हारीत के व्यवहार-सम्बन्धी पद्यावतरणों की चर्चा अपेक्षित है। स्मृति चन्द्रिका के उद्धरण में आया हैं- <blockquote>स्वधनस्य यथा प्राप्तिः परधनस्य वर्जनम्। न्यायेन यत्र क्रियते व्यवहारः स उच्चयते॥</blockquote>उन्होंनें इस प्रकार व्यवहार की परिभाषा की है। नारद की भाँति हारीत ने भी व्यवहार के चार स्वरूप बताये हैं। जैसे-धर्म, व्यवहार, चरित्र एवं नृपाज्ञा हारीत, वृहस्पति एवं कात्यायन के समाकालीन लगते हैं।
+
हारीत के व्यवहार-सम्बन्धी पद्यावतरणों की चर्चा अपेक्षित है। स्मृति चन्द्रिका के उद्धरण में आया हैं- <blockquote>स्वधनस्य यथा प्राप्तिः परधनस्य वर्जनम्। न्यायेन यत्र क्रियते व्यवहारः स उच्चयते॥</blockquote>उन्होंनें इस प्रकार व्यवहार की परिभाषा की है। नारद की भाँति हारीत ने भी व्यवहार के चार स्वरूप बताये हैं। जैसे-धर्म, व्यवहार, चरित्र एवं नृपाज्ञा हारीत, वृहस्पति एवं कात्यायन के समाकालीन लगते हैं। हरिताचार्य ने तप और ज्ञान के सम्मिश्रण को बहुत अच्छे प्रकार से समझाया है - <blockquote>यथा रथो अश्व हिंसास्तु ताहश्वो रथि हिना कारा। एवं तपश्च विद्या च संयुतं भेषजं भवेत॥ (हा० स्मृ० 6/9) </blockquote>जिस प्रकार घोड़े के बिना रथ सारथी के बिना घोड़े के समान है, अर्थात दोनों ही बेकार हैं। उसी प्रकार तप और ज्ञान का उचित समन्वय ही औषधि के गुण के समान सभी लोगों के कल्याण में सहायक होगा।