Dharmik Cultural Ethos (धार्मिक कला दृष्टि)
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भारत में वर्तमान वास्तव
गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने यूरो-अमरीकी श्रोताओं के सामने कला की व्याख्या करने से इनकार कर दिया। शायद उन्हें लगा होगा कि वहाँ के लोग कला की धार्मिक (भारतीय) व्याख्या को समझ नहीं पाएँगे। भारत में भी उपस्थित अधार्मिक (अभारतीय) वातावरण के कारण वर्तमान में कला को मनुष्य का उन्नयन करने का माध्यम कम ही समझा जाता है। ऐसा समझनेवाले लोगों की संख्या तो किसी भी काल में अल्प ही होती है। लेकिन भारत में जिस कृति से मानव का उन्नयन नहीं होता उसे कला के अग्रणी लोग कला नहीं मानते थे। भारत में सामान्य लोग समझते थे की वे सामान्य हैं, उन्हें उन्नयन के लिए कला क्षेत्र के अग्रणी लोगों का अनुसरण करने में अपना हित दिखता था।
किन्तु गुलामी के काल की १० पीढ़ियों की अंग्रेजी शिक्षा, स्वाधीनता के बाद की लगभग ४ पीढ़ियों की वर्तमान की यूरो अमरीका से प्रभावित शिक्षा ने और तथाकथित लोकतंत्र ने समाज के सर्वसामान्य व्यक्ति के मन में भी ‘वह और विद्वान समान हैं’ ऐसी मिथ्या धारणा को स्थिर कर दिया है। बहुमत तो हमेशा ही सर्वसामान्य लोगों का ही होता है, फिर वह लोकतंत्र हो या राजतंत्र। ऐसी स्थिति में बहुमत के प्रभाव में कला के क्षेत्र को वासनाओं तथा अश्लीलता के तथा हिंसा और क्रूरता जैसी हीन भावनाओं (Lower Instincts) के उद्दीपन का साधन ही मान लिया गया है। इन्द्रियजन्य सुख को ही एकमात्र सुख माननेवाले सामान्य जनों के उन्नयन के लिए कलाकृतियाँ बनती भी हैं तो उन्हें लोग अपवाद के रूप में ही पसंद करते हैं। अन्यथा ऐसी कलाकृतियाँ उपेक्षा की बलि चढ़ जातीं हैं।
कम्युनिस्ट या पूंजीवाद जैसे तथाकथित आधुनिक यूरो अमरीकी मजहबों ने कला के क्षेत्र में नीरी भौतिकवादिता के पीछे शक्ति खडी की है। ईसाईयत और इस्लाम इन मजहबों ने तो कलाओं को या तो वर्जित मान लिया है या कलाओं को इन्द्रियजन्य भौतिक सुखों का साधन मान लिया है। इन दोनों मजहबों में मानव की सर्वोच्च उपलब्धि हेवन या जन्नत मानी गयी है। उनकी हेवन या जन्नत की कल्पनाएँ नीरी भौतिकवादी कल्पनाएँ हैं। व्यक्ति केंद्री याने व्यक्ति के इन्द्रियजन्य सुख को या स्वार्थ को प्रधानता देनेवाली है।
भारतीय समाज ने मानव जीवन को धर्म का साधन माना है। मानव जीवन को मोक्ष की या परमपद प्राप्ति का स्वर्ण अवसर माना है। इसीलिये प्राचीन काल से ही भारत में १४ विद्याओं और ६४ कलाओं का विकास धर्माचरण करने के लिए शरीर यह एक महत्वपूर्ण साधन है। इस दृष्टि से और इस सीमा तक ही शरीर और इन्द्रियों के सुख का विचार कलाओं में किया जाता था। शरीर को मानव जीवन की हीन भावनाओं में लिप्त होने से बचाकर उस के आध्यात्मिक उन्नयन के लिए कलाओं का विकास हुआ है। ये विद्याएँ और कलाएं मंदिरों से जुडी हुई थीं। उनका आधार अध्यात्म ही हुआ करता था।
भारत में लज्जा को एक श्रेष्ठ अभिव्यक्ति माना गया था। वस्त्रों की या शरीर के माध्यम से हुई उन अभिव्यक्तियों को श्लीलता माना गया जिस के कारण देखनेवाला उद्दीपित नहीं होता। पति पत्नि के संबंधों में लज्जा का आवरण दूर होना स्वाभाविक ही माना गया था। लेकिन सार्वजनिक स्थानपर अल्पवस्त्र पहनकर या वस्त्र उतारकर लोगों की हीन भावनाओं को उद्दीपित करने के प्रयासों को निर्लज्जता ही माना गया था। लेकिन यूरो अमरीकी प्रभाव में भारत में भी अब लोग इन्द्रियों के स्तर पर ले जाने वाली अंगप्रदर्शन करने वाली कृतियों को कला कहने लग गए हैं।
विकृत मानसिकता से बनाए गए चित्रों को भी कला की अभिव्यक्ति माना जाने लगा है। व्यक्ति-स्वातंत्र्य और अभिव्यक्ति स्वतन्त्रता के नाम पर भारत माता के, कला और विद्याओं की देवी सरस्वती के भी नग्न चित्र बनानेवाली विकृत मानसिकता का समर्थन किया जाता है। और ऐसी विकृति के विरोध को हिन्दुओं की असहिष्णुता कहा जा रहा है।
कला क्या है?
हर व्यक्ति की अभिव्यक्ति की क्षमता और स्वरूप भिन्न होता है। फिर भी औसत समाज की जो भावनाएं होतीं हैं उनकी अभिव्यक्ति से समाज की अभिरुचि का परिचय होता है। समाज की यह अभिरूचि उस समाज की जीवनदृष्टि के अनुरूप होती है। कलाओं का विकास भी इस जीवन दृष्टि के अनुसार ही होता है। कला के बारे में कई बातें कही जातीं हैं। जैसे:
- समाज की संस्कृति की अभिव्यक्ति का एक माध्यम कला होता है।
- अमूर्त को मूर्त स्वरूप में अभिव्यक्त करने का माध्यम। अभिकर्ता जब अपनी कृति से अपनी अमूर्त भावनाएं मूर्त स्वरूप में अभिव्यक्त करता है तो कला जन्म लेती है।
- मनुष्य को मोक्षगामी बनाने का एक माध्यम। सा कला या विमुक्तये।
- अपनी भावनाओं के प्रकटीकरण का एक माध्यम।
- अपने व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति का साधन है कला। कलावस्तु का प्रदर्शन यह कलाकार और कला का लक्ष्य नहीं होता। कलावस्तु की जानकारी तो विज्ञान और पुस्तकों का काम है। लेकिन विज्ञान की परिभाषाएँ और ग्रंथों के शब्द कलाकार की अपेक्षित भावनाओं को याने कलाकार के व्यक्तित्व को सही सही प्रकट नहीं कर सकते। इसलिए कलावस्तु के माध्यम से अभिव्यक्त होने के कलाकार के प्रयास को कला कहते हैं।
- कलाकार और कला के प्रेमी (रसग्रहण करनेवालों) में संवाद की भाषा।
- लोगों की अभिरुचि या पसंद (वह हीन हो तब भी) को समझकर उसका लाभ उठाने का एक साधन। इसे बाजारू कला भी कहा जा सकता है।
- कला मनोरंजन का एक साधन है।
कला का उद्देश्य क्या है? और क्यों है?
जीवन का उद्देश्य मोक्ष है। तो हर विचार, भावना और कृति का भी उद्देश्य मोक्ष ही होगा। इसलिए कला का उद्देश्य सा कला या विमुक्तये । परमात्मपद प्राप्ति के लिये कला। इस लक्ष्य के कारण कला के क्षेत्र में करणीय और अकरणीय कार्य का स्वरूप तय हो जाता है।
भारतीय मान्यता के अनुसार आद्य कलाकार “नटराज” है। अर्धनारीनटेश्वर है। इस में प्रकृति (स्त्री) का पुरुष के साथ तादात्म्य दिखाई देता है। अभिव्यक्ति के लिए केवल पुरुष याने जीवात्मा या केवल अष्टधा प्रकृति सक्षम नहीं है। ये दोनों मिलकर ही सृष्टि की रचना होती है। परमात्मा असंख्य रूपों में अभिव्यक्त होता है। इसीलिये वह अपने में से ही पहले अपरा प्रकृति का निर्माण करता है। अपरा का अर्थ है जो इन्द्रियों, मन, बुद्धि आदि से परे नहीं है। जिस का इन्द्रियों, मन, बुद्धि के माध्यम से अनुभव प्राप्त किया जा सकता है। अधार्मिक (अभारतीय) समाजों की जीवन दृष्टि व्यक्तिवादी याने स्वार्थ प्रेरित और इहवादी होने से कला यह इन्द्रियसुख का एक साधन बन जाती है। कला बाजारू बन जाती है। कला और संस्कृति दोनों का निकट का संबंध होता है। कला के माध्यम से मानव का व्यक्तित्व जिस संस्कृति में ढला है वही प्रकट होती है। विकृति में ढला हुआ कोई व्यक्ति अपनी विकृति को ही कला के माध्यम से अभिव्यक्त कर सकेगा। वह और कुछ कर ही नहीं सकता। विद्या की देवी और भारत माता के नग्न चित्र बनाने से चित्रकार के विकृत व्यक्तित्व का ही परिचय होगा। उस की इस चित्रकला की सराहना करनेवाले भी विकृत संस्कृति के ही माने जाएंगे।
भारत में कलाओं का उद्गम और इतिहास
भरत में कला का जन्म त्रेता युग के प्रारम्भ में हुआ ऐसी लोककथा प्रसिद्ध है। लोगों में सत्वगुण की कमी और रजोगुण में वृद्धि होने लगी। काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मत्सर आदि विकार बढ़ने लगे। समाज जीवन अशांत होने लगा। ऐसी स्थिति में इंद्रादि देव ब्रह्मदेव के पास गए। वेदों को समझने की क्षमता अब तीन वर्णों के लोगों में भी कम हुई है। पूरे समाज के लिए हो ऐसा कोई वेद आप हमें दीजिये। वह वेद दृश्य और श्राव्य हो। निर्गुण निराकार की भक्ति अब समझ में नहीं आती। इसलिए सगुण साकार हो, शास्त्रों के सिद्धांत समझ नहीं रहे ऐसे में सहजता से हँसते खेलते हुए साध्य हो, मनोरंजन भी होता रहे ऐसा कोई वेद हमें दें। ब्रह्मदेव ने देवों की विनती मान ली। उसने ऋग्वेद से पाठ्य(संवाद)लिया, यजुर्वेद से अभिनय लिया, सामवेद से गीत लिया और अथर्ववेद से रस लिया। इसा प्रकार से चारों वेदों से सारतत्व लेकर ब्रह्मदेव ने “नाट्यवेद” निर्माण किया। यह वेद लोगों के आचार-विचार के अनुरूप, सर्वशास्त्रसंपन्न, सर्वशिल्पसमावेशक और गत इतिहास को बताता हुआ लोगों को आगे के लिए मार्गदर्शन करने वाला सिद्ध हुआ।
यह कथा भरत मुनि ने “नाट्यशास्त्र” की रचना में कही है। जब भरत मुनि ऐसा लिखते हैं तो उसका अर्थ है कि नाट्यशास्त्र तो समाज में पहले से ही ज्ञात था। उनसे पूर्व में भी भारत में नाटकों की परम्परा थी। नाटकों में संवाद, संगीत, अभिनय (नृत्य), नेपथ्य में शिल्पशास्त्र का, नाटक की विषयवस्तु में शास्त्रीय ज्ञान का समावेश होता है। इसी का अर्थ है कि जब नाट्यवेद की प्रस्तुति हुई तब ये सभी शास्त्र और कलाएं समाज व्यवहार में थीं। ऐसा रहा होगा तब ही इन सभी कलाओं का समावेश और समन्वय करना संभव हुआ होगा और लोगों द्वारा स्वीकृत हुआ होगा।
इस प्रकार से कला का हेतु ज्ञान को दृश्य और श्राव्य से अभिव्यक्त करना, शास्त्रों के सिद्धांत मनोरंजन के साथ सिखाना और ज्ञान का अधिकार समूचे समाज को प्राप्त हो ऐसा था।
त्रेता युग की देवता यज्ञ थी। इसलिए त्रेता युग में कलाएं यज्ञ के आश्रय से विकसित हुईं। महाकवि कालिदास नाटक की व्याखा करते हैं[citation needed]:
देवानामिदमानन्ति मुने: कान्तं क्रतु चाक्षुषम् ।
रुद्रेणेदमुप्राकृत व्यक्तिकरे स्वांगे विभक्तं द्विधा ।
त्रैगुण्योद्भवमंत लोकचरितं नानारसं दृश्यते ।
नाट्यं भिन्न रुचेर्जनस्य बहुधाऽप्येकं समाराधनम् ।।
अर्थ : यह देवों का नेत्रसुखकारक यज्ञ ही है ऐसा मुनिजन मानते हैं। आनंद का आस्वाद लेने के लिए रुद्र स्वत: ही दो भागों में बंट गया। नाटक याने शिव और शक्ति का संगम ही है। नाटक में त्रिगुणों से भरे हुए लोगों का नानाविध चरित्र होता है। नाटक यह भिन्न स्वभाववाले लोगों का सबका एकसाथ मनोरंजन करनेवाला साधन है।
इसका अर्थ यह है कि भरत मुनि की मान्यता के अनुसार ही कालिदास भी नाटक को “नेत्रसुखकारक सुन्दर यज्ञ” ही कहते हैं। कला शिव और शक्ति के तादात्म्य का साक्षात दर्शन होता है। शक्ति (प्रकृति) त्रिगुणात्मक होती है। इसलिए कला में त्रिगुणों की अभिव्यक्ति होती है। चारों वर्णों के लोगों का मनोरंजन होता है।
द्वापर युग की देवता “अर्चा” (पूजा) थी। इसलिए द्वापर युग में कलाओं की अभिव्यक्ति में यज्ञ का स्थान मंदिरों ने लिया। कलाएँ मंदिरों की आश्रय से विकसित हुईं।
कलियुग की देवता “नामजप” है। श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान कहते हैं "यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि"। नामजप भक्ति का ही रूप है। लेकिन यहाँ ‘नाम’ शब्द के विषय में थोड़ा अधिक समझने की आवश्यकता है। हर वस्तु का या पदार्थ का नाम होता है। और हर पदार्थ में परम तत्व का वास भी होता है। किसी भी वस्तु में परम तत्व को देखने का या अनुभूत करने का, लगन के साथ किया हुआ प्रयास कला है। धार्मिक (भारतीय) दृष्टि से अपनी रूचि की विषयवस्तु की प्रस्तुति के माध्यम से परमतत्व की अनुभूति करना और करवाना ही कलियुग की कला है।
भारत में कलाओं के अस्तित्व के जो अवशेष प्राप्त हुए हैं उनका काल ईसापूर्व कम से कम १०,००० वर्ष तक जाता है। इस काल के शैल चित्र भीमबेटका जैसे स्थानों पर आज भी हम देख सकते हैं। भारतवर्ष के विजेता आक्रान्ताओं की संस्कृति का प्रभाव जिस प्रकार से धार्मिक (भारतीय) जीवन पर हुआ वैसे ही धार्मिक (भारतीय) कला दृष्टि पर भी हुआ। क्रमश: इसकी अध्यात्मिकता घटती गई। वैसे तो केवल भौतिकता से कलाओं का विचार तो सदा से ही चलता आया है। लेकिन भारतवर्ष में वह कभी प्रभावी नहीं रहा। लेकिन जब आक्रान्ता विजेता भी हो गए तब उनकी संस्कृति का प्रभाव धार्मिक (भारतीय) कला दृष्टि पर होना स्वाभाविक था। “यथा राजा तथा प्रजा” होता ही है। आज शासक और जनता दोनों ही यूरो अमरीकी प्रभाव से ग्रस्त हैं। इसलिए अब जब कुटुम्ब भी बाजार भावना से चलने लगे हैं, कला का बाजारू बन जाना स्वाभाविक है।
भारत की ६४ कलाएं – सूची
भारत में प्राचीन काल से १४ विद्याएँ और ६४ कलाओं का वर्णन मिलता है। १४ विद्याओं में ४ वेद, ४ उपवेद और ६ दर्शनों का समावेश होता है। सदियों से ६४ कलाओं का उल्लेख धार्मिक (भारतीय) साहित्य में मिलता है। ये कलाएं निम्न हैं:
- गायन
- वादन
- नृत्य
- नाट्य
- लेखन
- निशानेबाजी
- चावल और फूलों की भिन्न भिन्न प्रकार की मोहक आकृतियाँ बनाना
- फूलों के गलीचे बनाना
- शय्या का सुशोभन
- जलतरंग जैसे वाद्य
- दांतों को रंगना, वस्त्रों पर आकृतियाँ बनाना और बदन पर गुन्दवाना
- भिन्न भिन्न भौमितीय आकृतियों से जमीन पर मणियों से चित्र बनाना
- मिट्टी के चित्र बनाना
- फूलों के हार, गजरे बनाना
- मुकुट को शोभावान बनाना
- नेपथ्य रचना
- कानों पर कोमल पंखुड़ियां रखना
- सुवासिक पदार्थ बनाना
- सुवर्ण काम
- जादू करना
- हस्तलाघव/हाथ चलाखी
- पाकशास्त्र
- बदन में उबटन लगाना
- भिन्न भिन्न प्रकार के पेय बनाना
- सिलाई काम
- पुतलियों का नाच, भंवरों का खेल
- वीणा, डमरू बजाना
- पहेलियाँ बूझना
- मूर्ती, बर्तन आदि के साँचे बनाना
- कपट विद्या
- अधूरा काव्य पूरा करना
- नाटक, प्रहसन करना
- पढ़ना
- पट्टा घुमाना, बेंत चलाना, तीर चलाना
- तर्क करना
- सुतार काम
- घर बांधना
- सोना, चांदी और रत्नों को परखना
- अशोधित धातु शुद्ध करना
- रत्नों को रंग देना
- खदानों का पता लगाना
- वृक्षों की आयु बढाने के उपाय
- बकरे, मुर्गे आदि प्राणियों के युद्ध लगाना
- शुक, मैना को बोलना सिखाना
- पतंग उड़ाना
- जुडा/वेणी बांधना
- करपल्लवी, नेत्रपल्लवी आदि भाषाओं का ज्ञान
- देशभाषा जानना
- बागवानी
- मन में का अक्षर पूछकर मुठ्ठी की वस्तु पहचानना
- वजनों के वहन के लिए यंत्र बनाना
- वक्तृत्वकला
- मन ही मन में काव्य की रचना करना(आशुकवि)
- भिन्न भिन्न कोशों का ज्ञान
- छंदशास्त्र का ज्ञान
- चमत्कार कर दिखाना
- विदूषक कला
- वस्त्र हमेशा ताजे लगें ऐसे उन्हें रखना
- द्यूतकला
- मल्लयुद्ध
- बच्चों के लिए खिलोने बनाना
- संकट दूर करने की विद्या
- विजय प्राप्ति की तरकीब
- भूत पिशाचों का ज्ञान
मजदूर, कारीगर और कलाकार
जब केवल आजीविका के लिए कोई काम किया जाता है तब वह मजदूरी कहलाता है। जब उसमें कुशलता का समावेश होता है तब वह कारीगरी माना जाता है। लेकिन जब वही काम करनेवाला जब करने वाले को और रस ग्रहण करने वालों को परमात्मा से जोड़ता है तब वही काम धार्मिक (भारतीय) दृष्टि से कला बन जाता है। बाहरी आक्रमणकारियों के प्रभाव से पूर्व के काल में कला यह मुख्यत: मंदिरों से जुडा विषय था। आक्रमणकारियों में से विजेताओं के प्रभाव से धार्मिक (भारतीय) कलाओं के अधिष्ठान में अन्तर पड़ने लगा। सबसे अन्तर मुसलमानों के काल में पडा। अंग्रेजी राज में और उसके उपरांत चले उसी यूरो अमरीकी कलाओं के अन्धानुकरण ने यह अन्तर और बढ़ा दिया है।
एक मंदिर के निर्माण करनेवाले कामगारों की धार्मिक (भारतीय) कला के क्षेत्र की कथा प्रसिद्ध है। एक कामगार से पूछा गया की तुम क्या कर रहे हे हो? उसने उत्तर दिया मैं रोजी रोटी कमाने के लिए मजदूरी कर रहा हूँ। यह कामगार केवल मजदूर था। दूसरे से यही प्रश्न पूछा गया। उसका जबाब था,’यहाँ एक भव्य मंदिर की इमारत का निर्माण होने जा रहा है। मैं निर्माण कर्ताओं में से एक हूँ। यह कारीगर था। तीसरे ने इसी प्रश्न का उत्तर दिया – यहाँ एक मंदिर का निर्माण होने जा रहा है। जहाँ आकर मानव को परमात्मा से एकाकार होने की इच्छा और अनुभूति हो सके, हम ऐसा मंदिर बनाने वाले हैं। यह कलाकार था।
कला और व्यक्तित्व विकास
मानव व्यक्तित्व के पाँच पहलू होते हैं। आदि शंकराचार्य ने इन्हें पंचकोष कहा है। इसलिए यह कहा जाता है कि मानव व्यक्तित्व पंचकोषात्मक होता है। तैत्तिरीय उपनिषद् इन्हें पुरुष कहता है। अन्नमय पुरुष, प्राणमय पुरुष, मनोमय पुरुष, विज्ञानमय पुरुष और आनंदमय पुरुष।
हमारे व्यक्तित्व के विभिन्न पहलुओं से इनका सम्बन्ध होता है। हर अगला पुरुष पहले से अधिक सूक्ष्म होता है। सूक्ष्म का अर्थ दुर्बल या छोटा नहीं है। सूक्ष्म का अर्थ है व्यापक, बलवान। अन्नमय पुरुष शरीर है। उससे सूक्ष्म प्राणमय पुरुष का संबंध ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों से है। मनोमय पुरुष मन से संबंध रखता है। विज्ञानमय पुरुष का स्तर बुद्धि का होता है जबकि आनंदमय कोष चित्त से संबंधित होता है।
अब हम देखेंगे कि किस प्रकार से कला का विकास मनुष्य के पाँचों कोषों या पञ्चविध पुरुष के विकास के साथ जुडा है। इन के विकास के स्तर के अनुसार ही कला की यथार्थता का भी स्तर होता है। कम विकसित पञ्चविध पुरुष याने पंचकोषों के कारण कला में यथार्थता नहीं आ पाती। कला तो जन्मजात होती है। लेकिन बचपन में कला में यथार्थता नहीं पाई जाती। इसका कारण उस बच्चे में जन्म से कला नहीं है ऐसा नहीं है। जब बालक के ज्ञानेन्द्रिय, कर्मेंद्रिय, मन, बुद्धि और चित्त का विकास होता है तब कला में यथार्थता आती है।
चित्त संस्कार संग्रहण का स्थान है। इसमें सभी प्रकार का ज्ञान अंकित होता है। लेकिन चित्त बच्चे के शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि और अहंकार से आवेष्टित होने से प्रकट नहीं होता। ज्ञानेन्द्रिय कला वस्तु का आकलन करते हैं, इस आकलन के संस्कार चित्त पर होते हैं। मन इन संस्कारों के साथ ही चित्त पर अंकित और विषयवस्तु से सम्बंधित विभिन्न विकल्प बुद्धि के सामने प्रस्तुत करता है। चित्त पर हुए संस्कारों के साथ बुद्धि जीवात्मा के प्रकाश में चित्त पर अंकित पूर्व के संस्कारों (ज्ञान) के साथ तुलना कर के देखती है और यह तय करती है कि उचित संस्कार क्या है। क्योंकि बुद्धि व्यवसायात्मिका होती है, सत्यान्वेषी होती है। जीवात्मा के प्रकाश के कारण चित्त में पहले से उपस्थित संस्कारों (ज्ञान) अनावृत्त हो जाता है। प्रकाशित हो जाता है। तब आकलन का अनुभव होता है। तब अंत:करण के एक घटक अहंकार जो जीवात्मा का प्रतिनिधि है, ज्ञान प्राप्त होता है। आकलन होता है। यह है आकलन की प्रक्रिया। यह आकलन उतना ही यथार्थ होगा जितनी ज्ञानेन्द्रियों की, मन, और बुद्धि की क्षमता और चित्त की निर्मलता होगी।
आगे उस आकलन के अनुसार कला के प्रस्तुतीकरण की प्रक्रिया चलती है। यह आकलन जीवात्मा के प्रतिनिधि अहंकार (ज्ञाता) को होता है। अब कला की अभियक्ति की प्रक्रिया शुरू होती है। जीवात्मा के आदेश से चित्त पर अंकित संस्कारों के अनुसार, बुद्धि सही दिशा देती है, जो आकलन हुआ है उस विकल्प पर मन एकाग्र हो जाता है और कर्मेन्द्रियाँ, ज्ञानेन्द्रियों की मदद से कला को अभिव्यक्त करतीं हैं। इस पूरी प्रक्रिया में यथार्थता तब ही आती है जब ज्ञानेन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, चित्त और कर्मेन्द्रियाँ सभी सधे हुए याने शिक्षित या विकसित होते हैं।
प्रत्येक व्यक्ति का व्यक्तित्व भिन्न होता है। यह प्रत्येक व्यक्ति के शरीर, प्राण, मन, बुद्धि और चित्त आदि में भिन्नता होने के कारण से होता है। इसीलिये कलाकार जब मन लगाकर कला का निर्माण करता है तब वह अपने व्यक्तित्व को ही कला के माध्यम से अभिव्यक्त करता है। जैसे राजा रविवर्मा की चित्रकला में उनके चरित्र की झलक मिलती है। जब कई कलाकार ऐसे कलाकार का अनुसरण करते हैं तब वह शैली का रूप ले लेता है।
चित्त के विकास के लक्षण आत्मीयता, सहानुभूति, सहजता, सौन्दर्य बोध, स्वतन्त्रता आदि होते हैं। इस स्तरपर ब्रह्मानंद सहोदर आनंद का प्रकटीकरण और अनुभव प्राप्त होता है।
भारतीय कला में प्रतीकों का महत्व
अमूर्त को मूर्त के माध्यम से प्रस्तुत करने में प्रतीकों की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण है। यह प्रतीक जितना सटीक होगा उतना ही अमूर्त को समझना और समझाना सहज सरल हो जाता है। श्रीमद्भगवद्गीता में कहा है[1]:
क्लेशोऽधिकतरस्तेषामव्यक्तासक्तचेतसाम्।
अव्यक्ता हि गतिर्दुःखं देहवद्भिरवाप्यते।।12.5।।
अर्थ : जिनमें देहभाव है ऐसे लोगों के लिए अव्यक्त की, अमूर्त की, निर्गुण और निराकार की साधना बहुत क्लेषपूर्ण याने कठिन होती है।
इस दृष्टि से धार्मिक (भारतीय) कलाओं में विशेषत: शिल्प कला में कलश, कमल, अखंडमंडलाकार आकृति, बिन्दु से लेकर लंबगोल और वृत्ततक विविध भौमितिक आकारों का प्रतीक के रूप में उपयोग किया जाता है। वास्तुशास्त्र में उपयोजित विभिन्न प्रतीकों का बहुत अच्छा विवेचन विनायक कुलकर्णी लिखित ‘भारतीय कला – उद्गम और विकास’ इस पुस्तक के पृष्ठ ३४ पर मिलता है।
कला के अंतरण की और विकास की व्यवस्था
भारत में कला का अगली पीढी को अंतरण गुरुकुल प्रणाली से होता था। यह शिक्षा की सर्वश्रेष्ठ प्रणाली है। इस में गुरुगृहवास मुख्य बात है। विविधता यह प्राकृतिक होती है। इसीलिये धार्मिक (भारतीय) कलाओं में भी भिन्न भिन्न शैलियों का विकास हुआ हम देखते हैं। धार्मिक (भारतीय) संगीत में दो प्रमुख शैलियाँ बनीं। हिन्दुस्तानी (उत्तर भारतीय) संगीत और दक्षिण धार्मिक (भारतीय) संगीत। उत्तर धार्मिक (भारतीय) संगीत में भी ग्वालियर घराना, किराना घराना आदि शैलियाँ विकसित हुईं। नृत्य के क्षेत्र में कत्थक, कुचीपुडी, भरतनाट्यम् आदि शैलियाँ बनीं। शिल्पकला में भी अनेकों शैलियाँ बनीं। नाट्य के क्षेत्र में भी अनेकों शैलियाँ दिखाई देतीं हैं। अपनी विशेषता को बनाए रखने के लिए कला का अंतरण जस का तस हो इसका आग्रह होता है। गुरु की शैली को जस की तस आत्मसात करने के लिए गुरुकुल प्रणाली से अधिक श्रेष्ठ अन्य प्रणाली नहीं है। आज भी गुरुकुल पद्धति से कला के अंतरण के उदाहरण देखने को मिलते हैं।
References
- ↑ श्रीमद्भगवद्गीता 12.5
अन्य स्रोत:
- भारतीय कला : उद्गम आणि विकास, लेखक विनायक य. कुलकर्णी, प्रकाशिका सौ. सुचिता राळे, पुणे
- ए हिंदु व्ह्यू ऑफ़ आर्ट्स , लेखक दत्तोपंत ठेगडी, संस्कार भारती पब्लिकेशन, आग्रा, उत्तर प्रदेश.