भारत विश्व को शिक्षा के विषय में क्या कहे
This article relies largely or entirely upon a single source. |
अध्याय ४१
हे विश्ववासियों, भारत विश्व को एक मानता है, सबको अपना मानता है। वह जगत का मित्र है। वह कभी किसी का अहित करता नहीं है, अहित चाहता भी नहीं है । जो अपने पास है वह सबको देना चाहता है । जो अपने पास है उसका स्वयं उपभोग करने से पहले सबको देना चाहता है। अपने सामर्थ्य से किसी को भयभीत करना भारत का धर्म नहीं है। अपने सामर्थ्य से सबकी सहायता करना, सबकी रक्षा करना, सबका पोषण करना भारत का धर्म है । ऐसा नहीं हैं कि भारत आज ही यह कह रहा है। भारत की यह सहस्राब्दियों की परम्परा रही है । पाँच हजार वर्ष पूर्व भारत में कौरवों और पाण्डवों के बीच युद्ध हुआ था इसकी कथा तो आपने सुनी होगी। दुर्योधनने युधिष्ठिर आदि को राज्य देने से तो इन्कार कर दिया परन्तु बडों के परामर्श से बीहड जंगल उन्हें निवास के लिये दे दिया । उस बीहड जंगल का रूपान्तरण इन्द्रप्रस्थ नामक सुन्दर नगरी में कर देने वाला मय नामक राक्षस स्थपति मयदेश का था जिसे आज मैक्सिको कहते हैं। अमेरिका को हम भारतवासी पाताल देश के नाम से स्वयं अमेरिका जानता है उससे हजारों वर्ष पूर्व से जानते हैं। आफ्रिका हमारे लिये शाकद्वीप और शाल्मली द्वीप है। दुनिया के लगभग सभी देशों में आज भी भारतीय संस्कृति के अवशेष शिल्प, स्थापत्य, वनविद्या, कृषिविद्या, वेदशाला, गणित जैसे शास्रों के रूप में हैं। वह दर्शाता है कि भारत ने सम्पूर्ण विश्व का प्रवास किया है, वहाँ निवास किया हैं, वहाँ संस्कृति का प्रसार भी किया है। हमने विश्व को जीता है शस्त्रों से नहीं, शास्त्रों से भी नहीं, युक्ति से भी नहीं। हमने दुनिया को मैत्री से, शुभचिन्तन से और प्रेम से जीता है। हमने दुनिया को अपना माना है, अपना बनाया है । अतः आज भी संकटग्रस्त विश्व की सहायता करना भारत के लिय स्वाभाविक है। ऐसा करने में भारत अपना ईश्वर प्रदत्त कर्तव्य ही मानता है। हम दुनिया को ऐसा विश्वास दिलाना चाहते हैं।
ऐसा नहीं है कि हम सिखाने के सामर्थ्य का अहंकार पालते हैं। हम दुनिया से सीखे भी हैं । हमने आक्रमणों का प्रतिकार किया है परन्तु, आक्रान्ताओं को आत्मसात कर उनसे अनेक बातें ग्रहण की हैं। उन्हें अपना बनाया है। हम आक्रमक बनकर नहीं अपितु मित्र बनकर गये तो जहाँ गये वहाँ से बहुत कुछ सीखा। सीखते सीखते हम भावात्मक और सांस्कृतिक दृष्टि से समृद्ध भी हुए हैं । आप अभी अभी ग्लोबल संज्ञा का प्रयोग करने लगे हैं, हम हमेशा ही वैश्विकता का विचार करते आये हैं। हमारा संन्यासी 'स्वदेशो भुवनत्र' की घोषणा करता है। हमारा कवि 'वसुधैव कुटुम्बकम्' को उदारता का लक्षण मानता है। हमारी उपनिषद 'सर्वभूतहितेरताः' को भगवान के भक्त मानती है । हमारे इतिहासकार अपने सम्पूर्ण कथन का सार बताते हुए कहते हैं, 'परोपकारः पुण्याय पापाय परपीडनम्' आपका और हमारा अन्तर केवल इतना ही है कि आप मुख्य रूप से अर्थ के सन्दर्भ में और निहित रूप से सत्ता अथवा आधिपत्य के सन्दर्भ में ग्लोबलाइझेशन की बात करते हैं हम सांस्कृतिक सन्दर्भ में वैश्विकता का समर्थन करते हैं। और यही मुद्दा हम आपको समझाना चाहते हैं। आर्थिक सन्दर्भ से ग्लोबलाइझेश की कल्पना करना और उसे साकार करने का प्रवास करना अन्यों के और अपने विनाश की ओर जाना है जबकि सांस्कृतिक सन्दर्भ से वैश्विकता की बात करना सब मिलकर विकास की दिशा में अग्रसर होना है। हम मिलकर उन्नति की ओर बढें ऐसी ही कामना आप भी करें यही हमारा निवेदन है।
