आशा कहाँ है ?
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भारत के विषय में भारतवासियों को ही अनेक प्रकार की शिकायते हैं। भारत की जनसंख्या इतनी अधिक है कि अनेक परस्पर विरोधी अभिप्राय सुनने को मिलते हैं। धार्मिक शास्त्रों और परम्पराओं में विश्वास करनेवाला एक वर्ग ऐसा है जिसे शिकायत हैं कि देश अपने प्राचीन श्रेष्ठ ज्ञान को भूल गया है, अपनी परम्पराओं को छोड़ रहा है अथवा विकृत कर रहा है इसलिये उसकी अधोगति हो रही है। एक तबका पश्चिमवादी है जो अपने आपको आधुनिक और बुद्धिजीवी मानता है उसकी शिकायत है कि भारत इक्कीसवीं शताब्दी में भी अपनी पुरातन सोच छोडता नहीं है और पिछडा ही रह जाता है । बौद्धिकों को लगता है कि देश में अनुसन्धान के लिये कोई अवसर नहीं है, उनकी विद्वत्ता की कोई कदर नहीं है। किसी को लगता है कि भारत के लोग कानून, स्वच्छता, सार्वजनिक अनुशासन को मानते नहीं हैं, यातायात के नियम तोडते हैं, कहीं पर भी थूकते हैं और कचरा फेंकते हैं। किसी को राज्यव्यवस्था अच्छी नहीं लगती, राजनीति का क्षेत्र गन्दा लगता है। किसी को आर्थिक क्षेत्र में भ्रष्टाचार ही भ्रष्टाचार दिखाई देता है, किसीको शील और संस्कार का नाश हो गया है ऐसा लगता है तो किसी को अन्धश्रद्धा का वर्चस्व दिखाई देता है। अनेक लोग ऐसे हैं जो विदेश जाने का अवसर नहीं मिलता इसलिये भारत में रहते हैं, अंग्रेजी बोल सकते हैं तो गौरव का अनुभव करते हैं, नहीं बोल सकते तो तूटी फूटी बोलने का प्रयास करते हैं और उतनी भी नहीं बोल सकते तब अंग्रेजी बोलनेवाले से दब जाते हैं और हीनताबोध का अनुभव करते हैं । लगभग सार्वत्रिक रूप से शिक्षा के प्रति सबको शिकायत है, किसी को महँगी लगती है, किसी को संस्कारहीन लगती है, किसी को निकृष्ट गुणवत्ता की लगती है, किसी को निरर्थक लगती है।[1]
इतने अधिक लोगों को इतनी अधिक शिकायतें हैं तब विचार यह आता है कि यह देश चलता कैसे है ? इसे कौन चलाता है ? दो सौ वर्षों के ब्रिटीश आधिपत्य से किस बल पर मुक्त हुआ । दुनिया के अनेक देश पूर्ण इसाई हो गये और पूर्ण यूरोपीय हो गये परन्तु भारत का पूर्ण इसाईकरण और यूरोपीकरण नहीं हुआ। ऐसी कौन सी शक्ति है जो भारत का अस्तित्व मिटने नहीं दे रही है ?
बात जरा सूक्ष्मतापूर्वक विचार करने लायक है। भारत निश्चित रूप से उसके विश्वविद्यालयों के प्रताप से तो नहीं चल रहा है। उल्टा हम कह सकते हैं कि विश्वविद्यालय सभी सांस्कृतिक संकटों का उद्गमस्थान है। हमारा शिक्षाक्षेत्र पश्चिमी प्रभाव से ग्रस्त होने के कारण से धार्मिक जीवनदृष्टि से विपरीत बातें ही बढाता है।
जो राजकीय क्षेत्र भी भारत का उद्धार करनेवाला नहीं है वह चुनाव निभा लेता है, संसद चला लेता है, न्यायालय और सेना का संचालन कर लेता है, संविधान बना लेता है और उसमें सुधार भी कर लेता है परन्तु शिक्षा, संस्कृति, धर्म, समृद्धि, व्यवस्था आदि की रक्षा उससे नहीं हो रही
आर्थिक क्षेत्र समृद्धि बढाने के स्थान पर बेरोजगारी और दारिद्य को ही बढावा दे रहा है। धर्म सबकी रक्षा करने वाली व्यवस्था है परन्तु सबने मिलकर धर्म को ही विवाद का विषय बना दिया है और सरकार ने, विश्वविद्यालय ने और धर्माचार्यों ने धर्म का त्याग कर दिया है। राज्य, शिक्षा और धर्म के क्षेत्र में ही जब अराजक हो तब देश किसका भरोसा कर सकता है ? यदि ये तीनों देश को नहीं चला रहे हैं तो फिर कौन चला रहा है ?
या फिर इस देश को चलाने वाले ने चलाने का काम बन्द कर दिया है परन्तु चलाने के समय जो बल लगा था उसके आधार पर अभी भी चल रहा है और चलने की यह गति कम होते होते रुक जायेगी और देश ठहर जायेगा ?
