| Line 4: |
Line 4: |
| | | | |
| | == परिचय॥ Introduction == | | == परिचय॥ Introduction == |
| | + | मानव के विधिबोधित क्रिया-कलापोंको आचारके नामसे सम्बोधित किया जाता है। आचार-पद्धति ही सदाचार या शिष्टाचार कहलाती है। मनीषियोंने पवित्र और सात्त्विक आचारको ही धर्मका मूल बताया है - धर्ममूलमिदं स्मृतम्। धर्मका मूल श्रुति- स्मृतिमूलक आचार ही है इतना ही नहीं, षडङ्ग-वेद ज्ञानी भी यदि आचार से हीन हो तो वेद भी उसे पवित्र नहीं बनाते हैं। |
| | + | |
| | आचार मानवता का पोषक, रक्षक और सुख का परम आधार है। पुराणों में कहा गया है कि यदि कोई मनुष्य वेदों का ज्ञान रखता हो, विभिन्न शास्त्रों को जानता हो, फिर भी यदि उसके जीवन में आचार का सम्यक् पालन नहीं है, तो वेद या शास्त्रों का ज्ञान उसे पूर्ण फल नहीं दे सकता। प्राचीन ऋषियों और परम्पराओं ने मनुष्य के आचरण के लिए अनेक विधियाँ निश्चित की हैं, और यह विशेष रूप से बताया गया है कि मनुष्य को किन-किन नियमों का पालन करना चाहिए। | | आचार मानवता का पोषक, रक्षक और सुख का परम आधार है। पुराणों में कहा गया है कि यदि कोई मनुष्य वेदों का ज्ञान रखता हो, विभिन्न शास्त्रों को जानता हो, फिर भी यदि उसके जीवन में आचार का सम्यक् पालन नहीं है, तो वेद या शास्त्रों का ज्ञान उसे पूर्ण फल नहीं दे सकता। प्राचीन ऋषियों और परम्पराओं ने मनुष्य के आचरण के लिए अनेक विधियाँ निश्चित की हैं, और यह विशेष रूप से बताया गया है कि मनुष्य को किन-किन नियमों का पालन करना चाहिए। |
| | | | |
| | आचार वह मार्ग है जो मनुष्य के अंतःकरण को शुद्ध करता है। कोई भी वस्तु उसके लिए अमंगलकारी नहीं बनती और न ही कोई बाधा उत्पन्न होती है। जो व्यक्ति आचार का पालन करता है, उसे स्वाभाविक रूप से सत्य-ज्ञान प्राप्त होता है। महर्षियों और धर्मग्रंथों ने आचार को धर्म का मूल अंग माना है और संत-महात्माओं ने भी सदैव यही कहा है कि आचार ही मनुष्य का वास्तविक श्रृंगार है। पुराणों के अनुसार आचार का क्षेत्र अत्यंत विस्तृत है। जैसे - | | आचार वह मार्ग है जो मनुष्य के अंतःकरण को शुद्ध करता है। कोई भी वस्तु उसके लिए अमंगलकारी नहीं बनती और न ही कोई बाधा उत्पन्न होती है। जो व्यक्ति आचार का पालन करता है, उसे स्वाभाविक रूप से सत्य-ज्ञान प्राप्त होता है। महर्षियों और धर्मग्रंथों ने आचार को धर्म का मूल अंग माना है और संत-महात्माओं ने भी सदैव यही कहा है कि आचार ही मनुष्य का वास्तविक श्रृंगार है। पुराणों के अनुसार आचार का क्षेत्र अत्यंत विस्तृत है। जैसे - |
| | | | |
| − | सूर्योदय से पूर्व जागरण, प्रातः स्नान, संध्या, तप, वेद-स्वाध्याय, देव-सेवा, गो-सेवा, अतिथि-सत्कार, मृदु-वाणी, गुरु-सेवा, सत्य-पालन, ब्रह्मचर्य, अहिंसा, दान, करुणा, विनम्रता, धर्मपालन इत्यादि - ये सभी सदाचार के अंग माने गए हैं। | + | सूर्योदय से पूर्व जागरण, प्रातः स्नान, संध्या, तप, वेद-स्वाध्याय, देव-सेवा, गो-सेवा, अतिथि-सत्कार, मृदु-वाणी, गुरु-सेवा, सत्य-पालन, ब्रह्मचर्य, अहिंसा, दान, करुणा, विनम्रता, धर्मपालन इत्यादि - ये सभी सदाचार के अंग माने गए हैं। आचार को प्रथम धर्म कहा है -<blockquote>आचारः प्रथमो धर्मः श्रुत्युक्तः स्मार्त एव च। तस्मादस्मिन्समायुक्तो नित्यं स्यादात्मनो द्विजः॥ |
| | | | |
| − | आचार को प्रथम धर्म कहा है-<blockquote>आचारः प्रथमो धर्मः श्रुत्युक्तः स्मार्त एव च। तस्मादस्मिन्समायुक्तो नित्यं स्यादात्मनो द्विजः॥ आचाराल्लभते चायुराचाराल्लभते प्रजाः। आचारादन्नमक्षय्यमाचारो हन्ति पातकम्॥ (देवी भागवत ११.९/१०)<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%A6%E0%A5%87%E0%A4%B5%E0%A5%80%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%97%E0%A4%B5%E0%A4%A4%E0%A4%AA%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%A3%E0%A4%AE%E0%A5%8D/%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%95%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A7%E0%A4%83_%E0%A5%A7%E0%A5%A7/%E0%A4%85%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%83_%E0%A5%A6%E0%A5%A7 देवी भागवत], स्कन्ध- ११, अध्याय- १, श्लोक- ९/१०।</ref></blockquote>'''अनु-''' आचार ही प्रथम (मुख्य) धर्म है-ऐसा श्रुतियों तथा स्मृतियोंमें कहा गया है, अतएव द्विजको चाहिये कि वह अपने कल्याणके लिये इस सदाचारके पालनमें नित्य संलग्न रहे।मनुष्य आचारसे आयु प्राप्त करता है, आचारसे सत्सन्तानें प्राप्त करता है ,आचारसे अक्षय अन्न प्राप्त करता है तथा यह आचार पापको नष्ट कर देता है॥
| + | आचाराल्लभते चायुराचाराल्लभते प्रजाः। आचारादन्नमक्षय्यमाचारो हन्ति पातकम्॥ (देवी भागवत ११.१.९/१०)<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%A6%E0%A5%87%E0%A4%B5%E0%A5%80%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%97%E0%A4%B5%E0%A4%A4%E0%A4%AA%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%A3%E0%A4%AE%E0%A5%8D/%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%95%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A7%E0%A4%83_%E0%A5%A7%E0%A5%A7/%E0%A4%85%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%83_%E0%A5%A6%E0%A5%A7 देवी भागवत], स्कन्ध- ११, अध्याय- १, श्लोक- ९/१०।</ref></blockquote>'''अनुवाद -''' आचार ही प्रथम (मुख्य) धर्म है-ऐसा श्रुतियों तथा स्मृतियोंमें कहा गया है, अतएव द्विजको चाहिये कि वह अपने कल्याणके लिये इस सदाचारके पालनमें नित्य संलग्न रहे। मनुष्य आचार से आयु प्राप्त करता है, आचारसे सत्सन्तानें प्राप्त करता है ,आचारसे अक्षय अन्न प्राप्त करता है तथा यह आचार पापको नष्ट कर देता है। धर्मशास्त्र परंपरा में वेद और स्मृतियों के साथ-साथ सामाजिक आचार को भी धर्म के विषय में प्रमाण माना जाता है। भारतीय चिन्तन धारा ने जाति, कुल, ग्राम, देश आदि के अपने आचार व रीति रिवाजों को धर्म माना है। यह व्यवस्था धर्मशास्त्र को जीवन्तता प्रदान करती है। मनु ने धर्म के निम्नलिखित स्रोत बताये हैं -<blockquote>वेदः स्मृतिः सदाचारः स्वस्य च प्रियमात्मनः। एतच्चतुर्विधं प्राहुः साक्षाद् धर्मस्य लक्षणम्॥ (मनु स्मृति २.१२ )<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A4%A8%E0%A5%81%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A5%83%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%83/%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A5%80%E0%A4%AF%E0%A5%8B%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%83 मनु स्मृति], अध्याय- २, श्लोक- १२।</ref></blockquote>'''भाषार्थ -''' वेद, स्मृति, सदाचार तथा स्वयं का प्रिय - ये धर्म के चार स्रोत हैं। यदि अपने कार्य अकार्य के विषय में जानना हो तो इनसे जाना जा सकता है। |
| | | | |
| − | धर्मशास्त्र परंपरा में वेद और स्मृतियों के साथ-साथ सामाजिक आचार को भी धर्म के विषय में प्रमाण माना जाता है। भारतीय चिन्तन धारा ने जाति, कुल, ग्राम, देश आदि के अपने आचार व रीति रिवाजों को धर्म माना है। यह व्यवस्था धर्मशास्त्र को जीवन्तता प्रदान करती है। मनु ने धर्म के निम्नलिखित स्रोत बताये हैं -<blockquote>वेदः स्मृतिः सदाचारः स्वस्य च प्रियमात्मनः। एतच्चतुर्विधं प्राहुः साक्षाद् धर्मस्य लक्षणम्॥ (मनु स्मृति २.१२ )<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A4%A8%E0%A5%81%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A5%83%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%83/%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A5%80%E0%A4%AF%E0%A5%8B%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%83 मनु स्मृति], अध्याय- २, श्लोक- १२।</ref></blockquote>'''भाषार्थ -''' वेद, स्मृति, सदाचार तथा स्वयं का प्रिय - ये धर्म के चार स्रोत हैं। यदि अपने कार्य अकार्य के विषय में जानना हो तो इनसे जाना जा सकता है।
| + | ==परिभाषा॥ Definition== |
| | + | भारतीय आचार-शास्त्र में उचित आचरण को आचार तथा अनुचित आचरण को अनाचार कहा गया है। वृहत्त् संस्कृताभिधान वाचस्पत्य के अनुसार ‘आचार’ की व्युत्पत्ति का विवेचन करते हुए यह स्पष्ट किया गया है कि आचार को दो रूपों सदाचार एवं दुराचार में वर्गीकृत किया जाता है - <ref name=":0">शोध छात्रा - मासुमा, [https://shodhganga.inflibnet.ac.in/handle/10603/455720 वैदिक परम्परा में आचार मीमांसा एक अध्ययन], सन २०२२, शोधकेन्द्र - काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी (पृ० १७)।</ref><blockquote>आचरणै अनुष्ठाने स च अनुष्ठान निवृत्त्यात्मक भावाभावरूपः। तत्र सदाचारः वेदस्मृत्यादि विहित तत्र नित्य निषिद्धश्च कदाचार इति भेदात् द्विविधः वाचस्पत्यम्। (व्यवहार प्रकाश)</blockquote>शिष्ट व्यक्तियों द्वारा अनुमोदित एवं बहुमान्य रीति-रिवाजों को आचार कहते हैं। स्मृति या विधि सम्बन्धी संस्कृत ग्रन्थों में आचार का महत्व भली भाँति दर्शाया गया है।<ref name=":3">डॉ० राजबली पाण्डेय, [https://dn790006.ca.archive.org/0/items/in.ernet.dli.2015.540544/2015.540544.Hindu-Dharm.pdf हिन्दू धर्मकोश] (१९८८), उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ (पृ० ७४)।</ref> |
| | | | |
| − | == परिभाषा॥ Definition== | + | ==आचार का स्वरूप॥ Achara ka Svaroop == |
| − | भारतीय आचार-शास्त्र में उचित आचरण को आचार तथा अनुचित आचरण को अनाचार कहा गया है। वृहत्त् संस्कृताभिधान वाचस्पत्य के अनुसार ‘आचार’ की व्युत्पत्ति का विवेचन करते हुए यह स्पष्ट किया गया है कि आचार को दो रूपों सदाचार एवं दुराचार में वर्गीकृत किया जाता है - <ref name=":0">शोध छात्रा - मासुमा, [https://shodhganga.inflibnet.ac.in/handle/10603/455720 वैदिक परम्परा में आचार मीमांसा एक अध्ययन], सन २०२२, शोधकेन्द्र - काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी (पृ० १७)।</ref>
| + | आचार के संबंध में ऋषि कहते हैं कि - धर्मानुकूल शारीरिक व्यापार ही सदाचार है। केवल शारीरिक व्यापार या शारीरिक चेष्टा सदाचार नहीं, वह तो अंग संचालन मात्र की क्रिया है। उससे स्थूल शारीरिक लाभ के अतिरिक्त आत्मोन्नति का सम्बन्ध नहीं। इस कारण मात्र शारीरिक क्रिया को आचार नहीं कहते। शारीरिक व्यापार या शारीरिक चेष्टा जब धर्मानुकूल अथवा किसी प्रकार धर्म को लक्ष्य करते हुये होती है तब वह सदाचार होता है और तब उससे स्थूल, सूक्ष्म और कारण तीनों शरीर की उन्नति और साथ ही साथ आत्मा का भी अभ्युदय साधन होता है। यह धर्मानुकूल आचरण ही सदाचार है। महर्षि वसिष्ठ लिखते हैं कि-<blockquote>आचारः परमोधर्मः सर्वेषामिति निश्चयः। हीनाचार परीतात्मा प्रेत्य चेह च नश्यति॥ (वसिष्ठ संहिता)<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%B5%E0%A4%B8%E0%A4%BF%E0%A4%B7%E0%A5%8D%E0%A4%A0%E0%A4%B8%E0%A4%82%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A4%BE वसिष्ठ संहिता], अध्याय ६, श्लोक १।</ref> </blockquote>अर्थात् यह निश्चय है कि आचार ही सबका परम धर्म है आचार भ्रष्ट मनुष्य इस लोक और परलोक दोनों में नष्ट होता है।<blockquote>आचारहीनं न पुनन्ति वेदा यद्यप्यधीताः सह षड्भिरङ्गैः। छन्दांस्येनं मृत्युकाले त्यजन्ति नीडं शकुन्ता इव जातपक्षाः॥ (देवी भागवत ११.२.१)<ref name=":2">[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%A6%E0%A5%87%E0%A4%B5%E0%A5%80%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%97%E0%A4%B5%E0%A4%A4%E0%A4%AA%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%A3%E0%A4%AE%E0%A5%8D/%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%95%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A7%E0%A4%83_%E0%A5%A7%E0%A5%A7/%E0%A4%85%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%83_%E0%A5%A6%E0%A5%A8 देवी भागवत], स्कन्ध ११, अध्याय २, श्लोक १।</ref></blockquote>आचार हीन व्यक्ति यदि सांगोपांग वेदों का विद्वान् भी है तो वेद उसको पवित्र नहीं कर सकते और वैदिक ऋचायें भी उसे अन्तकाल में इसी प्रकार त्याग देती हैं जैसे अग्नि के ताप से तप्त घोंसले को पक्षी त्याग देते हैं।<blockquote>आचारात्फलते धर्ममाचारात्फलते धनम्। आचाराच्छ्रियमाप्नोति आचारो हन्त्यलक्षणम्॥ (वसिष्ठ संहिता)<ref name=":2" /> </blockquote>इसके अतिरिक्त दुराचारी मनुष्य लोक में निन्दित, दु:ख का भागी, रोग ग्रस्त और अल्पायु होता है। सदाचार का फल धर्म है, सदाचार का फल धन है, सदाचार से श्री की प्राप्ति होती है तथा सदाचार कुलक्षणों को नाश करता है।<blockquote>आचारः परमो धर्मः आचारः परमं तपः। आचारः परमं ज्ञानं आचारात् किं न साध्यते॥ |
| | | | |
| − | आचरणै अनुष्ठाने स च अनुष्ठान निवृत्त्यात्मक भावाभावरूपः। तत्र सदाचारः वेदस्मृत्यादि विहित तत्र नित्य निषिद्धश्च कदाचार इति भेदात् द्विविधः वाचस्पत्यम्।
| + | आचाराद् विच्युतो विप्रो न वेदफलमश्नुते। आचारेण समायुक्तः सम्पूर्णफलभाग् भवेत्॥ |
| | | | |
| − | ==आचार का स्वरूप ==
| + | यः स्वाचारपरिभ्रष्टः साङ्गवेदान्तगोऽपि चेत्। स एव पतितो ज्ञेयो सर्वकर्मबहिष्कृतः॥ (वसिष्ठ संहिता)<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%B5%E0%A4%B8%E0%A4%BF%E0%A4%B7%E0%A5%8D%E0%A4%A0%E0%A4%B8%E0%A4%82%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A4%BE वसिष्ठ संहिता], अध्याय ६, श्लोक ४/५।</ref></blockquote>आचार ही सर्वोत्तम धर्म है, आचार ही सर्वोत्तम तप है, आचार ही सर्वोत्तम ज्ञान है, यदि आचारका पालन हो तो असाध्य क्या है! अर्थात कुछ भी नहीं। शास्त्रोमें आचारका ही सर्वप्रथम उपदेश ( निर्देशन ) हुआ है । धर्म भी आचारसे ही उत्पन्न है ( अर्थात् ) आचार ही धर्मका माता-पिता है और एकमात्र ईश्वर ही धर्मका स्वामी है । इस प्रकार आचार स्वयं ही परमेश्वर सिद्ध होता है। एक ब्राह्मण जो आचारसे च्युत हो गया है,वह वेदोंके फलकी प्राप्तिसे वञ्चित हो जाता है चाहे वेद-वेदाङ्गोंका पारंगत विद्वान् ही क्यो न हो किंतु जो आचारका पालन करता है वह सबका फल प्राप्त कर लेता है । |
| − | आचार के संबंध में ऋषि कहते हैं कि - धर्मानुकूल शारीरिक व्यापार ही सदाचार है। केवल शारीरिक व्यापार या शारीरिक चेष्टा सदाचार नहीं, वह तो अंग संचालन मात्र की क्रिया है। उससे स्थूल शारीरिक लाभ के अतिरिक्त आत्मोन्नति का सम्बन्ध नहीं। इस कारण मात्र शारीरिक क्रिया को आचार नहीं कहते। शारीरिक व्यापार या शारीरिक चेष्टा जब धर्मानुकूल अथवा किसी प्रकार धर्म को लक्ष्य करते हुये होती है तब वह सदाचार होता है और तब उससे स्थूल, सूक्ष्म और कारण तीनों शरीर की उन्नति और साथ ही साथ आत्मा का भी अभ्युदय साधन होता है। यह धर्मानुकूल आचरण ही सदाचार है। | |
| | | | |
| − | महर्षि वशिष्ठ लिखते हैं कि-<blockquote>आचारः परमोधर्मः सर्वेषामिति निश्चयः । हीनाचार परीतात्मा प्रेत्य चेह च नश्यति ॥ </blockquote>अर्थात् यह निश्चय है कि आचार ही सबका परम धर्म है आचार भ्रष्ट मनुष्य इस लोक और परलोक दोनों में नष्ट होता है।<blockquote>आचार हीनं न पुनन्ति वेदाः यद्यप्यधीता सहषड्भिरंगैः। छन्दास्येनं मृत्युकाले त्यजन्ति नीडं शकुन्ता इव ताप तप्ताः।</blockquote>आचार हीन व्यक्ति यदि सांगोपांग वेदों का विद्वान् भी है तो वेद उसको पवित्र नहीं कर सकते और वैदिक ऋचायें भी उसे अन्तकाल में इसी प्रकार त्याग देती हैं जैसे अग्नि के ताप से तप्त घोंसले को पक्षी त्याग देते हैं।<blockquote>आचारात् फलते धर्ममाचारात् फलते धनम् । आचाराच्छ्रियमाप्नोति आचारो हन्त्यलक्षणम्।।</blockquote>इसके अतिरिक्त दुराचारी मनुष्य लोक में निन्दित, दु:ख का भागी, रोग ग्रस्त और अल्पायु होता है। सदाचार का फल धर्म है, सदाचार का फल धन है, सदाचार से श्री की प्राप्ति होती है तथा सदाचार कुलक्षणों को नाश करता है।<blockquote>आचारः परमो धर्मः आचारः परमं तपः।आचारः परमं ज्ञानं आचारात् कि न साध्यते ॥
| + | ==आचार के प्रकार॥ Types of Achara== |
| | + | मनु स्मृति में आचार के विषय में कहा गया है कि आचार, आत्म अनुभूतिजन्य एक प्रकार की विधि है एवं सभी को इसका पालन अवश्य करना चाहिए। धर्म के स्रोतों में श्रुति और स्मृति के पश्चात आचार का तीसरा स्थान है। कुछ विद्वान तो उसको प्रथम स्थान देते हैं, क्योंकि उनके विचार में धर्म आचार से ही उत्पन्न होता है - आचारप्रभवो धर्म। इस प्रकार के लोकसंग्राहक धर्म को तीन भागों में बाँटा गया है - आचार, व्यवहार और [[Prayaschitta (प्रायश्चित्त)|प्रायश्चित्त]]। याज्ञवल्क्यस्मृति का प्रकरण-विभाजन इन्हीं तीन रूपों में है। याज्ञवल्क्य जी ने आचार के अन्तर्गत निम्नलिखित विषय सम्मिलित किये हैं - संस्कार, चारित्रिक नियम, विवाह एवं कर्त्तव्य, वर्ण एवं आश्रम व्यवस्था, आहार सेवन विधि, श्राद्ध आदि।<ref name=":3" /> |
| | | | |
| − | आचाराद् विच्युतो विप्रो न वेदफलमश्नुते।आचारेण समायुक्तः सम्पूर्णफलभाग् भवेत् ॥
| + | ===सदाचार=== |
| | + | सदाचार आध्यात्मिकता के विकास के लिए किया जाने वाला आचरण है, सदाचार के अन्तर्गत सेवा, शालीनता, अहिंसा, सादा जीवन उच्च विचार जैसी श्रेष्ठ भावों को सम्मिलित किया जा सकता है। यदि संयम प्राण ऊर्जा का संग्रहण करता है तो प्राण ऊर्जा का ऊर्ध्वगमन सदाचार द्वारा ही हो सकता है। |
| | | | |
| − | यः स्वाचारपरिभ्रष्टः साङ्गवेदान्तगोऽपि चेत् ।स एव पतितो ज्ञेयो सर्वकर्मबहिष्कृतः॥ (वसिष्ठ धर्मसूत्र)</blockquote>आचार ही सर्वोत्तम धर्म है, आचार ही सर्वोत्तम तप है, आचार ही सर्वोत्तम ज्ञान है, यदि आचारका पालन हो तो असाध्य क्या है! अर्थात कुछ भी नहीं। शास्त्रोमें आचारका ही सर्वप्रथम उपदेश ( निर्देशन ) हुआ है । धर्म भी आचारसे ही उत्पन्न है ( अर्थात् ) आचार ही धर्मका माता-पिता है और एकमात्र ईश्वर ही धर्मका स्वामी है । इस प्रकार आचार स्वयं ही परमेश्वर सिद्ध होता है। एक ब्राह्मण जो आचारसे च्युत हो गया है,वह वेदोंके फलकी प्राप्तिसे वञ्चित हो जाता है चाहे वेद-वेदाङ्गोंका पारंगत विद्वान् ही क्यो न हो किंतु जो आचारका पालन करता है वह सबका फल प्राप्त कर लेता है ।
| + | सदाचार यह दो शब्दों के योग से बना है - सत् एवं आचार अर्थात उत्तम कार्यशैली, शुद्ध आचरण एवं दोषरहित पवित्र कार्यों के सम्पादन को ही सदाचार कहते हैं। शास्त्रों के अनुसार सज्जनों के आचार का नाम सदाचार है - सतां सज्जनानामाचारः-सदाचारः, शास्त्र सम्मत सज्जनों के आचरण का नाम सदाचार है।<ref>शोधार्थी - किरण कुमारी, [https://shodhganga.inflibnet.ac.in/handle/10603/655106 भारतीय दर्शन में सदाचारः एक दार्शनिक विश्लेषण] (२०२५), ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय, दरभंगा (पृ० ३)।</ref> |
| | | | |
| − | ==आचार की दार्शनिक संरचना॥ Philosophical Structure of Achara== | + | संयम व सदाचार को लेकर साइकोन्यूरो इम्यूनोलॉजी के क्षेत्र में वैज्ञानिक डा० आर० डेविडसन और पी० एरिकसन का प्रयोग है, जिसमें २०० व्यक्ति जो संयम व सदाचार का पालन करते हुए अध्यात्म के प्रति आस्थावान् थे तथा २०० ऐसे व्यक्ति जो भोग्विलास तथा अस्त-व्यस्त जीवन-यापन कर रहे थे। अध्ययन पश्चात वैज्ञानिकों ने देखा कि जो संयम व सदाचार युक्त जीवनयापन करते हैं, वे कम बीमार हुए एवं मानसिक स्थिरता उनके अन्दर ज्यादा थी। इसके विपरीत जिन व्यक्तियों ने इसे पालन नहीं किया वे शारीरिक व मानसिक रूप से कमजोर थे। |
| | + | |
| | + | अतः वैज्ञानिक प्रमाणों द्वारा भी ज्ञात होता है कि संयम व सदाचार व्यक्ति के जीवन में आवश्यक है।<ref>डॉ० जितेन्द्र शर्मा, [https://ijcrt.org/papers/IJPUB1304104.pdf आध्यात्मिक जीवनशैली के तत्त्व-संयम व सदाचार], सन २०१६, इण्टरनेशनल जर्नल ऑफ क्रिएटिव रिसर्च ठॉट्स (पृ० २)।</ref> |
| | + | |
| | + | ===दुराचार=== |
| | + | |
| | + | ==आचार की दार्शनिक संरचना॥ Philosophical Structure of Achara == |
| | आचार से आशय उस श्रेष्ठ आचरण से है जिसे व्यक्ति अपने जीवन में अपनाता है। यह धर्म, नैतिकता और सामाजिक दृष्टि से ऐसा आचरण है जिसे सभी लोग अनुसरण योग्य मानते हैं। आचार का निर्धारण समाज की समष्टि-हित भावना को ध्यान में रखकर किया जाता है; इसलिए यह सदैव शोभनीय और लोक-हितकारी होता है। | | आचार से आशय उस श्रेष्ठ आचरण से है जिसे व्यक्ति अपने जीवन में अपनाता है। यह धर्म, नैतिकता और सामाजिक दृष्टि से ऐसा आचरण है जिसे सभी लोग अनुसरण योग्य मानते हैं। आचार का निर्धारण समाज की समष्टि-हित भावना को ध्यान में रखकर किया जाता है; इसलिए यह सदैव शोभनीय और लोक-हितकारी होता है। |
| | | | |
| Line 36: |
Line 46: |
| | | | |
| | ==स्मृतियों में आचार॥ Achara in Smritis== | | ==स्मृतियों में आचार॥ Achara in Smritis== |
| − | आचारात् प्राप्यते श्रैष्ठ्यम्, आचारात् कर्म लभ्यते। कर्मणो जायते ज्ञानम् – इति वाक्यं मनोः स्मृतम्॥ 13॥
| + | आचारात्प्राप्यते श्रैष्ठ्यमाचारात्कर्म लभ्यते। कर्मणो जायते ज्ञानमिति वाक्यं मनोः स्मृतम्॥ (देवी भागवत ११.१.१३)<ref name=":1">[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%A6%E0%A5%87%E0%A4%B5%E0%A5%80%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%97%E0%A4%B5%E0%A4%A4%E0%A4%AA%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%A3%E0%A4%AE%E0%A5%8D/%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%95%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A7%E0%A4%83_%E0%A5%A7%E0%A5%A7/%E0%A4%85%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%83_%E0%A5%A6%E0%A5%A7 देवी भागवत], स्कन्ध ११, अध्याय १, श्लोक १३।</ref> |
| | | | |
| − | सदाचार के पालन से मनुष्य को श्रेष्ठता, सम्मान और उच्च स्थिति प्राप्त होती है। आचार ही कर्म का आधार बनता है, क्योंकि बिना उचित आचरण के धर्मयुक्त कर्म संभव नहीं है। मनुस्मृति का यह सिद्धांत है कि जब कर्म शुद्ध, संयत और विधिपूर्वक किए जाते हैं, तब उनसे यथार्थ ज्ञान की उत्पत्ति होती है। अतः आचार → कर्म → ज्ञान — यह मानव विकास की क्रमिक और अनिवार्य शृंखला है। सच्चा ज्ञान उसी को प्राप्त होता है जो पहले आचार को दृढ़ करता है और फिर उसी के अनुरूप कर्म का अनुष्ठान करता है। | + | सदाचार के पालन से मनुष्य को श्रेष्ठता, सम्मान और उच्च स्थिति प्राप्त होती है। आचार ही कर्म का आधार बनता है, क्योंकि बिना उचित आचरण के धर्मयुक्त कर्म संभव नहीं है। मनुस्मृति का यह सिद्धांत है कि जब कर्म शुद्ध, संयत और विधिपूर्वक किए जाते हैं, तब उनसे यथार्थ ज्ञान की उत्पत्ति होती है। अतः आचार → कर्म → ज्ञान — यह मानव विकास की क्रमिक और अनिवार्य शृंखला है। सच्चा ज्ञान उसी को प्राप्त होता है जो पहले आचार को दृढ़ करता है और फिर उसी के अनुरूप कर्म का अनुष्ठान करता है।<blockquote>सर्वधर्मवरिष्ठोऽयमाचारः परमं तपः। तदेव ज्ञानमुद्दिष्टं तेन सर्वं प्रसाध्यते॥ (देवी भागवत ११.१.१४)<ref name=":1" /></blockquote>सभी धर्मों में आचार को सर्वश्रेष्ठ कहा गया है, क्योंकि यह स्वयं में एक महान तप है। नियम, शुचिता, संयम और सतत अनुशासन - ये सब मिलकर आचार को तपस्वी-गुण प्रदान करते हैं। यही आचार वास्तविक ज्ञान का लक्ष्य है, क्योंकि आचार से उत्पन्न पवित्रता और एकाग्रता के द्वारा जीवन के सभी कार्य सफलतापूर्वक संपन्न होते हैं। मनुष्य के प्रयासों की सिद्धि और आंतरिक उन्नति का मूल आधार आचार ही है। |
| − | | |
| − | सर्वधर्मवरिष्ठोऽयमाचारः परमं तपः। तदेव ज्ञानमुद्दिष्टं तेन सर्वं प्रसाध्यते॥ 14॥ | |
| − | | |
| − | सभी धर्मों में आचार को सर्वश्रेष्ठ कहा गया है, क्योंकि यह स्वयं में एक महान तप है। नियम, शुचिता, संयम और सतत अनुशासन—ये सब मिलकर आचार को तपस्वी-गुण प्रदान करते हैं। यही आचार वास्तविक ज्ञान का लक्ष्य है, क्योंकि आचार से उत्पन्न पवित्रता और एकाग्रता के द्वारा जीवन के सभी कार्य सफलतापूर्वक संपन्न होते हैं। मनुष्य के प्रयासों की सिद्धि और आंतरिक उन्नति का मूल आधार आचार ही है। | |
| | | | |
| | स्मृतियों में आचार के तीन विभाग किये गये हैं - देशाचार, जात्याचार और कुलाचार। | | स्मृतियों में आचार के तीन विभाग किये गये हैं - देशाचार, जात्याचार और कुलाचार। |
| Line 51: |
Line 57: |
| | धर्मशास्त्र में इस बात का राजा को आदेश दिया गया है कि वह आचारों को मान्यता प्रदान करे, ऐसा न करने से प्रजा क्षुब्ध होती है। | | धर्मशास्त्र में इस बात का राजा को आदेश दिया गया है कि वह आचारों को मान्यता प्रदान करे, ऐसा न करने से प्रजा क्षुब्ध होती है। |
| | | | |
| − | ==आह्निक एवं आचार== | + | ==आह्निक एवं आचार॥ Ahnika and Achara== |
| − | वर्तमान के समय में आचरण के पालन में बाधा करने वाले निम्नकारण हैं-
| + | आचारविहीन व्यक्ति, चाहे उसने वेदों का तथा उनके छहों अंगों का गहन अध्ययन ही क्यों न किया हो, वेद उसके लिए शुद्धिकारक नहीं होते। यदि आचार नहीं है, तो सभी धार्मिक कर्म मिथ्या और निष्फल हो जाते हैं। वास्तविक धर्म का आरम्भ आचार से ही होता है - यही प्रथम धर्म है, जैसा कि श्रुति और स्मृति सिरोभाग दोनों में कहा गया है। इसलिए प्रत्येक द्विज को सदाचारयुक्त आचरण को अपने जीवन में धारण करना चाहिए - <blockquote>आचारहीनं न पुनन्ति वेदा यद्यप्यधीताः सह षड्भिरङ्गैः। आचारहीनेन तु धर्मकार्यं कृतं हि सर्वं भवतीह मिथ्या॥ (विष्णुधर्मोत्तर पुराण)<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%B7%E0%A5%8D%E0%A4%A3%E0%A5%81%E0%A4%A7%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A5%8B%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%B0%E0%A4%AA%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%A3%E0%A4%AE%E0%A5%8D/%E0%A4%96%E0%A4%A3%E0%A5%8D%E0%A4%A1%E0%A4%83_%E0%A5%A9/%E0%A4%85%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%83_%E0%A5%A8%E0%A5%AA%E0%A5%AC-%E0%A5%A8%E0%A5%AB%E0%A5%A6 विष्णुधर्मोत्तर पुराण], खण्ड ३, अध्याय २५०, श्लोक ५।</ref> |
| | + | |
| | + | आचाराल्लभते ह्यायुराचारादीप्सिताः प्रजाः। आचाराद्धनमक्षय्यं आचारो हन्त्यलक्षणम्॥ |
| | + | |
| | + | दुराचारो हि पुरुषो लोके भवति निन्दितः। दुःखभागी च सततं व्याधितोऽल्पायुरेव च॥ (मनु स्मृति ४.१५७)<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A4%A8%E0%A5%81%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A5%83%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%83/%E0%A4%9A%E0%A4%A4%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%A5%E0%A5%8B%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%83 मनु स्मृति], अध्याय ४, श्लोक १५६/१५७।</ref></blockquote>'''भाषार्थ -''' सदाचार से मनुष्य को दीर्घायु प्राप्त होती है, वही उसे अपनी इच्छा के अनुसार उत्तम संतान देता है। सदाचार के कारण ऐसा धन मिलता है जो स्थिर और टिकाऊ होता है, तथा सदाचार ही सभी प्रकार के दोष, अशुभ लक्षण और अनिष्ट संकेतों को नष्ट कर देता है। इसके विपरीत जो मनुष्य दुराचारी होता है, वह इस संसार में सबके द्वारा निन्दित और तिरस्कृत माना जाता है। वह निरन्तर दुःखों का भागी होता है, रोगों से ग्रस्त रहता है और उसका जीवन सामान्यतः अल्पायु तथा कष्टमय हो जाता है।<blockquote>आचारात्प्राप्यते स्वर्ग आचारात्प्राप्यते सुखम्। आचारात्माप्यते मोक्ष भाचाराकिं न लभ्यते॥ (नारद पुराण)<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%A6%E0%A4%AA%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%A3%E0%A4%AE%E0%A5%8D-_%E0%A4%AA%E0%A5%82%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%A7%E0%A4%83/%E0%A4%85%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%83_%E0%A5%AA नारद पुराण], पूर्वार्द्ध/अध्याय ४, श्लोक २७।</ref> |
| | + | |
| | + | आचाराल्लभते ह्यायुराचारादीप्सिताः प्रजाः। आचाराद्धनं अक्षय्यं आचारो हन्त्यलक्षणम्॥ |
| | | | |
| − | * विधि को न जानना | + | दुराचारो हि पुरुषो लोके भवति निन्दितः। दुःखभागी च सततं व्याधितोऽल्पायुरेव च॥ (वासिष्ठ धर्मशास्त्र ४.१५७)<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%B8%E0%A4%BF%E0%A4%B7%E0%A5%8D%E0%A4%A0%E0%A4%A7%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A4%B6%E0%A4%BE%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%AE%E0%A5%8D वासिष्ठ धर्मशास्त्रम्], अध्याय ६, श्लोक ६।</ref></blockquote>आचार आयुकी वृद्धि करता है, आचारसे इच्छित संतानकी प्राप्ति होती है, वह शाश्वत एवं असीम धन देता है और दोष-दुर्लक्षणोंको भी दूर कर देता है। जो आचारसे भ्रष्ट हो गया है, वह चाहे सभी अङ्गों सहित वेद-वेदान्तका पारगामी क्यों न हो, उसे पतित तथा सभी कर्मोंसे बहिष्कृत समझना चाहिये। वर्तमान के समय में आचरण के पालन में बाधा करने वाले निम्नकारण हैं - |
| − | * विधि पर अश्रद्धा | + | *विधि को न जानना |
| − | * विजातीय अनुकरण की अत्यन्त अधिकता | + | *विधि पर अश्रद्धा |
| − | * स्वेछाचारी होने की प्रबलता | + | *विजातीय अनुकरण की अत्यन्त अधिकता |
| − | * स्वाभाविक आलस्य आदि की अधिकता ही समाज में आचार को न्यूनता की ओर प्रेरित करने में अग्रसर है। | + | *स्वेछाचारी होने की प्रबलता |
| | + | *स्वाभाविक आलस्य आदि की अधिकता ही समाज में आचार को न्यूनता की ओर प्रेरित करने में अग्रसर है। |
| | | | |
| − | शास्त्रोक्त विधि का प्रतिपालन ही सदाचार कहा जाता था- | + | शास्त्रोक्त विधि का प्रतिपालन ही सदाचार कहा जाता था - |
| | | | |
| − | संक्षेपमें हमारे श्रुति-स्मृतिमूलक संस्कार देह, इन्द्रिय, मन, बुद्धि और आत्माका मलापनयन(परिशुद्धि) कर उनमें अतिशयाधान करते हुए किञ्चित् हीन अङ्ग की पूर्ति कर उन्हें विमल कर देते हैं। संस्कारोंकी उपेक्षा करनेसे समाजमें उच्छृङ्खलता(अराजकता)की वृद्धि हो जाती है जिसका दुष्परिणाम सर्वगोचर एवं सर्वविदित है। | + | संक्षेपमें हमारे श्रुति-स्मृतिमूलक संस्कार देह, इन्द्रिय, मन, बुद्धि और आत्माका मलापनयन (परिशुद्धि) कर उनमें अतिशयाधान करते हुए किञ्चित् हीन अङ्ग की पूर्ति कर उन्हें विमल कर देते हैं। संस्कारोंकी उपेक्षा करनेसे समाजमें उच्छृङ्खलता (अराजकता)की वृद्धि हो जाती है जिसका दुष्परिणाम सर्वगोचर एवं सर्वविदित है। |
| | | | |
| | वर्तमानमें मनुष्यकी बढ़ती हुई भोगवादी कुप्रवृत्तिके कारण आचार-विचार का उत्तरोत्तर ह्रास हो रहा है एवं स्वेच्छाचारकी कुत्सित मनोवृत्ति भी उत्तरोत्तर बढ़ती जा रही है, जिसका दुष्परिणाम संसार के समस्त प्राणियों को भोगना पड़ रहा है। ऐसी भयावह परिस्थितिमें मानव के लिये स्वस्थ दिशा बोध प्रदान करनेके लिये आचार-विचार का ज्ञान और उसके अनुसार आचरण करना यह पथ-प्रदर्शक होगा। | | वर्तमानमें मनुष्यकी बढ़ती हुई भोगवादी कुप्रवृत्तिके कारण आचार-विचार का उत्तरोत्तर ह्रास हो रहा है एवं स्वेच्छाचारकी कुत्सित मनोवृत्ति भी उत्तरोत्तर बढ़ती जा रही है, जिसका दुष्परिणाम संसार के समस्त प्राणियों को भोगना पड़ रहा है। ऐसी भयावह परिस्थितिमें मानव के लिये स्वस्थ दिशा बोध प्रदान करनेके लिये आचार-विचार का ज्ञान और उसके अनुसार आचरण करना यह पथ-प्रदर्शक होगा। |
| | | | |
| − | == उद्धरण॥ References == | + | ==उद्धरण॥ References== |
| | [[Category:Hindi Articles]] | | [[Category:Hindi Articles]] |
| | [[Category:हिंदी भाषा के लेख]] | | [[Category:हिंदी भाषा के लेख]] |
| | <references /> | | <references /> |