64 Kalas of ancient India (प्राचीन भारत में चौंसठ कलाऍं)
कला भारतीय शिक्षाप्रणाली का महत्त्वपूर्ण भाग हुआ करता है। शिक्षामें कलाओंकी शिक्षा महत्त्वपूर्ण पक्ष है जो मानव जीवन को सुन्दर, प्राञ्जल एवं परिष्कृत बनाने में सर्वाधिक सहायक हैं। कला एक विशेष साधना है जिसके द्वारा मनुष्य अपनी उपलब्धियों को सुन्दरतम रूप में दूसरों तक सम्प्रेषित कर सकने में समर्थ होता है। कलाओंके ज्ञान होने मात्र से ही मानव अनुशासित जीवन जीने में अपनी भूमिका निभा पाता है। विद्यार्थी अपने अध्ययन काल में गुरुकुल में इनका ज्ञान प्राप्त करते हैं। इनकी संख्या चौंसठ होने के कारण इन्हैं चतुष्षष्टिः कला कहा जाता है।
परिचय॥ Introduction
भारतवर्ष ने हमेशा ज्ञान को बहुत महत्व दिया है। प्राचीन काल में भारतीय शिक्षाका क्षेत्र बहुत विस्तृत था। कलाओंमें शिक्षा भी महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है कलाओं के सम्बन्ध में रामायण, महाभारत, पुराण नीतिग्रन्थ आदि में विस्तृत वर्णन प्राप्त होता है। भारतके ज्ञान परंपरा की बात करते हुए कपिल कपूर कहते हैं- ''भारत की ज्ञान परंपरा गंगा नदी के प्रवाह की तरह प्राचीन और अबाधित है''।[1]शुक्राचार्यजी के नीतिसार नामक ग्रन्थ के चौथे अध्याय के तीसरे प्रकरण में सुन्दर प्रकार से सीमित शब्दों में विवरण प्राप्त होता है। उनके अनुसार कलाऍं अनन्त हैं उन सभी का परिगणनन भी क्लिष्ट है परन्तु उनमें 64 कलाऍं प्रमुख हैं। सभी मनुष्योंका स्वभाव एकसा नहीं होता, किसी की प्रवृत्ति किसी ओर तो किसी की किसी ओर होती है। जिसकी जिस ओर प्रवृत्ति है, उसी में अभ्यास करने से कुशलता शीघ्र प्राप्त होती है।
प्राचीन भारतके शिक्षा पाठ्यक्रमकी परंपरा हमेशा 18 प्रमुख विद्याओं (ज्ञान के विषयों) और 64 कलाओं की बात करती है। ज्ञान और क्रिया के संगम के विना शिक्षा अपूर्ण मानी जाती रही है। ज्ञान एवं कला के प्रचार में गुरुकुलों की भूमिका प्रधान रही है एवं ऋषी महर्षि सन्न्यासी आदि भ्रमणशील रहकर के ज्ञान एवं कला का प्रचार-प्रसार किया करते रहे हैं। गुरुकुल में अध्ययनरत शिक्षार्थियों की मानसिकता उसके परिवार से न बंधकर एक बृहद् कुल की भावना से जुडी हुई होती है जिसके द्वारा वह ज्ञान एवं कला लोकोपयोगी सिद्ध हुआ करता है।
दर्शन का शाब्दिक अर्थ है "एक दृष्टिकोण" जो ज्ञान की ओर ले जाता है। जब यह ज्ञान, एक विशेष डोमेन के बारे में एकत्र किया जाता है, तो इसे चिंतन के उद्देश्यों के लिए व्यवस्थित और व्यवस्थित किया जाता है। चिंतनम् (प्रतिबिंब) और अध्ययन (अध्यापनम् | शिक्षाशास्त्र) यह विद्या (विद्या | अनुशासन) की स्थिति प्राप्त करता है।
ज्ञान से संबंधित सभी चर्चाओं में तीन शब्द दिखाई देते हैं।
- दर्शनम् ॥ Darshana
- ज्ञानम् ॥ Jnana
- विद्या ॥ Vidya
गुरुकुलों में अध्ययन करने वाले शिक्षार्थियों में उच्च नैतिकता एवं जैसा कि पुराण महाभारत आदि में गुरु वसिष्ठ शुक्राचार्य द्रोण आदि के परम्परा में कला एवं ज्ञान आचरणीय योग्यता रखती थी।
विद्या के अट्ठारह प्रकार॥ Kinds of 18 Vidhyas
अपौरुषेय वैदिक शब्द राशि से प्रारंभ होकर प्रस्तुत काल पर्यन्त संस्कृत वाङ्मय की परम्परा पाश्चात्य दृष्टिकोण से भी विश्व की प्राचीनतम परम्परा मानी जाती है।
अष्टादश विद्याओं में शामिल हैं-
अंगानि चतुरो वेदा मीमांसा न्यायविस्तर:। पुराणं धर्मशास्त्रं च विद्या ह्येताश्चतुर्दश।।
आयुर्वेदो धनुर्वेदो गांधर्वश्चैव ते त्रयः। अर्थशास्त्रं चतुर्थन्तु विद्या ह्यष्टादशैव ताः।। (ऋग् ०भा०भूमि०)[2]
- चतुर्वेदाः- ये ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद चार वेद होते हैं।
- चत्वारः उपवेदः - ये आयुर्वेद (चिकित्सा), धनुर्वेद (हथियार), गंधर्ववेद (संगीत) और शिल्पशास्त्र (वास्तुकला) चार उपवेद होते हैं।
- चत्वारि उपाङ्गानि- पुराण, न्याय, मीमांसा और धर्म शास्त्र ये चार उपाङ्ग होते हैं।
- षड्वेदाङ्गानि- शिक्षा (ध्वन्यात्मकता), व्याकरण, छंद (परिमाण), ज्योतिष (खगोल विज्ञान), कल्प (अनुष्ठान) और निरुक्त (व्युत्पत्ति) ये छः अङ्ग होते हैं।
जहां तक कला का संबंध है, वहाँ 64 की प्रतिस्पर्धी गणनाएँ हैं।
वेदों में कलाऐं
कला के चौंसठ प्रकार॥ Kinds of 64 Kalas
प्राचिन साहित्य में पूर्णावतार परमात्मा को 64 कलाओं से युक्त कहा गया है। वात्स्यायन सूत्र एवं शुक्र नीति में कला के 64 प्रकारों का विवेचन है तथा ललित-विस्तर इसके 86 प्रभेदों का निरूपण करता है। जैन एवं बौद्ध परंपरा के ग्रन्थों में चौंसठ कलाओं की सूची मिलती है। जैन आचार्य शेखरसूरि के प्रबन्धकोष में इसके 72 प्रकारों का विश्लेषण है।
जैसा कि ऊपर उल्लेख किया गया है, 64 कलाओं की गणना के संबंध में भिन्नताएं हैं। इन कलाओं का उल्लेख इन ग्रन्थोंमें प्राप्त होता है -
- शैवतन्त्रम् ॥ Shaivatantra
- महाभारतम् (व्यास महर्षि )॥ Mahabharata by Vyasa Maharshi
- कामसूत्रम् (वात्स्यायन)॥ Kamasutra by Vatsyayana
- नाट्यशास्त्रम् (भरतमुनि)॥ Natya Shastra by Bharatamuni
- भगवतपुराणम् (टिप्पणी)॥ Bhagavata Purana (Commentary)
- शुक्रनीतिः (शुक्राचार्य)॥ Shukraneeti by Shukracharya
- शिवतत्त्वरत्नाकरः (बसवराजेन्द्र)॥ Shivatattvaratnakara by Basavarajendra
इनमें से कुछ ग्रंथों में 64 कलाओं की सूची को निम्न तालिका में जोड़ा गया है-
क्र.सं. | शैवतन्त्रम्[3][4][5] | शुक्रनीतिसारः[6][7] |
---|---|---|
1 | गीतम् - गानविद्या। | हावभावादिसंयुक्तं नर्त्तनम् - हावभाव के साथ नाचना। |
2 | वाद्यम् - भिन्न-भिन्न प्रकार के बाजे बजाना। | अनेकवाद्यविकृतौ तद्वादने ज्ञानम्- आरकेस्ट्रा में अनेक प्रकार के बाजे बजा लेना। |
3 | नृत्यम् - नाचना। | स्त्रीपुंसोः वस्त्रालंकारसन्धानम्- स्त्री और पुरुषों को वस्त्र - अलंकार पहनाने की कला। |
4 | आलेख्यम् - चित्रकारी। | अनेकरूपाविर्भावकृतिज्ञानम्- पत्थर, काठ आदि पर भिन्न-भिन्न आकृतियों का निर्माण । |
5 | विशेषकच्छेद्यम् - तिलकरचना, पत्रावलीरचना के साँचे बनाना। | शय्यास्तरणसंयोगपुष्पादिग्रथनम् - फूल का हार गूंथना और शय्या सजाना। |
6 | तण्डुलकुसुमयलिविकाराः - पूजा के लिये अक्षत एवं पुष्पों को सजाना। | द्यूताद्यनेकक्रीडाभी रञ्जनम् - जुआ इत्यादि से मनोरंजन करना |
7 | पुष्पास्तरणम् - पुष्पसज्जा। | अनेकासनसन्धानै रमतेर्ज्ञानम्- कामशास्त्रीय आसनों आदि का ज्ञान। |
8 | दशनवसनाङ्गरागाः - दाँत-वस्त्र एवं शरीर के अंगों को रंगना। | मकरन्दासवादीनां मद्यादीनां कृतिः - भिन्न-भिन्न भाँति के शराब बनाना। |
9 | मणिभूमिकाकर्म - भूमि को मणियों से सजाना। | शल्यगूढाहृतौ सिराघ्रणव्यधे ज्ञानम्- शरीर में घुसे हुए शल्य को शस्त्रों की सहायता से निकालना, जर्राही। |
10 | शयनरचनम् - शय्या की रचना। | हीनाद्रिरससंयोगान्नादिसम्पाचनम्- नाना रसों का भोजन बनाना । |
11 | उदकवाद्यम् - जल पर हाथ से इस प्रकार आघात करना कि मृदङ्ग आदि वाद्यों के समान ध्वनि उत्पन्न हो। | वृक्षादिप्रसवारोपपालनादिकृतिः- पेड़-पौधों की देखभाल, रोपाई, सिंचाई का ज्ञान । |
12 | उदकाघातः - जलक्रीड़ा के समय कलात्मक ढंग से छींटे मारना या जल को उछालना। | पाषाणधात्वादिदृतिभस्मकरणम्- पत्थर और धातुओं को गलाना तथा भस्म बनाना । |
13 | चित्रायोगाः - औषधि, मणि, मंत्र आदि के रहस्यमय प्रयोग। | यावदिक्षुविकाराणां कृतिज्ञानम्-फल के रस से मिश्री, चीनी आदि भिन्न-भिन्न चीजें बनाना। |
14 | माल्यग्रथनविकल्पाः - औषधि, मणि, मंत्र आदि के रहस्यमय प्रयोग। | धात्वोषधीनां संयोगक्रियाज्ञानम्- धातु और औषधों के संयोग से रसायनों का बनाना। |
15 | शेखरकापीडयोजनम् - शेखरक और आपीड (शिर पर धारण किये जाने वाले पुष्पाभरण) की योजना। | धातुसाङ्कर्यपार्थक्यकरणम्-धातुओं के मिलाने और अलग करने की विद्या । |
16 | नेपाथ्ययोगाः - वेश-भूषा धारण की कला। | धात्वादीनां संयोगापूर्वविज्ञानम्- धातुओं के नये संयोग बनाना । |
17 | कर्णपत्रभङ्गाः - हाथीदाँत के पत्तरों आदि से कर्णाभूषण की रचना। | क्षारनिष्कासनज्ञानम्- खार बनाना । |
18 | गन्धयुक्तिः - सुगंध की योजना। | पदादिन्यासतः शस्त्रसन्धाननिक्षेपः- पैर ठीक करके धनुष चढ़ाना और बाण फेंकना। |
19 | भूषणयोजनम् - आभूषण निर्माण की कला। | सन्ध्याघाताकृष्टिभेदैः मल्लयुद्धम्- तरह-तरह के दाँव-पेंच के साथ कुश्ती लड़ना । |
20 | ऐन्द्रजालम् - इन्द्रजाल या जादू का खेल। | अभिलक्षिते देशे यन्त्राद्यस्त्रनिपातनम्- शस्त्रों को निशाने पर फेंकना । |
21 | कौचुमारयोगाः - कुचुमारतंत्र में बताये गये वाजीकरण आदि प्रयोग। | वाद्यसंकेततो व्यूहरचनादि - बाजे के संकेत से सेना की व्यूह रचना। |
22 | हस्तलाघवम् - हाथ की सफाई। | गजाश्वरथगत्या तु युद्धसंयोजनम्- हाथी, घोड़े या रथ से युद्ध करना । |
23 | विचित्रशाकयूषभक्ष्यविकारक्रिया - नाना प्रकार के व्यंजन, यूष-सूप आदि बनाने की कला । | विविधासनमुद्राभिः देवतातोषणम्- विभिन्न आसनों तथा मुद्राओं के द्वारा देवता को प्रसन्न करना। |
24 | पानकरसरागासवयोजनम् - प्रपाणक, आराव आदि पेय बनाने की कला। | सारथ्यम् - रथ हाँकना, वाहन चलाना। |
25 | सूचीवापकर्म - वस्त्ररचना एवं कढ़ाई का शिल्प। | गजाश्वादे: गतिशिक्षा- हाथी-घोड़ों आदि की चाल सिखाना। |
26 | सूत्रक्रीडा - हाथ के सूत्र (धागा आदि) से नानाप्रकार की आकृतियॉं बुनना। | मृत्तिकाकाष्ठपाषाणधातुभाण्डादिसत्क्रिया -मिट्टी, लकड़ी पत्थर और धातु के बर्तन बनाना |
27 | वीणाडमरुकवाद्यानि - वीणा, डमरु आदि बजाना। | चित्राद्यालेखनम् - चित्र बनाना। |
28 | प्रहेलिका - पहेलियाँ बुझाना। | तटाकवापीप्रसादसमभूमिक्रिया - कुँआ, पोखरे खोदना तथा जमीन बराबर करना। |
29 | प्रतिमा* - अंत्याक्षरी। | घट्याद्यनेकयन्त्राणां वाद्यानां कृतिः - वाद्य - यन्त्र तथा पनचक्की जैसी मशीनों का बनाना। |
30 | दुर्वाचकयोगाः - कठिन उच्चारण और गूढ अर्थों वाले श्लोकों की रचना। | हीनमध्यादिसंयोगवर्णाद्यै रंजनम् - रंगों के भिन्न-भिन्न मिश्रणों से चित्र रँगना। |
31 | पुस्तकवाचनम् - पुस्तक बाँचने का शिल्प। | जलवाटवग्निसंयोगनिरोधैः क्रिया - जल, वायु, अग्नि को साथ मिलाकर और अलग-अलग रखकर कार्य करना, इन्हें बाँधना। |
32 | नाटिकाख्यायिकादर्शनम् - नाट्य एवं कथा-काव्यों का रसास्वादन। | नौकारथादियानानां कृतिज्ञानम् - नौका, रथ आदि सवारियों का बनाना। |
33 | काव्यसमस्यापूरणम् - समस्यापूर्ति। | सूत्रादिरज्जुकरणविज्ञानम्- सूत और रस्सी बनाने का ज्ञान। |
34 | पट्टिकावानवेत्रविकल्पाः - बेंत ओर बाँस का शिल्प। | अनेकतन्तुसंयोगैः पटबन्धः- सूत से कपड़ा बुनना। |
35 | तक्षकर्माणि - नक्काशी का काम। | रत्नानां वेधादिसदसद्ज्ञानम् - रत्नों की परीक्षा, उन्हें काटना- छेदना आदि। |
36 | तक्षणम् - काष्ठकर्म। | स्वर्णादीनान्तु याथार्थ्यविज्ञानम् - सोने आदि के जाँचने का ज्ञान। |
37 | वास्तुविद्या - स्थापत्य शिल्प | कृत्रिमस्वर्णरत्नादिक्रियाज्ञानम् - बनावटी सोना, रत्न (इमिटेशन) आदि बनाना। |
38 | रूप्यरत्नपरीक्षा - चाँदी-सोना आदि धातुओं तथा रत्नों की परीक्षा। | स्वर्णाद्यलंकारकृतिः - सोने आदि का गहना बनाना। |
39 | धातुवादः - धातु-शोधन, मिश्रण आदि। | लेपादिसत्कृतिः- मुलम्मा देना, पानी चढ़ाना। |
40 | मणिरागाकरज्ञानम् - मणियों को रंगना एवं उनके आकर का ज्ञान। | चर्मणां मार्दवादिक्रियाज्ञानम् चमड़े को नर्म बनाना। |
41 | वृक्षायुर्वेदयोगाः - वृक्षों के दीर्घायुष्य का शिल्प एवं उपवन लगाने की कला। | पशुचर्माङ्गनिर्हारज्ञानम्-पशु के शरीर से चमड़ा, मांस आदि को अलग कर सकना। |
42 | मेषकुक्कुटलावकयुद्धविधिः - मेष आदि पशु पक्षियों को लड़ाना। | दुग्धदोहादिघृतान्तं विज्ञानम् - दूध दुहना और उससे घी आदि निकालना। |
43 | शुकसारिकाप्रलापनम् - तोता-मैना आदि को बोलना सिखाना। | कञ्चुकादीनां सीवने विज्ञानम् - चोली आदि का सीना । |
44 | उत्सादने संवाहने केशमर्दने च कौशलम् - शरीर दबाने, सिर पर तेल लगाने आदि की कला। | जले बाह्वादिभिस्तरणम् हाथ की सहायता से तैरना। |
45 | अक्षरमुष्टिकाकथनम् - संकेत भाषा का ज्ञान। | गृहभाण्डादेर्मार्जने विज्ञानम् - घर तथा घर के बर्तनों को साफ करने में निपुणता। |
46 | म्लेच्छितकविकल्पाः - गुप्तभाषा का ज्ञान। | वस्त्रसंमार्जनम् - कपड़ा साफ करना। |
47 | देशभाषाज्ञानम् - लोकभाषाओं का ज्ञान। | क्षुरकर्म - हजामत बनाना । |
48 | पुष्पशकटिका- पुष्पों से गाड़ी आदि बनाना या सजाना। | तिलमांसादिस्नेहानां निष्कासने कृतिः-तिल और मांस आदि से तेल निकालना। |
49 | निमित्तज्ञानम् - शकुन ज्ञानम् । | सीराद्याकर्षणे ज्ञानम्-खेत जोतना, निराना आदि। |
50 | यन्त्रमातृका - यंत्ररचना का शिल्प। | वृक्षाद्यारोहणे ज्ञानम् - वृक्ष आदि पर चढ़ना। |
51 | धारणमातृका - स्मरणशक्ति बढ़ाने की कला। | मनोनुकूलसेवायाः कृतिज्ञानम् - अनुकूल सेवा द्वारा दूसरों को प्रसन्न करना । |
52 | सम्पाठ्यम् - काव्यपाठ की कला। | वेणुतृणादिपात्राणां कृतिज्ञानम् -बाँस, नरकट आदि से बर्तन आदि बना लेना। |
53 | मानसीकाव्यक्रिया - मौखिक काव्यरचना। | काचपात्रादिकरणविज्ञानम् - शीशे का बर्तन आदि बनाना। |
54 | अभिधानकोष - शब्दकोष। | जलानां संसेचनं संहरणम् - जल लाना और सींचना। |
55 | छ्न्दोज्ञानम् - छन्द का ज्ञान। | लोहाभिसारशस्त्राकृतिज्ञानम्-धातुओं से हथियार बनाना। |
56 | क्रियाकल्पः - काव्यालंकार का ज्ञान। | गजाश्ववृषभोष्ट्राणां पल्याणादिक्रिया - हाथी, घोड़ा, बैल, ऊँट आदि का जीन, चारजामाओं का हौदा बनाना। |
57 | छलितकयोगाः - छलने का कौशल। | शिशोस्संरक्षणे धारणे क्रीडने ज्ञानम्-बच्चों को पालना और खेलाना। |
58 | वस्त्रगोपनानि - असुंदर को छिपाते हुये वस्त्रधारण का कौशल। | अपराधिजनेषु युक्तताडनज्ञानम्-अपराधियों को ढंग से दण्ड देना। |
59 | द्यूतविशेषः - द्यूतक्रीडा। | नानादेशीयवर्णानां सुसम्यग्लेखने ज्ञानम्-भिन्न-भिन्न देशीय लिपियों का लिखना। |
60 | आकर्षक्रीडा - पासे का खेल। | ताम्बूलरक्षादिकृतिविज्ञानम्-पान को रखने, बीड़ा बनाने की विधि। |
61 | बालकक्रीडनकानि - बच्चों की विभिन्न क्रीडाओं का ज्ञान। | आदानम् - कलामर्मज्ञता। |
62 | वैनायिकीनां विद्यानां ज्ञानम् - विनय सिखाने वाली विद्याओं का ज्ञान। | आशुकारित्वम् - शीघ्र काम कर सकना । |
63 | वैजयिकीनां विद्यानां ज्ञानम् - विजय दिलाने वाली विद्याओं का ज्ञान। | प्रतिदानम् - कलाओं को सिखा सकना । |
64 | व्यायामिकीनां नांविद्यानां ज्ञानम् - व्यायामविद्या का ज्ञान। | चिरक्रिया - देर-देर से काम करना। |
* शब्दकल्पद्रुम में प्रतिमाला के स्थान में प्रतिमा (मूर्तिकला) का उल्लेख है।
कला का महत्त्व॥ Importance of art
कला का यह उद्देश्य माना जाता है कि उससे ज्ञान में वृद्धि, सदाचार में प्रवृत्ति एवं जीविकोपार्जन में सहायता मिले। प्राचीन ग्रन्थों का अध्ययन करने से ज्ञात होता है कि उस समय कला का प्रयोग दैनिक जीवन में कितना व्याप्त रहा है। श्री कृष्णचन्द्र जी को सभी कलाओं की शिक्षा दी गई थी एवं वे सभी कलाओं में प्रवीण थे जैसा कि श्री मद्भागवत जी में भी कहा गया है-
अहोरात्रैश्चतुःषष्ट्या संयत्तौ तावतीः कलाः।(भाग०महापु०)[5]
केवल चौंसठ दिन रात में ही संयम शिरोमणि दोनों भाइयों ने गुरूजी के एक बार कहने मात्र से चौंसठ कलाओं का ज्ञान प्राप्त कर लिया।
अर्जुन नृत्य कला नल भीम आदि पाक कला में निपुण थे। परशुराम द्रोणाचार्य आदि धनुर्वेद में कुशल थे। इससे ज्ञात होता है कि गुरुकुलों में सभी को प्रायः सभी कलाओं की शिक्षा दी जाती रही होगी। परन्तु सभी का स्वभाव साम्य नहीं होता जैसा कि देखा भी जाता है किसी कि प्रवृत्ति किसी ओर तो किसी की किसी ओर होती है। जिसकी जिस ओर प्रवृत्ति है उसी में अभ्यास करने से कुशलता शीघ्र प्राप्त होती है।(कल्या० शिक्षा०)[8]
बौद्ध ग्रन्थ- ललितविस्तर में 64 कलाओंकी सूची एक सूची प्राप्त होती है। कहा जाता है कि बोधिसत्व को गोपा से विवाह करने के लिये कलाओं के ज्ञान की परीक्षा देनी पडी थी।(ललि०विस्त०)[9]
वंशागत कला॥ Traditional Arts
वंशागत कला के सीखने में अल्प प्रयत्न के द्वारा भी सुगमता पूर्वक पारंगत हुआ जा सकता है। बालकपन से ही उसके वंश-परम्पराकी कलाके संस्कार उसके अन्दर पूर्व से ही जो समाहित रहते हैं गुरुकुल आदि में विद्या अध्ययन करते समय उन कलाओं में उसे शीघ्र ही नैपुण्य प्राप्त हो जाता है एवं गुरुजन आदि भी तदनुकूल कला का ज्ञान भी प्रदत्त करते हैं। सभी विद्याओं में सामन्य प्रवेश उचित है किन्तु वंशागत कला में अरुचि दिखा कर अन्य ओर प्रयत्न करना यह अनुचित पद्धति है। जैसाकि महाभारत आदि में धनुर्धरों के पुत्रों का धनुर्विद्या में निपुण होना एवं यह वर्तमान में भी प्रत्यक्ष देखा जा सकता है एक लकडी का कार्य करने वाले का पुत्र जितने जल्दी पिता के कार्य में दक्षता प्राप्त कर सकता है उतना अन्य जन नहीं। वर्तमान शिक्षा पद्धति से लोगों को वंशागत कला के कार्यों के प्रति घृणा तथा अरुचि उत्पन्न होती जा रही है जिसके द्वारा पिता दादाजी आदि के पैतृक व्यवसाय नष्ट हो रहे हैं। जैसाकि शुक्राचार्य जी लिखते हैं—
यां यां कलां समाश्रित्य निपुणो यो हि मानवः। नैपुण्यकरणे सम्यक् तां तां कुर्यात् स एव हि॥[10](शु० नीति)
जो मानव जिस-जिस कला में निपुण हैं उन्हैं अपनी उसी नैपुण्य युक्त कला में अभ्यास करने से दक्षता प्राप्त होती है।
कलाओं की प्राचीनता॥ Antiquity of Arts
समस्त कलाऐं संस्कृतशास्त्र में प्रारंभ से ही व्याप्त हैं किन्तु वर्तमान में उन्हैं नवीन एवं पाश्चात्य देशों से आविर्भाव हुआ है इस प्रकार माना जाता है। इस प्रकार की मान्यता के पीछे मुख्य हेतु है परम्परा से प्राप्त होने वाले ज्ञान का अभाव होना। कुछ कलाओं को उदाहृत किया जाता है जैसे कि-
ललितविस्तर में कही गयी विडिम्बित कला वर्तमान में Miniature अथवा Mimicry के नाम से जानी जाति है एवं शुक्रनीतिसार में वर्णित अनेकवाद्यविकृतौ तद्वादने ज्ञानम् ये कला वर्तमान में Orkestra के नाम से व्याप्त है। इसीप्रकार कामसूत्र में नेपाथ्ययोगाः कला अन्तर्गत वधूनेपथ्यं एवं शुक्रनीतिसार में वर्णित स्त्रीपुंसोः वस्त्रालंकारसन्धानम् कला वर्तमान में Beauty parlor के नाम से व्यवसाय के रूप में देखी जा सकती है।
शुक्रनीतिसार में वर्णित कञ्चुकादीनां सीवने विज्ञानम् कला Ladies teller इस नाम से कार्यकरने वालों के द्वारा व्यवहार में प्रचलित है एवं कृत्रिमस्वर्णरत्नादिक्रियाज्ञानम् कला Imitation कर्म में प्रयुक्त है। वात्स्यायनसूत्र उक्त विशेषकच्छेद्यम् कला Tatto निर्माण के रूप में विश्व में व्याप्त है। क्रीडाओं (खेलों)में भी वाजिवाह्यालिक्रीडा Polo इस नाम से व्याप्त है। धरणीपात-भासुर-मारादियुद्धानि कला Freestyle wrestling कलाऐं इस प्रकार के रूपों में परिवर्तित होकर संसार में अर्थोपार्जन (रुपया एकत्रित करना) के साधन रूप में प्रयुक्त हैं।(संस्कृ०वाङ्म०बृ०इति०)[11]
निष्कर्ष॥ Discussion
प्राचीन भारत की शिक्षा व्यवस्था का उद्देश्य व्यक्ति के चार प्रमुख कर्तव्यों को सुगम बनाना था। धर्म (धार्मिकता), अर्थ (आजीविका), काम (पारिवारिक जीवन) और मोक्ष (शाश्वत शांति की प्राप्ति) परंपरा 18 प्रमुख विद्याओं (सैद्धांतिक विषयों), और 64 कलाओं (व्यावसायिक विषयों / शिल्प) की बात करती है। इन "कलाओं" का लोगों के दैनिक जीवन पर सीधा प्रभाव पड़ता है और अधिकांश यह ध्यान रखना प्रमुख है कि ये कला अभी भी आजीविका के महत्वपूर्ण साधन हैं। इन कलाओं का सामान्य जीवन से घनिष्ठ सम्बन्ध है।
यह भी महत्वपूर्ण है कि भारत की परंपरा में "कला" और "शिल्प" के बीच कोई विरोध नहीं है। शिल्पकारों के लिए शिल्प उनकी आजीविका ही नहीं उनकी पूजा भी है। ये शिल्प सिखाया गया था, अभी भी सिखाया जाता है, एक शिक्षक द्वारा अपने शिष्यों को, एक शिल्प सीखने के लिए शिक्षक को काम पर देखने की आवश्यकता होती है, शिक्षक द्वारा सौंपे गए अजीब, छोटे काम और फिर लंबे अभ्यास से शुरू करना, अपने आपमें बहुत अनुभव के बाद ही शिक्षार्थी अपनी कला को परिष्कृत करता है और फिर स्वयं को स्थापित कर सकता है।
यह हम आज भी भरत के नृत्य, संगीत और यहां तक कि वाहन-मरम्मत में भी देख सकते हैं। यही एक कारण है कि शिल्पकार को साधक के रूप में उच्च सम्मान दिया जाता है।एक भक्त जिसका मन बड़ी श्रद्धा से अपनी वस्तु के प्रति आसक्त हो जाता है। उनका प्रशिक्षण तप (तपः) का एक रूप है, एक समर्पण और उन्हें प्राप्त करने वाला प्राथमिक गुण एकाग्रता है। भारत की परंपरा शिल्प के लिए भी ग्रंथों से भरी हुई है, जो व्यावहारिक अनुशासन हैं। प्रत्येक अनुशासन में स्कूल हैं; प्रत्येक स्कूल में विचारक और ग्रंथ होते हैं।वस्तुतः ग्रन्थ तीन प्रकार के होते हैं - प्राथमिक ग्रंथ (शास्त्र) जो मूलभूत सिद्धांतों को निर्धारित करते हैं, समग्र ग्रंथ (उस अनुशासन में सभी विद्यालयों का संग्रह) और टिप्पणी / प्रदर्शनी ये तीन प्रकार के ग्रंथ अधिकांश विषयों में उपलब्ध हैं - इस तरह ज्ञान को व्यवस्थित और शिक्षाशास्त्र के उद्देश्यों के लिए प्रस्तुत किया जाता है। किन्तु शिल्प के मामले में यह सच है जैसे विद्या के मामले में यह सच है कि ज्ञान गुरु में रहता है। यह भारत की परंपरा में गुरुओं से जुड़ी महान श्रद्धा का मूल है क्योंकि वे ज्ञान के दिए गए क्षेत्र में स्रोत और अंतिम अधिकार हैं।
उद्धरण॥ References
- ↑ Kapoor Kapil and Singh Avadhesh Kumar, Bharat's Knowledge Systems, Vol.1, NewDelhi: D.K.Printworld, Pg.no.11
- ↑ पं० श्री जगन्नाथ पाठक,ऋग्वेदभाष्य भूमिका(हिन्दी व्यख्यायुक्त),सन् २०१५,वाराणसी चौखम्बा विद्याभवन पृ० ५३।
- ↑ Vachaspatyam
- ↑ Shabdakalpadruma
- ↑ 5.0 5.1 श्री मद्भागवत महापुराण, (द्वितीय खण्ड) हिन्दी टीका सहित,स्कन्ध १०,अध्याय ४५ , श्लोक ३६, हनुमान प्रसाद् पोद्दार,गोरखपुर गीता प्रेस सन् १९९७ पृ०४१२।
- ↑ श्रीमत् शुक्राचार्य्यविरचितः शुक्रनीतिसारः, १८९०: कलिकाताराजधान्याम्, द्वितीयसंस्करणम् ।
- ↑ B.D.Basu, The Sacred Books of the Hindus, Vol XIII The Sukraniti, Allahabad: The Panini Office, Bhuvaneshwari Asrama, 1914. Pg.no.157
- ↑ पं०श्री दुर्गादत्त जी त्रिपाठी, प्राचीन शिक्षा में चौंसठ कलाऐं, शिक्षांक, सन् १९८८, गोरखपुर गीताप्रेस पृ०१२९।
- ↑ ललितविस्तर, शान्तिभिक्षु शास्त्री, शिल्पसन्दर्शन परिवर्त, सन् १९८४, लखनऊ: उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान पृ० २८२।
- ↑ श्रीमत् शुक्राचार्य्यविरचितः शुक्रनीतिसारः,अध्याय०४ प्रकरण०४ श्लोक०१००, १८९०: कलिकाताराजधान्याम्, द्वितीयसंस्करणम् पृ०३६९।
- ↑ आचार्य श्री बलदेव उपाध्याय, संस्कृत वाङ्मय का बृहद् इतिहास, अष्टादश(प्रकीर्ण)खण्ड, भूमिका, उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान सन् २०१७ पृ० १७।