शिक्षा विषयक संकल्पना बदलना
हे विश्ववासियों, आप शिक्षा का महत्त्व जानते ही है। आज विश्व में अन्न, वस्त्र, निवास की तरह शिक्षा भी जीवन की प्राथमिक आवश्यकता बन गई है। विश्व के सारे देश प्रजा को शिक्षित बनाने का प्रयास कर रहे हैं। आज विश्व ने सूत्र बनाया है, 'नॉलेज इझ पावर' - ज्ञान ही सामर्थ्य है । यह बहुत ही सराहनीय बात है । ज्ञान को ही सामर्थ्य मानना भारत की भी परम्परा रही है। भारत ने ज्ञान को पवित्रतम, श्रेष्ठतम, उत्तम माना है। आप भी ऐसा मानते हैं यह अच्छा है। परन्तु इस विषय में प्रारम्भ में ही कुछ स्पष्टता कर लेना आवश्यक है। हम आपसे आग्रहपूर्वक कहना चाहते हैं कि ज्ञान को, और चूंकि शिक्षा ज्ञान की ही व्यवस्था है इसलिये शिक्षा को पदार्थ मत मानो । आज विश्वने शिक्षा को महत्त्वपूर्ण माना तो है परन्तु उसे भौतिक पदार्थ मानने की गलती भी की है। अन्न, वस्त्र, निवास आदि भौतिक पदार्थ हैं। वे शरीर का रक्षण और पोषण करते हैं। शिक्षा उनकी श्रेणी में नहीं बैठती । शिक्षा का सम्बन्ध मुख्य रूप से अन्तःकरण के साथ है। मनुष्य का मन, बुद्धि, चित्त, हृदय आदि अन्तःकरण हैं । अन्तःकरण ही तो मनुष्य को अन्य पदार्थों और प्राणियों से भिन्न और श्रेष्ठ बनाता है। शिक्षा का सम्बन्ध इस अन्तःकरण से है । उसे अन्य भौतिक पदार्थों के समान ही मानने से बड़ा अनर्थ होता है। आज वह हो ही रहा है। भौतिक पदार्थों की उत्पादन की व्यवस्था को हम उद्योग कहते हैं । शिक्षा को भौतिक पदार्थ मानने से शिक्षा का भी उद्योग बन जाता है। शिक्षा को उद्योग बनाते ही अनर्थों की परम्परा बनने लगती है। भौतिक पदार्थों का मापन करने के लिये वजन, लम्बाई, कद, उसके गुणधर्म, शरीर पर होने वाले परिणाम, उनकी आन्तप्रक्रियाएँ आदि बातें होती हैं । जाहिर है कि शिक्षा को वजन, कद, संख्या, वृद्धि, घनता आदि लागू नहीं हो सकते। उसकी आन्तरप्रक्रियाएँ पानी, भट्टी, सुवर्ण, वायू आदि के साथ नहीं हो सकती । अन्न लेने के बाद पेट भरता है, पानी से प्यास बुझती है, काम करने से शरीर एक ओर तो थकता है दूसरी ओर कुशल बनता है। शिक्षा से ऐसा कुछ नहीं होता । सारे भौतिक पदार्थों का मूल्य पैसे में आँका जा सकता हैं क्योंकि पैसा भी तो भौतिक स्तर की ही व्यवस्था है। मापन करने के अन्यान्य साधनों की तरह ही पैसे की भी गणना करने की व्यवस्था है। शिक्षा को भौतिक पदार्थ मानते ही उसका मापन करने के लिये हम पैसे का प्रयोग करने लगते हैं । ऐसा करते ही उसका अन्तःकरण के साथ सम्बन्ध विच्छेद हो जाता है । भौतिक स्तर पर उतरते ही वह हीरे, मोती, सुवर्ण जैसी मूल्यवान भी नहीं रह जाती और अन्न, वस्त्र के समान उपयोगी भी नहीं होती । भौतिक स्तर पर मनुष्य को अन्न की जितनी आवश्यकता लगती है उतनी शिक्षा की नहीं लगती। अन्न अनिवार्य है, शिक्षा नहीं, इसलिये तो अनेक ऐसे लोग हैं जिनके लिये कानून से शिक्षा को अनिवार्य बनाने पर भी शिक्षा ग्रहण करना नहीं चाहते । अतः आपके लिये पहली आवश्यकता है शिक्षा को भौतिकता से सींखचों से मुक्त कर अन्तःकरण के स्तर पर ऊपर उठाना । तभी शिक्षा को अपना सही स्थान प्राप्त होगा।
आपने शिक्षा को भौतिक पदार्थ मान लिया उसके कारण कल्पना से भी अधिक नुकसान हुआ है। आपने अपनी भौतिक आवश्यकताओं को पूर्ण करने के लिये शिक्षा को प्रयुक्त किया है। परन्तु यह तो श्रेष्ठ सत्ता को कनिष्ठ सत्ता की सेवा में प्रयुक्त करने का काम है। इससे कनिष्ठ की सेवा तो नहीं होती उल्टे श्रेष्ठ का श्रेष्ठत्व कम होता है, उसका गौरव समाप्त होता है। इससे एक बहुत बडा मिथ्या संसार निर्माण हो जाता है जिसमें परिश्रम तो होता है पर फल नहीं मिलता। इसके स्थान पर यदि भौतिक पदार्थों के उत्पादन हेतु भौतिक स्तर पर प्रयास किये जाय तो अधिक भौतिक लाभ होगा। सही बात यह होगी कि शिक्षा को भौतिक से अधिक उन्नत स्तर पर उठाया जाना चाहिये।
शिक्षा का विचार भौतिक स्तर पर ही करने के कारण आपने और एक अनिष्ठ को जन्म दिया है। शिक्षा के मापन हेतु भी आपने भौतिक मापदण्ड ही बताये हैं । भौतिक का भी पर्यवसान तो पैसे में ही होता है । इसलिये शिक्षा के लिये भौतिक सुविधायें आपके लिये मापन का एक साधन बनती हैं। विद्यालय का भवन कितना बड़ा है, फर्नीचर कितना अधिक और सुविधापूर्ण है, साधन सामग्री कितनी विपुल मात्रा में है और यह सब कितना महँगा है यह आपके लिये बहुत महत्त्वपूर्ण बन जाता है। इसके साथ पैसा भी जुड़ जाता है । इसलिये शुल्क कितना ऊँचा है, प्राध्यापकों का वेतन कितना अधिक है, कार्यक्रमों का बजट कितना बड़ा है यह आपके लिये श्रेष्ठत्व के साथ जुड़ा है। पढाई पूरी करने के बाद ऊँचे वेतन की नौकरी अथवा अधिक कमाई का व्यवसाय कितनी अधिक मात्रा में प्राप्त होता है यह आपके लिये महत्त्वपूर्ण मापदण्ड है। आपके विश्वविद्यालयों में जो अनुसन्धान होता है उसमें पेटण्ट कितना मिलता है और उसके आधार पर आय कितनी होती है वह मापन का और एक मुद्दा है। यह तो अनर्थों की शृंखला है। इसके साथ श्रेष्ठत्व को जोडना ही उल्टा सोचना है। यह तो भौतिक दृष्टि से भी सुखी और समृद्ध होने का उपाय नहीं है, मानसिक शान्ति और बौद्धिक आनन्द की तो कल्पना भी नहीं की जा सकती। आपको अपने भले के लिये भी इस स्थिति को बदलना होगा। अपने वर्तमान प्रयासों की व्यर्थता को समझना होगा।
केवल अन्न, वस्त्र, कामप्रवृत्ति से मनुष्य श्रेष्ठ नहीं बनता । ये तो शारीरिक और प्राणिक स्तर की प्रवृत्तियाँ हैं । अन्य प्राणी भी यह सब करते हैं। उनका जीवन इन प्रवृत्तियों में ही समाहित हो जाता है । हम भारतवासी मनुष्य को इनसे श्रेष्ठ मानते हैं। आपके देशों में भी मनुष्य इन प्राणियों से श्रेष्ठ ही है। मनुष्य का श्रेष्ठत्व किस में है ? भौतिक पदार्थों का अनापशनाप. शोषणकारी प्रयोग और प्राणियों को अपना दास बनाने में, अपना आहार बनाने में श्रेष्ठत्व नहीं है। अपनी अन्तःकरण की प्रवृत्तियों को परिष्कृत और व्यवस्थित करने में ही श्रेष्ठत्व है। शिक्षा इसका प्रमुख साधन है। अतः शिक्षा के सारे प्रयासों को इस स्तर पर स्थापित करने की आवश्यकता है।
यह अन्तःकरण क्या है ? अन्तःकरण में मन, बुद्धि, अहंकार और चित्त का समावेश होता है । आप भी माइण्ड, इण्टेलेक्ट, ईगो और कॉन्सियन्स के रूप में इन्हें जानते ही हैं । हाँ, यह मुद्दा भी महत्त्वपूर्ण है कि इन शब्दों के आपके और हमारे अर्थ और व्याप्ति भिन्न है। यह भिन्नता संस्कृतियों की भिन्नता है यह भी सच है। परन्तु इन संज्ञाओं के कोर एलिमेण्ट-केन्द्रवर्ती तत्त्व-कदाचित एक ही है। संक्षेप में ही समझें तो मन समस्त कामप्रवृत्ति का उद्गम स्थान है। आप भी समझ रहे होंगे कि मन की काम प्रवृत्ति को नष्ट तो नहीं करना चाहिये । इसे नष्ट करने से तो मनुष्य की सृजनशीलता का साधन ही नष्ट हो जायेगा । मन अत्यन्त शक्तिशाली करण है। कामप्रवृत्ति को भी शक्ति के एक आयाम के रूप में स्वीकार कर उसे नियमन में रखना, नियन्त्रित करना और एकाग्र बनाना चाहिये । इसके लिये शिक्षा को प्रयुक्त करना चाहिये । जगत में किये जाने वाले सारे मानवीय व्यवहार की अच्छाई और बुराई का सम्बन्ध मन के साथ है। इसलिये मनुष्य को बुराई से मुक्त करना और अच्छा बनाना शिक्षा का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण आयाम है।
कितने आश्चर्य की बात है कि आज विश्व में कामप्रवृत्ति की शिक्षा तो दी जाती है परन्तु अच्छा बनने की नहीं दी जाती। अच्छा बनने की आवश्यकता का अनुभव तो सब करते हैं । अच्छाई के आधार पर ही दुनिया चलती है यह बात भी सब समझते हैं परन्तु अच्छा बना कैसे जाता है इसकी ओर ध्यान नहीं दिया जाता । अच्छाई या तो गृहीत मानी जाती है अथवा इसे चर्च के अधीन कर दिया जाता है, अथवा इसे कानून के दायरे में रखा जाता है। कभी कभी तो ऐसी भी मान्यता दिखाई देती है कि हम ईसाई अथवा मुसलमान हैं इसी कारण से हम अच्छे हैं। यह बात और सम्प्रदायों के साथ भी हो सकती है। परन्तु अच्छाई को सम्प्रदाय के साथ जोड दिया जाता है। हम देखते हैं कि सम्प्रदाय को कानून के अधीन करने से अथवा उसे गृहीत मानने से कोई अच्छा नहीं बनता। मन की सम्यक् शिक्षा की व्यवस्था करना ही एक मात्र उपाय है। यह बात सत्य है कि घर में, देवालय में, विद्यालय में, कार्यालय में, कारखाने में - कहीं पर भी इसकी व्यवस्था की जा सकती है । कैसे भी करें, करना अनिवार्य है।
हमारे स्वामी विवेकानन्द कहते हैं कि मन को एकाग्रता और ब्रह्मचर्य की शिक्षा देना ही मुख्य कार्य है। अब तो आप योग को भी अपना चुके हैं। योग एक अत्यन्त श्रेष्ठ विद्या है इसमें तो कोई सन्देह नहीं है परन्तु अब आपको विचार करना है कि भौतिकता को अत्यन्त महत्त्वपूर्ण मानने के कारण आपने योग को भी भौतिक स्तर पर उतार दिया है जबकि उसका सम्बन्ध अन्तःकरण के साथ है । पातंजल योगसूत्र योगशास्त्र का आधारभूत ग्रन्थ है। उसमें योग को चित्तवृत्तिनिरोधः कहा गया है। चित्त को समस्त अन्तःकरण के रूप में प्रयुक्त किया गया है। चित्तवृत्तियों का निरोध करने का प्रारम्भ मन को सज्जन बनाने, शान्त बनाने और एकाग्न बनाने से होता है। आपने उसे आसन, प्राणायाम, मुद्रा आदि में बद्ध कर दिया, उसे भौतिक स्वरूप दे दिया । योग भौतिक स्तर का विषय ही नहीं है। अतः पहली बात तो यह है कि मन की शिक्षा की व्यवस्था करें। विश्वस्तर पर मन की शिक्षा को प्रतिष्ठित करने की आवश्यकता है। यदि आप ठीक समझें तो संयुक्त राष्ट्र संघ में यह मुद्दा उठाया जा सकता है। विश्व को अच्छाई के बिना चल ही नहीं सकता यह तो आप समझ ही सकते हैं ।
एक बार अच्छाई की शिक्षा को आधार बना लिया तो आगे का मार्ग सही हो जाता है। अब आपको मन की अनन्त शक्तियों के विकास की ओर ध्यान देना है। आपने मन की कामप्रवृत्ति को केन्द्रवर्ती मुद्दा बनाकर मन की सारी क्षमताओं का क्षरण होने दिया है। अब काम प्रवृत्ति के स्थान पर सज्जनता को केन्द्रवर्ती विषय बनाने से शक्तियों का क्षरण रुक जायेगा । अब योग, संगीत, खेल आदि का बहुत अधिक उपयोग होगा । मन की शक्तियों में वृद्धि होने से और उनको सज्जनता का आधार मिलने से आपको एक अलग ही प्रकार की अलग ही स्तर की दुनिया में प्रवेश मिलेगा जिसमें अद्भुत रोमांच होगा। आज भी आप रोमांच की निरन्तर खोज में रहते हैं । नित्य नई नई बातों की चाह आपको रहती है । योग, संगीत और मन की शान्त अवस्था में प्राप्त नई दुनिया के प्रवेश में आपको स्थायी रोमांच का अनुभव होगा जिसमें आपको स्पर्धा नहीं करनी पड़ेगी तनाव ग्रस्त नहीं होना पड़ेगा और पैसा खर्च नहीं करना पड़ेगा। शिक्षा आपको यह रास्ता दिखा सकती है।
मन को शिक्षित करने के बाद बुद्धि के विकास का मार्ग भी प्रशस्त होता है । आप का विश्व बुद्धि का महत्त्व तो खूब समझता है । बुद्धि को ही तो आप विभिन्न प्रकार के अनुसन्धानों हेतु और उनके माध्यम से दुनिया को वश में करने के काम में लगाते हैं। परन्तु सज्जन मन के सहयोग से बुद्धि तेजस्वी, कुशाग्र और विशाल बनती है इस बात का अनुभव करना शेष है। साथ ही आपके अहंकार को दायित्वबोध सिखाना है। चित्त तो सर्व प्रकार के अनुभवों का - जिन्हें हम संस्कार कहते हैं - संग्रहस्थान है । उसे शुद्ध करना यह भी आपको सीखना चाहिये । इसके बाद ही आपकी सृजनशीलता का विकास होगा। तब आपको स्वतन्त्रता, अभय, प्रेम, सौन्दर्यबोध आदि संकल्पनाओं का सही अर्थ समझ में आयेगा। आज तो इन संज्ञाओं को अर्थ मन की कामप्रवृत्ति और भौतिकता के आकर्षण की सलाखों में कैद होकर विपरीत ही अर्थ धारण किये हुए है। इन्हें मुक्त करने पर आपका भी अनुभव विश्व अलग ही होगा।
इस अन्तःकरण के स्तर को प्राप्त करने हेतु शिक्षा को आप प्रयुक्त कर सकें इसमें भारत आपकी हर सम्भव सहायता करने को सिद्ध है।
शिक्षाप्रक्रियाओं को समझना
शिक्षिाप्रक्रियाओं को समझना भी एक महत्त्वपूर्ण कार्य है। आप जिस प्रकार शिक्षा संकल्पना को भौतिकता से मुक्त करेंगे उसी प्रकार उसे यान्त्रिकता से भी मुक्त करेंगे। यान्त्रिकता निर्जीव पदार्थ का गुण है । शिक्षा निर्जीव पदार्थ नहीं है, निदा प्रक्रिया है। अतः शिक्षा प्रक्रिया को जिन्दा बनाने का अर्थ आपको समझना है। आपको समझने लायक कुछ बातें इस प्रकार हैं...
(१) आपको शिक्षक और विद्यार्थी के सम्बन्ध को व्यवस्थित करना होगा । अब तो आप शिक्षकों को 'हायर' करते हैं। वह एक व्यापारी की अथवा सेल्समैन की हैसियत से नॉलेज को पैसे के बदले में बेच रहा है और आप खरीद रहे हैं। आप इतने शक्तिशाली बन गये हैं कि सारी दुनिया आपसे यही सीख रही है। हमारे देश में भी बहुत बडा वर्ग ऐसा ही करना सीख गया है । परन्तु शिक्षक और विद्यार्थी का सम्बन्ध ऐसा नहीं होना चाहिये । उसे अर्थनिरपेक्ष और आदर और स्नेह पर आधारित बनाना अत्यन्त आवश्यक है । ऐसा होने से शिक्षा के माध्यम से ज्ञान ग्रहण करना अधिक सार्थक होगा।
(२) शिक्षा का सम्बन्ध अर्थ से तोड़ने का और एक कारण है। शिक्षा स्वेच्छा और स्वतन्त्रतापूर्वक होती है और जिज्ञासा उसकी मूल प्रेरणा है। देश के छोटी से बड़ी आयु के विद्यार्थियों में जीवन और जगत को जानने की इच्छा जागृत करना मातापिता और शिक्षक का काम है। जिज्ञासा जाग्रत करने के बाद उसका समाधान करने हेत विद्यार्थी को स्वयं प्रयास करना चाहिये । ऐसा प्रयास करने में उसकी सहायता करना, उसे प्रेरित करना शिक्षक का काम है। उसे ही भारत में हम सिखाना कहते हैं। यह एक महत्त्वपूर्ण मुद्दा है। शिक्षक और विद्यार्थी का सम्बन्ध आत्मीयता का होता है, पैसे का नहीं । हम तो दोनों को एक ही व्यक्तित्व के दो हिस्से मानते हैं । ज्ञान को शिक्षक से विद्यार्थी तक पहुँचने का रास्ता अन्दर से अर्थात् अन्तःकरण से जाता है, बाहर से नहीं । शिक्षक दो प्रकार के होते हैं । एक होते हैं विषय के और दूसरे विद्यार्थी के । विषय के शिक्षक को प्रथम विद्यार्थी का शिक्षक बनना होता है। शिक्षक जब विद्यार्थी को जानता और समझता है, उसके कल्याण की कामना करता है और उसकी ग्रहण करने की क्षमता के अनुसार प्रयासरत होता है तब वह विद्यार्थी का शिक्षक बनता है। आप शिक्षकों को विद्यार्थियों के शिक्षक बनना सिखायें।
तीसरी बात है साधनसामग्री के आत्यन्तिक उपयोग की। हमारे देश में एक सूत्र बहुत पहले से प्रचलित है। वह है 'शिक्षा साधनों से नहीं अपितु, साधना से होती है।' साधना पैसे के लिये नहीं की जाती, पैसे से अधिक मूल्यवान बातों के लिये की जाती हैं । शिक्षा को हम श्रेष्ठ मानते हैं इसलिये साधना से प्राप्त करना चाहते हैं। अतः बिना साधन सामग्री से पढना सिखाना चाहिये । विद्यार्थी जब अपने हाथ पैर मन, बुद्धि, आदि से सीखता है तब अधिक अच्छी तरह से सीखता है । दूसरे दो लाभ होते हैं । साधन सामग्री का जंजाल कम होता है, उसके पीछे जो समय, शक्ति और पैसे का खर्च होता है वह टल जाता है। साथ ही विद्यार्थी की सक्रियता बनने के कारण कम समय में, कम परिश्रम से, अधिक आनन्द से पढा जाता है। पढने के इस शास्र को जानने का आप प्रयास करें।
