूर्व, पश्चिम, उत्तर एवं दक्षिण चार दिशा, चार कोण एवं ऊर्ध्व एवं अधः दिशा। इनमें प्रधान पूर्व, पश्चिम, उत्तर एवं दक्षिण चार दिशा, चार कोण एवं ऊर्ध्व तथा अधः दिशाओं को विदिशा के नाम से भी जाना जाता है।

दिक् साधन की विधि

दिक् साधन विविध शास्त्रीय विधियाँ

दिक्साधन की आधुनिक विधियाँ

प्राचीन व आधुनिक दिक्साधन विधियों में अन्तर

काल की अवधारणा

यास्कानुसार काल वह शक्ति है जो सबको गति देती है। संसार में गति अथवा कर्म का मूलाधार काल ही है क्योंकि कोई भी गति या कर्म किसी काल में ही किया जाता है, चाहे वह सूक्ष्म हो या व्यापक हो। वस्तुतः ज्योतिषशास्त्र काल विधायक शास्त्र है, इसका मुख्य आधार ही कालगणना है। जन्मकुण्डली निर्माण से लेकर मुहूर्त शोधन व समष्टि गत शुभाशुभ का विचार तक इसी काल के सूक्ष्मातिसूक्ष्म एवं स्थूल दोनों रूपों द्वारा होता है अर्थात् सर्वत्र काल गणना ही आधार है।

परिचय

काल

दिन

पक्ष

मास

वर्ष

अयन

गोल

Achar ke bhed

Sadachar and Durachar (write a paragraph) about them.

Sadachar

ब्राह्ममुहूर्त में जागरण : ब्राह्म मुहुर्त में उठकर धर्मार्थ का चिन्तन, कायक्लेश का निदान तथा वेदतत्त्व परमात्मा का स्मरण करना चाहिये । इस प्रकार ब्राह्म मुहूर्त में जागरण की बात लिखी है। ब्राह्ममुहूर्त प्रातःकाल सूर्योदयसे चार घटी (ढाई घटी का एक घंटा होता है लगभग डेढ़ घंटे) पूर्व हो जाता है शास्त्र में कहा है कि-

रात्रेः पश्चिम यामस्य मुहूर्तो यस्तृतीयकः ।स ब्राह्म इति विज्ञेयो विहितः स प्रबोधने ॥[9]

अनु- रात के पिछले पहर का जो तीसरा मुहूर्त (भाग) होता है वह ब्राह्ममुहूर्त होता है जागने के लिये यही समय उचित है।

वैज्ञानिक अंश तथा लाभ

प्रात:काल का समय परमशान्त, सात्विक, स्वास्थ्यप्रद तथा जीवनप्रदायिनीशक्ति लिये हुये होता है। दिन भर का सारा कोलाहल रात्रि में शान्त होकर स्थिर हो जाता है तथा ब्राह्ममुहूर्त में रात्रिमूलक तमोगुण तथा उससे उत्पन्न जड़ता मिट जाती है और सतोगुण मयी चेतना का संचार होने लगता है। प्रात: जागरण से आलस्य दूर होकर शरीर में स्फूर्ति आ जाती है और मन दिन भर प्रसन्न तथा प्रफुल्लित रहता है । इस समय वातावरण परम शान्त रहता है । वृक्ष अशुद्ध वायु आत्मसात् करके शुद्ध वायु शक्तिप्रदायिनी आक्सीजन प्रदान करते हैं, तभी तो लोग प्रात:काल बाग बगीचे तथा पुष्पोद्यान में टहलने जाते हैं और प्राकृतिक सौन्दर्य का आनन्द लेते हुए दिन भर प्रसन्न रहते हैं। इस समय शीतल मन्द सुगन्धित समीर चलती है जिसमें चन्द्रमा की किरणों तथा नक्षत्रों का प्रभाव रहता है जो हमारे लिये स्वास्थ्य प्रद तथा सब प्रकार से लाभकारी है । चन्द्रकिरणों तथा नक्षत्रों के अमृतमय प्रभाव का लाभ प्रात:काल हम उठा लेते हैं।

ब्राह्ममुहूर्तमें ही शय्या त्याग कहा गया है इस समय सोना शास्त्रमें निषिद्ध है-

ब्राह्मे मुहूर्ते या निद्रा सा पुण्यक्षयकारिणी॥[10]

अपने निर्माण कार्यमें इस ब्राह्ममुहूर्तका उपयोग लेना हमारा एक आवश्यक कर्तव्य हो जाता है। इसके उपयोगसे हमें ऐहलौकिक-अभ्युदय एवं पारलौकिक-निःश्रेयस प्राप्त होकर सर्वाङ्गीण धर्मलाभ सम्भव हो जाता है।

प्रात: स्नान का वर्णन किया जा रहा है। इसमें वैज्ञानिक विशेषता यह है कि रात्रि भर चन्द्रामृत से जो चन्द्रमा की किरणें जल में प्रवेश करती हैं, उसके प्रभाव से जल पुष्ट हो जाता है। सूर्योदय होने पर वह सब गुण सूर्य की किरणों द्वारा आकृष्ट हो जाता है; अत: जो व्यक्ति सूर्योदय के पूर्व स्नान करेगा. वही जल के अमृतमय गणों का लाभ उठा सकेगा।

जागरण प्रभृति नित्य विधि

हस्तदर्शन का विज्ञान

प्रातः हाथका दर्शन शुभ हुआ करता है। कहा भी गया है-

कराग्रे वसते लक्ष्मी करमध्ये सरस्वती। करपृष्ठे च गोविन्दः प्रभाते कर-दर्शनम्।।[11]

इस पद्यमें हाथके अग्रभागमें लक्ष्मीका, मध्यभागमें सरस्वतीका और पृष्ठभागमें गोविन्दका निवास कहा है।

संसारके सर्वस्व लक्ष्मी सरस्वती और गोविन्द जब हाथमें स्थित हैं तो हाथमें बड़ी शक्ति सिद्ध हुई । संसारमें यही तो वस्तुएँ अपेक्षित हैं, ऐसी शक्तिको धारण करनेवाले, हमारी संसार-यात्राके एकमात्र अवलम्ब एवं लक्ष्मी आदिके प्रतिनिधि हाथका प्रातःकाल दर्शन शुभकारक ही सिद्ध है क्योंकि इसी हाथसे ही तो हमें सभी कार्य करने हैं।

केवल पुराणों में ही हाथका महत्व बताया गया हो ऐसा भी नहीं है। वेद में भी हाथका महत्व बताया गया है देखिये-

अयं मे हस्तो भगवान अयं मे भगवत्तरः । अयं मे विश्वभेषजोऽयं शिवाभिमर्शनः॥ (ऋ० १०।६०।१२)

इस मन्त्रका देवता भी 'हस्त' है। इसमें हाथको भगवान का अतिशयितसामर्थ्ययुक्त और सब रोगोंका भेषजभूत (दवाईरूप) साधन-सम्पन्न स्वीकृत किया है। जो जितनी अधिक शक्तिवाला होगा उसके हाथ में शक्ति भी उतनी ही अधिक होगी। इसलिए हम जिनकी वन्दना करके उनका आशीर्वाद चाहते हैं वे भी अपने हाथसे ही हमारे सिरको स्पर्श करके आशीर्वाद देते हैं। कई ज्यौतिष(सामुद्रिक)विद्याविशारद भी इन्हीं हाथोंमें स्थित रेखाओं को देखकर ही फलित बताते हैं । हाथमें अमृत के स्थित होनेसे गुरुजनों के द्वारा शिष्यको हाथसे मारने पर भी शिष्यों में गुण की वृद्धि ही पाई जाती है जैसा कि श्रीदयानन्द सरस्वती जी के द्वारा रचित व्यवहारभानु नामक ग्रन्थ में व्याकरण महाभाष्य का प्रमाण है-

सामृतैः पाणिभिर्घ्नन्ति गुरवो न विषोक्षितैः।लालनाश्रयिणो दोषास्ताडनाश्रयिणो गुणाः।। (व्यवहारभानु) [12]

अर्थ-जो माता, पिता और आचार्य, सन्तान और शिष्यों का ताड़न करते हैं वे जानो अपने सन्तान और शिष्यों को अपने हाथ से अमृत पिला रहे हैं और जो सन्तानों वा शिष्यों का लाड़न करते हैं वे अपने सन्तानों और शिष्यों को विष पिला के नष्ट भ्रष्ट कर देते हैं। क्योंकि लाड़न से सन्तान और शिष्य दोषयुक्त तथा ताड़ना से गुणयुक्त होते हैं ।

सन्तान और शिष्य लोग भी ताड़ना से प्रसन्न और लाड़न से अप्रसन्न सदा रहा करें। परन्तु माता, पिता तथा अध्यापक लोग ईर्ष्या, द्वेष से ताड़न न करें किन्तु ऊपर से भयप्रदान और भीतर से कृपादृष्टि रक्खें।इससे हाथमें हानिजनक शत्रुओंकेलिए विष भी सन्निहित है-यह भी प्रतीत होता है।

इस प्रकारके हमारे अवलम्बभूत, यजुर्वेद (बृहदारण्यकोपनिषद्) का यह कथन प्रसिद्ध है-

सर्वेषां कर्मणार्थ हस्तौ एकायनम् । ( बृहदारण्यकोपनिषद २।४।११)

इन शब्दों में सब कर्मोंके मूल-जिसके न होनेसे हम 'निहत्थे' कहे जाते हैं-सारी रात्रिके ग्रहनक्षत्रादि के प्रभावसे तथा प्रातःकालिक वायुसे पवित्र उस हाथके दर्शनसे हमारा शुभ होना सोपपत्तिक ही है।

प्रातः भूमिवन्दन

प्रातः उठते ही अपनी आश्रयभूत भूमिकी वन्दना करनी श्रेयस्कर हुआ करती है। तभी तो कहा है-

जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी ।

जन्मभूमिको स्वर्गसे भी बढ़कर माना गया है। इसीलिए वेदने भी उसे नमस्कार करनेका आदेश दिया है

शिला भूमिरश्मा पांसुः सा भूमिः संधृता धृता। तस्यै हिरण्यवक्षसे पृथिव्या अकरं नमः॥ (अथर्व० १२।१।२६)।

नमो मात्रे पृथिव्यै नमो मात्रे पृथिव्यै(यजु०६।२२)।

यहाँ पर दो बार पृथिवी माताकी वन्दना करके वेदने अपने भक्तोंको उसकी पूजाका आदेश दे दिया है। इसीलिए वेदानुसारी पुराणोंने भी उसे नमस्कार करके उस पर पांव रखनेकी क्षमा चाही है।

समुद्रवसने देवि ! पर्वतस्तनमण्डिते। विष्णु-पत्नि ! नमस्तुभ्यं पादस्पर्श क्षमस्व मे॥

इससे हम भूमिके भक्त भी बने रहेंगे, विलायती भूमियोंके प्रेमी न बनेंगे।उठते ही पृथिवीपर एकदम पाँव रखना लौकिक दृष्टिसे भी ठीक नहीं, क्योंकि-सारी रात हम बिस्तर पर सोते हैं; उसमें भी शीतकालमें गर्म कपडों से अपने आपको ढककर सोते हैं। इसी कारण हमारे अन्दर उष्णता पर्याप्त होती है, विशेषकर पैरोंमें क्योंकि तब पैर प्रायः ढके रहते हैं; उस समय ठण्डे परमाणुओंसे युक्त भूमिमें एकदम ही पैर रखना ठीक नहीं; क्योंकि-गर्मी-सर्दी पांवके ही द्वारा हमारे शरीर में तत्क्षण संक्रांत होती है। अतः कुछ देर तक बिस्तर पर बैठकर निद्रा पूर्णतया दूर करके जब अधिक ऊष्मा हटकर उसका समीभाव हो जाता है, तब पांवका भूमि पर रखना ठीक होता है। इसके अतिरिक्त भूमि हमारी माता है, हम उसके पुत्र हैं, जैसे कि अथर्ववेदसंहितामें कहा है-

