धार्मिक शिक्षा की पुनर्प्रतिष्ठा हेतु परिवार में करणीय कार्य

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चाहिये, कभी भी खाली हाथ नहीं भेजना चाहिये ।

११. घर का एक कुलदेवता होती है और सम्प्रदाय होता है । कुलदेवता का पूजन अर्चन होता है । सम्प्रदाय के आचार होते हैं । यह पूजन, अर्चन और आचार नई पीढ़ी को सिखाना मातापिता का कर्तव्य है । इस विषय में मातापिता का कोई विकल्प नहीं है ।

१५. खूब काम करो, खूब कमाओ, खूब उपभोग करो और उससे भी अधिक दान करो इस सूत्र पर अर्थव्यवहार चलता है उस घर के वैभव का कभी नाश नहीं होता ।

१६. परिवार में रहना परिवार के हर सदस्य का जन्मजात अधिकार है । परिवार में कोई किसी का स्वामी नहीं, कोई किसी का आश्रित नहीं । कोई किसी पर उपकार नहीं करता, कोई किसी का क्रणी नहीं होता । परिवार में हिसाब नहीं होते । परिवार अपनेपन का नाम है ।

१७. सभी सदस्यों ने मिलकर इस प्रकार का परिवार बनाना, उसे सुदूढ़ करना सभी सदस्यों का सम्मिलित कर्तव्य है ।

१८. परिवार सुदूढ बनने हेतु पतिपत्नी का सम्बन्ध एकात्म बनना आवश्यक है । इस एक़ात्मता का विस्तार मातापिता और सन्तानों के तथा भाई-बहन के सम्बन्धों में होता है । पत्िपत्नी ही ऐसे सम्बन्ध विकसित होने की प्रक्रिया के संरक्षक होते हैं ।

१९. परिवार में हर सदस्य की अपनी अपनी भूमिका होती है, हरेक की पारिवारिक पहचान होती है । परिवार के छोटे सदस्यों को इस भूमिका की शिक्षा देना बडे सदस्यों का दायित्व है । पुरानी पीढी नई पीढी को यह शिक्षा देती है । इस माध्यम से परम्परा बनी रहती है ।

२०. परिवार में सन्तान का जन्म एक ओर संस्कृति के प्रवाह को अखण्डित रखने के लिये है तो दूसरी ओर समाज को एक उत्तम व्यक्ति देने के लिये है । सन्तान को जन्म देना परिवार की संस्कृति सेवा और समाजसेवा है ।

२१. इसी प्रकार परिवार के किसी सदस्य को उपलब्धि भी व्यक्तिगत नहीं अपितु पूरे परिवार की उपलब्धि मानी जानी चाहिये । ऐसे अवसरों पर ईर्ष्या, ट्रेष आदि भावों को नहीं पनपने देना चाहिये । घर के समझदार व्यक्तियों ने सावधानी पूर्वक, बिना बोले ऐसे भावों का निरसन हो सके ऐसे उपाय करने चाहिये ।

२२. घर में साधुसन्त, महापुरुष, कविकलाकार आदि का आगमन होता रहे, उनका AHN होता रहे, उनसे उपदेश श्रवण, अनुभव श्रवण, वार्ताविनोद होता रहे यह आवश्यक हैं ।

२३. पारिवारिक समरसता बनी रहे इसकी ओर सभी समझदार सदस्यों ने ध्यान देना चाहिये । दो पीढ़ियों के बीच वैचारिक और व्यावहारिक एकसून्रता बनी रहे इस दृष्टि से मानसिक खुलापन विकसित हो यह भी शिक्षा का एक अंग ही है ।

२४. घर में रसोई को पवित्र स्थान माना जाता हो, गृहिणी को अन्नपूर्ण माना जाता हो, आहारशुद्धि को सर्वाधिक महत्त्व दिया जाता हो, भोजन को यज्ञ माना जाता हो और भोजन बनाने वाले का सबसे अधिक सम्मान होता हो उस घर में संस्कारों की रक्षा की समस्या नहीं होती ।

२४. परिवार का एकत्व बना रहे इस दृष्टि से कुछ बातों का अवश्य ध्यान रखा जाना चाहिये । जैसे कि पूरा परिवार एक साथ भोजन करे, एक साथ यात्रा करे, एक साथ उत्सव मनाये आदि |

२५. पति और पत्नी के भिन्न व्यवसायों के कारण भी पारिवारिक एकता और सम्बन्धों की गहराई कम हुई है। शिक्षा को इस मुद्दे की दखल लेने की आवश्यकता है ।

२६. घर को आँगन हो, उसमें पशुपक्षी आयें, उन्हें दाना पानी मिले, भिक्षुक या संन्यासी आयें, उन्हें भिक्षा मिले, साधु बैरागी आयें, दो घडी बैठकर विश्राम करें, आँगन में पेड पौधे हों, उनकी आत्मीयतापूर्वक देखभाल होती रहे, घर में गाय हो जिस की सेवा

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होती हो, ऐसा घर भाग्यवान को ही मिलता है ।

२७. परिवार के सम्बन्ध रक्तसम्बन्ध से बनते हैं परन्तु भावना में विकसित होते हैं । भावनात्मक सम्बन्धों का विस्तार रक्तसम्बन्धों को लाँघकर सम्पूर्ण वसुधा तक फैलता हैं । परन्तु व्यवहार के क्षेत्र में रक्तसम्बन्ध ही आधारभूत होते हैं ।

२८. पतिपत्नी एक दूसरे से स्वतन्त्र नहीं होते । ऐसी उनकी चाह भी नहीं होती, आवश्यकता भी नहीं होती । स्वतन्त्रता ही नहीं होती तो आश्रितता भी नहीं होती । एक स्वामी है तो एक स्वामिनी है, दोनों समान हैं, दोनों एक हैं ।

२९. संस्कृति समाज के माध्यम से व्यक्त रूप धारण करती है । संस्कृति परम्परा के रूप में कालप्रवाह में जीवित रहती है । परम्परा को बनाये रखना परिवार का मुख्य कार्य है । परम्परा को खण्डित नहीं होने देना परिवार का दायित्व है ।

३०. जीवन अखण्ड है, जीवन निरन्तर चलता रहता है, इस निरन्तरता को बनाये रखने के लिये संस्कृति प्रयासरत होती है । इस प्रकार परिवार को एक आध्यात्मिक दायित्व प्राप्त हुआ है ।

३१. इस प्रवाह को अखण्ड रखने के लिये परिवार में संन्तान का जन्म होना अनिवार्य है । अतः विवाह- संस्कार परिवार का केन्द्रवर्ती और सबसे मुख्य संस्कार है तथा सन्तान के जन्म से सम्बन्धित गर्भाधानादि संस्कार दूसरे महत्त्वपूर्ण संस्कार हैं ।

३२. पतिपत्नी सन्तान को जन्म देकर मातापिता बनते हैं वह उनकी संस्कृति की सेवा है और गृहस्थ और गृहिणी अर्थात्‌ गृहस्थाश्रमी बनते हैं वह उनकी समाज की सेवा है ।

३३. घर में आये मेहमान घर के सभी सदस्यों के मेहमान होते हैं, किसी एक या दो के नहीं । घर के प्रत्येक सदस्य को उसके स्वागत में सहभागी होना चाहिये ।

३४. परिवार में त्याग की बहुत महिमा है । सब एकदूसरे के लिये त्याग करते हैं तभी परिवार में सुख आता है । त्याग करना सिखाना चाहिये, त्याग का स्वरूप जानना भी सिखाना चाहिये और दूसरों ने किये हुए त्याग का स्मरण रख उसकी कदर बूझना भी सिखाना चाहिये ।

३५. पूरे परिवार का मिलकर एक मिशन होना चाहिये । परिवार की कोई पहचान भी बननी चाहिये । इस मिशन अर्थात्‌ जीवनकार्य के प्रति परिवार के छोटे बडे सभी सदस्यों की निष्ठा बननी चाहिये ।

३६. परन्तु ऐसे अवसरों पर भी परिवार का एकत्व नहीं टूटना चाहिये । दोष, स्खलन, दण्ड, प्रायश्चित आदि को भुगतने में भी परिवार साथ रहना चाहिये । इसे व्यक्तिगत मामला नहीं बनाना चाहिये ।

३७. आजकल बेडरूम की संख्या से घर का वैभव आँका जाता है । बेडरूम की संख्या के हिसाब से डाइनिंग रूम की साइझ रखी जाती है । प्रदर्शन के हिसाब से ड्रोइंग रूम में पुस्तकों की आलमारी और पूजाघर होता है । इस प्रकार का घर नियत संख्या से अधिक लोगों का समावेश नहीं करता । वह आतिथ्यशील भी नहीं रहता । यह निश्चित ही असंस्कारिता है, भले ही इसे मोडर्न सभ्यता कहा जाता हो । इससे यह समझ में आना चाहिये कि घर की आन्तरिक पुर्ररचना का विचार गम्भीरतापूर्वक करना चाहिये ।

३८. अर्थात्‌ घर में बेडरूम कल्चर के स्थान पर लिविंगरूम कल्चर की प्रतिष्ठा बने । घर की रसोई बडी बने । रसोई का कोठार बडा बने । घर के व्यक्तियों के साथ बाहर के कोई न कोई भोजन के लिये नित्य साथ रहे। घर में अधिक अतिथि आये । घर में सब मिलकर काम करें । घर में प्राइवसी की मात्रा कम हो । घर में दिन में बिस्तर बिछे हुए न रहें । घर में काम करने की जगह अधिक हो ।

४०. अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा, बडी आयु में विवाह, एक ही सन्तान ये ऐसे सांस्कृतिक दृषण हैं जो पारिवारिक विघटन के बडे कारण बनते हैं । पारिवारिक विघटन आगे चलकर सामाजिक विशूंखलता और देशभक्ति के अभाव में परिणत होता है। विचारपूर्वक और

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साहसपूर्वक इन दृषणों को दूर करने का प्रयास करना चाहिये । साधुसन्तों ट्वारा इस विषय में प्रबोधन होने की भी आवश्यकता है।

४१. खियों को नीचा समझना, उनकी अवमानना करना, उनको दबाना, विकास के अवसर नहीं देना आदि का प्रचलन विगत एक सौ वर्षों के कालखण्ड में हुआ है । वर्तमान पारिवारिक विघटन के अनेक कारणों में यह भी एक कारण रहा है । इस दृष्टि से लडकों की शिक्षा की ओर ध्यान देना चाहिये । घर के समझदार पुरुषों ने तथा साधुसन्तों ने यह काम करना चाहिये । इसे स्त्रीदाक्षिण्य की शिक्षा कहते हैं ।

४२. परिवारों में विवाह विषयक संकट बढ गये हैं उन पर भी उचित पद्धति से पुनर्विचार करना होगा । बडी आयु में विवाह होना व्यक्तिगत और पारिवारिक जीवन में अस्थिरता और असन्तुलन पैदा करती है ।

४३. आज नौकरी अर्थार्जन का प्रचलित साधन बन गई है। नहीं बिकने योग्य वस्तुयें बिकने लगी हैं । बडे बडे उद्योगों में उत्पादन का केन्द्रीकरण हो रहा है । मनुष्य और प्रकृति के स्वास्थ्य की चिन्ता नहीं रही है । अर्थार्जन हेतु न्यायनीति का विचार करने की भी आवश्यकता नहीं लगती है । भ्रष्टाचार सामान्य बन गया है । मनुष्य स्वतन्त्रता और स्वमान खो चुका है। समाज दरिद्रि बन रहा है। आर्थिक और सांस्कृतिक अधःपतन के इस काल में परिवार को ही स्वायत्त बनने की पहल करनी होगी |

४४. जिसमें अन्य लोगों की रोजी छिन जाती हो ऐसा व्यवसाय टालना चाहिये । जिसमें स्वास्थ्य और पर्यावरण का नाश होता हो ऐसा व्यवसाय टालना चाहिये । संस्कारों की हानि होती हो ऐसा व्यवसाय भी नहीं करना चाहिये ।

४५. उपभोग के लिये परिवार ने कभी भी कर्ज नहीं लेना चाहिये । आज की बैंक लोन पद्धति इस सिद्धान्त की घोर विरोधी है और परिवारों की. आर्थिक स्वावलम्बिता और स्वमान का नाश करती है। इसके आकर्षण से मुक्त रहना और परिवार को भी मुक्त रहना सिखाना गृहस्वामी और गृहस्वामिनी का महत्‌ कर्तव्य है ।

४६. प्लास्टीक, बनीबनाई वस्तुओं, होटेलिंग आदि सांस्कृतिक अनिष्ट हैं। आज इनका प्रचलन दिनप्रतिदिन बढ रहा है । इससे परावृत्त होना कठिन होने पर भी करना चाहिये ।

४७. कंजूसी नहीं परन्तु मितव्ययिता होनी चाहिये, शौक होना चाहिये व्यसन नहीं, परहित या परोपकार होना चाहिये, परपीडा नहीं, परनिन्‍्दा नहीं, परगुणप्रशंसा होनी चाहिये ।

४८. जिन बातों का सम्बन्ध मन के सदूगुण और सदाचार के साथ है वे घर में ही बनें तो संस्कारों की रक्षा होती है । भोजन और शिशुसंगोपन ऐसे ही दो काम हैं जो घर में ही होने चाहिये । इन कामों में बाजार का प्रवेश होते ही संस्कारों का हास होने लगता है ।

४९. घर धर्मशाला नहीं है, होटेल भी नहीं है और सदाव्रत भी नहीं है । घर की कर्मयुक्त सेवा कर ही घर को घर बनाया जा सकता है । इस भाव को सिखाना भी मातापिता का दायित्व है ।

५०. वर्तमान में परिवार स्वावलम्बी नहीं रहे हैं, नौकरावलम्बी और बाजारावलम्बी बन गये हैं । वास्तव में नौकर घर के सदस्यों के सहायक होते हैं, पर्याय नहीं । घर के कामों के प्रति रुचि और लगाव होने से परिवार स्वावलम्बी बनता है । घर के कामों को तुच्छ और बोजरूप जानने से घर की ही अवमानना होती है ।

परिवार महत्त्वपूर्ण शिक्षाकेन्द्र

५१. घर को मिट्टी का आँगन नहीं होना, वर्षा के पानी के संग्रह की व्यवस्था नहीं होना, प्राकृतिक हवा और प्रकाश के अभाव में दिनमें भी बिजली के दीप और पंखे चालू रखने की बाध्यता होना, घर का मुख्य दृरवाजा सदैव बन्द रहना अनेक प्रकार से अनिष्ट व्यवस्थायें हैं। इन पर अनेक प्रकार से साधक बाधक चर्चा होने की आवश्यकता है ।

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५२. मानसिक सन्तुष्टि और सुख के परिणाम स्वरूप समाज भी सुखी और समृद्ध बनता है । उत्तेजना, तनाव, असुरक्षा पैदा ही नहीं होते । ऐसे वातावरण में संस्कार की उपासना और ज्ञानसाधना का विकास होता है। भौतिक समृद्धि और सांस्कृतिक श्रेष्ठता समाज को सहज ही प्राप्त हो इसमें क्या आश्चर्य है ?

५३. इस नाते परिवार एक बहुत महत्त्वपूर्ण शिक्षा केन्द्र है। यह संस्कृति की शिक्षा है। शास्त्रशिक्षा के अलावा सर्व प्रकार की शिक्षा परिवार में ही देने की भारत में व्यवस्था रही है । इस विषय में पुरानी पीढ़ी नई पीढ़ी की शिक्षक होती है ।

५४. शास्त्रशिक्षा गुरुकुल में होती है, व्यवहार शिक्षा घर में होती है । गुरुशिष्य और पितापुत्र के रूप में पुरानी और नई पीढ़ी का सम्बन्ध बनता है । इस सम्बन्ध का मुख्य सूत्र है “पुत्रात्‌ शिष्यात्‌ इच्छेतू पराजयमू्‌' अर्थात्‌ पुत्र से और शिष्य से पराजय की कामना करनी चाहिये । अर्थात्‌ शास्त्र और व्यवहार में नई पीढी पुरानी पीढी से सवाई होनी चाहिये ।

५५. इसका तात्पर्य यह है कि एक पीढी जब दूसरी पीढ़ी को ज्ञान, संस्कार, कौशल आदि हस्तान्तरित करती है तब कालबाह्म बातें दूर करने, उसे समृद्ध बनाने, युगानुकूल बनाने का कार्य होता है । यह परिष्कृति का लक्षण है । किसी भी गतिमान, प्रवाहमान पदार्थ का लक्षण है ।

एकात्मता

५६. अतः पतिपत्नी बनने की, गृहस्थ-गृहिणी बनने की और मातापिता बनने की शिक्षा परिवार में मिलनी चाहिये । इस रूप में परिवार सांस्कृतिक शिक्षा का महत्त्वपूर्ण केन्द्र है ।

५७. इस सूत्र को लेकर परिवार की वर्तमान स्थिति में बहुत परिवर्तन करने की आवश्यकता है । उसका प्रथम चरण है बेटी को बेटी की तरह और बेटे को बेटे की तरह विकसित और शिक्षित करना चाहिये । 

५८. परिवार को स्वायत्त, स्वतन्त्र और स्वावलम्बी होना चाहिये । इस दृष्टि से परिवार कैसे चलेगा यह परिवार के सदस्य तय करेंगे, कैसे अपना निर्वाह चलायेगा उसकी जिम्मेदारी परिवार के सभी सदस्यों की साँझी होगी और उसे चलाने की व्यवस्था भी उसकी अपनी होगी ।

५९. घर गृहिणी का होता है । घर खियों से चलता है । पारिवारिक कलह का कारण भी अधिकतर घरों में खियाँ होती हैं । इससे घर की शान्ति और सुख नष्ट होते हैं । इस दृष्टि से पुत्रियों की शिक्षा की ओर अधिक ध्यान देना चाहिये । पारिवारिक समरसता बनाने और बनाये रखने में घर की ख़ियों की भूमिका यह शिक्षा का विषय बनना चाहिये । यह काम घर की पुरानी पीढी की समझदार महिलायें और घर में आने वाले साधु सन्त कर सकते हैं ।

६०. परिवार में किसी सदस्य के स्खलन की घटना भी घटती है । कभी किसी को व्यसन लग जाता है । बुरी आदत पनपती है । तब विवेकपूर्ण व्यवहार की आवश्यकता होती है । दोष यदि व्यक्तिगत स्तर पर है तो उसे दूर करने में कडाई, परामर्श, सहानुभूति आदि का प्रयोग कर उसे दूर करना चाहिये । परिवार के अन्दर ही एकदूसरे के प्रति क्षमाशीलता और उदारता का भी पुट होना चाहिये |

६१. परिवार में अर्थार्जन भी एक महत्त्वपूर्ण कार्य है । यह अब व्यक्तिगत विषय बन गया है। इसे पुनः पारिवारिक विषय बनाना चाहिये । पूरा परिवार मिलकर व्यवसाय करे यह अनेक प्रकार से लाभदायी है । परिवार का एकत्व बना रहता है यह सबसे बडा लाभ है।

६२. नई पीढी की आथर्जिन हेतु नौकरी की तलाश में भटकने की समस्या नहीं रहती । जन्म के साथ ही उसका अधथर्जिन सुरक्षित हो जाता है। साथ ही व्यवसाय के ही वातावरण में पलने के कारण अर्थार्जन हेतु व्यवसाय की शिक्षा भी शुरु हो जाती

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गरीब होने पर किसीसे माँगकर जूते, वस्त्र, अलंकार आदि पहनना, मिष्टात्र खाने की लालसा से किसी के घर महेमान बनकर जाना, किसी के पुराने कपडे पहनना, नकली आभूषण पहनना आदि नहीं करना चाहिये । इसमें लज्जा का अनुभव होना चाहिये ।

७५. घर में श्रमप्रतिष्ठा, उद्यमशीलता, सेवापरायणता का वातावरण बनना. चाहिये ।. प्रसन्नता, उत्साह, सृजनशीलता का वातावरण बनना. चाहिये । हास्यविनोद, वार्तालाप, एकदूसरे के कार्यों में रुचि, सहयोग और सहभागिता आदि भी होना चाहिये ।

७६. परम्परा निभाने के कर्तव्य के भाग स्वरूप घर के छोटे सदस्यों को पूर्वजों का परिचय प्राप्त करवाना चाहिये, उनसे हमें कया कया प्राप्त हुआ है, उन्होंने कैसे कैसे उत्तम कार्य किये हैं और कौनसी मूल्यवान बातें हमें विरासत में दी हैं उसका वर्णन नई पीढी के समक्ष किया जाना चाहिये ।

