पश्चिमीकरण से जन्मे हीनताबोध से मुक्त होने के उपाय

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हीनता एक मनोरुग्णता है

१. पश्चिमीशिक्षा का सर्वाधिक प्रभाव हमारे मानस पर हुआ है । धनसम्पन्न, बुद्धिसम्पन्न, गुणसम्पन्न लोगोंं को भी इस विकृति ने नहीं बक्षा है । मन में गहरे पैठे इस रोग से मुक्त हुए बिना अन्य अनेक श्रेष्ठ उपायों का भी कोई परिणाम दिखाई नहीं देता ।

२. हीनताबोध मानसिक विकृति है, मनोरुग्णता है । इसे बुद्धि से नहीं समझा जाता । इसे बौद्धिक उपायों से दूर भी नहीं किया जाता । शारीरिक व्याधि को दूर करने हेतु जिस प्रकार का औषधोपचार किया जाता है उस प्रकार के औषधोपचार से भी उसे दूर नहीं किया जाता है । समझाना, प्रमाण देना, कार्यकारण भाव बताना आदि बौद्धिक उपाय, दृण्ड, सख्ती, आदि शारीरिक उपायों से, देशभक्ति, स्वतन्त्रता, स्वगौरव जैसे नैतिक और आत्मिक उपदेशों से भी यह रोग दूर नहीं हो सकता |

३. इसे दूर करने हेतु मनोवैज्ञानिक उपाय ही कारगर हो सकते हैं । यह एक ग्रन्थि हैं, गाँठ है जिसे काटने से वह अधिक पक्की होती है । उसे खोलना ही होता है। यह एक भूत है जिसे भगाना ही होता है, भूत को भगाने के उपायों से ही भगाना होता है । यह एक मायाजाल है जिसे जादू के उपायों से ही बिखेरा जा सकता है । यह मनकी आँख पर बँधी पट्टी है जिसे उखाडे बिना दृष्टि की क्षमता वापस नहीं आती । यह एक रंगीन चश्मा है जो हर पदार्थ को अपने रंग से रंगकर ही दिखाता है।

४. किसी भी रोग के कारण जानने से उपाय भी उचित हो सकते हैं । हीनताबोध के कारण प्रजा के विभिन्न वर्गों के लिये विभिन्न प्रकार के हैं। इन्हें रोग के इतिहास में जाकर समझा जा सकेगा ।

५. हीनता बोध का यह इतिहास लगभग डेढ़ सौ वर्ष पुराना है । रोग भी इतना पुराना होकर भीषण स्वरूप धारण कर चुका है । इस रोग को लगाने वाले अंग्रेज हैं । अपने स्वार्थी हेतुओं से प्रेरित होकर कुटिल बुद्धि से जन्मे अनेकविध कारनामों का प्रयोग कर उन्होंने धार्मिक प्रजा के मानस को ग्रस लिया है जो अभी भी उससे मुक्त नहीं हुआ है ।

६. उनका एक प्राथमिक स्वरूप का साधन था अत्याचार । समृद्ध भारत के अनेकविध चीजवस्तुओं की निर्मिति कर प्रभूत उत्पादन करनेवाले असंख्य कारीगरों से अंग्रेजों ने धन्धे छीन लिये । उन्हें भूखों मरने को मजबूर किया । उनसे मजदूरी करवाई, कोडे मार मार कर शारीरिक यातनायें दीं, उनसे वेठ बिगारी करवाई, उन को पीडा, आत्मग्लानि और भूख से भर दिया । वे भागना चाहते थे, उन्हें भागने नहीं दिया | वे मरना चाहते थे, उन्हें मरने नहीं दिया । तिरस्कार, भूख, वेठ और मारने उन्हें तोड दिया । उनकी सहनशक्ति जब खतम हो गई तो उनके मन टूट गये और आत्मग्लानि से भर कर हताश हो गये । यह सिलसिला दो तीन पीढ़ियों तक चलता रहा । उनके जातीय वंशज आज भी उस रोग से ग्रस्त बने हुए है । यह आत्मग्लानि प्रजामानस में बहुत गहरी और व्यापक है। काम और कारीगरी हीन है यह प्रजामानस का एक स्थायी भाव बन गया है । हर कोई इससे बचना चाहता है और काम न करके अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करना चाहता है ।

७. दूसरा कारनामा था भेद उत्पन्न करने का | सित्र्यों का शोषण होता है, उन्हें दबाया जाता है ऐसा कहकर खियों को पुरुषों के विरुद्ध, शूट्रों का तिरस्कार होता है, उनका शोषण और अपमान होता है ऐसा कहकर

