आर्थिक हत्यारे की स्वीकारोक्ति
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अध्याय २१
- जोन पर्किन, सं. वेलजीभाई देसाई
अमेरिका को आज नम्बर वन कहा जाता है। परन्तु इसे नम्बर वन कौन कहते हैं ? यह स्वयं ही और अपने जसे हीनता बोध से पीड़ित भोले व अज्ञानी लोग। वास्तव में अमेरिका जैसा निर्दयी, लोभी और हिंसक देश दुनियाँ में दूसरा नहीं है। शोषण, लूट, हिंसा, भ्रष्टाचार, अनीति, कामुकता, पशुता, असुरता - ऐसी एक भी बात नहीं है जिसमें अमेरिका का व्यवहार देखकर हमें कँपकँपी न छूट आये, और हम भयभीत न हो जाये। दुनियाँ को लूटने का अमेरिका ने एक ऐसा जाल बुना है जिसमें पढ़े लिखे और विद्वान लोग, धनवान लोग, आतंकवादी और सत्ताधीश भी शामिल हैं। यह सारी हिंसक और घातक गतिविधियों को उसने सुनहरा रूप और सुनहरे नाम दिये हैं जिनसे वह दुनियाँ को ठगता है। इस घातक गतिविधि में शामिल एक आर्थिक हत्यारे जोन परकीन्स की लिखी हुई पुस्तक के कुछ अंश यहाँ प्रस्तुत हैं, जिसका भावानुवाद राजकोट के उद्योगपति श्री वेलजीभाई देसाई ने किया है।
(१) आर्थिक हत्यारे उच्च वेतन पाने वाले लोग होते हैं । वे सारी दुनियाँ का शोषण कर हजारों अरब डॉलर की लूट करते हैं । विश्व बैंक, अन्तरराष्ट्रीय विकास के लिए बनी यु.एस. एजेन्सी और विदेशी ‘मदद' के लिए स्थापित संस्थाओं में से सम्पूर्ण धन वे आर्थिक हत्यारे पृथ्वी की प्राकृतिक सम्पत्ति का अंकुश जिनके हाथों में है ऐसे विशाल कोर्पोरेशनों की तिजोरियों में और कुछ अरबपति कुटुम्बों की जेबों में ले जाते हैं । ये आर्थिक हत्यारे पैसे के हिसाब की रिपोर्ट तैयार करके चुनावों में प्रपंच रच कर हारजीत करवाते हैं, बहुत बड़ी रकम रिश्वत में देकर, जोर-जबरदस्ती करके, सेक्स के लिए स्त्रियों का उपयोग करके तथा आवश्यकता पड़ने पर हत्या करवाकर भी अपनी गतिविधियाँ करते रहते हैं । पुराने समय में साम्रज्य जो जो गन्दी चालें चला करते थे, उनसे भी अधिक आज के वैश्विकरण के युग में ये गन्दी चालें, जिनकी हम तो कल्पना भी नहीं कर सकते, भयानक मात्रा में बढ़ गई हैं। मैं ऐसा ही एक आर्थिक हत्यारा था । - जोन परकीन्स
(२) ईक्वाडॉर देश के प्रमुख जेइम रोल्दोस और पनामा के प्रमुख जोमार टोरीजोस ये दोनों विमान में आग लगने से मरे । उनकी मृत्यु अकस्मात नहीं हुई थी। उन्हें मरवाया गया था । क्यों कि वैश्विक साम्राज्य स्थापित करना चाहने वाले कोर्पोरेशन, अमेरिकन सरकार और बैंकों के उच्च अधिकारियों को साथ देने का इन्होंने विरोध किया था । रोल्दोस और टोरीजोस को सीधा करने के प्रयास जो आर्थिक हत्यारों ने किये थे, वे विफल हुए। इसलिए अमेरिकन जासूसी संस्था (CIA) के अधिकृत गुण्डों ने यह काम हाथ में लिया था।
(३) मुझे यह पुस्तक न लिखने के लिए समझाया गया । गत २० वर्षों में मैंने यह पुस्तक चार बार लिखने का प्रयत्न किया, परन्तु धमकियों अथवा रिश्वत की बहुत बड़ी रकम के कारण पुस्तक लिखना बन्द करने की बात मैं मान गया था। जब मैंने यह पुस्तक लिख दी तो एक भी प्रकाशक ने इसे छापने की हिम्मत नहीं दिखाई। उन्होंने मुझे सुझाया कि इसे मैं उपन्यास के रूप में लिख दूँ तो वे छाप देंगे । किन्तु मैंने उन्हें कहा कि ये कोई उपन्यास नहीं हैं, मेरे जीवन की यह सत्य घटना है । मैं आज जिस स्थिति में हूँ, वहाँ आर्थिक हत्यारे की भाँति काम करके किस प्रकार पहुँचा, इसकी सत्य घटना है, जिसका कोई हल न निकाल सके, ऐसी आपात स्थिति में यह दुनिया कैसे आ गई, उसकी सत्य घटनाएं हैं। इस दुनिया में प्रतिदिन भूख से २४,००० लोग मर जाते हैं। ऐसा क्यों होता है इसकी वास्तविकताएँ इसमें हैं । दुनियाँ के इतिहास में पहली बार ही ऐसा हुआ है कि एक ही देश के पास में दुनिया को जैसे नचाना हो वैसे नचा सके ऐसी शक्ति, सत्ता और धन आ गया है । यह देश है युनाइटेड स्टेट्स ऑफ अमेरिका, जहाँ मैं जन्मा हूँ और जहाँ आर्थिक हत्यारे के पद पर मैंने काम किया है।
(४) इस पुस्तक के प्रकाशक ने मुझे पूछा कि तुम वास्तव में 'आर्थिक हत्यारा' कहलाते हो ? मैंने उसे पक्का विश्वास दिलाया कि हाँ हम आर्थिक हत्यारे के रुप में ही पहचाने जाते हैं। परन्तु Economic Hit Man यह पूरा नाम बोलने के स्थान पर EHM संक्षेप में ही बोलते हैं । मेरे कार्य की जानकारी मेरी पत्नी को भी नहीं हो सकती। एकबार हमने 'आर्थिक हत्यारा' के रुप में प्रवेश ले लिया, तो पूरी जिन्दगी के लिए अन्दर ही रहना अनिवार्य बन जाता है।
(५) मेरा काम दुनिया के नेताओं को यह समझाना था कि अमेरिका ने दुनिया को लूटकर विश्व साम्राज्य खड़ा करने का जो जाल बिछाया है, उस लूट के खेल में वे नेता भी शामिल हो जायें । आखिर ये सभी नेता कर्ज के जाल में फँस जाते हैं। यह उनकी वफादारी की निश्चितता मानी जाती है। बाद में तो चाहे तब हम हमारी राजकीय,
आर्थिक या सेना की जरुरतों के लिए उनके पास निश्चित किया हुआ काम करवा सकते हैं, बदले में वे औद्योगिक क्षेत्र, पॉवर प्लान्ट, एयरपोर्ट आदि अपने देश में स्थापित कर विकास का भ्रम खड़ा करके अपनी राजकीय स्थिति मजबूत करते हैं, परन्तु अमेरिका की इन्जीनीयरिंग और निर्माण कार्य की कम्पनियों के मालिक हमारी कल्पना से भी अधिक धनवान बन जाते हैं।
(६) आज हम जूनून से चल रही इस हिंसक पद्धति के परिणाम देख सकते हैं। अत्यधिक सम्मान पाने वाले हमारी कम्पनियों के अधिकारी एशिया में गुलाम जितने मामूली वेतन पर अमानवीय स्थिति में लोगों से काम करवाते हैं । तेल कम्पनियाँ जानबूझ कर स्वच्छ नदियों में टोक्सिन डालती है और प्रजाको, प्राणियों को और वनस्पतियों को जानबूझकर मार कर प्राचीन संस्कृति का वंश समाप्त करने का काम करते हैं। दवा कम्पनियाँ एड्स से पीड़ित लाखों अफ्रिकन लोगों को जीवन रक्षक दवायें देने से मना करते हैं। हमारे अपने देश अमेरिका में भी १२० लाख लोग शाम को क्या खाउँगा इस चिन्ता में जीते हैं । उर्जा क्षेत्र में एनरोन और हिसाब के क्षेत्र में एण्डरसन जैसी अप्रामाणिक और लुटेरु कम्पनियाँ पैदा होती हैं । सन १९६० में दुनिया की बस्ती में सबसे अधिक धनवान २०% लोगों की आय सबसे गरीब २०% लोगों की आय की तुलना में ३० गुणा अधिक थी, वह १९९५ में ७८ गुणा अधिक हो गई। अमेरिका ईराक के युद्ध में ८७ अरब डोलर खर्च करता है। इससे आधी रकम में सारी दुनिया की सम्पूर्ण प्रजा को स्वच्छ जल, पर्याप्त भोजन, चिकित्सा सेवायें और आधारभूत शिक्षा दे सकते हैं ऐसा युनाइटेड नेशन्स का मानना है।
(७) हमें आश्चर्य होता है कि आतंकवादी हम पर हमला क्यों करते हैं ? हम जो व्यवस्थित षडयंत्र चलाते हैं, उसके कारण आतंकवाद जन्म लेता है ऐसा कुछ लोग दोष देंगे। इतनी सीधी सादी बात हो तो अच्छा ही है। षडयंत्रकारी लोगों को ढूँढकर उनका न्याय तौल सकते हैं। परन्तु यह पद्धति षडयंत्र की तुलना में बहुत अधिक भयंकर ऐसी कोई वस्तु से विकसित हो रही है। यह कुछ लोगों की टोली से नहीं चलता, अपितु यह एक विचार या सिद्धान्त से चलता है, जो सनातन सत्य वेदवाक्य की भाँति सर्वत्र स्वीकृत होता है। वह सिद्धान्त यह है।।
“कोई भी आर्थिक विकास मानव जाति के लिए लाभदायी है। जैसे आर्थिक विकास अधिक, उतना ही अधिक लाभ ।' इस सिद्धान्त में से एक दूसरा फलित सिद्धान्त खड़ा हुआ है । “जो लोग इस आर्थिक विकास की अग्नि को प्रज्वलित रखने में अगुवा हैं, उन्हें गौरव और सम्पत्ति मिलनी चाहिए। जबकि जो लोग सामान्य मनुष्य के रुप में जन्मे हैं, वे सभी शोषण के योग्य हैं।'
यह सिद्धान्त अत्यन्त भयानक है। हम जानते हैं कि अनेक देशों में आर्थिक विकास उस देश के मुठ्ठी भर धनवानों का लाभ करता हैं। जबकि अधिकांश प्रजा के लिए वे अत्यन्त खराब स्थिति पैदा करते हैं। पूर्व वर्णित सिद्धान्त की मान्यता ऐसी है कि इस पद्धति से चलने वाले उद्योगों के प्रमुखों को विशेष दर्जा मिलना चाहिए। इस प्रावधान के कारण इसका असर अधिक मजबूत बनता जाता है। इस मान्यता में ही हमारी वर्तमान की अनेक समस्याओं की जड़ विद्यमान है। दुनिया को लूटने के भाँति-भाँति के षडयंत्र पैदा होने का कारण भी यह मान्यता ही है। जब धन के लोभ को बडा पुरस्कार मिलता है तब लोभ स्वयं समाज को बिगाड़ने वाला कारक बन जाता है। जब हम पृथ्वी के संसाधनों के बेतहाशा उपभोग का सन्त के जैसा गुणगान करेंगे, जब हम अपने बालकों को असाधरण सुखी जीवन जीने की स्पर्धा करना सिखायेंगे और जब हम अधिकांश लोगों को एक धनवान छोटे समूह के गुलाम के रुप में तुच्छ मानेंगे हैं तब हम स्वयं मुश्किलों को निमन्त्रण ही देंगे।
वैश्विक साम्राज्य खड़ा करने के पागलपन में कोर्पोरेशन, बैंक और सरकार (ये सब मिल कर कोर्पोरेटोक्रेसी) स्वयं आर्थिक और राजकीय प्रभाव और दबाव को उपयोग में लेकर जैसा ऊपर बताया है, वह गलत सिद्धान्त और उसमें से फलित होने वाले उपसिद्धान्त को ही अपने स्कूलों में पढ़ाया जाये, व्यापार में यही प्रचलित रहे और मीडिया में भी इसी के गुणगान गाये जायें, इसका विशेष ध्यान रखा जाता है। यह कोर्पोरेटोक्रेसी अर्थात् कम्पनीशाही को हम खींच कर इस स्तर पर ले आये हैं कि हमारी वैश्विक संस्कृति एक राक्षसी मशीन बन गई है, जो हमेशा अधिक से अधिक ईंधन माँगती है, यहाँ तक कि वह सारी वस्तुएँ खा जायें और हमारा ही नाश करे । यह कोर्पोरेटोक्रेसी का सबसे महत्त्वपूर्ण काम इस पद्धति को लगातार मजबूत करते रहना और उसको फैलाना है। इस काम के लिए मेरे जैसे आर्थिक हत्यारों को कल्पना से भी परे भारी वेतन दिया जाता है । यह सब होते हुए भी हम जहाँ कमजोर पड़ते हैं, वहाँ सच में खूनी गुण्डों को काम सौंप देते हैं और वे भी अगर काम न कर पायें तो सेना द्वारा आक्रमण करवा दिया जाता है।
References
भारतीय शिक्षा : वैश्विक संकटों का निवारण भारतीय शिक्षा (भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला ५), प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे