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| | == परिभाषा == | | == परिभाषा == |
| − | वास्तु शब्द की व्युत्पत्ति वस् निवासे- एक स्थान में वास करने की द्योतक, धातु से निष्पन्न होता है। वास्तु का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है-<blockquote>वसन्ति प्राणिनः अस्मिन्निति वास्तुः, तत्संबंधिशास्त्रं वास्तुशास्त्रम् ।(श०कल्प०)<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%B6%E0%A4%AC%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A4%95%E0%A4%B2%E0%A5%8D%E0%A4%AA%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%81%E0%A4%AE%E0%A4%83/%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%B8%E0%A4%BF%E0%A4%83 शब्दकल्पद्रुम] पृ०४/३५८।</ref></blockquote>अर्थ- वह भवन जिसमें प्राणी निवास करते हैं, उसे वास्तु एवं वास्तु संबंधित विषयों का जिसमें वर्णन हो उसे वास्तुशास्त्र कहते हैं।<blockquote>गृह रचनावच्छिन्नभूमे।(अम०को०)</blockquote>अर्थ- गृह रचना के योग्य अविच्छिन्न भूमि को वास्तु कहते हैं। | + | वास्तु शब्द की व्युत्पत्ति वस् निवासे- एक स्थान में वास करने की द्योतक, धातु से निष्पन्न होता है। वास्तु का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है -<blockquote>वसन्ति प्राणिनः अस्मिन्निति वास्तुः, तत्संबंधिशास्त्रं वास्तुशास्त्रम्।(शब्द कल्पद्रुम)<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%B6%E0%A4%AC%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A4%95%E0%A4%B2%E0%A5%8D%E0%A4%AA%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%81%E0%A4%AE%E0%A4%83/%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%B8%E0%A4%BF%E0%A4%83 शब्दकल्पद्रुम] पृ०४/३५८।</ref></blockquote>अर्थ - वह भवन जिसमें प्राणी निवास करते हैं, उसे वास्तु एवं वास्तु संबंधित विषयों का जिसमें वर्णन हो उसे वास्तुशास्त्र कहते हैं।<blockquote>गृह रचनावच्छिन्नभूमे।(अमर कोश)</blockquote>अर्थ- गृह रचना के योग्य अविच्छिन्न भूमि को वास्तु कहते हैं। |
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| | '''वास्तु के पर्यायवाची शब्द-''' आय, गृहभूः, गृहार्हभूमिः, वास्तु, वेश्मभूमिः और सदनभूमिः आदि शास्त्रों में वास्तु के पर्यायवाचक शब्द कहे गये हैं।<ref>डॉ० सुरकान्त झा, ज्योतिर्विज्ञानशब्दकोषः, सन् २००९, वाराणसीः चौखम्बा कृष्णदास अकादमी, मुहूर्त्तादिसर्ग, (पृ०१३७)।</ref>इसी प्रकार शब्दरत्नावली में वास्तु के लिये वाटिका एवं गृहपोतक शब्द प्रयुक्त हुये हैं। | | '''वास्तु के पर्यायवाची शब्द-''' आय, गृहभूः, गृहार्हभूमिः, वास्तु, वेश्मभूमिः और सदनभूमिः आदि शास्त्रों में वास्तु के पर्यायवाचक शब्द कहे गये हैं।<ref>डॉ० सुरकान्त झा, ज्योतिर्विज्ञानशब्दकोषः, सन् २००९, वाराणसीः चौखम्बा कृष्णदास अकादमी, मुहूर्त्तादिसर्ग, (पृ०१३७)।</ref>इसी प्रकार शब्दरत्नावली में वास्तु के लिये वाटिका एवं गृहपोतक शब्द प्रयुक्त हुये हैं। |
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| | # '''जलाशय''' | | # '''जलाशय''' |
| | # '''धार्मिक''' | | # '''धार्मिक''' |
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| | वास्तुशास्त्र के स्वरूप को समझने के लिये वास्तुपुरुष के उद्भव की कथा जानना चाहिये। वास्तुपुरुष की उत्पत्ति के विषय में अनेक प्रसंग प्रचलित हैं। बृहत्संहिता के वास्तुविद्या अध्याय में वराहमिहिर जी ने वर्णन किया है कि-<blockquote>किमपि किल भूतमभवद्रुन्धनं रोदसी शरीरेण। तदमरगणेन सहसा विनिगृह्याधेमुखं न्यस्तम् ॥ | | वास्तुशास्त्र के स्वरूप को समझने के लिये वास्तुपुरुष के उद्भव की कथा जानना चाहिये। वास्तुपुरुष की उत्पत्ति के विषय में अनेक प्रसंग प्रचलित हैं। बृहत्संहिता के वास्तुविद्या अध्याय में वराहमिहिर जी ने वर्णन किया है कि-<blockquote>किमपि किल भूतमभवद्रुन्धनं रोदसी शरीरेण। तदमरगणेन सहसा विनिगृह्याधेमुखं न्यस्तम् ॥ |
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| − | यत्रा च येन गृहीतं विबुधेनाधिष्ठितः स तत्रैव। तदमरमयं विधता वास्तुनरं कल्पयामास॥(बृह०सं०२-३)</blockquote>अर्थात् पूर्वकाल में कोई अद्भुत अज्ञात स्वरूप व नाम का एक प्राणी प्रकट हुआ, उसका विशाल(विकराल) शरीर भूमिसे आकाश तक व्याप्त था, उसे देवताओं ने देखकर सहसा पकड नीचे मुख करके उसके शरीर पर यथास्थान अपना निवास बना लिया(जिस देव ने उसके शरीर के जिस भाग को पकडा, वे उसी स्थान पर व्यवस्थित हो गये) उस अज्ञात प्राणी को ब्रह्मा जी ने देवमय वास्तु-पुरुष के नाम से उद्घोषित किया। | + | यत्रा च येन गृहीतं विबुधेनाधिष्ठितः स तत्रैव। तदमरमयं विधता वास्तुनरं कल्पयामास॥(बृहत्संहिता)</blockquote>अर्थात् पूर्वकाल में कोई अद्भुत अज्ञात स्वरूप व नाम का एक प्राणी प्रकट हुआ, उसका विशाल(विकराल) शरीर भूमिसे आकाश तक व्याप्त था, उसे देवताओं ने देखकर सहसा पकड नीचे मुख करके उसके शरीर पर यथास्थान अपना निवास बना लिया(जिस देव ने उसके शरीर के जिस भाग को पकडा, वे उसी स्थान पर व्यवस्थित हो गये) उस अज्ञात प्राणी को ब्रह्मा जी ने देवमय वास्तु-पुरुष के नाम से उद्घोषित किया।<ref>शोध कर्ता - रितु चौधरी, [https://shodhganga.inflibnet.ac.in/handle/10603/139768 मयमतम् में वास्तु विज्ञान], अध्याय-०३, सन २०१४, बनस्थली यूनिवर्सिटी (पृ० १३२)।</ref> |
| − | == वास्तु-पुरुष के उत्पत्ति की कथा == | + | ==वास्तु-पुरुष के उत्पत्ति की कथा== |
| | मतस्य पुराण के वास्तु-प्रादुर्भाव नामक अध्याय में वास्तु पुरुष की उत्पत्ति में वास्तु पुरुष के जन्म से सम्बंधित कथा का उल्लेख मिलता है-<blockquote>तदिदानीं प्रवक्ष्यामि वास्तुशास्त्रमनुतामम् । पुरान्धकवधे घोरे घोररूपस्य शूलिनः॥ | | मतस्य पुराण के वास्तु-प्रादुर्भाव नामक अध्याय में वास्तु पुरुष की उत्पत्ति में वास्तु पुरुष के जन्म से सम्बंधित कथा का उल्लेख मिलता है-<blockquote>तदिदानीं प्रवक्ष्यामि वास्तुशास्त्रमनुतामम् । पुरान्धकवधे घोरे घोररूपस्य शूलिनः॥ |
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| | हे प्रभु कृपा कर मुझे तीनों लोक खाने की अनुमति प्रदान करें। यह सुनकर भोलेनाथ शिवजी ने "तथास्तु" कह उसे वरदान स्वरुप आज्ञा प्रदान कर दी। फलस्वरूप उसने तीनो लोकों को अपने अधिकार में ले लिया, व सर्वप्रथम वह पृथ्वी लोक को खाने के लिए चला। यह देख ब्रह्माजी, शिवजी अन्य देवगण एवं राक्षस भी भयभीत हो गए। उसे पृथ्वी को खाने से रोकने के लिए सभी देवता व राक्षस अचानक से उस पर चढ़ बैठे। देवताओं एवं राक्षसों द्वारा अचानक दिए आघात से यह पुरुष अपने आप को संभाल नहीं पाया व पृथ्वी पर औंधे मुँह जा गिरा। तब भयभीत हुये देवताओं तथा ब्रह्मा, शिव, दानव, दैत्य और राक्षसों द्वारा वह स्तम्भित कर दिया गया। उस समय जिसने उसे जहाँ पर आक्रान्त कर रखा था, वह वहीं निवास करने लगा। इस प्रकार सभी देवताओंके निवास के कारण वह वास्तु नामसे विख्यात हुआ।<ref name=":0">हनुमान प्रसाद पोद्दार,(सचित्रहिन्दी अनुवाद सहित) मत्स्यपुराण,सन् २०१९, गोरखपुरः गीताप्रेस अध्याय २५२ श्लोक ५/७, (पृ०९७८)</ref> | | हे प्रभु कृपा कर मुझे तीनों लोक खाने की अनुमति प्रदान करें। यह सुनकर भोलेनाथ शिवजी ने "तथास्तु" कह उसे वरदान स्वरुप आज्ञा प्रदान कर दी। फलस्वरूप उसने तीनो लोकों को अपने अधिकार में ले लिया, व सर्वप्रथम वह पृथ्वी लोक को खाने के लिए चला। यह देख ब्रह्माजी, शिवजी अन्य देवगण एवं राक्षस भी भयभीत हो गए। उसे पृथ्वी को खाने से रोकने के लिए सभी देवता व राक्षस अचानक से उस पर चढ़ बैठे। देवताओं एवं राक्षसों द्वारा अचानक दिए आघात से यह पुरुष अपने आप को संभाल नहीं पाया व पृथ्वी पर औंधे मुँह जा गिरा। तब भयभीत हुये देवताओं तथा ब्रह्मा, शिव, दानव, दैत्य और राक्षसों द्वारा वह स्तम्भित कर दिया गया। उस समय जिसने उसे जहाँ पर आक्रान्त कर रखा था, वह वहीं निवास करने लगा। इस प्रकार सभी देवताओंके निवास के कारण वह वास्तु नामसे विख्यात हुआ।<ref name=":0">हनुमान प्रसाद पोद्दार,(सचित्रहिन्दी अनुवाद सहित) मत्स्यपुराण,सन् २०१९, गोरखपुरः गीताप्रेस अध्याय २५२ श्लोक ५/७, (पृ०९७८)</ref> |
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| − | === वास्तु मंडल === | + | ===वास्तु मंडल=== |
| | वास्तु मण्डल के अन्तर्गत पैंतालीस(४५) देवगणों एवं राक्षसगणों को सम्मलित रूप से "वास्तु पुरुष मंडल" कहा जाता है जो निम्न प्रकार हैं - <blockquote>पूर्वोत्तरदिङ् मूर्धा पुरुषोऽयमवाङ् मुखोऽस्य शिरसि शिखा। आपो मुखे स्तनेऽस्यार्यमा ह्युरस्यापवत्सश्च॥ | | वास्तु मण्डल के अन्तर्गत पैंतालीस(४५) देवगणों एवं राक्षसगणों को सम्मलित रूप से "वास्तु पुरुष मंडल" कहा जाता है जो निम्न प्रकार हैं - <blockquote>पूर्वोत्तरदिङ् मूर्धा पुरुषोऽयमवाङ् मुखोऽस्य शिरसि शिखा। आपो मुखे स्तनेऽस्यार्यमा ह्युरस्यापवत्सश्च॥ |
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| | वितथो बृहत्क्षतयुतः पार्श्वे जठरे स्थितो विवस्वांश्च। ऊरू जानु च जङ्घे स्फिगिति यमाद्यैः परिगृहीताः॥ | | वितथो बृहत्क्षतयुतः पार्श्वे जठरे स्थितो विवस्वांश्च। ऊरू जानु च जङ्घे स्फिगिति यमाद्यैः परिगृहीताः॥ |
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| − | एते दक्षिणपार्श्वे स्थानेश्वेवं च वामपार्श्वस्थाः।मेढ्रे शक्रजयन्तौ हृदये ब्रह्मा पिताऽङ्घ्रिगतः॥(बृहत् सं०) </blockquote>अर्थात् | + | एते दक्षिणपार्श्वे स्थानेश्वेवं च वामपार्श्वस्थाः।मेढ्रे शक्रजयन्तौ हृदये ब्रह्मा पिताऽङ्घ्रिगतः॥(बृहत् सं०) </blockquote>अर्थात |
| | {| class="wikitable" | | {| class="wikitable" |
| | |+ | | |+ |
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| | |16. इंद्र | | |16. इंद्र |
| | |लिंगमें | | |लिंगमें |
| − | |31. अदिति | + | | 31. अदिति |
| | |कानमें | | |कानमें |
| | |- | | |- |
| | |2. पर्जन्य | | |2. पर्जन्य |
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| − | |17. पितृगण | + | | 17. पितृगण |
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| | |32. दिति | | |32. दिति |
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| | |6. सत्य | | |6. सत्य |
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| − | |21. वरुण | + | |21. वरुण |
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| | |36. रुद्र | | |36. रुद्र |
| Line 110: |
Line 109: |
| | |22. असुर | | |22. असुर |
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| − | |37. अर्यमा | + | |37. अर्यमा |
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| | |- | | |- |
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| | |23. पशु | | |23. पशु |
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| − | |38. सविता | + | |38. सविता |
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| | |- | | |- |
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Line 123: |
| | |24. पाश | | |24. पाश |
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| − | |39. विवस्वान् | + | |39. विवस्वान् |
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| | |- | | |- |
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| | |11. वितथ | | |11. वितथ |
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| − | |26. अहि | + | | 26. अहि |
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| − | |41. मित्र | + | |41. मित्र |
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| | |- | | |- |
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| | |27. मोक्ष | | |27. मोक्ष |
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| − | |42. राजपक्ष्मा | + | |42. राजपक्ष्मा |
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| | |- | | |- |
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| | |28. भल्लाट | | |28. भल्लाट |
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| − | |43. पृथ्वी धर | + | |43. पृथ्वी धर |
| | |स्तनमें | | |स्तनमें |
| | |- | | |- |
| Line 159: |
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| | |29. सोम | | |29. सोम |
| | | | | | |
| − | |44. आपवत्स | + | |44. आपवत्स |
| | |छातीमें | | |छातीमें |
| | |- | | |- |
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| | |} | | |} |
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| − | === वास्तुमण्डल विभाग === | + | ===वास्तुमण्डल विभाग=== |
| | वास्तु मण्डल के मुख्यतः तीन विभाग होते हैं- | | वास्तु मण्डल के मुख्यतः तीन विभाग होते हैं- |
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| − | # एकाशीतिपद वास्तु (८१ पद) | + | #एकाशीतिपद वास्तु (८१ पद) |
| − | # चतुष्षष्ठी पद वास्तु (६४ पद) | + | #चतुष्षष्ठी पद वास्तु (६४ पद) |
| − | # शत-पद-वास्तु (१०० पद) | + | #शत-पद-वास्तु (१०० पद) |
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| | इन पैंतालीस देवगणो एवं राक्षसगणो ने शिव भक्त के विभिन्न अंगों पर बल दिया एवं निम्नवत स्थिति अनुसार उस पर बैठे- | | इन पैंतालीस देवगणो एवं राक्षसगणो ने शिव भक्त के विभिन्न अंगों पर बल दिया एवं निम्नवत स्थिति अनुसार उस पर बैठे- |
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| | विभिन्न उपलक्षों पर वास्तुपुरुष के पूजन का अनिवार्य रूप से विधान है। भगवान ब्रह्मा जी के वरदान स्वरूप जो भी मनुष्य भवन, नगर, उपवन आदि के निर्माण से पूर्व वास्तुपुरुष का पूजन करेगा वह उत्तम स्वास्थ्य एवं समृद्धि संपन्न रहेगा। यूँ तो वास्तु पुरुष के पूजन के अवसरों की एक लंबी सूची है लेकिन मुख्य रूप से वास्तु पुरुष की पूजा भवन निर्माण में नींव खोदने के समय, गृह का मुख्य द्वार लगाते समय, गृह प्रवेश के समय, पुत्र जन्म के समय, यज्ञोपवीत संस्कार के समय एवं विवाह के समय अवश्य करनी चाहिए।<ref name=":0" /> | | विभिन्न उपलक्षों पर वास्तुपुरुष के पूजन का अनिवार्य रूप से विधान है। भगवान ब्रह्मा जी के वरदान स्वरूप जो भी मनुष्य भवन, नगर, उपवन आदि के निर्माण से पूर्व वास्तुपुरुष का पूजन करेगा वह उत्तम स्वास्थ्य एवं समृद्धि संपन्न रहेगा। यूँ तो वास्तु पुरुष के पूजन के अवसरों की एक लंबी सूची है लेकिन मुख्य रूप से वास्तु पुरुष की पूजा भवन निर्माण में नींव खोदने के समय, गृह का मुख्य द्वार लगाते समय, गृह प्रवेश के समय, पुत्र जन्म के समय, यज्ञोपवीत संस्कार के समय एवं विवाह के समय अवश्य करनी चाहिए।<ref name=":0" /> |
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| − | == वास्तुशास्त्र का महत्व == | + | ==वास्तुशास्त्र का महत्व== |
| | संसार में प्राणियों के जीवन में स्त्री पुत्र आदि के सुख में साधक, धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष पुरुषार्थ चतुष्टय की प्राप्ति में सहायक, शीत, वर्षा एवं उष्ण काल में संरक्षक, देव आराधन, जलाशय, वाटिका आदि के निर्माण में सहयोग प्रद आदि समस्त कर्म वास्तु अधीन ही हैं जैसा कि कहा गया है- <blockquote> | | संसार में प्राणियों के जीवन में स्त्री पुत्र आदि के सुख में साधक, धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष पुरुषार्थ चतुष्टय की प्राप्ति में सहायक, शीत, वर्षा एवं उष्ण काल में संरक्षक, देव आराधन, जलाशय, वाटिका आदि के निर्माण में सहयोग प्रद आदि समस्त कर्म वास्तु अधीन ही हैं जैसा कि कहा गया है- <blockquote> |
| | परगेहकृताः सर्वाः श्रौतस्मार्तादिकाः क्रियाः। निष्फलाः स्युर्यतस्तासां भूमीशः फलमश्नुते॥ | | परगेहकृताः सर्वाः श्रौतस्मार्तादिकाः क्रियाः। निष्फलाः स्युर्यतस्तासां भूमीशः फलमश्नुते॥ |
| Line 196: |
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| | दूसरे के घर में किये गये श्रौत स्मार्त आदि कर्म सम्पूर्ण फलप्रद नहीं होते हैं। क्योंकि उस घर का जो स्वामी(मालिक) है वह उस फल को प्राप्त कर लेता है। गृहस्थ की कोई भी क्रिया वास्तु(निवास योग्य भूमि/घर) के विना सिद्ध नहीं होती है इसलिये वास्तु का होना अत्यन्त आवश्यक है।इस प्रकार वास्तुशास्त्र के महत्व का जितना विमर्श किया जयेगा, उतना ही महत्वपूर्ण तथ्य सामने आता जायेग। शास्त्रों में कहा गया है कि-<blockquote>कोटिघ्नं तृणजे पुण्यं मृण्मये दशसंगुणम्। ऐष्टिके शतकोटिघ्न शैलेत्वनन्तं फलं भवेत् ॥(वास्तुरत्नाकर)</blockquote>भावार्थ यह है कि खर-पतवार युक्त गृह-निर्माण करने पर लाख गुना पुण्य, मिट्टी से गृह-निर्माण दश लाख गुना, ईंटों के द्वारा सौ लाख गुना(कोटि) एवं पत्थरों से घर निर्माण करने पर अनन्त गुना पुण्य की प्राप्ति होती है। | | दूसरे के घर में किये गये श्रौत स्मार्त आदि कर्म सम्पूर्ण फलप्रद नहीं होते हैं। क्योंकि उस घर का जो स्वामी(मालिक) है वह उस फल को प्राप्त कर लेता है। गृहस्थ की कोई भी क्रिया वास्तु(निवास योग्य भूमि/घर) के विना सिद्ध नहीं होती है इसलिये वास्तु का होना अत्यन्त आवश्यक है।इस प्रकार वास्तुशास्त्र के महत्व का जितना विमर्श किया जयेगा, उतना ही महत्वपूर्ण तथ्य सामने आता जायेग। शास्त्रों में कहा गया है कि-<blockquote>कोटिघ्नं तृणजे पुण्यं मृण्मये दशसंगुणम्। ऐष्टिके शतकोटिघ्न शैलेत्वनन्तं फलं भवेत् ॥(वास्तुरत्नाकर)</blockquote>भावार्थ यह है कि खर-पतवार युक्त गृह-निर्माण करने पर लाख गुना पुण्य, मिट्टी से गृह-निर्माण दश लाख गुना, ईंटों के द्वारा सौ लाख गुना(कोटि) एवं पत्थरों से घर निर्माण करने पर अनन्त गुना पुण्य की प्राप्ति होती है। |
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| − | == वास्तुशास्त्र के विभाग == | + | ==वास्तुशास्त्र के विभाग== |
| | वास्तुशास्त्रमें काल अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है और काल का ज्ञान कालविधानशास्त्र ज्योतिष के अधीन है अतः काल के ज्ञान के लिये ज्योतिषशास्त्र का ज्ञान होना आवश्यक है। वास्तुशास्त्र के अनेक आचार्यों ने ज्योतिष को वास्तुशास्त्र का अंग मानते हुये ज्योतिषशास्त्र का ज्ञान वास्तुशास्त्र के अध्येताओं के लिये अनिवार्य कहा है। समरांगणसूत्रधारकार ने वास्तुशास्त्र के आठ अंगों का वर्णन करते हुये अष्टांगवास्तुशास्त्र का विवेचन किया है, और इन आठ अंगों के ज्ञान के विना वास्तुशास्त्र का सम्यक् प्रकार से ज्ञान होना संभव नहीं है। वास्तुशास्त्र के आठ अंग इस प्रकार हैं-<blockquote>सामुद्रं गणितं चैव ज्योतिषं छन्द एव च। सिराज्ञानं तथा शिल्पं यन्त्रकर्म विधिस्तथा॥ | | वास्तुशास्त्रमें काल अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है और काल का ज्ञान कालविधानशास्त्र ज्योतिष के अधीन है अतः काल के ज्ञान के लिये ज्योतिषशास्त्र का ज्ञान होना आवश्यक है। वास्तुशास्त्र के अनेक आचार्यों ने ज्योतिष को वास्तुशास्त्र का अंग मानते हुये ज्योतिषशास्त्र का ज्ञान वास्तुशास्त्र के अध्येताओं के लिये अनिवार्य कहा है। समरांगणसूत्रधारकार ने वास्तुशास्त्र के आठ अंगों का वर्णन करते हुये अष्टांगवास्तुशास्त्र का विवेचन किया है, और इन आठ अंगों के ज्ञान के विना वास्तुशास्त्र का सम्यक् प्रकार से ज्ञान होना संभव नहीं है। वास्तुशास्त्र के आठ अंग इस प्रकार हैं-<blockquote>सामुद्रं गणितं चैव ज्योतिषं छन्द एव च। सिराज्ञानं तथा शिल्पं यन्त्रकर्म विधिस्तथा॥ |
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| | एतान्यंगानि जानीयाद् वास्तुशास्त्रस्य बुद्धिमान् । शास्त्रानुसारेणाभ्युद्य लक्षणानि च लक्षयेत् ॥(समरांगण सूत्र)</blockquote>अर्थ- सामुद्रिक, गणित, ज्योतिष, छन्द, शिराज्ञान, शिल्प, यन्त्रकर्म और विधि ये वास्तुशास्त्र के आठ अंग हैं। | | एतान्यंगानि जानीयाद् वास्तुशास्त्रस्य बुद्धिमान् । शास्त्रानुसारेणाभ्युद्य लक्षणानि च लक्षयेत् ॥(समरांगण सूत्र)</blockquote>अर्थ- सामुद्रिक, गणित, ज्योतिष, छन्द, शिराज्ञान, शिल्प, यन्त्रकर्म और विधि ये वास्तुशास्त्र के आठ अंग हैं। |
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| − | === वास्तुशास्त्र के विषय विभाग === | + | === वास्तुशास्त्र के विषय विभाग=== |
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| − | * '''गृह के आरम्भ में वास्तुचिन्तन''' | + | *'''गृह के आरम्भ में वास्तुचिन्तन''' |
| − | * '''स्थान का शुभत्व निर्णय''' | + | *'''स्थान का शुभत्व निर्णय''' |
| − | * '''काकिणी विचार''' | + | *'''काकिणी विचार''' |
| − | * '''गृहद्वार निर्णय''' | + | *'''गृहद्वार निर्णय''' |
| − | * '''ग्रामनिवासे निषिद्धस्थानानि''' | + | *'''ग्रामनिवासे निषिद्धस्थानानि''' |
| − | * '''इष्टनक्षत्र का निर्णय''' | + | *'''इष्टनक्षत्र का निर्णय''' |
| − | * '''गृहपिण्ड साधन''' | + | *'''गृहपिण्ड साधन''' |
| − | * '''आयादि विचार''' | + | *'''आयादि विचार''' |
| − | * '''ग्रहबल, काकशुद्धि, सम्मुख-पृष्ठफल''' | + | *'''ग्रहबल, काकशुद्धि, सम्मुख-पृष्ठफल''' |
| − | * '''व्ययांश, शालाध्रुवांक, ध्रुवादि गृहाणि''' | + | *'''व्ययांश, शालाध्रुवांक, ध्रुवादि गृहाणि''' |
| − | * '''आयादिनवक''' | + | *'''आयादिनवक''' |
| − | * '''वृषवास्तु चक्र''' | + | *'''वृषवास्तु चक्र''' |
| − | * '''गृहारम्भे सूर्यचन्द्रनक्षादि विचारः''' | + | *'''गृहारम्भे सूर्यचन्द्रनक्षादि विचारः''' |
| − | * '''गृहारम्भे पञ्चांग शुद्धि''' | + | *'''गृहारम्भे पञ्चांग शुद्धि''' |
| − | * '''राहुमुख विचारः कूप निर्वाणं च''' | + | *'''राहुमुख विचारः कूप निर्वाणं च''' |
| − | * '''गृहरचना-फलविचरणा''' | + | *'''गृहरचना-फलविचरणा''' |
| − | * '''दिक्कोणेषु उपकरण गृहानि''' | + | *'''दिक्कोणेषु उपकरण गृहानि''' |
| − | * '''गृहारम्भ लग्नात् ग्रहस्थितिफलम्''' | + | *'''गृहारम्भ लग्नात् ग्रहस्थितिफलम्''' |
| − | * '''गृहारम्भे नक्षत्र, वार फलानि''' | + | *'''गृहारम्भे नक्षत्र, वार फलानि''' |
| − | * '''सफलं द्वारचक्रम्''' | + | *'''सफलं द्वारचक्रम्''' |
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| − | == वास्तुशास्त्र के प्रवर्तक == | + | ==वास्तुशास्त्र के प्रवर्तक== |
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| | भारतीय परम्परा में प्रत्येक भारतीयशास्त्र के उद्भव के मूल में ईश्वरीय तत्व को स्वीकार किया गया है। वास्तुशास्त्र का मूल उद्गम ब्रह्मा जी से माना जाता है। ब्रह्माजी को वास्तुशास्त्र के प्रवर्तक के रूप में माना जाता है। पुराणों के अनुसार पृथु ने जब पृथ्वी को समतल किया और ब्रह्मा जी से पृथ्वी पर नगर-ग्राम आदि की रचना के सम्बन्ध में निवेदन किया-<ref>शोधकर्ता-शिवम अत्रे, [https://shodhganga.inflibnet.ac.in/handle/10603/518806 भारतीय वास्तु शास्त्र का वैज्ञानिक अध्ययन], सन २०२३, शोधकेन्द्र-बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी (पृ० २३)।</ref><blockquote>ग्रामान् पुरः पत्तनानि दुर्गाणि विविधानि च। घोषान् व्रजान् सशिविरानाकारान् खेटखर्वटान् । यथा सुखं वसन्ति स्म तत्र तत्राकुतोभयाः॥</blockquote>पृथु के इस निवेदन को सुनकर ब्रह्मा जी ने अपने चारों मुखों से विश्वकर्मा आदि की उत्पत्ति की। ब्रह्मा के पूर्व मुख से विश्वभू, दक्षिण मुख को विश्वविद्, पश्चिम मुख को विश्वस्रष्टा और उत्तरमुख को विश्वस्थ कहा जाता है। इस शास्त्र के अध्येताओं और आचार्यों की अपनी विशिष्ट परम्परा थी। इसका शास्त्रीय और प्रायोगिक स्वरूप ऋषिगणों के ही परिश्रम का परिणाम था। वास्तुकला मर्मज्ञ सूत्रधार के गुणों की चर्चा करते हैं-<blockquote>सुशीलश्चतुरो दक्षः शास्त्रज्ञो लोभवर्जितः। क्षमायुक्तो द्विजश्चैव सूत्रधार स उच्यते॥ | | भारतीय परम्परा में प्रत्येक भारतीयशास्त्र के उद्भव के मूल में ईश्वरीय तत्व को स्वीकार किया गया है। वास्तुशास्त्र का मूल उद्गम ब्रह्मा जी से माना जाता है। ब्रह्माजी को वास्तुशास्त्र के प्रवर्तक के रूप में माना जाता है। पुराणों के अनुसार पृथु ने जब पृथ्वी को समतल किया और ब्रह्मा जी से पृथ्वी पर नगर-ग्राम आदि की रचना के सम्बन्ध में निवेदन किया-<ref>शोधकर्ता-शिवम अत्रे, [https://shodhganga.inflibnet.ac.in/handle/10603/518806 भारतीय वास्तु शास्त्र का वैज्ञानिक अध्ययन], सन २०२३, शोधकेन्द्र-बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी (पृ० २३)।</ref><blockquote>ग्रामान् पुरः पत्तनानि दुर्गाणि विविधानि च। घोषान् व्रजान् सशिविरानाकारान् खेटखर्वटान् । यथा सुखं वसन्ति स्म तत्र तत्राकुतोभयाः॥</blockquote>पृथु के इस निवेदन को सुनकर ब्रह्मा जी ने अपने चारों मुखों से विश्वकर्मा आदि की उत्पत्ति की। ब्रह्मा के पूर्व मुख से विश्वभू, दक्षिण मुख को विश्वविद्, पश्चिम मुख को विश्वस्रष्टा और उत्तरमुख को विश्वस्थ कहा जाता है। इस शास्त्र के अध्येताओं और आचार्यों की अपनी विशिष्ट परम्परा थी। इसका शास्त्रीय और प्रायोगिक स्वरूप ऋषिगणों के ही परिश्रम का परिणाम था। वास्तुकला मर्मज्ञ सूत्रधार के गुणों की चर्चा करते हैं-<blockquote>सुशीलश्चतुरो दक्षः शास्त्रज्ञो लोभवर्जितः। क्षमायुक्तो द्विजश्चैव सूत्रधार स उच्यते॥ |
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| | कुम्भकारः कांस्यकारःस्वर्णकारस्तथैव च।पतितास्तेब्रह्मशापाद अयाज्या वर्णसंकरा॥</blockquote>अर्थ- मालाकार, कर्मकार, शंखकार,कुविन्द,कुम्भकार,कांस्यकार,सूत्रधार,चित्रकार और स्वर्णकार ये विश्वकर्मा के पुत्रों के रूप में विख्यात हुये। इस प्रकार विश्वकर्मा के ये सभी पुत्र विविध कलाओं में निष्णात थे। | | कुम्भकारः कांस्यकारःस्वर्णकारस्तथैव च।पतितास्तेब्रह्मशापाद अयाज्या वर्णसंकरा॥</blockquote>अर्थ- मालाकार, कर्मकार, शंखकार,कुविन्द,कुम्भकार,कांस्यकार,सूत्रधार,चित्रकार और स्वर्णकार ये विश्वकर्मा के पुत्रों के रूप में विख्यात हुये। इस प्रकार विश्वकर्मा के ये सभी पुत्र विविध कलाओं में निष्णात थे। |
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| − | ===वास्तुशास्त्र की आचार्य परम्परा=== | + | === वास्तुशास्त्र की आचार्य परम्परा=== |
| | वास्तुशास्त्र की शास्त्रीय परम्परा की प्राचीनता विभिन्न प्राचीन पौराणिक ग्रन्थों में संकलित वास्तुशास्त्र उपदेशकों का नाम प्राप्त होते हैं। मत्स्यपुराण के अनुसार वास्तुशास्त्र के प्रवर्तक अट्ठारह आचार्यों का नामोल्लेख प्राप्त होता है-<blockquote>भृगुरत्रिर्वसिष्ठश्च विश्वकर्मा मयस्तथा। नारदो नग्नजिच्चैव विशालाक्षः पुरन्दरः॥ | | वास्तुशास्त्र की शास्त्रीय परम्परा की प्राचीनता विभिन्न प्राचीन पौराणिक ग्रन्थों में संकलित वास्तुशास्त्र उपदेशकों का नाम प्राप्त होते हैं। मत्स्यपुराण के अनुसार वास्तुशास्त्र के प्रवर्तक अट्ठारह आचार्यों का नामोल्लेख प्राप्त होता है-<blockquote>भृगुरत्रिर्वसिष्ठश्च विश्वकर्मा मयस्तथा। नारदो नग्नजिच्चैव विशालाक्षः पुरन्दरः॥ |
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| | ==वास्तुशास्त्र का प्रयोजन एवं उपयोगिता== | | ==वास्तुशास्त्र का प्रयोजन एवं उपयोगिता== |
| − | भारतीय मनीषियों ने सदैव प्रकृति रूपी माँ की गोद में ही जीवन व्यतीत करने का आदेश और उपदेश अपने ग्रन्थों में दिया है। वास्तुशास्त्र भी मनुष्य को यही उपदेश देता है। घर मनुष्य की मूलभूत आवश्यकताओं में से एक है। प्रत्येक प्राणी अपने लिये घर की व्यवस्था करता है। पक्षी भी अपने लिये घोंसले बनाते हैं। वस्तुतः निवासस्थान ही सुख प्राप्ति और आत्मरक्षा का उत्तम साधन है। जैसा कि कहा गया है-<blockquote>स्त्रीपुत्रादिकभोगसौख्यजननं धर्मार्थकामप्रदं। जन्तुनामयनं सुखास्पदमिदं शीताम्बुघर्मापहम्॥ | + | भारतीय मनीषियों ने सदैव प्रकृति रूपी माँ की गोद में ही जीवन व्यतीत करने का आदेश और उपदेश अपने ग्रन्थों में दिया है। वास्तुशास्त्र भी मनुष्य को यही उपदेश देता है। घर मनुष्य की मूलभूत आवश्यकताओं में से एक है। प्रत्येक प्राणी अपने लिये घर की व्यवस्था करता है। पक्षी भी अपने लिये घोंसले बनाते हैं। वस्तुतः निवासस्थान ही सुख प्राप्ति और आत्मरक्षा का उत्तम साधन है। जैसा कि कहा गया है-<ref>शैल त्रिपाठी, [https://shodhganga.inflibnet.ac.in/handle/10603/268604 संस्कृत वांङ्मय में निरूपित वास्तु के मूल तत्व], सन २०१४, छत्रपति साहूजी महाराज यूनिवर्सिटी (पृ० २)।</ref><blockquote>स्त्रीपुत्रादिकभोगसौख्यजननं धर्मार्थकामप्रदं। जन्तुनामयनं सुखास्पदमिदं शीताम्बुघर्मापहम्॥ |
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| | वापी देव गृहादिपुण्यमखिलं गेहात्समुत्पद्यते। गेहं पूर्वमुशन्ति तेन विबुधाः श्री विश्वकर्मादयः॥()</blockquote>अर्थ- स्त्री, पुत्र आदि के भोग का सुख धर्म, अर्थ और काम की प्राप्ति, कुएँ, जलाशय और देवालय आदि के निर्माण का पुण्य, घर में ही प्राप्त होता है। | | वापी देव गृहादिपुण्यमखिलं गेहात्समुत्पद्यते। गेहं पूर्वमुशन्ति तेन विबुधाः श्री विश्वकर्मादयः॥()</blockquote>अर्थ- स्त्री, पुत्र आदि के भोग का सुख धर्म, अर्थ और काम की प्राप्ति, कुएँ, जलाशय और देवालय आदि के निर्माण का पुण्य, घर में ही प्राप्त होता है। |
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| | इस प्रकार से घर सभी प्रकार के सुखों का साधन है। भारतीय संस्कृति में घर केवल ईंट-पत्थर और लकडी से निर्मित भवनमात्र ही नहीं है। किन्तु घर की प्रत्येक दिशा में, कोने में, प्रत्येक भाग में एक देवता का निवास है। जो कि घर को भी एक मंदिर की भाँति पूज्य बना देता है। जिसमें निवास करने वाला मनुष्य भौतिक उन्नति के साथ-साथ शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक उन्नति के पथ पर निरन्तर अग्रसर होते हुये धर्म, अर्थ और काम का उपभोग करते हुये अन्ततोगत्वा मोक्ष की प्राप्ति कर पुरुषार्थ चतुष्टय का सधक बन जाता है। ऐसे ही घर का निर्माण करना भारतीय वास्तुशास्त्र का वास्तविक प्रयोजन है। | | इस प्रकार से घर सभी प्रकार के सुखों का साधन है। भारतीय संस्कृति में घर केवल ईंट-पत्थर और लकडी से निर्मित भवनमात्र ही नहीं है। किन्तु घर की प्रत्येक दिशा में, कोने में, प्रत्येक भाग में एक देवता का निवास है। जो कि घर को भी एक मंदिर की भाँति पूज्य बना देता है। जिसमें निवास करने वाला मनुष्य भौतिक उन्नति के साथ-साथ शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक उन्नति के पथ पर निरन्तर अग्रसर होते हुये धर्म, अर्थ और काम का उपभोग करते हुये अन्ततोगत्वा मोक्ष की प्राप्ति कर पुरुषार्थ चतुष्टय का सधक बन जाता है। ऐसे ही घर का निर्माण करना भारतीय वास्तुशास्त्र का वास्तविक प्रयोजन है। |
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| − | ==वास्तुशास्त्र एवं वृक्ष विचार== | + | == वास्तुशास्त्र एवं वृक्ष विचार== |
| | भारतीय संस्कृतिमें वृक्ष संरक्षण, वृक्षारोपण तथा संवर्धन को विशेष महत्व दिया गया है। यही नहीं देवमयी भारतीय संस्कृतिमें तो वृक्षों की पूजा का विधान भी है। वृक्ष तीव्रगति से बढ रहे प्रदूषण के दुष्प्रभाव को रोकने में पूर्ण सक्षम हैं, एवं प्राणिमात्र के स्वास्थ्य के लिये नितान्त लाभप्रद विशुद्ध वायु भी प्रदान करते हैं। वास्तव में पेड-पौधों का मानव-जीवन से सीधा संबंध है, इसीलिये वास्तुशास्त्र के अनुसार आवास स्थलों में वृक्षारोपण का उल्लेख है। | | भारतीय संस्कृतिमें वृक्ष संरक्षण, वृक्षारोपण तथा संवर्धन को विशेष महत्व दिया गया है। यही नहीं देवमयी भारतीय संस्कृतिमें तो वृक्षों की पूजा का विधान भी है। वृक्ष तीव्रगति से बढ रहे प्रदूषण के दुष्प्रभाव को रोकने में पूर्ण सक्षम हैं, एवं प्राणिमात्र के स्वास्थ्य के लिये नितान्त लाभप्रद विशुद्ध वायु भी प्रदान करते हैं। वास्तव में पेड-पौधों का मानव-जीवन से सीधा संबंध है, इसीलिये वास्तुशास्त्र के अनुसार आवास स्थलों में वृक्षारोपण का उल्लेख है। |
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| | अश्वत्थे तु भयं ब्रूयात् प्लक्षे ब्रूयात्पराभवम् ।न्यग्रोधे राजतः पीडा नेत्रामयमुदुम्बरे॥ | | अश्वत्थे तु भयं ब्रूयात् प्लक्षे ब्रूयात्पराभवम् ।न्यग्रोधे राजतः पीडा नेत्रामयमुदुम्बरे॥ |
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| − | वटः पुरस्तात् धन्यः स्याद् दक्षिणे चाप्युदुम्बरः। अश्वत्थःपश्चिमे धन्यः प्लक्षस्तूत्तरतः शुभः॥(बृह०सं०)</blockquote>'''अर्थ-''' भूखण्ड की पूर्व दिशा में पीपल, दक्षिण में प्लक्ष(पलाश), पश्चिम में वट(बरगद) और उत्तर में गूलर का वृक्ष नहीं होना चाहिये। पूर्व दिशा में पीपल के होने से गृहस्वामी को भय, दक्षिण में प्लक्ष(पलाश) होने से पराभव, पश्चिम में वट वृक्ष होने से शासन की ओर से दण्ड भय और उत्तर में गूलर का वृक्ष होने से भवन वासियों को नेत्र-व्याधि होती है। यदि पश्चिम में पीपल, उत्तर में पलाश, पूर्व में वट वृक्ष और दक्षिण में गूलर का वृक्ष हो तो शुभ है। | + | वटः पुरस्तात् धन्यः स्याद् दक्षिणे चाप्युदुम्बरः। अश्वत्थःपश्चिमे धन्यः प्लक्षस्तूत्तरतः शुभः॥(बृहत्संहिता)</blockquote>'''अर्थ-''' भूखण्ड की पूर्व दिशा में पीपल, दक्षिण में प्लक्ष(पलाश), पश्चिम में वट(बरगद) और उत्तर में गूलर का वृक्ष नहीं होना चाहिये। पूर्व दिशा में पीपल के होने से गृहस्वामी को भय, दक्षिण में प्लक्ष(पलाश) होने से पराभव, पश्चिम में वट वृक्ष होने से शासन की ओर से दण्ड भय और उत्तर में गूलर का वृक्ष होने से भवन वासियों को नेत्र-व्याधि होती है। यदि पश्चिम में पीपल, उत्तर में पलाश, पूर्व में वट वृक्ष और दक्षिण में गूलर का वृक्ष हो तो शुभ है। |
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| | ===गृहवाटिका में त्याज्य वृक्ष=== | | ===गृहवाटिका में त्याज्य वृक्ष=== |
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| | छिद्याद्यदि न तरुंस्ताँस्तदन्तरे पूजितान्वपेदन्यान्।पुन्नागाशोकारिष्टवकुलपनसान् शमीशालौ॥</blockquote>भाषार्थ- भवन के पास काँटेदार वृक्ष जैसे बेर, बबूल, कटारि आदि नहीं लगाने चाहिये। गृह-वाटिका में काँटेदार वृक्ष होने से गृह-स्वामी को शत्रुभय, दूध वाले वृक्षों से धन-हानि तथा फल वाले वृक्षों से सन्तति कष्ट होता है। अतः इन वृक्षों और मकान के बीच में शुभदायक वृक्ष जैसे-नागकेसर, अशोक, अरिष्ट, मौलश्री, दाडिम, कटहल, शमी और शाल इन वृक्षों को लगा देना चाहिये। ऐसा करने से अशुभ वृक्षों का दोष दूर हो जाता है। | | छिद्याद्यदि न तरुंस्ताँस्तदन्तरे पूजितान्वपेदन्यान्।पुन्नागाशोकारिष्टवकुलपनसान् शमीशालौ॥</blockquote>भाषार्थ- भवन के पास काँटेदार वृक्ष जैसे बेर, बबूल, कटारि आदि नहीं लगाने चाहिये। गृह-वाटिका में काँटेदार वृक्ष होने से गृह-स्वामी को शत्रुभय, दूध वाले वृक्षों से धन-हानि तथा फल वाले वृक्षों से सन्तति कष्ट होता है। अतः इन वृक्षों और मकान के बीच में शुभदायक वृक्ष जैसे-नागकेसर, अशोक, अरिष्ट, मौलश्री, दाडिम, कटहल, शमी और शाल इन वृक्षों को लगा देना चाहिये। ऐसा करने से अशुभ वृक्षों का दोष दूर हो जाता है। |
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| | + | == सारांश == |
| | + | भारतीय वास्तुकला के विज्ञान से संबंधित कुछ प्रमुख कार्यों का विस्तृत अध्ययन किया गया है, जैसे - समरांगण-सूत्रधार, विश्वकर्मा वास्तु-प्रकाश, अपराजितापृच्छा, मानसार, मयमतम् और शिल्परत्न। |
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| | ==उद्धरण॥ References== | | ==उद्धरण॥ References== |