धार्मिक शिक्षा की पुनर्प्रतिष्ठा हेतु विद्यालय क्या करे
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शिक्षा को रोगमुक्त करना
१. एक ऐसा भूचाल आये जिसमें गिनचुन कर केवल देशभर के छोटे बडे विद्यालय ठह जाय और नाममात्र भी उनका कोई अवशेष न रहे, कोई निशानी न रहे ।
२. एक ऐसी भीषण आग लगे जिसमें देशभर के सभी कार्यालयों में जो भी कागज पत्र हैं उनमें से शिक्षा विषयक कानून, नियम, नीति, योजनायें, जानकरी आदि सभी की धारिकायें जलकर भस्म हो जाय और भस्म भी हवा के साथ उडकर बिखर जाय |
३. एक ऐसा सम्मोहनाख््र चले जिससे सभी शिक्षितों को अपनी शिक्षा का विस्मरण हो जाय, इस भूकम्प और आग का भी विस्मरण हो जाय और इस विश्व में युरोप और अमेरिका जैसे देश हैं उस तथ्य का भी विस्मरण हो जाय ।
४. एक ऐसी बाढ़ आये जिसमें विद्यार्थियों के बस्ते, पाठ्यपुस्तकें, साधनसामग्री, शिक्षा से सम्बन्धित सारी की सारी सामग्री बह जाय और गलकर, टूटकर, बिखरकर पंचमहाभूतों में विलीन हो जाय ।
५. संक्षेप में विगत दो सौ वर्षों की शिक्षा का इतिहास मिट जाय और उसका कोई नामोनिशान न रहे । उसका दुःखस्वप्न भी न रहे । शिक्षा का पंचांग अठारहवीं शताब्दी से सीधा इक्कीसवीं शताब्दी के तीसरे दशक पर आजाय |
६. इतनी कठोर और अनहोनी तुक्केबाजी का कारण यह है कि आज भारतीय शिक्षा को जो भीषण रोग लग गया है उसका निदान और उपचार कर उसे पूर्ण रूप से रोगमुक्त करने का कार्य या तो चमत्कार से या तो कठोर तपश्चर्या से हो सकता है । चमत्कार देवों का काम है, तपश्चर्या मनुष्यों का । कदाचित चमत्कार तपश्चर्या का ही अनुसरण करते हैं । अतः कठोर तपश्चर्या के परिणाम स्वरूप ही विद्यालयों में भारतीय शिक्षा की पुनर्प्रतिष्ठा हो सकती है ।
७. कठोर तपश्चर्या के लिये अग्रसर शिक्षकों को ही होना होगा । शिक्षकों के अलावा और किसीने तपश्चर्या की भी तो उसका परिणाम नहीं होगा । शिक्षकों ने तपश्चर्या की तो और लोगों का साथ मिलेगा और नहीं भी मिला तो भी शिक्षक स्वयं ही सबकुछ कर लेंगे ।
शिक्षा की स्वायत्तता
८. विद्यालय के माध्यम से शिक्षा की पुनर््रतिष्ठा का काम कठिन इसलिये है कि विद्यालय घर की तरह अभी स्वायत्त नहीं रहे हैं । घर अभी भी पर्याप्त मात्रा में स्वायत्त हैं । विवाह का पंजीयन और जन्म मृत्यु का पंजीयन यदि छोड दिया जाय तो शेष सारी बातों में परिवार स्वायत्त हैं । घर का खानपान, वेशभूषा, कया पढना चिकित्सा कौन सी करना, बच्चों के विवाह किसके साथ करना आदि बातों में सरकार का या अन्य किसी का हस्तक्षेप नहीं होता । घर के लोग मिलकर ही तय करते हैं ।
९. परन्तु शिक्षा में ऐसा नहीं है । सब कुछ सरकार की पहल से ही तय होता है और चलता है । घर घरवालों का होता है परन्तु शिक्षा शिक्षावालों की नहीं है । शिक्षावालों से तात्पर्य है शिक्षक और विद्यार्थी । ये दोनों दूसरों द्वारा ही नियन्त्रित होते हैं ।
१०. अतः प्रथम बात तो है विद्यालय को घर के ही समान स्वायत्त बनाने की । शिक्षा विषयक जो सारी एडमिनिस्ट्रेटीव सिस्टम की ढह जाने की आकांक्षा है इसका तात्पर्य यह है कि प्रथम तो शिक्षा को मुक्त हवा में श्वास लेने देना चाहिये । सरकार यदि समझदार है तो सरकार स्वयं शिक्षा को मुक्त करेगी । यदि सरकार मुक्त नहीं करती तो शिक्षकों को अपनी तपश्चर्या के बल पर मुक्त करनी पडेगी ।
११. सरकार मुक्त कर भी दे तो भी प्रश्न रहेगा शिक्षकों के सामर्थ्य का । सामर्थ्य के दो पहलू होंगे । ज्ञान और साहस । शिक्षकों को ज्ञानसाधना करनी पडेगी और साहस भी ज़ुटाना पडेगा । यह सरल कार्य नहीं है । आज जिन्हें शिक्षक कहा जाता है उनमें से बहुत कम लोग ऐसा साहस जुटा पायेंगे ।
१२. परिणाम स्वरूप साधना करने वाले समर्थ शिक्षकों की
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संख्या बहुत छोटी हो जायेगी । परन्तु संख्या के नहीं सामर्थ्य के बल पर ही यह कार्य हो सकता है ।
नई व्यवस्था का विचार
१३. हमें एक नये प्रतिमान का, नई व्यवस्था का विचार करना होगा । एक ऐसा प्रतिमान जिसे लागू करने की प्रक्रिया में हम सरलता से कठिनता की ओर जा सकें और शिक्षकों के सूत्रसंचालन में सर्वसामान्य जनों का सहयोग प्राप्त कर सकें, प्रचलित शिक्षाव्यवस्था की निन््दा करने के स्थान पर हम योजना को ही कार्यान्वित कर सर्के ।
१४. क्रियान्वयन की एक दिशा तो इस प्रकार है । दस वर्ष की आयु तक मातापिता ही अपने बच्चों को आवश्यक शिक्षा दें । इसमें चरिन्ननिर्माण, कार्यकौशल, साक्षरता और व्यावहारिक गणित विज्ञान की शिक्षा का समावेश हो । जिस प्रकार अन्न वस्त्रादि आवश्यकताओं की पूर्ति घर में होती है उसी प्रकार ज्ञानात्मक और संस्कारात्मक आवश्यकताओं की पूर्ति भी घर में ही हो । जिस प्रकार भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये मातापिता को अर्थार्जन करना पडता है और काम करना पडता है उस प्रकार शिक्षा देना भी एक काम है । घर की वृद्ध मण्डली इसमें मूल्यबान सहयोग कर सकती है ।
१५. जिन बच्चों के मातापिता अपने बच्चों के चरित्रनिर्माण और साक्षरता की शिक्षा देने की क्षमता नहीं रखते उन्हें सिखाने की व्यवस्था शिक्षकों और धर्माचार्यों को करनी चाहिये । शिक्षित मातापिता भी अपने आसपास के मातापिताओं की सहायता कर सकते हैं ।
१६. तात्पर्य यह है कि आज दस वर्ष की आयु तक के बच्चों के लिये नहीं अपितु उनके मातिपातओं के लिये विद्यालयों की आवश्यकता है । यह कार्य विद्वानों का, अनुभवी वृद्धों का, सन्तों का और संन्यासियों का है । विशष रूप से वानप्रस्थियों का है । गृहस्थी-विद्वानों ने नहीं अपितु वानप्रस्थी-विद्वाननों ने करना उचित है ।
१७. वानप्रस्थी विद्वानों और धर्माचार्यों ने समाजसेवी संस्था के रूप में ऐसे विद्यालय चलाने चाहिये । ये विद्यालय पूर्ण रूप से निःशुल्क, परीक्षाविहीन और अनौपचारिक होने चाहिये । परन्तु उसमें विनय, अनुशासन, नियमपालन और आज्ञापालन का आग्रह अनिवार्य रूप से होना चाहिये ।
१८. ऐसे विद्यालयों में जिसे जो चाहे करे ऐसा नहीं होना चाहिये । परीक्षा और पैसे का नहीं अपितु संस्कार और निष्ठा का बन्धन होना चाहिये । विद्यालयों के शिक्षकों पर निर्भर करता है कि वे संस्कार और निष्ठा का वातावरण कैसे बनायें ।
१९. इन विद्यालयों में शिक्षा ग्रहण करने हेतु जाना मातापिताओं के लिये किन्हीं बाहरी नियमों से अनिवार्य नहीं बनाना चाहिये अपितु प्रबोधन के माध्यम से आन्तरिक प्रेरणा ही जगाना चाहिये । जिस प्रकार मन्दिर जाना या कथाश्रवण करना अनिवार्य नहीं होने पर भी लोग जाते हैं उसी प्रकार इन विद्यालयों में जाना भी आवश्यक माना जाना चाहिये ।
२०. यदि दस वर्ष की आयु तक प्रतीक्षा नहीं करनी हो तो सात या आठ वर्ष की आयु तक तो बच्चों को विद्यालय में भेजना अक्षम्य ही माना जाना चाहिये ।
२१. दस वर्ष की आयु के बाद के विद्यालय व्यवसायों के आधार पर निश्चित किये जाने चाहिये । दस वर्ष की आयु तक विद्यार्थियों का व्यवसाय निश्चित हो जाना व्यावहारिक दृष्टि से अत्यन्त आवश्यक है । अर्थार्जन व्यक्तिगत, पारिवारिक और सामाजिक जीवन का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण पहलू है । उसे गम्भीरतापूर्वक लेना चाहिये ।
२२. इस दृष्टि से जितने भी उत्पादन केन्द्र हैं उन सभी केन्द्रों को अपने उत्पादन से सम्बन्धित शिक्षा की व्यवस्था करनी चाहिये । यह शिक्षा केवल निःशुल्क होनी चाहिये इतना ही पर्याप्त नहीं है , इनमें पढने वाले सभी विद्यार्थियों की पढाई के लिये आनुषंगिक खर्च की भी व्यवस्था करनी चाहिये ।
२३. सावधानी इस बात की रखनी चाहिये कि इसमें बालमजदूरी का कानून, निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा
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का कानून, शिक्षासंस्थाओं की मान्यता का कानून अवरोधक न बने । इस दृष्टि से शिक्षक, उद्योजक, विट्रज्जन, धर्माचार्य आदि सब सरकार के साथ बातचीत करें और सर्व प्रकार से आपसी अनुकूलता बनायें । शिक्षा के हित में सबका योगदान हो यह अपेक्षित है ।
२४. जनसामान्य के दैनन्दिनिजीवन से सम्बन्धित जितनी भी बातें हैं उन सभी बातों के जानकार लोगों ने उन उन बातों की शिक्षा की व्यवस्था करनी होगी । उदाहरण के लिये वैद्यों से यह अपेक्षा नहीं है कि वे केवल चिकित्सा ही करें । वे लोगों को स्वास्थ्यरक्षा विषयक शिक्षा दें, जनमानस प्रबोधन करें यह अपेक्षित है। साथ ही मातापिताओं के लिये चलनेवाले विद्यालयों में आहारशास्त्र, आरोग्यशास्त्र, स्वच्छताशास्त्र आदि बातों की भी व्यावहारिक शिक्षा दें । इन्हीं विद्यालयों में शिशुसंगोपन की शिक्षा की भी व्यवस्था हो ।
२५. व्यवसायों से सम्बन्धित विद्यालयों में व्यवसाय का केन्द्रवर्ती विषय होना स्वाभाविक है परन्तु संस्कृति, समाज, देशदुनिया, धर्म आदि की भी शिक्षा देने का प्रावधान अनिवार्य रूप से होना चाहिये । हमें केवल आर्थिक समाज नहीं बनाना है, सुसंस्कृत और ज्ञानी समाज भी बनाना है ।
२६. इस दृष्टि से इन उत्पादन केन्द्रों के मालिकों को भी अपने अपने उत्पादनों के विषय में शिक्षा देना आना चाहिये । साथ ही धर्म, संस्कृति, साहित्य, कला, योग, संगीत आदि के शिक्षकों की सहायता भी उन्हें लेनी होगी ।
२७. दस से पन्द्रह वर्ष की आयु की शिक्षा उद्योग केन्द्र और अर्थप्रधान होना व्यक्ति और देश दोनों के लिये आवश्यक है । देश की नई पीढी का शरीर स्वास्थ्य, मनोस्वास्थ्य, व्यवहारदृक्षता, कार्यकुशलता, बुद्धि आदि सभी गुणों के विकास के लिये ऐसी शिक्षा आवश्यक है ।
२८. इन विद्यालयों में शुल्क, नौकरी, परीक्षा आदि के दूषणों का प्रवेश न हो, यन्त्रों और रासायनिक पदार्थों का प्रवेश न हो इसकी विशेष सावधानी रखनी होगी ।
२९. वर्तमान उद्योगों, उत्पादनों, यन्त्रों , रसायनों, व्यवस्थापन, वाहनों आदि को नियन्त्रित करने की शक्ति किसी के पास नहीं है । इनका विकल्प निर्माण किये बिना यह सम्भव भी नहीं होगा । इस प्रकार के उद्यमिता विद्यालय विकल्प निर्माण करने की दिशा में एक कदम सिद्ध होगा ।
३०. सोलह वर्ष के होते होते हर तरुण का उत्पादन और अधथर्जिन शुरु हो जाना लगभग अनिवार्य बनाना चाहिये । इन विद्यालयों ने आर्थिक स्वावलम्बन, स्वमान, स्वगौरव आदि से युक्त युवा निर्माण करने चाहिये जो स्वतन्त्र व्यवसाय करें और नौकरी की सुरक्षा का विचार न करें ।
३१. सोलह से पचीस वर्ष की आयु में दो तीन प्रकार से विचार किया जाना चाहिये । इसमें गृहस्थाश्रम की शिक्षा सबके लिये प्रमुख विषय है । इसके साथ जुड़कर समाजशास्त्र, संस्कृति, धर्म, इतिहास, अर्थशास्त्र, राजशास्त्र आदि सभी बातों का समावेश होगा । दूसरा आयाम है शाख्रों का अध्ययन और अनुसन्धान । तीसरा विषय है व्यवसाय का प्रगत ज्ञान । तीन में गृहस्थाश्रम की शिक्षा अनिवार्य है । शेष दो में चयन की स्वतन्त्रता भी हो सकती है ।
३२. जाहिर है कि शास्त्रों का अध्ययन ज्ञान का सांस्कृतिक पक्ष है और व्यवसाय का प्रगत ज्ञान भौतिक पक्ष । स्वाभाविक है कि भौतिक पक्ष का चयन करने वालों की संख्या अधिक होगी, सांस्कृतिक की कम । यह अपेक्षित भी है । शास्त्रों के अध्ययन और अनुसन्धान के लिये तेजस्वी, कुशाग्र और विशाल बुद्धि के साथ साथ सादगी, संयम, लोकहित की कामना और तपश्चर्या की आवश्यकता रहेगी । भौतिक पक्ष के अध्ययन हेतु व्यावहारिक बुद्धि, धर्माचरण की तत्परता और समाजेसवा की भावना अपेक्षित है । दोनों की समाज को आवश्यकता है । स्वाभाविक रूप से ही शास्त्रों के अध्ययन हेतु दस से बीस प्रतिशत और भौतिक पक्ष के अध्ययन हेतु शेष विद्यार्थी उपलब्ध होंगे ।
३३. इस प्रकार के प्रगत अध्ययन के लिये भी कुल विघार्थी
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होगी । शिक्षाशास््र के एक विभाग के रूप में गर्भावस्था और शिशुअवस्था की शिक्षा का शास्त्र बनाना पडेगा और उसके लिये साहित्य भी तैयार करना पड़ेगा ।
४५. आज देश में सरकारी और गैरसरकारी स्तर पर लाखों की संख्या में प्राथमिक विद्यालय चल रहे हैं जिनमें पढ़ने वाले बच्चों की संख्या करोडों में होगी । इन विद्यालयों के सम्बन्ध में पहली ही महत्त्वपूर्ण बात यह है कि शिक्षक पढायें । आठ वर्ष की पढाई के बाद भी विद्यार्थियों को यदि पढ़ना लिखना नहीं आता है तो जिम्मेदार शिक्षक ही हैं ।
४६. पढाना शिक्षक की इच्छा मात्र पर निर्भर करता है । कोई भी नियम कानून, दबाव, प्रलोभन शिक्षक को पढ़ाने हेतु बाध्य नहीं कर सकता । आज यदि शिक्षक नहीं पढाते हैं तो कोई कुछ नहीं कर सकता । हमें केवल प्रार्थना ही करनी चाहिये के भगवान शिक्षकों के हृदयों में पढाने की इच्छा जाग्रत करे ।
४७. आज नहीं पढ़ाने वाले शिक्षकों की संख्या शून्य पर नहीं पहुँच गई है यह देश का और विद्यार्थियों का भाग्य समाप्त नहीं हो गया है इसका संकेत है । हम प्रार्थना करें कि ऐसे शिक्षकों की संख्या बढ़े ।
४८. नहीं पढाने का ठेका कवल प्राथमिक विद्यालयों तक सीमित नहीं है । इसका विस्तार विश्वविद्यालयों तक हुआ है जिसके नमूने अत्यन्त घटिया किसम के शोधनिबन्धों के रूप में दिखाई देते हैं जो पीएचडी की पदवी प्राप्त करने हेतु स्वे जाते हैं ।
४९. व्यवस्था नहीं पढ़ाने वाले छोटे से छोटे या बडे से बडे शिक्षक का कुछ नहीं बिगाड सकती क्योंकि ऐसा करने की उसमें क्षमता ही नहीं होती । जिस प्रकार निर्जीव मृतदेह पेड के सूखे पत्ते को भी नहीं हिला सकता उसी प्रकार जड व्यवस्था जीवित शिक्षक को कुछ नहीं कर सकती ।
५०. शिक्षको को हाथ जोडकर, शीश नवाकर, उनके समक्ष घुटने टेककर, उनका अनुनय विनय कर, उनमें विश्वास जता कर उनके सम्बन्ध में बने सभी कानूनों और नियमों को समाप्त कर, उन्हें wea कर ही उन्हें पढाने वाले शिक्षक बनाया जा सकता है । विद्यालय और नकारात्मक दोनों अर्थों में यह सही है । हमारा विनय जितना सही होगा उतना हमें अधिक संख्या में सही शिक्षक मिलेंगे । जितना नकारात्मक होगा उतने ही गैरशिक्षक मिलेंगे ।
५१. यह बात तो सही है कि समाज प्रार्थना करता है, विनयशील बनता है तभी सही लोगों के मन में कल्याणकारी शिक्षा देने वाले शिक्षक बनने की प्रेरणा जाग्रत होती है ।
५२. ऐसे सही शिक्षक जिन विद्यालयों में हैं उन विद्यालयों के लिये विचारणीय और करणीय बातें आगे कही गई हैं। शिक्षक स्वयं भी अनेक बातों की कल्पना कर सकते हैं ।
५३. प्राथमिक विद्यालयों में शुद्ध उच्चारण, शुद्ध लेखन, व्यावहारिक गणित, भरपूर कण्ठस्थीकरण, भरपूर क्रियाकलाप और खेल, गान, नाचना होना अपेक्षित है । दस वर्ष की आयु तक परीक्षा बिलकुल ही नहीं होनी चाहिये ।
५४. सरकार ने भी शिक्षाशास््रियों के परामर्श से परीक्षा नहीं लेने का नियम बनाया था, कहीं कहीं पर अभी भी है, परन्तु “परीक्षा नहीं तो पढाई का क्या काम ?' का सूत्र समझने वालों ने पढना पढाना बन्द कर दिया । ऐसा सूत्र सही शिक्षकों के विद्यालयों में ही चल सकता है । जो नहीं पढाते हैं उनके लिये किसी भी नियम का होना नहीं होना बराबर ही है ।
५५. जिस प्रकार परीक्षा नहीं उसी प्रकार स्पर्धा का तत्त्व भी निष्कासित कर देना चाहिये। यह पूर्ण रूप से अमानवीय और अशैक्षिक है । सही विकास का यह अवरोधक भी है ।
५६. आज विज्ञान, तन्त्रज्ञान, संगणक, अंग्रेजी, प्रबन्धन आदि विषयों की शिक्षा को बहुत महत्त्व दिया जाता है । परन्तु जीवन के सांस्कृतिक पक्ष की घोर उपेक्षा होती है । इतिहास, समाजशास्त्र, धर्मशास्त्र, गृहशास्त्र, अर्थशास्त्र जैसे विषयों की व्यावहारिक शिक्षा सभी
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स्तरों पर अनिवार्य बनानी चाहिये ।
५७. सामाजिक दायित्वबोध और कृतिशील देशभक्ति ऐसे विषय हैं जिसके बिना कोई भी व्यक्ति सही अर्थ में भारत का नागरिक नहीं बन सकता । इन दो विषयों की शिक्षा घर, विद्यालय, समाज सर्वत्र देने की व्यवस्था बननी चाहिये ।
५८. आज के विद्यार्थियों को विचार करना नहीं सिखाया जाता । परिणाम स्वरूप उनका अपना चिन्तन विकसित नहीं होता, उनका अपना कोई मत नहीं बनता । वे केवल तोतारटन्त बनते हैं, दूसरों के मत से चलते हैं । उन्हें वैचारिक स्वतन्त्रता का अनुभव ही नहीं होता । इसलिये किशोर अवस्था में विचार आधारित शिक्षा की व्यवस्था होनी चाहिये जिससे युवावस्था में स्वतन्त्र चिन्तन विकसित हो ।
५९. स्वतन्त्र चिन्तन की शक्ति अनुसन्धान के लिये अनिवार्य आवश्यकता होती है । स्वतन्त्र चिन्तन के अभाव में न मौलिक अनुसन्धान है न युगानुकूल । इसलिये युवावस्था की शिक्षा को चिन्तन आधारित बनाना चाहिये ।
६०. छोटी आयु में तो बहुत अधिक पाठ्यक्रम और भारी बस्ता होता है परन्तु आयु बढ़ने के साथ साथ पढ़ाई कम होती जाती है और उसकी गुणवत्ता का भी हास होता है । पन््द्रह वर्ष की पढाई के बाद प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण विद्यार्थी को भी समय और श्रम के हिसाब से लगभग कुछ नहीं आता । यह केवल व्यक्ति की नहीं, राष्ट्र की मानसिक और बौद्धिक सम्पदा का अपव्यय है |
६१. शिक्षा के सम्बन्ध में बनी व्यवस्थाओं , नियमों , साधन सामग्री की भरमार आदि के पीछे बाजार की प्रेरणा की बहुत बडी भूमिका है । परन्तु शैक्षिक दृष्टि से यह सब इतना आवश्यक नहीं है जितना बताया जाता है । यह तो उल्टे अवरोध भी है । शिक्षा को इनसे मुक्त करना चाहिये ।
६२. शिक्षा, रोजगार, चरित्र, कर्तृत्व आदि का एक दूसरे के साथ कोई सार्थक सम्बन्ध नहीं रह गया है । इसका सम्बन्ध कैसे प्रस्थापित करना इसकी कोई स्पष्टता ही नहीं है । हम प्रवाहपतित की तरह घसीटे ही जा रहे हैं । इस स्थिति में शिक्षासंस्थाओं की संख्या यदि कम हो जाती है तो शिक्षित बेरोजगारों की संख्या कम हो जायेगी । आधी बची हुई संख्या को रोजगार देने में इस बजट का उपयोग हो सकेगा |
६३. इसमें तो कोई तुक नहीं कि बेरजगारों को रोजगारी देने के स्थान पर शिक्षा दो, दो चार वर्षों के बाद उन्हें शिक्षित बेरोजगारों की सूची में जोड दो ।
६४. देश की अर्थव्यवस्था और अर्थनीति जब तक नहीं बदलती तब तक शिक्षा व्यवस्था नहीं बदल सकती । जब तक शिक्षा में परिवर्तन नहीं होता तब तक अर्थव्यवस्था नहीं बदलती । हम तो दोनों बदलना चाहते हैं । यह कैसे होगा ? किसका क्रम प्रथम है और किसका दूसरा ?
६५. वर्ष प्रतिवर्ष हम शिकायत ही करते रहते हैं और प्रश्न ही पूछते हैं । प्रश्नों का ही विस्तार होता है । प्रश्न की पाश्चभूमि बताते हैं परन्तु उत्तर नहीं देतें । देते हैं तो वे संदिग्ध ही होते हैं । देश में चल रही विद्वचर्या का यही स्वरूप है ।
६६. स्पष्ट उत्तर यह है कि शिक्षा में परिवर्तन ही प्रथम होगा, बाद में अन्य व्यवस्थाओं का । कारण भी स्पष्ट है। अन्य व्यवस्थाओं में परिवर्तन करने वाले लोगों को भी शिक्षित और दीक्षित करना पडेगा । यह शिक्षा का ही कार्य है । इसलिये प्रारम्भ शिक्षा से होना व्यावहारिक है ।
६७. शिक्षा तन्त्र के शैक्षिक पक्ष में क्या होना चाहिये और कैसे होना चाहिये इस सम्बन्ध में विपुल साहित्य और मार्गदर्शन उपलब्ध है । प्राचीनतम काल से अवचिीनतम काल तक का यह मार्गदर्शन है । परन्तु इसका कोई उपयोग नहीं है क्योंकि यान्त्रिक परीक्षा सारे प्रयासों को इस प्रकार जकडती है कि किसी मनीषी की कुछ नहीं चलती ।
६८. मानसिक स्वास्थ्य से सम्बन्धित एक भी बात हमारे किसी भी स्तर के पाठ्यक्रम में नहीं है । इसका
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सम्भव होता है । भारतीय शिक्षा की सबसे बडी समस्या यह है कि वह केवल टेकनिकली भारतीय है, ज्ञानात्मक, भावात्मक या व्यवस्थात्मक दृष्टि से भारतीय नहीं है । इन अर्थो में शिक्षा भारतीय कैसे बनेगी इसका विचार शिक्षकों को करना होगा ।
९०. यह विचार केवल उच्च विद्याविभूषित शक्षक ही कर सकते हैं ऐसा नहीं है । जाग्रत शिक्षक ही कर सकते हैं । उदाहरण के लिये शिक्षा केवल ज्ञानवान बनने के लिये नहीं होती, चरित्रवान बनने के लिये भी होती है यह जानने के लिये उ्चविद्याविभूषित नहीं होना पडता, समझदार होना पडता है । अतः हर स्तर पर हर शिक्षक को शिक्षा में ज्ञान के साथ चरित्र के विकास को भी महत्त्वपूर्ण स्थान देना चाहिये ।
९१, इसी प्रकार से ज्ञान केवल जानकारी नहीं है, वह भावना और क्रिया भी है। क्रिया का अर्थ है व्यवहार । विद्यार्थियों को ज्ञानवान, चरित्रवान और क्रियावान बनाने से ही शिक्षा पूर्ण होती है यह भी भारतीय शिक्षा का सूत्र है । इस सूत्र को अपनाने से शिक्षक शिक्षा को भारतीय बना सकता है । यह भी प्राथमिक से विश्वविद्यालय तक सर्वत्र समान रूप से लागू है ।
९२. शिक्षक के मन में नौकरी और सेवा में जो अन्तर है उसकी स्पष्टता होनी चाहिये । आज तक नौकरी को सेवा कहा जाता है । परन्तु दोनों में मूल से ही अन्तर है। शिक्षक सेवा करने वाला सेवक है परन्तु वह शिक्षा की सेवा करता है, ज्ञान की सेवा करता है । वह सरस्वती का पुत्र बनकर “सरस्वती की सेवा करता है । वह ग्रन्थों की सम्हाल और सुरक्षा कर ग्रन्थ की सेवा करता है । वह देश के ज्ञान को समृद्ध बनाकर देश की सेवा करता है परन्तु वह शिक्षा का, सरस्वती का, ग्रन्थ का या देश का नौकर नहीं है । उसे विचार करना चाहिये कि वह किसका नौकर बनने के लिये बाध्य हुआ है, क्यों हुआ है ।'
९३. शिक्षक किसका नौकर है ? शिक्षक संचालकों का नौकर है । शिक्षक सरकार नामक व्यवस्था का नौकर है । शिक्षक शिक्षाकर्मी के रूप में नौकर है । उसके मन में यह भी स्पष्ट होना चाहिये कि अपने साथ उसने ज्ञान को भी नौकर बनाया है और सरस्वती को भी नौकर बनाया है ।
९४. इसके आगे यह समझना है कि यह बाध्यता कैसे निर्माण हुई, किसने निर्माण की । भारत में तो ऐसा नहीं था । तब ध्यान में आयेगा कि पैसे ने सब कुछ ग्रस लिया है । धनने अर्तात् अर्थने प्रथम सत्ता को ग्रस लिया और अर्थ और सत्ताने मिलकर ज्ञान को ग्रस लिया । इसलिये पैसा देनेवाला प्रथम शासक को अपने अनुकूल बनाता है और दोनों मिलकर शिक्षा को अपने अनुकूल बनाते हैं ।
९५, शिक्षक ने इस अनिष्ट व्यवस्था का स्वीकार क्यों किया है ? व्यक्तिगत स्तर पर तो केवल पैसे प्राप्त करने के लिये ही शिक्षक ने नौकरी करना स्वीकार किया है । शिक्षक जब व्यवस्था का नौकर बनना अस्वीकार करेगा तब भारतीय शिक्षा की पुनर्प्रतिष्ठा का प्रारम्भ होगा ।
९६, इसका अर्थ यह भी नहीं है कि शिक्षक मालिक बने । आज जो कोचिंग क्लास और ट्यूशन चलते हैं उसमें शिक्षक मालिक है । शिक्षा संस्था का संचालक बनता है तो वह मालिक है । एक उद्योजक बनकर शिक्षा संस्था चलाता है तब वह मालिक है । परन्तु प्रथम किस्से में वह व्यवस्था का तो नौकर है ही क्योंकि वह वही पढ़ाता है जो व्यवस्था बताती है । दूसरे और तीसरे किस्से में तो वह शिक्षक ही नहीं रहा, शिक्षक मिटकर वह संचालक और उद्योजक बन गया है । नौकर नहीं बनने का अर्थ यह नहीं हैं ।
९७, शिक्षक जब पढ़ाने के लिये व्यवस्था से अपने आपको मुक्त करेगा तभी वह नौकर नहीं रहेगा । आज की स्थिति में व्यवस्था से मुक्त होना अत्यन्त कठिन है क्योंकि व्यवस्था सर्वग्रासी बन गई है । परन्तु उसे व्यवस्था के नौकर से ज्ञान के सेवक में रूपान्तरित कर सकता है ।
९८. शिक्षक को और एक बात का भी विचार करना
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होगा | वह अकेला भी व्यवस्था से मुक्त होकर शिक्षा का सेवक बनकर एक विद्यालय चला सकता है । परन्तु उससे भारतीय शिक्षा का प्रयोग होगा, देशभर में भारतीय शिक्षा की प्रतिष्ठा नहीं । प्रतिष्ठा से तात्पर्य है देश में भारतीय शिक्षा की सार्वत्रिक स्वीकृति होना, उसका मुख्य प्रवाह के रूप में अधिकृत होना ।
९९, भारतीय शिक्षा को इस प्रकार देश की मुख्य धारा बनाने हेतु शिक्षक को संगठित बनना होगा । देशभर के शिक्षक मिलकर ही देश की शिक्षा को भारतीय बना सकते हैं ।
१००,यह संगठन शिक्षकों का युनियन नहीं है जो अपने अधिकारों और वेतनवृद्धि के लिये आन्दोलन करते हैं। यह ज्ञान के सेवकों का संगठन है जो ज्ञान को अर्थ और सत्ता से मुक्त करने हेतु प्रयास करते हैं । यह प्रयास अपने आप में राष्ट्र की सेवा है, समाज की सेवा है।
१०१, देशभर में ऐसे संगठन के माध्यम से समाज प्रबोधन करना और राज्य के साथ भी संवाद स्थापित करना आवश्यक है । समाज के साथ व्यापारी की और राज्य के साथ नौकर की हैसियत से नहीं अपितु दोनों के साथ ज्ञान के सेवक की और आचार्य की हैसियत से बात करने का मनोबल और सामर्थ्य प्राप्त करने की आवश्यकता है । ज्ञान उसिकी अपेक्षा करता है और उसके लिये बल भी देता है ।
१०२. अपने आपको और ज्ञान को व्यवस्था से मुक्त करने के बाद ज्ञानसाधना का विषय आता है । आज भारत में युरोपीय ज्ञान की प्रतिष्ठा है । विगत डेढ़ सौ वर्षो में इसका प्रयास हुआ है । देश की सभी व्यवस्थाओं में और जनजीवन के सामान्य व्यवहारों में इस की गहरी पैठ बनी है । इस जहर से कोई मुक्त नहीं है, कुछ भी मुक्त नहीं है । इसे पहचानना शिक्षक की ज्ञानसाधना का प्रथम चरण है ।
१०३. वास्तव में युरोपीय ज्ञान के प्रभाव से मुक्त होना केन्द्रवर्ती विषय है । इस के लिये इसके विस्तार और प्रभाव को ठीक ठीक जानना चाहिये । यह रोग का सही निदान करने जैसा है ।
१०४. इससे मुक्त होने के उपायों के दो आयाम हैं । एक तो जिन जिन रूपों में वह हमारे अन्दर और बाहर पैठ गया है और बैठ गया है उसका त्याग करना और दूसरा है इसके स्थान पर किसकी प्रतिष्ठा करेंगे यह तय करना ।
१०५,जो अन्दर बैठ गया है उसे त्यागना अधिक कठिन है, बाहर बैठा है उसे त्यागना अपेक्षाकृत कम कठिन है । सरल दो में से एक भी नहीं है । उदाहरण के लिये पश्चिमी ज्ञान का प्रभाव हमारे अन्दर हीनताबोध बनकर बैठ गया है । उससे मुक्त होना महाकठिन है । हमारे बाहर वह बाजार बनकर हावी हो गया है । उससे मुक्त होना सरल तो नहीं है परन्तु हीनता बोध से मुक्त होने की अपेक्षा कम कठिन है ।
१०६, इससे आगे का चरण है भारतीय ज्ञान की प्रतिष्ठा करना । इस दृष्टि से नये से अध्ययन और अनुसन्धान करने की आवश्यकता रहेगी । उसे सार्वत्रिक बनाने हेतु विश्वविद्यालय से प्राथमिक शिक्षा तक ada पाठ्यविषय, पठन-पाठन सामग्री और पाठन-पठन पद्धति में महान परिवर्तन करना होगा । इस काम के लिये योजना बनानी पड़ेगी । धीरे धीरे और जल्दी परन्तु निश्चिततापूर्वक यह करना होगा ।
१०७. इसके अनुकूल जो भी व्यवस्थायें आवश्यक हैं वे करनी होंगी । सूत्र यह है कि शिक्षा व्यवस्था के अनुकूल नहीं अपितु व्यवस्था शिक्षा के अनुकूल बननी चाहिये । यही ज्ञान की प्रतिष्ठा है ।
१०८. शिक्षा किसके अनुकूल बनेगी ? शिक्षा धर्म के अनुकूल बनेगी । वास्तव में शिक्षा का काम प्रजा को धर्म सिखाने का ही है ।
१०९, शिक्षक के सूत्र संचालन में ये सारे प्रयास देशव्यापी बनने पर ही शिक्षा की पुनर्प्रतिष्ठा हो सकती है । शिक्षक ने अपने इस कार्य में प्रजा और सरकार दोनों का सहयोग प्राप्त करना चाहिये । धर्माचार्यों से परामर्श करना चाहिये । अपने आप पर विश्वास रखना चाहिये ।
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