७७. पडौसी के साथ आत्मीयता का सम्बन्ध बनाना चाहिये । आवश्यकता के अनुसार पडौसी की सहायता करना और उनसे सहायता लेना बिना उपकार की भावना से होना चाहिये । उपभोग की नई सामग्री पडौसी के साथ बाँटनी चाहिये ।

संस्कृति को बाधक

७८. दान करना गृहस्थ का परम धर्म है। सुपात्र को आवश्यकता के अनुसार दान देना ही चाहिये । अपनी कमाई का दस प्रतिशत हिस्सा दान करना ही चाहिये । दान सात्त्विक ही होना चाहिये । किसी ने कुछ माँगा तब तो मुँह से 'नहीं' निकलना ही नहीं चाहिये ।

७९. परिवार में कोई आश्रित नहीं होता । परन्तु किसी भी रिश्तेदार को हमारे होते हुए निराश्रित नहीं रहना पडना चाहिये । घर में ऐसे सगे सम्बन्धियों को आश्रय मिलना चाहिये । उन्हें घर के सदस्य का ही सम्मान मिलना चाहिये ।

८०. घर के छोटे सदस्यों को आज्ञाकारिता, अनुशासन, शिष्टाचार, संस्कारिता, सदाचार, विनय, सेवाभाव आदि सिखाना भी बडों का काम है । “बच्चे हमारा कहना नहीं मानते' ऐसी शिकायत करने का अवसर आना बडों की अक्षमता का ही दर्शक है ।

८१. परिवार में छोटे बडे अनेक सदस्य होते हैं । सबके स्वभाव रुचि अरुचि, गुणदोष, क्षमतायें आदि भिन्न भिन्न होते हैं । एक दूसरे से विरुद्ध आदतें भी होती हैं। उन सबको जानना, सम्हालना, सबके साथ समायोजन करना, दोष दूर करने में सहायता करना, दोषों को ढकना आदि सब परिवार में सहज रूप से होना चाहिये । ऐसा स्वीकार, सम्हाल और समायोजन सबको सिखाना मातापिता का काम है ।

८२. चाडी चुगली करना, लीपापोती करना, झूठ बोलना, छलकपट करना, छिपे व्यवहार करना घर में नहीं होना चाहिये ।

८३. अतिथिसत्कार कैसे करना यह भी विधिपूर्वक सिखाने की बात है । विनयपूर्वक मधुर सम्भाषण, परिचर्या, उनकी आवश्यकताओं की जानकारी, उनकी रुचि अरुचि की जानकारी प्राप्त करना आदि का कौशल सिखाने की बात है ।

८४. अर्थात्‌ मातापिता ने मिल कर अपनी सन्तानों को घर की स्वच्छता करना, कपडे-बर्तन, अन्य सामग्री की स्वच्छता करना, भोजन बनाना, करना, करवाना, बिस्तर लगाना, समेटना, घर के आवश्यक सामान की खरीदी करना, घर में सारा सामान व्यवस्थित रखना, घर सजाना आदि अनेक छोटे बडे काम सिखानें चाहिये । जिस परिवार में सभी सदस्यों को ये सारे काम अच्छी तरह करना आता है वही परिवार स्वावलम्बी होता है ।

८५. अर्थात्‌ भोजन के लिये पैसा कमाना इतना आवश्यक नहीं है जितना भोजन बनाने का कौशल प्राप्त करना और भोजन के शास्त्र को जानना । भोजन बनाना ही नहीं तो करना और करवाना भी आना चाहिये । साथ ही अन्य दैनन्दिन जीवन की अन्यान्य गतिविधियों से सम्बन्धित कामों को सीखने की व्यवस्था भी परिवार

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में होनी चाहिये ।

८६. परिवार चलाने को ही घर चलाना कहते हैं । घर चलाने के लिये प्रथम होता है खाना-पीना, सोना-जागना, नहाना-धोना आदि । हम आज की अर्थनिष्ठ व्यवस्था में रोटी-कपडा-मकान की आवश्यकताओं को पूरी करने हेतु पैसा कमाने को ही प्राथमिकता देते हैं परन्तु भारत के सम्पन्न समाज में पैसा कमाना बडी समस्या नहीं थी । इसलिये अधर्जिन को दूसरे क्रम में रखकर प्रथम क्रम घर चलाने के कौशलों को दिया गया है ।

८७. परिवारव्यवस्था विश्व में भारत की पहचान है । परिवारभावना अध्यात्म का ही सामाजिक स्वरूप है। ये दोनों बने रहें ऐसी शिक्षा मुख्यरूप से घर में ही मिलती है । घर शिक्षा केन्द्र बनेंगे और विद्यालय इस शिक्षा केंद्र में मिलने वाली शिक्षा के पूरक होंगे तब भारतीय शिक्षा की पुनर्प्रतिष्ठा होगी ।

परिवार और सामाजिक दायित्व

८७. परन्तु स्खलन यदि सामाजिक अपराध हो तो उसका कडाईपूर्वक ही परिमार्जन भी होना चाहिये और दण्ड भी मिलना चाहिये । उदाहरण के लिये घर के पुत्र ने परीक्षा में नकल की, तो उसे दृण्ड भी मिलना चाहिये और अनुत्तीर्ण होने का परिणाम भी भुगतना चाहिये । घर के पुत्र ने किसी पराई लडकी को छेडा तो उसे दण्ड भी मिलना चाहिये और उस लडकी से क्षमा भी माँगनी चाहिये ।

८८. साम्प्रदायिक सदूभाव को नष्ट नहीं होने देना भी हर परिवार का सामाजिक दायित्व है ।

८९. सामाजिक समरसता में योगदान करना परिवार का सामाजिक दायित्व है । भेद को विविधता के रूप में स्वीकार करना, विविधता में सुन्दरता देखना और भेद को भेदभाव तक नहीं ले जाना हर परिवार का दायित्व है ।

९०. परिवार का निवास अर्थव्यवस्था, सुविधा, पर्यावरण, सामाजिकता, संस्कारिता आदि का केन्द्र होता है । इन सभी बातों में घर प्रतिकूलताओं का त्याग करे यह अत्यन्त आवश्यक है ।

९०. इसलिये परिवार स्वच्छन्दतापूर्वक न अपना व्यवसाय छोड सकता है, न बदल सकता है । यही नहीं तो अपने व्यवसाय की रचना उसे समाज के अविरोधी और समाज के लिये उपयोगी बन सके उसी प्रकार से करनी होती है ।

९१. परिवार का समाज के प्रति भी दायित्व है । जिस प्रकार व्यक्ति परिवार का अंग है । परिवार समाजकी सांस्कृतिक इकाई है परन्तु वह आर्थिक इकाई नहीं बन सकता । आर्थिक इकाई गाँव है । इसलिये परिवार को व्यावसायिक दृष्टि से गाँव के सभी व्यवसायिकों के साथ समायोजन करना होता है ।

९१. किसी विद्यार्थी को पढने हेतु छात्रावास के स्थान पर किसी गृहस्थ के घर में निवास - भोजन तथा पढाई आदि की व्यवस्था मिलनी चाहिये । विद्यादान जितना ही महत्त्व विद्या प्राप्त करने की आनुष॑ंगिक सुविधाओं के दान का भी है ।

९२. परिवार में देशभक्ति की भावना के संस्कार मिलने चाहिये । उपभोग की सर्वसामग्री स्वदेशी हो इसका आग्रह रहना चाहिये । सस्ती है, सुन्दर है, सुलभ है, सुविधायुक्त है इसलिये विदेशी वस्तु खरीद सकते हैं यह अनुचित सिद्धान्त है ।

९२. युवा पीढ़ी की उद्दण्डता परिवार में शिक्षा नहीं मिलने का ही परिणाम है । इस दृष्टि से बच्चों का संगोपन सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण विषय है । इस दृष्टि से मातापिता और सन्तानें अधिक से अधिक साथ साथ जी सकें ऐसी परिवार की जीवनचर्या बननी चाहिये । आज की तरह बडे अर्थार्जन के लिये और छोटे पढाई के लिये दिन का अधिकांश समय घर से बाहर और एकदूसरे से दूर ही रहता हो तब यह मामला बहुत कठिन हो जाता है ।

९३. परिवार को सुनिश्चित कर लेना चाहिये कि समाज में अनाथाश्रम, वृद्धाश्रम, अनाथनारी संरक्षण गृह आदि संस्थायें न पनपे । बेरोजगारी, अनाथों, बच्चों, विधवाओं, वृद्धों को पेन्शन देने की सरकारी

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