नहीं, इस देश को चलानेवाले तत्त्व अभी भी हैं जिन्हें कोई जानता नहीं है, मानता नहीं है और उनकी कदर भी नहीं बूझता है । उल्टे उन तत्त्वों की आलोचना करने के लिये नित्य सिद्ध रहता है।
जरा सोचे...
- हिमालय की उपत्यकाओं में ऐसे सिद्ध और साधक योगी हैं जो दुनिया से बेखर हैं और तपश्चर्या कर रहे हैं, साधना कर रहे हैं। उनका तप, उनकी मनःशान्ति, उनके अन्तःकरण की शुद्धता, उनकी साधना का बल ऐसी मनोस्वास्थ्य की तरंगे फैलाता है जिससे विश्व अभी भी नष्ट नहीं हो रहा है। दुनिया भी इनसे बेखबर है परन्तु वे सहज ही दुनिया का भला कर रहे हैं।
- भारत के वनों में ऐसे लोग हैं जो अनेक रोगों का उपचार जानते हैं, औषधि वनस्पति को पहचानते हैं, ऐसा कोई रोग नहीं जिसका इलाज वे सफलतापूर्वक कर न सकें, फिर भी उपचार का पैसा वसूल नहीं करते, किसी अपात्र को विद्या नहीं देते और निःस्पृह रहते हैं। विश्वविद्यालय इनके ज्ञान को और नगरवासी लोग इनके चरित्र को मान्यता और आदर नहीं देते परन्तु भारत और भारत के माध्यम से विश्व को बनाये रखने में इनका योगदान है।
- स्वार्थ, हिंसा, भ्रष्टाचार के इस दौर में भी गाय ने, तुलसी ने, गंगा ने अपना परिसर को पवित्र बनाने का धर्म नहीं छोडा है । इनके कारण से दुनिया अभी चल रही है।
- अभी भी भारत के अनपढ ग्रामीण लोग बचत करते हैं कमाई से कम खर्च करते हैं। नीति से अर्थार्जन करते हैं। वे गरीब हैं, अनपढ़ है, सीधेसादे हैं, शिक्षित और शोपिंग के आधार पर अत्यधिक धन कमाने वाले लोग इनकी ओर देखते भी नहीं, भारत की अर्थव्यवस्था में इन्हें कोई स्थान प्राप्त नहीं होता है परन्तु भारत की अर्थव्यवस्था को नष्ट होने से ये ही लोग बचा रहे
- शिक्षित बुद्धिजीवी लोगों के मतानुसार वे केवल गतानुगतिक होकर परम्परा का निर्वहण करते हैं। कदाचित कमअधिक मात्रा में वैसा होगा भी । तो भी उनके हृदय में, भक्तिभाव होता है । उनके सामाजिक व्यवहार में, अर्थार्जन के व्यवसाय में उनका भक्तिभाव नहीं झलकता होगा, उनका भक्तिभाव कृतिशील नहीं होगा तो भी भावना तो होती ही है। देशभर में यह भक्तिभाव वातावरण और मानसिकता को प्रभावित करता है। लोग आक्रोश, उत्तेजना और हताशा से पागल नहीं हो जाते इसका श्रेय इस भक्तिभाव को है।
- कितने भी आधुनिक हों, कुछ अपवादों को छोडकर, अधिकांश लोग घर आये अतिथि अभ्यागत का स्वागत करते ही हैं, भोजन के समय द्वार पर आये भिखारी को वे उलाहना भी देते हैं और खाना भी देते हैं । रात्रि में फूटपाथ पर सोये ठण्ड से ठिठुरने वाले गरीबों को कम्बल ओढाते हैं, हजारों अन्नसत्र चलते हैं, दान दिया जाता है, सत्संग और कीर्तन चलते हैं, रामकथा और भागवत कथा के पारायण होते ही हैं, यज्ञ, जप, पूजा आदि होते ही हैं। इनमें पश्चिम अन्दर तक घुस गया है और उसने प्रदूषण फैलाया है यह सत्य है तो भी अन्तरंग में श्रद्धा, भक्ति, भलाई है । ये सब भारत को बचाये हुए हैं।
- भारत की अधिकृत व्यवस्था को मान्य न करते हुए फिर भी उसके साथ झगडा न करते हुए पर्याय देने वाले लाखों लोग व्यक्तिगत और संस्थागत रूप में देशभर में कार्य कर रहे हैं। वे देशी खाद्य पदार्थ, अनाज, सब्जी, फल, मसाले लोगों को दे रहे हैं। बच्चों को संस्कारों की शिक्षा दे रहे हैं गरीबों की और रुग्णों की सेवा कर रहे हैं, गाय और गौवंश की सेवा कर रहे हैं, प्लास्टिक और रसायणों का प्रयोग नहीं करने हेतु लोगों को समझा रहे हैं, मातृभाषा माध्यम से पढने का आग्रह कर रहे हैं, स्वयं व्रत, नियम, संकल्प लेकर धार्मिक बन रहे हैं। ये सब भारत को बचाये रखे हैं।
