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| − | न्याय व्यवस्था भारतीय ज्ञान परंपरा में धर्मशास्त्रों के आधार पर स्थिर थी, जिसमें नैतिकता, विधि, कर्तव्य और लोक-कल्याण की भावना विद्यमान थी। न्यायिक प्रशासन राजा के अधीन था और राजा के दैनिक कार्यों में न्याय-प्रक्रिया के लिए निश्चित समय निर्धारित रहता था। लेकिन निर्णय श्रुति, स्मृति, सदाचार, देश, काल और परिस्थिति के अनुसार ही किए जाते थे। | + | न्याय-व्यवस्था प्राचीन काल में राजा-केंद्रित और कठोर दण्ड-नीति पर आधारित थी, जिसमें नैतिकता, विधि, कर्तव्य और लोक-कल्याण की भावना विद्यमान थी। राजा ही सर्वोच्च न्यायाधीश माना जाता था और वह धर्म, राज्यहित तथा नीति के अनुसार न्याय करता था। राजा के दैनिक कार्यों में न्याय-प्रक्रिया के लिए निश्चित समय निर्धारित रहता था। लेकिन निर्णय श्रुति, स्मृति, सदाचार, देश, काल और परिस्थिति के अनुसार ही किए जाते थे। |
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| | ==परिचय॥ Introduction== | | ==परिचय॥ Introduction== |
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| | प्राचीन न्याय व्यवस्था में साक्षी का भी बहुत महत्व था, यह लिखित और मौखिक दोनों प्रकार का हो सकता था। मनु ने न्यायिक क्षेत्र का स्पष्ट विभाजन किया है। उन्होंने मुकदमों को अठारह भेदों में वर्गीकृत किया है, जिन्हें 'अष्टादश व्यवहारपद' कहा जाता है। इनमें अनुबंध, व्यापार, विवाद, ऋण, दाय, साक्ष्य, दुराचार, उपनिधि, द्रोह आदि प्रमुख विषय सम्मिलित हैं। इन व्यवहारपदों से यह स्पष्ट होता है कि स्मृति-युग में न्यायपालिका केवल दण्ड-विधान करने वाली संस्था नहीं थी, बल्कि सामाजिक, आर्थिक एवं धार्मिक जीवन के सभी आयामों को नियंत्रित एवं संरक्षित रखने वाली समग्र व्यवस्था थी।<ref>डॉ० शशि कश्यप, [https://dn721806.ca.archive.org/0/items/wg075/WG075-2001-DharamShastromMeinNyayaVyavasthaKaSwaroop.pdf धर्मशास्त्रों में न्यायव्यवस्था का स्वरूप], सन २०००, न्यू भारतीय बुक कार्पोरेशन, दिल्ली (पृ० ३३)।</ref> | | प्राचीन न्याय व्यवस्था में साक्षी का भी बहुत महत्व था, यह लिखित और मौखिक दोनों प्रकार का हो सकता था। मनु ने न्यायिक क्षेत्र का स्पष्ट विभाजन किया है। उन्होंने मुकदमों को अठारह भेदों में वर्गीकृत किया है, जिन्हें 'अष्टादश व्यवहारपद' कहा जाता है। इनमें अनुबंध, व्यापार, विवाद, ऋण, दाय, साक्ष्य, दुराचार, उपनिधि, द्रोह आदि प्रमुख विषय सम्मिलित हैं। इन व्यवहारपदों से यह स्पष्ट होता है कि स्मृति-युग में न्यायपालिका केवल दण्ड-विधान करने वाली संस्था नहीं थी, बल्कि सामाजिक, आर्थिक एवं धार्मिक जीवन के सभी आयामों को नियंत्रित एवं संरक्षित रखने वाली समग्र व्यवस्था थी।<ref>डॉ० शशि कश्यप, [https://dn721806.ca.archive.org/0/items/wg075/WG075-2001-DharamShastromMeinNyayaVyavasthaKaSwaroop.pdf धर्मशास्त्रों में न्यायव्यवस्था का स्वरूप], सन २०००, न्यू भारतीय बुक कार्पोरेशन, दिल्ली (पृ० ३३)।</ref> |
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| − | == न्याय व्यवस्था की उपयोगिता == | + | == अर्थशास्त्र में न्याय व्यवस्था== |
| | + | कौटिल्य के समय की न्याय-व्यवस्था राजा-केंद्रित और कठोर दण्ड-नीति पर आधारित थी। उस काल में न्याय की गति तीव्र थी तथा अनुशासन को सर्वोच्च स्थान दिया जाता था। राजा ही सर्वोच्च न्यायाधीश माना जाता था और वह धर्म, राज्यहित तथा नीति के अनुसार न्याय करता था। उस काल की न्याय-प्रणाली राज्य की स्थिरता बनाए रखने और भ्रष्टाचार को रोकने का प्रभावी माध्यम मानी जाती थी। |
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| | + | इसके विपरीत, आधुनिक भारत की न्याय-व्यवस्था संविधान पर आधारित है, जिसमें नागरिकों के अधिकारों की रक्षा, निष्पक्ष न्याय और न्यायपालिका की स्वतंत्रता को मुख्य स्थान दिया गया है। शोध से यह स्पष्ट होता है कि जहाँ कौटिल्य की व्यवस्था प्रशासनिक पारदर्शिता और त्वरित न्याय सुनिश्चित करती थी, वहीं वर्तमान व्यवस्था मानवाधिकारों और लोकतांत्रिक आदर्शों पर अधिक केंद्रित है। फिर भी न्याय में होने वाला विलंब, अधिक व्यय और जटिल प्रक्रियाएँ इसकी प्रमुख कठिनाइयाँ हैं। |
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| | + | इस तुलनात्मक अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि दोनों व्यवस्थाएँ समाज में विधि, व्यवस्था और न्याय की स्थापना के लिए बनी थीं, परंतु उनके उद्देश्य और दृष्टिकोण समय तथा परिस्थिति के अनुसार भिन्न रहे हैं। यदि वर्तमान न्याय-प्रणाली कौटिल्य के व्यावहारिक और परिणाममुखी सिद्धांतों को अपनाए, तो यह अधिक प्रभावी और जनहितकारी बन सकती है।<ref>शोधार्थी- पवन सोनल, [https://ijsrem.com/download/%E0%A4%95%E0%A5%8C%E0%A4%9F%E0%A4%BF%E0%A4%B2%E0%A5%8D%E0%A4%AF-%E0%A4%95%E0%A4%BE-%E0%A4%85%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%A5%E0%A4%B6%E0%A4%BE%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B0-%E0%A4%94/ कौटिल्य का अर्थशास्त्र और आधुनिक न्याय व्यवस्था], सन् २०२५, इण्टरनेशनल जर्नल साइंटिफिक रिसर्च इन इंजीनियरिंग एण्ड मैनेजमेण्ट (पृ० १)।</ref> |
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| | + | ==न्याय व्यवस्था की उपयोगिता== |
| | स्मृतियों के अनुशीलन से ज्ञात होता है कि उस काल में प्रजा को न्याय दिलाने के लिए एक सुव्यवस्थित और त्वरित न्याय प्रणाली विद्यमान थी। स्मृतियों में यह उल्लेख मिलता है कि यदि न्यायाधीश उचित न्याय नहीं करता था, तो उसे दण्डित किया जाता था। इससे न्याय की निष्पक्षता और उत्तरदायित्व दोनों सुनिश्चित होते थे। स्मृतिकालीन न्याय व्यवस्था सुगम और जनसुलभ थी। गांव, वन और नगर—सभी स्तरों पर विवादों के निपटारे हेतु स्थानीय निकाय होते थे, जिससे लोगों को शीघ्र न्याय प्राप्त होता था। इसके विपरीत वर्तमान में न्यायिक प्रक्रिया अत्यधिक जटिल और विलंबकारी बन चुकी है। पीड़ित व्यक्ति को न्याय पाने के लिए वर्षों तक न्यायालयों के चक्कर लगाने पड़ते हैं। | | स्मृतियों के अनुशीलन से ज्ञात होता है कि उस काल में प्रजा को न्याय दिलाने के लिए एक सुव्यवस्थित और त्वरित न्याय प्रणाली विद्यमान थी। स्मृतियों में यह उल्लेख मिलता है कि यदि न्यायाधीश उचित न्याय नहीं करता था, तो उसे दण्डित किया जाता था। इससे न्याय की निष्पक्षता और उत्तरदायित्व दोनों सुनिश्चित होते थे। स्मृतिकालीन न्याय व्यवस्था सुगम और जनसुलभ थी। गांव, वन और नगर—सभी स्तरों पर विवादों के निपटारे हेतु स्थानीय निकाय होते थे, जिससे लोगों को शीघ्र न्याय प्राप्त होता था। इसके विपरीत वर्तमान में न्यायिक प्रक्रिया अत्यधिक जटिल और विलंबकारी बन चुकी है। पीड़ित व्यक्ति को न्याय पाने के लिए वर्षों तक न्यायालयों के चक्कर लगाने पड़ते हैं। |
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