आपकी इवेल्युएशन - मूल्यांकन की, अंक देने की, प्रमाणपत्र देने की पद्धति, आप की समयसारिणी और पाठ्यक्रम बनाने की पद्धति, यान्त्रिकता का बहुत बड़ा नमूना है। ऐसा लगता है कि आप यन्त्र को और मानव को एकसमान मानते हैं, लकडी की टेबल और पढे जाने वाले विषय को एक समान मानते हैं. विषय के अध्ययन की और वस्र बनाने की प्रक्रिया को एक समान मानते हैं । यह बहुत बडा अनर्थ है। प्रेम करनेवाले मनुष्य ने बनाई हुई और दुकान में बेचने के लिये रखी, पैसे से खरीदी जाने वाली रोटी में हम बडा अन्तर देखते हैं । प्रेम करने वाले व्यक्ति ने बनाई हुई और खिलाई हुई रोटी से मन को जो सुख मिलता है उससे जगत के अपराध कम होते हैं। उसी प्रकार से विद्यार्थी का भला चाहनेवाले शिक्षक द्वारा दी गई शिक्षा की गुणवत्ता कुछ अलग ही होती है। आप समझ सकते हैं कि जगत में होने वाले अपराधों में से अधिकतम भावनाओं की गडबडी के कारण से ही होते हैं । अतः शिक्षा की पद्धति उसकी मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया को समझकर ही तय होनी चाहिये । संक्षेप में कह सकते हैं कि अध्ययन अध्यापन की प्रक्रिया को अधिक जीवमान बनाने की आवश्यकता है।
शिक्षा का विषयवस्तु के बारे में विचार
आप जो विभिन्न विषय पढाते हैं उनकी विषयवस्तु के बारे में आपको मूल से ही पुनर्विचार करने की आवश्यकता है। कक्षाकक्ष की शिक्षा को आप विद्यार्थी के दैनन्दिन व्यवहार के साथ तथा जागतिक परिस्थिति के साथ जोडकर देखिये । क्या निम्नलिखित प्रश्नों का आपने विचार नहीं करना चाहिये ?
- आपके आठ नौ वर्ष की आयु के विद्यार्थी के बस्ते में पिस्तौल या पिस्तौल जैसा शस्र होता है। वह उसे चलाना जानता भी है और चाहता भी है। वह अपने स्वजनों पर ही उसे चलाता है।
- आप की बारह तेरह वर्ष की आयु की लडकियाँ गर्भवती होती हैं। उनके लिये गर्भपात भी एक खेल है।
- आपके सत्तर प्रतिशत बच्चे सिंगल पेरैण्ट चिल्ड्रन हैं। क्या बच्चों का अधिकार नहीं है कि उनके माता और पिता का प्रेम और सुरक्षा उन्हें मिले ? क्या आप अपने देश के युवक-युवतियों को अच्छे माता और पिता बनने की शिक्षा नहीं दे सकते ?
- आपके लिये पदार्थ, प्राणी, मनुष्य, भगवान सब कुछ खरीदने और बेचने की वस्तुयें हैं। क्या यह अति विचित्र स्थिति नहीं है ?