- देशभर में अधिकृत रूप में तो बहुत अल्प मात्रा में परन्तु स्वैच्छिक रूप से वेद, उपनिषद, गीता, रामायण, महाभारत, भागवत आदि का अध्ययन हो रहा है । देशविदेश में इसका प्रचार हो रहा है। यह भारत को बचाये रखे हैं।
- शिक्षा, धर्म, संस्कार, अन्य सामाजिक व्यवस्थाओं में एक समानान्तर पर्यायी व्यवस्था देशभरमें चल रही है। इस व्यवस्था को सरकारी मान्यता या सहायता प्राप्त नहीं होती है, समर्थन भी कदाचित नहीं प्राप्त होता है । परन्तु समाज के बल पर यह सब चलता है। सरकारी अधिकृत व्यवस्था के पास धन है, सुविधा है और समर्थन है, इन समानान्तर प्रयासों के पास, श्रद्धा, निष्ठा और समाजहित की भावना है। धन, सत्ता, सुविधा यह भौतिक पक्ष है, श्रद्धा, निष्ठा, हित की कामना अन्तःकरण की प्रवृत्ति है। निश्चित ही इनकी मात्रा अल्प होने पर भी शक्ति अधिक है। यह देश को बचाये हुए है। यह देश को बिखरने नहीं देता।
- देश अपने आप में विभाजित है । एक भारत में दो भारत जी रहे हैं । एक है सनातन भारत और दूसरा है वर्तमान भारत । एक धार्मिक भारत है, दूसरा पश्चिमी भारत । एक बहिरंग है, दूसरा अन्तरंग । पश्चिमी भारत बहिरंग है, धार्मिक भारत अन्तरंग । बहिरंग दिखाई देता है, अधिक सक्रिय है, अधिक मुखर है । सनातन भारत दिखाई नहीं देता, दबा हुआ है परन्तु पूर्वजों का पुण्य, परम्परा का बल, निष्ठा और श्रद्दा की शक्ति उसे अल्प परन्तु बलवान बनाती है। बहिरंग के प्रबल झंझावात में भी वह अपने आपको बचाये हुए है।
- देश में निरन्तर यह बहिरंग और अन्तरंग का संघर्ष चल रहा है। शिक्षित, सत्तावान, धनवान, यूरोपीय मानसिकता वाला बहिरंग संख्या में बहुत अल्प है परन्तु शक्ति में अधिक है । बहु संख्य सामान्य लोग बाहर से तो शिक्षित और सत्तावान लोगों का अनुकरण और अनुसरण कर रहे है परन्तु अन्तःकरण में धार्मिकता को सुरक्षित रखे हुए हैं। यह अन्तरंग भारत को बचाये हुए है।
भारत के अन्तरंग और बहिरंग का यह संघर्ष उसकी शक्ति को बहुत क्षीण करता है। दिनप्रतिदिन बहिरंग का दबाव बढ़ता ही जा रहा है। बहुरंग अधिकाधिक मुखर होता जा रहा है । अन्तरंग जैसे उसके सामने घुटने टेक रहा है। उदाहरण के लिये अंग्रेजीभाषा का मोह, बाहरी चमकदमक का आकर्षण, सुविधाओं की चाह, यन्त्रों का उपयोग, संगणक अधीनता बढ रहे हैं। संवेदनायें तथा कार्यकुशलता कम हो रही है। ऐसे में लगता है कि भारत के लिये कोई आशा नहीं है । भारत का भी पूर्ण यूरोपीकरण हो जायेगा। परन्तु तर्क से तो नहीं अपितु इतिहास से समझा जा सकता है कि वर्तमान में है उससे भी भयावह स्थितियाँ अतीत में भी बनी हैं। उदाहरण के लिये पन्द्रह वर्ष के राम और लक्ष्मण विश्वामित्र के साथ जा रहे थे तब मार्ग में उन्होंने हड्डियों के बडे बडे ढेर देखे। पूछने पर ऋषि विश्वामित्रने कहा कि ऋषिमुनि यज्ञ कर रहे होते हैं तब राक्षस आकर उनका यज्ञ भंग कर देते हैं और ऋषियों को मार डालते हैं। उनकी हड़ियों के ये ढेर हैं। उस समय भी आतंकवाद, साम्यवाद आदि थे जो धर्म को ही नष्ट करने का काम करते थे। उसके बाद इतिहास का पुनरावर्तन अनेक बार हुआ है। हमें अतीत से वर्तमान अधिक भयावह लगता है, परन्तु वर्तमान अतीत का पुनरावर्तन ही है। अभी सृष्टि के प्रलय का समय नहीं आया है। और संकटों से बचना है तो भारत का ही मार्ग विश्व को अपनाना होगा इसमें सन्देह नहीं है। और इसे सम्भव बनाने हेतु भारत को भारत बनना होगा । पूर्वजों का पुण्य और सामान्य जन की श्रद्धा ही यह सम्भव बनायेगी। उसे ही बढाने के प्रयास करने चाहिये।
References
- ↑ धार्मिक शिक्षा : वैश्विक संकटों का निवारण धार्मिक शिक्षा (धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला ५) - अध्याय ३९, प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे