शिक्षक का शिक्षकत्व

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विद्यार्थियों का भविष्य

कुछ चिन्ताजनक बातें

विद्यार्थी देश का भविष्य है[1] । कोठारी आयोग कहता है कि देश का भविष्य विद्यालयों के कक्षाकक्षों में गढा जा रहा है । कक्षाकक्षों में पढने वाले छात्र ही तो यह भविष्य है। इनका हो क्या रहा है इसका विचार गम्भीरतापूर्वक करने की आवश्यकता है । कुछ चिन्ताजनक बातें इस प्रकार हैं:

  1. आजकल सब इन्जिनीयर बनना चाहते हैं । ऐसी मान्यता है कि इन्जिनीयरों को जल्दी नौकरी मिल जाती है, अधिक वेतनवाली नौकरी मिलती है। इसलिये इन्जिनीयरिंग कॉलेज में प्रवेश लेने वालों की संख्या बढ जाती है। यह देखकर इन्जिनीयरिंग कॉलेज आरम्भ करने वाले भी मैदान में आ जाते हैं । अनेक महाविद्यालय नये खुलते हैं। धीरे धीरे इन्जिनीयरों की संख्या बढती है परन्तु उनकी अब आवश्यकता नहीं होती है । वे नौकरी के लिये मारे मारे फिरते हैं और अल्पतम वेतन वाली नौकरी करते हैं, जो इन्जिनीयर का काम ही नहीं है ऐसी बाबूगीरी भी कर लेते हैं ।
  2. यही बात शिक्षकों के लिये, पाइलोटों के लिये कम्प्यूटरी सीखने वालों के लिये, डॉक्टरों के लिये सत्य है। इन सबको नौकरी मिलती नहीं है और स्वतन्त्र व्यवसाय करने की न हिम्मत है, न क्षमता है न अनुकूलता है ।
  3. इन सबको काम देने वालों की सदा शिकायत रहती है कि ये लोग काम करने के लायक ही नहीं है । इनको न काम आता है न काम करने की उनकी नीयत है । इन्हें मतलब काम से नहीं है, पैसे से ही है ।
  4. शिक्षित या अशिक्षित युवकों को मोबाइल, बाईक और जिन्स पैण्ट न्यूनतम आवश्यकता है । नौकरी मिले या न मिले ये सब तो मिलने ही चाहिये ऐसा मानस है । येन केन प्रकारेण उन्हें प्राप्त करने का “पुरुषार्थ' भी चलता रहता है ।
  5. इन युवाओं को कार्यसंस्कृति का ज्ञान नहीं होता है । नौकरी या. व्यवसाय करने में नीतिमत्ता, व्यावसायिकता, उत्कृष्टता, जिम्मेदारी, प्रगति आदि के पैसे के अलावा कोई सन्दर्भ मालूम नहीं होते हैं । दिन के बारह घण्टे काम करने के बाद ही निर्वाह के लिये कुछ मिलता है । ऐसे में संस्कार और संस्कृति की तो कल्पना तक नहीं की जा सकती ।
  6. युवा होते होते नौकरी और छोकरी की चिन्ता लगती है और तनाव बढता जाता है । अनेक प्रकार के व्यसनों के भोग भी बन जाते हैं ।
  7. असंख्य युवा गाँव छोड़कर नगरों में कारखानों में, उद्योगगृहों में, घरों में मजदूर, चपरासी, घरनौकर बनने के लिये आते हैं, परिवारों से दूर अकेले रहते हैं, शरीरस्वास्थ्य और मनोस्वास्थ्य खराब कर लेते हैं, अनाचार में लिप्त हो जाते हैं ।
  8. खातेपीते घरों के बच्चोंं को व्यवहारज्ञान नहीं होता । मातापिता की छत्रछाया में तो ये जी लेते हैं परन्तु अपने पैरों पर खडे होने का समय आता है तब बेहाल हो जाते हैं । अधिकांश लडकियों को घर सम्हालना नहीं आता और अधिकांश लडकों को गृहस्थी निभानी नहीं आती । ये जीवन जीते नहीं है, इनका जीवन बीत जाता है । ये कर्तृत्वहीन होते हैं।
  9. विश्व में भारत की ख्याति है कि भारत युवाओं का देश है क्योंकि युवाओं की संख्या सबसे अधिक है । परन्तु भारत के युवाओं की स्थिति ही तो चिन्ताजनक है ।

हमारे प्रयासों का स्वरूप

शिशु से युवा होने तक की इनकी यात्रा निरंकुश, निराश्रय और अविचारित पद्धति से चलती है । यह ऐसी चलती है इसका दोष युवाओं का नहीं है, पूर्व पीढी का है । मुख्य बात यह है कि शिशु से युवा होने वाली पीढ़ी का संगोपन और शिक्षा ठीक होने से उनका भविष्य भी ठीक होगा और देश का भी ठीक होगा । ऐसा नहीं है कि सम्भावनायें नहीं हैं। हम सम्भावनाओं को वास्तविक बनाने के स्थान पर उन्हें नष्ट करने पर तुले हैं । हमारे उल्टे सीधे प्रयासों का स्वरूप कुछ इस प्रकार का है:

  1. एक बालक का भविष्य, और उसके साथ ही देश का भविष्य परिवारों और विद्यालयों में साथ साथ बनता है। दोनों साथ मिलकर यह कार्य कर सकते हैं । हमारी एक गलती यह हुई है कि हमने पीढी निर्माण और राष्ट्रनिर्माण में परिवार की भूमिका को विस्मृत कर दिया है । सारी जिम्मेदारी विद्यालयों पर ही आ पडी है । परिवारों के बिना यह कार्य होने वाला नहीं है। परिवारों का विकल्प और कोई स्थान हो ही नहीं सकता । इसलिये जो अवश्यंभावी है ऐसा खामियाजा भुगत रहे हैं । हमारी गढी जाने वाली पीढ़ी परिवार में मिलनेवाली शिक्षा से वंचित रह जाती है । आज की युवा पीढी वंचित रह भी गई है । इस नुकसान की भरपाई करना बहुत कठिन हो रहा है ।
  2. पीढ़ी का निर्माण निर्तर चलनेवाली प्रक्रिया है । पन्द्रह, बीस, पचीस वर्षों तक निरन्तर चलनेवाला काम आज खण्ड खण्ड में बँट गया है और खण्डों का आपस में कोई सम्बन्ध नहीं है । उदाहरण के लिये प्राथमिक, माध्यमिक, उच्चतर माध्यमिक और उच्चशिक्षा में आपस में कोई सम्बन्ध नहीं है। इसलिये एक विद्यार्थी जब प्राथमिक विद्यालय में पढता है तब वह क्या बनेगा, कैसे बनेगा, जो कुछ भी बनेगा वह बनकर क्या करेगा इसकी चिन्ता विद्यालय को नहीं है । वे तो बस पाँचवीं या आठवीं तक के जो पाठ्यक्रम सरकार ने बनाकर दिये हैं उन्हें 'पढ़ाने' का काम करते हैं । किंबहुना वे पाठ्यक्रम नहीं पढाते, पाठ्यपुस्तकें पढाते हैं, विषय भी नहीं पढ़ाते हैं, अपने हिस्से के पाठ पढ़ाते हैं । ऐसे में विद्यार्थी का भविष्य क्या है इसकी चिन्ता उन्हें नहीं है इसमें कोई आश्चर्य नहीं । उनसे ऐसी अपेक्षा भी नहीं की जा सकती । इन विद्यालयों में शिक्षा विषयों की होती है, परीक्षा में अंक लाने हेतु होती है, इन में जीवन से कोई सम्बन्ध नहीं होता । प्राथमिक विद्यालय में करियर का भी कोई प्रश्न नहीं है। विद्यार्थी क्या बनने वाला है इसका कोई विचार विद्यालय को करने की आवश्यकता ही नहीं होती ।
  3. माध्यमिक विद्यालय में भी क्रम तो यही चलता है । प्राथमिक और माध्यमिक विद्यालयों में क्या अन्तर है इसकी कोई स्पष्टता शिक्षकों के, मातापिताओं के या शिक्षाशास्त्रियों के मन में होती है कि नहीं यह भी विचारणीय विषय है । अन्तर केवल इतना होता है कि प्राथमिक स्तर की शिक्षा अनिवार्य है और सरकारी बाध्यता है । प्राथमिक विद्यालयों में पढने वाले सभी विद्यार्थी माध्यमिक में पढ़ते ही हैं ऐसा नहीं है । माध्यमिक विद्यालय में कुछ अधिक विषय होते हैं । वे भी अनिवार्य ही होते हैं । इसके अलावा प्राथमिक और माध्यमिक में खास कोई अन्तर नहीं होता है । पाँचवीं कक्षा तक तो शिक्षक कक्षाओं के भी होते हैं, पाँचवीं के बाद और अब माध्यमिक में शिक्षक कक्षाओं के भी नहीं होते, विषयों के हो जाते हैं । इनका कार्य दिया हुआ पाठ्यक्रम पूर्ण करना है, विद्यार्थी का क्या होता है इसकी चिन्ता करना नहीं । यह चिन्ता अब अभिभावकों की है । इसलिये तो वे अपनी सन्तानों को ट्यूशन और कोचिंग क्लास में भेजते हैं । माध्यमिक विद्यालय में भी विद्यार्थी आगे जाकर क्या बनेंगे यह विषय नहीं है । वास्तव में उनसे यह अपेक्षा भी नहीं की जाती है ।
  4. उच्च शिक्षा में स्थिति अत्यन्त अल्पमात्रा में इससे कुछ भिन्न है। कोई पाँच प्रतिशत विद्यार्थी अपना करियर निश्चित करके आते हैं और उसके अनुसार सम्बन्धित विद्याशाखाओं में प्रवेश लेते हैं। यह निश्चित करने का काम महाविद्यालय नहीं करते, विद्यार्थी स्वयं करते हैं । अध्यापकों का काम उन्हें केवल पढ़ाना है। ये विद्यार्थी आगे जाकर क्या करेंगे, जो पढ रहे हैं उस विषय का आगे समाज में कोई उपयोग है कि नहीं, विद्यार्थियों को अपना कर्तृत्व दिखाने के कोई अवसर है कि नहीं इसकी चिन्ता अध्यापक नहीं करते । इस प्रकार यदि प्राथमिक-माध्यमिक-उच्चशिक्षा में से कोई भी विद्यार्थी की चिन्ता नहीं करता है तो फिर विद्यार्थी का भविष्य गढने का दायित्व किसका है ? यदि अपने पास वर्षों तक पढ़नेवाले विद्यार्थी की ही चिन्ता नहीं है तो यह विद्यार्थी जिस देश का जिम्मेदार नागरिक बनने वाला है उस देश की चिन्ता विद्यालय कैसे करेगा ? तात्पर्य यह है कि शिशु से लेकर उच्च स्तर तक की सम्पूर्ण शिक्षा पूर्ण रूप से व्यावहारिक सन्दर्भ से रहित ही है । वह कभी संदर्भ सहित थी ऐसा भी शिक्षा के विगत एक सौ वर्षों के इतिहास में दिखाई नहीं देता है ।
  5. तो फिर विद्यार्थियों के भविष्य की चिन्ता क्या मातापिता करते हैं ? नहीं, वे भी नहीं करते हैं। मातापिता चिन्ता करते दिखाई तो देते हैं परन्तु उनकी चिन्ता में कोई योजना नहीं होती, कोई व्यवस्था नहीं होती । हर मातापिता चाहते हैं कि उनकी सन्तान पढलिखकर डॉक्टर बने, इन्जिनीयर बने, कम्प्यूटर निष्णात बने, चार्टर्ड एकाउन्टन्ट बने । परन्तु यह उनकी केवल चाहत ही होती है । इसका कोई ठोस आधार नहीं होता । क्यों ऐसा सब बनना है इसके उत्तर में केवल एक ही बात होती है । इन व्यवसायों में पैसा है और प्रतिष्ठा है । अपनी संतान इसकी शिक्षाग्रहण करने के लायक है कि नहीं, पढ लेने के बाद उसे नौकरी मिलेगी कि नहीं, पैसा मिलेगा कि नहीं ऐसा प्रश्न भी उनके मन में नहीं उठता । वर्तमान बेरोजगारी की स्थिति का अनुभव करने के बाद भी नहीं उठता । उन्हें लगता है कि बेटा इन्जिनियर बनेगा ऐसी इच्छा है तो बस बन ही जायेगा । अच्छा पैसा कमाने के लिये उपाय क्या है ? बस एक ही । अंग्रेजी माध्यम के विद्यालय में भेजना । अंग्रेजी माध्यम श्रेष्ठ बनने का, अच्छी नौकरी पाने का, विदेश जाने का, प्रतिष्ठित होने का निश्चित मार्ग है ऐसी समझ बन गई है इसलिये ऊँचा शुल्क देकर, आगे पीछे का विचार किये बिना ही अंग्रेजी माध्यम के विद्यालयों में अपनी सन्तानों को भेजकर मातापिता निश्चित हो जाते हैं । अब इससे अधिक कुछ करने की आवश्यकता ही नहीं ऐसी उनकी समझ बन जाती है । एक बार ढाई तीन वर्ष की आयु में शिक्षा की चक्की में पिसना आरम्भ हुआ कि अब किसी को आगे क्या होगा इसका विचार करने का होश नहीं है। विद्यालय, गृहकार्य, विभिन्न गतिविधियाँ, ट्यूशन, कोचिंग, परीक्षा, परीक्षा में प्राप्त होने वाले अंक आदि का चक्कर दसवीं की परीक्षा तक चलता है। तब तक किसी को कुछ होना है, किसी का कुछ होना है इसका विचार करने की आवश्यकता नहीं । बाद में डॉक्टर, इन्जिनीयर आदि करियर की बातचीत आरम्भ होती है । विद्यार्थी तय करते हैं और मातापिता उनके अनुकूल हो जाते हैं । मातापिता तय करते हैं और सन्तानो को उनके अनुकूल होना है । दोनों बातें चलती हैं । परन्तु एक का भी निश्चित आधार नहीं होता । क्यों ऐसा करियर चुनना है इसका तर्वपूर्ण उत्तर न विद्यार्थी दे सकते हैं न मातापिता । बस परीक्षा में अच्छे अंक मिले हैं तो साहित्य, इतिहास, गणित, कला, विज्ञान आदि तो नहीं पढ सकते। तेजस्वी विद्यार्थी मैनेजर बनेंगे, पाइलट बनेंगे, चार्टर्ड अकाउण्टण्ट बनेंगे । वे शिक्षक क्यों बनेंगे, व्यापारी क्यों बनेंगे, कृषक क्यों बनेंगे ? अधिकांश विद्यार्थी कुछ करने को नहीं इसलिये बी.ए., बी.कोम., बी.एससी., आदि पढ़ते हैं । इस स्तर की भी अनेक विद्याशाखायें हैं । विश्वविद्यालय जैसे एक डिपार्टमण्टल स्टोर अथवा मॉल बन गया है जहाँ चाहे जो पदवी मिलती है, बस (मातापिता की) जेब में पैसे होने चाहिये । इस प्रकार पढाई पूर्ण होती है और बिना पतवार की नौका जैसा दूसरा दौर आरम्भ होता है जहाँ आजीविका ढूँढने का काम चलता है । पूर्वजीवन, पूर्वअपेक्षा के अनुसार कुछ भी नहीं होता । जैसे भी हो कहीं न कहीं ठहरकर विवाह जो जाता है और अब तक जो देश का भविष्य था वह वर्तमान बन जाता है । कोई पाँच प्रतिशत विद्यार्थी जो निश्चित करते हैं वह कर पाते हैं, हो पाते हैं । शेष को तो जो हो रहा है उसका स्वीकार करना होता है ।
  6. यह तो एक पक्ष हुआ । इसमें केवल आर्थिक पक्ष है। जीवन की शिक्षा का तो कोई विचार ही नहीं है। विद्यार्थी गुणवान, ज्ञानवान, कर्तृत्ववान बनना चाहिये, उसके शरीर, मन, बुद्धि, सक्षम और समर्थ बनने चाहिये, वह परिवार, समाज और राष्ट्र की मूल्यवान सम्पत्ति बनना चाहिये इसकी चाह, इसकी योजना और व्यवस्था कहाँ है ? घर में ? नहीं, विद्यालय में ? नहीं, सरकार में ? नहीं । हाँ चाह अवश्य है, भाषण अवश्य होते हैं, गोष्ठियाँ भी होती है परन्तु इसकी कोई व्यवस्था नहीं है। एक बार विद्यार्थी विद्यालय जाने लगा तो मातापिता को अब उसके लिये कुछ करना नहीं है । न इसके लिये समय है, न क्षमता है , न दृष्टि । विद्यालय में विषयों की चिन्ता होती है चरित्र की नहीं । सरकार नियम, कानून, नीति और प्रशासन में व्यस्त है । चरित्र और संस्कृति उसका विषय नहीं । तब जीवन, चरित्र संस्कार आदि की सुध लेने वाला तो कोई बचा ही नहीं । ऐसा मान लिया जाता है कि बिना कुछ किये ही विद्यार्थी चरित्रवान और दृष्टियुक्त बन जायेगा । अनुभव यह है कि ऐसा बनता नहीं।

इस कारण से अनिश्चित भावी अव्यवस्थित वर्तमान बन जाता है । ऐसे युवाओं का देश समर्थ कैसे बनेगा ? यह युवा पीढ़ी सम्पत्ति नहीं, जिम्मेदारी बन जाती है ।

माता-पिता को क्या करना चाहिए

  1. सबसे पहला दायित्व मातापिता का है । अपनी सन्तान अधिकतम दस वर्ष की होते होते उसका चरित्र, उसकी क्षमतायें, रुचि, सम्भावनायें सब मातापिता की समझ में आ जानी चाहिये । उनकी अपनी क्षमता भी होनी अपेक्षित है, साथ ही वे अपने घर के बडे बुजुर्ग, अपने श्रद्धेय स्वजन, विदट्रज्जन, धर्माचार्य आदि का मार्गदर्शन भी प्राप्त कर सकते हैं । अपनी सन्तान के भविष्य का मार्ग निश्चित करना उनका अपनी सन्तान के प्रति महत्त्वपूर्ण कर्तव्य है ।
  2. अपने बालक का चरित्र निर्माण और चरित्रगठन करना भी मातापिता का ही काम है । इस दृष्टि से सक्षम बनना, व्यवहारदक्ष बनना, बाल मनोविज्ञान जानना भी मातापिता से अपेक्षित है ।
  3. अपनी सन्तान का करियर क्या बनेगा यह निश्चित करना भी मातापिता का काम है । बालक की शरीर, मन और बुद्धि की क्षमताओं, अपनी आर्थिक और सामाजिक स्थिति और आवश्यकताओं को समझकर भविष्य के बारे में निश्चितता बननी चाहिये । अनेक बार लोग कहते हैं कि विद्यार्थी की रुचि और स्वतंत्रता का भी सम्मान करना चाहिये । अपनी इच्छाओं और महत्त्वाकांक्षा ओं को उसके ऊपर लादना नहीं चाहिये | यह तो सत्य है । उसके भविष्य की निश्चिति करते समय उसकी इच्छा और रुचि की भी गणना करनी चाहिये, किंबहुना उसे अपनी रुचि और स्वतंत्रता को भी ठोस सन्दर्भों का परिप्रेक्ष्य देना सिखाना चाहिये । उसके बाद भी वह भविष्य में यदि कुछ अलग करना चाहे और अपनी सक्षमता बनाये तो ऐसा करने की उसे छूट होनी चाहिये । तात्पर्य केवल इतना ही है कि भावी गढने का समय, करियर की तैयारी करने का समय लम्बा होता है । यह लम्बा समय अनिश्चितताओं वाला नहीं होना चाहिये ।
  4. मातापिता को ध्यान में रखना चाहिये कि उनकी सन्तान विद्यालय में तो कुछ वर्षों तक जायेगी परन्तु घर में तो जीवनभर रहेगी । घर में पीढियाँ बनती हैं, वंशपरम्परा बनती हैं । परम्परा से अनेक बातें एक पीढी से दूसरी पीढी को हस्तान्तरित होती हैं । घर में सम्पूर्ण जीवन बीतता है । जीवन में व्यवसाय और व्यवसाय से मिलने वाले पैसे के अलावा और बहुत कुछ होता है । मातापिता को इस बात का विचार करना चाहिये कि उनके पास अपनी सन्तानों को देने के लिये क्या क्या है और यह सब देने की उन्होंने क्या व्यवस्था की है । इसका पूर्ववर्ती विचार यह भी है कि उन्हें अपने मातापिता से क्या मिला है जो उन्हें अपनी सन्तानों को देना ही है । उन्हें इस बात का भी विचार करना है कि अपनी सन्तानों को समाज में गुणों और कौशलों के कारण सम्मान और प्रतिष्ठा मिले इसलिये कैसे गढना होगा । अपनी सन्तानों का सद्गुणविकास किस प्रकार होगा इसका विचार करना भी उनका ही काम है ।
  5. समाज को, देश को अच्छा नागरिक देना मातापिता का ही सौभाग्य है । उन्हें इस लायक मातापिता ही बना सकते हैं, विद्यालय या सरकार नहीं । सन्तान अपने मातापिता के सम्पूर्ण व्यक्तित्व की, सम्पूर्ण कुल की अंशरूप होती है । घर से निकल कर वह जब समाज में जाती है तो घर की, मातापिता की, कुल की प्रतिनिधि बनकर ही जाती है । यह श्रेष्ठ हो यही मातापिता की समाज सेवा है, राष्ट्र को दिया हुआ दान है । इस दृष्टि से मातापिता को अपनी सन्तानों का संगोपन करना चाहिये ।

शिक्षकों का दायित्व

मातापिता के साथ साथ विद्यार्थियों का भविष्य उज्ज्वल बनाने का दायित्व शिक्षकों का भी है । वे अपने दायित्व को नकार नहीं सकते। सारे संकट शिक्षकों ने दायित्व लिया नहीं है इस कारण से ही निर्माण हुए हैं ।

शिक्षकों को क्या करना चाहिये ?

  1. सर्वप्रथम शिक्षकों को विषय के शिक्षक के साथ साथ विद्यार्थियों के शिक्षक बनना चाहिये । विद्यार्थी का शिक्षक विद्यार्थी के कल्याण की कामना करता है, उनके गुणदोष जानता है, उनकी क्षमताओं को पहचानता है, उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि को जानता है और उनकी भविष्य की सम्भावनाओं का ठोस विचार करता है ।
  2. शिक्षक ने विद्यार्थियों को अपने भविष्य की कल्पना करना सिखाना चाहिये, कल्पनाओं को साकार कैसे किया जाता है इस पर विचार करना सिखाना चाहिये, अपनी इच्छाओं, आकांक्षाओं और स्वप्नों को वास्तविकता के निकष पर कसना सिखाना चाहिये, सामर्थ्य कैसे बढाया जाय यह भी सिखाना चाहिये ।
  3. विद्यार्थी के जीवनविकास के सन्दर्भ में उसके मातापिता के साथ भी आत्मीय सम्पर्क बनाना चाहिये । कोई भी योजना दोनों को मिलकर बनानी चाहिये ।
  4. शिक्षकों को विद्यार्थी के शिक्षक बनने के साथ साथ राष्ट्रीय शिक्षक भी बनना चाहिये । राष्ट्रीय शिक्षक राष्ट्र के सन्दर्भ में विचार करता है और अपने विद्यार्थी राष्ट्र के लिये किस प्रकार उपयोगी होंगे इसका चिन्तन करते हैं । व्यवहारजीवन में अधथर्जिन के लिये व्यवसाय का चयन कते समय जिस प्रकार विद्यार्थीकी रुचि, क्षमता, आवश्यकता और अनुकूलता का विचार करना होता है उसी प्रकार राष्ट्र की आवश्यकताओं का भी विचार करना होता है । यह बात शिक्षक ही विद्यार्थियों के हृदय और मस्तिष्क में प्रस्थापित करता है । व्यक्ति का आर्थिक विकास समाज के आर्थिक विकास के अविरोधी क्यों होना चाहिये और वह कैसे होता है इसकी समझ शिक्षक ही विद्यार्थियों को देता है। शिक्षक मातापिता से भी बढकर होता है क्योंकि वह विद्यार्थियों के अन्तःकरण को उदार बनाता है और बुद्धि को तेजस्वी और विशाल बनाता है।
  5. समाज समृद्ध और सुसंस्कृत कैसे बनता है इसकी दृष्टि विद्यार्थी को देना और उसमें विद्यार्थी कैसे योगदान दे सकता है इसका मार्गदर्शन भी शिक्षक ही विद्यार्थी को देता है ।
  6. प्राथमिक, माध्यमिक. और महाविद्यालयों को विद्यार्थियों और समाज को व्यावहारिक रूप में जोडना चाहिये । इस दृष्टि से विद्यालयों की इकाइयाँ छोटी होनी चाहिये और शिशु से उच्च शिक्षा तक की एक ही इकाई बननी चाहिये । आज तो सारा तन्त्र बिखरा हुआ और विशूंखल है इसलिये किसी की कोई जिम्मेदारी ही नहीं बनती है । जिस प्रकार बालकों का एक ही घर होता है उस प्रकार विद्यार्थियों का एक ही विद्यालय होना चाहिये जहाँ सारी शिक्षा एक ही संकुल में, एक ही व्यवस्था में, एक ही शिक्षक समूह के साथ प्राप्त हो । प्राथमिक शिक्षा का नियमन तन्त्र अलग, माध्यमिक बोर्ड अलग, विश्वविद्यालय का नियमन अलग होने से यह व्यवस्था ठीक से नहीं हो पाती है। इस दृष्टि से शिक्षा की पुरररचना करना अत्यन्त आवश्यक है ।
  7. समाज की आवश्यकतायें आर्थिक भी होती हैं और सांस्कृतिक भी । विद्यालयों को मुख्य रूप से सांस्कृतिक दृष्टि से विचार करना चाहिये, साथ ही आर्थिक आवश्यकता की पूर्ति हेतु शासन और अर्थक्षेत्र के साथ भी समायोजन करना चाहिये | दोनों क्षेत्र किस प्रकार सहयोगी बन सकते हैं इसका प्रमुख विचार विद्यालयों को करना है। विद्यालयों का दायित्व केवल विषयों और विद्याशाखाओं की शिक्षा का विचार करने तक का नहीं है, विद्यार्थी, उसके परिवार, समाज, राष्ट्र सभी क्षेत्रों का विचार करना है । विद्यालयों की भूमिका, कार्यक्षेत्र और कार्य के स्वरूप पर नये सिरे से चिन्तन होने की आवश्यकता है ।

शिक्षक प्रबोधन

बेचारा शिक्षक !

धार्मिक शिक्षा शिक्षकाधीन होती है । जैसा शिक्षक वैसी शिक्षा ऐसा बारबार कहा जाता है । वर्तमान समय में ऐसा है भी और नहीं भी। जैसा शिक्षक वैसी शिक्षा का सूत्र आज भी चरितार्थ होता दिखाई दे रहा है । परन्तु शिक्षा शिक्षकाधीन नहीं है ।

विगत दो सौ वर्षों में शिक्षक गुरू से शिक्षाकर्मी बन गया है । शिक्षक की आर्थिक स्थिति दयनीय हो गई है। शिक्षक सामाजिक प्रतिष्ठा खो चुका है । शिक्षक बेचारा बन गया है । इसलिये कोई शिक्षक बनना नहीं चाहता । जो और कुछ नहीं बन सकता वह शिक्षक बनता है । ऐसे शिक्षक शिक्षक के पद की और शिक्षाक्षेत्र की प्रतिष्ठा और कम कर देते हैं ।

जिस प्रकार शिक्षक की सामाजिक प्रतिष्ठा नहीं है उसी प्रकार उसकी शैक्षिक प्रतिष्ठा भी नहीं है । उसे केवल पढ़ाना है, पढ़ाने सम्बन्धी निर्णय उसे नहीं करने है ।

उसके विद्यार्थी कौन होंगे वह नहीं जानता । कोई और उसे विद्यार्थी देता है । पढाने के लिये पाठ्यक्रम कोई और देता है । परीक्षा कोई और लेता है । प्रमाणपत्र कोई और देता है । विद्यार्थी का शुल्क कोई और लेता है और उसे वेतन देने वाला कोई और है । उसे बैठने के लिये कुर्सी चाहिये वह भी कोई और देता है । पढ़ाने के लिये स्थान किसी और ने निश्चित किया है। वह कुर्सी पर बैठकर पढायेगा या नीचे बैठकर इसका निर्णय भी कोई और करता है । उसने खडे होकर ही पढाना है, बैठना नहीं है यह भी कोई और तय करता है । कुर्सी होगी तो उस पर बैठने का प्रमाद वह करेगा ऐसा सोचकर उसकी कुर्सी हटा दी जाती है किसी ओर के द्वारा

अर्थात्‌ उसे केवल 'पढाना' ही है, और कुछ नहीं करना है ।

जड़ की नहीं चेतन की प्रतिष्ठा हो

परन्तु वह केवल उसका दोष नहीं है । दो सौ वर्षों में भारत में जीवनव्यवस्था में जो परिवर्तन हुआ है उसका सबसे अधिक विनाशक परिणामकारी पहलू यह है कि हमने मनुष्य के स्थान पर उत्पादन के क्षेत्र में यन्त्र को और व्यवस्था के क्षेत्र में तन्त्र को प्रतिष्ठित कर दिया । दोनों निर्मनुष्य हैं । इसका अर्थ यह है कि मनुष्य के अन्तःकरण के जो गुण होते हैं वे यन्त्र में और तन्त्र में दिखाई नहीं देते, अर्थात्‌ ये दोनों दया, करुणा, अनुकम्पा, समझ, विवेक आदि से संचालित नहीं हो सकते । यहाँ देशकाल परिस्थिति के अनुसार नहीं चला जाता है, 'नियम' से चला जाता है । दोनों जड़ हैं और चेतन मनुष्य को नियमन और नियन्त्रण में रखते हैं । स्वाधीनता से पूर्व, अंग्रेजों का नियन्त्रण था, अब तन्त्र और यन्त्र का है । पराधीनता आज भी है ।

इस तन्त्र ने केवल शिक्षा को ही नहीं, जीवन के सभी पहलुओं का ग्रास कर लिया है । इसके चलते आज जो सबसे बडी कठिनाई पैदा हुई है वह यह है कि मनुष्य. का मन मर गया है, बुद्धि दब गई है । न उसे पराधीनता से मुक्त होने की इच्छा है, न उसे मुक्त कैसे हुआ जा सकता है इसकी समझ है । उसने सब कुछ स्वीकार कर लिया है ।

उपचार तो इस मूल रोग का करना है अर्थात्‌ जड़ के स्थान पर चेतन की प्रतिष्ठा करना है ।

धार्मिक शिक्षा को यदि पुन:प्रतिष्ठित करना है तो शिक्षक को प्रतिष्ठित करना होगा। उसे प्रतिष्ठित करने हेतु उसके मन को पुनर्जीवित करना होगा और बुद्धि को सक्रिय करना होगा । उसके मन और बुद्धि, काम करने लगेंगे तो शेष सारी व्यवस्थाओं में भी परिवर्तन आयेगा ।

शिक्षक के मन को पुनर्जीवित करना

शिक्षक का मन मर गया है इसके लक्षण कौन से हैं ? वह अब कहने लगा है कि...

  • अब इस तंत्र में कुछ नहीं हो सकता । प्राथमिक.विद्यालय का शिक्षक भी यह कहता है और विश्व-विद्यालय का भी । विद्वान भी कहते हैं और बुद्धिमान भी।
  • हमारे करने से क्या होने वाला है ? सरकार जब तक. कुछ नहीं करती तब तक कुछ नहीं हो सकता । सब कुछ सरकार के ही हाथ में है ।
  • मुझे क्या पडी है कि मैं कुछ करूँ ? बडे बडे नहीं करते तो मुझे क्यों कहा जाता है कि कुछ करो ?
  • अपना काम पढ़ाने का है, और किसी झंझट में पड़ने  की क्या आवश्यकता है ? चरित्रनिर्माण, प्रामाणिकता आदि सब पुरानी बातें हो गई । आज यह सब नहीं चलता । आज भलाई का जमाना नहीं है। कुछ करने जाओ तो स्वयं ही परेशानी में पड जायेंगे ।
  • विद्यार्थी सुनते नहीं, अभिभावकों को पडी नहीं है, कुछ भले के लिये करो तो उल्टी शिकायत कर देते हैं, संचालक डाँटते हैं अथवा कार्यवाही करते हैं । तो फिर कुछ भी करने की क्या आवश्यकता है ? अपना वेतन लो, पाठ्यक्रम पूरा करो और मौज करो ।
  • सारी अपेक्षा शिक्षक से ही क्यों की जाती है ? और लोग भी तो अपना काम ठीक नहीं करते । उनसे जाकर कहो । पहले इन राजनीति वालों को ठीक करो । अर्थात्‌ उसने पराधीनता का स्वीकार कर लिया और जान लिया की स्वाधीन और स्वतन्त्र नहीं हुआ जा सकता तो वह बेपरवाह भी हो गया । प्रयास करना छोड दिया और जैसा रखा जाता है वैसा रहने लगा । दुनिया ऐसी ही है, जीवन ऐसा ही है, अब किसी के लिये कुछ करने की आवश्यकता नहीं, अपने में रहो, अपने से रहो ।

ऐसी स्थिति में उसका मन अब स्वतन्त्रता की नहीं, उपभोग की ही चाह रखता है और बुद्धि किसी की भलाई के लिये नहीं, अपनी ही 'भलाई' के लिये प्रयुक्त होती है ।

शिक्षा को शिक्षकाधीन बनाने हेतु प्रथम तो शिक्षक के मरे हुए मन को जीवन्त करना होगा और निष्क्रिय बुद्धि को सक्रिय बनानी होगी।

शिक्षक प्रबोधन के बिन्दु व चरण

मरे हुए मन को जीवन्त बनाने का काम कठिन है । अपमान, अवहेलना, उपेक्षा, निर्धनता, आत्मग्लानि आदि भावों ने उसे जकड लिया है । आज उसके व्यवहार में जड़ता, निष्ठा का अभाव, काम की उपेक्षा, बेपरवाही, स्वार्थ, लालच, बिकाऊपन दिखाई देता है परन्तु इस व्यवहार के पीछे उसकी पूर्व में बताई ऐसी मानसिकता है ।

अतः शिक्षक प्रबोधन के कुछ बिन्दु और चरण इस प्रकार होंगे

  1. शिक्षक में स्वतन्त्रता की चाह और आवश्यकता निर्माण करना । शिक्षा भी तभी स्वतन्त्र होगी जब शिक्षक स्वतन्त्र होता है । शिक्षा स्वतन्त्र होगी तभी वह समाज को भी स्वतन्त्र बनना सिखायेगी ।
  2. स्वतन्त्र बनना तो कोई भी चाहेगा परन्तु स्वतन्त्रता के साथ जो दायित्व होता है वह कोई नहीं चाहता । प्रबोधन का दूसरा मुद्दा दायित्व का भी है । शिक्षा को ठीक करने का दायित्व शिक्षक का है। पूर्व उदाहरण भी हैं, परम्परा भी है और तर्क भी इसी बात को कहता है ।
  3. "अपना घर है और हमें उसे चलाना है " ऐसा मानने में स्वतन्त्रता है जहाँ अधिकार भी है और दायित्व भी। घर में काम करने के लिये आनेवाला न अधिकारपूर्वक काम करता है न दायित्वबोध से । घर उसका नहीं है । वेतन देने वाले और वेतन लेने वाले दोनों यह बात समझते हैं । शिक्षाक्षेत्र में आज यही स्थिति हुई है। और भी बढकर, क्योंकि इसमें तो शिक्षा वेतन देनेवाले की भी नहीं है ।
  4. व्यवस्थातन्त्र स्वभाव से ही जड़ होता है । उसने शिक्षा को भी जड़ बना दिया है । शिक्षक से अपेक्षा है कि वह शिक्षा को जड़ता और जड़तन्त्र से मुक्त करे ।
  5. अर्थनिष्ठ समाज में ज्ञान, संस्कार, चरित्र, भावना आदि की कोई प्रतिष्ठा नहीं होती । वहाँ वेतन देनेवाला सम्माननीय होता है, वेतन लेनेवाला नौकर माना जाता है, फिर वह चाहे शिक्षक हो, पूजारी हो, उपदेशक हो, धर्माचार्य हो, स्वजन हो या पिता हो | इस स्थिति से मुक्त वेतन लेने वाले को करना होता है । उसमें मुक्त होने की चाह निर्माण किये बिना उसे मुक्त करना सम्भव नहीं है ।
  6. शिक्षा को और शिक्षक को स्वतन्त्र होना चाहिये यह तो ठीक है परन्तु कोई भी शिक्षक आज अपनी नौकरी कैसे छोड सकता है ? उसे भी तो अपने परिवार का पोषण करना है । समाज उसकी कदर तो करनेवाला नहीं है । आज बडी मुश्किल से शिक्षक का वेतन कुछ ठीक हुआ है। अब उसे नौकरी छोडकर स्वतन्त्र होने को कहना तो उसे भूखों मारना है । यह कैसे सम्भव है ? ऐसा ही कहते रहने से तो प्रश्न का कोई हल हो ही नहीं सकता है ।
  7. शिक्षा के लिये नौकरी छोडने वाले को समाज सम्मान नहीं देगा, उल्टे उसे नासमझ कहेगा, इसलिये उस दिशा में भी कुछ नहीं हो सकता ।
  8. तथापि करना तो यही होगा ।
  9. क्या ऐसा हो सकता है कि दस-पन्द्रह-बीस वर्ष तक अर्थात्‌ ३५ से ५० वर्ष की आयु तक नौकरी करना, सांसारिक जिम्मेदारियों से आधा मुक्त हो जाना और फिर शिक्षा की सेवा करने हेतु सिद्ध हो जाना । यदि देश के एक प्रतिशत शिक्षक ऐसा करते हैं तो बात बन सकती है ।
  10. क्या देश के हजार में एक शिक्षक प्रारम्भ से ही बिना वेतन के अध्यापन के काम में लग जाय और स्वतन्त्र विद्यालय आरम्भ करे जहाँ शिक्षा पूर्ण रूप से स्वतन्त्र हो ? यह तो बहुत बडी बात है ।
  11. क्या यह सम्भव है कि देश के हर राज्य में एक ऐसा शोध संस्थान हो जहाँ अध्ययन, अनुसंधान और पाठ्यक्रम निर्माण का कार्य शिक्षक अपनी जिम्मेदारी पर करते हों ? इसमें वेतन की कोई व्यवस्था न हो, समाज के सहयोग से ही सबकुछ चलता हो । इसमें जुडनेवालों के निर्वाह की व्यवस्था स्वतन्त्र रूप से ही की जाय और स्वयं शिक्षक ही करें यह आवश्यक है क्योंकि मूल बात शिक्षक के स्वनिर्भर होने की है ।
  12. आज भी देश में ऐसे लोग हैं जो स्वयंप्रेरणा से शिक्षा की इस प्रकार से सेवा कर रहे हैं । ऐसे लोगोंं की संख्या दस हजार में एक अवश्य होगी । परन्तु वे केवल व्यक्तिगत स्तर पर काम करते हैं । इनकी बहुत प्रसिद्धि भी नहीं होती । जो उन्हें जानता है वह उनकी प्रशंसा करता है परन्तु उनका शिक्षातन्त्र में परिवर्तन हो सके ऐसा प्रभाव नहीं है । इन्हें एक सूत्र में बाँधने हेतु प्रेरित किया जाना चाहिये । इनके प्रयासों को “भारत में शिक्षा को धार्मिक बनाओ' सूत्र का अधिष्ठान दिया जा सकता है । इनके प्रयासों की जानकारी समाज को दी जा सकती है ।
  13. शिक्षा मुक्त होनी चाहिय ऐसा जिनको भी लगता है उन्होंने स्वयं से शुरुआत करनी चाहिये । साथ ही अन्य शिक्षकों को मुक्त होने के लिये आवाहन करना चाहिये । जिस प्रकार स्वराज्य का बलिदान देकर सुराज्य नहीं हो सकता उसी प्रकार जड़तन्त्र के अधीन रहकर धार्मिक शिक्षा सम्भव नहीं है । इसी एक बात को समझाने में सबसे अधिक शक्ति खर्च करनी होगी । आज यही करने का प्रयास हो रहा है ।

शिक्षक प्रबोधन का विषय सर्वाधिक महत्त्व रखता है । इसको सही पटरी पर लाये बिना और कुछ भी कैसे हो सकता है ? सबको मिलकर इस बात के लिये प्रयास करने की आवश्यकता है ।

आदर्श शिक्षक

धार्मिक शैक्षिक चिंतन में शिक्षक का स्थान बहुत ही आदरणीय, पूज्य, श्रेष्ठ माना गया है। सभी प्रकार के सत्तावान, बलशाली, शौर्यवान, धनवान व्यक्तियों से भी शिक्षक का स्थान ऊँचा है । शिक्षक को आचार्य, अध्यापक, उपाध्याय, गुरु आदि नामों से संबोधित किया जाता है | उनके विद्यादान के प्रकार के अनुसार ये नाम दिये जाते हैं ।

दैनंदिन जीवन में शिक्षक का आचार्य नाम स्थापित है । आचार्य की व्याख्या इस प्रकार की गई है [2]

आचिनोति हि शास्त्रार्थ आचारे स्थापयत्युत ।

स्वयमाचरते यस्तु स आचार्य: प्रचक्षते ।।

जो शास्त्रों के अर्थ को अच्छी तरह से जानता है, जो इन अर्थों को आचरण में स्थापित करता है, स्वयं भी आचरण में लाता है और छात्रों से भी आचरण करवाता है उसे 'आचार्य' कहा जाता है ।

आदर्श शिक्षक सबसे पहले आचार्य होना चाहिये । अपने आचरण से विद्यार्थी को जीवननिर्माण की प्रेरणा और मार्गदर्शन देता है वही आचार्य है ।

आचार्य शासन भी करता है अर्थात्‌ विद्यार्थी को आचार सिखाने के साथ साथ उनका पालन भी करवाता है ।

आचार्य का सबसे बड़ा गुण है उसकी विद्याप्रीति । जो जबर्दस्ती पढ़ता है, जिसे पढ़ने में आलस आता है, जो पद, प्रतिष्ठा या पैसा (नौकरी) अधिक मिले अतः पढता है, कर्तव्य मानकर पढता है उसे आचार्य (शिक्षक) नहीं कह सकते । पढ़ना, स्वाध्याय करना, ज्ञानचर्चा करना आदि का आनंद जिसे भौतिक वस्तुओं के आनंद से श्रेष्ठ लगता है, जो उसी में रम जाता है वही सही आचार्य है। जिनमें ऐसी विद्याप्रीति नहीं है ऐसे शिक्षकों के कारण ही शिक्षाक्षेत्र में अनर्थों की परंपराएँ निर्मित हो रही हैं ।

आचार्य का दूसरा गुण है उसका ज्ञानवान होना । स्वाध्याय, अध्ययन और चिंतन आदि प्रगल्भ होने से ही मनुष्य ज्ञानवान हो सकता है। बुद्धि को तेजस्वी और निर्मल बनाने के लिए जो अपना आहारविहार, ध्यानसाधना अशिथिल रखते हैं वही आचार्य ज्ञानवान होते हैं।

ज्ञानवान होने के साथ आचार्य का श्रद्धावान होना भी जरुरी है । अपने आप में, ज्ञान में और विद्यार्थी में श्रद्धा होती है तभी विद्यादान का कार्य उत्तम पद्धति से हो सकता है ।

एक ओर जहाँ आचार्य में विद्याप्रीति होनी चाहिये, वहाँ दूसरी ओर विद्यार्थीप्रीति भी होनी चाहिये । आचार्य को विद्यार्थी अपने मानस संतान ओर अपनी देहज संतान से भी अधिक प्रिय लगते हों, विद्यार्थी अपने आराध्य देवता लगते हों तभी वह उत्तम आचार्य है ।

आचार्य को विद्यार्थीप्रिय होना चाहिये लेकिन लाड़ करने के लिए प्रिय नहीं । आचार्य उसका चखित्रि निर्माण, उसके कल्याण की चिंता करने वाला होना चाहिये । छात्र को अनुशासन में रखना, सयम सिखाना भी आवश्यक है ।

आचार्य कभी विद्या का सौदा नहीं करता । पद, पैसा, मान, प्रतिष्ठा के लिए कभी कुपात्र को विद्यादान नहीं करता । योग्य विद्यार्थी को ही आगे बढ़ाता है । आचार्य को भय, लालच, खुशामद या निंदा का स्पर्श भी नहीं होता ।

आचार्य धर्म का आचरण करने वाला होता है ।

आचार्य सभ्य, गौरवशील, सुसंस्कृत व्यवहार करने वाला होता है । उसके व्यवहार में हलकापन, ओछापन नहीं होता । आचार्य कभी संतुलन नहीं खोता । मन के आवेगों पर नियंत्रण रखता है । धर्म को समझता है, कर्तव्य समझता है, सन्मार्ग पर चलता है ।

आचार्य विद्यार्थी के साथ साथ समाज का मार्गदर्शन करने को भी अपना कर्तव्य समझता है ।

आचार्य सदा प्रसन्न रहता है । शारीरिक रूप से स्वस्थ रहता है । रोगी, संशयग्रस्त, पूर्वग्रहों से युक्त, चिडचिड़ा, लालची, प्रमादी नहीं होता । ऐसी स्थिति में वह कभी छात्रों के सामने उपस्थित नहीं होता ।

व्यावहारिकता की बात तो यह है कि, शिशु, बाल, किशोर छात्रों के लिए अपंग, अंध, अस्पष्ट उच्चार वाला, गंदे दांतवाला आचार्य नहीं चलता। सशक्त, प्रभावी व्यक्तित्व वाला आचार्य ही विद्यार्थी को प्रेरणा दे सकता है ।

आचार्य की नियुक्ति उससे श्रेष्ठ आचार्य ही कर सकते हैं । शेष लोग आचार्य का सम्मान करे और आचार्य अपने से श्रेष्ठ आचार्य का आदर करे यही रीत है । आचार्य को अनुशासन में उससे श्रेष्ठ आचार्य ही रख सकते हैं, अन्य कोई नहीं ।

ऐसा आचार्य समाज का भूषण है । जो समाज आचार्य को सम्मान नहीं देता उसका पतन होता है ।

आज के समय में ये बातें या तो हमने छोड दी हैं, या बदल दी हैं । अतः शिक्षाक्षेत्र में अनवस्था निर्माण हुई है । इस अनवस्था ने समग्र समाज को शिथिल और अस्थिर कर दिया है ।

इस स्थिति को बदलने का प्रयास सबसे पहले आचार्यों को करना चाहिये और बाद में समाज को करना चाहिये ।

विद्यालय को अच्छे शिक्षक कैसे मिलेंगे

जैसा शिक्षक वैसी शिक्षा

शिक्षक और शिक्षा का सम्बन्ध प्रतिमा और तत्व जैसा है । जिस प्रकार विद्या का तत्व, विद्या की संकल्पना मूर्त स्वरूप में सरस्वती की प्रतिमा बन गई उसी प्रकार से शिक्षा मूर्तिमन्त स्वरूप धारण करती है तब वह शिक्षक होती है । सीधा कहें तो जैसा शिक्षक वैसी शिक्षा ।

इसलिये अच्छी शिक्षा के लिये अच्छा शिक्षक चाहिये ।

विभिन्न प्रकार के विद्यार्थी, अभिभावक, संचालक और शासक किसे अच्छा शिक्षक कहते हैं इसकी चर्चा यहाँ नहीं करेंगे । केवल इतना कथन पर्याप्त है कि धार्मिक शिक्षा धार्मिक पद्धति से धार्मिकता की प्रतिष्ठा हेतु समय देने वाले शिक्षक होंगे तभी विद्यालय भी धार्मिक होंगे ।

ऐसे शिक्षक कहाँ से मिलेंगे ?

  1. समाज में ऐसे अनेक लोग हैं जो शिक्षा को चिन्तित हैं । इन के दो प्रकार हैं । एक ऐसे हैं जो अपनी सन्तानों की शिक्षा को लेकर चिन्तित हैं और अन्यत्र कहीं अच्छी शिक्षा नहीं है इसलिये स्वयं पढ़ना चाहते है। दूसरे ऐसे लोग हैं जो समाज के सभी बच्चोंं की शिक्षा के लिये चिन्तित हैं और अच्छी शिक्षा देना चाहते हैं । देश में सर्वत्र ऐसे लोग हैं । ये सब शिक्षक बनने का प्रशिक्षण प्राप्त किये हुए हैं अथवा सरकारमान्य शिक्षक हैं ऐसा नहीं होगा, परन्तु ये धार्मिक शिक्षा की सेवा करनेवाले अच्छे शिक्षक हैं । इनकी सूची दस हजार से ऊपर की बन सकती है । इन स्वेच्छा से बने शिक्षकों को शिक्षाशास्त्रियों ट्वारा समर्थन, सहयोग, मार्गदर्शन मिलना चाहिये । उनके प्रयोग को. निखारने और बढाने में शिक्षाशास्त्रियों का योगदान होना चाहिये क्योंकि ये धार्मिक शिक्षा हेतु आदर्श प्रयोग हैं । देशके शैक्षिक संगठनों ट्वारा इन प्रयोगों को समर्थन और सुरक्षा की सिद्धता होनी चाहिए।
  2. विद्यालयों में आज तो ऐसी व्यवस्था या पद्धति नहीं है कि वे स्वयं अपने विद्यालयों या महाविद्यालयों के लिये स्वयं शिक्षक तैयार कर सर्के । इसका एक कारण यह भी है कि पूर्ण शिक्षा कहीं एक स्थान पर होती हो ऐसी व्यवस्था नहीं है । किसी एक संस्थामें पूर्व प्राथमिक से महाविद्यालय स्तर तक की शिक्षा होती हो तब भी वे सारे विभाग भिन्न भिन्न सरकारी स्चनाओं के नियमन में चलते हैं । इसलिये कोई एक विद्यालय स्वयं चाहे उस विद्यार्थी को या उस शिक्षक को अपने विद्यालय में नियुक्त नहीं कर सकता । अपने विद्यार्थी के साथ साथ उसे अन्य लोगोंं को भी चयनप्रक्रिया में समाविष्ट करना होता है । एक अच्छा विद्यार्थी जब तक शिक्षक प्रशिक्षण का प्रमाणपत्र प्राप्त नहीं करता तब तक वह शिक्षक नहीं बन सकता । उसी प्रकार से सभी प्रमाणपत्र प्राप्त विद्यार्थी अच्छे शिक्षक होते ही हैं ऐसा नियम नहीं है । शिक्षकों के चयन में विद्यालय के मापदण्ड नहीं चलते, सरकार के चलते हैं । इसलिये उस व्यवस्था से ही शिक्षक लेने होते हैं । इस स्थिति में इतना तो किया जा सकता है कि जो शिक्षक बनने योग्य हैं ऐसे विद्यार्थियों को शिक्षक ही बनने की प्रेरणा दी जाय और उन्हें इस हेतु से मार्गदर्शन, अवसर और शिक्षण भी दिया जाय । विभिन्न विषयों के महाविद्यालयीन अध्यापकों ने भी अध्यापक बनने योग्य विद्यार्थियों को प्रगत अध्ययन और अनुसन्धान के क्षेत्र में जाकर अध्यापक बनने के लिये प्रेरित करना चाहिये । ये विद्यार्थी अपने ही विद्यालय या महाविद्यालय में शिक्षक न भी बनें तो भी जहाँ जायें वहाँ अच्छे शिक्षक के रूप में कार्य कर सकेंगे । इसके साथ ही जो शिक्षक बनने योग्य नहीं है ऐसे विद्यार्थियों को शिक्षक बनने से परावृत्त करने की भी योजना बनानी चाहिये । जो शिक्षक बनने योग्य नहीं है वे जब शिक्षक बन जाते हैं तब वे शिक्षा की और समाज की कुसेवा करते हैं ।
  3. सही मार्ग तो यह है कि अपने विद्यालय के छात्र ही विद्यालय में शिक्षक बनें । शिक्षा की परम्परा निर्माण करना धार्मिक शिक्षा का एक खास लक्षण है । हर पिताश्री को जिस प्रकार अपने कुल की परम्परा अपने पुत्र को सौंपनी चाहिये उसी प्रकार हर शिक्षक को अपना दायित्व वहन करे ऐसा योग्य विद्यार्थी निर्माण करना चाहिये । ऐसे एक से अधिक विद्यार्थी निर्माण करना उचित होगा क्योंकि तब शिक्षा का प्रसार होगा । अपने विद्यार्थियों में कौन प्राथमिक में, कौन माध्यमिक में, कौन महाविद्यालय में और कौन सभी स्तरों पर पढा सकेगा यह पहचानना शिक्षक का कर्तव्य है। अच्छे विद्यार्थी ही नहीं तो अच्छे शिक्षक भी देना यह शिक्षक की शिक्षासेवा और समाजसेवा है ।
  4. इस दृष्टि से हर शिक्षा संस्थाने पूर्वप्राथमिक से उच्चशिक्षा तक के विभाग एक साथ चलाने चाहिये ताकि विद्यार्थी को अध्ययन में और शिक्षकों को चयन में सुविधा हो । यदि नगर के सारे विद्यालय मिलकर कोई रचना करते हैं तो वह एक विद्यालय की योजना से भी अधिक सुविधापूर्ण हो सकता है ।
  5. उच्च शिक्षा और प्रगत अध्ययन तथा अनुसन्धान का क्षेत्र तुलना में खुला होने में सुविधा रहेगी, प्रश्न केवल अच्छे शिक्षक के मापदण्ड ठीक हों उसका ही रहेगा । तथापि “अपना विद्यार्थी अपना शिक्षक की प्रथा उत्तम रहेगी ।
  6. आज एक शिक्षक भी अपने अच्छे विद्यार्थी को शिक्षक बनाना नहीं चाहता । मातापिता भी अपनी तेजस्वी और मेधावी सन्तान को शिक्षक देखना नहीं चाहते । ऐसे में शिक्षाक्षेत्र साधारण स्तर का ही रहेगा इसमें क्या आश्चर्य ? शिक्षा को श्रेष्ठ और तेजस्वी बनाना है तो मेधावी और श्रेष्ठ विद्यार्थियों को शिक्षक बनने हेतु प्रेरित करना होगा । इस दृष्टि से समाज प्रबोधन, अभिभावक प्रबोधन और शिक्षक प्रबोधन की आवश्यकता रहेगी । प्रबोधन का यह कार्य प्रभावी पद्धति से होना चाहिये तभी घर में, समाज में और विद्यालय में शिक्षक को प्रतिष्ठा और सम्मान प्राप्त होंगे और विद्यार्थियों को शिक्षक बनने की प्रेरणा मिलेगी ।
  7. जो शिक्षक नहीं बन सकता वही अन्य कुछ भी बनेगा, उत्तम विद्यार्थी तो शिक्षक ही बनेगा ऐसे भाव का प्रसार होना चाहिये ।
  8. श्रेष्ठ विद्यार्थियों को पढ़ाने का अवसर छोटी आयु से ही प्राप्त होना चाहिये । दूसरी या चौथी कक्षा के छात्र शिशुकक्षामें कहानी बतायें, पहाडे रटवायें, आठवीं के छात्र चौथी कक्षा को गणित पढ़ायें इस प्रकार नियोजित, नियमित पढाने का क्रम बनना चाहिये । अभिव्यक्ति अच्छी बनाना, कठिन विषय को सरल बनाना, उदाहरण खोजना, व्यवहार में लागू करना, शुद्धि का आग्रह रखना, कमजोर विद्यार्थियों की कठिनाई जानना, उन्हें पुनः पुनः पढाना आदि शिक्षक के अनेक गुणों का विकास इनमें किस प्रकार होगा यह देखना चाहिये । ये विद्यार्थी शिक्षक के सहयोगी होंगे । शिक्षक की सेवा करना, अध्यापन में सहयोग करना, साथी विद्यार्थियों की सहायता करना आदि उनकी शिक्षा का ही अंग बनना चाहिये । शिक्षकों को उन्हें विशेष ध्यान देकर पढाना चाहिये । शिक्षक के रूप में उनके चरित्र का विकास हो यह देखना चाहिये । उनके परिवार के साथ भी सम्पर्क बनाना चाहिये । ये विद्यार्थी पन्द्रह वर्ष के होते होते उनमें पूर्ण शिक्षकत्व प्रकट होना चाहिये । उसके बाद वे शिक्षक और विद्यार्थी दोनों प्रकार से काम करेंगे परन्तु उनका मुख्य कार्य अध्ययन ही रहेगा ।
  9. जो विद्यार्थी शिक्षक ही बनेंगे उनके प्रगत अध्ययन हेतु एक विशेष संस्था का निर्माण हो सकता है जहाँ विद्यालय अपने चयनित शिक्षकों को विशेष शिक्षा के लिये भेज सकते हैं । यहाँ मुख्य रूप से राष्ट्रीय शिक्षा की संकल्पना, राष्ट्रनिर्माण, ज्ञान की सेवा, वैश्विक समस्याओं के ज्ञानात्मक हल, धर्म और संस्कृति, धार्मिक शिक्षा का वर्तमान, भारत का भविष्य शिक्षा के माध्यम से कैसे बनेगा, उत्तम अध्यापन आदि विषय प्रमुख रूप से पढाये जायेंगे ।
  10. उत्तमोत्तम शिक्षकों के दो काम होंगे। एक तो विद्यालयों के शिक्षकों को सिखाना और दूसरा अनुसन्धान करना । नये नये शास्त्रग्रन्थों का निर्माण करना जिसमें छोटे से छोटे विद्यार्थी से लेकर विट्रज्जनों तक सबके लिये सामग्री हो । इस कार्य के लिये देशविदेश के श्रेष्ठ विद्वानों के साथ सम्पर्क स्थापित करने का काम भी करना होगा। इसके लिये अनुसन्धान पीठों की भी रचना करनी होगी । बीस पचीस वर्ष की अवधि में विद्यालय के छात्र अनुसन्धान करने में जुट जाय ऐसी स्थिति बनानी होगी ।
  11. कई व्यक्ति जन्मजात शिक्षक होते हैं । इनका स्वभाव ही शिक्षक का होता हैं क्योंकि स्वभाव जन्मजात होता है । ऐसे जन्मजात शिक्षकों को पहचानने का शास्त्र और विधि हमें अनुसन्धान करके खोजनी होगी । इसके आधार पर शिक्षक बनने की सम्भावना रखने वाले विद्यार्थियों का चयन करना सरल होगा । अधिजननशास्त्र, मनोविज्ञान, आयुर्वेद, ज्योतिष, सामुद्रिकशास्त्र आदि ऐसे शास्त्र हैं जो इसमें हमारा मार्गदर्शन कर सकते हैं । अर्थात्‌ ये सब अपनी अपनी पद्धति से व्यक्ति को पहचानने का कार्य करते हैं । शिक्षक को इन सब का समायोजन कर अपने लिये उपयोगी सामग्री बनानी होगी ।
  12. अभिभावकों में भी स्वभाव से शिक्षक परन्तु अन्य व्यवसाय करने वाले अनेक व्यक्ति होते हैं । इन्हें शिक्षक बनने हेतु प्रेरित किया जा सकता है । इन्हें विद्यालय के शैक्षिक कार्य में, शिक्षा विचार के प्रसार में, विभिन्न प्रकार की व्यवस्थाओं में सहभागी बनाया जा सकता है ।
  13. विभिन्न प्रकार के कार्य कर सेवानिवृत्त हुए कई लोग स्वभाव से शिक्षक होते हैं । उन्हें भी उनकी क्षमता और रुचि के अनुसार शिक्षा की पुर्नरचना के विभिन्न कार्यों के साथ जोड़ा जा सकता है ।
  14. तात्पर्य यह है कि शिक्षा का क्षेत्र खुला करना चाहिये । आज वह अनेक गैरशैक्षिक बातों का बन्धक बन गया है । उसे इनसे मुक्त करना चाहिये । धार्मिक समाजन्यवस्था का मूल तत्व परिवारभावना है। विद्यालय भी एक परिवार है । परिवार में परम्परा बनाना और बनाये रखना मूल काम है । समाजजीवन में दो प्रकार की परम्परायें होती हैं । एक है वंशपरम्परा जो पितापुत्र से बनती है । दूसरी है ज्ञानपरम्परा जो गुरुशिष्य अर्थात्‌ शिक्षक और विद्यार्थी से बनती है । विद्यालय का धर्म इस परम्परा को निभाने का है । शिक्षक अपने विद्यार्थी को शिक्षक बनाकर इस परम्परा को निभाता है।

इस प्रकार सांस्कृतिक और व्यावहारिक दोनों प्रकार से उत्तम विद्यार्थी को शिक्षक बनाकर शिक्षाक्षेत्र के लिये अच्छे शिक्षक प्राप्त करने की योजना बनाना आवश्यक है ।

References

  1. धार्मिक शिक्षा के व्यावहारिक आयाम (धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला ३): पर्व २: अध्याय ५, प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे
  2. ब्रह्मपुराण पूर्वभाग 32.32