ये तो कुछ उदाहरण हैं । ऐसे तो सैंकडों उदाहरण हम दे सकते हैं । परन्तु विचार करने लायक बात यह है कि ऐसी स्थिति और ऐसी मानसिकता कैसे निर्माण होती है ? निश्चित ही आपकी शिक्षा इसके लिये कारणभूत है। आप विश्वविद्यालयों में समाजशास्त्र ऐसा पढाते हैं कि सामाजिक समरसता, बन्धुता, आदर और श्रद्धा जैसे तत्त्व ही पैदा नहीं होते । इन तत्त्वों की आप कल्पना भी नहीं कर सकते । आप ऐसा अर्थशास्त्र पढाते हैं जिसके परिणामस्वरूप सबकुछ बिकाऊ बन जाता है और आर्थिक शोषण, लूट, हत्या, आधिपत्य, दूसरों को गुलाम बनाना आदि सब बिना हिचकिचाहट से मान्य हो जाता है।
आप ऐसा मनोविज्ञान पढाते है कि कामप्रवृत्ति को ही मान्यता दे देते हैं । आप ऐसा भौतिक विज्ञान पढाते हैं जो जीवन की हर भावना, तत्त्व, प्रक्रिया, अनुभूति, संवेदना - स्वयं जीवन - को निर्जीव पदार्थ बना देता है और 'सर्वशास्रप्रधानम्' का दर्जा प्राप्त कर लेता है । इस कारण से आपको लगता है कि आपने असीम वैभव प्राप्त कर लिया है और प्रकृति को अपना दास बना लिया है । परन्तु आपने बहुत बडी मूल्यवान बातों को खो दिया है । जीवन का और जीवन के आनन्द का तो आपको स्पर्श भी नहीं हुआ है । प्रकृति को अपना दास बना लेना सिद्धि नहीं है, विजय नहीं है, प्रकृति के प्रेम और आशीर्वाद से आप वंचित हो जाते हैं और आपको अहेसास भी नहीं होता कि आपने कितनी मूल्यवान चीज को खो दिया है।
आप जानते ही नहीं है कि धर्म और संस्कृति जैसे विषयों का आपके जीवनविचार में स्थान ही नहीं है । इनके समानार्थी लगने वाले शब्द - रिलीजन और कल्चर - तो आपके पास हैं परन्तु उनका अर्थ तो आपने सर्वथा बदल दिया है। एक बार भारत इन संज्ञाओं का तात्त्विक और व्यावहारिक अर्थ क्या समझता है वह जानने का प्रयास कीजिये तो आपको पता चलेगा कि इतनी अद्भुत संज्ञायें दूसरी कम ही होंगी। मनुष्य की बुद्धि कितनी गहराई में जा सकती है इसके ये उदाहरण हैं।
संक्षेप में आपको विभिन्न विषयों के पाठ्यक्रमों और विषयवस्तु के बारे में अत्यधिक पुनर्विचार करने की आवश्यकता है।
मानसिकता बदलना
आपको सुखी होना है तो शिक्षाक्षेत्र से स्पर्धा के तत्त्व को निष्कासित कर देना होगा। बात एकदम से आपकी समझ में नहीं आयेगी क्योंकि स्पर्धा की प्रतिष्ठा के मूल आपकी सर्वश्रेष्ठ बनने की लालसा में हैं। क्या आपने अपने ही बारे में कभी सोचा है कि आप श्रेष्ठ नहीं सर्वश्रेष्ठ बनना चाहते हैं । श्रेष्ठ बनना तो अच्छा है परन्तु सर्वश्रेष्ठ बनने की चाह रखना अमानवीय है और हिंसा है । दूसरों से आगे निकलना, दूसरों को पीछे रखना अच्छी चाह नहीं है। मानवीय सम्बन्धों के क्षेत्र में यह अनेक दूषणों को जन्म देती है। स्पर्धा, संघर्ष, हिंसा और नाश इसके अनिवार्य चरण हैं। दुःख दौर्मनस्य, मारकाट और बुद्धि इसके अनिवार्य परिणाम हैं । विश्व के सुख और शान्ति का नाश करने वाले इस स्पर्धा के तत्त्व को तो जीवन से निष्कासित करना शिक्षा ही सिखाती है परन्तु आपने शिक्षा को ही स्पर्धा से दूषित कर दिया है। वह इतनी प्रभावी बन गई है कि कक्षाकक्षों से निकलकर सम्पूर्ण जीवन में व्याप्त हो गई है। इससे मुक्त होना आपके लिये भारी चुनौती है परन्तु उस चुनौती का स्वीकार किये बिना आपकी सद्गति नहीं होगी।
आपके सुखी और समृद्ध जीवन के लिये आपको और एक बात करनी होगी। आपके पदार्थों, प्राणियों, बनस्पति और मनुष्यों के साथ के सम्बन्धों में भी परिवर्तन
References
भारतीय शिक्षा : वैश्विक संकटों का निवारण भारतीय शिक्षा (भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला ५), प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे