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===काव्यसमस्यापूरणम् ॥ Kavya samasya purana===
 
===काव्यसमस्यापूरणम् ॥ Kavya samasya purana===
 
समस्यापूर्ति या पादपूर्ति प्राचीन भारत की एक मनोरंजक काव्य-क्रीडा रही है जिसमें समस्या के रूप में दिये गये किसी एक पाद (चरण) के आधार पर शेष तीन चरणों की रचना करनी होती है। आशुकवि इस कला में विशेष निपुण होते थे। इस कला के माध्यम से काव्यरचना का अभ्यास, मनोरंजन और राजसभाओं में सम्मान की प्राप्ति होती थी। गोष्ठी समवायों में ऐसी काव्य समस्यायों की पूर्ति नागरकवृत्त का एक सहज अंग था
 
समस्यापूर्ति या पादपूर्ति प्राचीन भारत की एक मनोरंजक काव्य-क्रीडा रही है जिसमें समस्या के रूप में दिये गये किसी एक पाद (चरण) के आधार पर शेष तीन चरणों की रचना करनी होती है। आशुकवि इस कला में विशेष निपुण होते थे। इस कला के माध्यम से काव्यरचना का अभ्यास, मनोरंजन और राजसभाओं में सम्मान की प्राप्ति होती थी। गोष्ठी समवायों में ऐसी काव्य समस्यायों की पूर्ति नागरकवृत्त का एक सहज अंग था
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मृगया, मल्लविद्या आदि व्यायामिकी विद्याओं आदि का ज्ञान भी एक कला है। शरीर को स्वस्थ रखने के लिये इस विद्या का ज्ञान आवश्यक है। मृगया की प्रशंसा करते हुये महाकवि कालिदास कहते हैं-<blockquote>मेदश्छेदकृशोदरं लघु भवत्युत्थानयोग्यं वपुः सत्त्वानामपि लक्ष्यते विकृतिमच्चित्तं भयक्रोधयोः। उत्कर्षः स च धन्विनां यदिषवः सिध्यन्ति लक्ष्ये चले मिथ्यैव व्यसनं वदन्ति मृगयामीदृग् विनोदः कुतः ।।</blockquote>कादम्बरी में स्नान से पूर्व महाराज शूद्रक द्वारा व्यामामशाला में व्यायाम किये जाने वर्णन हुआ है। इस प्रकार स्वास्थ्य और सौन्दर्य, आत्मोत्कर्ष और विजय, इन सभी उपर्युक्त तीन विद्याओं से साधा जाता था। परमानन्द की उपलब्धि को ही जीवन का चरम लक्ष्य मानने वाली भारतीय संस्कृति चतुःषष्टि कलाओं के माध्यम से दैनन्दिन जीवन में भी आनन्द की उपासना करती रही है, क्योंकि महाशिव की आद्याशक्ति महामाया इस जगत् को प्रपञ्चित करती हैं, सदानन्द ही जिनका आहार है। ललितास्तवराज में कहा गया है-<blockquote>क्रीडा ते लोकरचना सखा ते चिन्मयः शिवः । आहारस्ते सदानन्दो वासस्ते हृदये सताम् ।।</blockquote>
 
मृगया, मल्लविद्या आदि व्यायामिकी विद्याओं आदि का ज्ञान भी एक कला है। शरीर को स्वस्थ रखने के लिये इस विद्या का ज्ञान आवश्यक है। मृगया की प्रशंसा करते हुये महाकवि कालिदास कहते हैं-<blockquote>मेदश्छेदकृशोदरं लघु भवत्युत्थानयोग्यं वपुः सत्त्वानामपि लक्ष्यते विकृतिमच्चित्तं भयक्रोधयोः। उत्कर्षः स च धन्विनां यदिषवः सिध्यन्ति लक्ष्ये चले मिथ्यैव व्यसनं वदन्ति मृगयामीदृग् विनोदः कुतः ।।</blockquote>कादम्बरी में स्नान से पूर्व महाराज शूद्रक द्वारा व्यामामशाला में व्यायाम किये जाने वर्णन हुआ है। इस प्रकार स्वास्थ्य और सौन्दर्य, आत्मोत्कर्ष और विजय, इन सभी उपर्युक्त तीन विद्याओं से साधा जाता था। परमानन्द की उपलब्धि को ही जीवन का चरम लक्ष्य मानने वाली भारतीय संस्कृति चतुःषष्टि कलाओं के माध्यम से दैनन्दिन जीवन में भी आनन्द की उपासना करती रही है, क्योंकि महाशिव की आद्याशक्ति महामाया इस जगत् को प्रपञ्चित करती हैं, सदानन्द ही जिनका आहार है। ललितास्तवराज में कहा गया है-<blockquote>क्रीडा ते लोकरचना सखा ते चिन्मयः शिवः । आहारस्ते सदानन्दो वासस्ते हृदये सताम् ।।</blockquote>
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== उद्धरण ==
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[[Category:Kala]]
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[[Category:64 Kalas]]
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