Jyotisha (ज्योतिष)
ज्योतिषशास्त्रके द्वारा आकाशमें स्थित ग्रह नक्षत्र आदि की गति, परिमाण, दूरी आदिका निश्चय किया जाता है। प्रायः समस्त भारतीय विज्ञान का लक्ष्य एकमात्र अपनी आत्माका विकासकर उसे परमात्मा में मिला देना या तत्तुल्य बना लेना है। दर्शन या विज्ञान सभी का ध्येय विश्व के अनसुलझे रहस्य को सुलझाना है। ज्योतिष भी विज्ञान होने के कारण समस्त ब्रह्माण्ड के रहस्य को व्यक्त करनेका प्रयत्न करता है। ज्योतिषशास्त्रका अर्थ प्रकाश देने वाला या प्रकाशके सम्बन्ध में बतलाने वाला शास्त्र होता है। अर्थात् जिस शास्त्रसे संसार का मर्म, जीवन-मरण का रहस्य और जीवन के सुख-दुःख के सम्बन्ध में पूर्ण प्रकाश मिले वह ज्योतिषशास्त्र है। भारतीय परम्परा के अनुसार ज्योतिष शास्त्र की उत्पत्ति ब्रह्माजी के द्वारा हुई है। ऐसा माना जाता है कि ब्रह्माजी ने सर्वप्रथम नारदजी को ज्योतिषशास्त्र का ज्ञान प्रदान किया तथा नारदजी ने लोक में ज्योतिषशास्त्र का प्रचार-प्रसार किया।
परिचय॥ Parichaya
ज्योतिष शास्त्र की गणना वेदाङ्गों में की जाती है। वेद अनन्त ज्ञानराशि हैं। धर्म का भी मूल वेद ही है। इन वेदों के अर्थ गाम्भीर्य तथा दुरूहता के कारण कालान्तर में वेदाङ्गों की रचना हुई। वेदपुरुष के विशालकाय शरीर में नेत्ररूप में ज्योतिष शास्त्रको परिलक्षित किया गया है।
ज्योतिषशास्त्रके प्रवर्तकके रूपमें सूर्यादि अट्ठारहप्रवर्तकोंका ऋषियोंने स्मरण किया है-
किन्तु ग्रन्थकर्ताओंके रूपमें लगधमुनि, आर्यभट्ट, लल्ल, ब्रह्मगुप्त, वराहमिहिर, श्रीपति, भास्कराचार्य आदियों के नामों का उल्लेख किया है। अन्य शास्त्रों का प्रत्यक्षीकरण सुलभ नहीं है, परन्तु ज्योतिष शास्त्र प्रत्यक्ष शास्त्र है। इसकी प्रमाणिकता के एकमात्र साक्षी सूर्य और चन्द्र हैं-
अप्रत्यक्षाणि शास्त्राणि विवादस्तेषु केवलम् । प्रत्यक्षं ज्योतिषं शास्त्रं चन्द्राऽर्कौ यत्र साक्षिणौ ॥
परिभाषा॥ Paribhasha
आकाश मण्डलमें स्थित ज्योतिः(ग्रह-नक्षत्र) सम्बन्धी विद्याको ज्योतिर्विद्या कहते हैं एवं जिस शास्त्रमें उसका उपदेश या वर्णन रहता है, वह ज्योतिष शास्त्र कहलाता है-
ज्योतिषां सूर्यादिग्रहाणां गत्यादिकं बोधकं शास्त्रम् ।
सूर्यादि ग्रहों और काल बोध कराने वाले शास्त्र को ज्योतिष-शास्त्र कहा जाता है। इसमें ग्रह, नक्षत्र, धूमकेतु एवं राशि आदि ज्योतिर्पिण्डों की गति, स्थिति, शुभाशुभ फलादि का वर्णन मिलता है। लगधाचार्यने ज्योतिष शास्त्रको- ज्योतिषाम् अयनम् ॥ अर्थात् प्रकाशादि की गति का विवेचन करने वाला शास्त्र कहा है।
ज्योतिषशास्त्र प्रवर्तक
सृष्टिकर्ता ब्रह्माजीके द्वारा वेदोंके साथ ही ज्योतिषशास्त्रकी उत्पत्ति हुई। यज्ञोंका सम्पादन काल ज्ञानके आधारपर ही सम्भव होता है अतः यज्ञकी सिद्धिके लिये ब्रह्माजीने काल अवबोधक ज्योतिषशास्त्रका प्रणयनकर अपने पुत्र नारदजी को दिया। नारदजीने ज्योतिषशास्त्रके महत्व समझते हुये लोकमें इसका प्रवर्तन किया। नारदजी कहते हैं-
विनैतदखिलं श्रौतं स्मार्तं कर्म न सिद्ध्यति। तस्माज्जगद्धितायेदं ब्रह्मणा रचितं पुरा॥(नारद संहिता १/७)
ज्योतिषशास्त्रके ज्ञानके विना श्रौतस्मार्त कर्मोंकी सिद्धि नहीं होती। अतः जगत् के कल्याणके लिये ब्रह्माजीने प्राचीनकालमें इस शास्त्रकी रचना की। ज्योतिषकी आर्ष संहिताओं में ज्योतिषशास्त्रके अट्ठारह कहीं कहीं उन्तीस आद्य आचार्यों का परिगणन हुआ है, उनमें श्रीब्रह्माजी का नाम प्रारम्भमें ही लिया गया है। नारदजीके अनुसार अट्ठारह प्रवर्तक इस प्रकार हैं-
ब्रह्माचार्यो वसिष्ठोऽत्रर्मनुः पौलस्त्यरोमशौ। मरीचिरङ्गिरा व्यासो नारदो शौनको भृगुः॥ च्यवनो यवनो गर्गः कश्यपश्च पराशरः। अष्टादशैते गम्भीरा ज्योतिश्शास्त्रप्रवर्तकाः॥(नारद संहिता)
महर्षि कश्यपने आचार्योंकी नामावली इस प्रकार निरूपित की है-
सूर्यः पितामहो व्यासो वसिष्ठोऽत्रिः पराशरः। कश्यपो नारदो गर्गो मरीचिर्मनुरङ्गिराः॥ लोमशः पौलिशश्चैव च्यवनो यवनो भृगुः। शौनकोऽष्टादशाश्चैते ज्योतिःशास्त्रप्रवर्तकाः॥(काश्यप संहिता)
पराशरजीके मतानुसार-
विश्वसृङ् नारदो व्यासो वसिष्ठोऽत्रिः पराशरः। लोमशो यवनः सूर्यः च्यवनः कश्यपो भृगुः॥पुलस्त्यो मनुराचार्यः पौलिशः शौनकोऽङ्गिराः। गर्गो मरीचिरित्येते ज्ञेया ज्यौतिःप्रवर्तकाः॥
पराशरजीके अनुसार पुलस्त्यनामके एक आद्य आचार्य भी हुये हैं इस प्रकार ज्योतिषशास्त्रके प्रवर्तक आचार्य उन्नीस हैं।
ज्योतिषशास्त्र की उपयोगिता
मनुष्यके समस्त कार्य ज्योतिषके द्वारा ही सम्पादित होते हैं। व्यवहारके लिये अत्यन्त उपयोगी दिन, सप्ताह, पक्ष, मास, अयन, ऋतु, वर्ष एवं उत्सवतिथि आदि का परिज्ञान इसी शास्त्रसे होता है।
नवग्रहों का इतिहास ब्रह्नाण्डकी उत्पत्ति के साथ ही प्रारम्भ होता है। ब्रह्माण्ड में स्थित ग्रह अपनी विशेषताओं के कारण मनुष्यों के आकर्षण का केन्द्र रहे हैं। ग्रह नक्षत्रों के स्वरूपको जाननेके लिये प्राचीन काल से ही प्राणि जगत् में जिज्ञासा देखी गई है। इसीलिये वेद, ब्राह्मण आदि समस्त संस्कृत-वाग्मय में ग्रह संबंधित तथ्य प्राप्त होते हैं।
नवग्रह की परिभाषा
ग्रह धातु में अच् प्रत्यय लगाने से निष्पन्न ग्रह शब्द के अर्थ हैं- पकडना, ग्रहण, प्राप्त करना, चुराना, ग्रहण लगाना एवं सूर्यादि नवग्रह आदि।
गृह्णाति गतिविशेषानिति यद्वा गृह्णाति फलदातृत्वेन जीवानिति॥
अर्थात् जो गति विशेषों को ग्रहण करता है या फलदातृत्व द्वारा जीवों का ग्रहण करता है उसे ग्रह कहा जाता है। मुख्यतः इनकि संख्या नव होने के कारण ये नवग्रह कह लाते हैं।
परिचय
ज्योतिष शास्त्र का इतिहास
ज्योतिष की उपयोगिता
त्रिगुणात्मक प्रकृति के द्वारा निर्मित समस्त जगत् एवं ग्रह सत्व, रज एवं तमोमय है। ज्योतिषशास्त्र के अनुसार जिन ग्रहों में सत्व गुण आधिक्य वशात् अमृतमय किरणें, रजोगुण आधिक्य वशात् उभयगुण मिश्रित किरणें एवं तमोगुण आधिक्य वशात् विषमय-किरणें
ग्रहण॥ Eclipse
ग्रहण खगोलीयपिण्डों के भ्रमण वश आकाशमें उत्पन्न होने वाली एक अद्भुत घटना है। इससे अश्रुतपूर्व, अद्भुत ज्योतिष्क-ज्ञान और ग्रह उपग्रहोंकी गतिविधि एवं स्वरूपका परिस्फुट परिचय प्राप्त हुआ है। ग्रहोंकी यह घटना भारतीय मनीषियोंको अत्यन्त प्राचीनकालसे अभिज्ञात रही है और इसपर धार्मिक तथा वैज्ञानिक विवेचन धार्मिक ग्रन्थों और ज्योतिष-ग्रन्थोंमें होता चला आया है। महर्षि अत्रिमुनि ग्रहण-ज्ञानके उपज्ञ (प्रथम ज्ञाता) आचार्य थे। ऋग्वेदीय प्रकाशकालसे ग्रहणके ऊपर अध्ययन, मनन और स्थापन होते चले आये हैं। गणितके बलपर ग्रहणका पूर्ण पर्यवेक्षण प्रायः पर्यवसित हो चुका है, जिसमें वैज्ञानिकोंका योगदान भी महत्वपूर्ण है।
परिचय ॥ Introduction
सूर्यः सोमो महीपुत्रः सोमपुत्रो बृहस्पतिः। शुक्रः शनैश्चरो राहुः केतुश्चेति ग्रहाः स्मृताः॥
सूर्य, चन्द्र, महीपुत्र(मंगल), सोमपुत्र(बुध), बृहस्पति, शुक्र, शनि, राहु तथा केतु ग्रह कहे जाते हैं। भा
व्युत्पत्तिः|| Etymology
ग्रहयुद्ध
ग्रहण का धार्मिक महत्व॥
ग्रहण कालकी अवधि
एक मासमें दो ग्रहण
ग्रहण की स्थितियाँ
पात वा राहु केतु विचार
यत् त्वा सूर्य स्वर्भानुस्तमसाविध्यदासुरः। अक्षेत्रविद्यथा मुग्धो भुवनान्यदीधयुः ॥ स्वर्भानोरध यदिन्द्र माया अवो दिवो वर्तमाना अवाहन्। सूर्यं तमसापव्रतेन तुरीयेण गूळ्हं ब्रह्मणाविन्ददत्रिः ॥(ऋक्० ५/४०/५-६)
अगले एक मन्त्रमें यह आता है कि 'इन्द्रने अत्रिकी सहायतासे ही राहुकी मायासे सूर्यकी रक्षा की थी।' इसी प्रकार ग्रहणके निरसनमें समर्थ महर्षि अत्रिके तप:सन्धानसे समुद्भूत अलौकिक प्रभावोंका वर्णन वेदके अनेक मन्त्रोंमें प्राप्त होता है। किंतु महर्षि अत्रि किस अद्भुत सामर्थ्यसे इस अलौकिक कार्यमें दक्ष माने गये, इस विषयमें दो मत हैं-प्रथम परम्परा-प्राप्त यह मत कि वे इस कार्यमें तपस्याके प्रभावसे समर्थ हुए और दूसरा यह कि वे कोई नया यन्त्र बनाकर उसकी सहायतासे ग्रहणसे उन्मुक्त हुए सूर्यको दिखलानेमें समर्थ हुए। यही कारण है कि महर्षि अत्रि ही भारतीयों ग्रहणके प्रथम आचार्य (उपज्ञ) माने गये।
भारतीय ज्योतिषके अनुसार सभी ग्रह पृथ्वी के चारों ओर वृत्ताकार कक्षाओं में भ्रमण करते हैं। भूकेन्द्रसे इन कक्षाओं की दूरी भी विलक्षण है। अर्थात् ग्रह कक्षाओं का केन्द्र बिन्दु पृथ्वी पर नहीं है।
ज्योतिष शास्त्र में सृष्टि विषयक विचार
ब्रह्माण्ड एवं अन्तरिक्ष से संबंधित प्रश्न मानव मात्र के लिये दुविधा का केन्द्र बने हुये हैं, परन्तु समाधान पूर्वक ज्योतिष शास्त्र के अनुसार इस सृष्टि की उत्पत्ति का कारण एकमात्र सूर्य हैं। अंशावतार सूर्य एवं मय के संवाद से स्पष्ट होता है कि समय-समय पर ज्योतिष शास्त्र का उपदेश भगवान् सूर्य द्वारा होता रहा है-
श्रणुष्वैकमनाः पूर्वं यदुक्तं ज्ञानमुत्तमम् । युगे युगे महर्षीणां स्वयमेव विवस्वता॥ शास्त्रमाद्यं तदेवेदं यत्पूर्वं प्राह भास्करः। युगानां परि वर्तेत कालभेदोऽत्र केवलः॥(सू० सि० मध्यमाधिकार,८/९)
पराशर मुनिने भी संसार की उत्पत्ति का कारण सूर्यको ही माना है।(बृ०पा०हो० ४)
भारतीय ज्योतिष एवं पंचांग
ज्योतिष एवं वृक्ष
भारतभूमि प्रकृति एवं जीवन के प्रति सद्भाव एवं श्रद्धा पर केन्द्रित मानव जीवन का मुख्य केन्द्रबिन्दु रही है। हमारी संस्कृतिमें स्थित स्नेह एवं श्रद्धा ने मानवमात्र में प्रकृति के साथ सहभागिता एवं अंतरंगता का भाव सजा रखा है। हमारे शास्त्रों में मनुष्य की वृक्षों के साथ अंतरंगता एवं वनों पर निर्भरता का विस्तृत विवरण प्राप्त होता है। हमारे मनीषियों ने अपनी गहरी सूझ-बूझ तथा अनुभव के आधार पर मानव जीवन, खगोल पिण्डों तथा पेड-पौधों के बीच के परस्पर संबन्धों का वर्णन किया है।
परिचय
पर्यावरण को हरा-भरा और प्रदूषण मुक्त बनाये रखने में वृक्षों का महत्वपूर्ण योगदान है। ज्योतिषशास्त्र में वृक्षों को देवताओं और ग्रहों के निमित्त लगाकर उनसे शुभफल प्राप्त किये जाने का उल्लेख प्राप्त होता है। शास्त्रों में एक वृक्ष सौ पुत्रों से भी बढकर बताया है क्योंकि वृक्ष जीवन पर्यन्त अपने पालक को समान एवं निःस्वार्थ भाव से लाभ पहुँचाता रहता है।
शुभ मुहूर्त में वृक्षारोपण
ग्रह शान्ति एवं वृक्ष
ग्रहशान्ति के यज्ञीय कार्यों में सही पहचान के अभाव में अधिकतर लोगों को सही वनस्पति नहीं प्राप्त हो पाती, इसलिये नवग्रह वृक्षों को धार्मिक स्थलों के पास रोपित करना चाहिये जिससे यज्ञ कार्य के लिये लोगों को शुद्ध सामग्री मिल सके।
अर्चन-पूजन के लिये इन वृक्ष वनस्पतियों के सम्पर्क में आने पर भी ग्रहों के कुप्रभावों की शान्ति होती है अतः ग्रह शान्ति से वृक्षों का संबंध होने से वृक्षारोपण का महत्व और बढ जाता है।
हवन समिधा एवं वृक्ष
यज्ञ द्वारा ग्रह शान्ति के उपाय में हर ग्रह के लिये अलग-अलग विशिष्ट वनस्पति की समिधा(हवन काष्ठ) प्रयोग की जाती है, जैसा कि निम्न श्लोक में वर्णित है-
अर्कःपलाशःखदिरश्चापामार्गोऽथ पिप्पलः। औडमबरः शमी दूर्वा कुशश्च समिधः क्रमात् ॥(गरुड पुराण)
अर्थात् अर्क, पलाश, खदिर, अपामार्ग, पीपल, गूलर, शमी, दूब और कुश क्रमशः नवग्रहों की समिधायें हैं।
दान हेतु वृक्ष
नक्षत्र वन
नक्षत्र वृक्षों का वर्णन नारदसंहिता, शारदातिलक, विद्यार्णवतन्त्र, नारदपुराण, मन्त्रमहार्णव और राजनिघण्टु आदि ग्रन्थों में विस्तार से किया गया है। बृहत्सुश्रुत व नारायणार्नव नामक ग्रन्थों में भी नक्षत्र वृक्षों का विस्तार से वर्णन किये जाने का संकेत राजनिघण्टु में प्राप्त होता है।
ज्योतिषीय महत्व
नारद पुराण के अनुसार- जिस नक्षत्र में शनि विद्यमान हो उस समय उस नक्षत्र संबंधी वृक्ष का यत्नपूर्वक स्थापन, संवर्धन एवं पूजन करना चाहिये।
नारद संहिता के अनुसार- सुख शान्ति के लिये अपने जन्म नक्षत्र सबंधी वृक्ष की पूजा करनी चाहिये।
क्रम सं० | नक्षत्र | वृक्ष का हिन्दी नाम | वृक्ष का वैज्ञानिक नाम |
---|---|---|---|
1 | अश्विनी | आंवला | Emblica officinalis |
2 | भरणी | यमक(युग्म वृक्ष) | Ficus spp. |
3 | कृत्तिका | उदुम्बर(गूलर) | Ficus glomerata |
4 | रोहिणी | जम्बु(जामुन) | Syzygium cumini |
5 | मृगशिरा | खदिर(खैर) | Acacia catechu |
6 | आर्द्रा | कृष्णप्लक्ष(पाकड) | Ficus infectoria |
7 | पुनर्वसु | वंश(बांस) | Dendrocalamus/Bambusa spp |
8 | पुष्य | पिप्पल(पीपल) | Ficus religiosa |
9 | आश्लेषा | नाग(नागकेसर) | Mesua ferrea |
10 | मघा | वट(बरगद) | Ficus bengalensis |
11 | पूर्वाफाल्गुनी | पलाश | Butea monosperma |
12 | उत्तराफाल्गुनी | अक्ष(रुद्राक्ष) | Elaeocarpus gantirus |
13 | हस्त | अरिष्ट(रीठा) | Sapindus mukorrossi |
14 | चित्रा | श्रीवृक्ष(बेल) | Aegle marmelos |
15 | स्वाती | अर्जुन | Terminelia arjuna |
16 | विशाखा | विकंकत | Flacourtia indica |
17 | अनुराधा | बकुल(मॉल श्री) | Mimusops elengi |
18 | ज्येष्ठा | विष्टि(चीड) | Pinus roxburghii |
19 | मूल | सर्ज्ज(साल) | Shorea robusta |
20 | पूर्वाषाढा | वंजुल(अशोक) | Saraca indica |
21 | उत्तराषाढा | पनस(कटहल) | Artocarpus heterophyllus |
22 | श्रवण | अर्क(अकवन) | Calotropis procera |
23 | धनिष्ठा | शमी | Prosopis spicigera |
24 | शतभिषा | कदम्ब | Anthocephlus cadamba |
25 | पूर्वाभाद्रपदा | आम | Magnifera indica |
26 | उत्तराभाद्रपदा | पिचुमन्द(नीम) | Azadirachta indica |
27 | रेवती | मधु(महुआ) | Madhuca indica |
नवग्रह और वृक्ष
पृथ्वी से आकाश की ओर देखने पर आसमान में स्थिर दिखने वाले पिण्डों/छायाओं को, नक्षत्र और स्थिति बदलते रहने वाले पिण्डों/छायाओं को ग्रह कहते हैं। ग्रह का अर्थ है पकडना। सम्भवतः अन्तरिक्ष से आने वाले प्रवाहों को पृथ्वी पर पहुँचने से पहले ये पिण्ड और छायायें उन्हैं टी०वी० के अन्टीना की तरह आकर्षित कर पकड लेती हैं और पृथ्वी के जीवधारियों के जीवन को प्रभावित करती हैं।
क्रम सं० | ग्रह नाम | वृक्ष का हिन्दी नाम | वृक्ष का वैज्ञानिक नाम |
---|---|---|---|
1 | सूर्य | श्वेत अर्क(सफेद मदार) | Calotropis |
2 | चन्द्रमा | पलाश(ढाक) | Butea monosperma |
3 | मंगल | खदिर(खैर) | Acacia catechu |
4 | बुध | अपामार्ग(चिचिडा) | Achyranthus Aspera |
5 | बृहस्पति | अश्वत्थ(पीपल) | Ficus Religiosa |
6 | शुक्र | उदुम्बर(गूलर) | Ficus Racemosa |
7 | शनि | शमी(छ्योकर) | Prosopis Cenneraria |
8 | राहु | दूर्बा(दूब) | Cynodon Dactylon |
9 | केतु | कुशा(दर्भ) | Imperata cylindrica |
आक(मदार)- ढाक(पलास)-खदिर(खैर)-अपामार्ग(चिचिडा)-पिप्पल(पीपल)-औडम्बर(गूलर)-शमी(छ्योकर)-दूर्वा(दूब)-कुशा(दर्भ)।
राशि एवं वृक्ष
क्रम सं० | राशि का नाम | वृक्ष का हिन्दी नाम | वृक्ष का वैज्ञानिक नाम |
---|---|---|---|
1 | मेष(Arise) | रक्तचंदन | Peterocarpus santalinus |
2 | वृष(Taurus) | धतवन् | Alstonia scholaris |
3 | मिथुन(Gemini) | कटहल | Artocarpus heterophyllus |
4 | कर्क(Cancer) | पलास | Butea manosperma |
5 | सिंह(Leo) | वादल | Stereospermum chelenoides |
6 | कन्या(Virgo) | आम | Mangifera indica |
7 | तुला(Libra) | मॉलश्री | Mimusops elengi |
8 | वृश्चिक(Scorpio) | खैर | Acacia catechu |
9 | धनु(Sagittarius) | पीपल | Ficus religiosa |
10 | मकर(Capricornus) | कालाशीसम | Dalbergia latifolia |
11 | कुम्भ(Aquarius) | शमी | Prosopis spicigera |
12 | मीन(Pisces) | बरगद | Ficus bengalensis |
औषधि वन
प्रायः नक्षत्र, ग्रह या राशि वन तो यहाँ-वहाँ प्रयत्न करने पर उपलब्ध हो जाते हैं किन्तु औषधि वन नहीं देखे जाते हैं। वर्तमान समय में सामान्य जनमानस को औषधि संबंधि जानकारी नहीं रहने के कारण अपने आस-पास उपलब्ध जडी-बूटियों के संबर्द्धन की भावना भी नहीं हो पाती है। जन मानस को औषधीय पौधों के संबंध में अपेक्षित जानकारी उपलब्ध कराने तथा उनकी पहचान के उद्देश्य से औषधिवन की स्थापना करनी चाहिये। इन्हैं वृक्ष प्रकृति के अनुरूप स्थलीय एवं जलीय भागों में विभक्त कर लगाना चाहिये। वृक्ष स्थापना के अनन्तर पौधे का नाम, वानस्पतिक नाम एवं किन-किन बीमारियों में उनका उपयोग होता है, ये उद्धरित होने से यहां से जानकारी प्राप्त कर अधिकाधिक लोग इसका लाभ उठा पायेंगे। वर्तमान के अतिवैज्ञानिक युग में भी अतिगम्भीर बीमारियों के उपचार हेतु औषधि युक्त पौधों की प्रासंगिकता एलोपैथी की तुलना में कुछ कम नहीं हैं। यदि आवश्यकता है तो सिर्फ एक जानकार व्यक्ति की जिन्हैं इन पौधों के द्वारा होने वाअले उपचार की अच्छी जानकारी हो।
वास्तु शास्त्र में वृक्षों का महत्व
वास्तु शास्त्र के अनुसार प्रतिकूल वृक्षों को यदि ग्रह अनुकूलता हेतु अज्ञानतावश लगा देते हैं तो उन वृक्षों के द्वारा उत्पन्न होने वाला नकारात्मक प्रभाव
पर्यावरणीय महत्व
प्रत्येक वृक्ष के अपने अलग-अलग सूक्ष्म पर्यावरणीय प्रभाव होते हैं।किन्तु अकेले में ये एकांगी व अधूरे होते हैं। सभी नक्षत्र वन, नवग्रह वन या राशि वनों के वृक्षों को एक साथ लगाने से इनके सूक्ष्म प्रभावों में संतुलन स्थापित रहता है, जो कि हर किसी के लिये लाभकारी होता है। अतः पर्यावरण में कल्याणकारी सन्तुलन स्थापित करने के लिये समस्त ग्रह, राशि एवं नक्षत्र संबन्धित वृक्षों को एक साथ स्थापित करना चाहिये।
वृक्षों से लाभ
वृक्षायुर्वेद
वृक्षारोपण का महत्व
प्रदूषण रोधक वृक्ष और औषधियाँ
सन्दर्भ
वेदाङ्गज्योतिष॥ Vedanga Jyotisha
ज्योतिष वेदका एक अङ्ग हैं। अङ्ग शब्दका अर्थ सहायक होता है अर्थात् वेदोंके वास्तविक अर्थका बोध करानेवाला। तात्पर्य यह है कि वेदोंके यथार्थ ज्ञानमें और उनमें वर्णित विषयोंके प्रतिपादनमें सहयोग प्रदान करनेवाले शास्त्रका नाम वेदांङ्ग है। वेद संसारके प्राचीनतम धर्मग्रन्थ हैं, जो ज्ञान-विज्ञानमय एवं अत्यन्त गंभीर हैं। अतः वेदकी वेदताको जानने के लिये शिक्षा आदि छः अङ्गोंकी प्रवृत्ति हुई है। नेत्राङ्ग होनेके कारण ज्योतिष का स्थान सर्वोपरि माना गया है। वेदाङ्गज्योतिष ग्रन्थ में यज्ञ उपयोगी कालका विधान किया गया है। वेदाङ्गज्योतिष के रचयिता महात्मा लगध हैं। उन्होंने ज्योतिषको सर्वोत्कृष्ट मानते हुये कहा है कि-
यथा शिखा मयूराणां नागानां मणयो यथा। तद्वद्वेदाङ्ग शास्त्राणां ज्योतिषं मूर्ध्नि संस्थितम् ॥( वेदाङ्ग ज्योतिष)
अर्थ- जिस प्रकार मयूर की शिखा उसके सिरपर ही रहती है, सर्पों की मणि उनके मस्तकपर ही निवास करती है, उसी प्रकार षडङ्गोंमें ज्योतिषको सर्वश्रेष्ठ स्थान प्राप्त है। भास्कराचार्यजी ने सिद्धान्तशिरोमणि ग्रन्थमें कहा है कि-
वेदास्तावत् यज्ञकर्मप्रवृत्ता यज्ञाः प्रोक्ताः ते तु कालाश्रेण। शास्त्राद्यस्मात् कालबोधो यतः स्यात्वेदाङ्गत्वं ज्योतिषस्योक्तमस्मात् ॥(सिद्धान्त शोरोमणि)
वेद यज्ञ कर्म में प्रयुक्त होते हैं और यज्ञ कालके आश्रित होते हैं तथा ज्योतिष शास्त्र से कालकाज्ञान होता है, इससे ज्योतिष का वेदाङ्गत्व सिद्ध होता है।
ज्योतिषशास्त्र के भेद
ज्योतिषशास्त्र को सर्वप्रथम गणित एवं फलितके रूप मे स्वीकार किया गया है। गणित एवं फलितको त्रिस्कन्ध के रूप में जाना जाता है, जो सिद्धान्त, संहिता व होरा इन तीन भागोंमें विभाजित हैं। संहिता एवं होरा फलितज्योतिष के अन्तर्गत ही आते हैं। इस प्रकार ज्योतिष शास्त्र के मुख्यतः दो ही स्कन्ध हैं- गणित एवं फलित।
गणितशास्त्र – गणितशास्त्र गणना शब्द से बना है। जिसका अर्थ गिनना है। परन्तु गणना के बिना कोई भी क्रिया आसानी से सम्पन्न नहीं हो सकती। गणितशास्त्र का हमारे भारतीय आचार्यों ने दो भेद किया है-
- व्यक्त गणित- अंक गणित, रेखागणित (ज्यामिति), त्रिकोणमिति, चलन कलनादि माने जा सकते हैं।
- अव्यक्त गणित- में बीजगणित (अलज़ेबरा) कहा जाता है।
व्यक्त गणित में अंकों द्वारा गणित क्रिया करके जोड़, घटाव, गुणा, भाग, वर्ग, वर्गमूल, घन, घनमूल, गुणन खण्ड तथा अन्य आवश्यक गणितीय क्रियाएँ की जाती हैं। आजकल आधुनिक जगत् में गणित का विस्तार अनेक रूपों में किया गया है । हमारे वेदों में भी वैदिक गणित बताया गया है । वैदिक मैथमेटिक्स की पुस्तकें भी प्रकाशित हैं ।[1]
फलित ज्योतिष- फलादेश कथन की विद्या का नाम फलित ज्योतिष है। शुभाशुभ फलोंको बताना ही इस शास्त्र का परम लक्ष्य रहा है। इसकी भी अनेक विधाएँ आज प्रचलित हैं। जैसे चिकित्सा शास्त्र का मूल आयुर्वेद है परन्तु आज होमोपैथ तथा एलोपैथ भी प्रचलित हैं और इन विधाओं के द्वार भी रोगमुक्ति मिलती है। उसी तरह फलित ज्योतिष की भी कई विधाएँ जिनके द्वारा शुभाशुभ फल कहे जाते हैं। ये विधाएँ मुख्यतः निम्नलिखित हैं-
- जातकशास्त्र – मानव के आजन्म मृत्युपर्यन्त समग्र जीवन का भविष् ज्ञान प्रतिपादक फलित ज्योतिष का नाम जातक ज्योतिष है । वाराह नारचन्द्र, सिद्धसेन, ढुण्ढिराज, केशव, श्रीपति, श्रीधर आदि होरा ज्योतिष आचार्य हैं ।
- संहिता ज्योतिष - संहिता ज्योतिष में सूर्य, चन्द्र, राहु, बुध, गुरु शुक्र, शनि, केतु, सप्तर्षिचार, कूर्म नक्षत्र, ग्रहयुद्ध, ग्रहवर्ष, गर्भ लक्षण गर्भधारण, सन्ध्या लक्षण, भूकम्प, उल्का, परिवेश, इन्द्रायुध् रजोलक्षण, उत्पाताध्याय, अंगविद्या, वास्तुविद्या, वृक्षायुर्वेद, प्रसादलक्षण वज्रलेप (छत बनाने का मसाला), गो, महिष, कुत्ता, अज, हरि काकशकुन, श्वान, शृगाल, अश्व, हाथी प्रभृति जीवों की चेष्टाएं आदि भवि ज्ञान के साथ सुन्दर भोजन, निर्माण के विविध प्रकार (पाकशास्त्र) आ विषयों का जिस शास्त्र से ज्ञान किया जाता है वह फलित ज्योतिष का संहि ज्योतिष कहा गया है।
- मुहूर्त्तशास्त्र – मुहूर्त्त शास्त्र फलित ज्योतिष का वह अंग है जिस द्वारा जातक के कथित संस्कारों के मुहूर्त्त, नामकरण, भूमि उपवेशन, कटि बन्धन, अन्नप्राशन, मुण्डन, उपनयन, समावर्त्तन आदि संस्कारों के समय ज्ञान किया जाता है।
- ताजिकशास्त्र – मानव के आयु में प्रत्येक नवीन वर्ष प्रवेश का समय का ज्ञानकर तदनुसार कुण्डली द्वारा वर्ष पर्यन्त प्रत्येक दिन, मास का फल ज्ञान प्रतिपादन फलित ज्योतिष का ताजिकशास्त्र कहलाता है।
- रमलशास्त्र – इस शास्त्र के अन्तर्गत पाशा डालने की प्रक्रिया होती है । इसके द्वारा फल कथन की विधि का नाम रमलशास्त्र है।
- स्वरशास्त्र – स्वस्थ मनुष्य के स्वांस निःसरण के द्वारा दक्षिण या वाम स्वांस गति की जानकारी कर फलादेश किया जाता है । इसे फलितशास्त्र में स्वरशास्त्र नाम से कहा जाता है ।
- अंग विद्या – शरीर के अवयवों को देखकर जैसे ललाट, मस्तक, बाहु तथा वक्ष को देखकर फलादेश किया जाता है । साथ ही हाथ या पैर की रेखाएँ भी देख कर फलादेश कहने की विधि को अंग विद्या (पामेस्ट्री) के नाम से कहा जाता है।
- प्रश्नशास्त्र – आकस्मिक किसी समय की ग्रहस्थितिवश भविष्यफल ज्ञापक शास्त्र का नाम प्रश्न ज्योतिष है । इसका सम्बन्ध मनोविज्ञान से भी है । इसी का सहयोगी केरल ज्योतिष भी है।
इस प्रकार हमारे फलित ज्योतिष के अनेकों विभाग हैं जिसके द्वारा फल कथन किया जाता है। इन सभी शाखाओं का मूलस्त्रोत ग्रहगणित है। इस ग्रहगणित स्कन्ध को सिद्धान्त स्कन्ध भी कहा जाता है। ज्योतिष कल्पवृक्ष का मूल ग्रहगणित है जो खगोल विद्या से जाना जाता है। अंकगणित, बीजगणित, रेखागणित, त्रिकोणमिति गणित, गोलीय रेखागणित इस स्कन्ध के अन्तर्गत आते हैं। किसी भी अभीष्ट समय के क्षितिज, क्रान्तवृत्त सम्पात रूप लग्न बिन्दु के ज्ञान से विश्व के चराचर जीवों का, मानव सृष्टि में उत्पन्न जातक को शुभाशुभ ज्ञान की भूमिका होती है । इस प्रकार ज्योतिष की महिमा वेद, वेदाङ्ग तथा पुराण एवं धर्मशास्त्रों में सर्वत्र उपलब्ध है।
त्रिस्कन्ध ज्योतिष ॥Triskandha Jyotisha
ज्योतिषशास्त्र वेद एवं वेदांग काल में त्रिस्कन्ध के रूपमें विभक्त नहीं था, जैसा कि पूर्व में वेदाङ्गज्योतिष के विषयमें कह ही दिया गया है, लगधमुनि प्रणीत वेदाङ्गज्योतिषको ज्योतिषशास्त्रका प्रथम ग्रन्थ कहा गया है, वेदाङ्गज्योतिषमें सामूहिकज्योतिषशास्त्र की ही चर्चा की गई है। आचार्यों ने ज्योतिष शास्त्र को तीन स्कन्धों में विभक्त किया है- सिद्धान्त, संहिता और होरा। महर्षिनारद जी कहते हैं-
सिद्धान्त संहिता होरा रूपस्कन्ध त्रयात्मकम् । वेदस्य निर्मलं चक्षुः ज्योतिषशास्त्रमकल्मषम् ॥ विनैतदखिलं श्रौतंस्मार्तं कर्म न सिद्ध्यति। तस्माज्जगध्दितायेदं ब्रह्मणा निर्मितं पुरा॥(नारद पुराण)
अर्थात सिद्धान्त, संहिता और होरा तीन स्कन्ध रूप ज्योतिषशास्त्र वेदका निर्मल और दोषरहित नेत्र कहा गया है। इस ज्योतिषशास्त्र के विना कोई भी श्रौत और स्मार्त कर्म सिद्ध नहीं हो सकता। अतः ब्रह्माने संसारके कल्याणार्थ सर्वप्रथम ज्योतिषशास्त्रका निर्माण किया।
सिद्धान्त स्कन्ध
यह स्कन्ध गणित नाम से भी जाना जाता है। इसके अन्तर्गत त्रुटि(कालकी लघुत्तम इकाई) से लेकर कल्पकाल तक की कालगणना, पर्व आनयन, अब्द विचार, ग्रहगतिनिरूपण, मासगणना, ग्रहों का उदयास्त, वक्रमार्ग, सूर्य वा चन्द्रमा के ग्रहण प्रारंभ एवं अस्त ग्रहण की दिशा, ग्रहयुति, ग्रहों की कक्ष स्थिति, उसका परिमाण, देश भेद, देशान्तर, पृथ्वी का भ्रमण, पृथ्वी की दैनिक गति, वार्षिक गति, ध्रुव प्रदेश आदि, अक्षांश, लम्बांश, गुरुत्वाकर्षण, नक्षत्र, संस्थान, अन्यग्रहों की स्थिति, भगण, चरखण्ड, द्युज्या, चापांश, लग्न, पृथ्वी की छाया, पलभा, नाडी, आदि विषय सिद्धान्त स्कन्ध के अन्तर्गत आते हैं।
सिद्धान्तके क्षेत्रमें पितामह, वसिष्ठ, रोमक, पौलिश तथा सूर्य-इनके नामसे गणितकी पॉंचसिद्धान्त पद्धतियॉं प्रमुख हैं, जिनका विवचन आचार्यवराहमिहिरने अपने पंचसिद्धान्तिका नामक ग्रन्थमें किया है।
- आर्यभट्टका आर्यभट्टीयम् महत्त्वपूर्ण गणितसिद्धान्त है। इन्होंने पृथ्वीको स्थिर न मानकर चल बताया। आर्यभट्ट प्रथमगणितज्ञ हुये और आर्यभट्टीयम् प्रथम पौरुष ग्रन्थ है।
- आचार्य ब्रह्मगुप्तका ब्रह्मस्फुटसिद्धान्त भी अत्यन्त प्रसिद्ध है।
प्रायः आर्यभट्ट एवं ब्रह्मगुप्तके सिद्धान्तोंको आधार बनाकर सिद्धान्त ज्योतिषके क्षेत्रमें पर्याप्त ग्रन्थ रचना हुई। पाटी(अंक) गणितमें लीलावती(भास्कराचार्य) एवं बीजगणितमें चापीयत्रिकोणगणितम् (नीलाम्बरदैवज्ञ) प्रमुख हैं।
संहिता होरा
ज्योतिष शास्त्र के दूसरे स्कन्ध संहिता का भी विशेष महत्त्व है। इन ग्रन्थों में मुख्यतः फलादेश संबंधी विषयों का बाहुल्य होता है। आचार्य वराहमिहिरने बृहत्संहिता में कहा है कि जो व्यक्ति संहिता के समस्त विषयों को जानता है, वही दैवज्ञ होता है।
संहिता ग्रन्थों में भूशोधन, दिक् शोधन, मेलापक, जलाशय निर्माण, मांगलिक कार्यों के मुहूर्त, वृक्षायुर्वेद, दर्कागल, सूर्यादि ग्रहों के संचार, ग्रहों के स्वभाव, विकार, प्रमाण, गृहों का नक्षत्रों की युति से फल, परिवेष, परिघ, वायु लक्षण, भूकम्प, उल्कापात, वृष्टि वर्षण, अंगविद्या, पशु-पक्षियों तथा मनुष्यों के लक्षण पर विचार, रत्नपरीक्षा, दीपलक्षण नक्षत्राचार, ग्रहों का देश एवं प्राणियों पर आधिपत्य, दन्तकाष्ठ के द्वारा शुभ अशुभ फल का कथन आदि विषय वर्णित किये जाते हैं। संहिता ग्रन्थों में उपरोक्त विषयों के अतिरिक्त एक अन्य विशेषता होती है कि इन ग्रन्थों में व्यक्ति विषयक फलादेश के स्थान पर राष्ट्र विषयक फलादेश किया जाता है।
होरा स्कन्ध
यह ज्योतिषशास्त्र का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण स्कन्ध है। व्यवहार की दृष्टिसे यह जनसामान्यमें सर्वाधिक लोकप्रिय है। इसे जातक शास्त्र भी कहते हैं। होरा शब्द की उत्पत्ति अहोरात्र शब्द से हुई है। अहोरात्र शब्द के प्रथम तथा अन्तिम शब्द का लोप होने से होरा शब्द की उत्पत्ति हुई है। इस शास्त्र के अन्तर्गत मनुष्य की जन्मकालीन गृहस्थिति या तिथि नक्षत्रादि के द्वारा उसके जीवन के सुख-दुःख आदि का निर्णय किया जाता है। आचार्य वराहमिहिर के अनुसार होराशास्त्र में राशि, होरा, द्रेष्काण, नवांश, द्वादशांश, त्रिंशांश, ग्रहों का बलाबल, ग्रहों की दिक्काल, चेष्टादि अनेक प्रकार का बल, ग्रहों की प्रकृति, धातु, द्रव्य, जाति चेष्टा, अरिष्ट, आयुर्दाय, दशान्तर्दशा, अष्टकवर्ग, राजयोग, चान्द्रयोग, नाभसयोग, आश्रययोग, तात्कालिक प्रश्न, शुभाशुभ निमित्त वा चेष्टाएं, विवाह आदि विषयों का उल्लेख एवं इनका सागोंपाग विवेचन किया जाता है।
कालान्तर में त्रिस्कन्ध पञ्चस्कन्ध में विभक्त हो गया और उपरोक्त के अतिरिक्त इसमें प्रश्न और शकुन नामक दो स्कन्ध और सम्मिलित हो गये हैं-
प्रश्नस्कन्ध
शकुनस्कन्ध
ज्योतिष एवं आयुर्वेद॥ Jyotisha And Ayurveda
ज्योतिष एवं आयुर्वेद का संबन्ध जैसे संसार में भाई-भाई का सम्बन्ध है। आयुर्वेद में दैव एवं दैवज्ञ दोनों का महत्त्व प्रतिपादित किया गया है। इन दोनों की उत्तमता का योग हो तो निश्चित रूप से सुखपूर्वक दीर्घायुकी प्राप्ति होती है। इसके विपरीत हीन संयोग दुःख एवम अल्पायु के कारण बनते हैं। इन्हींके आधार पर आयुका मान नियत किया जाता है-
दैवेदचेतरत् कर्म विशिष्टेनोपहन्यते। दृष्ट्वा यदेके मन्यन्ते नियतं मानमायुषः॥( चरक विमा० ३। ३४)
आयुर्वेद के अनुसार सृष्टिके शक्तिपुञ्ज अदृश्य होते हुये भी गर्भाधान क्रिया, कोशीय संरचना एवं विकसित होते भ्रूणपर बहुत गहरा प्रभाव डालते हैं। गर्भाधानके समय आकाशीय शक्तियॉं भ्रूणके गुण-संगठन एवं जीन्स-संगठनपर पूर्ण प्रभाव डालती है। इसीलिये भारतीय परम्परा में गर्भाधान आदि सोलह संस्कार विहित हैं जो कि ज्योतिष के मध्यम से एक निहित शुभ काल में किये जाते हैं जिससे आकशीय शक्तिपुञ्जों का दुष्प्रभाव पतित न हो।
जन्मलग्न के द्वारा यह ज्ञात हो सकता है कि बच्चेमें किन आधारभूत तत्त्वों की कमी रह गई है। ज्योतिषशास्त्र के ज्ञान के आधार पर ज्योतिषी पहले ही सूचित कर देते हैं शिशु को इस अवस्था में ये रोग होगा। ग्रहदोषके अनुसार ही विभिन्न वनौषधियां ग्रह बाधा का निवारण करती हैं। शरीरमें वात,पित्त एवं कफ की मात्राका समन्वय रहनेपर ही शरीर साधारणतया स्वस्थ बना रहता है अतः स्वस्थ शरीर के लिये व्याधियों के ज्ञान पूर्वक उपचार हेतु ज्योतिष एवं आयुर्वेद शास्त्र का ज्ञान होना आवश्यक है।
उद्धरण॥ References
- ↑ श्रीरामचन्द्र पाठक, बृहज्जातकम् , ज्योति हिन्दी टीका, वाराणसीः चौखम्बा प्रकाशन (पृ०११-१३)।