धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला २
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शिक्षा का समग्र विकास प्रतिमान
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यद्यपि इन पांच ग्रन्थों में “पश्चिमीकरण से शिक्षा की मुक्ति' एक ग्रन्थ है, और वह चौथे क्रमांक पर है तो भी शिक्षा
के धार्मिककरण का विषय इससे या इससे भी पूर्व से प्रारम्भ होता है । शिक्षा के पश्चिमीकरण से मुक्ति का विषय तो तब
आता है जब शिक्षा का पश्चिमीकरण हुआ हो । भारत में शिक्षा के पश्चिमीकरण का मामला पाँचसौ वर्ष पूर्व से प्रारम्भ
होता है जब यूरोपीय देशों के लोग विश्व के अन्यान्य देशों में जाने लगे । पन्द्रहबीं शताब्दी के अन्त में वे भारत में आये ।
भारत में स्थिर होते होते उन्हें एक सौ वर्ष लगे । सन सोलह सौ में इस्ट इण्डिया कम्पनी भारत में आई और आज की
दुःस्थिति का प्रारम्भ हुआ । वह लूट के उद्देश्य से आई थी । लूट निरन्तरता से, बिना अवरोध के होती रहे इस दृष्टि से
उसने व्यापार आरम्भ किया । व्यापार भारत भी करता था । धर्मपालजी लिखते हैं कि सत्रहवीं और अठारहवीं शताब्दी में चीन
और भारत का मिलकर विश्वव्यापार में तिहत्तर प्रतिशत हिस्सा था । अतः भारत को भी व्यापार का अनुभव कम नहीं
था । परन्तु भारत को नीतिधर्म के अनुसार व्यापार करने का अनुभव और अभ्यास था । ब्रिटीशों के लिये अधिक से
अधिक मुनाफा ही नीति थी । अतः व्यापार के नाम पर वे लूट ही करते रहे । व्यापार भी अनिर्बन्ध रूप से चले इस हेतु
से उन्होंने राज्य हथियाना प्रारम्भ किया । ब्रिटीशों का दूसरा उद्देश्य था भारत का इसाईकरण करना । इस उद्देश्य की पूर्ति
के लिये उन्होंने वनवासी, गिरिवासी, निर्धन लोगों को लक्ष्य बनाया, वर्गभेद निर्माण किये, भारत की समाज व्यवस्था को
ऊँचनीच का स्वरूप दिया, एक वर्ग को उच्च और दूसरे वर्ग को नीच बताकर उच्च वर्ग को अत्याचारी और नीच वर्ग को
शोषित और पीडित बताकर पीडित वर्ग की सेवा के नाम पर इसाईकरण के प्रयास आरम्भ किये । उनका तीसरा उद्देश्य था
भारत का यूरोपीकरण करना । उनके पहले उद्देश्य को स्थायी स्वरूप देने में भारत का यूरोपीकरण बडा कारगर उपाय था ।
यूरोपीकरण करने के लिये उन्होंने शिक्षा को माध्यम बनाया । उनकी प्रत्यक्ष शिक्षा के ही यूरोपीकरण की योजना इतनी
यशस्वी हुई कि आज हम जानते तक नहीं है कि हम यूरोपीय शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं और यूरोपीय सोच से जी रहे हैं ।
भारत को अभारत बनाने की प्रक्रिया दो सौ वर्ष पूर्व आरम्भ हुई और आज भी चल रही है । हम निरन्तर उल्टी दिशा में जा
रहे हैं और उसे विकास कह रहे हैं । अब प्रथम आवश्यकता दिशा बदलने की है । दिशा बदले बिना तो कोई भी प्रयास
यशस्वी होने वाला नहीं है ।
इस ग्रन्थमाला में दिशा कैसे बदलना, दिशा बदलकर कहाँ जाना, कैसे जाना, क्यों जाना, मार्ग में कौन से अवरोध
हैं, उन अवरोधों को कैसे पार करना आदि विषयों की यथासम्भव विस्तार से चर्चा की गई है ।
आज भारत में अच्छी शिक्षा की चर्चा सर्वत्र होती है परन्तु धार्मिक शिक्षा की नहीं । अर्थात् एक छोटा वर्ग है जो
धार्मिक शिक्षा की बात करता है । परन्तु दोनों वर्गों की अपने अपने विषय की कल्पनायें बहुत मजेदार हैं । अच्छी शिक्षा
के पक्षधर अंग्रेजी माध्यम की शिक्षा को, तो कभी ऊँचे शुल्क वाली शिक्षा को, तो कभी संगणक जैसे भरपूर साधनसामग्री
के उपयोग वाली शिक्षा को, तो कभी अच्छे वेतनवाली नौकरी मिले ऐसे पाठ्यक्रमों में प्रवेश दिलाने वाली शिक्षा को
अच्छी शिक्षा कहते हैं । ये सभी आयाम एक साथ हों तो वह उत्तमोत्तम शिक्षा है। ऐसी शिक्षा देने वाले विद्यालय,
महाविद्यालय या विश्वविद्यालय श्रेष्ठ हैं । धार्मिक शिक्षा के पक्षधर संस्कृत में लिखे गये ज्योतिष, व्याकरण जैसे वेदांगों
की, न्यायशास्त्र जैसे ग्रन्थों की, वैदिक गणित जैसे विषयों की शिक्षा को धार्मिक शिक्षा कहते हैं । वेदों, dard और
योगदर्शन, उपनिषद आदि की शिक्षा को धार्मिक शिक्षा कहते हैं । दोनों ही वर्गों में उत्तम विद्याकेन्द्रों के नमूने हैं । परन्तु
देश और दुनिया की स्थिति तो उत्तरोत्तर बिगडती ही जा रही है, संकट बढ़ते ही जा रहे हैं ।
इसलिये इन सभी प्रयासों के स्वरूप का आकलन और क्या कुछ करने की आवश्यकता है इसका चिन्तन आवश्यक
है।
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जो लोग अच्छी शिक्षा के पक्षधर हैं उन्हें राष्ट्रीय शिक्षा की संकल्पना समझने की और जो लोग धार्मिक शिक्षा के
प्रयासों में रत हैं उन्हें युगानुकूल शिक्षा की संकल्पना समझने की आवश्यकता है । प्रत्येक राष्ट्र का एक विशेष स्वभाव होता
है जिसके अनुसार उसका स्वधर्म निश्चित होता है । राष्ट्र की जीवनदृष्टि और विश्वदृष्टि ही उसका स्वधर्म है । इस जीवन में
और इस जगत में राष्ट्र की क्या भूमिका है यह जानना ही राष्ट्र का स्वधर्म जानना है । उदाहरण के लिये स्वामी विवेकानन्द्
कहते हैं कि भारत का स्वभाव आध्यात्मिक है इसलिये विश्व के प्रति स्वधर्म के अनुसार ही राष्ट्रजीवन की सभी व्यवस्थायें
बनती हैं, संकल्पनायें और सम्बन्ध बनते हैं । अर्थात् स्वभाव, स्वधर्म, व्यवहार, व्यवस्थायें, समझ सब एक दूसरे के अनुकूल
और अनुरूप होकर एक समग्र जीवनशैली बनती है जिसे उस राष्ट्र की राष्ट्रीय शैली कहा जाता है, उसे ही संस्कृति कहते हैं ।
एक पीढ़ी से दूसरी पीढी को हस्तान्तरित होते होते उसकी परम्परा बनती है । शिक्षा संस्कृति की परम्परा बनाये रखने का,
उसे निरन्तर परिष्कृत करने का, उसे नष्ट नहीं होने देने का एकमात्र साधन है । अच्छी शिक्षा और धार्मिक शिक्षा दोनों के
पक्षधरों को राष्ट्रीता और उसके सभी व्यावहारिक आयामों को एक साथ रखकर समग्रता में अपना चिन्तन विकसित करने की
आवश्यकता है । यह ग्रन्थमाला इसके लिये संकेत मात्र देने का प्रयास करती है ।
शिक्षा का धार्मिककरण करने की दिशा में यदि समग्रता में प्रयास करना है तो हमें एक सर्वआयामी प्रतिमान का
विचार करना होगा । इस बात का विशेष उल्लेख इसलिये करना है क्योंकि भारत में एक बहुत बडा वर्ग ऐसा है जो
वर्तमान ढाँचे में ही धार्मिक जीवन मूल्यों के अनुसार कुछ बातें जोडने का आग्रह रखता है । सरकार भी इनमें एक है । ये
प्रयास उपयोगी नहीं हैं ऐसा तो नहीं कहा जा सकता क्योंकि आज सर्वथा विपरीत स्थिति में भी भारत जीवित है तो इन
प्रयासों के परिणामस्वरूप ही है । शिक्षा के ऐसे असंख्य छोटे से छोटे और बडे से बडे प्रयास आज चल रहे हैं । परन्तु
भारत को भारत बनाना है तो आमूल और सम्पूर्ण परिवर्तन की रूपरेखा तो हमारे पास होनी ही चाहिये । “समग्र विकास
प्रतिमान' नाम से ऐसे प्रतिमान का निरूपण यहाँ किया गया है और जो भी प्रयोग करना चाहता है उसकी सहायता वह
कर सकता है ।
पश्चिमी प्रभाव से शिक्षा की मुक्ति का सीधा अर्थ है सरकार के स्थान पर शिक्षकों का शिक्षा पर नियन्त्रण । परन्तु
यह समीकरण अभी तो असम्भव सी लगनेवाली अत्यन्त अव्यावहारिक कल्पना है । एक ओर सरकार से स्थिति चाहे
सम्हले या न सम्हले वह शिक्षा को नियन्त्रण से मुक्त नहीं कर सकती, दूसरी ओर सरकार या प्रजा कितना भी आग्रह करे,
शिक्षक वर्ग शिक्षा का जिम्मेदारीपूर्वक नियन्त्रण करने के लिये इच्छुक नहीं है । यह एक ऐसी पहेली है जो सुलझाना
महाकठिन काम है परन्तु जिसकी ओर खास ध्यान ही नहीं गया है, उल्टे सब कहा करते हैं कि शिक्षा सरकार की
जिम्मेदारी है । एक वर्ग तो ऐसा भी कहने वाला है कि शिक्षा के सर्व अधिकार तो शिक्षकों के पास होने चाहिये परन्तु
कर्तव्य सारे सरकार के पास, विशेष रूप से आर्थिक कर्तव्य । शिक्षा की बात दोनों के लिये गौण है, प्रशासकीय अधिकार
शिक्षकों के और वित्तीय जिम्मेदारी सरकार की ऐसे समीकरण को स्वायत्तता कहा जाता है । सैद्धान्तिक, व्यावहारिक और
पारम्परिक दृष्टि से यह कभी भी सम्भव नहीं होने वाली बात है । इस कठिन पहेली को कैसे सुलझायें इसके भी संकेत
इसमें दिये गये हैं ।
समग्रता में यदि शिक्षा का विचार करना है तो पठनपाठन विधि, पाठ्यक्रम, विषयवस्तु आदि बातों का पुनर्विचार
करना होगा । इस कथन से तो लगभग सभी सहमत होंगे । परन्तु अच्छा पढने के लिये दिनचर्या, ्रतुचर्या, जीवनचर्या,
आहार, निद्रा, खेल, व्यायाम, सत्संग, सेवा, संयम, अनुशासन आदि को भी उतना ही महत्त्व देना होगा । विद्यालय में
अध्ययन अध्यापन जितना महत्त्वपूर्ण है उतना ही महत्त्वपूर्ण भवन की रचना, पानी की, कचरे की निकासी की, गणवेश
की, पर्यावरण की रक्षा की व्यवस्थाओं का है । इनका विचार नहीं करना अधूरी शिक्षा की निशानी है । विद्यालय के
Ce )
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समय, गणवेश, वाहनव्यवस्था, बगीचा, रंगमंच कार्यक्रम आदि के बारे में शास्त्रीय, आर्थिक, सुविधा की और स्वास्थ्य की
दृष्टि से विचार करना ही शैक्षिक दृष्टि है । व्यवहार या व्यवस्था की एक भी बात नहीं है जिसका शैक्षिक दृष्टि से विचार
न किया जा सकता हो । आज कक्षाकक्ष में विषयों की शिक्षा और कक्षाकक्ष के अन्दर और बाहर की व्यवस्थाओं का
सम्बन्ध जोड़ने की आवश्यकता का आग्रह किया गया है ।
भारत आज पश्चिमी प्रभाव से ग्रस्त है । पश्चिम अपनी दृष्टि को वैश्विक कह रहा है । उसके प्रभाव में आज हम भी
पश्चिमी दृष्टि को वैश्विक दृष्टि कह रहे हैं । हमारे लिये यह आवश्यक है कि हम इस पश्चिमी दृष्टि को समझें, भारत की दृष्टि
और पश्चिमी दृष्टि में क्या अन्तर है यह भी समझे और सही वैश्विकता किसे कहते हैं इसका विचार करें । यह तो भारत की
वर्तमान शिक्षा की स्थिति समझने का प्रयास है। परन्तु अधिक कठिन तो अगले दो चरण हैं । पहला चरण है
पश्चिमीकरण से मुक्ति का क्या स्वरूप है । पश्चीमी प्रभाव को नष्ट करने का अर्थ क्या होता है इसको समझने के लिये हमें
बहुत पुरुषार्थ करना पडेगा । हम उल्टी दिशा में अर्थात् पश्चिमीकरण की दिशा में इतने दूर निकल गये है कि सही मार्ग पर
का एक एक पडाव, छोटे से छोटा कदम भी हमें अव्यावहारिक लगने लगेगा । उदाहरण के लिये यदि हम कहें कि शिक्षा
की धार्मिक संकल्पना के अनुसार शिक्षा निःशुल्क होनी चाहिये तो यह बात सर्वथा अव्यावहारिक लगेगी । यदि हम कहें
कि अंग्रेजी से अध्ययन को मुक्त करना चाहिये तो वह भी अव्यावहारिक लगेगा । यदि कहा जाय कि साधनसामग्री की
भरमार कम करनी चाहिये तो वह भी अव्यावहारिक लगेगा और यदि कहें कि शिक्षा को सरकारी नियन्त्रण से मुक्त करना
चाहिये तो वह सर्वथा अव्यावहारिक लगेगा । अर्थात् शिक्षा को पश्चिमीकरण से मुक्त करने का अर्थ समझना और उसे
हृदयस्थ और मस्तिष्कस्थ करना होगा । बाद में उसके क्रियान्वयन की भी बात आयेगी । दूसरा चरण होगा पश्चिमीकरण से
शिक्षा को मुक्त कर उसे धार्मिक बनाना । यह भी पर्याप्त अध्ययन की अपेक्षा करेगा । इस प्रकार शिक्षा के धार्मिककरण
का विषय विश्लेषणपूर्वक समझना होगा ।
एक बार धार्मिक शिक्षा की भारत में प्रतिष्ठा होगी और भारत भारत बनेगा तब फिर भारत की विश्व में क्या भूमिका
है इस विषय का विचार करने का विषय आता है। आज विश्व संकटों से ग्रस्त है उसका सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कारण
पश्चिमी जीवनदृष्टि का प्रभाव ही है । पश्चिम की जीवनदृष्टि शेष विश्व के लिये ही नहीं तो उसके अपने लिये भी विनाशक
ही है । विश्व को और पश्चिम को बचाने वाली तो धार्मिक जीवनदृष्टि ही है । हमें चार आयामों में विश्वस्थिति और भारत
के बारे में विचार करना होगा । एक, पश्चिम की दृष्टि में पश्चिम, दो, पश्चिम की दृष्टि में भारत, तीन, भारत की दृष्टि में
पश्चिम और भारत की दृष्टि में भारत । ऐसा विश्लेषण पूर्वक आकलन करने के बाद भारत विश्व के हित और सुख के लिये
क्या कर सकता है इसका विचार करने का रास्ता खुलेगा । यहाँ तक पहुँचते पहुँचते तो हमारी श्रद्धा द्रंढ होगी कि वास्तव
में भारत विश्व का कल्याण कर सकता है ।
इस प्रकार सभी आयामों में शिक्षा के धार्मिक करण का विचार इस ग्रन्थमाला में किया गया है ।
3.
इस ग्रन्थमाला के निर्माण में अधिकाधिक विट्रज्जनों एवं सामान्यजनों को सहभागी बनाने का प्रयास किया गया है ।
ग्रन्थों के विभिन्न विषयों पर प्रश्नावलियाँ बनाकर सम्बन्धित समूहों को भेज कर उनसे उत्तर मँगवाकर उनका संकलन किया
गया और निष्कर्ष निकाले गये । इन प्रश्नावलियों के माध्यम से कम से कम पाँच हजार लोगों तक पहुंचना हुआ । इसी
प्रकार से अध्ययन यात्रा का आयोजन किया गया जिसमें देश के विभिन्न महानगरों में जाकर विद्वान प्राध्यापकों से मार्गदर्शन
प्राप्त किया गया | तीसरा माध्यम था विट्रतू गोष्टियों का । प्रत्येक ग्रन्थ के विषय में एक, ऐसी पाँच अखिल धार्मिक स्तर
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at afsat ar strats किया गया जिनमें कुल मिलाकर पाँचसौ से भी अधिक विद्वानों ने भाग लिया । इन विषयों पर
स्थानिक स्वरूप की भी बीस से अधिक गोष्ठियाँ हुई । उनसे पूर्व ग्रन्थमाला निर्माण की पूर्वतैयारी के रूप में तीस के
लगभग पग्रन्थगोष्टियाँ हुई । इस ग्रन्थनिर्माण में अनुवाद, संकलन, सम्पादन, संक्षेपीकरण, जानकारी का पृथक्करण, उसके
आधार पर निष्कर्ष, मुद्रित शोधन, चिकित्सक बुद्धि से पठन, आदि सन्दर्भ कार्यों में अनेकानेक लोग सहभागी हुए । इस
प्रकार इन ग्रन्थों का निर्माण सामूहिक प्रयास का फल है । इसमें सहभागी प्रमुख लोगों की सूची भी इतनी लम्बी है कि
उसे यहाँ नहीं दी जा सकती । उसे परिशिष्ट में दिया गया है । पुनरुत्थान विद्यापीठ उन सभी सहायकों और सहभागियों का
आभारी है ।
v.
यह ग्रन्थमाला किसके लिये है इस प्रश्न का सरल उत्तर होगा “सबके लिये । फिर भी कुछ स्पष्टताओं की
आवश्यकता है ।
-. यह ग्रन्थमाला धार्मिक शिक्षा के प्रश्न को समग्रता में समझना और सुलझाना चाहते हैं उनके लिये है ।
-. यह ग्रन्थमाला धार्मिक शिक्षा के विषय में अनुसन्धान करना चाहते हैं उनके लिये है ।
-. यह ग्रन्थमाला शिक्षा के धार्मिक प्रतिमान को लेकर जो प्रयोग करना चाहते हैं उनके लिये चिन्तन प्रस्तुत करती
है ।
-. यह verre विश्वविद्यालयों के अध्ययन मण्डलों को धार्मिक संकल्पना के अनुसार विभिन्न विषयों के स्वरूप
Tet Sg सूत्र देने का प्रयास करती है ।
-. यह ग्रन्थमाला सरकार के शिक्षा विषयक नीति निर्धारकों को एक सन्दर्भ प्रस्तुत करने का प्रयास करती है ।
- देशभर में शिक्षा विषयक प्रयोग कर रहे शैक्षिक, धार्मिक, सामाजिक संगठनों को शिक्षा में आमूल परिवर्तन करने
हेतु, कार्ययोजना की एक रूपरेखा प्रस्तुत करती है ।
-. यह ग्रन्थमाला पश्चिमीकरण से धार्मिक मानस की मुक्ति हेतु प्रयास करने वाले सबको एक सन्दर्भ प्रस्तुत करने
का प्रयास करती है ।
अधिकांश ऐसा समझा जाता है कि शिक्षा का धार्मिककरण शिक्षा विभाग का विषय है । इसलिये इस विषय की
चर्चा विश्वविद्यालयों के शिक्षाविभाग में, बी.एड. या एम.एड. कोलेजों में, शिक्षकों की सभाओं में की जाती है । गोष्टियों
और परिचर्चाओं का आयोजन भी शैक्षिक संगठनों द्वारा अथवा सरकार के शिक्षाविभागों ट्वारा होता है । इसी क्रम में ऐसा
मान लिया जाता है कि शिक्षा विषयक यह ग्रन्थमाला या अन्य पुस्तकें शिक्षा विषय के प्राध्यापकों के लिये हैं । इसका
ही स्वाभाविक अंग यह बनता है कि शिक्षा विषयक कार्यक्रमों में शिक्षा, मनोविज्ञान, अध्ययन, अध्यापन पद्धति, परीक्षा
अथवा मूल्यांकन, विद्यार्थियों का चरित्र, शिक्षक की निष्ठा, जीवनमूल्य आदि की चर्चा होती है । विभिन्न विषयों के
पाठ्यक्रमों की चर्चा नहीं होती क्योंकि उनके विषय में तो उन उन विषयों के शास्त्रों के जानकार विद्वानों की भूमिका होती
है शिक्षाशास्त्र विषय के अध्यापकों की नहीं । आश्चर्य की बात यह है कि शिक्षाशास्त्र अपने आपको अध्ययन और
अध्यापन तक सीमित रखता है, क्या पढाना है उसके विषय में अपने आपको जिम्मेदार नहीं मानता । अर्थात् शिक्षा
विभाग शिक्षक को अच्छा शिक्षक अर्थात् सिखाने की कला में निपुण बनाने के लिये है, पाठ्यपुस्तकों की सामग्री के
विषय में उसकी भूमिका नहीं है ।
(९)
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शिक्षा के धार्मिककरण हेतु इतनी सीमित भूमिका से काम नहीं चलेगा । उस अर्थ में यह एक वैचारिक विषय है
और देश के सर्वसामान्य बौद्धिक वर्ग के लिये इसकी चिन्ता और चिन्तन करने की आवश्यकता है । पढने वाले छोटे से
विद्यार्थी से लेकर किसी भी विषय का अध्ययन करने वाले अध्यापक अथवा किसी भी क्षेत्र में कार्यरत विद्वानों, समाज
का हित चाहने वाले राजनीति के क्षेत्र के लोगों तथा सन्तों, धर्माचार्यो, आदि सबका यह विषय बनता है । शिक्षा के
पश्चिमीकरण ने अर्थक्षेत्र, राजनीति, शासन, समाज व्यवस्था, कुटुम्ब जीवन, उद्योगतन्त्र आदि सभी क्षेत्रों को प्रभावित किया
है इसलिये धार्मिककरण भी सभी क्षेत्रों के सरोकार का विषय बनेगा । शिक्षा अपने आपमें तो ऐसा कोई विषय नहीं है ।
अतः सभी क्षेत्रों में कार्यरत लोगों को अपने अपने क्षेत्र के विचार और व्यवस्था के सम्बन्ध में तथा शिक्षा के सम्बन्ध में
साथ साथ विचार करना होगा । धार्मिककरण का विचार भी समग्रता में ही हो सकता है ।
इस ग्रन्थमाला में इसी प्रकार की भूमिका अपनाई गई है ।
यह ग्रन्थमला कुछ विस्तृत सी लगती है फिर भी यह प्राथमिक स्वरूप का ही प्रतिपादन है ।
इस ग्रन्थमाला का कथन एक ग्रन्थ में भी हो सकता है और कोई चाहे तो आधे ग्रन्थ में भी हो सकता है परन्तु
इतना विस्तार करने पर भी ऐसा लगता है कि बहुत कुछ करना शेष है । ऐसे कई विषय हैं जिन पर अधिक सामग्री
चाहिये । ऐसे कई विषय हैं जिन पर स्वतन्त्र रूप से ग्रन्थों की रचना होने की आवश्यकता है । परन्तु यहाँ एक सीमा है ।
सुधी लोग आवश्यकता के अनुसार इस विषय को आगे बढ़ाते ही रहेंगे ऐसा विश्वास है ।
इस ग्रन्थमाला के माध्यम से विद्यापीठ ऐसे सभी लोगों का धार्मिक शिक्षा के विषय पर ध्रुवीकरण करना चाहता है
जो धार्मिक शिक्षा के विषय में चिन्तित हैं, कुछ करना चाहते हैं, अन्यान्य प्रकार से कुछ कर रहे हैं और जिज्ञासु और
प्रयोगशील हैं । इस दृष्टि से भविष्य में इसका भारत की अन्याय भाषाओं में अनुवाद हो यह पुनरुत्थान विद्यापीठ की
आकांक्षा रहेगी । साथ ही अनुवर्ती कार्य के रूप में इस ग्रन्थमाला के आधार पर चर्चासत्रों और अभ्यासवर्गों का आयोजन
हो ऐसी भी अपेक्षा रहेगी ।
शिशुअवस्था में घर से प्रास्भ कर विश्वविद्यालय तक और बाद में समाज के व्यापक क्षेत्र में शिक्षा के धार्मिककरण के
प्रभावी प्रयास हो इस दृष्टि से इस ग्रन्थमाला जैसे सैंकडों ग्रन्थों की स्वना करने की आवश्यकता रहेगी । श्रेष्ठ विद्वानों से लेकर
शिशु और बाल अवस्था के विद्यार्थियों तक तथा गृहिणियों , व्यापारियों, राजनयिकों, उद्योजकों, कारीगरों तक यह विषय
पहुँचे इस दृष्टि से विभिन्न प्रकार का विपुल साहित्य निर्माण होने की आवश्यकता है । जनमानस को आप्लावित करनेवाले
साहित्य के निर्माण हेतु यह ग्रन्थमाला एक प्रस्थान बिन्दु बनती है तो हमें अपने प्रयास सार्थक हुए ऐसा लगेगा ।
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— 4 mF
इस ग्रन्थों की शैली को हम पुराणशैली कह सकते हैं । पुराणशैली के लिये दूसरा शब्द है व्यासशैली । हर बिन्दु को
उदाहरणों सहित, विश्लेषण सहित, किंचित पुनरावर्तन के साथ स्पष्ट करने को व्यासशैली कहते हैं । इससे दूसरे प्रकार की
होती है समासशैली जो किसी भी बात को संक्षेप में प्रस्तुत करती है । जिन्हें विषय ज्ञात होता है, जो सन्दर्भ जानते हैं,
जो सद्यग्राही होते हैं उनके लिये समासशैली अनुकूल होती है, वे व्यासशैली से कभी कभी चिढते भी हैं परन्तु सर्वसामान्य
पाठक वर्ग के लिये व्यासशैली अनुकूल होती है । धार्मिक शिक्षा का विषय ज्ञानात्मक दृष्टि से गम्भीर है, व्यवहार की
दृष्टि से तो और भी गम्भीर और उलझा हुआ है इसलिये उसे सलझाने के लिये व्यासशैली ही चाहिये । कभी कभी तो यह
मनोवैज्ञानिक विश्लेषण जैसा मामला हो जाता है ।
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हम सबका सौभाग्य है कि इस ग्रन्थमाला का लोकार्पण राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के परम पूजनीय सरसंघवालक
माननीय मोहनजी भागवत के करकमलों से हो रहा है ।
पुनश्च सभी परामर्शकों, मार्गदर्शकों, सहभागियों, सहयोगियों के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हुए यह ग्रन्थमाला पाठकों
के हाथों सौंप रहे हैं ।
ग्रन्थ में विषय प्रतिपादन, निरूपण शैली, रचना, भाषाशुद्धि की दृष्टि से दोष रहे ही होंगे । सम्पादकों की मर्यादा
समझकर पाठक इसे क्षमा करें, स्वयं सुधार कर लें और उनकी ओर हमारा ध्यान आकर्षित करें यही निवेदन हैं ।
इति शुभम् ।
व्यासपूर्णिमा सम्पादकमण्डल
युगाब्दू ५११८
९ जुलाई २०२१७
श्री ज्ञानसरस्वती मंदिर क्षेत्र बासर का क्षेत्रमहात्म्य
वाग्देवी, माँ वीणापाणि, शारदा, विद्यादायिनी आदि नामों से
स्मरण की जानेवाली मा वाणी अर्थात् सरस्वतीजी के भारत में दो
ही प्राचीन देवस्थल माने जाते हैं । पहला आंध्र प्रदेश में जो महर्षि
वेदव्यास द्वारा बनाया गया था । आंध्रप्रदेश के इस बासर स्थित
वैद्किकालीन देवस्थल के बारे में कहा जाता है कि कुरुक्षेत्र युद्ध
से निराश और उदास होकर महर्षि व्यास, उनके पुत्र शुकदेवजी एवं
अन्य अनुयायी दक्षिण की ओर तीर्थयात्रा पर चल पडे और
गोदावरी के तट पर तप के लिए उन्हों ने डेरा डाल दिया । उनके
निवास के कारण वह स्थान व्यासर कहा जाने लगा जो कालांतर
में बासर हो गया । क्षि व्यास नित्यप्रति जब स्नान करके आते
तो गोदावरी की तीन मुट्ठी बालू लाते थे और तीन ढेर बना देते
थे । बालू मे हल्दी का भी घोल मिलाया गया और फिर धीरे धीरे
ये ढेर आकार लेते गये और इन्होंने तीन देवियों लक्ष्मी शारदा एवं
गौरी का रूप ले लिया |
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मुखपृष्ठ परिचय
यह सरस्वती यन्त्र है । मुखपृष्ठ पर चित्रित आकृति इसी सरस्वती यन्त्र का कलात्मक स्वरूप में किया हुआ प्रकटीकरण
है । महाराष्ट्र प्रान्त में यह रंगोली के रूप में सरस्वती कही जाती है ।
माँ सरस्वती के भक्त उसकी उपासना सगुण और निर्गुण इन दोनों स्वरूपों में करते हैं । तब देवी इस सरस्वती यन्त्र के
माध्यम से विविध पहलुओं द्वारा साकार होती है और शीघ्रतासे भक्तों की कामनाएँ पूरी करती है ऐसी श्रद्धा है ।
यंत्र का विश्लेषण
श्,
वलयांकित रेखाएँ : इस यन्त्र में दिखाई देनेवाली वलयांकित रेखाएँ वीणावादन
करती हुई सरस्वती का कृतिरूप सूचित करती है । आकृति के १, २, रे, ४ ये अंक
देवी के निर्गुण स्तर के चार वेद हैं । ५, ६, ७ ये तीन अंक भगवती की इच्छाशक्ति
क्रियाशक्ति एवं ज्ञानशक्ति के द्योतक हैं । ८, ९ ये दो अंक उसके Ga EN Ft
पहचान करवाते हैं । १० यह अंक कार्य के अंतिम स्वरूप अट्रैत का चिन्ह है ।
अ अक्षर शक्ति का उत्सर्जन और ग्रहण ब अक्षर कार्यशक्ति का प्रवाह तथा
क अक्षर मंडलाकार इच्छाशक्ति की तरंगों का प्रतिनिधित्व करते हैं ।
आकृति में जो अंक है वह ज्ञानशक्ति के हाथों में जो वेद और जपमाला है उनका प्रतीक है ।
यन्त्र में जो वृत्ताकार आकृति है वह भगवती के इच्छाशक्तिरूप मयूर वाहन का प्रतीक है । इस प्रकार यह यन्त्र सरस्वती
के सगुण स्वरूप का प्रत्यक्ष रूप है । यह यन्त्र प्रतिमास अधिक सूक्ष्म स्तर पर कार्य करता है ।
इस यन्त्र में ४, ३े, २, १ इस क्रम से ज्यादा से कम की ओर अंकों की रचना की गयी है । वहाँ
१, २, रे, ४ इन अंकों से दर्शाया स्तर चारों वेदों की निर्गुण शक्ति का प्रतिनिधित्व करता है ।
५, ६, ७ अंकों का दूसरा स्तर इच्छा, क्रिया एवं ज्ञानशक्ति रूप में सगुण शक्ति का प्रतिनिधित्व करता है ।,
८, ९ इन दो अंकों का स्तर od स्वरूप का कार्य है ।
१० इस अंक का चौथा स्तर का अर्थ है कार्य पूर्ण होने पर अट्वैत स्वरूप में पुनः विलीन होना ।
इस प्रकार इस यन्त्र में शक्ति का प्रवाह ऊपर से अर्थात् निर्गुण स्तर से गतिमान होकर एक ही दिशा में कार्य करते अद्रैत
शक्ति की प्राप्ति में सहायक होता है ।
यन्त्र के ऊपर की पंक्ति में जो देवनागरी लिपि में एक (१) अंक लिखा दिखाई देता है वह आवश्यकतानुसार वैश्विक स्तर
पर शक्ति के ग्रहण और उत्सर्जन का परिचायक है ।
यन्त्र में स्थित ज्ञानशक्ति, क्रियाशक्ति एवं इच्छाशक्ति का परस्पर संबंध - इस अंक यन्त्र द्वारा श्री सरस्वती देवी का
त्रिस्तरीय कार्य का यथार्थ बोध होता है ।
इस अंक यन्त्र में ज्ञानशक्ति सांख्यब्रह्म है । मध्य के स्तर में वलयांकित रेखाओं से जुड़े हुए अंक क्रियाशक्ति के हलचल
की दिशा स्पष्ट करते हैं । चक्राकार एवं वलयांकित रेखाएँ शक्ति के केंद्रीकरण की सूचक हैं, जो समग्रता का संकेत होकर
प्रत्यक्ष इच्छाशक्ति से संबंधित हैं ।
अंजलि गाडगील, अंतर्जाल पर उपलब्ध
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अनुक्रमणिका
०... मंगलाचरण
०... अर्पण पत्रिका
© सम्पादकीय
&
e = श्री ज्ञानसरस्वती मंदिर क्षेत्र बासर का क्षेत्रमहात्म्य 28
° मुखपृष्ठ परिचय
खण्ड १ : तत्त्वचिन्तन
प्रस्तावना 3
समग्रता का अर्थ
सृष्टि परमात्मा का विश्वरूप है, अंगांगी सम्बन्ध, समग्रता की
आवश्यकता, सृष्टि का समग्र स्वरूप, चिज्जडग्रन्थि, मनुष्य का
दायित्व, अनुप्रश्न
विकास की वर्तमान संकल्पना एवं स्वरूप 83
विकास से तात्पर्य, विकास और विज्ञान, विकास का आर्थिक
पक्ष, विकास का धार्मिक पक्ष, धर्म विषयक स्पष्टताएँ, विकास
और स्पर्धा, विकास और यास्त्रकीकरण
'विकास की धार्मिक संकल्पना एवं स्वरूप ३१
समन्वित विकास
व्यक्तित्व मीमांसा WS
व्यक्तित्व की अवधारणा, अन्नरसमय आत्मा, प्राणमय आत्मा,
प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान, धनंजय, देवदत्त, नाग,
कृकल, कूर्म, मनोमय आत्मा, विज्ञानमय आत्मा, आनन्दमय
आत्मा, आनन्दमय आत्मा बुद्धि से परे है
पंचात्मा विवरण पद
अन्नमय आत्मा, प्राणमय आत्मा, मनोमय आत्मा, मन को ठीक
करने के उपाय, विज्ञानमय आत्मा, आनन्दमय आत्मा
व्यक्तित्व विकास : स्वरूप एवं विकास के कारक तत्त्व ७०
आहार, भाषा, दिनचर्या, श्रम, काम और परिश्रम, सेवा आर
परिचर्या, जानकारी और शाख्त्ज्ञान, अन्नमय आत्मा, प्राणमय
आत्मा, मनोमय आत्मा, विज्ञानमय आत्मा, आनन्दमय आत्मा
अध्यास और बोध ८१
देहाध्यास, प्राणाध्यास, मनो5ध्यास, बुट्ध्यध्यास, आनन्दाध्यास,
बोध
TRAST sik cape og
मनुष्य और सृष्टि, १. प्रेम, २. कृतज्ञता, रे. दोहन, ४. रक्षण,
मनुष्य और समष्टि, व्यक्ति और कुटुम्ब, व्यक्ति और समुदाय,
आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु पुरुषार्थ, समुदाय को ज्ञानवान बनाने
20,
88.
82.
83.
ge.
Ru.
श्र
हेतु शिक्षा की व्यवस्था, व्यवस्था बनाये रखने हेतु न्याय, दण्ड,
शासन और प्रशासन की व्यवस्था, व्यक्ति और राष्ट्र, व्यक्ति और
faa, wat
खण्ड २ : व्यवहारचिन्तन,
पर्व १ : समग्र विकास हेतु शिक्षायोजना
प्रस्तावना श्ण्प्
शिक्षा के उद्देश्य, सम्पूर्ण चराचर सृष्टि में सामंजस्य, सम्पूर्ण विश्व
संकटमुक्त हो
उद्देश्य के अनुरूप शिक्षायोजना oR
शिशु शिक्षा से उच्च शिक्षा का एक साथ विचार होगर्भावसथा से
युवावस्था तक की, शिक्षा का आन्तर्सम्बन्ध
युवावस्था से गर्भावस्था की शिक्षा श्श्२
पाठ्यक्रमों की रचना करना, लोकज्ञान को परिष्कृत करना,
ज्ञानरक्षा का दायित्व, सम्पूर्ण शिक्षाव्यवस्था का केन्द्र विद्यापीठ,
किशोर अवस्था की शिक्षा, बाल अवस्था की शिक्षा, शिशु
अवस्था की शिक्षा, गर्भावस्था की शिक्षा
शिक्षायोजना : अनुप्रश्न RRC
पुररचना का प्रारम्भ कहाँ से करना, विपरीत परिस्थिति में निराश
न होना, विद्यालय व घर दोनों शिक्षा केन्द्र हैं, बालिका शिक्षा की
अवधि क्या हो ?, अध्ययन-अनुसंधान आवश्यक, समाज
संस्कृति का मूर्त स्वरूप है, समाज के बिगड़े सन्तुलन को ठीक
करना है, हमारी रोच व्यापक हो
गृहस्थाश्रम और शिक्षा 23%
समावर्तन उपदेश, जीवन का अधिष्ठान सत्य और धर्म, गृहस्थ के
कार्य अर्थार्जन एवं सन्तानोत्पत्ति, अध्ययन प्रयोग से परिपक्क होता
है, व्यवहार जीवन के अवरोध, संस्कार देने के कौशल, अपने
व्यवसाय में नये-नये प्रयोग करना, गृहस्थ मार्गदर्शक बने
प्रौढ़ावस्था की शिक्षा 2¥o
प्रस्तावना, जीवन की प्रत्येक अवस्था में शिक्षा का विचार, पुनः
विद्याध्ययन की आयु, पुत्रात् शिष्यात् इच्छेतू पराजयम्,
............. page-14 .............
8a.
go.
Re.
88.
२०,
२१.
22.
१, निवृत्ति, २. वानप्रस्थ में करणीय अकरणीय का विवेक,
३. ज्ञानसाधना एवं उपासना, ४. निरपेक्ष रूप से समाजसेवा
वृद्धावस्था की शिक्षा wee
वृद्धावस्था को रमणीय बनाना, वानप्रस्थिओं के दायित्व,
युवावस्था का असंयम : वृद्धावस्था के रोग, विरक्ति का क्या
अर्थ है ?, अनुप्रश्न
खण्ड २ : व्यवहारचिन्तन,
पर्व २ : गर्भावस्था एवं शिशुअवस्था की शिक्षा
प्रस्तावना Sut,
भारत परम्परा का देश, लेना कम देना अधिक, क्रण से उक्रण
होना, हमारी संस्कृति चिरंजीवी है
गर्भावस्था की शिक्षा gui9
पूर्व तैयारी, गर्भावस्था, प्रसूति और जन्म, जन्म के बाद
सन्तान मातापिता का चयन करती है श्घ्२
जन्मजन्मांतर और पुनर्जन्म, कर्मफल और पुनर्जन्म, मृत्यु के बाद
दूसरा जन्म कैसे होता है, जन्म, पुनर्जन्म और कर्म का संबंध,
सूक्ष्म शरीर अपने योग्य स्थूल शरीर ढूँढता है, मातापिता के हाथ
में क्या है
भारत में शिशुशिक्षा श्द9
१, शिक्षा की प्राचीन परम्परा, २. शिशुशिक्षा की व्यवस्था,
३. पाश्चात्य देशों में शिशुशिक्षा की व्यवस्था, ४. वर्तमान भारत
में शिशुशिक्षा की स्थिति, ५. धार्मिक वातावरण में शिशुशिक्षा
का स्वरूप, शिशु शिक्षा का पाठ्यक्रम, आत्मतत्त्व की अनुभूति
हो, शिशुशिक्षा का विचार, शिशुशिक्षा का स्वरूप बदलना
शिशु की कुछ स्वाभाविक विशेषतायें ox
(१) विकास की इच्छा, (२) अन्तःप्रेरणा, (३) अनुकरण,
(४) संस्कार, (५) जिज्ञासा, (६) पुनरावर्तन, (७) आनन्द,
(८) निरुद्देश्य या निष्काम, (९) सक्रियता, (१०) सीखने के
साधनों की क्रमिक सक्रियता
शिशुशिक्षा पाठ्यक्रम एवं क्रियाकलाप Rok
उद्देश्य, १. जीवन का घनिष्ठतम अनुभव, २. संस्कार एवं
चरित्रनिर्माण, 3. क्षमताओं का विकास, समग्र विकास के
आयामों के उल्लेखनीय बिन्दु, १. जीवन का घनिष्ठतम अनुभव,
१. पंचमहाभूतों से परिचय एवं आत्मीय सम्बन्ध, २. इस सृष्टि के
साथ सम्बन्ध, रे. कला का आस्वाद, ४. वृक्ष, वनस्पति, कीट,
पतंग, पशुपक्षी आदि सजीव सृष्टि के साथ परिचय एवं सम्बन्ध ।,
५. मानवसृष्टि का परिचय एवं अनुभव, २. संस्कार एवं चरित्र
निर्माण, १. पूर्वजों की पहचान एवं उनसे प्रेरणा, २. संस्कृति
परिचय एवं उससे प्रेरणा, ३. सद्गुण एवं सदाचार, ४. देशभक्ति,
22.
Qe.
Qu.
रे. क्षमताओं का विकास, उद्देश्य की पूर्ति, वातावरण,
क्रियाकलाप, उद्देश्य एवं क्रियाकलाप का. समन्वय,
१, पंचमहाभूतों से सम्बन्ध एवं परिचय, २. पदार्थों के गुणधर्मों
का परिचय, ३. संगीत, चित्र, शिल्प, स्थापत्य, साहित्य का
रसास्वाद, ४. सजीव सृष्टि का परिचय एवं आत्मीय सम्बन्ध,
५. मानवसृष्टि का परिचय, १. दैनन्दिन जीवन व्यवहार, २. मानव
स्वभाव एवं सम्बन्ध, शारीरिक क्षमताओं का विकास, १. हाथ,
२. पैर, ३. वाणी, ४. एकाग्रता, ५. सन्तुलन, ६. भावना,
७. स्मृति, तर्क, अनुमान आदि, ८. भाषा, ९. सृजनशीलता,
१०, सौन्दर्यबोध, १, विज्ञान प्रयोसशाला, २. चित्र पुस्तकालय,
3. वस्तु संग्रहालय, शिशुवाटिका के क्रियाकलाप जीवन का
घनिष्ठतम अनुभव, मिट्टी, पानी, वायु, सूर्यप्रकाश, आकाश,
पदार्थों के गुणधर्मों का परिचय, संगीत, चित्र, शिल्प, स्थापत्य,
साहित्य आदि ललिल कलाओं का रसास्वादन, वृक्षवनस्पति,
कीटपतंग, पशुपक्षी आदि सजीव सृष्टि का परिचय एवं आत्मीय
सम्बन्ध, मानवसृष्टि का परिचय एवं अनुभव, संस्कार एवं चरित्र
निर्माण, पूर्वजों की पहचान एवं उनसे प्रेरणा, संस्कृति परिचय एवं
उससे प्रेरणा, सद्गुण एवं सदाचार, देशभक्ति, क्षमताओं का
विकास, दौड़ना, Hel, SAT लगाना, चढ़ना-उतरना,
सन्तुलन, पकड़ना, फैंकना, खींचना, धकेलना, दबाना, झेलना,
उठाना, बोलना, मानसिक क्षमताएं, एकाग्रता, मानसिक
सन्तुलन, भावना, बौद्धिक क्षमताएँ, स्मृति, धारणा, प्रेम, सौंदर्य,
आनंद, सृजनशीलता
शिशु के लिये समय निकालकर इतना करें १८६
खण्ड २ व्यवहारचिन्तन,
पर्व ३ : बाल एवं किशोर अवस्था की शिक्षा
'प्रस्तावना 883
बालशिक्षा के प्रमुख आयाम 883
१, जल्दी नहीं करना, २. बस्ते का महासंकट, रे. क्रिया आधारित
शिक्षा, ४. अनुभव आधारित शिक्षा, ५. भाव आधारित शिक्षा,
६. सद्गुण और सदाचार की शिक्षा, ७. कोई भी काम भाव से
aa, बाल. अवस्था. की... क्रमिकता समझना,
९. बालशिक्षा की पाठन पद्धति के प्रमुख आयाम,
१. कंठस्थीकरण, २. अभ्यास, रे. कौशलों का विकास,
४, स्वतंत्रता, कल्पनाशीलता, सृजनशीलता, १०. बालशिक्षा में
नित्य नियमित क्या क्या होना चाहिये, १. खेल, २. उद्योग,
रे. पुस्तकालय, ४. कथा-कथन, ११. बालकों को किससे बचाना
चाहिये, १. टीवी, २. बस्ते का बोझ, ३. बहुत ज्यादा लिखना
पढ़ना, ४. स्पर्धा, ५. परीक्षा, १२. बालशिक्षा की पाठ्यविषयवस्तु
............. page-15 .............
२६.
के सन्दर्भ, १. व्यक्तित्व विकास, शारीरिक विकास, प्राणिक
विकास, मानसिक विकास, बुद्धि विकास, चैतसिक विकास,
२. परमेष्टीगत विकास, परिवारगत विकास, समाजगत विकास,
देशगत विकास, विश्वगत विकास, सृष्टिगत विकास, परमेष्टीगत
विकास, १३. विद्यालय और घर, समापन, अनुप्रश्न
समग्र विकास पाठ्यक्रम : प्रारम्भ के दो वर्ष 208
आचार्य अभिभावक निर्देशिका, संदर्भ, पाठ्यक्रम, १. श्वसन,
२. शुद्धिक्रिया, ३. आचार (पूजा), ४. जप करना, ५. कीर्तन
करना, ६. सेवा, ७. मंत्रपाठ, ८. स्तोत्र या स्तुति, ९. आसन,
Qo, UMM एवं सदाचार, ११. ध्यान, १२, & Ai,
१, श्वसन, २. शुद्धिक्रिया :, ३. आचार, ध्यान में रखने योग्य
बातें, २. फूल चढ़ाना, ३े. चंदन घिसना, ४. यज्ञ में आहूति देना,
५. नैवेद्य चढ़ाना, ६. कीर्तन करना, रेखा खींचना (कौशल) ,
काटना (कौशल), तह करना (कौशल), चिपकाना (कौशल) ,
ईंट तैयार करना, क्रियाकलाप, पिरोना, सिलाई करना, कढ़ाई
करना, गूँथना (कौशल), बिनौला छिलना, कपास निकालना,
रूई धुनना, बुनाई करना, चित्र, छीलना, मसलना, बीनना,
गूँधना, चुनना, चूरना, बुनना, मथना, हिलाना, निचोड़ना,
थापना, घीसना, कूटना, रगड़ना (कौशल), कृषि, प्रत्यक्ष
सिखाते समय, काटना, तह करना, चिपकाना, इँटें पकाना,
पिरोना, कढ़ाई करना, गूँथना, कपास के बिनौले छीलना, बीज
निकालना, रूई धुनना, बत्ती बनाना, चित्र बनाना एवं रंग भरना,
रसोई के कार्य, कृषि, उद्देश्य, संदर्भ, भाषा सीखना क्या है,
३. पाठ्यक्रम, विवरण, १. भाषण, २. वाचन, हे. लेखन,
४. शब्द रचना एवं शब्द संयोजन, उद्देश्य, संदर्भ, पाठ्यक्रम,
क्रियाकलाप, छात्रों को किस प्रकार संगीत सुनाया जाए।,
१. गायन, २. स्वर साधना, ३. अलंकारों का अभ्यास, ४. मंत्र,
सूत्र एवं श्लोकपाठ, ५. ताली बजाना, ६. सामान्य ताल एवं
बोल, ७. विविध एवं चित्रविचित्र उच्चारणों के साथ स्वर एवं
ताल का अभ्यास।, ८. वाद्यों का वादन, ९. घोषवादन,
१०, नर्तन अथवा नृत्य, ११, शास्त्रीय नृत्य, १२. योगचाप
(लेजिम) एवं मितकाल, १३. संगीत समारोह, प्रस्तावना,
पाठ्यक्रम, विवरण, १. पूर्वजों का परिचय, २. अपने देशका
परिचय प्राप्त करना, हे. पर्यावरण की सुरक्षा करना, ४. प्रकृति
का परिचय प्राप्त करना, ५. सामाजिक उत्सवों एवं पर्वों के बारे
में जानना, ७. दान एवं सेवा के लिए तत्पर रहना, ८. परिवार की
सेवा, क्रियाकलाप, कार्यक्रम एवं Weed, १. क्रियाकलाप,
२. कार्यक्रम, रे. प्रकल्प, ४. व्यवस्थाएँ, उद्देश्य, संदर्भ,
पाठ्यक्रम, विवरण, १. पदार्थ विज्ञान, २. भूगोल, ३. खगोल,
४. रसायन शास्त्र, ५. वनस्पति विज्ञान, ६. प्राणी विज्ञान, उद्देश्य,
श७.
२८.
8.
७. वैज्ञानिकों का परिचय, ८. विज्ञान कथाएँ, संदर्भ, पाठ्यक्रम,
विस्तार, १. याद करना, २. गणना करना (गिनती करना) ,
रे. संकल्पना समझना, उद्देश्य, पाठ्यक्रम, ३. शरीर का संतुलन
व संचालनन, ४. शरीर परिचय, ५. आहार विहार, विहार,
विवरण, १. शरीरकी भिन्न भिन्न स्थितियाँ, २. खड़े रहना,
३. चलना, ४. उठना, ४. सोना, २ (क) ज्ञानिन्द्रियाँ, १. आँख,
२. कान, ३. नाक, ४. जिद्दा, ५. त्वचा, २ (ख) कर्मेन्द्रियाँ,
हाथ, १, फैंकना, ३. शारीरिक संतुलन व संचालन, ४. शरीर
परिचय, ५. आहार-विहार, १. आहार, २. दिनचर्या, ३. कपड़े
व जूते, ४. शुद्धिक्रिया, निर्देशिका अनुप्रश्न
किशोर अवस्था की शिक्षा Ek
खण्ड २ : व्यवहारचिन्तन,
पर्व ४ : पाठ्यक्रमों की रूपरेखा एवं पठन सामग्री
प्रस्तावना Ro
१, अध्यात्मशास्त्र २६९
पाठ्यक्रम, विभाग १ : बुद्धि का क्षेत्र, विश्वविद्यालयीन स्तर पर,
किशोर अवस्था अर्थात् माध्यमिक विद्यालयीन स्तर, बाल
अवस्था में पठनीय बातें, शिशु अवस्था में, गर्भावस्था में, विभाग
२ अनुभूति का क्षेत्र
पठनसामग्री, १. सबमें भगवान, २. बीज और पेड़ की कविता,
पक्षी कहता है..., मछली कहती है... गुरुजी कहते हैं... रे.
स्वतंत्रता, गुरुजी कहते हैं... गुरुजी कहते हैं..., गुरुजी कहते
हैं..., चक्र को समझें और चक्र को बनायें रखें, ४. पूरी दुनिया
गोल, दूध है सर्वोत्तम, आखिर हैं सोने के गहने, ५. दिखता भिन्न
होता एक, सबमें पानी निर्मल, आखिर तो है जगन्माता, कपास
की महिमा, मैं ही तो हूँ, मैं अर्थात् मैं, अकेले अच्छा नहीं
लगता, ६. मैं... अनन्त, मेरी तपस्या, चिति, चिति और मैं,
fafa और प्रकृति, महत्, चिति, प्रकृति और महत्, अहंकार,
चिति और अहंकार, मैं और अहंकार, मन, मनके तूफान,
पंचमहाभूत, पंचमहाभूत, चिति और मैं, आप और मैं,
किशोरावस्था, भगवान ही सबकुछ, तीन गुण, ७. अष्टधा
प्रकृति, मन, बुद्धि, अहंकार, बालअवस्था, भगवान कौन है,
जादू का चश्मा, ८. जहाँ देखो वहाँ 3, छोटा बडा सब 3३%,
अच्छा बुरा सब 3, सब कुछ 3», सभी देव एक, काम करते
समय क्या होता है, हमारा काम क्या है, काम करते समय क्या
विचार करना, ९. गीता, काम क्यों नहीं करना, काम करते
समय क्या ध्यान में रखना, अपना काम करना ही है, काम नहीं
करने के बहाने मत बनाओ
............. page-16 .............
30,
38.
aR.
EED
3%.
Rh.
Re.
30.
3¢.
२. धर्मशास्त्र २९०
पाठ्यक्रम, सन्दर्भ, अध्ययन और अनुसंधान हेतु विद्वत क्षेत्र,
महाविद्यालयीन शिक्षा, किशोरवयीन शिक्षा, बालवयीन शिक्षा,
शिशु अवस्था, गर्भावस्था में शिक्षा, १. टी.वी. की पराजय, यज्ञ
का अर्थ क्या है ?, अलग अलग यज्ञ, २. यज्ञ, ३. बात तो खरी
है, ४. असली क्या नकली क्या, ५. सिर दियाँ रूख बचे तो भी
सस्तो जाण !, ६. धर्मदृष्टि, ७. प्रदक्षिणा, ८. धर्मशास्त्र स्मृतियाँ
एवं पुराण, ९. हिन्दूधर्म की आन्तरिक शक्ति, पाठ्यक्रम
३. समाजशास्त्र 308
पाठ्यक्रम, महाविद्यालयीन स्तर, किशोरावस्था अर्थात
माध्यमिक शिक्षा हेतु, बाल अवस्था अर्थात प्राथमिक स्तर हेतु,
शिशु अवस्था के लिये, गर्भावस्था के लिये, १, पादत्राण की
खोज, २. पैरों चलने की महिमा, ३. करोड़पति साइकिलवाला,
सामाजिक अभियान का मूल-कॉपेनहेगन १९९७, समाज में
परिवर्तन, उपदेश-सलाह-कृति, सामाजिक कीमत, ४. अंग्रेजों ने
लिखा भारत का विकृत इतिहास, ५. विचारणीय एवं करणीय
कुछ बातें
४. शिक्षाशास्त्र ३१०
पाठ्यक्रम, सन्दर्भ, पाठ्यक्रम
५. गृहशास्त् ३१२
पाठ्यक्रम, सन्दर्भ, पाठ्यक्रम, महाविद्यालयीन स्तर, विद्यालयीन
स्तर अर्थात किशोरवयीन छात्रों हेतु, बाल अवस्था हेतु, शिशु
अवस्था हेतु, गर्भावस्था हेतु
६. वरवधूचयन और विवाहसंस्कार Bey
पाठ्यक्रम, विवाहविषयक पाश्चात्य एवं धार्मिक दृष्टिकोण,
पाश्चात्य दृष्टिकोण, धार्मिक दृष्टिकोण, गृहस्थाश्रम : पति पत्नी
का सम्बन्ध
७. अधिजननशास्त्र ३१५
पाठ्यक्रम, १. लवकुश की लोरी, २. माता मदालसा की छोरी,
रे. शुद्ध भोजन, पाठ्यक्रम
८. परिवारशिक्षा : शिशु शिक्षा की दृष्टि से ३१९
१, चलो आज हम नियम बनाएँ, २. भारतमाता तुझे प्रणाम
९. राजशास्त्र 323
पाठ्यक्रम, विशेष
१०, अर्थशास्त्र aw
पाठ्यक्रम, महाविद्यालयीन स्तर तथा विद्वतक्षेत्र, अनुसंधान हेतु
विषयों की सूची, महाविद्यालयीन स्तर पर पाठ्यक्रम, १.
तत्त्वचिंतन, २. व्यापक आकलन, ३. व्यवहार चिन्तन, ४.
प्रायोगिक कार्य, विद्यालयीन शिक्षा, खरीदी करने का कौशल,
दृष्टिकोण विकसित करना, प्राथमिक विद्यालय में पाठ्यक्रम,
आदतें बनाने हेतु नियामवली, मातापिता की शिक्षा के आयाम,
१, कुशल हाथ, हाथ, कुशल कारीगर, शरीर की स्वच्छता, घर
के काम, सबके लिये उपयोगी, कुशल हाथ, Get, Wa sk
यंत्र, वाहन चलाना, कारीगरी के काम, वाद्यवादन, सेवा शुश्रूषा,
संकटों से रक्षा, भावनाओं का आविष्कार, २. यह कैसी गणना,
३. साध्य साधन विवेक, ४. प्रचंड गार्बज का देश, अमेरिका, ५.
विकसित देश, पाठ्यक्रम, १. गोविषयक संस्कार, २. जन्म से ३
वर्ष तक, रे. रे से ५ वर्ष, ४. आयु ६ एवं ७ वर्ष
३९. ११. गोविज्ञान ३३८
आयु ८ से १० वर्ष, आयु ११ से १३ वर्ष, आयु १४ से १७ वर्ष,
महाविद्यालयीन शिक्षा, अध्ययन के विषयनवकृति, अनुसन्धान,
१, हम है धार्मिक गायें, २. देशी और विदेशी गाय का अन्तर,
अद्भुत गाय, गाय की Asya A, 3. अद्भुत गाय
४०... ११. विज्ञान डेप
पाठ्यक्रम, ब्रह्माण्ड, पंचकोश, पंचमहाभूत, १. पंचतत्त्व,
पंचकर्मेन्ट्रिय, पंचज्ञानेन्द्रिय, पंचप्राण, पंचउपप्राण, पंच तन््मात्रा,
किशोरअवस्था, २. ६४ कलाएँ, रे. सर्वे भवन्तु सुखिनः और
यंत्र का उपयोग, दे. अध्यात्महीन विज्ञान के दुष्परिणाम,
उच्चशिक्षा
४१... विभिन्न विषयों हेतु शोधविषयों की सूची 343
४२... पाठ्यक्रम समीक्षा Bug
खण्ड २ : व्यवहारचिन्तन,
पर्व ५ : कार्ययोजना
४३... करणीय प्रयास 3&3
समग्र विकास प्रतिमान
vx. स्वप्नसिद्धि ३७१
प्रथम तप नैमिषारण्य, द्वितीय तप लोकमतपरिष्कार, तृतीय
तप परिवारसुद्रढीकरण, परिवार शिक्षा : पाठ्यक्रम, चतुर्थ
तप शिक्षकनिर्माण, पंचम तप विद्यालयों का प्रारम्भ
४५... समापन ३९०
परिशिष्ट
१... सन्दर्भ ग्रन्थ सूची ३९३
२... लेखकों, सम्पादकों व संकलन कर्ताओं की सूची. ३९४
३. .... पाठ्यक्रमों की रूपरेखा निर्माणकर्ताओं की सूची... ३९६
४... ग्रन्थ अनुक्रमणिका ३९७
५. .... पुनरुत्थान विद्यापीठ ¥ok
६. ... प्रकाशनसूची ¥o¥
............. page-17 .............
we : १ तत्त्वचिन्तन
खण्ड १
तत्त्वचिन्तन
धार्मिक ज्ञानधारा का आधार लेकर शिक्षा के समग्र विकास प्रतिमान की
प्रस्तुति यहाँ की गई है । धार्मिक ज्ञानधारा का प्रवाह क्षीण रूप में अभी
अस्तित्व में तो है परन्तु शिक्षा तथा अन्य व्यवस्थाओं में वह अनुस्यूत नहीं
होने के कारण से पुष्ट नहीं हो रहा है । ज्ञानधारा पुष्ट नहीं होने के कारण
धार्मिक जीवन को भी स्वाभाविक पोषण नहीं मिलता है । इसका परिणाम यह
होता है कि भारत का जनजीवन अधार्मिक ज्ञानधारा से आप्लावित होता है ।
इससे बचना चाहिये । बचने का उपाय शिक्षा में ही प्राप्त हो सकता है । कारण
स्पष्ट है। शिक्षा ही ज्ञान की वाहक है । शिक्षा ही परम्परा बनाने का और
बनाये रखने का साधन है । ऐसा विचार कर यह समग्र विकास प्रतिमान यहाँ
प्रस्तुत किया गया है ।
इस निरूपण के दो खण्ड हैं । एक है तत्त्वचिन्तन का और दूसरा है
व्यवहारचिन्तन का ।
तत्त्वचिन्तन के इस खण्ड में समग्र विकास प्रतिमान की शब्दावली की
व्याख्या की गई है । जहाँ आवश्यक है वहाँ अधार्मिक अर्थ भी बताया गया
है । परन्तु अधार्मिक व्याख्याओं का विवेचन करना यह मुख्य लक्ष्य नहीं है ।
यथासम्भव निरूपण को सरल बनाने का प्रयास भी किया गया है ।
कदाचित यह निरूपण संक्षिप्त भी लग सकता है । संक्षिप्त इसलिए है
क्योंकि व्यवहारपक्ष अधिक विस्तार से आना आवश्यक है ।
............. page-18 .............
KAAKAX शिक्षा का समग्र विकास प्रतिमान
८ LANZA
SOOO
अनुक्रमणिका
१... प्रस्तावना 3
२. .... समग्रता का अर्थ ¥
३. ... विकास की वर्तमान संकल्पना एवं स्वरूप 83
४... विकास की धार्मिक संकल्पना एवं स्वरूप ३१
५. .... व्यक्तित्व मीमांसा ¥¥
&. पंचात्मा विवरण KE
७... व्यक्तित्व विकास : स्वरूप एवं विकास के कारक तत्त्व go
८...... अध्यास और बोध C8
९ परमेष्ठी और व्यष्टि ८७
............. page-19 .............
we : १ तत्त्वचिन्तन
अध्याय १
न्नस्तावना
कलियुगाब्द ५११७ की वसन्तपंचमी के दिन ...
शिक्षा के विषय में आज जो सार्वत्रिक भ्रान्तियाँ फैली
हुई हैं उन्हें दूर करने हेतु, विद्याक्षेत्र को परिष्कृत करने हेतु,
धार्मिक ज्ञानधारा के अवरुद्ध प्रवाह को पुन: प्रवाहित करने
हेतु, शिक्षा के विषय में जो भी जिज्ञासु, अभ्यासु और
कार्यच्छु हैं उनकी सहायता और सेवा करने हेतु तथा
धार्मिक ज्ञानधारा की प्रतिष्ठा कर विश्वकल्याण का मार्ग
प्रशस्त करने हेतु “शिक्षा का समग्र विकास प्रतिमान के
लेखन का प्रारम्भ कर रहे हैं ।
नैमिषारण्य का गुरुकुल । पाँच सहस्र से भी अधिक
वर्षों की उसकी ज्ञानपर््परा । सर्व शास्त्रों के ज्ञाता,
जगतकल्याणकारी ज्ञान के उपासक और ज्ञानपरम्परा को
अक्षुण्ण रखने हेतु समर्थ शिष्यों का अध्यापन करने वाले
आचार्य शौनक उस गुरुकुल के समर्थ कुलपति । उसी
परम्परा में शिक्षित और दीक्षित वर्तमान आचार्य ज्ञाननिधि ।
इस कालजयी गुरुकुल के एकसौ से भी अधिक ज्ञानोपासक
आचार्य । कलियुगाब्द ५११७ की वसन्तपंचमी के आज के
पावन दिवस पर शिक्षाज्ञानयज्ञ का प्रारम्भ करने जा रहे हैं ।
सबके अन्त:करण श्रद्धा, विश्वास और आनन्द से परिपूर्ण
हैं। विश्व के मंगल की कामना से व्याप्त हैं । ज्ञानसाधना
करने के लिये वे उत्सुक हैं । लोक के लिये. ज्ञानसरिता
प्रवाहित कर ऋषिक्रण से किंचित मुक्त होने की अभिलाषा
वे रखते हैं ।
प्रात:दकाल की शुभ बेला में और सुखदायी वातावरण
में ज्ञानचर्चा प्रारम्भ हुई । सबने भगवती सरस्वती और
भगवान वेद्व्यास की स्तुति की । शान्तिपाठ किया और
आचार्य शुभंकर ने चर्चा का सूत्रपात किया ।
आचार्य शुभंकर ने कहा ...
सभा में उपस्थित माननीय कुलपतिजी तथा सर्व
श्रोताओं को मेरा प्रणाम । आज से हम एक महत्त्वपूर्ण
विषय पर चर्चा प्रारम्भ कर रहे हैं । शिक्षा के माध्यम से हम
ज्ञान की और राष्ट्र की सेवा करने के लिए उद्यत हैं । आज
हमारे देश को शिक्षा के एक ऐसे प्रतिमान की आवश्यकता
है जो शत प्रतिशत धार्मिक हो । शिक्षा का धार्मिककारण
करने के देशभर में अनेक प्रकार से प्रयास चल रहे हैं । उन
सब प्रयासों में हमारा भी योगदान हो इस दृष्टि से हमारा यह
प्रयास है ।
वर्तमान में शिक्षा के उद्देश्य को लेकर विकास की
संकल्पना का बहुत प्रचलन है । वह होना भी चाहिए ।
शिक्षा का उद्देश्य व्यक्ति का सर्वांगीण विकास है ऐसा भी
कहा जाता है । परन्तु हम अनुभव कर रहे हैं कि इस विषय
में अनेक प्रकार से स्पष्टता की आवश्यकता है । स्पष्टता के
अभाव में शब्द तो गढ़े जाते हैं परन्तु वे अपेक्षित प्रयोजन
को पूर्ण कर सर्के ऐसे सार्थक नहीं होते । इसलिए हमने
शब्दावली निश्चित कर उनके अर्थों और सन्दर्भो को स्पष्ट
करने का मानस बनाया है ।
हमने दूसरा विचार यह किया है कि शिक्षा के सम्बन्ध
में समग्रता में विचार किया जाय । शिक्षा के केवल शैक्षिक
पक्ष का विचार करने से शिक्षा का धार्मिककरण नहीं
होगा । शिक्षा का व्यवस्था पक्ष और आर्थिक पक्ष भी
सम्पूर्ण तंत्र को बहुत प्रभावित करता है । अत: इन दोनों
पक्षों के भी धार्मिककरण की आवश्यकता है। ऐसी
धार्मिक व्यवस्थाओं के सन्दर्भ में प्रतिष्ठित हो सके ऐसे
शैक्षिक प्रतिमान का विचार करने का मानस हमने बनाया
है।
इस प्रतिमान को हमने नाम दिया है “शिक्षा का समग्र
विकास प्रतिमान' ।
हमारे कुलपतिजी हमारे मुख्य मार्गदर्शक रहेंगे । समय
............. page-20 .............
समय पर देश के अनेक वरिष्ठ चिन्तक
शिक्षा का समग्र विकास प्रतिमान
विचार दे सर्के ऐसी परमात्मा के श्रीचरणों में प्रार्थना कर
भी हमारे साथ विचारविमर्श करने के लिये पधारेंगे । आने. अब मैं चर्चा के सूत्र आचार्यजी को सौंप रहा हैँ ।
वाले दिनों में हम देश को शिक्षा विषयक एक समर्पक
अध्याय २
समग्रता का अर्थ
आचार्य ज्ञाननिधि कहने लगे ...
समग्रता का अर्थ जानने के लिये हमें इस सृष्टि का
मूल कहाँ है, इसकी उत्पत्ति कैसे हुई है और यह कैसे
टिकी हुई है यह जानना होगा । तैत्तिरीय उपनिषद में सृष्टि
की उत्पत्ति के सम्बन्ध में निरूपण किया गया है ।
आत्मा, परमात्मा, सृष्टि आदि की चर्चा चल रही है
तब आचार्य सृष्टिचना की प्रक्रिया का वर्णन करते हुए
कहते हैं,
asad | ag wai wade girl a
तपो$तप्यत । स तपस्तप्त्वा इदंसर्वमसृजत यदिदं कि
च । तत्सृष्टवा तदेवानुप्राविशत् । तदनुप्रविश्य सच्च
त्यच्चाभवत् । निरुक्त॑ चानिरुक्त॑ च । निलयनं चानिलयनं
च विज्ञान चाविज्ञानं च । सत्यं चानृतं च सत्यमभवत ।
afed fe च । तत्सत्यमित्याचक्षते । (ब्रह्मानन्द वल्ली-
षष्ठ अनुवाक)
अर्थात् सृष्टि के आदि में परमात्मा ने इच्छा की कि मैं
एक हूँ, बहुत होकर प्रकट हो जाऊँ । अतः: उसने तप
किया । तप कर उसने इस सारी सृष्टि का सृजन किया ।
सृजन कर वह उसीमें प्रविष्ट हो गया । अर्थात् सारी सृष्टि में
उसने वास किया । जो आश्रयरूप है या नहीं है, जिसका
वर्णन किया जाता है या नहीं किया जाता है, जो जड़ है या
चेतन है, जो सत्य है या अनृत अर्थात् असत्य है । ये सारे
परमात्मा के ही रूप हैं और चूँकि परमात्मा सत्यस्वरूप है
ये भी सारे सत्य ही हैं ।
सृष्टि परमात्मा का विश्वरूप है
धार्मिक विचारविश्व का यह सर्वस्वीकृत, आधारभूत
और प्रिय सिद्धान्त है । यह सारी सृष्टि परमात्मा ने बनाई
यह तो ठीक है । विश्व की अन्यान्य विचारधारायें यह तो
मानती ही हैं । परन्तु धार्मिक विचार विशेष रूप से यह
कहता है कि परमात्मा ने अपने में से ही यह सृष्टि बनाई
और वह स्वयं उसमें प्रवेश कर सृष्टिरुप बन गया ।
परमात्मा और उसकी सृष्टि दो नहीं हैं, एक ही हैं । यह
अट्रैत सिद्धान्त सारे विचार में आधारभूत सिद्धान्त के रूप में
प्रतिष्ठित है । यह सिद्धान्त इतना व्यापक रूप में प्रतिष्ठित है
कि अनपढ़, गरीब, सामान्य लोग भी मानते हैं और कहते हैं
कि सचराचर में परमात्मा का वास है । सार्वत्रिक मान्यता है
कि भगवान सर्वत्र है, वह सब देखता है, सब जानता है,
सर्वशक्तिमान है ।
प्रस्थापित सिद्धान्त है कि यह सृष्टि परमात्मा का
विश्वरूप है ।
इसीसे यह सिद्धान्त स्वाभाविक निकलता है कि जिस
प्रकार परमात्मा और उसकी सृष्टि एक है उसी प्रकार यह
सृष्टि भी मूलतः: एक है । परमात्मा अपने परमात्म स्वरूप में
अदृश्य, अनाकलनीय, अवर्णनीय, निर्गुण, निराकार है परन्तु
जैसे ही विश्वरूप धारण करता है वह दृश्यमान, वर्णन करने
योग्य, कल्पना करने योग्य बन जाता है । वह सगुण और
साकार बन जाता है । वह इन्ट्रियग्राह्म, मनोग्राह्म, बुद्धिग्राह्म
बन जाता है । परमात्मा का यह विश्वरूप अर्थात् सृष्टि
वैविध्यपूर्ण है । सृष्टि की विविधता का कोई अन्त नहीं ।
किंबहुना विविधता ही सृष्टि का स्वभाव है । यह विविधता
ऐसी है कि एक वृक्ष के असंख्य पत्तों में एक भी पत्ता दूसरे
पत्ते जैसा नहीं होता । एकरूपता सृष्टि में कहीं नहीं है।
यदि एक के समान दूसरा कोई हो तो उसका अपना कोई
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प्रयोजन ही नहीं रहेगा । अत: सृष्टि की छोटी से छोटी
इकाई की भी अपनी स्वतन्त्र निजी सत्ता है ।
परन्तु यह अनन्त वैविध्ययुक्त सृष्टि मूल में एक है ।
दिखने वाली भिन्नता में न दिखने वाला एकत्व जानना ही
सृष्टि के सही स्वरूप को जानना है । इस मूल एकत्व को
एकात्मता कहते हैं । इसका सीधा सा अर्थ है कि सर्वत्र
आत्त्मतत्त्व व्याप्त है ।
भारत के सारे विचारों, व्यवहारों, व्यवस्थाओं और
रचनाओं में यह एकात्मता अनुस्यूत रहती है । इसे ही समग्र
कहते हैं । एकात्मता ही समग्रता है । एकात्मता से अनुस्यूत
विचार समग्र विचार है, एकात्मता से अनुस्यूत व्यवहार
समग्रतापूर्ण व्यवहार है । एकात्मता से अनुस्यूत व्यवस्थायें
समग्रतायुक्त व्यवस्थायें हैं । एकात्मता से अनुस्यूत TA
समग्रता से ओतप्रोत रचनायें हैं । एकात्मता ही समग्रता है,
यही सूत्र है ।
यह समग्रता पिण्ड से लेकर ब्रह्माण्ड तक सर्वत्र है ।
पिण्ड का अर्थ है छोटी इकाई । ब्रह्माण्ड से तात्पर्य है बड़ी
से बड़ी इकाई । अर्थात एक रजकण भी समग्रता युक्त है,
एक मनुष्य भी समग्रतायुक्त है, बड़े से बड़ा नक्षत्र भी
समग्रतायुक्त है और सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड भी समग्रतायुक्त है । जरा
भी कम नहीं, जरा भी अधिक नहीं ।
अंगांगी सम्बन्ध
पुरुषसूक्त में परमात्मा के सृष्टिरूप का वर्णन मनुष्य के
शरीर के रूप में किया गया है । पुरुषसूक्त बहुत प्रसिद्ध
स्चना है इसलिये मैं यहाँ उसका वर्णन नहीं करता हूँ। आप
सब वह जानते ही हैं । जिस प्रकार शरीर के छोटे बड़े सभी
अंग एकदूसरे के साथ और पूरे शरीर के साथ जुड़े हुए हैं
उसी प्रकार यह सृष्टि भी अड्भांगी सम्बन्ध से जुड़ी हुई है ।
शरीर के सभी अंग और उपांगों के अपने अपने नाम हैं,
काम हैं, आकार हैं, आवश्यकतायें हैं और स्वभाव हैं उसी
प्रकार सृष्टि की सारी इकाइयों के अपने अपने नाम, काम,
आकार, आवश्यकतायें और स्वभाव हैं । यह स्वभाव
उसका आत्मतत्त्व है । जिस प्रकार शरीर के सभी अंगों का
स्वत्व अलग अलग होने पर भी शरीर के बिना उनका कोई
प्रयोजन नहीं होता है उसी प्रकार सृष्टि
की किसी भी इकाई का सम्पूर्ण सृष्टि के साथ समरस होकर,
सम्बन्धित होकर ही प्रयोजन होता है । शरीर का कोई अंग
अपने आपको अलग मानकर, और उस अलगता को ही
स्वतन्त्रता समझकर अपनी ही पद्धति से व्यवहार करने
लगता है तो उसको स्वयं को, दूसरे अंगों को और पूरे शरीर
को कष्ट होता है, हानि होती है । उसी प्रकार सृष्टि का कोई
भी अंग अपने आपको अलग और स्वतन्त्र मानकर व्यवहार
करने लगता है तब उसकी स्वयं की, अन्यों की और पूरी
सृष्टि की हानि होती है ।
महत्त्वपूर्ण बात यह है कि मनुष्य को छोड़कर सृष्टि
का एक भी पदार्थ अपनी मनमानी नहीं करता है । वह
सबके साथ सामंजस्य बनाकर ही रहता है। किंबहुना
उसकी ऐसी शक्ति ही नहीं होती है । वह पूर्ण रूप से प्रकृति
के नियन्त्रण में रहता है । इसलिये वह किसीके कष्ट, दुःख,
हानि आदि का कारण नहीं बनता है । कष्ट, दुःख, हानि
आदि शब्द भी मनुष्य की दुनिया के हैं, मनुष्येतर दुनिया के
नहीं । इसलिये समग्रता की संकल्पना समझना और उसका
अनुसरण करना मनुष्य का ही दायित्व बनता है ।
समग्रता की आवश्यकता
भारत के दीर्घ इतिहास में सर्वत्र समग्रता का यह
विचार दिखाई देता है । चाहे वस्त्र पहनना हो, चाहे घर
बनाना हो, चाहे भोजन करना हो, चाहे उत्सव मनाना हो,
चाहे उत्पादन करना हो, चाहे कला की उपासना करना हो,
चाहे राज्य चलाना हो, चाहे घर चलाना हो,चाहे खेलना
हो चाहे युद्ध करना हो, सर्वत्र समग्रता का विचार किया
हुआ दिखाई देता है ।
जब समग्रता का विचार किया जाता है तब क्या होता
है और नहीं किया जाता है तब क्या होता है इसके कुछ
उदाहरण देखें ।
घरों में भोजन के बाद जूठे बर्तन साफ करते हैं तब
पहले सारी जूठन धोकर एक पात्र में इकट्टी करते हैं । वह
पानी कुत्ते को या बकरी को पिलाया जाता है । बर्तन मिट्टी
से या राख़ से साफ किये जाते हैं । बर्तन धोया हुआ पानी
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रेत में, मिट्टी में या खुली नाली में
बहाया जाता है । बर्तन सूती कपड़े से पोंछे जाते हैं ।
भोजन बनाते समय सब्जी आदि के जो छिलके निकलते हैं
वे या तो गायबकरी को खिलाये जाते हैं अथवा सुखाकर
जलाने के काम में लिये जाते हैं । बर्तन धोने का जो पानी
रेत में गिरता है वह हवा से और धूप से सूख जाता है ।
कुछ पानी जमीन में भी उतरता है ।
यह बात लोकव्यवहार में इतनी ओतप्रोत थी कि
उसके पीछे क्या दृष्टि रही होगी इसका विश्लेषण या
विवेचन कभी किया नहीं जाता था । करने की आवश्यकता
नहीं लगती थी । आज जब यह पद्धति बदली है तब इसकी
विशेषतायें ध्यान में आती हैं । आज बर्तन साफ किये जाते
हैं तब जूठन को नाली में बहाया जाता है । यह भूमिगत
नाली गंदा पानी बहाकर ले जाने वाली होती है । बर्तन
साफ करने के डिटर्जट पाउडर से उन्हें साफ किया जाता है ।
ये दो बातें ही कितना विपरीत परिणाम करती हैं यह भी
देखें । जूठन नाली में बहाने का अर्थ है हम अन्न को देवता
न मानकर उसे अपवित्र करते हैं । बन्द नाली में बहाने से
वह अपने आप सूखता नहीं है बल्कि सड़ता है। बन्द
नाली व्यवस्था से गंदा पानी बहाकर ले जाने का खर्च तो
होता ही है, व्यवस्था बनाने में समय और परिश्रम भी होता
है, पर्यावरण का प्रदूषण भी होता है । गंदा पानी रसायनों से
साफ किया जाता है । पानी शुद्धीकरण की बहुत जटिल
व्यवस्था बनानी पड़ती है । उस प्रक्रिया से शुद्ध हुआ पानी
भी कृत्रिम रूप से ही शुद्ध होता है । जमीन पर पानी नहीं
गिरने से भूमि की आर्द्रता कम होती है । पानी भूमि में नीचे
ही नीचे जाता है । खुदाई करने पर वह बहुत नीचे ही
मिलता है । वातावरण का तापमान बढ़ता है । डिटर्जेंट
पाउडर से बर्तन साफ करने के लिये अधिक पानी खर्च
करना पड़ता है । उसके बाद भी वह बर्तन को चिपका ही
रहता है । भोजन करते समय भोजन पदार्थों के साथ मिलकर
वह पेट में जाता है और स्वास्थ्य पर विपरीत परिणाम
करता है । राख़ या मिट्टी कभी गलती से भी पेट में गई तो
ऐसा विपरीत परिणाम नहीं करते हैं । इस प्रकार स्वास्थ्य,
सुविधा, पर्यावरण, सुलभता और सुकरता आदि सभी बातों
शिक्षा का समग्र विकास प्रतिमान
को ध्यान में रखकर बर्तन साफ करने जैसी छोटी और
सामान्य क्रिया की योजना होती थी । यदि कोई यह कहे कि
यह विचारपूर्वक नहीं किया गया होगा, अपने आप ही ऐसा
होता था तो वह ठीक नहीं है । कोई भी बात अपने आप
नहीं होने लगती है, उसकी योजना करनी होती है । किसी
भी प्रकार से आरम्भ हो भी गई हो तो भी समय के साथ
अनुभव और बुद्धिपूर्वक विचार से वह परिष्कृत होती है
और लोकन्यवहार में रूढ होती है । दृष्टि यदि समग्रता की
रही तो सर्व प्रकार का लाभ होता है, खण्डखण्डात्मक रही
तो श्रम, समय, धन आदि खर्च होने के बाद भी लाभ के
स्थान पर हानि ही होती है ।
इस प्रकार की समग्रता मकान बनाने में, कृषि जैसा
उद्योग करने में, वटपूर्णिमा या दीपावली जैसे उत्सव मनाने
में दिखाई देती है । मेरा आपसे अनुरोध है कि आप हमारे
दैनंदिन व्यवहारों और व्यवस्थाओं का इस दृष्टि से पुन: एक
बार विश्लेषण और मूल्यांकन करें ।
सृष्टि का समग्र स्वरूप
इस सृष्टि का स्वरूप कैसा है यह जानने से समग्रता
का अर्थ क्या है यह ध्यान में आयेगा । प्रारम्भ में ही
परमात्मा ने एक से अनेक होने की इच्छा से सृष्टिरूप धारण
किया ऐसा उल्लेख आया है । यह प्रक्रिया कैसे हुई ?
सर्व प्रथम परमात्मा दो हिस्सों में विभाजित हुआ ।
विभिन्न दर्शनों में इन्हें भिन्न-भिन्न नाम दिये गये हैं । श्रीमद्
भगवद गीता ने इसे सरल बनाया है । गीता तीन इकाइयों
का वर्णन करती है । तीनों को गीता ने 'पुरुष' संज्ञा दी है ।
द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्राक्षर एव च ।
क्षर: सर्वाणि भूतानि कूटस्थोक्षर उच्यते ।।
उत्तम: पुरुषस्त्वन्य: परमात्मेत्युदाहहत: |
यो लोकत्रयमाविष्य बिभर्त्यव्यय ईश्वर: ।। (१५/ १६-१७)
ये तीन पुरुष हैं उत्तम पुरुष, अक्षर पुरुष और क्षर
पुरुष । उत्तम पुरुष परमात्मा है, अक्षर पुरुष आत्मा या पुरुष
है और क्षर पुरुष प्रकृति है । इस प्रकार परमात्मा, पुरुष
और प्रकृति ऐसी तीन इकाइयाँ हुईं । पुरुष चेतन तत्त्व है,
प्रकृति जड़ तत्त्व है और परमात्मा जड़ और चेतन दोनों से
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परे है । वह जड़ भी है, चेतन भी है । अथवा जड़ भी नहीं
है, चेतन भी नहीं है। “नहीं है' कहने से 'है' कहना
अधिक युक्तिसंगत है क्योंकि जो नहीं है उसमें से 'है' कैसे
उत्पन्न होगा ? इसलिये परमात्मा जड़ भी है और चेतन भी
है।
चिज्डग्रन्थि
अपने मूल रूप में परमात्मा अक्रिय है । पुरुष और
प्रकृति सक्रिय हैं । दोनों मिलकर सृष्टि के रूप में विकसित
होते हैं । दोनों के मिलन को चिज्जडग्रन्थि अर्थात् चेतन
और जड़ की गाँठ कहते हैं । यह गाँठ ऐसी है कि अब
दोनों को एकदूसरे से अलग पहचाना नहीं जाता है । जहाँ
भी हो दोनों साथ में रहते हैं । यह चेतन और जड़ का आदि
ग्रन्थन है जहाँ से सृष्टि रचना प्रारम्भ होती है ।
श्रीमद् भगवद गीता ने इसका वर्णन इस प्रकार किया
है,
मम योनिर्महद्ब्रह्म तस्मिन्गर्भ दधाम्यहम् ।
सम्भव: सर्वभूतानां ततो भवति भारत ।।
श्री.भ.गी. अ. १४/३
प्रकृति पुरुष चैव विद्धयनादी उभावपि |
विकारांश्र गुणांश्वैव विद्धि प्रकृतिसम्बवान् ।।
oft. rai. at. 23/28
चेतन और जड़ के संयोग से अब प्रकृति में परिवर्तन
प्रारम्भ होता है । इस अनन्त वैविध्यपूर्ण सृष्टि के मूल रूप
में आठ तत्त्व हैं जो प्रकृति के ही रूप हैं । चेतन निराकार
ही रहता है, अपरिवर्तनीय रहता है । ये आठ तत्त्व गीता में
इस प्रकार कहे गये हैं ।
भूमिरापो$नलो वायु: खं मनो बुद्धिरिव च ।
अहंकार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा ।। (७/ ४)
इस प्रकार सारी सृष्टि पंचमहाभूत, मन, बुद्धि, अहंकार
ऐसे प्रकृति के आठ तत्त्व और सर्वत्र अनुस्यूत चेतन से बनी
है । सारी विविधाताओं में ये सारे तत्त्व होते ही हैं ।
ये सारे तत्त्व आपस में समरस होकर ही रहते हैं ।
मानवसृजित किसी भी प्रकार के व्यवहार में या आयोजन में
इन तत्त्वों की समरसता का ध्यान रखना समग्र दृष्टि है ।
कुछ और भी उदाहरण देखें ।
मनुष्य के विषय में समग्र दृष्टि से विचार करना है तो
इस प्रकार किया जायेगा । सम्पूर्ण सृष्टि में मनुष्य का सृजन
परमात्मा की सूजन प्रक्रिया में श्रेष्ठततम है । ऐसी कथा है कि
परमात्मा ने सृष्टि रचना का प्रारम्भ किया तब पंचमहाभूत
बनाये, वृक्षवनस्पति बनाये, प्राणीसृष्टि निर्माण की, परन्तु
उसका मन नहीं भरा । उसे अभी और उत्कृष्ट रचना की
अभिलाषा थी । अन्त में उसने मनुष्य का सृजन किया ।
मनुष्य को बनाकर परमात्मा स्वयं अपने ऊपर और मनुष्य
पर बहुत प्रसन्न हुआ । उसने मनुष्य को अपने ही प्रतिरूप
में बनाया । तात्पर्य यह है कि मनुष्य इस सृष्टि में परमात्मा
के स्वरूप की श्रेष्ठतम अभिव्यक्ति है ।
ऐसा श्रेष्ठ मनुष्य. पंचमहाभूत, पंचकर्मेन्ट्रिय,
पंचज्ञानेन्द्रिय, पंचप्राण, मन, बुद्धि, अहंकार और चित्त तथा
चेतन तत्त्व आदि तत्त्वों का बना हुआ है । इनसभी तत्त्वों
का आपसी समरस सम्बन्ध है । समरस सम्बन्ध से तात्पर्य
यह है कि ये एक अभिन्न व्यक्तित्व के अंग बनकर एकदूसरे
को प्रभावित करते हैं और एकदूसरे से प्रभावित होते हैं ।
मनुष्य शरीर का आश्रय लेकर ये सारे तत्त्व रहते हैं और एक
होकर व्यवहार करते हैं । मनुष्य इन सबका एक संघात है ।
ये सारे उसके व्यक्तित्व के अंगउपांग हैं । मनुष्य का शरीर
मन को प्रभावित करता है और मन शरीर को । मन बुद्धि
को प्रभावित करता है और बुद्धि मन को । इन सभी अंगों
के अपनेअपने काम हैं । हाथ वस्तुओं के निर्माण का कार्य
करते हैं, पैर गति करते हैं और शरीर का भार उठाते हैं ।
वाणी बोलती है । मन विचार करता है, इच्छा करता है,
भावनाओं का अनुभव करता है । बुद्धि जानती है, समझती
है और विवेक करती है । शरीर यन्त्र की तरह अनेक काम
करता है, प्राण उस यन्त्र को ऊर्जा प्रदान करता है, बुद्धि
शरीर, प्राण, मन आदि को निर्देश देती है और नियमन में
रखती है, अहंकार कर्तृत्व, भोक्तृत्व और ज्ञातृत्व के भाव
के साथ रहता है, चित्त इन सबको संस्कारों के रूप में ग्रहण
कर सारे अनुभवों को स्थायी बनाता है । मनुष्य के सारे
व्यवहार सत्त्व, रज और तम ऐसे तीन गुणों से ओतप्रोत
रहते हैं । इन सभी में समरसता रहती है । एकदूसरे का साथ
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लिये बिना ये अंगउपांग संघात के रूप
में काम ही नहीं कर सकते हैं । इस समरसता को बनाये
रखते हुए व्यवहार करने की दृष्टि समग्रता की दृष्टि है ।
उदाहरण के लिये हम आहार ग्रहण करते हैं तब
उसकी आवश्यकता शरीर और प्राण के लिये होती है ।
इसलिये हम पोषकता का ध्यान रखते हैं । रसनेन्ट्रिय उसका
स्वाद ग्रहण करती है । मन का उसमें रुचिअरुचि का भाव
होता है । इसलिये हम स्वादिष्टता का ध्यान रखते हैं ।
स्वाद और पौष्टिकता को बनाये रखने के लिये हाथ को
कुशलता से काम करना होता है । बुद्धि बनाने की और
खाने की प्रक्रिया में उचितअनुचित का निर्देश देती है ।
अहंकार भोजन कर तृप्ति का अनुभव करता है और चित्त
आहार से संस्कार ग्रहण करता है । हृदय स्वाद में रस भरता
है और सौन्दर्यबोध का अनुभव करवाता है । इनमें एक भी
यदि अपना काम दूसरे का ध्यान रखे बिना करता है तो
गड़बड़ होती है । हाथ यदि कुशल नहीं हैं तो स्वाद और
पोषण दोनों बिगड़ते हैं । केवल शरीर के पोषण का ही
ध्यान रखना है तो सारे भोजन पदार्थ एकसाथ मिलाकर
सानी बनाकर भी खाये जा सकते हैं । परन्तु मनुष्य का मन
और हृदय ऐसा नहीं करने देते हैं । या तो पशु इस प्रकार
खाता है या संन्यासी या योगी इस प्रकार खाता है । एक
को ( पशु को ) स्वाद का भान ही नहीं है और दूसरे ने (
संन्यासी अथवा योगी ने ) स्वाद को जीत लिया है ।
सुभाषितेन गीतेन युवतिनाम च लीलया
मनोनभिद्यते यस्य स योगी अथवा पशु: ।।
मन यदि स्वाद का ही ध्यान रखता है और
पोषणक्षमता का नहीं तो स्वास्थ्य खराब होता है । बुद्धि
यदि सारी क्रियाओं का नियमन नहीं करती तो स्वाद और
पोषण दोनों का कोई भरोसा नहीं रहता है । हृदय में यदि
रस नहीं है तो स्वादिष्ट और पोषक आहार भी पशु की
सानी जैसा ही होता है । इस प्रकार भोजन बनाने और करने
में स्वाद, सौन्दर्यानुभव, पोषण, संस्कारक्षमता आदि सभी
बातों का ध्यान रखना समग्र दृष्टि है। किसी एक या दो
बातों का ही ध्यान रखना समग्र दृष्टि नहीं है ।
इस प्रकार कर्मेन्ट्रियों की क्रियाओं, ज्ञानेन्द्रियों के
शिक्षा का समग्र विकास प्रतिमान
अनुभवों अथवा संबेदनों, मन की इच्छाओं, बुद्धि का
नियमन, चित्त के संस्कार, हृदय का सौन्दर्यानुभव आदि में
समरसतापूर्ण सामंजस्य रखना व्यक्तिगत जीवन में
समग्रतायुक्त व्यवहार होता है ।
सोने में और जागने में, खाने में और पीने में, वस्त्रों में
और अलंकारों में, अध्ययन में और अधथर्जिन में,सेवा में
और परिचर्या में, चिन्तन में और मनोरंजन में, काम करने में
और खेलने में संक्षेप में सभी व्यवहारों में यह समग्रता की
दृष्टि अपेक्षित है ।
व्यक्तिगत व्यवहारों की तरह सार्वजनिक व्यवहारों में
भी समग्रता की दृष्टि अपेक्षित होती है । सृष्टि में सर्वश्रेष्ठ
मनुष्य है । परन्तु उसके अलावा भी अगणित प्राणी और
पदार्थ हैं । हमारी परम्परा में चौरासी लाख योनियों का
उल्लेख आता है । यह सृष्टि का वैविध्य दर्शाता है । संख्या
के बारे में अधिक ऊहापोह न भी करें तो भी बहुत अधिक
वैविध्य है इतना कहना पर्याप्त है । इस वैविध्य को दो
भागों में विभाजित किया जा सकता है। एक है मनुष्य सृष्टि,
अर्थात् ब्रह्माण्ड में जितने भी मनुष्य हैं वे एक वर्ग बनाते
हैं। मनुष्यों में भी बहुत विविधता होती है परन्तु सारे
मिलकर एक वर्ग बनाते हैं । दूसरा विभाग है मनुष्येतर
सृष्टि । इनमें पंचमहाभूत, वनस्पति तथा प्राणी सृष्टि का
समावेश होता है । पंचमहाभूत हैं आकाश, वायु, अग्ि,
जल और पृथ्वी । प्राणियों में स्वेदज, अण्डज, उद्धिज और
जरायुज ऐसी श्रेणियों का समावेश होता है । वनस्पतियों में
वृक्ष, लता, घास और पौधों का समावेश होता है । इन
सबका आपसी सम्बन्ध है । सृष्टि में सर्वत्र पाँचों महाभूत
एकसाथ ही रहते हैं । अर्थात् किसी भी पदार्थ में कोई एक
महाभूत की प्रधानता भले ही हो, रहते पाँचों हैं । महाभूतों
का वनस्पति सृष्टि के साथ गहरा सम्बन्ध है क्योंकि
वनस्पतियों की देह पंचमहाभूतों की ही बनी होती है।
इसके साथ-साथ सृष्टि में मन, बुद्धि और अहंकार भी होते
हैं । इसीसे सम्बन्धित सत्त्व, रज, तम ये तीन गुण भी होते
हैं । ये सारी इकाइयाँ एकदूसरे को प्रभावित करती हैं और
एकदूसरे से प्रभावित होती हैं । इन सबमें समरसता युक्त
सामंजस्य बनाये रखने को ही समग्र दृष्टि कहते हैं ।
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मनुष्य का दायित्व
ऐसा सामंजस्य बनाये रखने का दायित्व मनुष्य का है ।
कारण स्पष्ट है । एक, केवल मनुष्य को ही सक्रिय मन प्राप्त
हुआ है । मन बनाने वाला भी होता है और बिगाड़ने वाला
भी होता है । मनुष्य को ही सक्रिय बुद्धि और अहंकार मिले
al इसलिये उसका दायित्व बनता है । दूसरा, मनुष्य
परमात्मा की सारी अभिव्यक्तियों में सबसे बड़ा है । भारत में
बड़ों को कर्तव्य दिया गया है । कष्ट सहने में, दूसरों का
विचार करने में, रक्षण और पोषण करने में बड़ों का क्रम
पहला है, जबकि उपभोग में अन्तिम है । इस कारण से
सामंजस्य बनाये रखने का दायित्व मनुष्य का है । तीसरा
कारण यह है कि मनुष्य के अलावा शेष सारी सृष्टि तो प्रकृति
के नियन्त्रण और नियमन में ही रहती है । वह न तो बना
सकती है न बिगाड़ सकती है । बनाने या बिगाड़ने वाला तो
मनुष्य ही होता है । इसलिये भी मनुष्य का दायित्व है ।
मनुष्येतर सृष्टि में प्राणियों की और वनस्पति की
आवश्यकतायें प्राकृतिक रूप से ही पूर्ण हो जाती हैं । परन्तु
मनुष्य का ऐसा नहीं है । उसकी इच्छायें और आवश्यकतायें
बहुत अधिक होती हैं । मनुष्य ने अपने मन और बुद्धि के
कारण अपनी आवश्यकतायें बहुत अधिक बढ़ा ली हैं । इन
आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये उसे श्रम करना पड़ता है ।
साथ ही वह सृजनशील और जिज्ञासु प्राणी है । इसलिये
वह अनेक प्रकार की वस्तुर्यें बनाता है । मनुष्य को अन्य
मनुष्यों के साथ रहना है । साथ रहने के लिये उसे अनेक
प्रकार की व्यवस्थायें बनानी पड़ती हैं । उदाहरण के लिये
परिवारव्यवस्था, अर्थव्यवस्था, राज्यव्यवस्था आदि अनेक
प्रकार की व्यवस्थायें वह बनाता है । उसे अनेक नियम
बनाने पढ़ते हैं । नियम बनाने की प्रक्रिया जब वैश्विक
नियमों के अविरोधी होती है तब वह सबका भला करती है
और सामंजस्य को निभा सकती है ।
उदाहरण के लिये समग्रता की दृष्टि से जब
राज्यव्यवस्था बनती है तब राजा प्रजापालक होता है,
अपने आपको प्रजा का सेवक मानता है । समग्रता की दृष्टि
से परिवारव्यवस्था बनती है तब पतिपत्नी का एकात्म
सम्बन्ध उसका केन्द्रबिन्दु बनता है और उस केन्द्र से जो
वृत्त बनता है वह विस्तृत होतेहोते
वसुधैव कुटुम्बकम् तक पहुँचता है । समग्रता की दृष्टि से
जब अर्थव्यवस्था बनती है तब वह समाज की समृद्धि का
लक्ष्य रखती है और बाजार को धर्म के नियन्त्रण में रखती
है । समग्रता की दृष्टि से जब समाजव्यवस्था बनती है तब
परिवारभावना उसका आधार होती है और संस्कृति तथा
समृद्धि का रक्षण और संवर्धन उसका लक्ष्य रहता है।
समग्रता की दृष्टि से जब व्यक्ति अर्थार्जन करता है तब वह
समाज के लिये उपयोगी वस्तुओं के उत्पादन को माध्यम
बनाता है, पर्यावरण की हानि न हो इसका ध्यान रखता है,
किसीकी रोजगारी और स्वतन्त्रता का हरण न हो इसकी
चिन्ता करता है, दान को अर्थार्जन का अंग बनाता है।
समग्रता की दृष्टि से जब वह पंचमहाभूतों की ओर देखता है
तब वह भूमि को माता मानता है, पंचमहाभूतों को देवता
मानता है, वनस्पति और प्राणी को अपने स्नेह के पात्र
मानता है और उनके प्रति कृतज्ञ रहता है । समग्रता की दृष्टि
से जब जीवन की ओर देखता है तो प्रेम, सेवा, त्याग
उसके व्यवहार के आधार होते हैं । समग्रता की दृष्टि से जब
विश्व की ओर देखता है तब सर्वे भवन्तु सुखिन: ही उसकी
कामना होती है ।
समग्रता की दृष्टि से जब अपने आपको देखता है तब
वह मानता है कि मैं शरीर, प्राण, मन, बुद्धि, अहंकार,
चित्त आदि के रूप में अभिव्यक्त हुआ ऐसा आत्मा हैँ ।
अहं ब्रह्वास्मि । समग्रता की दृष्टि से जब वह सृष्टि को
देखता है तब वह सृष्टि परमात्मा का विश्वरूप है ऐसा
मानता है । सर्व खलु इदं ब्रह्म ।
इस प्रकार समग्रता एकात्मता है, समग्रता सन्तुलन
है,समग्रता सम्पूर्णता है । अपने आपकी और सबकी ।
आचार्य का प्रवचन समाप्त हुआ । आचार्य शुभंकर
खड़े हुए और कहने लगे कि हम सबने समग्रता के विषय
को समझा है । आप सबके प्रसन्न मुखमण्डल देखकर सहज
ही अनुमान होता है कि सबको समाधान भी हुआ है । फिर
भी आप में से कुछ के मन में और अधिक जानने की
जिज्ञासाएँ होंगी । वे सभी आगामी सत्रमें प्रश्न पूछ सकेंगे ।
सबने शान्तिमंत्र बोला और सत्र विधिवत सम्पन्न हुआ |
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समग्रता की चर्चा हुए पाँच दिन बीत गये थे । भारत
के सामान्य लोगों के सामान्य व्यवहार में भी समग्रता की
दृष्टि किस प्रकार अनुस्यूत रहती है यह जानकर सब हैरान
थे । बर्तन साफ करने जैसे अनेक उदाहरणों की चर्चा चली
थी । एकएक बात में मूल दृष्टि का किस प्रकार अन्तर्भाव
होता है यह जानना अत्यधिक आवश्यक है ऐसा उनका
अभिप्राय बनने लगा था । परन्तु यह सब कैसे हुआ होगा
और किसने यह सब किया होगा इस बात का उन्हें आश्चर्य
लग रहा था । इसलिये उन्होंने आचार्य ज्ञाननिधि से ही
पूछने का निश्चय किया । आज के अध्ययन का प्रारम्भ इस
प्रश्न से ही हुआ ।
आचार्य बुद्धदेव ने सबकी ओर से प्रश्न पूछा...
आचार्यजी, गत पंचमी के आपके प्रवचन के बाद
हमने आपस में चर्चा की थी । एक दो दिन तो हमने नगर
में सर्वसामान्य लोगों से सम्पर्क भी किया । हमने देखा कि
शिक्षित, सम्पन्न और अपने आपको आधुनिक और शिक्षित
मानने वाले लोग अपने घरेलू कामों में प्लास्टिक का बहुत
प्रयोग करते हैं, कुछ भी खातेपीते हैं और अस्तव्यस्त
दिनचर्या से रहते हैं । उनके साथ जब दैनंदिन जीवन में
कैसी वस्तुओं का प्रयोग करना चाहिये इस विषय पर चर्चा
की तब वे प्रदूषण, स्वास्थ्य, समग्रता आदि बातों के
सम्बन्ध में अत्यधिक उदासीन पाये गये । वास्तव में हमें वे
न केवल उदासीन अपितु अज्ञानी ही लगे । हमें उनका
व्यवहार देखकर बहुत दुःख हुआ । परन्तु हम कुछ कम
शिक्षित, कम आय वाले, सामान्य काम कर अधथर्जिन करने
वाले, अपने आपको आधुनिक न कहने वाले लोगों को
मिले तब इन विषयों में उनकी आस्था दिखाई दी । वे भी
प्लास्टिक का प्रयोग तो करते थे परन्तु नारियल के छिलके,
जूठन का योग्य विनियोग आदि बातों में वे बहुत भावुक
और समझदार थे । अब वे इन बातों का अनुसरण नहीं
करते हैं क्योंकि ऐसा करने से पढ़ेलिखे लोग उन्हें पिछड़े
कहेंगे इसका उन्हें भय है। साथ ही अब व्यवस्थायें
अनुकूल रही नहीं हैं । उदाहरण के लिये मिट्टी या राख अब
ATTA
श्०
शिक्षा का समग्र विकास प्रतिमान
मिलती नहीं है । पानी गिराने के लिये खुली जमीन नहीं
है । जूठन या छिलके खिलाने के लिये गाय या बकरी ही
नहीं है । इन बातों का तत्त्व तो पूरी तरह से वे नहीं जानते
थे परन्तु अनुकूलता होने पर अनुसरण करने में उनकी
आस्था देखने को मिली । य सब क्या है आचार्यजी ? ऐसा
अज्ञान और अनास्था क्यों दिखाई देते हैं ? यह शिक्षित
लोगों की समस्या है या उन्होंने समस्या निर्माण की है ?
हमारी व्यवस्थायें इतनी विपरीत कैसे हो गईं ? यह सब
स्पष्ट करने की कृपा करें ।
आचार्य ज्ञाननिधि इस प्रकार के प्रश्नों की अपेक्षा कर
ही रहे थे । उन्होंने अपना निरूपण आरम्भ किया...
आपके प्रश्न में ही कदाचित उत्तर भी है । समस्या
शिक्षित लोगों की है और शिक्षित लोगों द्वारा निर्मित भी है ।
कारण यह है कि परम्परा से लोगों को जो दृष्टि प्राप्त होती है
उसका स्रोत विद्याकेन्द्र होते हैं । विद्याकेन्द्रों में जीवन से
सम्बन्धित सभी विषयों की शास्त्रीय चर्चा होती है और
व्यवहार में उसे लागू करने के उपायों पर भी विचार होता है ।
शास्त्रीय चर्चा के बाद आचार्य और छात्र जनसमाज में उसे
प्रचारित और प्रसारित करते हैं । सामान्य लोग शिक्षितों के
प्रति जो श्रद्धा होती है उससे प्रेरित होकर तत्त्व समझें या न
समझें अनुसरण करने लगते हैं । अनुसरण करते करते ही वे
अपनी पद्धति से तत्त्व भी समझने लगते हैं । इस प्रकार
आस्था से युक्त व्यवहार की परम्परा बनती है ।
आपने पूछा कि यह सारी व्यवस्था किसने बनाई
होगी ?
एक कथा सुनाता हूँ। आपने यह कथा पहले भी
सुनी है । उसे एक नवीन सन्दर्भ में सुनें ।
महाभारत का युद्ध समाप्त हुआ । पाण्डव विजयी हुए
और महाराज युधिष्ठिर का राज्याभिषेक हुआ । परन्तु दोनों
सेनाओं का मिलकर भीषण संहार हुआ था । सर्वत्र अराजक
छाया हुआ था | छत्तीस वर्ष पश्चात परीक्षित को राज्य
सौंपकर पाण्डब हिमालय चले गये । उसी समय कलियुग
का प्राम्भ हुआ । कलियुग के प्रभाव से लोगों की
............. page-27 .............
we : १ तत्त्वचिन्तन
शारीरिक, मानसिक, बौद्धि शक्तियों का और भी oa
हुआ । इस स्थिति में समाज को पुनः व्यवस्थित करने के
उपाय करने की आवश्यकता थी । यह कार्य कौन करेगा ?
कौन कर सकता था ? उस समय नैमिषारण्य में आचार्य
शौनक का गुरुकुल था । आचार्य शौनक वहाँ कुलपति थे ।
उन्होंने सम्पूर्ण भारत वर्ष से आचार्यों को निमंत्रित किया ।
अठासी हजार ऋषि, जो विभिन्न गुरुकुलों में पढ़ाते थे, वहाँ
एकत्रित हुए और उसका ज्ञानसत्र चला । यह ज्ञानसत्र बारह
वर्षों तक चला । इस ज्ञानसत्र का विषय ही समाज की
बिगड़ी हुई व्यवस्थाओं को ठीक करने का था ।
इस ज्ञानसत्र में समाज की सुस्थिति किसे कहते हैं
इसकी तात्तविक चर्चा हुई । परन्तु केवल तात्तिक चर्चा से
व्यवस्थायें बनती नहीं हैं। उन्हें और दो सन्दर्भां की
आवश्यकता होती है । एक सन्दर्भ है समय का । अब ट्रापर
युग नहीं था । पंचमहाभूतों की गुणवत्ता, लोगों की समझ
और मानस, लोगों की कार्यशक्ति आदि सभी में परिवर्तन
हुआ था । इन कारणों से जो द्वापर युग में स्वाभाविक था
वह कलियुग में स्वीकार्य नहीं हो सकता था । इसलिये
तत्वों और तत्त्वों के आधार पर बनी परम्पराओं का
कलियुग में युगानुकूल स्वरूप कैसा हो सकता था इसका
विचार करना था । दूसरा, जो भी निष्कर्ष निकलेंगे उन्हें
लोगों तक कैसे पहुँचाना इसका भी विचार करना था । यह
कार्य सरल भी नहीं था और शीघ्रता से भी होने वाला नहीं
था। बारह वर्ष की दीर्घ अवधि में उन्होंने यह कार्य
किया । सर्वसामान्य लोगों के दैनंदिन जीवन की छोटी से
छोटी व्यवस्थाओं के लिये निर्देश तैयार किये । हम कल्पना
कर सकते हैं कि उन्होंने क्या किया होगा । श्रीमद भागवत
में तो विस्तार से यह प्रक्रिया नहीं बताई है परन्तु हम
अनुमान कर सकते हैं ।
उदाहरण के लिये उन्होंने तय किया होगा कि
०... शरीर स्वास्थ्य यदि ठीक रखना है तो मनुष्य को
मध्याहन से और सूर्यास्त से पूर्व भोजन कर लेना
चाहिये, रात्रि में भोजन नहीं करना चाहिये और तामस
आहार नहीं लेना चाहिये । इसी प्रकार उन्होंने भोजन
सम्बन्धी सारे नियम बनाये । भोजन में भोजन बनाने
88
की, भोजन करवाने की और
भोजन करने की सारी बातों का समावेश कर दिया ।
आरोग्यशास्त्र, शरीरविज्ञान, आहारशास्त्र, पाकशास्त्र
आदि सारी बातों का इसमें समावेश किया । भोजन
बनाने और करने में पात्रविवेक, प्रक्रियाविवेक,
इईंधनविवेक, समयविवेक, भावविवेक आदि सभी
बातों का विचार किया । व्रत, उपवास, स्वादसंयम,
अतिथिसत्कार, अन्नदान, उत्सव, त्योहार आदि
सबको जोड़कर छोटी से छोटी बातें निश्चित कीं ।
०... अध्यात्म, . बुद्धिविकास, cle, oe,
व्यवहारज्ञान को ध्यान में रखकर सामान्य लोगों को
कहीं पर भी सुलभ हों ऐसे खेलों, गीतों, कहानियों
की रचना की ।
०... मनःसंयम, पर्यावरणसुरक्षा और सामाजिकता को एक
साथ लेकर व्रतों और त्योहारों की स्वना की ।
© आचारमूलक मूल्यव्यवस्था बनाई |
०... षोडशसंस्कारों की स्चना की ।
०... शिशुसंगोपन और शिक्षा की व्यवस्था कर एक पीढ़ी
से दूसरी पीढ़ी को ज्ञान, संस्कार, कौशल आदि के
हस्तान्तरण के माध्यम से परम्परा निर्माण की ।
इस प्रकार असंख्य विषयों का बारीक से बारीक
निरूपण किया । ये सारे व्यवहारशास्त्र बने । ऐसा अति
विस्तृत निरूपण करने के बाद वे सम्पूर्ण समाज मैं फैल गये
और अपने ज्ञान, सद्धावना और कौशल के माध्यम से
सबको व्यवहार का सम्यक ज्ञान दिया । समाज के आस्था,
कौशल और सरोकार को बढ़ाया और प्रस्थापित किया |
समाज को समृद्धि, संस्कृति और मुक्ति का मार्ग दिखाया ।
यही कलियुग का व्यवहारशाख्त्र है ।
यह काम गुरुकुल द्वारा किया गया ।
किसी भी युग में, किसी भी समय में, किसी भी
सन्दर्भ में यह काम विद्यासंस्थाओं को ही करना होता है ।
यह उनका दायित्व भी है और अधिकार भी |
शिक्षा सर्व प्रकार की परम्पराओं को संजोकर रखने का
माध्यम होती है । जब तक भारत में धार्मिक शिक्षा चली ये
सारी बातें परम्परा के रूप में लोगों के व्यवहार में और मानस
............. page-28 .............
में प्रतिष्ठित थीं । परन्तु जबसे ब्रिटीशों ने
भारत की शिक्षा अपने नियन्त्रण में ली तबसे परम्परायें टूटने
लगीं । अज्ञान और अनास्था बढ़ते गये और मानसिकता तथा
व्यवस्थायें बदलती गईं । स्वाभाविक है कि शिक्षित लोगों में
इनकी मात्रा अधिक है । कम शिक्षित लोगों की स्थिति
ट्रिधायुक्त है । वे परम्पराओं को आस्थापूर्वक रखना भी चाहते
हैं परन्तु शिक्षित लोगों ने बनाया हुआ सजमाना' ऐसा करने
नहीं देता । इसलिये धार्मिक व्यवस्था के अवशेष तो दिखाई
देते हैं परन्तु उनकी दुर्गति भी त्वरित गति से हो रही है |
हमें इसे ठीक पटरी पर लाना है यह तो आप समझ ही
गये होंगे ।
नैमिषारण्य की कथा तो पहले सुनी हुई थी परन्तु उसके
निहितार्थ सुनकर आचार्यों को अपने कार्य की महत्ता का बोध
eat | विद्यासंस्थाओं की समाज में क्या भूमिका होती है
उसका भी सम्यक ज्ञान हुआ । वे बहुत प्रसन्न हुए । कुछ पल
मौन में बीते । यह मौन बहुत सार्थक था । सुनी हुई बातों को
आत्मसात करने की प्रक्रिया का निदर्शक था ।
कुछ पल के बाद आचार्य मन्दार ने अपनी जिज्ञासा
प्रस्तुत की । उन्होंने कहा...
आचार्यजी, उससमय अठासी हजार ऋषियों ने बारह
वर्ष ज्ञानसाधना कर समाज को व्यवस्थित किया । यह कथा
बड़ी रोमांचक है और कार्य बहुत अदूभुत है । परन्तु आज
क्या स्थिति है ? अठासी हजार तो क्या अठासी सौ
अध्यापक भी नहीं मिलेंगे । अब अध्यापक ऋषि भी तो
नहीं रह गये हैं । वे तो वेतनभोगी कर्मचारी मात्र हैं । उनके
सरोकार ही कुछ और हैं । बारह वर्षों तक ज्ञानसाधना
चलना भी असम्भव लगता है। विद्याकेन्द्र समाज की
आस्था के केन्द्र नहीं रह गये हैं। आप गुरुकुलों का
दायित्व और अधिकार बताते हैं । हमारी आपसे सहमति भी
है । परन्तु परिस्थिति तो सर्वथा विपरीत है । तब यह कार्य
होगा कैसे ? शिक्षा तो धार्मिक बनाकर समाज को ठीक
करने की चर्चा तो की जा सकती है परन्तु व्यवहार और
व्यवस्था में यह सब कैसे आयेगा ? किससे आशा की जा
सकती है ? किसकी क्षमता है ? कुछ भी सोच पाना
कठिन हो गया है । आप कठिन लगाने वाली बातों को भी
श्र
शिक्षा का समग्र विकास प्रतिमान
सहज ढंग से कह देते हैं । इस बात का भी विश्लेषण करने
की कृपा करें ।
आचार्य ज्ञाननिधि स्वस्थतापूर्वक कहने लगे...
आचार्य मन्दार, आपकी चिन्ता योग्य ही है । विगत
दोसौ वर्षों से हमारे ज्ञानक्षेत्र पर जो आक्रमण हो रहा है वह
अभूतपूर्व है । यह आक्रमण यदि केवल राजनैतिक होता, या
केवल पाशवी बल का होता, या केवल अहंकारजनित होता
तो उसे परास्त करना सरल था । इतिहास में हमने अनेक प्रकार
के आक्रमण देखे हैं । रावण, कंस आदि के अत्याचार देखे
हैं । वह अहंकारजनित अत्याचार था । उसे आक्रमण नहीं कह
सकते । केवल आसुरी तत्त्वों की प्रबलता थी । हमने शक,
हृण आदि के आक्रमण सुने हैं । वह केवल विजयाकांक्षा थी
परन्तु उसका स्वरूप भौतिक था । अभी अभी के इतिहास में
सिकंदर का आक्रमण भी सुना है । वह भी विजयाकांक्षा से
प्रेरित था और भौतिक स्वरूप का था । यही नहीं इस्लाम के
उदय के बाद पूरे विश्व ने जेहाद के नाम से इस्लामिक आक्रमण
का अनुभव किया है । आज भी उसका अनुभव विश्व के अनेक
देशों को हो रहा है । यह आक्रमण धर्म के नाम पर हो रहा
है । उसी प्रकार इसाईकरण के उद्देश्य से भी इतिहास में अनेक
आक्रमण हुए हैं । परन्तु इन सभी आक्रमणों का स्वरूप भौतिक
और पाशवी बल के आधार पर किये गये आक्रमण का ही था
और है । ब्रिटीशों के इन दोसौ वर्षों के आक्रमण का स्वरूप
केवल भौतिक नहीं है, केवल जिहादी भी नहीं है । वह
भौतिक और जिहादी उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिये बौद्धिक
और मनोवैज्ञानिक साधनों का शस्त्र के रूप में प्रयोग करने का
है । ब्रिटीशों ने शिक्षा का शस्त्र के रूप में प्रयोग किया । शिक्षा
का उद्देश्य ज्ञानात्मक होता है । ब्रिटीशों ने उसका उपयोग
राजनीतिक और आर्थिक हेतुओं से किया । यह पहले कभी
नहीं हुआ था । यह सर्वथा एक भिन्न जीवनदृष्टि थी । जर्मन
पण्डित मैक्समूलर का कथन है, “भारत एक बार जीता गया
है, परन्तु वह दूसरी बार भी जीता जाना चाहिये । और यह
दूसरी विजय शिक्षा (जो कि ज्ञान का क्षेत्र है) के माध्यम से
होनी चाहिये' । अतः ब्रिटीशों ने शिक्षा के माध्यम से
जीवनदृष्टि को ही बदलने का प्रयास किया और अपनी सत्ता
का इसमें सहयोग लिया । सत्ता और अर्थ के सहयोग से उन्होंने
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we : १ तत्त्वचिन्तन
धार्मिकों के मानस और विचार बदले । बदले हुए विचार और
मानस ने व्यवस्थायें भी बदलना आरम्भ किया । परिवर्तन की यह
प्रक्रिया अभी भी जारी है । अभी पूर्ण परिवर्तन नहीं हुआ है ।
परन्तु यह भी महतू आश्चर्य की बात है कि दोसौ वर्ष
के आक्रमण के बाद भी हम अभी भी धार्मिक बनकर ही
जी रहे हैं। धार्मिक प्रज्ञा का एक हिस्सा ऐसा है जो
ब्रिटीशों और यूरोपीय जीवनदृष्टि से अत्यधिक प्रभावित है ।
परन्तु सामान्य जन अभी भी धार्मिक मानस के साथ ही जी
रहा है। इसका कारण यह है कि भगवती प्रकृति की
योजना से भारत की चिति के अवपात का समय अभी
आया नहीं है इसलिये भारत को भारत ही बने रहना है ।
यह भारत की नियति है । इसलिये भारत का सामान्य जन
अनेक कठिनाइयों के बावजूद, अनेक अवरोधों के बावजूद
अपना स्वभाव छोड़ता नहीं है। हाँ, शिक्षित लोग इस
आक्रमण से अधिक मात्रा में परास्त हुए हैं और देश की
व्यवस्थायें उनके प्रभाव में चलती हैं । इसलिये परेशानी
बढ़ती है । परन्तु अभी भी आशा है ।
ऐसा लगता है कि इन अवरोधों को पाटने के लिये
इस सामान्य जन का बहुत सहयोग प्राप्त होगा । फिर भी
शिक्षित लोगों को भी साथ में तो लेना ही होगा । कारण
यह है कि इस कठिन परिस्थिति से उबरने के प्रयास तो
ज्ञानात्मक ही होने चाहिये । ज्ञानात्मक प्रयास के लिये हमें
2८ ५
2 ५.
शिक्षित लोगों के सहयोग की
आवश्यकता रहेगी । हमें अपने शिक्षाक्षेत्र को परिष्कृत
करना होगा । उसे आज ब्रिटीशों के ही प्रभाव के कारण
अर्थ और सत्ता के शख्त्र के रूप में प्रयुक्त किया जाता है
उसके स्थान पर सत्ता और अर्थ को ज्ञान की सेवा में लाना
होगा । यह मानसिक और बौद्धिक क्षेत्र का कार्य
sar, esd एवं सामान्य जन के सम्मिलित प्रयासों
से ही होगा ।
यह कार्य कठिन अवश्य है परन्तु असम्भव नहीं है
क्योंकि बौद्धिकों में भी इसे समझने वाले, इस दिशा में
प्रयोग करने वाले, अपनी शक्ति और मति से प्रयास करने
वाले बहुत लोग, बहुत संस्थायें और अनेक संगठन हैं । इन
सबके सम्मिलित प्रयासों से परिष्कृति आने वाली ही है ।
ऐसे विश्वास से ही हम भी अपने अध्ययन की योजना बना
रहे हैं यह तो आप जानते ही हैं ।
अतः चिन्तन अवश्य करें, चिन्ता न करें ।
आचार्य ज्ञाननिधि के मुख से परिस्थिति का विश्लेषण
सुनकर सब आश्वस्त हुए ।
अनुप्रश्न तो दो ही हुए । वे इतने महत्त्वपूर्ण थे कि
आगे अभी चर्चा करने की किसी की वृत्ति नहीं रही थी ।
समय भी बहुत हुआ था । अतः शान्ति पाठ के बाद उस
दिन की सभा विसर्जित हुई ।
अध्याय ३
विकास की वर्तमान संकल्पना एवं स्वरूप
माघ कृष्ण तृतीया का दिन था । प्रातः:काल का
द्वितीय प्रहर था । गुरुकुल में आज अनेक अतिथि पधारे हुए
थे । वे सब एक सप्ताह तक रहने वाले थे । ये अतिथि
देशविदेश से भी आये थे और भारत के विभिन्न प्रदेशों से भी
आये थे । सब उच्चविद्याविभूषित थे । देश और विदेश के
विश्वविद्यालयों में ये सब अध्यापन और अनुसन्धान कर रहे
थे । उनके अध्ययन के क्षेत्र भी विविध प्रकार के थे । कोई
साहित्य एवं कला में तो कोई भौतिक विज्ञान में, कोई
83
खगोल में तो कोई भूगोल में, कोई समाजशास्त्र में तो कोई
अर्थशास्त्र में, कोई योग में तो कोई संगीत में, कोई प्रबन्धन
में तो कोई संगणक विद्या में अध्ययन अध्यापन और
अनुसन्धान के कार्य में रत थे । वे विद्यावान थे और
कीर्तिमान भी थे । लगभग सबने कई ग्रन्थों का लेखन किया
था। कुछ लोगों ने विश्व की अनेक शिक्षासंस्थाओं में
व्याख्यान हेतु प्रवास भी किया था । अनेक लोगों को अपने
देश में और अन्य देशों में पुरस्कार भी प्राप्त हुए थे । कुछ
............. page-30 .............
तो विश्वविद्यालयों के कुलपति भी थे ।
ऐसे सब विद्रज्जन गुरुकुल के अतिथि हुए थे ।
गुरुकुल में पाँच दिन का ज्ञानसाधना सत्र था । तृतीया
से लेकर सप्तमी तक चलने वाला था । आज प्रातः:काल
यज्ञ से उसका प्रारम्भ हुआ था । प्रतिदिन पूर्वाह्न में तीन
घण्टे और अपराह्क में तीन घण्टे ज्ञानसाधना सत्र चलने
वाला था । कुल मिलाकर दस सत्र होने वाले थे । इन दस
सत्रों में केवल एक ही विषय था । वह था “विकास की
संकल्पना एवं स्वरूप' । तत्तविक चर्चा के साथ-साथ
विकास के सम्यक् स्वरूप को प्रतिष्ठित करने के लिये कार्य
योजना बनाने का भी आयोजन था । गुरुकुल इस
ज्ञानसाधना सत्र का आयोजक था और गुरुकुल के आचार्यों
का मानना था कि व्यवहार की चर्चा के बिना केवल
cia चर्चा फलदायी नहीं होती है । अतः क्रियान्वयन
की योजना बननी ही चाहिये |
प्रात:काल ठीक साड़े आठ बजे सभा आरम्भ हुई ।
कुलपति आचार्य ज्ञाननिधि की अध्यक्षता में यह सभा होने
वाली थी । उनका आगमन होने से पूर्व सारे विदट्रज्जन
अपनेअपने स्थान पर बैठ गये थे । सभा में गम्भीर शान्ति
छाई हुई थी ।
शंखनाद हुआ और कुलपतिजी का आगमन हुआ |
उन्होंने दीप प्रज्वलन किया और अपना स्थान ग्रहण
किया । गुरुकुल के आचार्य केशव ने संगठन मन्त्र का गान
किया । संगठन मन्त्र इस प्रकार था ...
सं गच्छध्बं सं बदध्वं सं वो मनांसि जानताम्
देवा AMT यथा पूर्व संजानाना उपासते ।
समानो मंत्र: समिति: समानी समान॑ मन: सह चित्तमेषाम् ।
समानं मंत्रमभि मन्त्रये व समानेन वो हविषा जुहोमि ।
समानी व आकूति: समाना हृदयानि वः ।
समानमस्तु वो मनो यथा व: सुसहासति
३3% शान्ति: शान्ति: शान्ति: ।
संगठन मन्त्र के गान के बाद आचार्य शुभंकर खड़े
हुए । वे इस ज्ञानसाधना सत्र के संयोजक थे । सबका
स्वागत करते हुए उन्होंने कहा ...
आज गुरुकुल के आवाहन का आदर कर आप सब
शिक्षा का समग्र विकास प्रतिमान
देशविदेश से पधारे हैं । मैं गुरुकुल की ओर से आप सबका
स्वागत करता हूँ। यहाँ इस सभा में अमेरिका, यूरोप,
जापान, चीन और ऑस्ट्रेलिया के विश्वविद्यालयों से वरिष्ठ
प्राध्यापक आये हैं । भारत के विभिन्न शोधसंस्थानों के भी
प्राध्यापक उपस्थित हैं । अपने अपने क्षेत्र में हमने पर्याप्त
अध्ययन और अध्यापन का कार्य किया है। इस
ज्ञानसाधना सत्र का विषय है “विकास की संकल्पना एवं
स्वरूप' । विकास संज्ञा आज के समय में केन्द्रवर्ती संज्ञा
बन गई है । सभी देशों की सरकारें विकास को ही अपना
मुख्य मुद्दा बताते हुए अपने कार्यक्रम निर्धारित करती हैं ।
राजनैतिक दल विकास के मुद्दे पर अपना चुनाव अभियान
चलाते हैं । विकास के नाम पर देशों की श्रेष्ठता और
कनिष्ठता निश्चित होती है । विकास ही जीवन का लक्ष्य
बना हुआ है।
विकास एक अच्छी बात है ऐसा हम सब मानते हैं ।
तभी तो हम उसके पीछे पड़े हैं । परन्तु मानव जाति दिन
प्रतिदिन अधिकाधिक दुःखी हो रही दिखाई देती है । तब हमें
विचार करना पढ़ता है कि ऐसा होने का कारण क्या है ।
विकास और सुख का कोई सम्बन्ध है अथवा नहीं ? विकास
और समृद्धि का कोई सम्बन्ध है अथवा नहीं ?विकास और
संस्कृति का कोई सम्बन्ध है अथवा नहीं ? इन प्रश्नों के उत्तर
खोजने में और भी कई प्रश्न निर्माण हो सकते हैं । आप सब
विद्वान हैं । अपने स्वाध्याय और प्रत्यक्ष कार्य के कारण आप
इस प्रश्न पर चर्चा करने हेतु योग्य व्यक्ति हैं । हम चर्चा के
निष्कर्षों के आधार पर क्रियान्वयन की योजना भी बनायेंगे ।
मैं अधिक कुछ न कहते हुए आप सबका पुन: एक बार
स्वागत करता हूँ और सभा के सूत्र अध्यक्ष महोदय के हाथ में
देता हूँ और अपनी प्रस्तावना से चर्चा का प्रारम्भ करने हेतु
निवेदन करता हैँ ।
विकास से तात्पर्य
आचार्य ज्ञाननिधि ने प्रस्तावना के प्रारम्भ में ही एक
बहुप्रचलित सुभाषित कहा ...
सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वेसन्तु निरामया: ।
सर्वे भद्राणिपश्यन्तु मा कश्चिद्दुःख भागभवेत् ।।
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we : १ तत्त्वचिन्तन
आदरणीय विदट्रूज्जनों, आपको मेरा प्रणाम । मैंने अभी
जो श्लोक कहा उसमें जो कामना की गई है वही
सर्वजनहित और सर्वजनसुख हमारे सारे कार्यों का आलम्बन
होता है। विशेष रूप से ज्ञान क्षेत्र का आलम्बन
विश्वकल्याण ही होता है । इस बात को आधाररूप मानकर
हम विकास के प्रश्न की चर्चा करेंगे । आज विश्व में सर्वत्र
विकास की चर्चा हो रही है । परन्तु संकट बढ़ रहे हैं । इन
दो बातों को साथ में रखकर हमें विचार करना है । मैं कुछ
बिन्दु आपके समक्ष रखता हूँ। आप अपने विचार प्रस्तुत
करने की कृपा करें ।
“विकास' संज्ञा का अर्थ क्या है ? क्या विकास का
अर्थ वृद्धि है ? क्या विकास का अर्थ विपुलता है ?
क्या विकास का अर्थ समृद्धि है ? क्या विकास का
अर्थ यश और कोीर्ति है ? क्या विकास का अर्थ
प्रतिष्ठा है ? क्या विकास का अर्थ सदुण और संस्कार
है ? क्या विकास का अर्थ मुक्ति है ? क्या विकास
का अर्थ ज्ञान है ? क्या विकास का अर्थ सर्वज्ञता
है ? क्या विकास का अर्थ विजय है ? क्या विकास
का अर्थ इन बातों में से एक या एक से अधिक या
सभी हैं ? हम विश्लेषण पूर्वक चर्चा करें ।
क्या विकास व्यक्ति का होता है या समाज का ? देश
का या होता है विश्व का ? क्या विकसित व्यक्तियों
से समाज या देश विकसित होते हैं ? या व्यक्ति का
विकास होने पर भी समाज या देश अविकसित ही रह
जाते हैं ? या इससे उल्टा विकसित देश में
अविकसित लोग रहते हैं ? क्या विश्व के देशों में
विकास की कल्पना भिन्नभिन्न होती है ? क्या
विकसित देश दूसरे विकसित देश का मित्र होता है ?
याशत्रु ?
विकास के कारक तत्त्व कौन से हैं ? विकसित होने
के लिये व्यक्ति को या देशों को क्या करना पड़ता
है ? क्या एक व्यक्ति का विकास दूसरे व्यक्ति के
विकास के साथसाथ होता है ? या एक का विकास
दूसरे के विकास के कारण नहीं हो सकता है ? कया
यही बात देशों की है ? क्या विश्व में कुछ देशों की
ga
2८ ५
2 ५.
नियति विकसित होने की और
बने रहने की है और कुछ देशों की अविकसित बने
रहने की ?
विकसित देशों और व्यक्तियों का, अविकसित देशों
और व्यक्तियों से कैसा सम्बन्ध होता है ? कैसा होना
चाहिये ? जैसा होना चाहिये वैसा नहीं होने पर क्या
किया जाना चाहिये ?
क्या विकास का आधार संघर्ष है ? स्पर्धा है ?
परिश्रम है ? सत्ता है ? शिक्षा है ?
यदि विकास के सन्दर्भ में हम विधायक दृष्टि से
विचार करते हैं तो विकास के परिणाम अच्छे आने
चाहिये । परन्तु वर्तमान विश्व की स्थिति कुछ अलग
बात कहती है । विश्व के अनेक देशों में प्राकृतिक
संकट बढ़े हुए और निरन्तर बढ़ते हुए दिखाई देते हैं ।
सुनामी, अतिवृष्टि, भूकम्प, अकाल आदि प्राकृतिक
संकट विकसित या अविकसित देशों में समान रूप से
दिखाई देते हैं । विशेषरूप से ध्यान देने योग्य बात
यह है कि अविकसित देशों की तुलना में विकसित
देशों में इनकी मात्रा कुछ अधिक ही है । इसका क्या
कारण हो सकता है ? मानव सृजित संकट, जैसे कि
हिंसा, बलात्कार, छलकपट भी अविकसित देशों की
अपेक्षा विकसित देशों में ही अधिक दिखाई देते हैं ।
इसका क्या कारण हो सकता है, इसका विचार हमें
करना है । आतंकवाद बढ़ ही रहा है । सामाजिक
समरसता, जोकि श्रेष्ठ समाज का लक्षण है का हास
हो रहा है। विकास के सन्दर्भ में इन बातों का
विचार करना अनिवार्य है ।
मैं बार-बार अविकसित देश ऐसा बोल रहा हैँ ।
आपको आश्चर्य लगता होगा । आजकल देशों को या
व्यक्तियों को अविकसित नहीं कहा जाता है । आज
से पचास वर्ष पूर्व देश विकसित और अविकसित
देशों में विभाजित होते थे। तीसेक वर्ष पूर्व
अविकसित के स्थान पर अल्पविकसित देश कहने
का प्रचलन हुआ । आज अविकसित के स्थान पर
विकासशील देश कहना आरम्भ हुआ है । परन्तु शब्द
............. page-32 .............
शिक्षा का समग्र विकास प्रतिमान
ही बदले हैं, न भाव बदला है, न. तक किसीने नहीं की थी । आज मनुष्य रोबोट बना सकता
स्थिति बदली है, न उनके प्रति देखने का दृष्टिकोण... है जो उसके सारे काम करता है । मनुष्य का श्रम अत्यधिक
या उनके विषय में बोलने की भाषा या उनके साथ... मात्रा में कम कर देने वाले यन्त्रों का मानव जाति पर बड़ा
व्यवहार करने का तरीका बदला है । इस बात की. उपकार है ।
और ध्यान आकर्षित करने के लिये ही मैंने रास्तों पर चलने वाले असंख्य वाहन विकास के
अविकसित शब्द का प्रयोग किया है । आप चाहें तो... मानचिद्न हैं । उन वाहनों के लिये आवश्यक ईंधन भूमि से
विकासशील शब्द का प्रयोग कर सकते हैं । निकालने की, उसे शुद्ध करने की, वाहनों के लिये सड़क
इतनी बातें प्रस्तावना के रूप में कहकर आचार्य... बनाने की विद्या विकास की निशानी है ।
ज्ञाननिधि ने अपनी बात समाप्त की । सत्र विट्रूज्जनों की बड़ेबड़े भवन, बड़ेबड़े बाँध, भारत जैसे देश में
प्रस्तुति के लिये खुला हुआ । कोनेकोने में बिछी हुई रेल, हवाई जहाज, बुलेट ट्रेन आदि
आचार्य शुभंकर ने प्रथम ही आचार्य अग्निवेश को... विज्ञान के चमत्कार हैं । इनकी सहायता से हम विश्व के
निमंत्रित किया । आचार्य अग्निवेश पश्चिम के देशों में किसी भी कोने से किसी भी कोने में सम्पर्क कर सकते हैं ।
अर्थशास्त्र और पर्यावरण के तज्ञ माने जाते थे । उन्होंने कई विश्व के किसी भी कोने में क्या हो रहा है वह देख सकते
बड़ी-बड़ी कम्पनियों में आर्थिक परामर्शक के नाते अपनी. हैं, सुन सकते हैं, किसीसे भी बात कर सकते हैं । चौबीस
सेवायें दी थीं । वे अभ्यासु थे, समृद्ध थे और सुप्रतिष्ठित भी. घण्टे के अन्दर कहीं पर भी आजा सकते हैं, वस्तु भेज
थे । लोग उन्हें विकास के मुूर्तिमन्त पुरुष कहते थे । सकते हैं या मँगवा सकते हैं । विश्व आज एक छोटासा ग्राम
बन गया है । इसका श्रेय विज्ञान को और वैज्ञानिकों को
विकास और विज्ञान है।
उन्होंने अध्यक्ष महोदय और सभा का अभिवादन कर आधुनिक विश्व की यह विकास यात्रा उन्नीसवीं
अपनी बात आरम्भ की ... शताब्दी में यूरोप में आरम्भ हुई । टेलीफोन और स्टीम इंजिन
आज कुल मिलाकर विश्व ने बहुत विकास किया है ।.. की खोज से आरम्भ हुई । यह विकासयात्रा आज तक अविरत
यह विकास ज्ञान के क्षेत्र का है । ज्ञानात्मक विकास का... आरम्भ है । दिनोंदिन नये कीर्तिमान स्थापित हो रहे हैं । यहाँ
मुख्य पहलू विज्ञान के विकास का है । मनुष्य ने अपनी . तक कि अब स्टीफन होकिन््स ने गॉड पार्टिकल की भी
बुद्धि से चमत्कार कर विज्ञान के क्षेत्र में अद्भुत पराक्रम. खोज की और भगवान को वैज्ञानिक की प्रयोगशाला में
किये हैं । मनुष्य अब अन्तरिक्ष में ग्रहों पर जा सकता है।.. आना पड़ा ।
उपग्रह बना सकता है । उपग्रहों के माध्यम से विश्वमर के इसीलिये तो आज के युग को विज्ञान का युग कहते
समाचार चुटकी बजाते ही सर्वत्र पहुँचाये जा सकते हैं। हैं। विज्ञान ने मनुष्य को आधुनिकता, सुविधा और सुख
मोबाइल, टी.वी. और संगणक उसके पराक्रम की पराकाष्ठा .... प्रदान किये हैं ।
है । वैज्ञानिकों ने अणुविस्फोट किये और शख्त्रों तथा ऊर्जा विज्ञान की यशोगाथा और उससे हुए विकास के
के क्षेत्र में मानो चमत्कार हो गया । प्लास्टिक बनाया और . विषय में वे विस्तार से बोले । उन्होंने अनेक उदाहरण
दुनिया सुन्दरता, विपुलता और विविधता से भर गई ।.. प्रस्तुत किये, अनेक प्रकार के आँकड़े दिये, अनेक चित्र
सुविधा की सीमा नहीं रही । प्रदर्शित किये, समाचार पत्रों के अनेक वृत्त प्रस्तुत किये,
मनुष्य की बुद्धि का और एक चमत्कार यन्त्रों की. अनेक महापुरुषों ने विज्ञान की जो प्रशंसा की थी उनके
खोज है । यन्त्र भगवान ने नहीं बनाये, मनुष्य ने बनाये ।.. उद्धरण दिये । अपने प्रवचन को उन्होंने अनेक प्रमाणों से
इतनी जटिल, इतनी सूक्ष्म, इतनी सर्व उपयोगी रचना आज . अधिकृत बनाया था । वे बहुत उत्साह से बोल रहे थे ।
श्घ्
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we : १ तत्त्वचिन्तन
उन्हें विज्ञान में, वैज्ञानिकों में और पाश्चात्य विश्व में बहुत
श्रद्धा थी । विज्ञान उनके लिये भगवान था । उनके लिये
वैज्ञानिक दृष्टिकोण ही सारी बातों का मापदण्ड था ।
उनका प्रवचन पूरा हुआ और प्रथम सत्र का समय
भी।
अध्यक्ष महोदय ने खास कोई टिप्पणी नहीं की ।
केवल इतना ही कहा कि आचार्य अग्निवेश ने बहुत दमदार
तरीके से अपनी बातें रखी हैं और विज्ञान को विकास का
कारक बताया है । आप सब इन मुद्दों पर विचार करें ।
अभी हम भोजन ग्रहण करेंगे । अपराह्न में चार बजे हम
पुन: मिलेंगे । उस समय आचार्य वैभव नारायण अपनी बात
TEM | aL Se |
HATS HT AA | Sth AAT W MATS SA और
आचार्य ज्ञाननिधि ने अपनी बैठक पर स्थान लिया ।
आचार्य वैभव नारायण ने अपनी प्रस्तुति प्रारम्भ की ।
आचार्य वैभव नारायण ने वेद्विद्या का अध्ययन किया था ।
जर्मनी के विश्वविद्यालय में वे बेद्विद्या विषयक अनुसन्धान
विभाग के अध्यक्ष का दायित्व निभा रहे थे । उनका
अध्ययन व्यापक था और चिन्तन गहरा था । उन्होंने
धार्मिक पण्डित का वेश धारण किया हुआ था । वे वास्तव
में ऋषि ही लग रहे थे । उन्होंने वेदमंत्रों के गान से अपनी
प्रस्तुति का प्रारम्भ किया ।
विकास का आर्थिक पक्ष
वे कहने लगे...
वेद हमेशा सम्पन्नता का उपदेश देते हैं । हमारे भण्डार
धनधान्य से हमेशा भरेपूरे रहें, यही वेद भगवान का
आशीर्वाद होता है । अत: वेदों के अनुसार आर्थिक विकास
ही सही विकास है । प्राणिमात्र सुख की कामना करता है ।
मनुष्य भी हमेशा सुख चाहता है । मनुष्य को सुखी होने के
लिये उसकी हर इच्छा की पूर्ति होना आवश्यक है । अन्न,
वस्त्र, निवास तो उसकी प्राथमिक आवश्यकता है ही । साथ
ही मनुष्य को अच्छी शिक्षा चाहिये । बीमार होने पर
चिकित्सा चाहिये । ये भी उसकी प्राथमिक आवश्यकतायें
हैं। परन्तु उसे मनोरंजन भी चाहिये । शास्त्र कहते हैं और
श७
हमारा अनुभव भी है कि मनुष्य
इच्छाओं का पुतला है । उसे अनेक वस्तुओं की इच्छा
होती है। उसे वख््र केवल शरीर ढकने के लिये नहीं
चाहिये । उसे सुन्दर भी दिखना होता है । इसलिये उसे
विभिन्न प्रकार के वस्त्र चाहिये । साथ ही अलंकार भी
चाहिये । उसे केवल पेट भरने के लिये अन्न नहीं चाहिये ।
उसे स्वाद की भी संतुष्टि चाहिये । चाहिये की सूची इतनी
लम्बी होती है कि उसका अन्त ही नहीं है । इन वस्तुओं
की प्राप्ति में सुख है, अप्राप्ति में दुःख । जो भी वस्तु उसे
चाहिये वह अर्थ से ही प्राप्त होती है । इसलिये आर्थिक
विकास ही सही विकास है ।
आर्थिक विकास का मूल आधार है भूमि । इसलिये
भूमि का स्वामित्व होना आज के समय में विकास है ।
आर्थिक विकास का माध्यम है व्यवसाय । अच्छा व्यवसाय
होना विकास है । अच्छे व्यवसाय का अर्थ है जिसमें खूब
कमाई हो । मनुष्य की बुद्धि और कौशल भी उसके
अधथर्जिन के आधार हैं । इसलिये बुद्धि और कौशल होना
भी आर्थिक विकास के लिये आवश्यक है । ज्ञान भी
आर्थिक विकास का आधार है । आज के विश्व को नॉलेज
सोसाइटी कहा जाता है । ज्ञान से हम दुनिया जीत सकते हैं
और जो चाहे वस्तु प्राप्त कर सकते हैं ।
आज हम जिसे पर्यावरण कहते हैं वे हैं भूमि, जल
और वायु । वेदों ने इनमें अग्नि और आकाश जोड़कर उन्हें
पंचमहाभूत कहा है । ये पंचमहाभूत हमारी आर्थिक समृद्धि
का आधार हैं । इसलिये वेदों में उन्हें देवता कहा गया है
और उनकी स्तुति की गई है । इन देवताओं के लिये यज्ञ
भी किये जाते हैं । आर्थिक समृद्धि के लिये ही अनेक यज्ञ
होते हैं । उदाहरण के लिये पर्जन्य यज्ञ वर्षा के लिये होता
है । वर्षा से ही ae उगता है और हमें अन्न मिलता है ।
वर्तमान विश्व में जिन देशों की आर्थिक स्थिति
अच्छी है उन्हें ही विकसित देश कहा जाता है । हम जानते
ही हैं कि आज अमेरिका विश्व में प्रथम क्रमांक का देश है ।
इसका कारण उसकी आर्थिक स्थिति ही है । आज कितने
ही देश भुखमरी से ग्रस्त हैं । वे सब विकासशील देश हैं ।
हमारा भारत भी विकासशील देश है ।
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कम उत्पादन, रोजगार का
अभाव, शिक्षितों को अर्थार्जन के अवसरों का अभाव,
पर्यावरण का प्रदूषण, झुग्गी झोंपड़ियों की संख्या में वृद्धि
विकासशील देशों के लक्षण हैं ।
मनुष्य पढ़ता है, अच्छा व्यवसाय करता है, अच्छी
कमाई करता है और समाज में प्रतिष्ठित होता है तब कहते
हैं कि उसने विकास किया । यदि वह पढ़ाई में बहुत अच्छा
है, हमेशा प्रथम क्रमांक पर आता है, बहुत पढ़ाई करता है
परन्तु पढाई पूर्ण होने के बाद उसे नौकरी सामान्य सी
मिलती है और वेतन कम मिलता है या वह खूब कमाई
करने वाला व्यवसाय नहीं करता है तब भी उसे प्रतिष्ठा प्राप्त
नहीं होती क्योंकि उसकी कमाई पर्याप्त नहीं है । इसके
विपरीत यदि वह पढ़ाई कम भी करता है परन्तु कमाई
अच्छी करता है तो वह समाज में प्रतिष्ठित हो जाता है ।
इसका अर्थ यह है कि आर्थिक विकास ही सही विकास
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लोगों के पास जब धन नहीं होता है तब वे अभावों
में जीते हैं। अभावों में जीने वाला असन्तुष्ट रहता है,
उसका मन कुंठा से ग्रस्त रहता है । समाज में जब कुंठाग्रस्त
लोगों की संख्या अधिक रहती है तब नैतिकता कम होती
है। कहा है न, “बुभुक्षित: कि न करोति पाप॑' - भूखा
व्यक्ति क्या पाप नहीं करता । ऐसे समाज में चोरी, लूट,
कपट बढ़ते हैं । असुरक्षा बढ़ती है । ऐसे में धनवान लोग
भी असुरक्षितता का अनुभव करते हैं । समाज में अशान्ति
फैलती है । ज्ञानविज्ञान की उपासना कम होती है । समाज
असंस्कारी बन जाता है । इसलिये आर्थिक विकास ही
सुख, शान्ति, संस्कार, ज्ञान आदि सभी अच्छी बातों का
मूल है । आर्थिक विकास ही विकास है जो आगे की सारी
सम्भावनाओं को जन्म देता है ।
भगवान विष्णु इस सृष्टि के पालनहार माने गये हैं ।
हमने चित्रों में देखा है और कथाओं में सुना है कि भगवती
लक्ष्मी उनकी पत्नी हैं । लक्ष्मी का अर्थ है सर्व प्रकार की
सम्पत्ति । लक्ष्मीवान ही अपना और अन्यों का पालन-
पोषण कर सकता है । अत: लक्ष्मी की कृपा से प्राप्त समृद्धि
ही विकास है ।
श्ट
शिक्षा का समग्र विकास प्रतिमान
कविकुलगुरु कालिदास ने अपने “रघुवंश' महाकाव्य
में लिखा है, “एको ही दोषो गुणसच्निपाते निमज्तीन्दो:
किरणेष्विवांक:' । तब उसकी टीका में मछ्िनाथ कहते
“एको ही दोषो गुणसन्निपाते निमजतीन्दो: इति येन
लिखित: ।
ज्ञातं न नून॑ कविनापि तेन दारिद्रयदोषो गुणराशिनाशी ।'
अर्थात जो कवि यह कहता है कि गुणों के समुच्चय
में केवल एक ही दोष चन्द्रमा में कलंक के समान दोष के
रूप में दिखाई नहीं देता है,बह कवि वास्तव में जानता नहीं
है कि दाखियि रूपी दोष सारे गुणों का नाश करता है । इस
प्रकार विद्वान, कवि, सामान्य जन जानते हैं कि आर्थिक
सम्पन्नता ही सही विकास है । आचार्य चाणक्य ने भी कहा
है, 'सुखस्य मूलम् अर्थ:' - सुख का मूल अर्थ है ।
इस प्रकार आचार्य वैभव नारायण ने आर्थिक
सम्पन्नता को ही विकास के रूप में प्रतिपादित किया और
सभा का आभार मानते हुए अपना स्थान ग्रहण किया ।
उनके वक्तव्य के बाद जिज्ञासा समाधान और मुक्त
चिन्तन के लिये समय था ।
तब लक्ष्मेश नामक एक आचार्य ने कहा ...
मेरे नाम में ही लक्ष्मी का नाम समाया है फिर भी मेरा
मत है कि केवल आर्थिक विकास ही विकास नहीं है ।
हमने व्यवहार में भी देखा है कि सम्पन्नता के कारण अनेक
युवा उच्छृंखल बन जाते हैं। सम्पन्नना के साथ यदि
संस्कार नहीं हैं तो समाज में अनीति और भ्रष्टाचार ही फैलते
हैं । सम्पन्नता सारे गुर्णों की नहीं, सारे दोषों की जननी है ।
आचार्य श्रीपति ने कहा ...
आचार्य वैभव नारायणजी ने कहा कि आर्थिक
विकास ही सही विकास है । वर्तमान मापदण्डों के अनुसार
उनका कथन सही हो सकता है । परन्तु विचारणीय प्रश्न यह
है कि क्या वर्तमान मापदृण्ड सही है ? यह मापदण्ड
अमेरिका ने विश्व पर लादा है इसलिये क्या वह सही हो
जाता है ? मेरा मत है कि प्रथम तो आर्थिक विकास को ही
विकास मानने वाला यह मापदण्ड ही बदलना चाहिये । मेरे
मतानुसार सांस्कृतिक विकास ही सही विकास है।
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we : १ तत्त्वचिन्तन
सांस्कृतिक विकास का आधार धर्म है । धर्म ही मनुष्य
समाज की विशेषतता है । कहा है,
आहारनिद्राभयमैथुन॑ च... सामान्यमेतत्पशुभिर्नराणाम् ।
धर्मों ही तेषामधिको विशेष: धर्मेण हीना: पशुभि: समाना: ॥।
अर्थात
आहार, निद्रा, भय और मैथुन की प्रवृत्ति मनुष्य और
पशु दोनों में समान है । मनुष्य की विशेषता धर्म है । बिना
धर्म के मनुष्य भी पशु के समान ही है ।
अत: विकास का सही आधार धर्म ही है । धर्म के
आधार पर जो जीवनशैली विकसित होती है उसे ही
संस्कृति कहते हैं ।
मुझे यदि अवसर मिला तो मैं मेरा विचार विस्तार से
प्रस्तुत करूँगा ।
आचार्य मेधावी ने कहा ...
विकसित समाज शान्ति और सौहार्द से जीता है ।
सम्पन्नता हो या न हो जिस समाज में शान्ति और सौहार्द
नहीं होते हैं वह विकसित समाज नहीं कहा जाता । सौहार्द
का आधार प्रेम होता है । अत: विकसित समाज वह है जो
प्रेम से रहना जानता है । प्रेम, भक्ति और उपासना से उत्पन्न
होता है और बढ़ता है । जब व्यक्ति एकदूसरे के साथ प्रेम
से व्यवहार करते हैं तब वे सम्पन्न हों या न हों इससे अन्तर
नहीं पड़ता । प्रेम से व्यवहार करने में नीतिमत्ता के लिये
कानून नहीं बनाने पड़ते हैं । नैतिकता स्वत: ही विकसित
होती है । इसलिये प्रेम से रहने वाला समाज ही विकसित
समाज है ।
प्रश्न यह है कि व्यक्ति प्रेम से रहे कैसे ? प्रेम से रहने
के अवरोध क्या हैं ? प्रेम से रहने के बड़े अवरोध हैं स्वार्थ
और लोभ । हम शिक्षा को इस प्रकार मूल्यनिष्ठ बनायें कि
मनुष्यों में स्वार्थ और लोभ कम हों । ऐसी शिक्षा से समाज
विकसित होगा ।
इस प्रकार आचार्य वैभव नारायण के आर्थिक विकास
को ही विकास बताने वाले विचार पर अनेक लोगों ने
आपत्ति उठाई । संस्कार पक्ष को आप्रहपूर्वक स्थापित
किया गया ।
इस सत्र का समय समाप्त होने को हुआ तब आचार्य
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शुभंकर ने संचालन के सूत्र सम्हालते
हुए कहा...
हमने आज के दिन में विज्ञान के माध्यम से
विकास;जो मुख्य रूप से कामनाओं की पूर्ति की दिशा में ले
जाता है, उसका निरूपण सुना । दूसरे क्रम में आर्थिक
विकास का निरूपण सुना । दोनों एकदूसरे के साथ जुड़े हुए
हैं क्योंकि कामनाओं की पूर्ति मनुष्य की सहज प्रवृत्ति है
और अर्थ उसका साधन है । इसलिये दोनों प्रस्तुतियाँ एक
ही सिक्के के दो पहलू जैसी थीं । प्रतिभावों में हमने धर्म,
संस्कृति, शान्ति, प्रेम, संस्कार जैसे विषयों का भी उल्लेख
सुना । निश्चय ही यह विज्ञान और भौतिक पदार्थों के प्रभूत
उत्पादन के पक्ष को नियंत्रित करने वाला है । कदाचित यह
ade भी बनायेगा । इसलिये उस पर विस्तार से चर्चा
होना आवश्यक है । हम कल इस पक्ष की चर्चा करेंगे ।
कल प्रात: ठीक साड़े आठ बजे सत्र प्रारम्भ होगा । आचार्य
श्रीपति कल धर्म, संस्कृति और संस्कार का पक्ष रखेंगे ।
आप सबसे निवेदन है कि आप भी इस विषय में चिन्तन
करें ।
सबने समवेत स्वर में शान्तिपाठ किया और प्रथम
दिन की सभा विसर्जित हुई ।
दूसरे दिन सूर्योदय के समय यज्ञ हुआ । ठीक साड़े
आठ बजे सभा आरम्भ हुई । आचार्य ज्ञाननिधि ने अपना
स्थान ग्रहण किया । कल की तरह ही संगठन मन्त्र का गान
हुआ । आचार्य ज्ञाननिधि ने विषय की प्रस्तावना की ।
उन्होंने कहा ...
कल हमने आर्थिक विकास के विषय में और विज्ञान
की महत्ता के बारे में सुना है । आज धर्म और संस्कृति को
लेकर प्रतिपादन होने वाला है । हम शान्तिपाठ करते हैं ।
उसमें सबके सुख की, स्वास्थ्य की और कल्याण की
कामना करते हैं । विकास के साथ इसका सीधा सम्बन्ध
है । इस बात को ध्यान में रखकर हम अपने विचार प्रस्तुत
करें, यही आप सबसे निवेदन है ।
आचार्य श्रीपति अपनी प्रस्तुति के लिये खड़े हुए । वे
काशी के थे । काशी में उनका गुरुकुल था । उनके गुरुकुल
में विभिन्न शास्त्रों का अध्ययन होता था । उनके छात्र भी
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शिक्षा का समग्र विकास प्रतिमान
मेधावी छात्रों के रूप में ख्याति प्राप्त _ कि उनकी उत्पत्ति के साथ ही उनकी गति और गतिविधि
थे । वे देशविदेश में पहुँचे थे । त्रेता और द्वापर में जिस... का नियमन करने वाले सिद्धान्त भी उत्पन्न हुए । जिसने
प्रकार के गुरुकुल की उनकी कल्पना थी उस पद्धति से... सृष्टि बनाई उसीने ये नियम भी बनाये और उत्पन्न हुए सभी
गुरुकुल चलाने का उनका प्रयास रहता था । अतः छात्रों... पदार्थ इन नियमों का पालन करेंगे ऐसी स्चना भी की । ये
की संख्या कम थी परन्तु उनकी गुणवत्ता और प्रभाव बहुत. विश्वनियम हैं । इन विश्वनियमों को ही धर्म कहते हैं । आज
था । वेद, दर्शनशास्त्र और उपनिषदों में उनकी श्रद्धा थी ।... हमने निहित स्वार्थों और अज्ञान, अल्पज्ञान और विपरीत
उन शास्त्रों को ही वे प्रमाण मानते थे । परम्परा में उनकी... ज्ञान के चलते केवल सम्प्रदायों को धर्म कहकर उसे कलह
इतनी आस्था थी कि वे उसमें जरा भी समझौता करने के... का मुद्दा बनाया है । वह बड़ा आअधर्म है । परन्तु यह मुद्दा
लिये तैयार नहीं होते थे । खानपान और वेशभूषा, दिनचर्या... हम बाद में देखेंगे । अभी हम विश्वनियम की बात कर रहे
और जीवनचर्या के शास्त्रीय fie a पालन. हैं । ये विश्वनियम सृष्टि को धारण करते हैं । इसलिये हमारे
कठोरतापूर्वक और कर्तव्यबुद्धि से करते थे । धाराप्रवाह... स्मृति ग्रन्थ कहते हैं, “धारणाद्धर्ममित्याहु: धर्मों धारयते
संस्कृत बोलते थे और वेद Al wast का सस्वर प्रभावी... प्रजा: ।' अर्थात प्रजाओं को धारण करता है इसीलिये उसे
ढंग से गान करते थे । धर्म कहते हैं । इसका अर्थ यह है कि जिस प्रकार धर्म
विश्वनियम बनकर सृष्टि की धारणा करता है उसी प्रकार वह
शास्त्रनियम और लोकनियम बनकर समाज की धारणा करता
नैमिषारण्य के ऋषियों का स्मरण कर उन्होंने अपनी . है। इस धर्म का पालन सबको सर्वत्र, सर्वदा करना ही
प्रस्तुति आरम्भ की । वे कहने लगे ... होता है । भिन्न भिन्न संदर्भों में धर्म कभी कर्तव्य बन जाता
धर्ममय जीवन जीने वाला व्यक्ति या समाज ही... है तो कभी स्वभाव, कभी नीतिमत्ता बन जाता है तो कभी
विकसित व्यक्ति या समाज कहा जाता है । मैंने कल भी. उपासना । हर संदर्भ में वह प्रजा को धारण करने का कार्य
कहा था कि मनुष्य पशु से विशेष केवल धर्म के कारण ही... ही करता है ।
है । धर्म का पालन करना मनुष्य के लिये आवश्यक है । आज हमने धर्म के नियमों का त्याग कर प्रजा की
जब उसे धर्म का पालन करने में कष्ट का अनुभव होता है. धारणा हेतु राज्यव्यवस्था के अन्तर्गत कानून बनाये हैं और
तब तो वह विकासशील कहा जायेगा, परन्तु जब वह धर्म. उसे संविधान का आधार दिया है । उद्देश्य तो संविधान और
का पालन करने में सहजता का अनुभव करने लगेगा तब . कानून का प्रजा की सुरक्षा, सुख और समृद्धि का ही है ।
विकसित कहा जायेगा । धर्म के समान ही वह भी अपराधी को दण्ड और निरपराधी
प्रार्भ में ही हमें धर्म संज्ञा को ठीक से समझ लेना... की रक्षा का ही है । परन्तु व्यवहार में वह अपना घोषित
चाहिये । शास्त्र कहते हैं कि प्रजापति ब्रह्मा का पुत्र धर्म. उद्देश्य सिद्ध नहीं कर सकता है क्योंकि वह विश्वनियम का
है । ब्रह्मा ने सृष्टि का सृजन किया । सृष्टि की उत्पत्ति के. अनुसरण नहीं करता है । वह यान्त्रिक है और चेतन सृष्टि
साथ ही धर्म की भी उत्पत्ति हुई । धर्म के उत्पन्न होने का... के साथ समरस नहीं हो सकता है ।
प्रयोजन क्या है ? प्रयोजन उसके परिणाम में ही है । हम इस धर्म का पालन किये बिना सुख, समृद्धि, शान्ति,
जानते हैं कि सृष्टि को ब्रह्माण्ड कहते हैं । इस ब्रह्माण्ड में... सौहार्द, ज्ञान कभी सम्भव ही नहीं है जो कि विकसित
असंख्य ग्रह, नक्षत्र हैं । वे सारे गतिशील हैं । वे निरन्तर. समाज के लक्षण हैं । इसलिये मैं कहता हूँ कि धर्म के
गति में रहते हैं । इतनी बड़ी संख्या में गतिशील पदार्थ भी. अनुसार जीवन जीना ही विकास है ।
एकदूसरे से टकराते नहीं हैं । न वे किसीका नाश करते हैं, धर्म के अनुसार जीना सीखना होता है । इसे सिखाने
न उनका नाश होता है । यह कैसे हुआ ? यह ऐसे हुआ. का मुख्य साधन शिक्षा है। हमारी शिक्षा इस प्रकार से
विकास का धार्मिक पक्ष
२०
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पुनर्व्यवस्थित होना आज की महती आवश्यकता है । मैं तो
यहाँ तक कहूँगा कि आज जो शिक्षाव्यवस्था हमने की है
वह धर्म सिखाने की बात तो दूर की है उल्टे अधर्म सिखाती
है। अत: विकास के लिये हमें धर्मानुसारी शिक्षा की
व्यवस्था करनी होगी ।
आचार्य वैभव नारायण और आचार्य अगिवेश के
विचारों का भी मैं आदर करता हूँ। विज्ञान सहायक हो
सकता है, सम्पन्नता आवश्यक है परन्तु बिना धर्म के दोनों
विनाशक सिद्ध होते हैं। अतः धर्म ही मुख्य है, विज्ञान
और सम्पन्नता गौण ।
आचार्य श्रीपति ने अपने इस मुद्दे को प्रस्थापित करने
के लिये अनेक उदाहरण दिये, अनेक तर्क भी दिये । उनकी
प्रस्तुति भी प्रभावी थी । सभा में उनके विचार सुनकर एक
हलचल मच गई थी । धर्म के सम्बन्ध में आचार्य श्रीपति ने
जो बताया था वह सबके लिये अपरिचित था । वे सब उच्च
विद्याविभूषित अवश्य थे परन्तु भारत में या अन्य देशों में
धर्म के सम्बन्ध में इस प्रकार से कभी चर्चा नहीं होती थी ।
इसके विपरीत धर्म को लेकर विवाद भी बहुत अधिक हो
रहे थे । ऐसे विवादों में इनमें से भी कई लोगों ने भाग लिया
था । इसलिये आचार्य श्रीपति का कथन शान्त पानी में
पत्थर फेंकने जैसा सिद्ध हुआ |
आचार्य शुभंकर ने कहा ...
वादेवादे जायते तत्त्वबोध: यह उक्ति हम सब जानते
ही हैं। आज धर्म के सम्बन्ध में जो कहा गया है उस
विषय पर भी हम वाद करें यह अपेक्षित है । अब शेष
समय वाद के लिये ही है । जो भी प्रश्न करना चाहता है या
अपना मुद्दा प्रस्तुत करना चाहता है वह सादर निमंत्रित है।
आचार्य आशुतोष प्रश्न पूछने के लिये खड़े हुए । वे
इन्द्रप्रस्थ विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र के प्राध्यापक थे । विश्व
की अर्थशास्त्रीय परिभाषाओं का उन्होंने अध्ययन किया
हुआ था । आर्थिक विकास के बड़े पक्षधर थे । उन्होंने
पूछा ...
विश्व के समाजशास्त्री आर्थिक विकास को ही श्रेष्ठता
का मापदण्ड मानते हैं । धर्म के बारे में इतने आग्रहपूर्वक
कोई नहीं बोलता है । ऐसे में आप धर्म का पक्ष ले रहे हैं
रे
यह आश्चर्य की बात है। मुझे नहीं
लगता कि आपकी बात किसीको स्वीकार्य होगी । मैंने
विश्व के समाजशाख्ियों के अभिप्रायों का यथासम्भव
अध्ययन किया है | वे तो सब आर्थिक विकास के बहुत
बड़े पक्षधर हैं । परन्तु मैं उनकी बात नहीं करना चाहता ।
मैं तो आपके आचार्य चाणक्य की ही बात करूँगा । उन्होंने
भी कहा है, “धर्मस्य मूलम् अर्थ: । अर्थस्य मूलम् राज्यम्' ।
धर्म का मूल अर्थ है, अर्थ का मूल राज्य है । इसका
तात्पर्य तो यही हुआ न कि राज्य नहीं है तो अर्थ नहीं
रहेगा और अर्थ नहीं हो तो धर्म नहीं रहेगा । यह तो
सामान्य समझ की बात है कि अर्थ ही प्रधान है, धर्म नहीं ।
आचार्य श्रीपति ने उत्तर में कहा ...
मैंने अर्थ आवश्यक नहीं है ऐस)