आधुनिक विज्ञान एवं गुलामी का समान आधार
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अध्याय २८
धर्मपाल
वैचारिक आंदोलन मनुष्य के इतिहास के समान ही प्राचीन हैं। भिन्न भिन्न युगों में ऐसे सभी आंदोलनों का संदर्भ भिन्न भिन्न होने के बावजूद प्रभाव लगभग एक समान ही रहता है। इससे लगता है कि गौतम बुद्ध के बाद का समय, ईसापूर्व की रोम की उन्नति का समय, यूरोप एवं स्पेन के अन्य राज्यों में इस्लाम के विस्तार का समय-किसी भी समय में जो विचार जन्मे एवं प्रसारित हुए वे लगभग समान प्रकार के ही थे और जिन पर उनका प्रभाव पड़ा वह भी लगभग एक समान था। आजकी आधुनिक पश्चिमी ज्ञान शाखाएँ एवं विचारों के प्रभाव की भी यही स्थिति है।
गोलाबारुद, मुद्रण यंत्र और होकायंत्र तेरहवीं या चौदहवीं शताब्दी में यूरोप में आया ऐसा कहा जाता है। एक लंबे अंतराल के बाद कदाचित यूरोप को इसका बहुत बड़ा लाभ मिला हो, परन्तु प्रारम्भ में तो उसके कारण हलचल मच गई होगी। सत्रहवीं एवं अठारहवीं शताब्दी में भारत से आयात होनेवाले सूती कपड़े ने इंग्लैंड के वस्त्र उद्योग को विच्छिन्न कर दिया था। प्राप्य अभिलेखों के अनुसार सन् १७२० में जब तुर्की से इंग्लैंड में शीतला का टीका लाया गया तब उसका बहत विरोध हुआ था एवं वह बहुत बड़े वैद्यकीय एवं धार्मिक वादविवाद का विषय बना था।
इसी प्रकार इंग्लैंड एवं पश्चिम यूरोप में जब वपित्र एवं कृषि के अन्य उपकरण आए, धातुविद्या की नई प्रक्रियाएँ आई, नई वनस्पतियाँ आईं, नई एवं अपूर्वज्ञात खगोलशास्त्रीय जानकारियाँ आईं तब भी उतनी ही हलचल हुई होगी।
फिर भी ब्रिटिशरोंने जब पूना में सन् १७९० के दशक में प्लास्टिक सर्जरी देखी एवं उसी कालखंड में ब्रह्मदेश में तेल के कुएँ देखे एवं उसकी जानकारी इंग्लैंड में पहुंची तब सामाजिक जीवन में इतनी खलबली नहीं मची थी। उसके महत्त्व एवं प्रभाव के विषय में अब चर्चा करने की आवश्यकता नहीं रह गई है। इतनी वह सर्वज्ञात हो गई है।
तेरहवीं शताब्दी से उन्नीसवीं शताब्दी के मध्यभाग तक पश्चिम यूरोप को पूर्व से, विशेषकर एशिया के देशों से अनगिनत विचार एवं कारीगरी प्राप्त हुई है। संभव है कि इनमें से कुछ विचारों का जन्म यूरोप में ही हुआ हो एवं ईसा मसीह के बाद के प्रारम्भ के शतकों में वे लुप्त हो गये हों। इसलिए उनका मूल चाहे जो हो परन्तु जब इन विचारों एवं कारीगरी का आगमन पहली बार यूरोप में हुआ तब उनका प्रबल विरोध हुआ। इतना ही नहीं तो उससे सामाजिक जीवन में भी अस्वस्थता की स्थिति का निर्माण हुआ। फिर भी इन सभी विचारों एवं कारीगरी के कारण यूरोप के सामर्थ्य में वृद्धि ही हुई।
