Karana in Panchanga (पंचांग में करण)
पंचांग के अन्तर्गत करण का पञ्चम स्थान में समावेश होता है। तिथि का आधा भाग करण होता है। करण दो प्रकार के होते हैं। एक स्थिर एवं द्वितीय चलायमान। स्थिर करणों की संख्या ४ तथा चलायमान करणों की संख्या ७ है। इस लेख का मुख्य उद्देश्य करण ज्ञान, करण का मान एवं साधन।
परिचय
भारतवर्ष में पंचांगों का प्रयोग भविष्यज्ञान तथा धर्मशास्त्र विषयक ज्ञान के लिये होता चला आ रहा है। जिसमें लुप्ततिथि में श्राद्ध का निर्णय करने में करण नियामक होता है। अतः करण का धार्मिक तथा अदृश्य महत्व है। श्राद्ध, होलिका दाह, यात्रा और अन्यान्य शुभ कर्मों एवं संस्कारों में करण नियन्त्रण ही शुभत्व को स्थिर करता है। तिथि चौबीस घण्टे की स्थिति को बतलाती है।
करण के भेद
कृष्णपक्ष की चतुर्दशी के उत्तरार्ध भाग में शकुनि तथा अमावस्या के प्रथमार्ध भाग में चतुष्पद, द्वितीयार्ध में नाग एवं शुक्लपक्ष की प्रतिपदा के प्रथमार्ध में किंस्तुघ्न ये नियामक करण हैं। इनका स्थान निर्धारोत है और ये चान्द्रमास में एक बार ही आते हैं। चर या चल करण के रूप में सात करणों के सन्दर्भ तथा चार ध्रुव(स्थिर) करणों के सन्दर्भ में सूर्यसिद्धान्त में इस प्रकार उल्लेख प्राप्त होता है-
ध्रुवाणि शकुनिर्नागः तृतीयं तु चतुष्पदम् । किंस्तुघ्नं च चतुर्दश्यां कृष्णाया अपरार्धतः॥ ववादीनि तथा सप्त चराख्यकरणानि तु। मासेऽष्टकृत्व एकैकं करणं परिवर्तते। तिथ्यर्धभोगं सर्वेषां करणानां प्रचक्षते॥(सू०सि०)
करणों के प्रकार
चर करण-
ववाह्वयं वालव कौलवाख्यं ततो भवेत्तैतिलनामधेयम् । गराभिधानं वणिजं च विष्टिरित्याहुरार्या करणानि सप्त॥(बृह०अव०)
अर्थ- वव, वालव, कौलव, तैतिल, गर वणिज और विष्टि ये सात चर करण होते हैं।
स्थिर करण
कृष्णपक्ष चतुर्दश्याः शकुनिः पश्चिमे दले। नागश्चैव चतुष्पादस्त्वमावस्यादलद्वये॥ शुक्लप्रतिपदायान्तु किंस्तुघ्नः प्रथमे दले। स्थिराण्येतानि चत्वारि करणानि जगुर्बुधा॥(बृह०अव०)
अर्थ- कृष्णपक्ष की चतुर्दशी के उत्तरार्द्ध में शकुनि, अमावस्या के पूर्वार्द्ध में नाग, उत्तरार्द्ध में चतुष्पद और शुक्ल प्रतिपदा के पूर्वार्द्ध में किंस्तुघ्न- ये ४ स्थिर करण हैं।
करण जानने का प्रकार
वर्तमानतिथेर्व्येकाद्विघ्नी सप्तावशेषकम् । तिथेः पूर्वार्द्धकरणं तत् सैकं स्यात्परे दले॥(बृह०अव०)
एक तिथि में दो करण होते हैं वर्तमान तिथि में करण जानने के लिये वर्तमान तिथि को दूना कर एक घटाकर सात का भाग दें, शेष वर्तमान तिथि के पूर्वार्द्ध में ववादि करण होते हैं। शेष में एक जोड देने पर तिथि के उत्तरार्द्ध में करण होते हैं।
शुक्लपक्ष | कृष्णपक्ष | |||
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क्र०सं० | प्रथमार्ध | उत्तरार्ध | प्रथमार्ध | उत्तरार्ध |
१ | किंस्तुघ्न | वव | बालव | कौलव |
२ | बालव | कौलव | तैतिल | गर |
३ | तैतिल | गर | वणिज | विष्टि |
४ | वणिज | विष्टि | वव | वालव |
५ | वव | वालब | कौलव | तैतिल |
६ | कौलव | तैतिल | गर | वणिज |
७ | गर | वणिज | विष्टि | वव |
८ | विष्टि | वव | वालव | कौलव |
९ | वालव | कौलव | तैतिल | गर |
१० | तैतिल | गर | वणिज | विष्टि |
११ | वणिज | विष्टि | वव | वालव |
१२ | वव | वालब | कौलव | तैतिल |
१३ | कौलव | तैतिल | गर | वणिज |
१४ | गर | वणिज | विष्टि | शकुनि |
१५ | विष्टि | वव | चतुष्पद | नाग |
करणों का प्रयोजन
प्रश्नशास्त्र, केरल, यात्रा तथा शुभाशुभ कार्य में शुभाशुभ समय निर्धारण तथा सूक्ष्म गणना में इसका प्रयोजन है। कर्मकाण्ड तथा धार्मिक अनुष्ठान भी इससे संबद्ध हैं।
करणों में विहित कर्म
वव- इसमें शुभकर्म, पशुकर्म, धान्यकर्म, स्थिर कर्म, पुष्टिकर्म, धातु संबन्धी कर्म करना चाहिये। प्रस्थान एवं प्रवेश संबंधी कर्म शुभ होते हैं।
बालव- इसमें धार्मिक कार्य, मांगलिक कार्य, उत्सव कार्य, वास्तुकर्म, राज्याभिषेक तथा संग्रामकार्य करना चाहिये। यज्ञ, उपनयन और विवाह करना शुभ होता है।
कौलव- इसमें हाथी, अश्व, ऊँट का संग्रह, हथियार, उद्यान, वृक्षारोपण कर्म करना चाहिये। बालव में प्रतिपादित कर्म भी कौलव में करना चाहिये।
तैतिल- इसमें सौभाग्यवर्धक कर्म, वेदाध्ययन, संधि-विग्रहकर्म, यात्रा, क्रय-विक्रय, तडाग-वापी-कूप खनन कर्म करना चाहिये। राजसेवकों के लिये शुभ है।
गर- इसमें कृषि कर्म, बीजवपन, गृहनिर्माण, कर्म करना चाहिये।
वणिज- इसमें स्थिरकार्य, व्यवसाय संबन्धी कर्म, योग-संयोग संबंधी कर्म करना चाहिये।
विष्टि- इस विष्टि(भद्रा) में शुभ कर्म न करके अशुभ कर्म करना चाहिये। जैसे- वध, बन्धन, घात, षट्कर्म, विषकर्म आदि।
शकुनि- इसमें औषधि कर्म, पुष्टि कर्म, मूलकर्म एवं मंत्रकर्म करना चाहिये।
चतुष्पद- इसमें गोक्रय-विक्रय, पितृकर्म तथा राज्यकर्म करना चाहिये।
नाग- इसमें स्थिरकर्म, कठिनकर्म, हरण एवं अवरोध संबंधी कर्म करना चाहिये।
किंस्तुघ्न- इसमें स्थिरकर्म, वृद्धिकर्म, पुष्टिकर्म, मांगलिककर्म तथा सिद्धि कर्म करना चाहिये।