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शूद्रों को ब्राह्मणों के विरुद्ध, यहाँ की पूरी प्रजा अन्धविश्वासों से भरी हुई है, पिछडी है ऐसा कहकर पूरी प्रजा को अपने धर्म, संस्कृति और धर्माचार्यों के विरुद्ध भटकाने के लगातार प्रयास किये गये, जो आज भी चल रहे हैं जिसके परिणाम स्वरूप वर्गभेद आज भी दृढमूल बनकर अपना प्रभाव दिखा रहा है ।

८. तीसरा उपाय शिक्षा का था । समाज के ब्राह्मण वर्ग के कुछ लोगोंं पर उन्होंने अंग्रेजी शिक्षा देने की “कृपा' की और उन्हें शेष समाज से अलग कर अपने साथ जोड़ा । अपने जैसा वेश, अपने जैसा खानपान, अपने जैसा शिष्टाचार, अपनी भाषा और अपना ज्ञान देकर उन्हें अपने जैसा बनाया, उनका सम्मान किया, उनके गुणगान किये और शेष प्रजा को हीन मानना सिखाया । शिक्षित वर्ग में अंग्रेजी, अंगप्रेजीयत और अंग्रेजी ज्ञान अपने आपको श्रेष्ठ मानकर शेष प्रजा को हीन मानता है ।

९. इन तीनों बातों की सहायता से, शिक्षित धार्मिकों का ही साधन के रूप में उपयोग कर सभी राजकीय, प्रशासनिक, पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक संस्थाओं को छिन्नविच्छन्न कर उनके स्थान पर युरोपीय संस्थाओं को प्रस्थापित कर दिया । शिक्षा के माध्यम से बुद्धि में, अत्याचार और छल के माध्यम से मन में और व्यवस्थाओं के माध्यम से व्यवहार में वे छा गये ।

हिनता बोध का स्वरूप

१०. अब हमारे धार्मिक श्याम वर्ण के शरीर में वे वस्त्र, आहार, दिनचर्या, सुखसुविधाओं के रूप में बैठे हैं । हमारे मन पर स्वैराचार, अकर्मण्यता, निष्क्रिय मनोरंजन, चरित्र और शील के प्रति उदासीनता बन कर राज्य कर रहे हैं । हमारी बुद्धि में स्वकेन्द्रितता, अर्थप्रधानता, विकास की भौतिक और एकरेखीय संकल्पना बन कर स्थापित हो गये हैं । बाहर जो दिख रहा है वह हमारे अन्दर के अंग्रेज की ही छाया है, उस भूत की ही माया है ।

११. उस भूत को निकालने में कष्ट तो होगा ही। शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक सभी स्तरों पर कष्ट होगा । परन्तु उन कष्टों का औषध मानकर सहना होगा । काँटे को काँटे से निकालने और विष को विष से उतारने जैसे प्रयोग हमें करने ही होंगे ।

१२. 'तिरस्कार, उपेक्षा, उपहास, वक़ बोली आदि किसी को नीचा दिखाने के लिये प्रयुक्त होनेवाले मनोवैज्ञानिक शास्त्र हैं । गालीप्रदान इसी हेतु से किया जाता है। अंग्रेजी भाषा, अंग्रेजी पद्धति, अंग्रेजी शिष्टाचार के प्रति इस प्रकार से नीचा दिखाने का प्रचलन बढाना चाहिये ।

१३. तुम अंग्रेजी बोलते हो ? छीः, तुम्हारे मुँह से दुर्गन्ध आ रही है, तुम्हारा मुँह अपवित्र बन गया है। जाओ, धोकर आओ फिर हमसे बात करो । दुर्गन्ध मत फैलाओ । और याद रखो, हम से बात करनी है, हमारी मित्रता करनी है, हमारे गट में शामिल होना है तो अंग्रेजी को घर रखकर आओ । और हाँ, जब तक तुम्हारे घर में अंग्रेजी है, हम ऐसे अपवित्र स्थान में पैर भी नहीं रख सकते ।

१४. यह क्या पहना है, कोट और पैण्ट ? हमारी धोती को छोडकर यह जोकर जैसा वेश पहनते हुए तुम्हें लज्जा नहीं आती ? हाँ, कैसे आयेगी ? जब सब निर्लज एकत्रित हो गये हों तब कौन किसका उपहास कर सकता है ? परन्तु हमारी बुद्धि भ्रष्ट नहीं हुई है ।

१५. धोती और साडी पहनने में पहनने वाले की कुशलता होती है, शर्ट पेण्ट और फ्रोक पहनने में दर्जी की । तुम्हारी अपनी कोई कुशलता नहीं है इसलिये तुम दर्जी के भरोसे रहते हो । जरा हमसे सीखो । तुम्हारे पैसे भी बचेंगे और जरा सभ्य भी लगोगे ।

१६. यह क्‍या असभ्यता है ! तुम्हें क्या पालथी लगाकर बैठना नहीं आता कि ऐसे आधे खडे होकर खाना खाते हो ? तुम्हें कुछ अक्ल दी है कि नहीं भगवानने ? सारे अच्छे काम अच्छी तरह, आराम से नीचे बैठकर किये जाते हैं । खाना भी तो अच्छा

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अंग्रेजों ने हमारे घरमें जो फूट डाली है उसे दूर कर समरसता निर्माण करने के उपाय ये नहीं हो सकते । वे इससे भिन्न स्वरूप के होंगे । यह तो अपनी ही नासमझी दूर करने का विषय है, अपने ही अवगुर्णों को दूर करने का मामला है ।

२४. इसमें पहला विषय है स्त्रीपुरष समानता का । इस प्रश्न ने हमारे परिवारों का विघटन कर दिया है । परिवार के विघटन से संस्कृति का एक अत्यन्त प्रभावी आलम्बन ही नष्ट हो गया है । परिवार के विघटन का एक महत्त्वपूर्ण कारण है स्त्रीपुरुष समानता की पाश्चात्य भ्रान्‍्त संकल्पना जो शिक्षा के माध्यम से खियों और पुरुषों को समान रूप से मिली है । विगत कुछ वर्षों में खियों पर अत्याचार हुए भी हैं, उन्हें आश्रितता का और हीनता का अनुभव करना भी पडा है, इसमें तो कोई असत्य नहीं है परन्तु इसके जो उपाय बनाये गये, किये गये और आज भी किये जा रहे हैं वे पारिवारिक सन्तुलन बनाने वाले नहीं है, उल्टे बिगाड़ने वाले ही सिद्ध हुए हैं ।

२५. स्त्रीयों को ख्ियों के नाते समान मानना, स्त्रीत्व के गुणों का आदर करना, स्त्रीत्व की अमूल्य सम्पत्ति मानकर रक्षा करना सही उपाय है । उसके स्थान पर आज ख्ियों को पुरुष जैसा बनने में, पुरुष करते हैं वे सभी काम करने में, उन कामों में भी पुरुषों से आगे निकलने में अधिक रुचि लगती है। ऐसा होने में पुरुषों को भी आपत्ति नहीं है। परन्तु भारत की करोडों खियों को ऐसी शिक्षा और ऐसे अवसर नहीं दिये जा सकते यह कितना ही इच्छनीय और आवश्यक लगता हो तो भी व्यावहारिक स्तर पर यह सम्भव नहीं है ।

२६. इसके साथ ही यह भी विचार करना चाहिये कि ऐसा मानने से और करने से स्त्रीपुरुष समानता सिद्ध नहीं होती, पुरुष का श्रेष्ठत्व ही सिद्ध होता है और Sh at पुरुष के समान बनने के लिये पुरुष करता है वह सब करने की, कर दिखाने की चुनौती उठानी पड़ती है वह उठा तो लेगी परन्तु पुरुष ही श्रेष्ठ है ऐसा तो पहले से ही गृहीत बन जायेगा । परिणाम स्वरूप समाज स्त्रीविहीन हो जायेगा और अकेले पुरुष ही बचेंगे | स्त्री के देह में भी पुरुषत्व ही विकसित होगा । शारीरिक और जैविक स्तर पर स्त्री और वृत्ति, कार्य और व्यवहार में पुरुष ऐसी एक नई जाति का उदय होगा ।

२७. इसलिये स्त्रीपुरुष समानता का उपरी स्तर छोड़कर आन्तरिक स्तर पर हमें जाना होगा और स्त्री को स्त्री के रूप में समानता के अधिकार मिले ऐसी व्यवस्था करनी होगी | ख्त्रीशिक्षा को एक नया स्वरूप देना होगा और उसके प्रकाश में पुरुषशिक्षा को भी मोडना होगा ।

२८. परिवारों को सख्त्रीकेन्द्री बनाना होगा। साथ ही परिवारों को कार्यालयों, कारखानों और मन्त्रालयों से अधिक महत्त्वपूर्ण मानना होगा । परिवार को सुदृढ़ और व्यवस्थित रखने को सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण मानकर शेष बातों की स्वना करनी होगी ।

२९. इस दृष्टि से परिवार शिक्षा के विविध आयामों को विधिवत पाठ्यक्रम, पठन-पाठन सामग्री की सहायता से मुख्य प्रवाह की शिक्षा के साथ अथवा समानान्तर चलाना होगा । लडके और लडकियों के मानस परिवार बनाने के अनुकूल बनाना होगा । इससे विवाह की आयु कम होगी । इससे जन्म लेने वाले बच्चे स्वस्थ होंगे । लडकों और लडकियों में गृहस्थ और गृहिणी बनने की चाह भी निर्माण करनी होगी । विवाह को अधथर्जिन से वरीयता देनी होगी ।

३०. व्यावहारिक रूप में अथार्जिन हेतु पात्रतानिर्माण करने का काम प्रथम करना चाहिये, यह पात्रता दोनों में अर्थात्‌ लड़कों और लडकियों में समान रूप से निर्माण करनी चाहिये, परन्तु प्रत्यक्ष अर्थार्जन से पूर्व विवाह होना चाहिये और बाद में दोनों ने साथ मिलकर अर्थार्जन करना चाहिये, एकदूसरे से स्वतन्त्र या अलग नहीं । किसी भी हालत में दारुण विवशता न हो तो एकदूसरे से अलग रहना अच्छा नहीं माना

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सम्पत्ति, पद, मान, पुरस्कार आदि से सम्बद्ध न हों यह आवश्यक है । वे पूर्ण रूप से निष्पक्षपाती हों ऐसा कम से कम एक हजार लोगोंं का विश्वास होना चाहिये । इतनी कडाई नहीं की तो उसके द्वारा दी गई व्यवस्था अनुसरणीय नहीं बनेगी ।

४७. एक नई व्यवस्था दने के लिये दो तीन बिन्दु पर्याप्त हैं। तीन चार पीढ़ियों में परिष्कृत होते होते वह सर्वस्वीकृत व्यवस्था बन सकती है ।

४८. समाज के कुछ लोगोंं को तो ब्राह्मण बनना ही चाहिये । उन्हें ब्राह्मण न कहकर शिक्षक, याशिक, धर्माचार्य, प्रधान, सेवक, ऋषि ऐसा कुछ भी कह सकते हैं । जो भी नाम दिया जाय स्वयं कुछ न लेते हुए शास्त्रों की रचना करने वाले और समाज और राज्य का मार्गदर्शन करने वाले लोग तो चाहिये ही । समाज ही अपने में से ऐसे व्यक्ति निर्माण करे यह अपेक्षा है ।

४९. समाज में जो भी वंचित हैं, दुर्बल हैं, दीन हैं उन सबकी सम्पूर्ण सुरक्षा और पोषण का दायित्व सरकार का न होकर समाज का होना चाहिये । यह कार्य दयाभाव से नहीं अपितु कर्तव्यभाव से होना चाहिये । ऐसे भाव और कृति की प्रेरणा ऋषियों ने देनी चाहिये और धनवानों और बलवानों ने उसका अनुसरण करना चाहिये । इस दृष्टि से यह धर्माचार्यों का काम है, सरकार का नहीं ।

५०. छोटे मोटे कार्यक्रमों से समरसता निर्माण होना असम्भव है । इसके लिये व्यवस्था चाहिये । सामान्य जनों के प्रबोधन से यह कार्य होने वाला नहीं है । श्रेष्ठ जनों के प्रबोधन की आवश्यकता है क्योंकि oy छोटों के नहीं, श्रेष्ठों के मन में है । उदाहरण के लिये एक संन्यासी यदि दलित के घर की भिक्षा का स्वीकार नहीं करता तो वह समाज का बडा अपराधी है ।

५१. असपृश्यता धार्मिक समाज का कलंक है । समरसता का वह बडा अवरोध है । आज सार्वजनिक स्थानों तथा समारोहों में, कार्यालयों में, यातायात में, होटलों में आअस्पृश्यता दिखाई नहीं दे रही है परन्तु वह परिस्थितजन्य विवशता है, मन में से अस्पृश्यता गई नहीं है । वह मन में से जाना ही आवश्यक है । इसका भी उपाय बडों के पास ही है । आज तो ब्राह्मण, साधु, संन्यासी, धर्माचार्य अपने आचार को तो छोड रहे हैं परन्तु अस्पृश्यता को पाल रहे हैं। जिन्हें न्याय करना है वे ही अपराधी हैं, उनका न्याय कौन करेगा ? जिन्हें आचार का उपदेश देना है वे ही आचारों का पालन नहीं करते हैं । ह्लउन्हें उपदेश कौन देगा ? जिन्हें समाज को समरस बनाना है वे ही भेदभाव कते हैं, उन्हें समरसता कौन सिखायेगा ? सरकार के पास तो केवल कानून है और कानून के प्रति जनमानस की श्रद्धा नहीं है । जिन के प्रति श्रद्धा है वे श्रद्धा के पात्र नहीं हैं । इसलिये समरसता की समस्या हल नहीं होती ।

५२. आज भी एक वर्ग ऐसा है जो समरसता हेतु प्रयासरत है। उस वर्ग को अपनी संकल्पना स्पष्ट करनी होगी | साथ ही यह तो निश्चित है कि धर्माचार्यों द्वारा कठोर तपश्चर्या के ट्वारा आदर्श प्रस्थापित कर व्यवस्थित योजना बनाये बिना इस समस्या का निराकरण नहीं हो सकता ।

सामाजिक सौहार्द

५३. धर्माचार्यों के साथ मिलकर विश्वविद्यालयों को योजना बनानी चाहिये । हमारे समक्ष आचार्य चाणक्य का उदाहरण है । वे राजनीतिशास्त्र के शिक्षक थे । उस विषय के अध्यापन के साथ साथ उन्होंने इसका व्यवहार में भी उपयोग किया और अत्याचारी धननन्द के शासन को समाप्त कर चन्द्रगुप्त को सम्राट बनाया जिसे उन्होंने ही तैयार किया था । इस उदाहरण से प्रेरणा लेकर समाजशास्त्र के अध्यापकों ने सामाजिक समरसता के प्रश्न को मिटाना चाहिये । उनका प्रमुख कर्तव्य यही है। तभी उनके अध्यापन की भी सार्थकता है । उनके विद्यार्थी तो समरसता के प्रत्यक्ष उदाहरण ही होने चाहिये ।

५४. सामाजिक समरसता के समान ही साम्प्रदायिक सौहार्द              

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स्थापित करना भी अत्यन्त आवश्यक है। समाज में अनेक सम्प्रदायों का होना अस्वाभाविक नहीं है । भिन्न भिन्न रुचि के लोग भिन्न भिन्न सम्प्रदायों को स्वीकार कर भिन्न भिन्न देवों की उपासना कर सकते हैं । इसे तो भारत में प्राचीन समय से मान्यता है । परन्तु संकुचित मानस वाले लोग अपने ही सम्प्रदाय को सर्वश्रेष्ठ मानकर अन्य सम्प्रदायों की निंन्दा करते हैं । इससे जो साम्प्रदायिक विट्वरेष निर्माण होता है वह समाज के सन्तुलन को भारी मात्रा में बिगाडता है । ऐसा न हो इस दृष्टि से हरेक सम्प्रदाय के आचार्य ने अपने अनुयायिओं को अन्य सम्प्रदायों का आदर करना सिखाना चाहिये ।

५५. अपने सम्प्रदाय के साथ ही अन्य सम्प्रदायों का ज्ञान भी देना चाहिये तथा धर्म क्या है और अपना सम्प्रदाय उस धर्म का ही अंग कैसे है यह खास सिखाना चाहिये । इस दृष्टि से सारे सम्प्रदाय हिन्दु धर्म के ही अंग हैं ऐसा कहने में धर्माचार्यों को संकोच नहीं करना चाहिये । हिन्दू धर्म को ही भारत में “मानव धर्म' अथवा “धर्म' कहा गया है और वह सनातन है ऐसा प्रतिपादन भी बार बार किया गया है । यदि कुछ सम्प्रदायों को 'हिन्दु धर्म' ऐसी संज्ञा स्वीकार्य न हो तो बिना किसी विशेषण के केवल “धर्म' संज्ञा का प्रयोग कर अपने सम्प्रदाय को उस धर्म के प्रकाश में व्याख्यायित करना चाहिये |

५६. भारत में यदि सर्वाधिक विट्रेष है तो वह इस्लाम और इसाई पंथ तथा हिन्दु धर्म के मध्य है । इसका मूल कारण मानस में ही पडा है। ये दोनों पंथ सहअस्तित्व को स्वीकार नहीं करते हैं । इस्लाम कहता है कि जो मुसलमान नहीं वह नापाक अर्थात्‌ अपवित्र है, उसे मुसलमान बनकर पाक बनना चाहिये, उसे पाक बनाना सच्चे मुसलमान का पवित्र कर्तव्य है और कोई यदि मुसलमान बनकर पाक बनना नहीं चाहता है और नापाक ही रहना चाहता है तो उसे जीवित नहीं रहने देने से मुसलमान को जन्नत अर्थात्‌ स्वर्ग मिलता है । अर्थात्‌ सम्पूर्ण विश्व में मुसलमान को ही जीवित रहने का अधिकार है ।

५७. इसी प्रकार से इसाई मानता है कि जो इसाई नहीं उसे मुक्ति नहीं मिलती है । इस सम्पूर्ण पृथ्वी पर ईसु का ही अधिकार है और वही एक मात्र ईश्वर का पयगंबर है। इसलिये सम्पूर्ण विश्व को इसाई बन जाना चाहिये ।

५८. इस कारण से दोनों पंथ धर्मान्‍्तरण करने पर तुले रहते हैं, धर्म के नाम पर युद्ध करते हैं, युद्ध के माध्यम से हिंसा फैलाते हैं । एक आतंक फैलाकर और दूसरा भय, लालच और कपट फैलाकर धर्मान्‍्तरण करते हैं ।

५९. भारत हिन्दू राष्ट्र है परन्तु इसे हिन्दू राष्ट्र कहने में अनेक तबकों को आपत्ति है । धर्म और सम्प्रदाय के मध्य का अन्तर बुद्धि से स्पष्ट समझ में आने वाला है तो भी मानसिक उलझनों के कारण उलझाया जाता है और अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक के विवाद में फैँसाकर देश को ही अस्थिर बनाया जा रहा है ।

६०. परन्तु सभी के सहअस्तित्व का स्वीकार करने वाला हिन्दू और सहअस्तित्व को सर्वथा अमान्य करने वाले इस्लाम और इसाइयत साथ साथ कैसे रह सकते हैं इस प्रश्न का हल खोजे बिना यह समरसता होने वाली नहीं है । सरकार अल्पसंख्यकों के अधिकार के नाम पर हल निकालने का प्रयास करती है परन्तु उससे हल निकलना तो असम्भव है । मुसलमान और इसाई इसका हल खोजेंगे नहीं क्योंकि उन्हें सहअस्तित्व मान्य नहीं है । जिन्हें सहअस्तित्व मान्य नहीं है उनके साथ रहने की हिन्दू की सांविधानिक बाध्यता है । इन परस्पर विरोधी लोगोंं का साथ रहना जिसे मान्य नहीं है उसके हिसाब से तो धर्मान्‍्तरण और गैर मुसलमान को मारना यही उपाय है । परन्तु जो सहअस्तित्व में मानता है उस हिन्दू के पास कौन सा उपाय है ?

६१. इस प्रश्न पर विश्वविद्यालय, धर्मसंस्था और सरकार तीनों ने मिलकर विचार करना चाहिये । सहअस्तित्व को नहीं मानना विश्वधर्म के विरोधी है कि नहीं ऐसा

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सवाल भी पूछा जाना चाहिये । इस पर ज्ञानात्मक चर्चा मनोवैज्ञानिक चर्चा के साथ साथ होनी चाहिये । प्रजामानस को आंतकित होने से बचाने का काम तो सीधा सीधा धर्माचार्यों का है । हिन्दू और मुसलमान धर्माचार्यों की चर्चा होनी चाहिये । भीरु प्रजा को नीडर बनाने का काम धर्माचार्यों का है और ज्ञानवान बनाने का विश्वविद्यालय का । इन दो आधारों के साथ शासन की ओर से सुरक्षा रही तो इस प्रश्न का हल निकल सकता है ।

संचार माध्यम का प्रभाव

६२. जनमानस को अत्यन्त प्रभावी ढंग से उद्देलित करने वाला एक कारक है मीडिया । समाचार पत्रों तथा टीवी की समाचार वाहिनियों ने बाजार का हिस्सा बनकर ऐसा कहर ढाना आरम्भ किया है कि प्रजा की स्वयं विचार करने की, स्वयं आकलन करने की शक्ति ही क्षीण हो गई है । अपने ही समाज का, सरकार का, देश का, शिक्षा का, अर्थव्यवस्था का अत्यन्त नकारात्मक चित्र इन समाचार माध्यमों में प्रस्तुत किया जाता है और मानस को आतंकित करता है । अखबारों के सभी पन्नों पर टीवी समाचारों के सभी अंशों में दुर्घटनायें, गुंडागर्दी, मारकाट, बलात्कार, आगजनी, आतंक, प्रदर्शन कारियों के विरोध प्रदर्शन, पुलीस का अत्याचार दिखाया जाता है । चित्र ऐसा उभरता है जैसे इस देश में दया, करुणा, प्रामाणिकता, उदारता, सुरक्षा, शान्ति जैसा कुछ है ही नहीं । शिक्षा धन, सद्गुणआदि का अभाव ही है। क्रिकेट और फिल्मों के समाचारों की भरमार है, शेरबाजार की प्रतिष्ठा है परन्तु प्रेरणादायक घटनाओं का सर्वथा अभाव है । ऐसे में प्रजा अपने आपको दीनहीन असुरक्षित माने इस में क्या आश्चर्य है ?

६३. संचार माध्यमों का सही ढंग से मार्गदर्शन करने का काम विश्वविद्यालयों के मनोविज्ञान विभाग का है । अभी तो सारे माध्यम बाजार के हि हिस्से बने हुए हैं और अपनी कमाई का ही विचार करते हैं । परन्तु जनमानस प्रबोधन करना उनका प्रथम कर्तव्य है । इस कर्तव्य की घोर उपेक्षा हो रही है ।

६४. फिल्में और धारावाहिक दर्शकों के मानस को भारी मात्रा में प्रभावित करते हैं । यह वास्तव में साहित्य और कला का क्षेत्र है । रसिकता, सौन्दर्यबोध, वृत्तियों का परिष्कार, जीवन का उन्नयन इनका साध्य है परन्तु दिनोंदिन लोगोंं की रसवृत्ति अत्यन्त भोंडी बनती जा रही है । इसके चलते ऊँचे दर्ज के साहित्य का सृजन भी नहीं हो रहा है ।

६५. इनको मार्गदर्शन करने का दायित्व सच्चे कलाकारों , साहित्यकारों , प्राध्यापकों आदि का है । एक तो इनमें वृत्ति नहीं होती या तो ये माध्यम किसी की परवाह नहीं करते इसलिये गुणवत्ता धीरे धीरे घटती ही जा रही है ।

६६. यहाँ वर्णित एक भी समस्या बुद्धि के क्षेत्र की नहीं है, मन के क्षेत्र की है । हीनता बोध से ही wah we समस्‍यायें हैं । एक ऐसी प्रजा जो समर्थ होते हुए भी अपने आपको समर्थ नहीं मानती, ऐसी ही समस्याओं में उलझ जाती है । बौद्धिक दृष्टि से हल बहुत सरल और स्पष्ट होने पर भी उसे न समझ सकती है न किसी के समझाने पर उसका स्वीकार कर सकती है । जो स्वयं ही गर्त में कूद पडा हो उसका क्‍या किया जाय ?

६७. हम इन मानसिक स्तर की समस्याओं का हल कानून में, पैसे में, राजकीय घोषणाओं में ढूँढते हैं और इन्हें और उलझा देते हैं । वास्तव में इनका हल धर्म, संस्कृति और शिक्षा के क्षेत्र में खोजना चाहिये ।

ग्रजामानस समर्थ बनाने के उपाय

६८. प्रजामानस को समर्थ बनाने हेतु छोटे छोटे प्रभावी और व्यापक उपाय करने चाहिये । ऐसे अनेक उपायों में से एक उपाय नित्य खेलने का है, नित्य व्यायाम करने का है। बाल, किशोर और युवाओं को घर के आसपास के मैदान में अथवा विद्यालयों के मैदानों में प्रतिदिन एक घण्टा अनिवार्य रूप से पसीना नितर जाय

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उस प्रकार खेलना चाहिये । पसीने के साथ शरीर और मन के मैल निकल जाते हैं और उत्साह और साहस का संचार होता है ।

६९. युवाओं का व्यायामशाला में जाना बढना चाहिये, दण्ड बैठक, कुस्ती, मलखम्भ और सूर्यनमस्कार से जो शक्ति आती है उससे दुर्बल विचार भाग जाते हैं । पथ्थर भी पचाने की शक्ति आती है ।

७०. युवायों को मोटर साईकिल का त्याग कर चलना, दौडना और साइकिल चलाना आरम्भ करना चाहिये । इससे स्फूर्ति, चापल्य और साहस बढ़ता है ।

७१. भारत के गीत, भारत के प्रेरणादायक चरित्रों के गीत गाना चाहिये । गीत सुनने का नहीं, गाने का विषय है । ऐसे गीतों से गौरव का भाव जाग्रत होता है । ऐसे गीतों के माध्यम से भारत का गौरवमय चरित्र सामने आता है ।

७२. साथ ही विगत दो सौ वर्षी में अंग्रेजों ने भारत की जो हानि की है उसका इतिहास उन्हें बताना चाहिये ताकि उनके हृदय क्रोध से भर उठे । यही क्रोध संयमित बनकर निर्माण की शक्ति में परिवर्तित हो सकता है ।

७३. साथ ही भारत ने अपने दीर्घतम इतिहास में विश्व के लगभग सभी देशों में जाकर उनका कितना कल्याण किया है उसकी भी सत्य घटनायें उन्हें बताई जानी चाहिये । आज तो युवाओं के समक्ष अपने देश का अंग्रेजों ने पढाया वैसा ही इतिहास रखा जाता है । भारत विषयक लज्जास्पद बातें ही सुनने को मिलती हैं, गौरवास्पद नहीं ।

७४. हमारा देश अमेरिका के लिये बाजार होने पर भी हम क्यों उससे दबे रहते हैं इसका विमर्श विभिन्न तबकों में करना चाहिये । युरोप और अमेरिका की जीवनदृष्टि की चर्चा करनी चाहिये ।

७५. जो देश विश्व में सबसे अधिक आयु वाला हो उसकी समाजव्यवस्था क्या इतनी गई बीती हो सकती है कि उसमें लोग जंगली जैसे रहते हों, खियों का शोषण होता हो और दृरिद्र॒ और पिछडे हों ? भारत की सम्पन्नता और दीर्घजीविता क्या किसी प्रकार की व्यवस्था का परिणाम नहीं होंगे ? भारत के विषय में कुछ नहीं जानना और हमें गुलाम बनाने वालों ने जो कुछ कहा उस पर विश्वास करना क्या हमें शोभा देता है?

७६. हमें लूटने वालों, हम पर अत्याचार करने वालों, हमें बदनाम करने वालों की भाषा हम गर्वपूर्वक अपनायें यह क्या हमें शोभा देता है ? इसे तो विषैली मक्खियों की तरह झट से दूर फैंक देनी चाहिये ।

७७. जिस देश में ज्ञानविज्ञान के ग्रन्थों का भाण्डार हो, महान क्रषि मुनियों द्वारा किये गये वैज्ञानिक प्रयोगों के संग्रह हों, टेकनोलोजी के क्षेत्र में जो देश विश्व में सर्वश्रेष्ठ हो उस देश के हम युवा पश्चिमी टेकनोलोजी से कैसे प्रभावित हो सकते हैं ? पश्चिमी टेकनोलोजी की और पश्चिमी अर्थव्यवस्था की विनाशकता हमारे ध्यान में क्यों नहीं आ सकती ?

७८. भारत का संगीत, भारत का नृत्य, भारत का साहित्य विश्व में श्रेष्ठ लोगोंं की प्रशंसा का विषय बना हुआ है । फिर हम क्यों इतने अनाडी बन कर घूम रहे हैं कि वह हमें आनन्द नहीं देता जबकि बन्दरकूद नृत्य और चिछ्लाहटभरा संगीत हमें आकर्षित करता है ?

७९. सम्पूर्ण विश्व को एक कुटुम्ब मानने वाला उदार अन्तःकरण जिसका है उस देश के हम नागरिक अपने देश को बदनाम होने से क्यों नहीं बचा सकते ? Bee हम भी उसे बदनाम करने में जुट जाते हैं ?

८०. भारत सोने का भण्डार था, आज भी है । भारत प्राकृतिक सम्पदा से समृद्ध देश था, आज भी है। हमारी आँखों पर ऐसी कौन सी पट्टी बँधी है कि हम भारत की समृद्धि को देख नहीं सकते है ? और उसकी रक्षा नहीं कर सकते ?

८१. हमें यहाँ जन्म लेकर, यहाँ पढाई कर विदेशों की सेवा करने के लिये जाने को मन कैसे करता है ? क्या चार पैसे हमें इतना आकर्षित करते हैं कि हम यहाँ पैसा नहीं, अवसर नहीं, रिसर्च की सुविधा नहीं जैसे बहाने बनाकर भाग जाते हैं ?

८२. क्या धार्मिक विद्याओं को पढने की हमारी इच्छा ही

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