गत कुछ शतकों में यूरोप की सभ्यता ने बहुत सी समस्याओं का निर्माण किया है। उनमें से कुछ तो कभी हल न होने वाली हैं। वे समस्याएँ यूरोप ने स्वयं के लिए तो निर्मित की ही हैं परन्तु इससे भी अधिक गैरयूरोपीय देशों के लिए पैदा की हैं। यूरोप चाहे जितनी चिंता करता हो, चिल्लाता हो, वह चिंता प्रमाणिक भी हो तो भी उसने पर्यावरण के आत्यंतिक प्रदूषण की समस्या तो निर्मित की ही है, परन्तु उसके अतिरिक्त समस्याएँ भी यूरोप के लिए कोई नई नहीं हैं। नया तो यह है कि एक के बाद एक साहस करने में यूरोप गैस्यूरोपिय देशों के लिए एक के बाद एक समस्या का निर्माण करता ही रहा है।
चारसौ पाँचसौ वर्षों से तीसरा विश्व अनेक प्रकार के लाद दिये जानेवाले सकटों का शिकार बनता ही रहा है। जबसे तीसरा विश्व यूरोपीय आधिपत्य, उसकी संगठनात्मक हिकमतों, उसकी व्यूहात्मक रचना आदि का स्वीकार करने लगा तबसे ही ये संकट पैदा हुए हैं। इस आधिपत्य ने तीसरे विश्व को अत्यंत दरिद्र बना दिया है। साथ ही अमेरिका के समान वहाँ की मूल जातियाँ पूर्णतः नष्ट हो गई हैं। इसलिए यह संकट अत्यंत तीव्रता से अनुभव नहीं किया जा सकता है। आज तो तीसरा विश्व ऐसी स्थिति पर पहुँच गया है जहाँ इन सभी संकटों की पराकाष्ठा हो गई है।
जवाहरलाल नेहरू एवं उनके जैसे आज के तीसरे विश्व के विद्वानों के मानस आधुनिक पाश्चात्य विज्ञान एवं टेक्नोलोजी की चमक एवं शक्ति से अभिभूत हो गए हैं, यहाँ तक कि उनकी स्वतन्त्र रूप से सोचने की क्षमता ही जैसे हर ली गई है। यह चमक एकाध शताब्दी से अधिक पुरानी नहीं है, परन्तु शक्ति कुछ शताब्दी पुरानी है। जिस प्रकार, जिस क्षेत्र में, जितने व्यापक रूप में इस शक्ति का प्रयोग हो रहा है वह पश्चिम का रहस्य है। वर्तमान पाश्चात्य विज्ञान एवं तन्त्रज्ञान इस शक्ति का परिणाम है। मुझे लगता है कि यूरोप की शक्ति तथा उसके विज्ञान एवं तन्त्रज्ञान का मूल उसके तत्त्वज्ञान एवं बाईबल की मान्यताओं में है। यूरोप का भूगोल एवं उसकी आवश्यकताओं ने जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में इस तत्त्वज्ञान एवं इन मान्यताओं को स्वीकार करने की परंपरा निर्माण की है। यह उसकी असीम शक्ति का मूल आधार है।
अति प्राचीन काल से भौतिक शक्ति का केन्द्रीकरण करना, यूरोप की संस्कृति का मुख्य लक्ष्य रहा है। इसी लक्ष्य के आधार पर सदियों से यूरोप की समग्र रचना बनी है। इसी लक्ष्य के आधार पर मनुष्य से व्यवहार करने की पद्धति का निर्माण हुआ है। जिस प्रकार यूरोप अन्य देशों के साथ व्यवहार करता है वैसा ही व्यवहार उसने अपने देश के नागरिकों के साथ भी किया है। इंग्लैंड में तो ऐसा बहुत ही बड़े पैमाने पर हुआ है। ऐसा व्यवहार अमेरिका की खोज या यूरोप समुद्रमार्ग से एशिया के देशो में पहुँचा उससे पूर्व का है। यूरोप तो बहुत ही प्राचीनकाल से स्वतन्त्रता, बंधुता एवं समानता में यकीन करता है यह उन्नीसवीं शताब्दी में रेडिकल एवं लिबरल हलचलों द्वारा पैदा की गई बहुत बड़ी भ्रान्ति है।
इतिहास को देखते हुए ऐसा लगता है कि भिन्न भिन्न सभ्यताँए अपनी समकालीन सभ्यताओं से अलिप्त ही रही हैं। केवल अन्य सभ्यताओं की ही नहीं तो अपनी सभ्यता में भी मनुष्य की तो उन्होंने कभी परवाह ही नहीं की है। सैनिकी विजय के फलस्वरूप या अन्य किसी भी रूप में लोगों को गुलाम बनाने की प्रक्रिया हमेशा से अस्तित्व में रही है।
जवाहरलाल नेहरू एवं उनके जैसे आज के तीसरे विश्व के विद्वानों के मानस आधुनिक पाश्चात्य विज्ञान एवं टेक्नोलोजी की चमक एवं शक्ति से अभिभूत हो गए हैं, यहाँ तक कि उनकी स्वतन्त्र रूप से सोचने की क्षमता ही जैसे हर ली गई है। यह चमक एकाध शताब्दी से अधिक पुरानी नहीं है, परन्तु शक्ति कुछ शताब्दी पुरानी है। जिस प्रकार, जिस क्षेत्र में, जितने व्यापक रूप में इस शक्ति का प्रयोग हो रहा है वह पश्चिम का रहस्य है। वर्तमान पाश्चात्य विज्ञान एवं तन्त्रज्ञान इस शक्ति का परिणाम है। मुझे लगता है कि यूरोप की शक्ति तथा उसके विज्ञान एवं तन्त्रज्ञान का मूल उसके तत्त्वज्ञान एवं बाईबल की मान्यताओं में है। यूरोप का भूगोल एवं उसकी आवश्यकताओं ने जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में इस तत्त्वज्ञान एवं इन मान्यताओं को स्वीकार करने की परंपरा निर्माण की है। यह उसकी असीम शक्ति का मूल आधार है।
अति प्राचीन काल से भौतिक शक्ति का केन्द्रीकरण करना, यूरोप की संस्कृति का मुख्य लक्ष्य रहा है। इसी लक्ष्य के आधार पर सदियों से यूरोप की समग्र रचना बनी है। इसी लक्ष्य के आधार पर मनुष्य से व्यवहार करने की पद्धति का निर्माण हुआ है। जिस प्रकार यूरोप अन्य देशों के साथ व्यवहार करता है वैसा ही व्यवहार उसने अपने देश के नागरिकों के साथ भी किया है। इंग्लैंड में तो ऐसा बहुत ही बड़े पैमाने पर हुआ है। ऐसा व्यवहार अमेरिका की खोज या यूरोप समुद्रमार्ग से एशिया के देशो में पहुँचा उससे पूर्व का है। यूरोप तो बहुत ही प्राचीनकाल से स्वतन्त्रता, बंधुता एवं समानता में यकीन करता है यह उन्नीसवीं शताब्दी में रेडिकल एवं लिबरल हलचलों द्वारा पैदा की गई बहुत बड़ी भ्रान्ति है।
इतिहास को देखते हुए ऐसा लगता है कि भिन्न भिन्न सभ्यताँए अपनी समकालीन सभ्यताओं से अलिप्त ही रही हैं। केवल अन्य सभ्यताओं की ही नहीं तो अपनी सभ्यता में भी मनुष्य की तो उन्होंने कभी परवाह ही नहीं की है। सैनिकी विजय के फलस्वरूप या अन्य किसी भी रूप में लोगों को गुलाम बनाने की प्रक्रिया हमेशा से अस्तित्व में रही है।
बहुत बड़े पैमाने पर मनुष्य को गुलाम बनाने की प्रवृत्ति यूरोपीय सभ्यता का प्रमुख लक्षण है। बहुत ही विशाल पैमाने पर लोगों को गुलाम बनाया जाता था। सोलहवीं, सत्रहवीं, एवं अठाहरवीं शताब्दी में गुलामों का व्यापार होता था, केवल उसी को याद करना पर्याप्त है। इससे भी पूर्व ग्रीक एवं रोमन साम्राज्य के काल में भी इसी प्रकार होता था यह बात समझने की आवश्यकता है। आफ्रिका से गुलाम के रूप में लाखों लोगों को पकड़कर लाया जाता था। उसे 'शाही व्यापार' की संज्ञा फर्नाड ब्रोडेल ने दी है। प्लेटो ने गुलामों के साथ किए जानेवाले कठोर व्यवहार की निंदा की है, परन्तु एक वर्ग के रूप में गुलामों का तिरस्कार भी किया है, एवं गुलामी की व्यवस्था का उसने स्वीकार भी किया है। एथेन्स सहित समग्र ग्रीस में, लोकतांत्रिक ग्रीस में गुलाम ही शारीरिक या कारीगरी की मजदूरी करते थे।
समय बीतने पर गुलामी निरस्त हुई एवं उमरावशाही ने उसका स्थान लिया। उमरावशाही की जड़ें अनेक हैं, वे सभी विवाद का विषय भी हैं। इंग्लैंड में तो ग्यारहवीं शताब्दी के मध्य में नोर्मन विजय के बाद उमरावशाही प्रस्थापित हुई। अन्य देशों में उसके प्रस्थापित होने के अनेक कारण हैं। कार्ल मार्क्स, फ्रेडरिक एन्जल्स, एवं अन्यों के मतानुसार टेक्नोलोजी में होनेवाला बड़ा परिवर्तन भी एक कारण है। अब तक गुलामों की जो स्थिति थी वही अब सर्फ एवं विलियन्स के रूप में पहचाने जानेवाले विशाल संख्या के लोगों की थी। जिनकी संपत्ति में वृद्धि हुई उनकी सत्ता में भी वृद्धि हुई। सत्ता एवं संपत्ति ने मिलकर यूरोप में विशाल भवन एवं जहाजों का निर्माण करके और अधिक संपत्ति प्राप्त करने का जतन किया।
यूरोप ने विश्वविजय के परिणाम स्वरूप औद्योगिकरण किया। अठारहवीं शताब्दी के अंत में शुरू हुआ औद्योगिकरण ऐसे विजय के बिना संभव ही नहीं था। यह तो निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि विजय के फलस्वरूप नई खोजें, नई टेक्नोलोजी की आवश्यकता का निर्माण हुआ। जो हमेशा कहा जाता है कि युद्धों के कारण विज्ञान एवं तन्त्रज्ञान को गति प्राप्त होती है वह यूरोप के अंतिम कुछ शताब्दियों के अनुभवों का ही परिणाम है।
अर्थात् आधुनिक विज्ञान गुलामी प्रथा, उमरावशाही, विश्वविजय एवं अत्याचार तथा आधिपत्य की ही उपज है। इनके लक्षण समान हैं। पिछले २००० वर्षों की अपेक्षा आज के यूरोप का चेहरा एकदम भिन्न लगता हो तो भी उसकी असलियत वही है। महात्मा गांधी को एक बार कहा गया था कि 'प्रत्येक अमेरिकन के पास ३६ गुलाम हैं क्यों कि उसके पास जो यंत्र है वह ३६ गुलामों के बराबर काम करता है। प्राचीन यूरोप की अपेक्षा यह बहुत प्रगतिशील स्थिति मानी जाएगी क्यों कि एक ग्रीक नागरिक की आवश्यकता १६ गुलामों की थी। १९३० के दशक में लगभग प्रत्येक अमेरिकन नागरिक अधिकारों से सज था एवं प्राचीन ग्रीस में नागरिक को जो सुविधाएँ प्राप्त होती थीं उससे कहीं अधिक सुविधाएँ उसे प्राप्त थीं। अमेरिका में मनुष्य के रूप में तो गुलामी निरस्त हो गई, परन्तु गुलामी का विचार निरस्त नहीं हुआ, इतना ही नहीं उसने अधिक आकर्षक रूप धारण किया। महात्मा गांधी को जब उपरोक्त वाक्य कहा गया तब उनका उत्तर था कि 'ठीक है, अमेरिकनों को गुलामों की आवश्यकता होगी, हमें नहीं। हम मानवता को गुलाम बनानेवाला औद्योगिकरण कर ही नहीं सकते।'
साफ शब्दों में कहें तो पाश्चात्य सभ्यता, सभी के अस्तित्व को निगल जाना चाहती है। इसलिए नहीं कि उसे अपना अस्तित्व टिकाए रखना है बल्कि इसलिए कि उसकी क्षुधा कभी भी शान्त न होने वाली है।
यूरोप अपनी इस वृत्ति से अनजान है एवं यह सब अनजाने में ही हो गया है, ऐसा बिलकुल नहीं है। कभी कभी यूरोप ने अपने आप को सुधारने का प्रयास किया है, परन्तु ऐसे प्रयास अधिक से अधिक दिशा बदलने के लिए ही हुए हैं। उसके बल का उपयोग करके सब कुछ स्वाहा करने की एकमात्र वृत्ति बदलना उसे कभी नहीं सूझा।
इसलिए आधुनिक विज्ञान की भाषा एवं उद्देश्य वही पुरानी गुलामीयुक्त सभ्यता, उमरावशाही एवं विश्वविजय के जमाने जैसे ही है।
तीसरे विश्व में प्रचलित आधुनिक विज्ञान एवं तन्त्रज्ञान विषयक कल्पनाएँ भी कुछ नई नहीं हैं। चालीस वर्ष पूर्व पंडित जवाहरलाल नेहरू ने कहा, 'मैं ट्रेकटर्स एवं विशाल यंत्रसामग्री की पूर्ण रूप से तरफदारी करता हूँ।' उनका मत था कि, अद्ययावत् टेक्नोलोजी पर आधारित अर्थतन्त्र ही प्रभावी अर्थतन्त्र बन सकता है। अतः टेक्नोलोजी और विशाल यंत्रसामग्री के जो कुछ भी परिणाम हों उसे हमें स्वीकार करना ही पड़ेगा।
उससे भी दस वर्ष पूर्व नेहरू अधिक मुखर थे। अपनी आत्मकथा में उन्होंने लिखा, 'मुझे व्यक्तिगत रूप से कोई सन्देह नहीं है कि आधुनिक औद्योगिक संस्कृति का विरोध करने के हिन्दू या मुस्लिम किसी भी प्रकार के प्रयास असफल ही रहेंगे। मैं इस असफलता को खेद के किसी भी प्रकार के भाव के बिना ही देखंगा।'
पंडित नेहरू समझदार व्यक्ति थे। उनकी देशभक्ति के विषय में सन्देह नहीं किया जा सकता। उन्हें अपने एशियन होने पर गर्व था। उन्हें तीसरे विश्व का नागरिक होने पर भी गर्व था। वे पश्चिम को जानते थे। पाश्चात्य सभ्यता के भयंकर प्रभाव को भी वे जानते थे। फिर भी आधुनिक विज्ञान एवं टेक्नोलोजी की उपजों के प्रति उनका आकर्षण एवं उसकी क्षमता में उनका विश्वास भी अमर्याद थे एवं हम जानते हैं कि इतने मतभेदों के बावजूद भी पंडित नेहरू २४ वर्ष तक महात्मा गाँधी के निकटतम अनुयायी भी थे।
इस बात से तो सभी सम्मत हैं कि आधुनिक पश्चिमी सभ्यता, उसका राज्यतन्त्र एवं उसके विज्ञान एवं टेक्नोलोजी का गाँधीजी से अधिक कठोर आलोचक और कोई नहीं था। महात्मा गांधी को उनके यूरोप के प्रारम्भिक सम्पर्क के दौरान बेचैन करनेवाला कोई तत्त्व था तो वह था यूरोप, एवं खास कर इंग्लैंड का अपने ही लोगों के साथ किया जानेवाला व्यवहार। इंग्लैंड के शासक जिस तरह से नागरिकों के आत्मगौरव एवं मर्यादा पर आघात करते थे, जिस तरह मनुष्यों को एक व्यवस्था के ढांचे में जकड़ लिया जाता था, उसे देखकर गाँधीजी को अधिक दुःख होता था। अंग्रेज भारत को नुकसान पहुंचा रहे थे इसके दुःख से भी यह दु:ख महत्तर था। देश को होनेवाले नुकसान का तो वे अपनी देशभक्ति से मुकाबला कर सकते थे परन्तु इंग्लैंड के ही लोगों का अपमान तो उनका मानवता के प्रति अपराध था। उसे देखकर ही उन्होंने निश्चय किया कि उनका देश एवं अन्य जो भी कोई उनकी इस भावना से सहमत होगा उनका ऐसी सभ्यता के साथ किसी प्रकार का कोई संबंध नहीं होगा। परन्तु अपनी यह भावना वे पंडित नेहरू जैसे लोगों में नहीं जगा पाए।
स्पष्ट है कि तीसरे विश्व के शासक एवं विद्वान आधुनिक विज्ञान से अभिभूत हो गए हैं,हतप्रभ हो गए हैं। उसकी चमक उनमें आकर्षण पैदा करती है, उसकी शक्ति उन्हें यूरोप के नेताओं एवं उद्योगपतियों का अनुकरण करने के लिए प्रेरित करती है। परन्तु ऐसा मानना कि वे आधुनिक विज्ञान के सभी दावों एवं भ्रमों में भी विश्वास करते हैं उनके साथ अन्याय करना होगा। कदाचित् ४० वर्ष पूर्व उनमें ऐसा विश्वास होगा, परन्तु वर्तमान समय में तो आंतरिक एवं बाह्य कारकों के विरुद्ध उत्पन्न विवशता के कारण एवं स्वंय (अपने) विद्वानों की वैकल्पिक आकर्षक व्यवस्था निर्माण की एवं उसे प्रतिष्ठित करने की अक्षमता के कारण तीसरा विश्व, अपने विद्वान एवं राष्ट्र निर्माताओं सहित आधुनिक विज्ञान एवं तकनीक एवं उससे भी ज्यादा उसके साथ अविनाभाव से संबंधित ढाँचे एवं व्यवस्था के अजगरमुख में धंसता जा रहा है। कम से कम भारत के विषय में तो यह सच ही है।
हम आधुनिक विज्ञान के अनिष्टों के विषय में दुःख व्यक्त करते हैं वह आज पश्चिम में उसे लेकर जो प्रश्नचिह्न खड़े हुए हैं उससे सुसंगत होगा, परन्तु जिस प्रकार के प्रश्न उठाए जाते हैं उससे तो आधुनिक विज्ञान अधिक सामर्थ्यवान बनता है। यदि उसके गैरयूरोपीय विकल्पों का निर्माण करना है तो भारत की स्वतन्त्रता प्राप्त करने के लिए महात्मा गांधी द्वारा दर्शाए एवं अपनाए गए मार्ग पर चलना होगा।
तीसरा विश्व आधुनिक पाश्चात्य विज्ञान के स्थान पर जो विकल्प खोजेगा उसका स्वरूप भिन्न भिन्न प्रदेशों में भिन्न भिन्न होगा। भौगोलिक रूप से तीसरा विश्व बहुत ही विशाल है। उसमें भिन्न भिन्न प्रदेशों की जलवायु, वृक्ष, अपनी देशभक्ति से मुकाबला कर सकते थे परन्तु इंग्लैंड के ही लोगों का अपमान तो उनका मानवता के प्रति अपराध था। उसे देखकर ही उन्होंने निश्चय किया कि उनका देश एवं अन्य जो भी कोई उनकी इस भावना से सहमत होगा उनका ऐसी सभ्यता के साथ किसी प्रकार का कोई संबंध नहीं होगा। परन्तु अपनी यह भावना वे पंडित नेहरू जैसे लोगों में नहीं जगा पाए।
स्पष्ट है कि तीसरे विश्व के शासक एवं विद्वान आधुनिक विज्ञान से अभिभूत हो गए हैं,हतप्रभ हो गए हैं। उसकी चमक उनमें आकर्षण पैदा करती है, उसकी शक्ति उन्हें यूरोप के नेताओं एवं उद्योगपतियों का अनुकरण करने के लिए प्रेरित करती है। परन्तु ऐसा मानना कि वे आधुनिक विज्ञान के सभी दावों एवं भ्रमों में भी विश्वास करते हैं उनके साथ अन्याय करना होगा। कदाचित् ४० वर्ष पूर्व उनमें ऐसा विश्वास होगा, परन्तु वर्तमान समय में तो आंतरिक एवं बाह्य कारकों के विरुद्ध उत्पन्न विवशता के कारण एवं स्वंय (अपने) विद्वानों की वैकल्पिक आकर्षक व्यवस्था निर्माण की एवं उसे प्रतिष्ठित करने की अक्षमता के कारण तीसरा विश्व, अपने विद्वान एवं राष्ट्र निर्माताओं सहित आधुनिक विज्ञान एवं तकनीक एवं उससे भी ज्यादा उसके साथ अविनाभाव से संबंधित ढाँचे एवं व्यवस्था के अजगरमुख में धंसता जा रहा है। कम से कम भारत के विषय में तो यह सच ही है।
हम आधुनिक विज्ञान के अनिष्टों के विषय में दुःख व्यक्त करते हैं वह आज पश्चिम में उसे लेकर जो प्रश्नचित खड़े हुए हैं उससे सुसंगत होगा, परन्तु जिस प्रकार के प्रश्न उठाए जाते हैं उससे तो आधुनिक विज्ञान अधिक सामर्थ्यवान बनता है। यदि उसके गैरयूरोपीय विकल्पों का निर्माण करना है तो भारत की स्वतन्त्रता प्राप्त करने के लिए महात्मा गांधी द्वारा दर्शाए एवं अपनाए गए मार्ग पर चलना होगा।
तीसरा विश्व आधुनिक पाश्चात्य विज्ञान के स्थान पर जो विकल्प खोजेगा उसका स्वरूप भिन्न भिन्न प्रदेशों में भिन्न भिन्न होगा। भौगोलिक रूप से तीसरा विश्व बहुत ही विशाल है। उसमें भिन्न भिन्न प्रदेशों की जलवायु, वृक्ष, वनस्पति, एवं लोगों में विविधता बहुत बड़े पैमाने पर है। तीसरे विश्व के लोगों में इतिहास के संदर्भ में तो बहुत बड़ा अंतर एवं विविधता पाई जाती है। इतने अधिक विभिन्नता वाले देशों को एक सूत्र में पिरोनेवाला यदि कोई तथ्य है तो वह यह है कि सभी समान रूप से गत १५०० वर्षों से यूरोपीयन सभ्यता के शिकंजे में जकड़े हुए हैं, परन्तु प्रत्येक देश की इस जकडन की अनुभूति भिन्न है। अलग अलग समय में अलग अलग प्रदेश पर अलग अलग मात्रा में इस जकडन का प्रभाव रहा है। इस विषय में भी सभी देशों में एक समानता है तो वह है सामान्य मनुष्य के आत्मगौरव पर बहुत बड़ा आघात हुआ है, उनके व्यक्तिगत या सामूहिक रूप से कुछ भी कर सकने के सामर्थ्य को कुचल दिया गया है, उनके पर्यावरण की हानि हुई है, उनका उत्पादन एवं अर्थतन्त्र यूरोप के अधीन हो गया है, उनके विद्वान देश के सामान्य जन से विमुख हो गए हैं एवं बड़ी संख्या में लोग गरीब हो गए हैं। इसलिए हो सकता है कि इन सभी का समान लक्ष्य यह बने कि किस प्रकार इस अभूतपूर्व अस्वस्थता पर विजय प्राप्त करके खोया हुआ संतुलन तथा गौरव वापस प्राप्त किया जा सके एवं इसके बाद वैविध्य एवं भिन्नता होने के बावजूद एक प्रकार के बंधुत्व की स्थापना की जा सके। यह बंधुत्व तीसरे विश्व के साथ हो और वह और ज्यादा मजबूत भी हो। यद्यपि इस प्रक्रिया का स्वरूप प्रत्येक प्रदेश के लिए अलग अलग होगा। परन्तु उसके नमूने के रूप में किसी एक प्रदेश में, उदाहरण के तौर पर भारत में यह प्रक्रिया कैसी होगी इसके विषय में चर्चा की जा सकती है।
यूरोपीय आधिपत्य में आने से पूर्व भारत में बहुत ही समृद्ध कृषि एवं विभिन्न प्रकार के अत्यंत विकसित उद्योगक्षेत्र थे। सन् १८०० तक तो भारत की कृषि उपज उस समय के इंग्लैंड की कृषि उपज से तीन गुना थी। औद्योगिक सामर्थ्य का पता इस बात से चलता है कि उस काल में भारत लगभग १,००,००० टन उत्तम प्रकार के इस्पात का निर्माण करता था।
उससे पूर्व छहसौ सातसौ वर्ष अर्थात् ग्यारहवीं से सत्रहवीं शताब्दी तक पश्चिम भारत एवं उत्तर भारत अनेक प्रकार के आक्रमणों का शिकार बनते 2 रहे हैं। इन आक्रमणों एवं उसके बाद के आक्रमकों का शासन ग्रामीण एवं नगरीय क्षेत्रों में असंतोष एवं परेशानी का कारण बना। साथ ही ये क्षेत्र धार्मिक असहिष्णुता का भी शिकार बने। ऐसे शासन का एक परिणाम यह हुआ कि शासन एवं समाज के आपसी संबंध टूटने लगे, क्यों कि शासन एक संकल्पना के अनुसार चलता था, समाज की जीवनशैली दूसरी संकल्पना के अनुसार चलती थी। फलस्वरूप समाज व्यवस्था कमजोर पड़ गई। फिर भी समाज की जीवनशैली एक सीमा तक बनी रही। आक्रमणों के आघात का लगभग समग्र देश में अनुभव हो रहा था। फिर भी लगभग अठारहवीं शताब्दी तक समाज प्राचीनकाल से प्रस्थापित मूल्यों एवं परंपराओं के आधार पर ही चलता था। व्यक्तिगत एवं सामाजिक जीवन, एवं राजनैतिक व्यवस्थाएँ लगभग वही थीं। इसलिए १७५० से १८५० के सौ वर्षों में यूरोपीय विस्तारवाद का सबसे अधिक एवं सबसे सशक्त प्रतिरोध भी उत्तर एवं पश्चिम भारत ने ही किया था।
सन् १७५० से १८०० तक दक्षिण एवं मध्यभारत लगभग स्वतन्त्र था। हमलों का प्रभाव कुछ कम था। इसलिए वहां की मौलिकता एवं सत्त्व आज भी पर्याप्त मात्रा में सुस्थिति में लगता है। ये क्षेत्र यूरोपीय शैली एवं रीतिरिवाजों से कम प्रभावित हुए लगते हैं। साथ ही स्वत्व बनाए रखकर यूरोपीय ज्ञान एवं विज्ञान का अपने उद्देश्य के अनुरूप उपयोग भी वे कर सकते हैं।
समृद्ध कृषि एवं विशाल औद्योगिक परंपरा के कारण भारत आज भी अपनी अर्थ व्यवस्था अपनी ही पद्धति से समर्थ रूप में कर सकता है। अपनी उत्पादन क्षमता पुनः बढ़ा सकता है। भले ही दो सौ वर्ष अवनति के, विनाश के एवं निराशा के बीते हैं तो भी भारत में पुनः उत्थान की क्षमता है ही। कम से कम दैनन्दिन उपयोग की वस्तुएँ तो विपुल मात्रा में बनाई ही जा सकती हैं। सबसे पहले सामाजिक, पर्यावरणीय एवं तकनीक की दृष्टि से अत्यंत हानिकारक पद्धतियाँ एवं उस से होनेवाला वस्तुओं का उत्पादन सर्वथा बंद कर देना चाहिए। उसी प्रकार बीज, पौधे, एवं अन्य वस्तुएँ, जो भारत पर जबरदस्ती लादी जा
References
भारतीय शिक्षा : वैश्विक संकटों का निवारण भारतीय शिक्षा (भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला ५), प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे