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प्राचीन भारतीय राजशास्त्रियों ने राज्य से ही धर्म, अर्थ और काम की प्राप्ति बतलाई है। किसी भी राज्य के निर्माण एवं पोषण हेतु सात अवयवों की चर्चा राजशास्त्र प्रणेताओं ने की है, जिसे सप्तांग कहते हैं। ये सप्तांग इस प्रकार हैं - राजा, अमात्य, जनपद, दुर्ग, कोष, दण्ड और मित्र। धर्मशास्त्रों, अर्थशास्त्रों तथा नीतिशास्त्रों में राज्य के इन्हीं सात अंगों का उल्लेख मिलता है। राज्य के अस्तित्व और आधारभूत विकास के लिए इन सात अंगों का ज्ञान अति आवश्यक हैं।  
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प्राचीन भारतीय राजधर्मशास्त्रज्ञों ने राज्य से ही धर्म, अर्थ और काम की प्राप्ति बतलाई है। किसी भी राज्य के निर्माण एवं पोषण हेतु सात अवयवों की चर्चा राजशास्त्र प्रणेताओं ने की है, जिसे सप्तांग कहते हैं। ये सप्तांग इस प्रकार हैं - राजा, अमात्य, जनपद, दुर्ग, कोष, दण्ड और मित्र। धर्मशास्त्रों, अर्थशास्त्रों तथा नीतिशास्त्रों में राज्य के इन्हीं सात अंगों का उल्लेख मिलता है। राज्य के अस्तित्व और आधारभूत विकास के लिए इन सात अंगों का ज्ञान अति आवश्यक हैं।  
== परिचय॥ Introduction==
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==परिचय॥ Introduction==
 
राजनीति-शास्त्र के विद्वानों ने राज्य के सात अंगों का विवेचन किया है। सप्तांगों को सर्वप्रथम मनु एवं कौटिल्य ने परिभाषित किया है। कुछ प्राचीन धर्मसूत्रों में राजा, अमात्य, कोश आदि अंगों का विवेचन हुआ है पर सप्तांगों का पूर्ण स्वरूप और परिभाषा के अभाव में उसे महत्त्व न देना ही उचित होगा। प्रायः सभी राजनीति-शास्त्रज्ञों ने सात अंगों को बताया है - स्वामी, अमात्य, जनपद या राष्ट्र, दुर्ग, कोश, दण्ड और मित्र। भारतीय ज्ञान परंपरा में सभी प्राणियों का शरण-स्थल राजधर्म है, महाभारत के अनुसार राजधर्म के सहारे ही जीवन के लक्ष्यों की प्राप्ति सम्भव होना बताया गया है -<blockquote>सर्वे धर्मा राजधर्म प्रधानाः सर्वे वर्णाः पाल्यमाना भवन्ति। सर्वस्त्यागो राजधर्मेषु राजस्त्यागं धर्मं चाहुरग्रन्थ पुराणम्॥</blockquote>राजा राजधर्म का पालन करते हुए ही राज्य को नियन्त्रित करता है। राजा के कार्यों और उसके द्वारा स्थापित व्यवस्था पद्धति के आधार पर सप्तांगों का विवेचन किया गया है।
 
राजनीति-शास्त्र के विद्वानों ने राज्य के सात अंगों का विवेचन किया है। सप्तांगों को सर्वप्रथम मनु एवं कौटिल्य ने परिभाषित किया है। कुछ प्राचीन धर्मसूत्रों में राजा, अमात्य, कोश आदि अंगों का विवेचन हुआ है पर सप्तांगों का पूर्ण स्वरूप और परिभाषा के अभाव में उसे महत्त्व न देना ही उचित होगा। प्रायः सभी राजनीति-शास्त्रज्ञों ने सात अंगों को बताया है - स्वामी, अमात्य, जनपद या राष्ट्र, दुर्ग, कोश, दण्ड और मित्र। भारतीय ज्ञान परंपरा में सभी प्राणियों का शरण-स्थल राजधर्म है, महाभारत के अनुसार राजधर्म के सहारे ही जीवन के लक्ष्यों की प्राप्ति सम्भव होना बताया गया है -<blockquote>सर्वे धर्मा राजधर्म प्रधानाः सर्वे वर्णाः पाल्यमाना भवन्ति। सर्वस्त्यागो राजधर्मेषु राजस्त्यागं धर्मं चाहुरग्रन्थ पुराणम्॥</blockquote>राजा राजधर्म का पालन करते हुए ही राज्य को नियन्त्रित करता है। राजा के कार्यों और उसके द्वारा स्थापित व्यवस्था पद्धति के आधार पर सप्तांगों का विवेचन किया गया है।
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==सप्तांग-सिद्धान्त॥==
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==शुक्रनीति में सप्तांग-सिद्धान्त==
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शुक्रनीति में आचार्य शुक्र ने राज्यांगों का विशद विवेचन किया है। राज्य को सप्तांग राज्य से सम्बोधित करते हुए आचार्य शुक्र कहते हैं कि -
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स्वाम्यमात्यसुहृत्कोश राष्ट्र दुर्ग बलानि च। सप्तांगमुच्यते राज्यं तत्र मूर्धा नृपः स्मृतः॥
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अर्थात राजा, मन्त्री, मित्र, कोश, राष्ट्र, दुर्ग और सेना में राज्य के सात अंग कहलाते हैं और इनमें राजा को सर्वश्रेष्ठ अंग मस्तक माना गया है। वे राज्य के सप्तांगों की तुलना मानव शरीर से करते हैं - <blockquote>दृगमात्यः सुहृच्छोत्रं मुखं कोशो बलं मनः। हस्तौ पादौ दुर्गराष्ट्रौ राज्यांगानि स्मृतानि हि॥</blockquote>अर्थात राज्य रूपी शरीर के मन्त्री नेत्र हैं, मित्र कान, कोष मुख, सेना मन, दुर्ग दोनों हाथ और दोनों पैर।
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*राष्ट्र की उपमा पैरों से इसलिए की गई है, क्योंकि वह राज्य का मूलाधार है। उसी के साथ राजा रूपी शरीर स्थिर रहता है।
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*जिस प्रकार मन इन्द्रियों को किसी कार्य में प्रवृत्त करता है उसी प्रकार राज्य में यदि बल अथवा सेना न हो तो वह अरक्षित रहता है और कोई भी कार्य नहीं कर सकता। इसलिये बल को मन बतलाया है।
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*कोष की तुलना मुख से की है, जिस प्रकार मुख से किया गया भोजन शरीर के सभी अंगों को शक्ति प्रदान कर उन्हें पुष्ट बनाता है, उसी प्रकार राजकोष में धन संचित होने से सभी अंगों की पुष्टि होती है।
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*मन्त्री की उपमा नेत्रों से इसलिये दी गई है, क्योंकि राज्य का प्रायः समस्त व्यवहार मन्त्रियों की देखरेख तथा परामर्श से ही चलता है।
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*दुर्ग की तुलना हाथ से इसलिये की है, क्योंकि जब शरीर पर कोई प्रहार करता है, तो हाथ ही सर्वप्रथम प्रहार को निष्फल करते हैं अथवा रोकते हैं, ठीक उसी प्रकार राज्य पर होने वाले आक्रमाण का प्रथम प्रहार दुर्ग को ही सहन करना पडता है।
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इस प्रकार आचार्य शुक्र द्वारा समुचित रूप से राज्य की तुलना मानव शरीर एवं उसके अंगों से की गई है। आचार्य मनु द्वारा राज्यांगों के महत्व के अनुसार ही उनके क्रम निर्धारित किया गया है।
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==महाभारत में सप्तांग सिद्धान्त==
 
प्राचीन भारतीय राजनीति में वैदिक साहित्य में राष्ट्र का विशद विकास क्रम प्राप्त होता है। परवर्ती काल में यही राष्ट्र की संकल्पना विकसित, व्यवस्थित तथा संघटित राज्य के रूप में सप्तांग सिद्धान्त के रूप में स्थापित हुआ है। महाभारत में राज्य के राष्ट्रांग स्वरूप के साथ-साथ अष्टांग स्वरूप का भी उल्लेख प्राप्त होता है - <blockquote>सदाप्रकृति चाष्टांगं शरीरमिह यद् विदुः। राज्यस्य दण्डमेवांगं दण्डः प्रभव एव च॥ (शान्तिपर्व १२१/४७)</blockquote>महाभारत में राजा को इन सातों अंगों वाले राज्य के परिपालन का उपदेश दिया गया है - <blockquote>राज्ञा सप्तैव रक्ष्याणि तानि चैव निबोध मे। आत्मामात्यश्च कोशश्च दण्डो मित्राणि चैव हि॥
 
प्राचीन भारतीय राजनीति में वैदिक साहित्य में राष्ट्र का विशद विकास क्रम प्राप्त होता है। परवर्ती काल में यही राष्ट्र की संकल्पना विकसित, व्यवस्थित तथा संघटित राज्य के रूप में सप्तांग सिद्धान्त के रूप में स्थापित हुआ है। महाभारत में राज्य के राष्ट्रांग स्वरूप के साथ-साथ अष्टांग स्वरूप का भी उल्लेख प्राप्त होता है - <blockquote>सदाप्रकृति चाष्टांगं शरीरमिह यद् विदुः। राज्यस्य दण्डमेवांगं दण्डः प्रभव एव च॥ (शान्तिपर्व १२१/४७)</blockquote>महाभारत में राजा को इन सातों अंगों वाले राज्य के परिपालन का उपदेश दिया गया है - <blockquote>राज्ञा सप्तैव रक्ष्याणि तानि चैव निबोध मे। आत्मामात्यश्च कोशश्च दण्डो मित्राणि चैव हि॥
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आचार्य मनु के अनुसार प्रत्येक अंग अगले अंग से श्रेष्ठ है तथा एक अंग में विकार आने से दूसरे अंग में विकार होता है अतः प्रत्येक अंग एक दूसरे के लिए आवश्यक होता है। प्रत्येक अंग विशेषता से युक्त होता है तथा राज्य संचालन में समान रूप से प्रयोग होता है - <blockquote>सप्तांगस्येह राज्यस्य विष्टब्धस्य त्रिदण्डवत्। अन्योन्यगुणवैशेष्यान्न किंचिदतिरिच्यते॥ (मनु० ९/२९६)</blockquote>अर्थात स्वामी, अमात्य, सुहृत, कोश राष्ट्र, दुर्ग और बल से सप्तांग राज्य के रूप में वर्णित है।
 
आचार्य मनु के अनुसार प्रत्येक अंग अगले अंग से श्रेष्ठ है तथा एक अंग में विकार आने से दूसरे अंग में विकार होता है अतः प्रत्येक अंग एक दूसरे के लिए आवश्यक होता है। प्रत्येक अंग विशेषता से युक्त होता है तथा राज्य संचालन में समान रूप से प्रयोग होता है - <blockquote>सप्तांगस्येह राज्यस्य विष्टब्धस्य त्रिदण्डवत्। अन्योन्यगुणवैशेष्यान्न किंचिदतिरिच्यते॥ (मनु० ९/२९६)</blockquote>अर्थात स्वामी, अमात्य, सुहृत, कोश राष्ट्र, दुर्ग और बल से सप्तांग राज्य के रूप में वर्णित है।
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== कौटिल्य - सप्तांग सिद्धान्त ==
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कौटिल्य को भारतीय राजनीतिक विचारों का जनक माना जाता है। कौटिल्य ने राज्य के सात अंगों का वर्णन किया है तथा राज्य के सभी अंगों की तुलना शरीर के अंगों से की है।
    
===स्वामी या राजा॥ King===
 
===स्वामी या राजा॥ King===
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*मनु स्मृति, शुक्रनीति और कौटिल्य के अर्थशास्त्र आदि प्राचीन भारतीय राजनीतिक ग्रन्थों में अमात्य के गुणों व कार्यों का विस्तार से विवरण प्राप्त होता है।
 
*मनु स्मृति, शुक्रनीति और कौटिल्य के अर्थशास्त्र आदि प्राचीन भारतीय राजनीतिक ग्रन्थों में अमात्य के गुणों व कार्यों का विस्तार से विवरण प्राप्त होता है।
*कौटिल्य के शब्दों में राज्य चक्र को सुचारु रूप से चलाए जाने के लिए सचिव की नियुक्ति तथा उसके मत को सुननाअ आवश्यक कहा गया है -
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*कौटिल्य के शब्दों में राज्य चक्र को सुचारु रूप से चलाए जाने के लिए सचिव की नियुक्ति तथा उसके मत को सुनना आवश्यक कहा गया है -
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<blockquote>सहायसाध्यं राजत्वं चक्रमेकं न वर्त्तते। कुर्वीत सचिवांस्तस्मात्तेषां च ऋणुयान्मतम्॥ (अर्थ० 1.7.15)</blockquote>कौटिल्य ने अमात्य व मन्त्री में अन्तर किया है। आचार्य कौटिल्य राजा को योग्य अमात्यों को नियुक्त करके शासन-व्यवस्था संचालित करने का निर्देश करते हैं। उनके अनुसार राजा योग्य पुरुषों को देश, काल तथा कार्य आदि का परीक्षण करके अमात्य नियुक्त करें तथा मन्त्री के रूप में सर्वगुणसम्पन्न व्यक्ति को ही नियुक्त करें - <blockquote>विभज्यामात्यभिवं देशकालै च कर्म च। अमात्याः सर्व एवैते कार्याः स्युर्न तु मन्त्रिणः॥ (अर्थ० 1.3.7.3)</blockquote>महाभारत के अनुसार कुलीन, विद्वान, सर्वशास्त्रनिपुण, कृतज्ञ, बलवान, जितेन्द्रिय, स्वदेशवासी, स्वामिभक्त आदि गुणों से युक्त पुरुष को अमात्य बनाना चाहिये।
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<blockquote>सहायसाध्यं राजत्वं चक्रमेकं न वर्त्तते। कुर्वीत सचिवांस्तस्मात्तेषां च ऋणुयान्मतम्॥ (अर्थ० 1.7.15)</blockquote>कौटिल्य ने अमात्य व मन्त्री में अन्तर किया है। आचार्य कौटिल्य राजा को योग्य अमात्यों को नियुक्त करके शासन-व्यवस्था संचालित करने का निर्देश करते हैं। उनके अनुसार राजा योग्य पुरुषों को देश, काल तथा कार्य आदि का परीक्षण करके अमात्य नियुक्त करें तथा मन्त्री के रूप में सर्वगुणसम्पन्न व्यक्ति को ही नियुक्त करें - <blockquote>विभज्यामात्यभिवं देशकालौ च कर्म च। अमात्याः सर्व एवैते कार्याः स्युर्न तु मन्त्रिणः॥ (अर्थ० 1.3.7.3)</blockquote>महाभारत के अनुसार कुलीन, विद्वान, सर्वशास्त्रनिपुण, कृतज्ञ, बलवान, जितेन्द्रिय, स्वदेशवासी, स्वामिभक्त आदि गुणों से युक्त पुरुष को अमात्य बनाना चाहिये।
    
===जनपद॥ District===
 
===जनपद॥ District===
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*राज्य के इन सात अंगों के अन्तर्गत यदि किसी एक में भी विकार आ जाए तो राज्य का पतन निश्चित है।
 
*राज्य के इन सात अंगों के अन्तर्गत यदि किसी एक में भी विकार आ जाए तो राज्य का पतन निश्चित है।
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== निष्कर्श ==
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==निष्कर्श==
    
==उद्धरण==
 
==उद्धरण==
 
[[Category:Hindi Articles]]
 
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[[Category:Arthashastra]]
 
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