माता भूमिः, पुत्रो अहं पृथिव्याः (अथर्व०१२।१।१२)।

और भूमि देवतारूप भी है। अतः उस पर पांव रखना उचित नहीं दीखता; पर अनिवार्य होनेसे कुछ समय उससे पादस्पर्शके लिए क्षमा मांगना उचित भी है।

मङ्गल दर्शन एवं गुरुजनोंका अभिवादन

प्रातः-जागरणके बाद यथासम्भव सर्वप्रथम मांगलिक वस्तुएँ (गौ, तुलसी, पीपल, गंगा, देवविग्रह आदि) जो भी उपलब्ध हों, उनका दर्शन करना चाहिये तथा घरमें मातापिता एवं गुरुजनों, अपनेसे बड़ोंको प्रणाम करना चाहिये।

अभिमुखीकरणाय वादनं नामोच्चारणपूर्वकनमस्कारः अभिवादनम् । प्रणाम एवं अभिवादन मानवका सर्वोत्तम सात्त्विक संस्कार है। अपनेसे बड़ोंको प्रणाम करनेके बहुत लाभ हैं-

अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविनः।चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्या यशो बलम्॥

अनु- जो व्यक्ति सुशील और विनम्र होते हैं, बड़ों का अभिवादन व सम्मान करने वाले होते हैं तथा अपने बुजुर्गों की सेवा करने वाले होते हैं। उनकी आयु, विद्या, कीर्ति और बल इन चारों में वृद्धि होती है।

प्रातःस्मरण

प्रातः जागरण के अनन्तर किये जाने वाले भगवत् स्मरण के साथ साथ प्रात:स्मरण का भी विधान हमारे सनातन धर्म में है।भगवद् स्मरण से तात्पर्य है त्रिदेव आदि का स्मरण तथा प्रातः स्मरण अर्थात् महापुरुष,सप्तचिरञ्जीव,सप्त पर्वत,प्रकृति आदि का स्मरण।भगवत् स्मरण के साथ महापुरुष आदि का स्मरण करने से उनके गुणों का प्रभाव हम पर पड़ता है, हमारी भावनायें ऐसी बनतीं हैं कि हम भी ऐसे ही गुणवान्, चरित्रवान् तथा आदर्शवान् बनें । उनके मंगलमय स्मरण से हमारे जीवन में भी मंगल तथा कल्याण की भावना जागृत होती है और हमें प्रेरणा मिलती है।प्रातः काल में किया हुआ भगवद् स्मरण आदि धार्मिक कार्य भी अपने तथा दूसरों का भी आकर्षण का साधन होता है। इसलिए प्रातः भगवान्को आकृष्ट करनेके लिए तथा स्वयं भी तन्मयीभावार्थ कई राग वा भजन गाये जाते हैं, जिससे हमारा भावी दैनिक कार्यक्रम भी सुन्दर और निष्पाप होता है। हम भगवत् स्तुति करके देवाधिपति भगवान के निकट उन शब्दोंको शीघ्र पहुँचा सकते हैं। भगवत् स्तुति हेतु शयनसे उठते ही संस्कृत पद्योंकी आवश्यकता पड़ती है। पद्यकी रचना लययुक्त होनेसे तन्मयतामें विशेष साधन बन जाती है। इनमें कई इस प्रकारके भी पद्य होते हैं, जो भगवान के ध्यानके साथ ही हमें धर्म तथा अपने देशके आन्तरिक परिचय करानेवाले भी होते हैं। इससे हमें अपने देश तथा अपने धर्म के प्रति अपना उत्तरदयित्व स्मरण रहता है।अपने प्रभुको उस सात्त्विक समयमें स्मरण करना हमें भविष्य में भी असन्मार्ग में जाने नहीं देता।अतः प्रातः जागरण के पश्चात पुण्यश्लोकों का स्मरण करना चाहिये।

  • स्तुति वा भजन के द्वारा ईश्वर से तन्मयीभाव
  • महापुरुषों के स्मरण से गुणवान चरित्रवान तथा आदर्शवान बनने की प्रेरणा का प्राप्त होना
  • धार्मिक चिन्तन से सन्मार्ग की प्रेरणा
  • नित्य प्रातः मातृभूमि स्मरण से देश भक्ति में वृद्धि

पुण्यश्लोकोंका स्मरण

(गणेशस्मरण)

प्रातः स्मरामि गणनाथमनाथबन्धुसिन्दूरपूरपरिशोभितगण्डयुग्मम्। उद्दण्डविघ्नपरिखण्डनचण्डदण्डमाखण्डलादिसुरनायकवृन्दवन्द्यम्॥[13]

अनु- अनाथोंके बन्धु, सिन्दूरसे शोभायमान दोनों गण्डस्थल- वाले, प्रबल विघ्नका नाश करनेमें समर्थ एवं इन्द्रादि देवोंसे नमस्कृत श्रीगणेशजीका मैं प्रात:काल स्मरण करता हूँ। (विष्णुस्मरण)

प्रातः स्मरामि भवभीतिमहार्तिनाशं नारायणं गरुडवाहनमब्जनाभम्। ग्राहाभिभूतवरवारणमुक्तिहेतुंचक्रायुधं तरुणवारिजपत्रनेत्रम्॥

अनु- संसारके भयरूपी महान् दुःखको नष्ट करनेवाले, ग्राहसे गजराजको मुक्त करनेवाले, चक्रधारी एवं नवीन कमलदलके समान नेत्रवाले, पद्मनाभ गरुडवाहन भगवान् श्रीनारायणका मैं प्रात:काल स्मरण करता हूँ। (शिवस्मरण)

प्रातः स्मरामि भवभीतिहरं सुरेशं गङ्गाधरं वृषभवाहनमम्बिकेशम्। खट्वाङ्गशूलवरदाभयहस्तमीशंसंसाररोगहरमौषधमद्वितीयम् ॥

अनु-संसारके भयको नष्ट करनेवाले, देवेश, गंगाधर, वृषभवाहन, पार्वतीपति, हाथमें खट्वांग एवं त्रिशूल लिये और संसाररूपी रोगका नाश करनेके लिये अद्वितीय औषध-स्वरूप, अभय एवं वरद मुद्रायुक्त हस्तवाले भगवान् शिवका मैं प्रात:काल स्मरण करता हूँ। (देवीस्मरण)

प्रात: स्मरामि शरदिन्दुकरोज्ज्वलाभां सद्रलवन्मकरकुण्डलहारभूषाम् । दिव्यायुधोर्जितसुनीलसहस्त्रहस्तां रक्तोत्पलाभचरणां भवतीं परेशाम्॥

अनु-शरत्कालीन चन्द्रमाके समान उज्ज्वल आभावाली, उत्तम रत्नोंसे जटित मकरकुण्डलों तथा हारोंसे सुशोभित, दिव्यायुधोंसे दीप्त सुन्दर नीले हजारों हाथोंवाली, लाल कमलकी आभायुक्त

चरणोंवाली भगवती दुर्गादेवीका मैं प्रात:काल स्मरण करता हूँ।

(सूर्यस्मरण)

प्रातः स्मरामि खलु तत्सवितुर्वरेण्यं रूपं हि मण्डलमृचोऽथ तनुर्यजूंषि सामानि यस्य किरणाः प्रभवादिहेतुं ब्रह्माहरात्मकमलक्ष्यमचिन्त्यरूपम् ॥

अनु-सूर्यका वह प्रशस्त रूप जिसका मण्डल ऋग्वेद, कलेवर यजुर्वेद तथा किरणें सामवेद हैं । जो सृष्टि आदिके कारण हैं, ब्रह्मा और शिवके स्वरूप हैं तथा जिनका रूप अचिन्त्य और अलक्ष्य है, प्रात:काल मैं उनका स्मरण करता हूँ।

इत्थं प्रभाते परमं पवित्रं पठेत् स्मरेद्वा शृणुयाच्च भक्त्या। दुःस्वप्ननाशस्त्विह सुप्रभातं भवेच्च नित्यं भगवत्प्रसादात्॥[14]

अनु-इस प्रकार उपर्युक्त इन प्रात:स्मरणीय परम पवित्र श्लोकोंका जो मनुष्य भक्तिपूर्वक प्रात:काल पाठ करता है, स्मरण करता है अथवा सुनता है, भगवद्दयासे उसके दु:स्वप्नका नाश हो जाता है और उसका प्रभात मंगलमय होता है।

पूर्वोक्त पञ्चायतन स्मरण के साथ-साथ त्रिदेवोंके सहित नवग्रहस्मरण,ऋषिस्मरण,प्रकृतिस्मरण,सप्तचिरञ्जीव स्मरण एवं द्वादश ज्योतिर्लिङ्ग आदि स्मरण भी प्रातः काल करना चाहिये।

दैनिक कृत्य-सूची-निर्धारण

इसी समय दिन-रातके कार्योंकी सूची तैयार कर लें।

आज धर्मके कौन-कौनसे कार्य करने हैं?

धनके लिये क्या करना है ?

शरीरमें कोई कष्ट तो नहीं है ?

यदि है तो उसके कारण क्या हैं और उनका प्रतीकार क्या है?

एतादृश जागरण के अनन्तर दैनिक क्रिया कलापों की सूची बद्धता प्रातः स्मरण के बाद ही बिस्तर पर निर्धारित कर लेना चाहिये जिससे हमारे नित्य के कार्य सुचारू रूप से पूर्ण हो सकें।[15]

षण्णवति श्राद्ध

(२०२३ में षण्णवति श्राद्ध सूची)
क्रम संख्या दिनाँक मास/पक्ष/तिथि पर्व पुण्यकाल दानादि विधान ग्रन्थ
मन्व० २/०१/२०२३ पौष,शुक्ल,एकादशी धर्मसावर्णी मन्वादि श्रीम्द्भा०
वैधृति ०७/०१/२०२३ वैधृति योग
अष्टका १४/०१/२०२३ पौष, कृष्ण, सप्तमी पूर्वेद्युः
अष्टका १५/०१/२०२३ पौष, कृष्ण, अष्टमी अन्वष्टका
संक्रा० १५/०१/२०२३ मकर संक्रान्ति
अमा० २१/०१/२०२३ माघ,कृष्ण, अमावस्या दर्श
पात २२/०१/२०२३ व्यतीपात
मन्व० २७/०१/२०२३ माघ,शुक्ल,सप्तमी ब्रह्मसावर्णी मन्वादि
वैधृति ०१/०२/२०२३ वैधृति
१० अष्टका १२/०२/२०२३ माघ, कृष्ण, सप्तमी पूर्वेद्युः
११ अष्टका १३/०२/२०२३ माघ, कृष्ण, अष्टमी अन्वष्टका
१२ संक्रा० १३/०२/२०२३ कुम्भ संक्रान्ति
१३ पात १७/०२/२०२३ व्यतीपात योग
१४ अमा० १९/०२/२०२३ फाल्गुन, कृष्ण, अमावस्या दर्श
१५ युगादि १९/०२/२०२३ द्वापर युगादि
१६ वैधृति २६/०२/२०२३ वैधृति योग
१७ मन्व० ०७/०३/२०२३ फाल्गुन,शुक्ल,पूर्णिमा सावर्णी मन्वादि
१८ अष्टका १४/०३/२०२३ फाल्गुन,कृष्ण, सप्तमी अष्टका पूर्वेद्युः
१९ अष्टका १५/०३/२०२३ फाल्गुन, कृष्ण, अष्टमी अन्वष्टका
२० पात १५/०३/२०२३ व्यतीपात योग
२१ संक्रा० १५/०३/२०२३ मीन संक्रान्ति
२२ अमा० २१/०३/२०२३ चैत्र, कृष्ण पक्ष, अमावस्या दर्श
२३ वैधृति २३/०३/२०२३ वैधृति योग
२४ मन्व० २४/०३/२०२३ चैत्र शुक्लपक्ष तृतीया स्वायम्भुव मन्वादि
२५ मन्व० ०६/०४/२०२३ चैत्र शुक्लपक्ष पूर्णिमा स्वारोचिष मन्वादि
२६ पात ०९/०४/२०२३ व्यतीपात योग
२७ संक्रा० १४/०४/२०२३ मेष संक्रान्ति
२८ वैधृति योग १८/०४/२०२३ वैधृति योग
२९ अमा० १९/०४/२०२३ वैशाख, कृष्ण पक्ष, अमावस्या दर्श
३० युगादि २२/०४/२०२३ त्रेता युगादि
३१ पात ०५/०५/२०२३ व्यतीपात योग
३२ वैधृति १४/०५/२०२३ वैधृति योग
३३ संक्रा० १५/०५/२०२३ वृषभ संक्रान्ति
३४ अमा० १९/०५/२०२३ ज्येष्ठ,कृष्ण पक्ष, अमावस्या दर्श
३५ पात ३०/०५/२०२३ व्यतीपात योग
३६ मन्व० ०४/०६/२०२३ ज्येष्ठ,शुक्ल पूर्णिमा वैवस्वत मन्वादि
३७ वैधृति ०८/०६/२०२३ वैधृति योग
३८ संक्रा० १५/०६/२०२३ मिथुन संक्रान्ति
३९ अमा० १७/०६/२०२३ आषाढ, कृष्ण पक्ष, अमावस्या दर्श
४० पात २५/०६/२०२३ व्यतीपात योग
४१ मन्व० २८/०६/२०२३ आषाढ, शुक्ल दशमी रैवत मन्वादि
४२ मन्व० ०३/०७/२०२३ आषाढ, शुक्ल, पूर्णिमा चाक्षुष मन्वादि
४३ वैधृति ०४/०७/२०२३ वैधृति योग
४४ अमा० १७/०७/२०२३ श्रावण, कृष्ण पक्ष, अमावस्या दर्श
४५ संक्रा० १७/०७/२०२३ कर्क संक्रान्ति
४६ पात २०/०७/२०२३ व्यतीपात योग
४७ वैधृति ३०/०७/२०२३ वैधृति योग
४८ पात १४/०८/२०२३ व्य्तीपात योग
४९ अमा० १५/०८/२०२३ श्रावण, कृष्ण पक्ष(अधिक मास) अमावस्या दर्श
५० संक्रा० १७/०८/२०२३ सिंह संक्रान्ति
५१ वैधृति २४/०८/२०२३ वैधृति योग
५२ मन्व० ०७/०९/२०२३ भाद्रपद,कृष्ण, अष्टमी इन्द्रसावर्णि मन्वादि
५३ पात ०८/०९/२०२३ व्यतीपात योग
५४ मन्व० १४/०९/२०२३ भाद्रपद, कृष्ण, अमावस्या दैवसावर्णि मन्वादि
५५ अमा० १४/०९/२०२३ भाद्रपद, कृष्ण, अमावस्या दर्श
५६ संक्रा० १७/०९/२०२३ कन्या संक्रान्ति
५७ मन्व० १८/०९/२०२३ भाद्रपद,शुक्ल,तृतीया रुद्रसावर्णि मन्वादि
५८ वैधृति १८/०९/२०२३ वैधृति योग
५९ पितृ पक्ष २९/०९/२०२३ भाद्रपद, शुक्ल, पूर्णिमा पूर्णिमा श्राद्ध
६० पितृ पक्ष २९/०९/२०२३ आश्विन, कृष्ण, प्रतिपदा प्रतिपदा श्राद्ध
६१ पितृ पक्ष ३०/ आश्विन, कृष्ण,द्वितीया द्वितीया
६२ पितृ पक्ष ०१/१०/२०२३ आश्विन, कृष्ण,तृतीया तृतीया
६३ पितृ पक्ष ०२/१०/२०२३ आश्विन, कृष्ण, चतुर्थी चतुर्थी
६४ पितृ पक्ष ०२/१०/२०२३ आश्विन, कृष्ण, चतुर्थी(भरणी) महाभरणी
६५ पितृ पक्ष ०३/ आश्विन, कृष्ण,पञ्चमी पञ्चमी
६६ पितृ पक्ष ०४/ आश्विन, कृष्ण, षष्ठी षष्ठी
६७ पितृ पक्ष ०५/ आश्विन, कृष्ण, सप्तमी सप्तमी
६८ पितृ पक्ष ०६/ आश्विन, कृष्ण, अष्टमी अष्टमी
६९ पितृ पक्ष ०७/ आश्विन, कृष्ण, नवमी नवमी
७० पितृ पक्ष ०८/ आश्विन, कृष्ण, दशमी दशमी
७१ पितृ पक्ष ०९/ आश्विन, कृष्ण, एकादशी एकादशी
७२ पितृ पक्ष १०/ आश्विन, कृष्ण, मघा श्राद्ध मघा श्राद्ध
७३ पितृ पक्ष ११/ आश्विन, कृष्ण, द्वादशी द्वादशी
७४ पितृ पक्ष १२/ आश्विन, कृष्ण, त्रयोदशी त्रयोदशी
७५ पितृ पक्ष १३/ आश्विन, कृष्ण, चतुर्दशी चतुर्दशी
७६ पितृ पक्ष १४ आश्विन, कृष्ण, सर्वपितृ अमावस्या अमावस्या
७७ वैधृति १४/१०/२०२३ वैधृति योग
७८ पात ०४/१०/२०२३ व्यतीपात योग
7९ युगादि १२/१०/२०२३ कलियुग
८० अमा० १४/१०/२०२३ आश्विन, कृष्ण पक्ष, अमावस्या दर्श
८१ संक्रा० १८/१०/२०२३ तुला संक्रान्ति
८२ मन्व० २३/१०/२०२३ आश्विन,शुक्ल,नवमी दक्षसावर्णि मन्वादि
८३ पात २९/१०/२०२३ व्यतीपात योग
८४ वैधृति ०८/११/२०२३ वैधृति योग
८५ अमा० १३/११/२०२३ कार्तिक, कृष्ण पक्ष, अमावस्या दर्श
८६ संक्रा० १७/११/२०२३ वृश्चिक संक्रान्ति
८७ युगादि २१/११/२०२३ सत युगादि
८८ मन्व० २४/११/२०२३ कार्तिक,शुक्ल द्वादशी तामस मन्वादि
८९ पात २४/११/२०२३ व्यतीपात योग
९० मन्व० २७/११/२०२३ कार्तिक, शुक्ल पूर्णिमा उत्तम मन्वादि
९१ वैधृति ०३/१२/२०२३ वैधृति योग
९२ अष्टका पूर्वेद्युः ०४/१२/२०२३ मार्गशीर्ष, कृष्ण, सप्तमी अष्टका पूर्वेद्युः
९३ अन्वष्टका ०५/१२/२०२३ मार्गशीर्ष, कृष्ण, अष्टमी अन्वष्टका
९४ अमा १२/१२/२०२३ मार्गशीर्ष, कृष्णपक्ष, अमावस्या दर्श
९५ संक्रा० १६/१२/२०२३ धनु
९६ पात १९/१२/२०२३ व्यतीपात योग
९७ वैधृति २८/१२/२०२३ वैधृति योग

अन्य श्राद्ध योग्यानि महाफलप्रदानि श्राद्ध दिवसानि

श्राद्ध के फल

उत्तम संतान की प्राप्ति, आरोग्य ऐश्वर्य और आयुर्दाय का रक्षण, संतान की अभिवृद्धि, वेद अभिवृद्धि, सम्पत् प्राप्ति, श्रद्धा, बहु दान शीलत्व स्वभाव््््

अशक्तस्य प्रत्यम्नायम् (श्राद्धस्पिय तर्पण, त)

तिल तर्पण, गोग्रास

अनन्तपुण्य संपादकं पञ्चाङ्गम्

मास, तिथि, वार नक्षत्र और योग के संयोग से जो-जो प्रत्येक अलभ्य योग उत्पन्न होते हैं उनके आचरण के प्रभाव से अर्थ और धर्म पुरुषार्थ प्रद होते हैं। जैसे जिस किसी का भी धन अर्जन के लिये पुण्य आवश्यक होता है। प्रत्येक व्यक्ति का संकल्पपूर्ति के लिये पुण्य संपादन बहुत आवश्यक है। जिस प्रकार संसार में किसी भी कार्य की सिद्धि के लिये धन की आवश्यकता होती है।

(अलभ्य योग)
क्रम संख्या दिनाँक मास/पक्ष(उ०भा०) मास/पक्ष(द०भा०) तिथि व्रत व्रत विधान फल तिथि निर्णय ग्रन्थ
माघ/शुक्ल माघ/शुक्ल तृतीया गुडलवणयोर्दानम्

उमा पूजा

ललिताव्रतम्

हरतृतीया व्रत

देव्या आन्दोलन व्रतम्

रसकल्याणिनी व्रतम् स्मृ०कौ०/चतु०चिन्ता०
चतुर्थी कुन्दैः शिवपूजा

वरदा गौरीपूजा

शान्ताचतुर्थी

विनायकचतुर्थी

उमापूजा

पञ्चमी श्रीपञ्चमी

श्रीपञ्चमी

वसन्तोत्सवोयम्

लक्ष्मीसरस्वती पूजा

षष्ठी विशोकषष्ठीव्रतम्

मन्दारषष्ठी

कामषष्ठी

शीतलाषष्ठी

सप्तमी रथसप्तमी

विष्णुरूपेण भास्कर पूजा

सूर्यार्घ्यदानम्

अचलासप्तमी

मन्दारसप्तमी

रथांक सप्तमी

महासप्तमी

जयन्तीव्रतम्

सिद्धार्थकादि सप्तमीव्रतम्

विजयसप्तमीव्रतम्

द्वादशसप्तमीव्रतम्

पुत्रसप्तमीव्रतम्

विशोकसप्तमीव्रतम्

विजयायज्ञसप्तमीव्रतम्

द्वादशसप्तमीव्रतम्

पुरश्चरणसप्तमीव्रतम्

सितासप्तमीव्रतम्

विधानसप्तमी/आरोग्यसप्तमी

माकरीसप्तमी

मन्वादिः

मित्रनाम्नो भास्करस्य पूजा

रवेः रथयात्रा

अरुणोदये गंगायां स्नानम्
अष्टमी भीष्माष्टमी

दुर्गाष्टमी

नवमी महानन्दा नवमी
०१/०२/२०२२ एकादशी भीम एकादशी/भीष्म एकादशी/ जय एकादशी/भीष्म पञ्चक व्रत आरंभ/ तिल पद्म व्रत संतति अभिवृध्दि भीष्म/ भीम एका० २४ एकादशी व्रत फल प्राप्ति/ (काञ्ची कामकोटी पीठ पञ्चाग)
०२/०२/२०२२ द्वादशी भीष्म/भीम/वराह/षट्तिल द्वादशी/तिलपद्म व्रत/ प्रदोष/ उपवास/तिल स्नान/ तिल विष्णु पूजन/ तिल नैवेद्य/ तिल तेल दीपदान/ तिल से होम/तिअ दान/तिल भक्षण द्रष्टव्य
माघ शुक्ल द्वादशी पुनर्वसु योग स्नान, दान, जप, होम विषेश फल
०३/०२/२०२२ त्रयोदशी वराह कल्पादि/ प्रदोष स्नान, दान, जप, होम,श्रद्ध अक्षय/कोटी गुणित षण्णवति
०३/०२/२०२२ त्रयोदशी दिनत्रय व्रत माघ शुक्ल (त्रयोदशी,चतुर्दशी,पूर्णिमा) को स्नान,दान,पूजादि आयु,आरोग्य,सम्पत्ति,रूप, मनोरथ सफलता, माघगंगा स्नान वषत् (प्रतिदिन सुवर्ण दान फल प्राप्ति)
०४/०२/२०२२ पूर्णिमा माघ पूर्णिमा

कलियुगादि

घृतकम्बल विधि

समुद्र स्नान,तीर्थ स्नान, तिलपात्र,कम्बल अजिन रक्तवस्त्र आदि दानम(स्नान,दान, जप पूजा होमादिक ) प्रयाग में विशेष अधिक पुण्यप्रद
चन्द्रार्क योग(भानुवार पूर्णिमा तिथि वशात) स्नान,दान,जप होमादि विशेष पुण्यप्रद
(उ०भार०)माघमास(कृष्णपक्ष)फाल्गुनमास(कृष्णपक्ष)(दक्षि०भार०)
माघमास(कृष्णपक्ष) फाल्गुनमास(कृष्णपक्ष) प्रतिपदा सौभाग्यावाप्तिव्रतम् च०चिन्ता०
चतुर्थी गणेशचतुर्थी कृ०स०
सप्तमी निभुक्षार्कव्रतचतुष्टयम्

सर्वाप्तिसप्तमीव्रतम्

अष्टापूर्वेद्युः

अष्टमी अष्टकाश्राद्धम्

जानकी व्रत

मंगलाव्रतम्

कालाष्टमी

सर्व अभीष्ट सिद्धि
नवमी अन्वष्टका श्राद्धम्
एकादशी विजयैकादशी
द्वादशी तिलद्वादशीव्रतम्

तिलस्नानादिः,पूर्वदिने उपवासश्च

कृष्णद्वादशीव्रतम्

चतुर्दशी महाशिवरात्रिः

रटन्तीचतुर्दशी(अरुणोदये स्नानं यमतर्पणञ्च)

सर्वकामव्रतम्

कृष्णचतुर्दशीव्रतम्

शिवरात्रिका

अमावस्या युगादित्वादपिण्डं श्राद्धम्

नवनीतधेनु दानम्

पितृकार्यम्

मन्वादिः

अर्द्धोदय योगः

माघमास कृत्यम(परिशिष्ट) त्रिवेण्यां स्नानं, प्रात्यहिकस्नानं, तिलपात्रदानं, अर्धोदयः, प्रयागे वेणीस्नानं, अस्थिप्रक्षेपः, त्रिवेण्यां देहत्यागः, जीवच्छ्राद्धं, धर्मविशेषाः, अन्नदानं सहस्रभोजनादि तिलकार्यंच, तिलहोमः,

२, विष्णुपूजा

३, मूलकभक्षण निषेधः

फाल्गुनमास शुक्लपक्ष(उ०द० उभयोरेकमेव)
फाल्गुन/शुक्लपक्ष प्रतिपदा भद्रचतुष्टयव्रतम्

गुणावाप्तिव्रतम्

पयोव्रतम्

तृतीया मधूकव्रतम्

सौभाग्यतृतीयाव्रतम्

चतुर्थी गणेशव्रतम्

अग्निव्रतम्

पञ्चमी अनन्तपञ्चमीव्रतम्
सप्तमी अर्कसम्पुटसप्तमीव्रतम्

कामदासप्तमीव्रतम्

त्रिगतिसप्तमीव्रतम्

द्वादशसप्तमीव्रतम्

अष्टमी ललितकान्तीदेवीव्रतम्

दुर्गाष्टमी

महीमानम्

अष्टमी उपवासम्

नवमी अन्नदा नवमीव्रतम्
एकादशी आमलक्येकादशी व्रतम्

पापनाशिनी एकादशी

द्वादशी गोविन्दद्वादशी

मनोरथद्वादशी व्रतम्

सुकृतद्वादशी व्रतम्

सुगतिद्वादशी व्रतम्

विजयाद्वादशी व्रतम्

आमदकी व्रतम्

त्रयोदशी नन्दव्रतम्
चतुर्दशी महेश्वर व्रतम्

ललितकान्त्याख्यदेवी व्रतम्

पूर्णिमा होलिका

दोलयात्रा दोलाक्रीडनं च

दोलयात्रा

अशोकपूर्णिमा व्रतम्

लक्ष्मीनारायणव्रतम्

धामत्रिरात्रव्रतम्

शयनदानम्

महाफाल्गुनी

हुताशनी पूर्णिमा

मन्वादिः

शशांकपूजा

(दक्षि०भार०)फाल्गुनमास कृ०पक्ष / चैत्र कृ०पक्ष (उ०भा०)
फाल्गुन कृष्ण/(चैत्र) प्रतिपदा धूलिवन्दनम्

आम्रपुष्पभक्षणम्

तैलाभ्यंगो दोलोत्सवश्च

वसन्तारम्भोत्सवः

द्वितीया काममहोत्सवः
तृतीया कल्पादिः
चतुर्थी संकष्टी गणेश चतुर्थी
पञ्चमी कश्मीराप्रतिमापूजनम्
षष्ठी स्कन्दषष्ठी
सप्तमी अष्टका पूर्वेद्युः
अष्टमी अष्टका श्राद्धं नित्यम्

सीतापूजा

कालाष्टमी

शीतलाष्टमी

रजस्वलाकश्मीराप्रतिमायाः स्नापनादि

महीमानम्

नवमी अन्वष्टका श्राद्धम्
एकादशी कृष्णैकादशी व्रतम्

पापमोचिनी एकादशी

छन्दोदेवपूजा

द्वादशी नृसिंहद्वादशीव्रतम्

फाल्गुनश्रवण द्वादशी

त्रयोदशी वारुणी
चतुर्दशी शिवरात्रि व्रतम्

पिशाचचतुर्दशी

अमावस्या मन्वादिः

वत्सरान्त श्राद्धं श्वभ्यो न्नदानं दानं च

चैत्रमास/शुक्लपक्ष चैत्रमास/शुक्लपक्ष प्रतिपदा चान्द्रवत्सर आरम्भः

ब्रह्मपूजनम्

वत्सराधिपपूजा

कल्पादिः

मत्स्यजयंती

नवरात्रारम्भः

गौरीव्रतम्

प्रपा दान आरम्भः

धर्म घट दानम्

विद्याव्रतं सोद्यापनं

पौरुषप्रतिपद व्रतम्

तिलकव्रतम्

ब्राह्मण्य प्राप्तिव्रतम्

धनावाप्ति व्रतम्

सर्वाप्ति व्रतम्

चतुर्युग व्रतम्

देवमूर्ति व्रतम्

सर्व आपच्छान्तिकरमहाशान्तिः

नदी व्रतम्

लोकव्रतम्

शैलव्रतम्

समुद्रव्रतम्

द्वीपव्रतम्

पितृव्रतं सप्तमूर्तिव्रतं वा

सप्तसागर व्रतं

सप्तर्षिव्रतम्

दमनक पूजा( ,,,,)

द्वितीया बालेन्दुव्रतम्

उमादि पूजा

प्रकृतिपुरुष द्वितीयाव्रतम्

नेत्रद्वितीया व्रतम्

तृतीया आन्दोलनव्रतम(पार्वती परमेश्वरयोः)

रामचन्द्रदोलोत्सवः

मन्वादिः

उमा पूजा

सौभाग्य शयन व्रतं(क० गौरीव्रतं, ख० गौरीतृतीया)

मत्स्य जयंती

चतुर्थी गणपतेर्दमनक आरोपणम्

आश्रम व्रतम्

चतुर्मूर्ति व्रतम्

गणेश पूजा

पञ्चमी श्री पञ्चमी

श्रीव्रतम्

हयपूजा

नागपूजा

पञ्चमहाभूत व्रतम्

संवत्सरव्रतम् अथवा पञ्चमूर्तिव्रतम्

कल्पादिः

पञ्चमूर्ति व्रतम्

षष्ठी स्कन्द उत्पत्तिः दमनकेन तत्पूजनं च

कुमार षष्ठीव्रतम्

अशोक षष्ठी

सप्तमी भास्कर पूजा

गोमय आदि सप्तमी व्रतम्

नामसप्तमी व्रतम्

सूर्यव्रतम्

मरुद्व्रतम्

तुरग सप्तमी व्रतम्

द्वादशसप्तमी व्रतम्

वासन्ती पूजा

अष्टमी अशोक कलिका भक्षिणम्

भवानी यात्रा

लौहित्ये स्नानम्

वसुव्रतम्

अशोक यात्रा

दुर्गाष्टमी

नद्यां स्नानेन वाजपेयफलम्

नवमी रामनवमी व्रतम्

नवरात्रसमाप्तिः देवीपूजासहिता

दुर्गानवमी व्रतम्

भद्रकाली नवमी

दशमी रामनवमी व्रतांगहोमः

धर्मराजपूजा दमनकेन

एकादशी ऋषिपूजा दमनकेन

श्रीकृष्ण दोलोत्सवः

अवैधव्य शुक्लैकादशीव्रतम्

कामदा एकादशी

वास्तु पूजा

द्वादशी विष्णोर्दमनोत्सवः

मदनद्वादशी व्रतम्

भर्तृ प्राप्तिव्रतम्

वासुदेवार्चनम्

त्रयोदशी ईश्वरपूजा दमनकेन

मदन पूजा

दमनात्मक मदनपूजा

मदन महोत्सवः

चतुर्दशी नृसिंह दोलोत्सवः

शिवे दमनकारोपः

शिवसन्निधौ गंगायां स्नानेन पिशाचत्व निवृत्तिः

मदन पूजा उत्सवः

दमनक चतुर्दशी

महोत्सवव्रतम्

पवित्र रोपणम्

पूर्णिमा सर्वदेवार्चनं दमनकेन

वैशाखस्नानारम्भः

पाशुपतव्रतम्

मलव्यपोहनम्

स्नानदानाभ्यां दशगुणं फलम्

निकुम्भ पूजा

इरामञ्जरी पूजा

महाचैत्री

चैत्रमास,कृष्णपक्ष(उ०भार०)/वैशाखमास,कृष्णपक्ष(द०भार०)
चैत्र,कृष्ण वैशाख, कृष्ण प्रतिपदा पातालव्रतम्

ज्ञानावाप्तिव्रतम्

चतुर्थी संकष्टी गणेशचतुर्थी
षष्ठी स्कन्दषष्ठी
अष्टमी कृष्णपूजा

अष्टका श्राद्धम्

कालाष्टमी

सन्तानाष्टमीव्रतम्

मंगलाव्रतम्

एकादशी वरूथिनी एकादशी
चतुर्दशी गंगास्नानेन पिशाचत्व निवृत्तिः

शिवरात्रिः

कठिन्यादिभिः शुक्लीकृते घटे रक्तपताकायुतां स्नुहीशाखां स्थापयित्वा गृहोपरि तत्स्थापनम्

अमावस्या वह्निव्रतम्

पितृव्रतम्

(अमान्त, पूर्णिमान्त वैशाखमास, शुक्लपक्ष)
वैशाख,शुक्ल वैशाख,शुक्ल तृतीया विष्णुपूजा

युगादि

परशुराम जयंती

अक्षय तृतीया

गंगायां स्नानम्

कौशिक्यां स्नानम्

अनन्त तृतीया व्रतम्

कल्पादिः

जगन्नाथस्य चन्दनयात्रा

महाफलव्रतम्

चतुर्थी गणेश चतुर्थी
सप्तमी गंगा सप्तमी

शर्करा सप्तमी व्रतम्

निम्बसप्तमी व्रतम्

अनोदना सप्तमी व्रतम्

द्वादश सप्तमी व्रतम्

अष्टमी देवीपूजा आम्ररसेन

दुर्गाष्टमी

नवमी चण्डिका पूजनम्

सीता नवमी

एकादशी मोहिनी एकादशी
द्वादशी मधुसूदन पूजा

पाशाभिधा द्वादशी

पितीतकी द्वादशी

जामदग्न्य व्रतम्

हरिक्रीडायनम्

वैष्णवी द्वादशी

रुक्मिणी द्वादशीव्रतम्

त्रिस्पृशा मधुसूदनी

त्रयोदशी कामदेवव्रतम्
चतुर्दशी नृसिंह जयन्ती
पूर्णिमा तिलैः स्नानादि

धर्मराज प्रीत्यै नानाविध दानम्

दानमनन्त फलम्

नित्यश्राद्ध कालः

सोमव्रतम्

महावैशाखी

कूर्म जयन्ती

महाज्यैष्ठी

महा वैशाखी

(अमान्त वैशाखमास/कृष्णपक्ष। पूर्णिमान्त ज्येष्ठमास/ कृष्णपक्ष)
वैशाख/कृष्णपक्ष ज्येष्ठमास/कृष्णपक्ष प्रतिपदा श्रीप्राप्तिव्रतम्

भूतमात्रुत्सवः

चतुर्थी गणेश चतुर्थी व्रत
अष्टमी कालाष्टमी
एकादशी अपरैकादशी
चतुर्दशी शिवरात्रिः

सावित्रीव्रतम्

अमावस्या प्रयागे स्नानं पापापहम्

सावित्री व्रतम्

(अमान्त ज्येष्ठमास, शुक्लपक्ष। पूर्णिमान्त ज्येष्ठमास, शुक्लपक्ष)
ज्येष्ठमास/शुक्लपक्ष ज्येष्ठमास/शुक्लपक्ष प्रतिपदा करवीरव्रतम्

भद्रचतुष्टयव्रतम्

दशाश्वमेधे स्नानम्

तृतीया त्रिविक्रमतृतीयाव्रतम्

राज्यव्रतम्

रम्भाव्रतम्

रम्भातृतीयाव्रतम्

चतुर्थी उमापूजनम्

गणेशचतुर्थी

शुक्लादेवी पूजा

षष्ठी आरण्यक षष्ठी
सप्तमी द्वादश सप्तमीव्रतम्
अष्टमी दुर्गाष्टमी

त्रिलोचनाष्टमी

नवमी ब्रह्माणी नाम्न्या

उमायाः पूजा

दशमी गंगावतारः

नदीमात्रे स्नानं विशेषतः गंगायाम्

सेतुबन्धे रामेश्वर दर्शनम्

एकादशी निर्जला एकादशी व्रतम्
द्वादशी त्रिविक्रम पूजा

चम्पक द्वादशी

त्रयोदशी दुर्गन्ध दौर्भाग्य नाशन त्रयोदशी व्रतम्

रम्भात्रिरात्रि व्रतम्

जातित्रिरात्रि व्रतम्

चतुर्दशी रुद्रव्रतम्

वायुव्रतम्

चम्पक चतुर्दशी

पूर्णिमा तिलच्छत्रादि दानम्

बिल्वत्रिरात्र व्रतम्

वटसावित्री व्रतम्

मन्वादिः

पुत्रकामव्रतम्

ब्राह्मण्य अवाप्ति व्रतम्

अशोक त्रिरात्रि व्रतम्

महाज्यैष्ठी

स्नानयात्रा,जगन्नाथदेवस्य स्नानम्

स्नानपूर्णिमा

(अमान्त, ज्येष्ठमास,कृष्णपक्ष/ पूर्णिमान्त, आषाढमास, कृष्णपक्ष)
ज्येष्ठ/कृष्णपक्ष आषाढ/कृष्ण प्रतिपदा भोगावाप्ति व्रतम्
चतुर्थी गणेश चतुर्थी(संकष्टी)
अष्टमी तिन्दुकाष्टमी व्रतम्

शिवपूजा

कालाष्टमी

विनायक अष्टमी

एकादशी योगिनी एकादशी
चतुर्दशी मासिक शिवरात्रिः
अमावस्या श्राद्धसमय विशेषः
(अमान्त, आषाढमास, शुक्लपक्ष/ पूर्णिमान्त,आषाढमास, शुक्लपक्ष)
आषाढ/शुक्ल आषढ/शुक्ल द्वितीया रथयात्रा

मनोरथ द्वितीया

गुण्डिचा यात्रा

चतुर्थी विनायक चतुर्थी
षष्ठी स्कन्दव्रतम्
सप्तमी विवस्वत्सप्तमी

मित्राख्य भास्करपूजा

द्वादशसप्तमी व्रतम्

अष्टमी महिषघ्नी पूजा

दुर्गाष्टमी

परशुरामीय अष्टमी

नवमी ऐन्द्रीदुर्गा पूजा
दशमी जगन्नाथस्य पुनर्यात्रा

मन्वादिः

एकादशी हरिशयनम्
द्वादशी पारणायां वैशिष्ट्यम्

पारणोत्तरं सायं पूजा,

चातुर्मास्य व्रतसंकल्पश्च

वामनपूजा

हरिशयनम्

त्रयोदशी प्रदोष
चतुर्दशी शिवपूजा

शयनोत्तमा यात्रा

पूर्णिमा हरियजनम्

शिवशयन उत्सवः

शिवे पवित्र आरोपणम्

अन्नदान माहात्म्यम्

संन्यासिनां क्षौरं व्यासपूजनं च

गजपूजा

महाषाढी

भारभूतेश्वर यात्रा

चातुर्मास्य आरम्भः

मन्वादिः

देवपूजा

(अमान्त, आषाढमास, कृष्णपक्ष/ पूर्णिमान्त, श्रावणमास, कृष्णपक्ष)
आषाढ/कृष्णपक्ष श्रावण/कृष्णपक्ष प्रतिपदा मृगशीर्षव्रतम्

कोकिलाव्रतम्

धर्मावाप्तिव्रतम्

द्वितीया क्षीरसागरे सलक्ष्मीक मधुसूदनपूजा

अशून्य शयनव्रतम्

चतुर्थी संकष्टी गणेशचतुर्थी व्रतम्
पञ्चमी नागपञ्चमी

अष्टनागपूजा

मनसा पूजा च

अष्टमी कालाष्टमी
एकादशी कामदा एकादशी
द्वादशी वासुदेव द्वादशीव्रतम्
त्रयोदशी प्रदोष
चतुर्दशी मासिक शिवरात्रिः
(अमान्त,श्रावणमास, शुक्लपक्ष/ पूर्णिमान्त, श्रावणमास, शुक्लपक्ष)
श्रावण/शुक्ल श्रावण/शुक्ल प्रतिपदा धनदस्य पवित्र आरोपणम्

अर्धश्रावणिका व्रतम्

द्वितीया श्रियः पवित्र आरोपणम्

मनोरथ द्वितीया

तृतीया पार्वत्याः पवित्र आरोपणम्

मधुश्रावणी व्रतम्

चतुर्थी विघ्नहारिणः पवित्र आरोपणम्

त्रिपुरभैरव्याः पवित्र आरोपणम्

गणेशचतुर्थी(विनायकी)

पञ्चमी शशिनः पवित्र आरोपणम्

नागपूजा

जाग्रद्गौरी पञ्चमी

षष्ठी गुहस्य पवित्र आरोपणम्

कल्कि जयंती

सप्तमी भास्करस्य पवित्र आरोपणम्

पाप नाशिनी सप्तमी व्रतम्

अव्यंग सप्तमी व्रतम्

द्वादशसप्तमी व्रतम्

अष्टमी दुर्गायाः पवित्र आरोपणम्

अन्येषां देवानां अपि पवित्र आरोपणम्

पुष्पाष्टमी व्रतम्

दुर्गाव्रतम्

दुर्गाष्टमी

शक्रध्वज उच्छ्राय विधिः

नवमी मातॄणां पवित्र आरोपणम्

अन्येषां देवानां अपि पवित्र आरोपणम्

कौमारीनामकपूजनम्

दशमी धर्मस्य पवित्र आरोपणम्
एकादशी मुनीनां पवित्र आरोपणम्

पुत्रदा एकादशी

द्वादशी चक्रपाणिनः पवित्र आरोपणम्

हरेः पवित्रारोपणोत्सवः

श्रीधरपूजा

दोला यात्रारम्भः

त्रयोदशी अनंगस्य पवित्रारोपणम्
चतुर्दशी शिवस्य पवित्र आरोपणम्

देव्याः पवित्रारोपणोत्सवः

पूर्णिमा पितॄणां पवित्रारोपणोत्सवः

वितस्ता सिन्धुनद्योः संगमे स्नानम, विष्णुपूजा, साम श्रवणं च

उत्सर्जनोपाकर्मणी

रक्षाबन्धः

श्रवणाकर्म रात्रौ

श्राद्धं नित्यम्

चन्द्ररोहिणी शयन व्रतम्

पुत्रप्राप्तिव्रतम्

पूर्णिमाव्रतम्

बलदेवोत्थापनपूजने

महाश्रावणी

श्रीकृष्णस्य दोलयात्रा

(अमान्त= श्रावणमास, कृष्णपक्ष/पूर्णिमान्त=भाद्रपदमास, कृष्णपक्ष)
श्रावण/कृष्ण भाद्रपद/कृष्ण प्रतिपदा अशून्यशयन व्रतम्

धनावाप्ति व्रतम्

सोद्यापनं मौनव्रतम्

द्वितीया अशून्यव्रतम्
तृतीया तुष्टिप्राप्ति तृतीयाव्रतम्

कज्जली तृतीया

चतुर्थी संकष्ट चतुर्थी व्रतम्

गोपूजा

पञ्चमी स्नुहीविटपे मनसादेवी-विषहरी-पूजा

रक्षापञ्चमी

षष्ठी हलषष्ठी
सप्तमी शीतला सप्तमी
अष्टमी जन्माष्टमी व्रतम्

जयन्तीव्रतम्

मंगलाव्रतम्

कालाष्टमी

मन्वादिः

नवमी चण्डिका पूजा
एकादशी अजैकादशी
द्वादशी रोहिणीद्वादशी व्रतम्
त्रयोदशी द्वापर युगादिः
चतुर्दशी शिवरात्रिः

अघोरचतुर्दशी

अमावस्या कुशग्रहणम्

कुलस्तम्भ यात्रा

सप्तपूरिकामावस्या(सप्तपूरयुक्तपिष्टकद्वारा)

कौश्यमावस्या(आलोकामावस्या वा)

(अमान्त=भाद्रपदमास, शुक्लपक्ष/ पूर्णिमान्त= भाद्रपदमास, शुक्लपक्ष)
भाद्रपद/शुक्ल भाद्रपद/शुक्ल प्रतिपदा महत्तमव्रतम्

मृगशीर्षव्रतम्

भद्रचतुष्टयव्रतम्

तृतीया काञ्चनगौरीपूजा

हरितालिकाव्रतम्

अनन्ततृतीयाव्रतम्

हरिकाली व्रतम्

कोटीश्वरी व्रतम्

देव्या आन्दोलन व्रतम्

वराहजयन्ती

मन्वादिः

चतुर्थी सिद्धिविनायकव्रतम्

चन्द्रदर्शन निषेधः

शिवाचतुर्थीव्रतम्

गोष्पदत्रिरात्रिव्रतम्

सरस्वतीपूजा

गणेशपूजा

सौभाग्यचतुर्थी

पञ्चमी ऋषिपञ्चमी व्रतम्

नागदंष्टोद्धरण पञ्चमीव्रतम्

नागपञ्चमीव्रतम्

रक्षापञ्चमी

वरुणपञ्चमी

षष्ठी स्कन्ददर्शनम्

चम्पाषष्ठीव्रतम्

सूर्यषष्ठीव्रतं सोद्यापनं

ललिताषष्ठीव्रतम्

भद्राविधिः

षष्ठीदेवीषष्ठी

मन्थानषष्ठी

कुमारिकास्नापनम्

सप्तमी मुक्ताभरण व्रतम्

कुक्कुटीव्रतम्

अपराजितासप्तमी व्रतम्

फलसप्तमी व्रतम्

पुत्रसप्तमी व्रतम्

ललितासप्तमी व्रतम्

अलंकारपूजा

अनन्तफलसप्तमीव्रतम्

द्वादशसप्तमीव्रतम्

अष्टमी दूर्वाष्टमी व्रतम्

ज्येष्ठाव्रतम्

महालक्ष्मीव्रतम्

लक्षणार्द्राव्रतम्

गुर्वष्टमीव्रतम्

शक्रध्वजोच्छ्रायविधिः

महालक्ष्मीव्रतम्

दुर्गाशयनम्

दुर्गाष्टमी

रासाष्टमी

अशोकिकाष्टमी

नवमी नन्दानवमी

श्रीवृक्षनवमीव्रतम्

अदुःखनवमी

तालनवमी

दशमी दशावतारव्रतम्

वितस्तोत्सवः

एकादशी कटदानोत्सवः

हरेः परिवर्तनम्

द्वादशी श्रवणद्वादशीव्रतम्

महाद्वादशी

वञ्जुलीव्रतम्

वामनजयन्तीव्रतम्

राज्ञःशक्रध्वजोत्थापनम्

दुग्धव्रतम्

कल्किद्वादशीव्रतम्

अवियोगद्वादशीव्रतम्

अनन्तद्वादशीव्रतम्

त्रयोदशी गोत्रिरात्रिव्रतम्

दूर्वात्रिरात्रिव्रतम्

अगस्त्यार्घ्यदानम्

चतुर्दशी अनन्तचतुर्दशीव्रतम्

पालीचतुर्दशीव्रतम्

कदकीव्रतम्

अघोरचतुर्दशी

पूर्णिमा पौर्णमासीकृत्यम्

अगस्त्यार्घ्यदानम्

पुत्रव्रतम्

वरुणव्रतम्

ब्रह्मसावित्रीव्रतम्

अशोकत्रिरात्रिव्रतम्

कुलस्तम्भयात्रा

इन्द्रपौर्णमासी

महाभाद्री

दिक्पालपूजा

(अमान्त=भाद्रपदमास,कृष्णपक्ष/पूर्णिमान्त=आश्विनमास, कृष्णपक्ष)
भाद्रपद/कृष्ण आश्विन/कृष्ण प्रतिपदा महालयारम्भः

भरणीश्राद्धम्

आरोग्यव्रतम्

द्वितीया अशून्यव्रतम्
चतुर्थी दिक्पालपूक्जा
पञ्चमी ऋषि्पञ्चमी्

अथ संक्रान्ति दानम्



शौचाचार

शौचाचारमें सदा प्रयत्नशील रहना चाहिये, क्योंकि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्यका मूल शौचाचार ही है, शौचाचारका पालन न करनेपर सारी क्रियाएँ निष्फल हो जाती हैं।ब्राह्ममूहूर्त में उठकर शय्यात्याग के पश्चात् तत्काल ही शौच के लिए जाना चाहिए। शौच में मुख्यतः दो भेद हैं- बाह्य शौच और आभ्यन्तर शौच।

शौचं तु द्विविधं प्रोक्तं बाह्यमाभ्यन्तरं तथा। मृज्जलाभ्यां स्मृतं बाह्यं भावशुद्धिस्तथान्तरम् ॥ (वाधूलस्मृ०१९)

अनु-मिट्टी और जलसे होनेवाला यह शौच-कार्य बाहरी है इसकी अबाधित आवश्यकता है किंतु आभ्यन्तर शौचके बिना बाह्यशौच प्रतिष्ठित नहीं हो पाता। मनोभावको शुद्ध रखना आभ्यन्तर शौच माना जाता है। किसीके प्रति ईर्ष्या, द्वेष, क्रोध, लोभ, मोह, घृणा आदिके भावका न होना आभ्यन्तर शौच है। श्रीव्याघ्रपादका कथन है कि-

गंगातोयेन कृत्स्नेन मृद्धारैश्च नगोपमैः। आमृत्योश्चाचरन् शौचं भावदुष्टो न शुध्यति । (आचारेन्दु)

यदि पहाड़-जितनी मिट्टी और गङ्गाके समस्त जलसे जीवनभर कोई बाह्य शुद्धि-कार्य करता रहे किंतु उसके पास आभ्यन्तर शौच न हो तो वह शुद्ध नहीं हो सकता।

अतः आभ्यन्तर शौच अत्यावश्यक है भगवान् सबमें विद्यमान हैं। इसलिये किसीसे द्वेष, क्रोधादि न करें सबमें भगवान्का दर्शन करते हुए सब परिस्थितियोंको भगवान्का वरदान समझते हुए सबमें मैत्रीभाव रखें। साथ ही प्रतिक्षण भगवान्का स्मरण करते हुए उनकी आज्ञा समझकर शास्त्रविहित कार्य करते रहें।

दन्तधावनम्

दन्तधावन का स्थान शौच के बाद बतलाया गया है।मुखशुद्धिके विना पूजा-पाठ मन्त्र-जप आदि सभी क्रियायें निष्फल हो जाती हैं अतः प्रतिदिन मुख-शुद्ध्यर्थ दन्तधावन अवश्य करना चाहिये ।दन्तधावन करने से दांत स्वच्छ एवं मजबूत होते हैं।मुख से दुर्गन्ध का भी नाश होता है । सनातन धर्म में दन्तधावन हेतु दातौन का प्रयोग बताया गया है ।दातौन (वृक्ष जिसकी लकड़ी दन्तधावन हेतु उपयोग में लायी जा सकती है) का परिमाण वर्ण व्यवस्था के अनुसार बतलाया गया है।

जैसे-

द्वादशाङ्गुलक विप्रे काष्ठमाहुर्मनीषिणः। क्षत्रविट्शूद्रजातीनां नवषट्चतुरङ्गुलम्॥

अनु-ब्राह्मणके लिये दातौन बारह अंगुल, क्षत्रियकी नौ अंगुल, वैश्यकी छ: अंगुल और शूद्र तथा स्त्रियोंकी चार-चार अंगुल के बराबर लम्बी होनी चाहिये ।

कनिष्ठिकाङ्गुलिवत् स्थूलं पूर्वार्धकृतकूर्चकम्।

दातौन की चौडाई कनिष्ठिका अंगुलि के समान मोटी हो एवं एक भाग को आगे से कूँचकर कूँची बना लेने के अनन्तर ही दन्तधावन करना होता है।

खदिरश्चकरञ्जश्च कदम्वश्च वटस्तथा । तिन्तिडी वेणुपृष्ठं च आम्रनिम्बो तथैव च ॥ अपामार्गश्च बिल्वश्च अर्कश्चौदुम्बरस्तथा । बदरीतिन्दुकास्त्वेते प्रशस्ता दन्तधावने ॥

दातौन के लिये कडवे, कसैले अथवा तीखे रसयुक्त नीम,बबूल,खैर,चिड़चिड़ा, गूलर, आदिकी दातौनें अच्छी मानी जाती हैं ।

आयुर्बलं यशो वर्चः प्रजाः पशुवसूनि च । ब्रह्म प्रज्ञां च मेधां च त्वं नो देहि वनस्पते ॥(कात्यायनस्मृ १०।४, गर्गसंहिता, विज्ञानखण्ड, अ० ७)

अनु-हे वृक्ष! मुझे आयु, बल, यश, ज्योति, सन्तान, पशु, धन, ब्रह्म (वेद), स्मृति एवं बुद्धि दो।इस प्रकार दातौन करने के पूर्व उसे उपर्युक्त मन्त्र द्वारा अभिमन्त्रित करके दातौन करने का विधान धर्मशास्त्रों में बताया गया है।

प्रातःस्नानादि विधि

ब्राह्म मुहूर्त में जागरण के विषय में शास्त्र का प्रमाण दिया ही जा चुका है। अब प्रात: स्नान का वर्णन किया जा रहा है। प्रातः स्नान में विशेषता यह है कि रात्रि भर चन्द्रामृत से जो चन्द्रमा की किरणें जल में प्रवेश करती हैं, उसके प्रभाव से जल पुष्ट हो जाता है। सूर्योदय होने पर वह सब गुण सूर्य की किरणों द्वारा आकृष्ट हो जाता है; अत: जो व्यक्ति सूर्योदय के पूर्व स्नान करेगा. वही जल के अमृतमय कणों का लाभ उठा सकेगा।जो लोग आलस्यवश नित्य स्नान नहीं करते उन्हें स्नान के गुण व लाभ समझ लेने चाहिये और नित्य प्रातः स्नान अवश्य करना चाहिये।

प्रातःकाल का नित्य स्नान

गुणा दश स्नान दश स्नान परस्य मध्येरूपं च तेजश्च बलं च शौचम् ।आयुष्यमारोग्यमलोलुपत्वं दुःस्वप्तघातश्च तपश्चमेधा ॥(दक्षस्मृति २।१४)

जो मानव स्नान में तत्पर होत है उसमें यह दश गुण विद्यमान होते है रूप,पुष्टता,बल,तेज,आरोग्य,अवस्था,दुस्वप्न का नाश,धातु की वृद्धि,तप और बुद्धि।

वस्त्रधारण विधि

ब्राह्ममुहूर्त में जागरण स्नानादि के अनन्तर वस्त्र धारण का भी मानव जीवन में घनिष्ठ सम्बन्ध है । वैदिक काल से ही शरीर ढकने हेतु वस्त्रों का उपयोग होता हुआ आ रहा है। प्रचीन काल में वृक्षों के पत्ते ,छाल, कुशादि घास एवं मृगचर्मादि का भी साधन बनाकर शरीर ढकने हेतु वस्त्ररूप में उपयोग हुआ करता था।वस्यते आच्छाद्यतेऽनेनेति वस्त्रम् -जिसके द्वारा (शरीर को) आच्छादित किया जाता है उसे वस्त्र (परिधान)कहते हैं।सनातनी परम्परा में ब्रह्मचारी,स्नातक,गृहस्थ,सन्न्यासी आदियों के लिये पृथक् पृथक् वस्त्रों का विधान किया गया है।

आसन विधि

उपासना ध्यानादि कर्मों को आसन पर बैठकर करना चाहिये। उपासना के समय इन्द्रियों को संयमित , मन को स्थिर तथा चित्त को एकाग्र करना होता है।अतः उपासना की क्रिया से एक प्रकार की विद्युत्धारा बहने लगती है, साधना की शक्ति केन्द्रित होकर घनीभूत हो जाती है, वह पृथ्वी पर बैठने से पृथ्वी में ही समा कर चली जाती है क्योंकि पथ्वी में आकर्षण शक्ति है तथा शरीर में भी पार्थिवतत्व की प्रधानता है, इसलिये आवश्यक है कि किसी आसन के ऊपर बैठकर ही उपासनादि कर्म किये जायें।

आस्यते उपविश्यतेऽस्मिन् इति आसनम् -जिस में (ध्यानादि कर्मों के लिये )बैठा जा सके उसे आसन कहते हैं।

कौशेयं कम्बलं चैव अजिनं पट्टमेव च । दारुजं तालपत्रं वा आसनं परिकल्पयेत्॥

अनु - कुश, कम्बल, मृगचर्म, व्याघ्रचर्म और रेशमका आसन जपादिके लिये विहित है ॥

उपर्युक्त आसनों में पूर्वोक्त आसनों की महत्ता अधिक है यथा कुश आसन सर्वश्रेष्ठ है कुशाभाव में कम्बल अनन्तर क्रमशः आसनों का उपयोग किया जा सकता है। शास्त्रों में वर्णन किया गया है इन आसनों पर बैठकर साधना करने से आरोग्य, लक्ष्मी प्राप्ति, यश और तेज की वृद्घि होती है। साधकों की एकाग्रता भी भंग नहीं होती है अतःआसनों का उपयोग उपासना के समय इन्द्रियों को संयमित तथा मन को स्थिर और चित्त को एकाग्र करने के लिये अवश्य करना होता है।

भस्मादितिलक धारण विधि

सनातन धर्म में प्रायः सभी व्यक्ति भस्म तिलक या गुरुपरम्परा अनुसार चन्दन धारण करते हैं यह भी महत्वपूर्ण नियम है। गङ्गा, मृत्तिका या गोपी-चन्दनसे ऊर्ध्वपुण्ड्र, भस्मसे त्रिपुण्ड्र और श्रीखण्डचन्दनसे दोनों प्रकारका तिलक कर सकते हैं। किंतु उत्सवकी रात्रिमें सर्वाङ्गमें चन्दन लगाना चाहिये।

भस्म तिलक विना सत्कर्म सफल नहीं हो पाते । तिलक बैठकर लगाना चाहिये। अपने-अपने आचारके अनुसार मिट्टी, चन्दन और भस्म-इनमें से किसीके द्वारा तिलक लगाना चाहिये। किंतु भगवान्पर चढ़ानेसे बचे हुए चन्दनको ही लगाना चाहिये बगैर भगवान को लगाये स्वयं नहीं लगाना चाहिये। अँगूठेसे नीचेसे ऊपरकी ओर ऊर्ध्वपुण्ड्र लगाकर तब त्रिपुण्ड्र लगाना चाहिये।भस्मधारणसे तेजकी रक्षा रहती है। उससे शीत नहीं लगता, तभी तो साधु सब अङ्गों में भस्म लगाकर शीतकालकी रात्रियोंको बिता दिया करते हैं।

बहुत सारे व्यक्तियों की आशङ्का होती है कि-

भस्म लगानेसे रोमकूप बन्द हो जाएंगे उस दशामें कार्बानिक गैस (विषाक्त वायु) भीतर से बाहर न जा सकेगा और ऑक्सिजन गैस (प्राणप्रद वायु) बाहरसे भीतर न जा सकेगी। तब भस्म लगानेवाला बीमार पड़ जाएगा। पर यह आशङ्का व्यर्थ है । भस्म स्वयं ऑक्सिजन वायुको खींचकर भीतर प्राप्त कराती है। और भीतरी दूषित विकारोंको बाहर कर देती है।

वैज्ञानिक अंश

भस्ममें पोटास, सोडा, चूना, मैगनेशिया, लोहभस्म, एल्यूमिना, सिलकनभस्म आदि अनेक गुणकारी पदार्थ मिले हुए होते हैं। इसलिए भस्म तेजकी रक्षा करती है, रोम कूपोंको खोलती है, दुर्गन्ध वा मलको नष्ट करती है, खराब वायुको बाहर निकालती है, शुद्ध वायुको अन्दर लाती है, जठराग्नि (भूख) को बढ़ाती है, त्वचाको स्वच्छ करती है, ब्रण वा ज़ख्मको शुद्ध करती है, विष हटाती है, कृमियोंको दूर करती है; ज्वर, सर्दी, वातपित्त, शूल, रक्तविकार, बीमारी, प्लेगरोग, त्वचारोग और उदर रोगोंको नष्ट करती है।

दुर्गन्ध दूर करना यह भस्मका स्वाभाविक गुण है। विकृत जलमें भस्मके डालनेसे उसका दुर्गन्ध दूर होता है । भस्मसे बिच्छूका विष भी दूर होता है। भस्मसे आयु भी बढ़ती है इसका कारण यह है कि हमारी आयु हमारे तेज पर आश्रित है।जब तक तेज सुरक्षित है। तब तक तेज बढ़ता है । भस्म तेजको स्थिर करती है अतः इससे आयु बढती है।

आध्यात्मिक दृष्टि से तिलक धारण सात्विक भाव को उत्पन्न करता हुआ भगवद् भक्ति की ओर और भी अधिक प्रेरित करता है।

योग-क्रिया-सम्बद्ध एक विशेष रहस्य यह है कि भृकुटी के बीच में मस्तक के नीचे 'आज्ञा' नामक एक चक्र है, उस स्थान पर चन्दन लगाने से वह चक्र शीघ्र जागृत होकर उसका भेदन हो जाता है। जो साधक की साधना में लाभदायक है। इसी प्रकार कण्ठ में चन्दन लगाने से 'विशुद्ध चक्र' का, हृदय में लगाने से 'अनाहत चक्र' का एवं नाभिस्थान में लगाने से 'मणिपूर' आदि चक्रों का जागरण एवं भेदन होता है और उनमें सहायता प्राप्त होती है। इसीलिए उक्त स्थानों में चन्दन लगाया जाता है।

वैज्ञानिक दृष्टि से भी चन्दन लगाना स्वास्थ्य के लिये लाभदायक है। यह संक्रामक रोगों का नाशक है। इसकी सुगन्ध से दूषित कीटाणु दूर होते हैं, मन प्रसन्न रहता है तथा अन्य लोगों पर भी इसकी सुगन्ध का प्रभाव पड़ता है। चन्दन लगाने वाले व्यक्ति के मुख की कान्ति चमकती है, शोभा बढ़ती है और मुंहासे आदि का भी प्रकोप नहीं होता। शरीर के विभिन्न अंगों में लगाने के कारण दुर्गन्ध को नाश करता हुआ यह स्वास्थ्य प्रदान करता है।

संध्योपासन विधि

स्नान के पश्चात् सन्ध्यावन्दनादि का क्रम शास्त्रों में कहा गया है। यह उपनयन संस्कार होने के बाद द्विजों के लिये नित्य क्रिया है। इससे बड़ा लाभ है। संध्या मुख्यतः प्रातः मध्यान्ह और सायान्ह इन तीन भागों में विभाजित है। रात्रि या दिन में जो भी अज्ञानकृत पोप होता है वह सन्ध्या के द्वारा नष्ट हो जाता है तथा अन्त:करण निर्मल, शुद्ध और पवित्र हो जाता है। वैसे भी देखिये कि किसी मशीन को चलाने तथा ठीक गतिशील रखने के लिये हमें उसकी सफाई रखनी पड़ती ही है चाहे जितनी सावधानी बरती जाय अन्तःकरण में नित्य के व्यवहार से कुछ न कुछ मलिनता आती ही है, अतः सन्ध्योपासन द्वारा उसका निवारण करना परम कर्तव्य है। घर में अगर झाड़ न लगाई जाय तो कूड़ा आ ही जाता है, शरीर में प्रतिक्षण मैल वनता ही रहता है और वह इन्द्रियों द्वारा निकलता रहता है इसी प्रकार अन्त:करण का मैल सन्ध्याद्वारा दूर होता है । सन्ध्या से दीर्घ आयु, प्रज्ञा, यश, कीर्ति तथा ब्रह्मतेज की प्राप्ति होती है ।


मनु जी कहते हैं-

ऋषयो दीर्घ सन्ध्यत्वाद् दीर्घमायुरवाप्नुयुः। प्रज्ञां यशश्च कीतिश्च ब्रह्मवर्चसमेव च॥

इस प्रकार हमें शारीरिक शक्ति, बौद्धिकबल, ब्रह्मतेज तथा यश की प्राप्ति भी इसके द्वारा होती है। नित्य सन्ध्या करने से ध्यान द्वारा हम परमात्मा से सम्पर्क स्थापित करते हैं। संध्या में आसन पर बैठकर प्राणायाम के द्वारा रोग और पाप का नाश होता है। कहा गया है--

आसनेन रुजंहन्ति प्राणायामेन पातकम्।

इस शरीर रूपी यन्त्र में सन्ध्या द्वारा हमें, शारीरिक शुद्धि, मानसिक पवित्रता तथा बौद्धिक प्रखरता और ब्रह्मवर्चस के साथ साथ आध्यात्मिक शक्ति की प्राप्ति होती है। सन्ध्या के बाद गायत्री जप का विधान है। इससे बुद्धि को प्रेरणा मिलती है।

गायत्री वेदमाता है, यह बुद्धि को प्रेरणा देने वाली, तेजस्वरूप ज्ञान प्रदायिनी है। इसके जप से बड़ी शक्ति प्राप्त होती है। लौकिक सिद्धियां भी गायत्री के अनुष्ठान से प्राप्त हो जाती हैं।

गायत्री के समय उपासना तो हो ही जाती है। जिस प्रकार अग्नि में पड़ने से लोहा धीरे धीरे गरम हो जाता है उसी प्रकार गायत्री के दिव्य तेज को धारण करके साधक ब्रह्मतेज से परिपूर्ण हो जाता है, उसके सारे कलुष विध्वंस हो जाते हैं। उसका चेहरा तेज से चमचमाने लगता है। जिस प्रकार सूर्य की किरणें धूप में बैठे हुए व्यक्ति पर पड़ती हैं और धीरे धीरे उसकी उष्णता का प्रवेश उसमें होने लगता है उसी प्रकार गायत्री माता की ज्योतिर्मयी शक्ति और तेज साधक के शरीर, मन और बुद्धि पर पड़ता है।

इस प्रकार सन्ध्या में कर्म, उपासना, ज्ञान, प्राणायाम, जप तथा ध्यान आदि की सभी क्रियायें सम्पन्न हो जाती हैं और नित्य का विधान होने से मनुष्य उसके द्वारा सभी लाभ उठा लेता है।

सन्ध्या वन्दन की क्रिया के साथ साथ फिर सूर्य को अर्घ्य दान की बात सनातन धर्म शास्त्र में कही गयी है। उसमें भी बड़ा रहस्य है।

पंचमहायज्ञ

सामान्यतः लौकिक जीवनमें स्वयंके भविष्यको हवनसे, त्रैविद्य नामक व्रतसे, ब्रह्मचर्यावस्थामें देवर्षि-पितृसँवारनेके लिये सन्ध्यावन्दनका विधान किया गया है, तर्पण आदि क्रियाओंसे, गृहस्थाश्रममें पुत्रोत्पादनसे, महायज्ञोंसे कुटुम्ब एवं परिवारकी समृद्धिके निमित्त देवपूजाकी और ज्योतिष्टोमादि यज्ञोंसे यह शरीर ब्रह्मप्राप्तिके योग्य व्यवस्था की गयी है। जबकि ऋणमुक्ति एवं समृद्धिहेतु, बनाया जाता है। उत्कृष्ट संस्कार पानेके लिये, नैतिकता-सदाचार-सद्व्यवस्था इन यज्ञोंको और स्पष्ट करते हुए मनुस्मृति (३।६०)और सद्व्यवहारके लिये गृहस्थ जीवनमें पंचमहायज्ञोंका में कहा गया है अनुष्ठान-विधान अनिवार्य अंगके रूपमें निर्दिष्ट है। धर्म कर्ममय जीवनमें यह एक आवश्यक कर्तव्य है, जिसका विधान ब्राह्मण-आरण्यक-गृह्यसूत्र-धर्मसूत्र आदिमें पाया अर्थात् वेदका अध्ययन और अध्यापन करना जाता है।

अध्यापनं ब्रह्मयज्ञः पितृयज्ञस्तु तर्पणम्। होमो दैवो बलिआँतो नृयज्ञोऽतिथिपूजनम्॥

पंचमहायज्ञमें विधाता, ऋषि-मुनि, पितर, जीव- ब्रह्मयज्ञ है, तर्पण करना पितृयज्ञ है, हवन करना देवयज्ञ जन्तु, समाज, मानव यहाँतक कि सम्पूर्ण ब्रह्माण्डके प्रति है, बलिवैश्वदेव करना भूतयज्ञ है तथा अतिथियोंका अपने कर्तव्योंका पालन मुख्य उद्देश्य होता है। दूसरे अर्थमें सत्कार करना नृयज्ञ है। कहें, तो पंचमहायज्ञोंमें नैतिकता-आध्यात्मिकता-प्रगतिशीलता वैदिक कालसे ही इन पंचमहायज्ञोंके सम्पादनकी एवं सदाशयता देखनेको मिलती है।

व्यवस्था चली आयी है। ये पाँचों महायज्ञ महासत्रके समान हमारा यह पांचभौतिक शरीर पृथ्वी, जल, तेज, आकाश हैं। शतपथब्राह्मण (११।५।६।१)-में कहा गया है किऔर वायु-इन पंचभूत पदार्थों से बना है और अन्तमें इन्हींमें 'पञ्चैव महायज्ञाः । तान्येव महासत्राणि भूतयज्ञो मनुष्ययज्ञः विलीन भी हो जाता है। आकाशसे वायु, वायुसे सूर्य अर्थात् पितृयज्ञो देवयज्ञः ब्रह्मयज्ञ इति।' केवल शतपथमें ही तेज, सूर्यसे जल एवं जलसे पृथ्वी बनती है- नहीं, अपितु तैत्तिरीय आरण्यक, आश्वलायनगृह्यसूत्र, 'आकाशाज्जायते वायुः वायोरुत्पद्यते रविः। रवेरुत्पद्यते पराशरमाधवीय, बौधायनधर्मसूत्र, गौतम-गोभिलस्मृति आदि तोयं तोयादुत्पद्यते मही।' इनमेंसे एकका भी अभाव हो अनेकों प्राचीन एवं आर्षग्रन्थोंमें इन पंचमहायज्ञोंका वर्णन तो जीवन नष्ट हो जाता है। पेड़-पौधोंका भी हमारे जीवनको प्राप्त होता है, जिनके आधारपर संक्षेपमें यही कहा जा बनाने-सुधारनेमें अमिट योगदान है, यहाँतक कि कीट- सकता है कि जब अग्निमें आहुति दी जाती है तो उसे पतंग, जलचर-नभचरसे भी जीवन अनुप्राणित होता है। देवयज्ञका नाम दिया जाता है। प्रतिदिन स्वाध्याय अर्थात् इन सबका भी हमारे ऊपर ऋण है। स्वाभाविक है कि वेदकी अपनी शाखाका अध्ययन, वेदपाठ-'ब्रह्मयज्ञ' ऋण देनेवाले भी हमसे कुछ-न-कुछ अपेक्षाएँ रखते हैं। कहलाता है। जब पितरोंको स्वधा दी जाती है, उनका श्राद्ध इनके प्रति हमारा भी कुछ कर्तव्य बनता है। सारे विश्वके या पार्वण किया जाता है, जलमात्रसे भी यदि तर्पण किया प्राणी एक ही सृष्टि-जीवके द्योतक हैं, अतः सबमें आदान- जाता है, तो 'पितृयज्ञ' बन जाता है। इसी तरह अतिथियों, प्रदानका सिद्धान्त नितान्त स्थित है। इस हेतु भी हम पंचमहायज्ञ ब्राह्मणोंको भोजन कराना जहाँ 'मनुष्ययज्ञ' होता है, वहीं करनेके लिये प्रेरित हुए। जिसके पीछे भक्ति-कृतज्ञता- जीवोंको बलि दिये जानेसे भोजनका ग्रास या पिण्ड अर्पित सम्मान-प्रियस्मृति-उदारता-सहिष्णुता आदिकी भावनाएँ भी किये जानेसे 'भूतयज्ञ' कहलाता है। काम करती हैं

भोजन विधि

सनातन धर्म में आचार विचार,आहार तथा व्यवहार इन चार विषयों पर बहुत महत्व दिया है इनमें आहार(भोजन)विधि के बारे में बहुत महत्व दिया गया है जिस प्रकार का अन्न खाया जाता है उसी प्रकार की बुद्धि भी बनती है।आहार सात्विक होगा, तो मन भी सात्विक होगा और जब मन सात्विक होगा तब विचार भी सात्विक होंगे और क्रमशः फिर क्रिया भी सात्विक होगी। सात्विक भोजन से शरीर स्वस्थ एवं चित्त प्रसन्न रहता है। अधिक कटु, उष्ण, तीक्ष्ण एवं रुक्ष आहार राजस कहा गया है । बासी, रसहीन, दुर्गन्धियुक्त, जूठा और अपवित्र आहार तामस कहा गया है ।

श्रीमद् भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि-

बलारोग्य सुखप्रीति विवर्धनाः। रस्याः स्निग्धा: स्थिरा हृद्या आहाराः सात्विक प्रियाः॥

कट्वम्ल लवणात्युष्ण तीष्ण रूक्ष विदाहिनः। आहारा राजसस्येष्टा दुःख शोकामय आयुः सत्त्व प्रदाः॥

चूँकि मनुष्यके समस्त आचार-व्यवहार, चेष्टा और कर्म शरीरके माध्यमसे ही सम्पन्न किये जाते हैं, अतः मानवशरीरको परमात्माकी अनुपम कृति मानकर उसकी स्वस्थता और सुरक्षाका विशेष ध्यान रखना चाहिये। आध्यात्मिक दृष्टिसे शरीर में अवस्थित जीव (आत्मा) इसीको अपना आश्रय बनाकर अपनी जीवनयात्रा पूर्ण करता है। कर्मयोग, भक्ति और मोक्षसाधना भी इसी शरीरके माध्यमसे सम्भव है।इसके लिये इस शरीरको स्वस्थ, नीरोग और ऊर्जावान् बनाये रखना अत्यन्त आवश्यक है।शरीरको गतिशील बनाये रखनेके लिये आहारकी आवश्यकता होती है। यह आहार स्वादके साथ शरीरके उदरकी पूर्ति मात्र के लिये नहीं अपितु उसके दीर्घायु-जीवनकी कामना और आरोग्यताके लिये किया जाता है। इसी शरीरमें ईश्वरअंशरूपी जीव भी अवस्थित है, जो वैश्वानर (जठराग्नि)रूपसे प्रत्येक प्राणीद्वारा चळ, चोष्य, लेह्य और पेय इस प्रकारसे ग्रहण किये आहारको नैवेद्य-भावसे ग्रहण करता है। इस स्थितिमें ऋषि-मुनियों, आयुर्वेदाचार्यों और मनीषियोंके समक्ष अनेक प्रश्न उपस्थित हो गये; जो सात्त्विक, पवित्र, पौष्टिक और आदर्श आहारसे सम्बन्ध रखते थे। यथा-मानवशरीरके लिये श्रेष्ठ आहार कैसा हो, किन उपकरणों (भोज्य पदार्थों)का किस मात्रा और अनुपातमें संयोग किया जाय तथा किस विधिसे संस्कारित किया (पकाया) जाय, जिससे वात, पित्त तथा कफ-ये त्रिदोष उत्पन्न न हो सकें, जठराग्नि सम रहे तथा पाचनमें सुगमता हो और इन सबके फलस्वरूप तन, मन, इन्द्रिय और आत्मा प्रसन्नताका अनुभव करे। ये ही स्वस्थ मनुष्यके लक्षण माने गये हैं।

पुराणादि अवलोकन सायान्हकृत्य

Dharmik Dinacharya (धार्मिक दिनचर्या)

शयन विधि

मंत्र योग

मंत्र की साधना चेतना को परिष्कृत करती है। इसमें किसी बीजाक्षर, मंत्र या वाक्य का बार-बार पुनरावर्तन किया जाता है। विधिवत् लयबद्ध पुनरावर्तन को जाप कहते हैं। इसमें ध्वनि के उच्चारण पर विशेष ध्यान दिया जाता है। चित्त की सूक्ष्मतम तरंगें ध्वनि की तरंगें हैं। मंत्र की साधना से पहले अन्दर की सफाई होती है। अन्त में व्यक्ति उसी में एकाग्र हो जाता है। उसका मन स्थिर होने लगता है। वैदिक साधना पद्धति में, बौद्धों में मणि पद्मे हं, जैनों में नमस्कार महामंत्र, अर्हम् आदि ध्वनियों के उदाहरण हैं। उन ध्वनियों का उपयोग करना चाहिये जिनसे मन परमात्मा में लयहीन हो जाये।

तस्य वाचकः प्रणवः। तज्जपस्तदर्थभावनम् ।

पातंजल योग सूत्र के अनुसार ईश्वर का वाचक प्रणव (ओंकार) है। इसका जप करते हुये अन्त में इसके अर्थ अर्थात् परमात्म रूप हो जाना मंत्र का प्रमुख उद्देश्य है। मंत्र के जप के साथ उसके अर्थ, छन्द, ऋषि या देवता का अधिकाधिक रूप में मनन किया जाता है। तब वह शीघ्र सिद्ध होता है। मंत्र सिद्धि के द्वारा मन, मंत्र तथा आराध्य देव की पृथक्ता का बोध साधक को नहीं होता है। मन की कामना ही यज्ञ की जननी है। ऋषि जिस कामना से देवता की जिस पदार्थ का स्वामी बनने की इच्छा से स्तुति करता है, वही उस स्तुति रूप मंत्र का देवता हो जाता है।

यत्काम ऋषिर्यस्यां देवतायामार्य-पत्यमिच्छन्स्तुति प्रयुंक्ते तद्दैवतः स मन्त्रो भवति। (निरुक्त७।१)

ऋषि अर्थात् द्रष्टा अपनी कामना की अभिव्यक्ति मंत्र अर्थात् मनोबल से करता है। इच्छाएँ तो हममें भी अनन्त हैं, किन्तु हमारा मन इतना बलवान नहीं है कि इन इच्छाओं को मंग्त्र बल में बदल सके। मंत्र मनन की शक्ति है हमारा मन इतना चंचल है कि एक जगह टिककर मनन ही नहीं कर सकता। अर्थात् मंत्र शक्ति की सफलता का मूल इच्छा-शक्ति की दृढता है।[16]

चारित्रिक श्रेष्ठता

मानसिक एकाग्रता

अभीष्ट लक्ष्य में अटूट श्रद्धा

शब्द शक्ति

उद्धरण

  1. सनातन धर्म का वैज्ञानिक रहस्य,श्री बाबूलाल गुप्त,१९६६(पृ०२२)।
  2. महाभारत,स्वर्गारोहणपर्व,(अ०५ श् ० ७६)।
  3. मन्त्रपुष्पम् स्वमीदेवरूपानन्दः,रामकृष्ण मठ,खार,मुम्बई(नारायणोपनिषद ७९)पृ० ६१।
  4. श्रीमद्देवीभागवत,उत्तरखण्ड,गीताप्रेस गोरखपुर,(एकादश स्कन्ध अ० 1श्० 9/10 पृ० 654)।
  5. अष्टादश स्मृति,श्यामसुन्दरलाल त्रिपाठी,खेमराज श्रीकृष्णदास, (वशिष्ठ स्मृति०६।१) पृ०४६२।
  6. (अष्टादश स्मृति,श्यामसुन्दरलाल त्रिपाठी,खेमराज श्रीकृष्णदास, (वशिष्ठ स्मृति०६।३) पृ०४६१।
  7. अष्टादश स्मृति,श्यामसुन्दरलाल त्रिपाठी,खेमराज श्रीकृष्णदास, (वशिष्ठ स्मृति०६।७) पृ०४६१।
  8. श्रीविष्णुधर्मोत्तरे तृ० ख०(अध्यायाः २४६-२५०)।
  9. धर्मशास्त्र का इतिहास,उत्तरप्रदेश हिन्दी संस्थान,डॉ०पाण्डुरंग वामन काणे,१९९२(पृ०३३४)।
  10. पं० लालबिहारी मिश्र,नित्यकर्म पूजाप्रकाश,गीताप्रेस गोरखपुर (पृ० २४)।
  11. पं०लालबिहारी मिश्र,नित्यकर्म पूजाप्रकाश,गीताप्रेस गोरखपुर (पृ० १४)।
  12. श्री दयानन्द सरस्वती,व्यवहारभानु,अजमेरनगर वैदिकयन्त्रालय,पृ० १४।
  13. श्री राधेश्याम खेमका,जीवनचर्या अंक,गीताप्रेस गोरखपुर,२०१० (पृ०१५)।
  14. पं०लालबिहारी मिश्र,नित्यकर्म पूजाप्रकाश,गीताप्रेस गोरखपुर (पृ० ७)।
  15. पं०लालबिहारी मिश्र,नित्यकर्म पूजाप्रकाश,गीताप्रेस गोरखपुर (पृ० १४)।
  16. श्री शशांक शेखर शुल्व, यज्ञ विधानम्, सनातन पूजा विज्ञान, वाराणसीः पिल्ग्रिम्स पब्लिशिंग अध्याय-भूमिका, (पृ०2)।