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इस काल की मूर्तिकला में प्रतीकात्मकता (Symbolism) प्रधान तत्व के रूप में उभरकर सामने आती है। देवताओं को प्रत्यक्षतः न दिखाकर उनके चिन्हों – जैसे अशोकचक्र, पद्म, वज्र, वृक्ष, सिंहासन आदि के माध्यम से उनकी उपस्थिति को धार्मिक अनुभूति में अवतरित किया गया। यह प्रवृत्ति विशेषतः प्रारंभिक बौद्ध मूर्तिकला में देखी जाती है, जहाँ बुद्ध को पदचिन्ह, बोधिवृक्ष या सिंहासन के माध्यम से दर्शाया गया। इसी कालखण्ड में भारत की दो अन्य महान मूर्तिकला शैलियाँ – गांधार शैली एवं मथुरा शैली – का समवर्ती उत्कर्ष हुआ।
 
इस काल की मूर्तिकला में प्रतीकात्मकता (Symbolism) प्रधान तत्व के रूप में उभरकर सामने आती है। देवताओं को प्रत्यक्षतः न दिखाकर उनके चिन्हों – जैसे अशोकचक्र, पद्म, वज्र, वृक्ष, सिंहासन आदि के माध्यम से उनकी उपस्थिति को धार्मिक अनुभूति में अवतरित किया गया। यह प्रवृत्ति विशेषतः प्रारंभिक बौद्ध मूर्तिकला में देखी जाती है, जहाँ बुद्ध को पदचिन्ह, बोधिवृक्ष या सिंहासन के माध्यम से दर्शाया गया। इसी कालखण्ड में भारत की दो अन्य महान मूर्तिकला शैलियाँ – गांधार शैली एवं मथुरा शैली – का समवर्ती उत्कर्ष हुआ।
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==मूर्ति एवं प्रतिमा॥ murti evam pratima==
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==मूर्ति एवं प्रतिमा॥ Murti evam Pratima==
 
प्रतिमा का शाब्दिक अर्थ प्रतिरूप होता है अर्थात समान आकृति। पाणिनि ने भी अपने सूत्र 'इवप्रतिकृतौ' में समरूप आकृति के लिए प्रतिकृति शब्द का प्रयोग किया है। प्रतिमा विज्ञान के लिए अंग्रेजी में Iconography शब्द प्रयुक्त होता है। Icon शब्द का तात्पर्य उस देवता अथवा ऋषि के रूप है जो कला में चित्रित किया जाता है। ग्रीक भाषा में इसके लिए 'इकन' (Eiken) शब्द प्रयोग हुआ है। इसी अर्थ से समानता रखते हुए भारतीय अर्चा, विग्रह, तनु तथा रूप शब्द हैं। पांचरात्र संहिता में तो <nowiki>''क्रिया''</nowiki> मोक्ष का मार्ग माना गया है इसीलिए शासक मोक्ष निमित्त मन्दिरों का निर्माण किया करते थे।<ref>डॉ० वासुदेव उपाध्याय, [https://archive.org/details/in.ernet.dli.2015.445223/page/n2/mode/1up प्राचीन भारतीय मूर्ति-विज्ञान], सन १९७०, चौखम्बा संस्कृत सीरीज ऑफिस, वाराणसी (पृ० २१)।</ref>
 
प्रतिमा का शाब्दिक अर्थ प्रतिरूप होता है अर्थात समान आकृति। पाणिनि ने भी अपने सूत्र 'इवप्रतिकृतौ' में समरूप आकृति के लिए प्रतिकृति शब्द का प्रयोग किया है। प्रतिमा विज्ञान के लिए अंग्रेजी में Iconography शब्द प्रयुक्त होता है। Icon शब्द का तात्पर्य उस देवता अथवा ऋषि के रूप है जो कला में चित्रित किया जाता है। ग्रीक भाषा में इसके लिए 'इकन' (Eiken) शब्द प्रयोग हुआ है। इसी अर्थ से समानता रखते हुए भारतीय अर्चा, विग्रह, तनु तथा रूप शब्द हैं। पांचरात्र संहिता में तो <nowiki>''क्रिया''</nowiki> मोक्ष का मार्ग माना गया है इसीलिए शासक मोक्ष निमित्त मन्दिरों का निर्माण किया करते थे।<ref>डॉ० वासुदेव उपाध्याय, [https://archive.org/details/in.ernet.dli.2015.445223/page/n2/mode/1up प्राचीन भारतीय मूर्ति-विज्ञान], सन १९७०, चौखम्बा संस्कृत सीरीज ऑफिस, वाराणसी (पृ० २१)।</ref>
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=== देवप्रतिमा लक्षण ===
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=== देवप्रतिमा लक्षण॥ Devapratima Lakshan===
 
मानव शरीर में जिस प्रकार हृदय में आत्मा का निवास माना जाता है उसी प्रकार देवालय के गर्भगृह में परमात्मा की प्रतिमा के रूप में अवस्थिति कही गई है। जैसा कहा भी गया है -<ref>पत्रिका - वास्तुशास्त्रविमर्श-अष्टम पुष्प, श्री विजय कुमार, देव प्रतिमा लक्षण, सन २०१५, श्री लालबहादुर शास्त्री राष्ट्रिय संस्कृत विद्यापीठ, नई दिल्ली (पृ० १७२)।</ref> <blockquote>ब्रह्मस्थानं यदैतच्च तन्नाभिः परिकीर्तिता। हृदयं पीठिका ज्ञेया प्रतिमा पुरुषः स्मृतः॥ (क्षीरार्णव)</blockquote>भावार्थ - ईश्वर के साकार रूप के ध्यान करने व यथेष्ट देव के प्रति एकाग्रचित्त होकर आस्था व श्रद्धा प्रकट करने का माध्यम मूर्ति (प्रतिमा) को माना जा सकता है। पुराणों में भी प्रत्येक देवता का स्वरूप बताया गया है अतः पुराणोक्त एवं शास्त्रोल्लिखित प्रतिमा स्वरूप के अनुसार ही शिल्पियों द्वारा मूर्तियों (प्रतिमाओं) का निर्माण किया जाता है। सामान्यरूप से मूर्ति को उसके वाहन, आयुध, मुद्रा, अलंकरण और भुजाओं की संख्या से पहचाना जाता है -
 
मानव शरीर में जिस प्रकार हृदय में आत्मा का निवास माना जाता है उसी प्रकार देवालय के गर्भगृह में परमात्मा की प्रतिमा के रूप में अवस्थिति कही गई है। जैसा कहा भी गया है -<ref>पत्रिका - वास्तुशास्त्रविमर्श-अष्टम पुष्प, श्री विजय कुमार, देव प्रतिमा लक्षण, सन २०१५, श्री लालबहादुर शास्त्री राष्ट्रिय संस्कृत विद्यापीठ, नई दिल्ली (पृ० १७२)।</ref> <blockquote>ब्रह्मस्थानं यदैतच्च तन्नाभिः परिकीर्तिता। हृदयं पीठिका ज्ञेया प्रतिमा पुरुषः स्मृतः॥ (क्षीरार्णव)</blockquote>भावार्थ - ईश्वर के साकार रूप के ध्यान करने व यथेष्ट देव के प्रति एकाग्रचित्त होकर आस्था व श्रद्धा प्रकट करने का माध्यम मूर्ति (प्रतिमा) को माना जा सकता है। पुराणों में भी प्रत्येक देवता का स्वरूप बताया गया है अतः पुराणोक्त एवं शास्त्रोल्लिखित प्रतिमा स्वरूप के अनुसार ही शिल्पियों द्वारा मूर्तियों (प्रतिमाओं) का निर्माण किया जाता है। सामान्यरूप से मूर्ति को उसके वाहन, आयुध, मुद्रा, अलंकरण और भुजाओं की संख्या से पहचाना जाता है -
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'''वाहन या आसन वस्तु'''
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===वाहन या आसन वस्तु॥ ===
 
   
जिस वस्तु या वाहन पर किसी आकृति को बैठा या खड़ा दिखाया जाता है, उसे आसन या वस्तु कहते हैं। भारतीय मूर्तियाँ चौकी, सिंहासन, चटाई, गज, मृग अथवा व्याघ्र, चर्म, कमल, पद्मपत्र, सुमेरु, पशु (हाथी, सिंह,अश्व, वृषभ, महिष, मृग, मेढा, शूकर, गर्दभ, शार्दूल आदि) पक्षी - (मयूर, हंस, उल्लूक, गरुड आदि) जलचर - (मकर, मीन, कच्छप आदि) इत्यादि पर बैठी या खडी दिखायी जाती हैं।<ref name=":1">पत्रिका - वास्तुशास्त्रविमर्श, डॉ० सर्वेन्द्र कुमार, वास्तुशास्त्र सम्मत प्रतिमा-विज्ञान, सन २०१४, श्री लालबहादुर शास्त्री राष्ट्रिय संस्कृत विद्यापीठ, नई दिल्ली (पृ० १५३)</ref>
 
जिस वस्तु या वाहन पर किसी आकृति को बैठा या खड़ा दिखाया जाता है, उसे आसन या वस्तु कहते हैं। भारतीय मूर्तियाँ चौकी, सिंहासन, चटाई, गज, मृग अथवा व्याघ्र, चर्म, कमल, पद्मपत्र, सुमेरु, पशु (हाथी, सिंह,अश्व, वृषभ, महिष, मृग, मेढा, शूकर, गर्दभ, शार्दूल आदि) पक्षी - (मयूर, हंस, उल्लूक, गरुड आदि) जलचर - (मकर, मीन, कच्छप आदि) इत्यादि पर बैठी या खडी दिखायी जाती हैं।<ref name=":1">पत्रिका - वास्तुशास्त्रविमर्श, डॉ० सर्वेन्द्र कुमार, वास्तुशास्त्र सम्मत प्रतिमा-विज्ञान, सन २०१४, श्री लालबहादुर शास्त्री राष्ट्रिय संस्कृत विद्यापीठ, नई दिल्ली (पृ० १५३)</ref>
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'''आयुध'''
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===आयुध॥ Ayudh===
 
   
प्रतिमाओं के गुण अथवा शक्ति प्रदर्शित करने के लिए उनके हाथों का उपयोग किया गया है तथा हाथों की संख्या भी बढाई गयी है। इन हाथों में जो वस्तुएँ दिखाते हैं वे किसी शक्ति, क्रिया या गुण की प्रतीक होती है। शिल्पशास्त्र के ग्रन्थों के अनुसार देवताओं के ३६ आयुध हैं, जैसे - चक्र, त्रिशूल, वज्र, धनुष, कृपाण, गदा, अंकुश, बाण, छुरी, दण्ड, शक्ति (नोंकदार तलवार), मूसल, परशु (फरसा), भाला (कुन्त), रिष्टिका (कटार), खट्वांग (मूठदार डण्डा), भुशुण्डी (छोटा नोंकदार डण्डा), कर्तिका (कैंची), कपाल, सूची (सूजा), खेट (ढाल), पाश (फंदा०, सर्प, हल, मुद्गर, शंख, शृंग (बजाने वाला), घण्टा, शत्रु का सिर, खोपडी, माला, पुस्तक, कमण्डल, कमल, पानपत्र और योगमुद्रा आदि।<ref name=":1" />
 
प्रतिमाओं के गुण अथवा शक्ति प्रदर्शित करने के लिए उनके हाथों का उपयोग किया गया है तथा हाथों की संख्या भी बढाई गयी है। इन हाथों में जो वस्तुएँ दिखाते हैं वे किसी शक्ति, क्रिया या गुण की प्रतीक होती है। शिल्पशास्त्र के ग्रन्थों के अनुसार देवताओं के ३६ आयुध हैं, जैसे - चक्र, त्रिशूल, वज्र, धनुष, कृपाण, गदा, अंकुश, बाण, छुरी, दण्ड, शक्ति (नोंकदार तलवार), मूसल, परशु (फरसा), भाला (कुन्त), रिष्टिका (कटार), खट्वांग (मूठदार डण्डा), भुशुण्डी (छोटा नोंकदार डण्डा), कर्तिका (कैंची), कपाल, सूची (सूजा), खेट (ढाल), पाश (फंदा०, सर्प, हल, मुद्गर, शंख, शृंग (बजाने वाला), घण्टा, शत्रु का सिर, खोपडी, माला, पुस्तक, कमण्डल, कमल, पानपत्र और योगमुद्रा आदि।<ref name=":1" />
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'''मुद्रा'''
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=== मुद्रा॥ Mudra ===
 
   
मूर्तियाँ आसन, शयन और स्थान तीन प्रकार की बनायी जाती हैं। वैष्णव सम्प्रदाय में योग, भोग, वीरा और अभिचारिका मुद्रा में भी प्रतिमाएँ बनायी जाती हैं। अधिकांश खडी हुई मूर्तियों की मुख्य मुद्रायें होती हैं -<ref name=":1" />  
 
मूर्तियाँ आसन, शयन और स्थान तीन प्रकार की बनायी जाती हैं। वैष्णव सम्प्रदाय में योग, भोग, वीरा और अभिचारिका मुद्रा में भी प्रतिमाएँ बनायी जाती हैं। अधिकांश खडी हुई मूर्तियों की मुख्य मुद्रायें होती हैं -<ref name=":1" />  
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इनके अतिरिक्त भी कई और मुद्राएँ हैं जो विशेष मूर्तियों में प्रयुक्त होती हैं, जैसे वराह की मुद्रा को 'आलिंग्य' मुद्रा कहते हैं। इसमें बाँया पैर उठा हुआ, कटि कुछ तिरछी, सिर उठा हुआ, नीचा हाथ अभय मुद्रा में होता है।<ref name=":1" />
 
इनके अतिरिक्त भी कई और मुद्राएँ हैं जो विशेष मूर्तियों में प्रयुक्त होती हैं, जैसे वराह की मुद्रा को 'आलिंग्य' मुद्रा कहते हैं। इसमें बाँया पैर उठा हुआ, कटि कुछ तिरछी, सिर उठा हुआ, नीचा हाथ अभय मुद्रा में होता है।<ref name=":1" />
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'''आभूषण एवं वस्त्र'''
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===आभूषण एवं वस्त्र॥ Abhooshan evam Vastra===
    
देवताओं की पहचान उनके आभूषणों एवं वस्त्रों के द्वारा भी की जा सकती है। भारतीय-स्थापत्य में प्रतिमाओं को विविध आभूषणों एवं वस्त्रों से भी सुशोभित करने की परम्परा है। वराहमिहिर ने बृहत्संहिता में उल्लेख किया है - <blockquote>देशानुरूपभूषणवेषालंकारमूर्तिभिः कार्या। प्रतिमा लक्षणयुक्ता सन्निहिता वृद्धिदा भवति॥ (बृहत्संहिता)</blockquote>देश -काल के अनुसार समाज में आभूषणों एवं वस्त्रों की जो मनुष्यों में भूषा-पद्धतियाँ प्रचलित थीं, उन्हीं के अनुरूप देवों की मूर्तियों में भी उनकी परिकल्पना की जाने लगी।
 
देवताओं की पहचान उनके आभूषणों एवं वस्त्रों के द्वारा भी की जा सकती है। भारतीय-स्थापत्य में प्रतिमाओं को विविध आभूषणों एवं वस्त्रों से भी सुशोभित करने की परम्परा है। वराहमिहिर ने बृहत्संहिता में उल्लेख किया है - <blockquote>देशानुरूपभूषणवेषालंकारमूर्तिभिः कार्या। प्रतिमा लक्षणयुक्ता सन्निहिता वृद्धिदा भवति॥ (बृहत्संहिता)</blockquote>देश -काल के अनुसार समाज में आभूषणों एवं वस्त्रों की जो मनुष्यों में भूषा-पद्धतियाँ प्रचलित थीं, उन्हीं के अनुरूप देवों की मूर्तियों में भी उनकी परिकल्पना की जाने लगी।
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